हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 120 ☆ ~ श्री राधे ~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित “~ श्री राधे ~ ”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 120 ☆ 

☆ ~ श्री राधे ~ ☆

[अभिनव प्रयोग – मुक्तिका – (प्रथमाक्षर स्वर)]

अनहद-अक्षर अजर-अमर हो श्री राधे

आत्मा आकारित आखर हो श्री राधे

 

इला इडा इसरार इजा हो श्री राधे

ईक्षवाकु ईश्वर ईक्षित हो श्री राधे

 

उदधि उबार उठा उन्नत हो श्री राधे

ऊब न ऊसर उपजाऊ हो श्री राधे

 

एक एक मिल एक रंग हो श्री राधे

ऐंचातानी जग में क्यों हो श्री राधे? 

 

और न औसर और लुभाओ श्री राधे

थके खोजकर क्यों ओझल हो श्री राधे

 

अंत न अंतिम ‘सलिल’ कंत हो श्री राधे

अ: अ: आहा छवि अब हो श्री राधे

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१४-१२-२०१९

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #152 ☆ कविता – डाक्टर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 152 ☆

☆ ‌कविता – डाक्टर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

डाक्टर भगवान था,

                 शैतान बन गया।

वो रहम दिल इंसान था,

                   हैवान बन गया।

 क्या हो! अगर जो डाक्टर,

                 इंसान बन जाए।

चरित्र उसका बाइबिल, गीता,

                   कुरआन बन जाए।

रोता हुआ जो कोई,

                   उनके दर पे आए।

पाए सुकून दिल में,

             हंसता हुआ घर जाए।

दिल को करार आए,

             इनकी सूरत देखकर।

 श्रद्धा से सिर झुके,

             इनकी रहमत देख कर।

पाए खुदा का दर्जा,

              इंसानियत के नाते।

बन के फकीर सबको,

              जो अपनी खुशियां बांटें।

चरक सुश्रुत संहिता,

              लिख गए जो भाई।   

धनवंतरी जी बन कर,

                   करते जगत भलाई ।।

पर आज के कुछ डाक्टर,

                   दौलत को पूजते हैं।

बन राह के लुटेरे,

                   लोगों को लूटते हैं।

सींचते हैं अपने बाग को,

                   लोगों के खून से।

भरते हैं अपनी झोलियां,

                     लूटे गए धन से।

वो चीरते जिगर है,

                   गुर्दे भी बेचते हैं।

जिंदों की बात छोड़िए,

                  मुर्दा भी बेचते हैं।

इंसानियत के दुश्मन,

                 इंसान के हत्यारे।

मुर्दे भी कैद करते,

                 पैसों के लिए प्यारे।

कर्मों पे आज इनके,

                 मानवता रो रही है।

ये पत्थर दिल है भाई,

                  सद्भावना नहीं है।

खाते कमीशन खूब,

               भगवान से न डरते।

पैसों की खातिर देखो,

               हर काम गलत करते।

 इनकी वजह से पेशा,

                 बदनाम हो रहा है।

इनके वजह से सम्मान,

         ‌         नीलाम हो रहा है।।

चाहत भी इनकी बदली,

                इनको दया न आई।

वो डाक्टर थे भाई,

                   ये डाक्टर है भाई।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – फांदीवरती बसला पक्षी – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– फांदीवरती बसला पक्षी – ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

1

फांदीवरती येऊन  बसला

इवला  वेडाराघू  पक्षी

कोवळ्या पानाने रेखली

नाजूक  सुंदर  नक्षी

अंगावरची नक्षी पाहून

राघू मनात  सुखावला

मिरवत  नक्षी इवला पक्षी

काही वेळ तिथे स्थिरावला

2

पिवळ्या पिसांचा

ताज शिरावर

हिरवाई  लेऊन

इवल्या अंगावर

क्षणभर विसावे

राघू फांदीवर

आपसूक उमटे

नक्षी अंगभर

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #169 – 55 – “तुम भी अपने गरेबाँ में झाँककर देखो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “तुम भी अपने गरेबाँ में झाँककर देखो…”)

? ग़ज़ल # 55 – “तुम भी अपने गरेबाँ में झाँककर देखो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हम भी हँसते हैं ग़म छुपाने के लिये,

सब ग़म होते नहीं दिखाने के लिये।

कलम पहले लड़ती थी सच की लड़ाई,

अब खूब चलने लगी कमाने के लिये।

उसने दबी ज़ुबान कहा कि वो ख़ुश है,

फिर फ़ोन किया ख़ुशी जताने के लिए।

अपराध ने पुलिस से कर ली सगाई,

राजनीति का रिश्ता निभाने के लिए।

चालाक औलाद बूढ़ी माँ को छोड़ आये,

वृद्धाश्रम की व्यवस्था दिखाने के लिए।

तुम भी अपने गरेबाँ में झाँककर देखो,

आतिश लिखता  नाम सजाने के लिए।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 46 ☆ मुक्तक ।।जो पत्थर चोटों से तराशा जाता…।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।जो पत्थर चोटों से तराशा जाता…।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 46 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। जो पत्थर चोटों से तराशा जाता… ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

रोज  लाख  शुकराना अदा  करो  भगवान  का।

अनमोल  चोला  दिया  कि  हमको इंसान  का।।

दुआएं  लो और  दुआएं  दो इस एक जिंदगी में।

जानो छिपा इसी में खजाना हमारे नेक नाम का।।

[2]

दूसरे से पहले अपना मूल्यांकन तुम रोज करो।

कहां भीतर कमी तुम्हारे इसकी तुम खोज करो।।

भावना,  संवेदना  आभूषण हैं अच्छे मानव के।

कभी किसी को देकर दर्द मत तुम मौज  करो।।

[3]

कर्म वचन वाणी से सदा सबका तुम उद्धार करो।

किसी सहयोग का तुम मत कभी अपकार करो।।

यह मानव  जीवन मिला जीने  और जिलाने को।

मानवता  रहे  जीवित  तुम   यह उपकार करो।।

[4]

क्षमा करने से बड़ा कोई और   दान नहीं है।

स्वयं जानने से बड़ा कोईऔर ज्ञान नहीं है।।

रोज खुद को गढ़ते रहो तुम छेनी हथौड़ी से।

जानो बुराई करने सेआसान कोई काम नहीं है।।

[5]

छीनने से देने वाला ही बस महान कहलाता है।

आचरण में उतारने वाला ही विद्वान कहलाता है।।

जो खुशी देते हैं हम दुगनी होकर वापिस आती।

पत्थर चोटों से तराशा जाता भगवान कहलाता है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 111 ☆ ग़ज़ल – “’सद्भाव औ’ सहयोग में ही…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “’सद्भाव औ’ सहयोग में ही…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #111 ☆  ग़ज़ल  – “’सद्भाव औ’ सहयोग में ही…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हो रहा उपयोग उल्टा अधिकतर अधिकार का

शान्ति-सुख का रास्ता जबकि है पावन प्यार का।

 

जो जुटाते जिंदगी भर छोड़ सब जाते यहीं

यत्न पर करते दिखे सब कोष के विस्तार का।

 

सताती तृष्णा सदा मन को यहाँ हर व्यक्ति के

पर न करता खोज कोई भी सही उपचार का।

 

लोभ, लालच, कामनायें सजा नित चेहरे नये

लुभाये रहते सभी को सुख दिखा संसार का।

 

वसन्ती मौसम की होती आयु केवल चार दिन

मनुज पर फँस भूल जाता लाभ षुभ व्यवहार का।

 

ऊपरी खुशियां किसी की भी बड़ी होतीं नहीं

फूल झर जाते हैं खिलकर है चलन संसार का।

 

इसलिये चल साथ सबके प्यार का व्यवहार कर

सिर्फ पछतावा ही मिलता अन्त अत्याचार का।

 

सहयोग औ’ सद्भावना में ही सदा सब सुख बसा

नहीं कोई इससे बड़ा व्यवहार है उपहार का।      

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 132 – बाळ गीत – रोजच जाईन शाळेला ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 132 – बाळ गीत – रोजच जाईन शाळेला ☆

पाटी-पुस्तक नवीन दप्तर घेऊन रोजच वेळेला ।

मित्रासंगे हासत खेळत जाईन रोजच शाळेला।।धृ।।

 

शाळा माझी भासे मजला जणू जादूची ही नगरी ।

तशीच ताई प्रेमळ भारी अवतरली जणू सोनपरी ।

लहान होवून तेही खेळे धमाल येते शिकण्याला ।।१।।

 

चित्र जुळुन गोष्टी बनती अक्षरांच्या गाड्या पळती ।

समान आकार समान चित्रे हसत खेळत येथे जुळती

अक्षर-अक्षर जुळवून आम्ही स्वतःच शिकलो वाचायला ।।२।।

 

गणिताची ही मुळी न भीती काड्या आणि बियाही जमती

नोटा नाणी काड्या मोजता गणिताची ही कोडी सुटती।

वजन मापे घड्याळ काटे आम्हीच घेतो फिरवायला।।३।।

 

झाडे वेली फुले नि पाने बागही लागली फुलायला।

फुलपाखरे अणिक पक्षी येतील आम्हा भेटायला।

त्यांच्यासंगे खेळ खेळूनी रंगत आली शिकण्याला ।।४।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘सृजनवलय’ –  श्री अशोक भांबुरे ☆ परिचय – सुश्री कांचन हृषिकेश पाडळकर ☆

सुश्री कांचन हृषिकेश पाडळकर

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ ‘सृजनवलय’ –  श्री अशोक भांबुरे ☆ परिचय – सुश्री कांचन हृषिकेश पाडळकर ☆ 

(हिन्दी राष्ट्रभाषा पंडित, उर्दू भाषा अभ्यासक, प्रोफेशनल फोटोग्राफर किंचित कवयित्री अशी स्वतःची ओळख देणाऱ्या सुश्री कांचन हृषिकेश पाडळकर यांनी ‘सृजनवलय’ या पुस्तकाचा परिचय खालीलप्रमाणे करून दिला आहे.)

पुस्तक – सृजनवलय

भाषा – मराठी

लेखक – कवि अशोक भांबुरे

प्रकाशक – संवेदना प्रकाशन

किंमत – रु.150

पृष्ठसंख्या – 96

पुस्तक परिचय- सुश्री कांचन पाडळकर

कवी अशोक भांबुरे हे माझ्या साहित्यिक ग्रुपचे सदस्य आहेत. तसेच अनेक काव्य संमेलनांमध्ये मी त्यांच्या कविता आणि गझल ऐकत असते. त्यांच्या कविता आणि गझल ह्या नेहमीच मनाला भावतात. नुकताच प्रकाशित झालेला त्यांचा तिसरा काव्यसंग्रह “सृजनवलय” वाचला आणि अपेक्षेप्रमाणे या काव्यसंग्रहाने काव्यरसाची तहान ही पूर्णतः भागवली.

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

कवी अशोक भांबुरे यांची कविता निसर्ग, प्रेम,  सामाजिक-राजकीय दरी,  सामाजिक रूढी, स्त्री,  जाती-धर्माच्या भिंती यावर भावनिक भाष्य करते. पुस्तकाचं पहिलं पान उलटलं आणि  त्यांची पहिली गझल आवडली.

वेदना सांभाळते माझी गझल

अन  व्यथा कुरवाळते माझी गझल

*

कोण कुठला जात नाही माहिती

माणसांवर भाळते माझी गझल

स्त्री स्वतः विषयी, तिच्या दुःखाविषयी, वेदने विषयी लिहिते. पण कवी किंवा लेखकाने जेव्हा स्त्रीची वेदना अधोरेखित  केलेली असते तेव्हा खऱ्या अर्थानं त्या कवीने, त्या लेखकाने आपल्या भावनिक पातळीवर त्या गोष्टींची अनुभूती घेतलेली असते.

या काळया बुरख्यामागे मी किती दडविले अश्रू

पुरुषांची मक्तेदारी  नडताही आहे आले नाही

स्त्री आयुष्यभर आपल्या घरादारासाठी संसारासाठी झटत असते. समर्पणाची भावना निसर्गाने स्त्रीला  जन्मताःच बहाल केलेली आहे. स्त्री घराबाहेर पडते, नोकरी करते, संसार सांभाळते. पण हल्ली नोकरी न करणाऱ्या स्त्रीबद्दल, ” ती काय घरीच असते”  अशी सामान्य विचारधारा समाजाची काही ठिकाणी दिसून येते.  तिचं घरासाठी, मुलांसाठी दिवसभर कामात बिझी असणं  याकडे कोणी लक्ष देत नाही. यावर भाष्य करणारे काही  काही शेर सुंदरपणे मांडले आहे…..

कामाला ती जात कुठेही नाही बहुदा

सातत्याने घरी स्वतःची हाडे दळते

*

 वेदनेतुनी प्रकाश देते कुणा कळेना

समई मधली वात जळावी तशीच जळते

कवीने स्त्री विषयी फक्त व्यथाच मांडलेली नाही,तर आशावादही व्यक्त केला आहे…

काळासोबत झुंजायाला तयार नारी

लेक लाडकी पुढे पुढे ही जावी म्हणतो

जाती-धर्माच्या भिंती आणि समाजातील रूढी, प्रथा, परंपरा  यावर लक्ष केंद्रित करणारे ही काही शेर आहेत.जसे…..

धर्माचे छप्पर होते, जातीच्या विशाल भिंती

मज सागरात प्रीतीच्या बुडता ही आले नाही

*

सारे पसंत तरीही फुटली न का सुपारी

नाकारताच हुंडा सारे उठून गेले

समाजात वावरणाऱ्या माणसाची वृत्ती आणि विरोधाभास यावरचा पुढील शेर वाचला आणि मला  अचानक काही लोकांची आठवण झाली.

ढोंगीपणा करूनी आयुष्य भोगतो जो

त्याचे म्हणे घराणे गावात थोर आहे

कवीचे मन फक्त माणूस आणि त्याच्या भावना इतकच फक्त सीमित नसतं. तर त्यामध्ये असते संवेदना. ती मग फुलांविषयी असेल, झाडांविषयी असेल, पक्षी-प्राण्यांविषयी असेल. हल्ली खरी   जंगलं नष्ट होऊन माणसाने जे सिमेंटची जंगलं उभारली आहेत  त्याचा वन्य जीवनावर  झालेल्या परिणामाबद्दल कवी  म्हणतात…

वस्तीत श्वापदांच्या वस्ती उभारतो अन्

मिळते जनावरांना शिक्षा कठोर आहे

या पुस्तकातली खूप आवडलेली एक  गझल, त्यातले काही शेर आपल्यासमोर मांडते…..

देखणेपणास गंध, शाप हाच वाटतो

फास देऊनी फुलास, माळतात माणसे

*

बाण लागला उरात, जखम चिघळली अशी

मीठ नेमके तिथेच चोळतात माणसे

*

घातपात, खून हेच कर्म मानतात जे

साळसुद ही स्वतःस समजतात माणसे

*

द्रौपदी पणास लाव डाव थांबवू नको

हा जुगार रोजचाच खेळतात माणसे

समाजात वावरणाऱ्या मानवरुपी दानवाचा विनाश होण्याची प्रार्थना ही कवी करतात. कवी म्हणतात की….

नटराजा तू पुन्हा एकदा कर रे तांडव

टाक चिरडूनी धरती वरचे सारे दानव

कवी अशोक भांबुरे यांची कविता प्रेरणेने भरलेली आहे. सामाजिक वैयक्तिक जीवनाचे दुःखच फक्त कुरवाळत न बसता  स्वतःच्या वर्तनाचा, कष्टाचा माणसाने वेध घ्यावा. आपला दृष्टिकोन विधायक असावा या विचाराचा कवी  आग्रह करताना दिसून येतं….

घमेंड नाही जीत ठेवली होती त्याने

ससा हरला आणि जिंकले येथे कासव

*

कष्टात राम आहे त्याला कसे कळावे

हा राम राम म्हणतो नुसताच खाटल्यावर

*

दगडात सावळ्या तू दिसतो जरी मनोहर

माहित हे मला ही तू सोसलेस रे घण

ईश्वराच्या सुंदर मूर्तीलाही पूजनीय होण्यासाठी अनेक घाव सोसून आकारलला यावं लागतं. तेव्हाच मूर्ती समोर सगळे नतमस्तक होतात.

वादळातही दोर प्रीतीचा तुटला नाही

भिरभिरणारा पतंग माझा कटला नाही

 प्रेमाचा प्रांत ही कवीने खूप सुंदररित्या रेखाटला आहे. सृजनवलया काव्यसंग्रहात एकूण 95  कविता आहेत. मुक्तछंदातल्या कविता गझल लावणी, गोंधळ जोगवा तसेच शिवराय आणि जिजाऊंच्या कर्तुत्वावर  केलेल्या रचनाही सुंदर आहेत. पुस्तकाला माजी साहित्य संमेलनाध्यक्ष श्रीपाल सबनीस यांची प्रस्तावना आहे.

साहित्याने पोट भरत नसतं अशा प्रकारच्या प्रतिक्रिया काहीवेळा साहित्यिकाला येत असतात. व्यक्त होणे ही माणसात असलेली नैसर्गिक बाब आहे. साहित्याने पोट भरत नसलं तरी एका सुज्ञ आणि रसिक माणसाला साहित्यिक भूक असते. साहित्य हे केवळ मनोरंजनाचे साधन नसून त्याद्वारे विधायक बदल आपल्या जीवनात आणि समाजात व्हावे ही साहित्यिकाची अपेक्षा असते. असे विचार कवी अशोक भामरे यांनी आपल्या मनोगतात व्यक्त केले आहे. काही शेर….

या तापसी युगाचा आता करूच अंत

हृदयात एक एक जागा करून संत

*

 देऊ प्रकाश स्वप्ने बदलून टाकू सर्व

 इतकेच स्वप्न माझे व्हावे इथे दिगंत

या पुस्तकातील सर्वच काव्य प्रकार छान आहेत. पण यातल्या गझल  मला विशेषतः खूप जास्त भावल्या.

ते माझं गजले वर मनस्वी प्रेम असल्यामुळे असेल बहुदा.

सुचल्या न चार ओळी हे रक्त आटल्यावर

आली बघा गझल ही काळीज फाटल्यावर

बऱ्याचदा आपल्या आजूबाजूला उत्तम लेखक वावरत असतात, उत्तम कवी वावरत असतात पण आपल लक्ष फारसं त्यांच्याकडे जात नाही. प्रसिद्ध होण्याची हातोटी त्यांच्याकडे नसावी बहुतेक, अन् ना ही प्रसिद्धीची हाव असावी. तर  बऱ्याचदा काहींचं लिखाण मात्र जिमतेम असूनही प्रसिद्ध कसं व्हावं यांची कला अवगत असल्यामुळे ते बऱ्याच लोकांपर्यंत पोहोचतात. आपल्या आजूबाजूला जी माणसं साधी सरळ आहेत. ते लिखाणातनं व्यक्त होत असतात. लिखाणही उत्तम असतं.त्यांना कोणत्याही काही अपेक्षा नसतात  तरी ते रसिकांपर्यंत पोहोचू शकत नाही. त्यामुळे साहित्याची जाण असणाऱ्या आपण सर्व आणि साहित्यिकाची कदर करणारे आपण सर्व परिचित नसलेल्या पण चांगल्या साहित्यिकाची ओळख करून द्यावी म्हणून हा पुस्तक परिचय आपणापर्यंत पोहोचवते. चांगली माणसं चांगल्या माणसांपर्यंत पोहोचवावी आणि जुळावी असं मला मनापासून वाटतं.

© सुश्री कांचन हृषिकेश पाडळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #162 ☆ जुनून बनाम नफ़रत ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख जुनून बनाम नफ़रत। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 162 ☆

☆ जुनून बनाम नफ़रत ☆

‘जुनून जैसी कोई आग नहीं/ नफ़रत जैसा कोई दरिंदा नहीं/ मूर्खता जैसा कोई जाल नहीं/  लालच जैसी कोई धार नहीं’ महात्मा बुद्ध की यह उक्ति अत्यंत कारग़र है, जिसमें संपूर्ण जीवन-दर्शन निहित है। जुनून वह आग है, जो मानव को चैन से बैठने नहीं देती; निरंतर गतिशीलता प्रदान कर अथवा कुछ कर गुज़रने का संदेश देती है। यदि मानव ठीक दिशा की ओर अग्रसर होता है, तो वह अपनी मंज़िल पर पहुंच कर ही सुक़ून पाता है; रास्ते में आने वाली बाधाओं का साहस-पूर्वक सामना करता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति घृणा भाव से ग्रस्त है, तो वह मूर्खतापूर्ण व्यवहार करता है तथा स्वयं को विश्व का सबसे अधिक बुद्धिमान इंसान समझता है।

नफ़रत वह दरिंदा है, जो पलभर में मानव के मनोमस्तिष्क को दूषित कर परिंदे की भांति उड़ जाता है और उस स्थिति में वह सोचने-समझने की शक्ति खो बैठता है। वह राह में आने वाली आगामी बाधाओं, आपदाओं व दुष्वारियों का सामना नहीं कर पाता। वह मूर्ख उस जाल में फंस कर रह जाता है। वह औचित्य-अनौचित्य व सही-गलत का भेद नहीं कर पाता और उसे अपने अतिरिक्त सब निपट बुद्धिहीन नज़र आते हैं। वह और अधिक धन-संपदा पाने के चक्कर में उलझ कर रह जाता है और उसकी लालसा व हवस का कभी भी अंत नहीं होता। जब व्यक्ति उसके व्यूह अर्थात् मायाजाल में उलझ कर रह जाता है और सब संबंधों को नकारता हुआ चला जाता है। उस स्थिति में दूसरों की पद-प्रतिष्ठा उसके लिए मायने नहीं रखती। अपने सपनों को साकार करने के लिए वह रास्ते में आने वाले व्यक्ति व बाधाओं को हटाने व समूल नष्ट करने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता।

इसीलिए मानव को सकारात्मक सोच रखते हुए लक्ष्य निर्धारित करने तथा उसे प्राप्त करने के लिए जी-जान से जुट जाने की सीख दी गयी है। अब्दुल कलाम जी ने मानव को जागती आंखों से स्वप्न देखने व बीच राह थक कर न बैठने का संदेश दिया है; जब तक उसे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसलिए महात्मा बुद्ध मानव को करुणा व प्रेम का संदेश देते हुए नफ़रत करने वालों से सचेत रहने की सीख देते हैं, क्योंकि नफ़रत वह चिंगारी है, जो व्यक्ति, परिवार, समाज व पूरे देश में तहलक़ा मचा देती है। धार्मिक उन्माद इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। सो! मानव हृदय में सबके प्रति स्नेह, सौहार्द व प्रेम का भाव होना चाहिए, क्योंकि जहां प्रेम होगा, नफ़रत वहां से नदारद होगी। इंसान को सावन के अंधे की भांति सब ओर हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। इसलिए उसे उसके साए से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि वह उसे कभी भी कटघरे में खड़ा कर सकता है।

लालच बुरी बला है और उस भाव के जीवन में प्रकट होते ही मानव का अध:पतन प्रारंभ हो जाता है। लालची व्यक्ति किसी भी सीमा तक नीचे जा सकता है और उसकी लालसा का कभी अंत नहीं होता। पैसा इंसान को बिस्तर दे सकता है, नींद नहीं; भोजन दे सकता है, भूख नहीं; अच्छे वस्त्र दे सकता है’ सौंदर्य नहीं; ऐशो-आराम के साधन दे सकता है, सुक़ून नहीं। इसलिए मानव का आचार-व्यवहार सदैव पवित्र होना चाहिए, क्योंकि ग़लत ढंग से कमाया हुआ धन मानव को सदैव अशांत रखता है। उसका हृदय सदैव आकुल- व्याकुल व आतुर रहता है। सो! मानव को सत्य की राह पर चलते हुए ग़लत लोगों की संगति का परित्याग कर सबसे प्रेम के साथ रहना चाहिए। संत पुरुषों ने भी मानव को हक़-हलाल की कमाई पर जीवन-यापन करने का उपदेश दिया है, क्योंकि ग़लत ढंग से कमाया हुआ धन जहां बच्चों को दुष्प्रवृत्तियों की ओर धकेलता है, वहीं उन्हें कुसंस्कारित व पथ-विचलित करता है। जुनून वह आग है, जो चिराग बनकर जहां घर को रोशन कर सकती है; वहीं उसे जला कर राख भी कर सकती हैं। उस स्थिति में शेष कुछ भी नहीं बचता। इसलिए कभी ग़लत मत सोचो, न ही ग़लत करो, क्योंकि दोनों स्थितियां मानव को संपूर्णता प्रदान करती हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #161 ☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – शेष ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 161 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – शेष

अंत समय अब आ गया, हुए लंका में पाप।

ब्रह्म सत्य अब हो गया,  मिला बड़ा ही शाप।।

 

 सीता की इस खोज में, हम है तेरे साथ।

मिलजुल कर हम खोजते, रघु का सिर पर हाथ।।

 

सूक्ष्म रूप से आपने, किया लंका प्रवेश।

सोते देख रावण को, आया है आवेश।।

 

चकित हुए यह देख कर, सुना राम का नाम।

रावण के इस राज्य में, कौन कहेगा राम ।।

 

परिचय पाकर आपका, हर्षित हुए हनुमान।

भाई छोटा लंकपति, है विभीषण नाम।।

 

भक्त राम के आप हैं, मैं भी भक्त श्री राम ।

देखा सीता माता को, पता कहां श्रीमान।।

 

सीता मैया सुरक्षित, वाटिका है विशाल।

घेरे रहती राक्षसी, करते नयन सवाल।।

 

कहे विभीषण पवन से, प्रभु से कहो प्रणाम।

चरणों में माथा झुके, विनती है श्री राम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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