(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुधारीकरण की आवश्यकता”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 120 ☆
☆ वैचारिक तरक्की☆
युक्त, अभियुक्त, प्रयुक्त, संयुक्त, उपयुक्त ये सब कहने को तो आम बोलचाल के हिस्से हैं किंतु इनके अर्थ अनेकार्थी होते हैं। कई बार ये हमारे पक्ष में दलील देते हुए हमें कार्य क्षेत्र से मुक्त कर देते हैं तो कई बार कटघरे में खड़ा कर सवाल-जबाब करते हैं।
क्या और कैसे जब प्रश्न वाचक चिन्ह के साथ प्रयुक्त होता है तो बहुत सारे उत्तर अनायास ही मिलने लगते हैं। पारखी नजरें इसका उपयोग कैसे हो इस पर विचार- विमर्श करने लगतीं हैं। त्योहारों व धार्मिक किरदारों के साथ छेड़छाड़ मिथ्या कथानक बना देते हैं। क्रमशः विकास अच्छी बात है किंतु जो ऐतिहासिक धरोहर हैं, इतिहास हैं, हमारे संस्कार से जुड़े तथ्य हैं उनमें मनमानी करना किसी भी हद तक सही नहीं कहा जा सकता।
स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी लिखना व उसके अनुरूप चित्रांकन कर आम जनता को बरगलाना क्या सकारात्मक विचारधारा को तोड़ने जैसा नहीं होगा। सबका सम्मान हो इसके लिए किसी आधारभूत स्तम्भों को तोड़ना- मरोड़ना नहीं चाहिए। सूरज को पश्चिम से निकालना, धूप को शीतल करना, चंद्रमा को कठोर बताना क्या सही होगा। इससे हमारे आगे का भविष्य एक ऐसे दो राहे पर खड़ा मिलेगा जो ये नहीं समझ पायेगा की जो बातें हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं वो सही हैं या जो फिल्में दिखाती हैं वो? वैसे भी धार्मिक आदर्शों को कार्टून द्वारा मनोरंजन के नाम पर बदल कर रख दिया गया है। एक प्रश्न आप सभी से है कि क्या इस तरह के बदलाव हमारे लिए उचित होंगे। वैचारिक तरक्की के नाम पर कहीं हम अपना अस्तित्व तो नहीं खो देंगे?
खैर कुछ भी हो अपनी संस्कृति से अवश्य जुड़ें। अच्छा साहित्य पढ़ें और पढ़ाएँ क्योंकि यही आपको उचित- अनुचित का भान कराएगा।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक बाल कथा –“जबान की आत्मकथा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 121 ☆
☆ बाल कथा – जबान की आत्मकथा ☆
“आप मुझे जानते हो?” जबान ने कहा तो बेक्टो ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया. तब जबान ने कहा कि मैं एक मांसपेशी हूं.
बेक्टो चकित हुआ. बोला, ” तुम एक मांसपेशी हो. मैं तो तुम्हें जबान समझ बैठा था.”
इस पर जबान ने कहा, ” यह नाम तो आप लोगों का दिया हुआ है. मैं तो आप के शरीर की 600 मांसपेशियों में से एक मांसपेशी हूं. यह बात और है कि मैं सब से मजबूत मांसपेशी हूं. जैसा आप जानते हो कि मैं एक सिरे पर जुड़ी होती हूं. बाकी सिरे स्वतंत्र रहते हैं.”
जबान में बताना जारी रखो- मैं कई काम करती हूं. बोलना मेरा मुख्य काम है. मेरे बिना आप बोल नहीं सकते हो. अच्छा बोलती हूं. सब को मीठा लगता है. बुरा बोलती हूं. सब को बुरा लगता है. इस वजह से लोग प्रसन्न होते हैं. कुछ लोग बुरा सुन कर नाराज हो जाते हैं.
मैं खाना खाने का मुख्य काम करती हूं. खाना दांत चबाते हैं. मगर उन्हें इधरउधर हिलानेडूलाने का काम मैं ही करती हूं. यदि मैं नहीं रहूं तो तुम ठीक से खाना चबा नहीं पाओ. मैं इधरउधर खाना हिला कर उसे पीसने में मदद करती हूं.
मेरी वजह से खाना स्वादिष्ट लगता है. मेरे अंदर कई स्वाद ग्रथियां होती है. ये खाने से स्वाद ग्रहण करती है. उन्हें मस्तिष्क तक पहुंचाती है. इस से ही आप को पता चलता है की खाने का स्वाद कैसा होता है?
जब शरीर में पानी की कमी होती है तो मेरे द्वारा आप को पता चलता है. आप को प्यास लग रही है. कई डॉक्टर मुझे देख कर कई बीमारियों का पता लगाते हैं. इसलिए जब आप बीमार होते हो तो डॉक्टर मुंह खोलने को कहते हैं. ताकि मुझे देख सकें.
मैं दांतों की साफसफाई भी करती हूं. दांत में कुछ खाना फंस जाता है तब मुझे सब से पहले मालूम पड़ता है. मैं अपने खुरदुरेपन से दांत को रगड़ती रहती हूं. इस से दांत की गंदगी साफ होती रहती है. मुंह में दांतों के बीच फंसा खाना मेरी वजह से बाहर आता है.
मेरे नीचे एक लार ग्रंथि होती है. इस से लार निकलती रहती है. यह लार खाने को लसलसा यानी पानीदार बनाने का काम करती है. इसी की वजह से दांत को खाना पीसने में मदद मिलती है. मुंह में पानी आना- यह मुहावरा इसी वजह से बना है. जब अच्छी चीज देखते हो मेरे मुंह में पानी आ जाता है.
कहते हैं जबान लपलपा रही है. या जबान चटोरी हो गई. जब अच्छी चीजें देखते हैं तो जबान होंठ पर फिरने लगती है. इसे ही जबान चटोरी होना कहते हैं. इसी से पता चलता है कि आप कुछ खाने की इच्छा रखते हैं.
यदि जबान न हो तो इनसान के स्वाभाव का पता नहीं चलता है. वह किस स्वभाव का है? इसलिए कहते हैं कि बोलने से ही इनसान की पहचान होती है. यदि वह मीठा बोलता है तो अच्छा व्यक्ति है. यदि कड़वा या बेकार बोलता है तो खराब व्यक्ति है.
यह सब कार्य मस्तिष्क करवाता है. मगर, बदनाम मैं होती हूं. मन कुछ सोचता है. उसी के अनुसार मैं बोल देती हूं. इस कारण मैं बदनाम होती हूं. मेरा इस में कोई दोष नहीं होता है.
जबान इतना बोल रही थी कि तभी बेक्टो जाग गया. जबान का बोलना बंद हो गया.
‘ओह! यह सपना था.’ बेक्टो ने सोचा और आंख मल कर उठ बैठा. उसे पढ़ कर स्कूल जाना था. मगर उस ने आज बहुत अच्छा सपना देखा था. वह जबान से अपनी आत्मकथा सुन रहा था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न था.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है विजयदशमी पर्व पर विशेष रचना “पहले खुद को पाठ पढ़ाएँ…”)
☆ तन्मय साहित्य # 152 ☆
☆ विजयदशमी पर्व विशेष – पहले खुद को पाठ पढ़ाएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ सलमा जमाल जी द्वारा नवरात्र पर्व पर रचित विशेष रचना “कुष्मांडा देवी… ”।
साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 41
नवरात्र पर्व विशेष – कविता – कुष्मांडा देवी- — डॉ. सलमा जमाल
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा श्रंखला “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)
☆ कथा कहानी # 51 – Representing People – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सत्तर के दशक में ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित फिल्म आई थी, “नमकहराम” राजेश खन्ना,अमिताभ बच्चन,ए.के.हंगल और रेखा की.राजेश खन्ना उस वक्त के सुपर स्टार थे और अमिताभ नये उभरते सितारे.फिल्म में दो किरदार थे,दोनों बहुत गहरे मित्र,कॉलेज के सहपाठी, एक के पिता अमीर उद्योगपति और दूसरा हमारी सत्तर के दशक की फिल्मों का नायक जो आमतौर पर गरीब परिवार का ही होता था और इस फिल्म में पिता से भी वंचित.फिल्म के अंत में इस पात्र की मृत्यु हो जाती है. फिल्म आनंद के आनंद भी राजेश खन्ना ही थे जो फिल्म के क्लाइमेक्स में मरकर भी किरदार को अमर कर गये थे.अमिताभ बच्चन के अंदर छुपे भावी महानायक के पांव ,पालने में यानी इस फिल्म से ही नज़र आने लगे थे.कुछ फिल्में थियेटर से बाहर निकलने के बाद भी दिलोदिमाग से निकल नहीं पातीं.आनंद और डॉक्टर भास्कर के पात्रों ने फिल्म आनंद को अपने युग की अविस्मरणीय फिल्म बना दिया.नायक ने मृत्यु का वरण किया पर पात्र और फिल्म दोनों ही अमर हो गये.जब ऋषिकेश मुखर्जी फिल्म नमकहराम बना रहे थे तो उन्होंने सुपर स्टार राजेश खन्ना को दोनों भूमिकाएं ऑफर की ,राजेश खन्ना ने “आनंद ” की सफलता से प्रभावित होकर ,गरीब युवक की भूमिका चुनी जो अंत में नियोजित दुर्घटना में काल कलवित हो जाता है.ये फिल्म भी बहुत सराही गई, अमिताभ बच्चन ने अपने उद्योगपति पुत्र के किरदार को अपने कुशल अभिनय से जीवंत कर दिया और दर्शकों की पसंद बन गये.फिल्म नमकहराम एक फिल्म नहीं आहट थी एक सुपर स्टार के उदय होने और दूसरे सुपर स्टार के जाने की.ये कहानी थी उम्मीदों के परवान चढ़ने की और अहंकार के कारण एक सुपर स्टार के शिखर से पतन की ओर बढ़ने की.नमकहराम फिल्म की कहानी का उत्तरार्द्ध एक छद्म मज़दूर नेता के हृदय परिवर्तन पर केंद्रित था.शिक्षा पूर्ण करने के बाद जब अमिताभ अपने पिता की फैक्ट्री संभालने आते हैं तो उनके उग्र स्वभाव का सामना होता है मज़दूर नेता ए.के.हंगल से जो अपने साथियों की मांगों के संदर्भ में अमिताभ को संगठन की ताकतका एहसास करा देते हैं उद्योगपति पुत्र का अहम् ये बरदाश्त नहीं कर पाता और एक कुटिल नीति के तहत राजेश खन्ना को एक उभरते हुये मज़दूर नेता के रूप में प्रत्यारोपित किया जाता है जो रहता तो मज़दूरों की बस्ती में है पर यारी निभाने के कारण बैठता है पूंजीपतियों की गोद में.जो मांगे हंगल लेकर आते हैं वो नामंजूर और फिर वही इस प्लांटेड नेता की छद्म उग्रता के कारण मान ली जाती हैं.कुछ पाना,भले ही षडयंत्र हो पर इस राजेश खन्ना के पात्र को लोकप्रिय बनाता है जो अंततः हंगल को यूनियन के चुनावों में पराजित कर देता है.ये प्रायोजित विजय,लगती तो है पर वास्तविक जीत नहीं होती क्योंकि इसका आधार ही व्यक्तिगत स्वार्थ और षडयंत्र होते हैं.पर समय के साथ जब राजेश खन्ना, मज़दूर बस्ती में रहकर उनकी जिंदगी, उनकी समस्याओं से रूबरू होते हैं तो न केवल उन्हें मजदूर नेता हंगल की निष्ठा, समर्पण और मेहनत का अहसास होता है बल्कि उनके पात्र का हृदय परिवर्तन होता है.हंगल उन्हें सच्चाई का रास्ता दिखाते हैं और ये नकली नेता,एक संवेदनशील प्रतिनिधित्व की ओर कदम दर कदम सफर तय करता है.जब अमिताभ अभिनीत पात्र का इस संवेदनशील प्रतिनिधि से सामना होता है तो आक्रोश और आहत अमिताभ, राजेश खन्ना के लिये जो शब्द प्रयुक्त करते हैं वो होता है “नमक हराम”पर हम और आप जिन्होंने बहुत कुछ अनुभव किया है,अच्छी तरह समझते हैं कि निष्ठा और समर्पण क्या है और छद्म प्रतिनिधित्व क्या है.सवाल तो हमेशा यही रहता है कि चाहे वो फिल्म हो या वास्तविकता, कि ये नमक रूपी ऊर्जा और शक्ति कहां से मिलती है.इस ऊर्जा और शक्ति के स्त्रोत की उपेक्षा ही है नमक रूपी विश्वासघात.अंतहीनता ही इसकी विशेषता है क्योंकि युद्घ काल की संभावना कभी समाप्त नहीं होती.ये शायद अंत नहीं है.
संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी द्वारा आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।