हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्वान चर्चा

विश्व में उन सभी स्थानों पर जहां मानव जाति पाई जाती है, श्वान भी साथ में ही बसते हैं। महाभारत ग्रंथ में भी युधिष्ठिर और उनके श्वान भक्ति का संदर्भ आज भी लिया जाता हैं।

महाभारत का आरंभ और अंत भी श्वान कथा से ही होता हैं।                             

प्रातः और सायं भ्रमण के समय यहां अमेरिका की धरती पर भी अपने मालिकों के साथ भ्रमण करते हुए पाए जाते हैं। हमारे देश में अमीरों के श्वान तो उनके सेवकों के भरोसे ही रहते हैं। कुछ सेवक तो उनके दूध में पानी मिला कर हेराफेरी करने में भी अग्रणी होते हैं, और उनको उद्यान में घुमाने के समय चैन को बेंच से बांध कर स्वयं व्हाट्स ऐप में हमारे जैसे फुरसतियों  के किस्से पढ़ते रहते हैं।

यहां पर श्वान को भ्रमण के समय चैन/ रस्सी बांध कर ही ले जाना अनिवार्य हैं। यहां अधिकतर श्वानोंं की चैन पतंग की चरखी नुमा यंत्र से नियंत्रित रहती हैं। ढील देने से चैन की लंबाई बढ़ जाती हैं।         

श्वानों   की नई नई नस्लें देख कर आश्चर्य  भी होता हैं। बस दिल में एक कसक है, यहां हमारे देश जैसे सड़कों पर घूमते हुए  कारों के पीछे दौड़ते हुए श्वान नहीं दिखे, शायद देसी श्वान की नस्ल को यहां की जलवायु में जीवन असंभव होगा। हमारे देश के अमीर लोग तो ठंडे प्रदेशों के श्वान के लिए पूर्णतः वातानुकूलित व्यवस्था करवा लेते हैं। हो सकता है, यहां के अमीर भी हमारे यहां के देसी श्वान पालते हो और उनके लिए गर्म जलवायु की व्यवस्था करवा लेते हों।

श्वान को घर से बाहर घुमाने लाए हुए सभी व्यक्तियों के हाथ में प्लास्टिक की थैली देखकर प्रथम तो अजीब सा प्रतीत हुआ, बाद में देखा इसका उपयोग उसके द्वारा त्यागे हुए मल को उठाने के लिए किया जाता हैं। सफाई  को बनाए रखने में ये एक महत्वपूर्ण व्यवस्था हैं। कुछ स्थानों पर मुफ्त प्लास्टिक थैली उपलब्ध भी होती हैं। हमारे देश के श्वान पालक इन सब से कब संज्ञान लेंगें?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #158 ☆ खट्याळ वारा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 158 ?

☆ खट्याळ वारा… 

दुसऱ्यासाठी भरून माझं मन येईल का ?

नभासारखं मातीत ते विरून जाईल का ?

 

कधीतरी या देहाच माझ्या झाड होईल का ?

तरूसारखी शीतल छाया देता येईल का ?

 

माझ्यामधला खट्याळ वारा श्वास होईल का ?

हृदयी थोडीशी जागा मज घेता येईल का ?

 

दीन दुबळ्यांची भूक समजून घेईल का ?

जात्यामधली भरड थोडी होता येईल का ?

 

पार करुनी दगड धोंडे जाता येईल का ?

शुद्ध वाहते तशीच माझी नदी होईल का ?

 

कोकिळ गातो तसेच मला गाता येईल का ?

लता, रफीचा आवाज मला होता येईल का ?

 

डबक्यातून बाहेर मला जाता येईल का ?

मिठीत सागरा तुझ्या मला येता येईल का ?

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग 10 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

 

? विविधा ?

☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग – 10 ☆ सौ. अमृता देशपांडे  

” श्यामची आई ” या साने गुरुजींच्या पुस्तकाच्या प्रस्तावनेत आचार्य प्र.के.अत्रे लिहितात,” साने गुरुजींनी श्यामची आई हे पुस्तक आपल्या आसवांनी लिहून काढले. त्यातले प्रत्येक अक्षर न् अक्षर गुरुजींनी गहिवरल्या अंतःकरणाने आणि डबडलेल्या डोळ्यांनी लिहिले आहे. त्यातले प्रत्येक वाक्य गळ्यातून अन् दाबून ठेवलेल्या हुंदक्यातून निर्माण झाले आहे.

गुरुजींच्या जीवनाचा झरा शक्य तितका निर्मळ ठेवण्याची आटोकाट काळजी तिने घेतली. मन कशाने स्वच्छ करता येईल ? अश्रूंनी…म्हणून अश्रूंचे हौद परमेश्वराने डोळ्यांजवळ भरून ठेवले आहेत.’ असुवन जल सींच सींच प्रेमवेलि बोई ‘ हा अश्रूंच्या पाण्याने मन शुध्द करून त्यात प्रेम आणि भक्ती ची वेल वाढवण्याचा मीराबाईचा मंत्र गुरूजींना त्यांच्या आईनेच शिकवला. आपल्या जीवनवेलीला आत्मशुद्धीच्या आसवांचे शिंपण घालावयाला आईने गुरुजींना लहानपणापासून शिकवले. अश्रूंचा इतका उदात्त आणि सुंदर अर्थ कालातीत आहे,
” मिळतिल कवने, मिळतिल दुर्मिळ तत्त्वांचे बोल
दिव्य अश्रूंनो! तुम्हांपुढति परि
ते सगळे फोल……

समाप्त 🙏🏻

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 108 – सुमित्र के दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके सुमित्र के दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 108 – सुमित्र के दोहे  ✍

 

हे ! चेतन हे! ज्योतिर्मय, परम शक्ति के रूप ।

कितनी संज्ञा,विशेषण, कितने विविध स्वरूप।।

*

राम रूप में पधारे, कृष्ण रूप अवतार ।

राधा, मीरा, जानकी, रूपों का विस्तार।।

*

कठिन ज्ञान की साधना, निर्गुण का संधान ।

रूप लुभाता ह्रदय को , करुणा कृपा निधान।।

*

राघव माधव तुम्हीं हो, सृष्टि चेतना केंद्र ।

तुम ही विराजे प्रलय में, करुणा जगत गजेंद्र।।

*

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 110 – “इस अतृप्ति के महासमर में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –इस अतृप्ति के महासमर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 110 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “इस अतृप्ति के महासमर के” || ☆

सभी सदस्यों को इस घर के

बोझ पिता जी थे

मन बहलाने को बच्चों का-

रोज, पिता जी थे i

 

सब के तानों का हुजूम

उन पर टूटा करता

सदा ठीकरा अगर बुरा

उन पर फूटा करता

 

अपनी आँखों में उदासियाँ

और हँसी मुख पर

इस घर की सारी खुशियों

की खोज पिता जी थे

 

बाहर के कमरे में लेटे

रहते खटिया पर

दरवाजे, चबूतरे के

पत्थर के पटिया पर

 

रहें खाँसते भोजन की

अनवरत प्रतीक्षा में

इस अतृप्ति के महासमर

के भोज पिता जी थे

 

चौथा चरण डसे जाता

सम्मान प्रतिष्ठा को

किन्तु कभी कम नहीं किया

घर के प्रति निष्ठा को

 

और सूर्य सा आभा-मंडल

थे बिखेर देते

पूरे घर की गरिमाओं का

ओज पिता जी थे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

29-09-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 157 ☆ “गांधी का भूगोल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – “गांधी का भूगोल”)  

☆ कथा कहानी # 157 ☆ “गांधी का भूगोल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हूबहू एकदम गांधी की शक्ल, गांधी जैसा माथा, गांधी जैसी चाल, चश्मा तो बिल्कुल गांधी जैसा ओरिजनल, गांधी जैसी नाक, चलता ऐसे जैसे साक्षात गांधी चल रहे हों,उसका उठने बैठने के तरीके में मुझे गांधी जी दिख जाते। वह अक्सर गांधी जैसी लाठी लिए मेरे आफिस के सामने से गुजरता, गांव भर के गाय बैल भैंस लेकर जंगल की ओर चराने रोज ले जाता। जब वह लाठी टेकते यहां से निकलता तो स्कूल जाते गांव के बच्चे उसे देखकर गांधी.. गांधी.. कहकर चिढ़ाते और वह भी खूब चिढ़ता, बच्चों को पत्थर मारने दौड़ता, गाली बकते हुए उन्हें डराने की कोशिश करता, गांव की नई उमर की बहू बेटियां लोटा लेकर खेतों तरफ जाते हुए उसकी इस हरकत से हंसती, मुझे भी यह सब दृश्य देखकर मजा आता। 

दूर दराज के गांव में गांधी जैसा हमशक्ल,या अमिताभ बच्चन जैसा हमशक्ल चलता फिरता दिख जाए तो बाहरी आदमी का  रोमांचित हो जाना स्वाभाविक है जिसने फिल्म में गांधी को देखा हो,या गांधी की जीवनी पढ़ी हो।

मेरे लिए यह गांव नया था,दो तीन महीने पहले शहर से इस गांव में ट्रांसफर हुआ था,रुरल असाइनमेंट करने के लिए। बियाबान जंगल के बीच मुख्य सड़क से दूर छोटा सा गांव था, और ऐसे गांव में गांधी जैसे हमशक्ल के दर्शन हो जाएं तो मेरे लिए अजूबा तो था। वह सुबह सुबह जानवरों को लाठी से हांकता रोज दिख जाता जब हम आफिस खोलकर बाहर बैठते।बच्चे गांधी.. गांधी.. चिल्लाने लगते, वह भरपूर चिढ़ता, मारने को पत्थर उठाता,गाली बकते हुए आगे बढ़ जाता। बच्चों के साथ मुझे भी मजा आता, असली गांधी याद आ जाते। वैसे मैंने भी ओरिजनल गांधी को जिन्दा या चलते फिरते नहीं देखा, कैसे देखता जब गांधी को गोली मारी गई थी उसके बीस साल बाद हम धरती पर आये थे।पर बचपन से दिल दिमाग में गांधी जी छाये रहते, जहां भी उनके बारे में कुछ पढ़ने मिलता बड़े चाव से पढ़ते और दूसरों को भी बताते।

एक दिन बड़ा अजीब हुआ,जब वह आफिस के सामने से गुजर रहा था बच्चे दौड़ दौड़ कर गांधी.. गांधी…चिल्लाने लगे,वह भरपूर चिढ़ रहा था,गाली बक रहा था, मैं बहुत ज्यादा रोमांचित हो उठा और मैं भी बच्चों के साथ गांधी.. गांधी.. चिल्लाने लगा।

अचानक वह आश्चर्य के साथ रुक गया, मुड़कर मेरी तरफ उसने ऊपर से नीचे तक कई बार देखा फिर हताशा और निराशा के साथ मेरे पास आकर बोला – बाबू आप तो पढ़े लिखे और समझदार इंसान हैं मैं अपढ़,गंवार,मूर्ख और गरीब हूं। पिछले कुछ सालों से गांव भर के बच्चे जबरन गांदी…गंधी… गंदी कह कहकर मुझे चिढ़ाते हैं,मेरा जीना हराम किए रहते हैं अपमान के घूंट पी पी कर मैं चुप रहता हूं,ऐसा मुझमें क्या गंदा है जो ये लोग गांदी..गंधी… गन्दी कहकर मुझे चिढ़ाते रहते हैं और आज आप भी बड़े मजे लेकर मुझे चिढ़ाने की शुरुआत कर रहे हैं।

मेरे अंदर करुणा की नदी फूट गई थी, मैं समझ गया कि ये आदमी गांधी से परिचित नहीं हैं, कैसे होता, पढ़ा लिखा कुछ था नहीं, बचपन से गांव के जानवरों को लेकर जंगल चला जाता रहा और रात को थका हारा झोपड़ी में सो जाता रहा होगा। मैंने उससे माफी मांगते हुए बताया कि बच्चे उसे जो गांधी गांधी कहकर चिल्लाते हैं उसका कारण जानते हो ?

वह लपककर बोला -बाबू जी ये गांधी क्या बला है? मैंने उसे बताया कि गांधी का मतलब होता है वह महान व्यक्तित्व जिसने देश को आजादी दिलाई थी, गांधी का मतलब होता है ईमानदारी, निष्ठा, लगन….

गांधी का मतलब होता है त्याग, बलिदान, देशभक्ति…..

अचानक मैंने देखा वह मूर्ति की तरह अकड़ गया था, उसे छूकर देखा वो बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया था, और जब तक मैं उसे संभालता वह गिर कर मर चुका था…..। फिर थोड़ी देर मेरे अन्दर पछतावे का लावा बहता रहा, मुझे लगा कि उसे गांधी का असली मतलब नहीं बताना चाहिए था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 100 ☆ # माता ! तेरा ही सहारा है… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “#माता ! तेरा ही सहारा है…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 100 ☆

☆ # माता ! तेरा ही सहारा है… # ☆ 

अंधकार में जग सारा है

दुःख दर्द का मारा है

भक्तों ने तूझे पुकारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

धरती पर कितना पाप बढ़ गया

अहंकार कुछ के सर चढ़ गया

सत्य कदम कदम पर हारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

घर घर में तेरी ज्योत जल रही

भक्ति भाव से तेरी पूजा चल रही

हाथ जोड़े तेरे दर पे

भक्त बेचारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

एक वर्ग कितना शोषित है

जोर ज़ुल्म से कितना पीड़ीत है

ढूंढ रहा  वह किनारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

मनोकामना तू पूरी कर दें

सब भक्तो की झोली भर दें

पोंछ लें इन आंखों से

जो बहती धारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

नवरात्रि के यह पावन नौ दिन

भक्ति, व्रत, पूजा करते है हर दिन

हर मंदिर में गूंजता

माता का जैकारा है

माता! तेरा ही सहारा है

 

इन अधर्मी यों को दंड दे माता

भक्तों को शक्ति प्रचंड दें माता

हर युग में, तूने ही तो तारा है

माता! तेरा ही तो सहारा है /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 100 ☆ परोपकार… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 99 ? 

☆ परोपकार… ☆

एक फुलपाखरू मला

स्पर्श करून गेलं

अचानक बिचारं ते

माझ्यावर आदळलं

कसेतरी स्वतःला

सावरत सावरत

उडण्याचा स्व-बळे,

प्रयत्न करू लागलं.

त्याला मी जवळ घेतलं     

स्नेहाने अलगद ओंजळीत भरलं

झाडाच्या फांदीवर

हळूच सोडून दिलं…

त्याला सोडलं जेव्हा, तेव्हा

ओंजळ माझी रंगली

पाहुनी त्या रंगाला मग

कळी माझीच खुलली

हसू मला आलं विचार सुद्धा आला,

ना मागताच मला फुलपाखराने त्याचा रंग विनामूल्य बहाल केला, 

परोपकार कसा असावा याचा निर्भेळ पुरावा मला मिळाला…!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प,भाग ३८ परिव्राजक १६.बेळगांव ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प भाग ३८ परिव्राजक १६.बेळगांव ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजी १६ ते २७ऑक्टोबर १८९२ मध्ये बेळगांवमुक्कामी आले. महाराष्ट् म्हणजे तेव्हाचा मुंबई प्रांत ! तेव्हा बेळगांव मुंबई प्रांतात होते. कोल्हापूरहून भाटे यांचे नावाने गोळवलकर यांनी परिचय पत्र दिलं होतंच.  श्री. सदाशिवराव भाटे वकिलांकडे स्वामीजींचं अत्यंत अगत्यपूर्वक स्वागत झालं. त्यांना पाहताक्षणीच हा नेहमीप्रमाणे एक सामान्य संन्यासी आहे अशी समजूत इथेही झाली असली तरी त्यांचं काहीतरी वेगळेपण आहे हे ही त्यांना जाणवत होतंच. भाटे कुटुंबीय आणि बेळगावातले इतर लोक यांना कधी वाटलं नव्हतं की काही दिवसांनी ही व्यक्ती जगप्रसिद्ध होईल. बेळगावचे हे श्री भाटे वकिल यांचे घर म्हणजे विदुषी रोहिणी ताई भाटे यांच्या वडिलांचे घर होय.

मराठी येत नसल्यामुळे भाटे कुटुंबीय स्वामीजींशी इंग्रजीतच संवाद साधत. त्यांच्या काही सवयी भाटेंना वेगळ्याच वाटल्या म्हणजे खटकल्या. पहिल्याच दिवशी स्वामीजींनी जेवणानंतर मुखशुद्धी म्हणून विडा मागितला. त्याबरोबर थोडी तंबाखू असेल तरी चालेल म्हणाले. संन्याशाची पानसुपारी खाण्याची सवय पाहून भाटेंकडील मंडळी अचंबित झाली. आणखी एक प्रश्न भाटे यांना सतावत होता तो म्हणजे, स्वामीजी शाकाहारी आहेत मांसाहारी? शेवटी न राहवून त्यांनी स्वामीजींना विचारलंच की आपण संन्यासी असून मुखशुद्धी कशी काय चालते? स्वामीजी मोकळेपणाने म्हणाले, “मी कलकत्ता विद्यापीठाचा पदवीधर आहे. माझे गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस यांच्यामुळे माझे जीवन जरी संपूर्ण बदलले असले तरी, त्याधीचे माझे आयुष्य मजेत राहणार्‍या चारचौघा तरुणांप्रमाणेच गेले आहे. संन्यास घेतल्यावर इतर सर्व गोष्टी सोडल्या असल्या तरी या एक दोन सवयी राहिल्या आहेत. पण त्या फारशा गंभीर स्वरुपाच्या नाहीत. म्हणून राहू दिल्या आहेत. पण आपोआपच सुटतील”. आणि शाकाहारीचं उत्तर पण भाटेंना मिळालं. “ आम्ही परमहंस वर्गातील संन्यासी. जे समोर येईल त्याचा स्वीकार करायचा. काहीही मिळालं नाही तर उपाशी राहायचं”.

खरच असं व्रत पाळणं ही कठीण गोष्ट होती. मनाचा निश्चय इथे दिसतो. स्वामीजी सलग पाच दिवस अन्नावाचून उपाशी राहण्याच्या प्रसंगातून गेले होते. भुकेमुळे एकदा चक्कर येऊन पडलेही होते. तर कधी राजेरजवाडे यांच्या उत्तम व्यवस्थेत सुद्धा राहिले होते. पण त्यांना कशाचाही मोह झाला नव्हता हे अनेक प्रसंगातून आपल्याला दिसलं आहे. जातीपातीच्या निर्बंधाबद्दल ही शंका विचारली तेंव्हा, आपण मुसलमानांच्या घरीही राहिलो आहोत आणि त्यांच्याकडे जेवलोही आहोत असे सांगितल्यावर, हे संन्यासी एका वेगळ्या कोटीतले आहेत हे समजायला वेळ लागला नाही.

आज लॉकडाउनच्या  काळात दारूची दुकाने उघडली तर परमोच्च आनंद झाला लोकांना. जणू उपाशी होते ते. १०ला उघडणार्‍या दुकानांसमोर सकाळी सातपासूनच उभे होते लोक ! दुकानांसमोर दारू घ्यायला रांगाच रांगा लागल्या होत्या. यात स्त्रिया सुद्धा मागे नव्हत्या. खांद्याला खांदा देऊन लढत होत्या !  हे दृश्य पाहिल्यावर स्वामी विवेकानंदांच्या शिकवणुकीची किती आवश्यकता आहे हे जाणवून मन खिन्न होते. 

एकदा भाटेंचा मुलगा संस्कृत भाषेचा अभ्यास करताना पाणीनीच्या अष्टाध्यायीतील सूत्र म्हणत होता. त्यातल्या चुका स्वामीजींनी दुरुस्त करून सांगितल्या तेव्हा या अवघड विषयाचे ज्ञान असणे ही सामान्य गोष्ट नाही असे भाटे यांना वाटले. एक दिवस काही परिचित व्यक्तींना एकत्र करून त्यांनी स्वामीजींबरोबर संभाषण घडवून आणले. त्यात एक इंजिनियर होते. ‘धर्म हे केवळ थोतांड आहे, शेकडो वर्षांच्या रूढी चालीरीती यांच्या बळावर समाजमनावर त्याचे प्रभूत्त्व टिकून राहिले आहे किंबहुना लोक केवळ एक सवय म्हणून धार्मिक आचार पाळत असतात’, असं त्यांचं मत होतं. पण स्वामीजींनी बोलणे सुरू केल्यावर त्यांना ह्या युक्तिवादाला तोंड देणं अवघड जाऊ लागलं. आणि अखेर शिष्टाचाराच्या मर्यादेचा  भंग झाल्यावर भाटेंनी त्यांना (म्हणजे एंजिनियर साहेबांना) थांबवलं. पण स्वामीजींनी अतिशय शांतपणे परामर्श घेतला. ते प्रक्षुब्ध झाले नाहीत. कोणाच्याही वेड्यावाकड्या बोलण्याने सुद्धा स्वामीजी अविचल राहिले होते. याचा उपस्थित सर्वांवर परिणाम झाला.या चर्चेचा समारोप करताना स्वामीजी म्हणाले, “ हिंदुधर्म मृत्युपंथाला लागलेला नाही हे आपल्या देशातील लोकांना समजावून सांगण्याची वेळ आली आहे. एव्हढच नाही तर, सार्‍या जगाला आपल्या धर्मातील अमोल विचारांचा परिचय करून देण्याची आवश्यकता आहे. वेदान्त विचाराकडे एक संप्रदाय म्हणून पहिले जाते हे बरोबर नाही. सार्‍या विश्वाला प्रेरणा देण्याचे सामर्थ्य त्या विचारात आहे हे समजून घेण्याची आवश्यकता आहे”. स्वामीजींची ही संभाषणे आणि विचार ऐकून बेळगावचा सर्व सुशिक्षित वर्ग भारावून गेला होता.                                                                          

बेळगावातील मुक्कामात रोज सभा होऊ लागल्या. शहरात स्वामीजींच्या नावाची चर्चा होऊ लागली. वेगवेगळ्या विषयांवर सभांमध्ये वादविवाद व चर्चा झडत असत. स्वामीजी न चिडता शांतपणे प्रश्नांची उत्तरे देत. कोपरखळ्या मारत विनोद करत स्वामीजी समाचार घेत असत.

या बेळगावच्या आठवणी वकील सदाशिवराव भाटे यांचे पुत्र गणेश भाटे यांनी लिहून ठेवल्या आहेत. स्वामीजी त्यांच्याकडे आले तेंव्हा ते (गणेश)  बारा-तेरा वर्षांचे होते. स्वामीजीच्या वास्तव्याने पावन झालेली त्यांची ही वास्तू भाटे यांनी रामकृष्ण मिशनला दान केली आहे. स्वामी विवेकानंदांनी या मुक्कामात वापरलेल्या काठी, पलंग, आरसा या वस्तू ते राहिले त्या खोलीत आठवण म्हणून जपून  ठेवल्या आहेत, त्या आपल्याला आजही  पाहायला मिळतात.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 31 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 31 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

४८.

  पाखरांच्या मंजुळ स्वरांनी

  प्रभातसमयीचा शांत सागर उचंबळला,

  रस्त्याकडे ची फुलं आनंदानं नाचू लागली.

  ढगाढगांच्या पोकळीमधून परमेश्वराची

  दौलत पसरू लागली.

 

 मात्र या साऱ्यांकडे दुर्लक्ष करून

आम्ही आमच्या उद्योगाला लागलो.

आनंदगीतं आम्ही गायली नाहीत की

खेळलो- बागडलो नाही.

बाजारहाट करायला आम्ही गावात गेलो नाही.

 

एकही शब्द आम्ही बोललो नाही,

हसलो नाही की वाटेवर रेंगाळलो नाही.

 

जसजसा समय जाऊ लागला तसतसा

आमच्या चालण्याचा वेग वाढत गेला.

 

सूर्य माथ्यावर आला.

बदकं सावलीत जाऊन गाऊ लागली.

दुपारच्या उन्हात गिरकी खात

पिकली पानं नाचू लागली.

केळीच्या झाडाखाली बसून

मेंढपाळांची पोरं पेंगू लागली,

स्वप्नात हरवून गेली

आणि मी जलाशयाशेजारच्या गवतावर

थकलेली गात्रं पसरली.

 

माझे सोबती उपहासानं मला हसून

ताठ मानेनं न थांबता घाईघाईनं निघून गेले.

विसाव्यासाठी ते विसावले नाहीत.

दूरच्या निळाईत ते दिसेनासे झाले.

त्यांनी किती कुरणं पार केली,

किती टेकड्या पार केल्या,

दूरचे किती मुलूख पादाक्रांत केले!

 

हे शूरवीरांनो, अनिर्बंध पथाच्या प्रवाशांनो,

तुमचा जयजयकार असो!

 

तुमची चेष्टा- मस्करी ऐकून,

त्वेषाने मला उठावेसे वाटले,

पण माझ्यात उभारी नव्हती.

 

अंधूक आनंदाच्या सावलीत

सुखी अवमानाच्या गहराईत मी लुप्त झालो.

सूर्यवलयांकित पोपटी निराशेनं

माझ्यावर पखरण घातली.

 

मी कशासाठी प्रवासास

निघालो होतो कुणास ठाऊक?

विनासायास माझं मन मात्र

छाया आणि संगीत यांना शरण गेलं.

 

आणि शेवटी, जाग आल्यावर मी डोळे उघडले, तेव्हा तू माझ्या बाजूला उभा होतास.

माझी निद्रा तुझ्या स्मितानं

काठोकाठ भरून टाकत होतास.

 

मात्र मला भिती वाटली होती. . .

तुझ्याकडे नेणारा हा प्रवास. . .

किती दीर्घ पल्ल्याचा,

कंटाळवाणा आणि कठीण असेल?

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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