हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 143 ☆ मंजिल की तलाश में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 143 ☆

☆ मंजिल की तलाश में ☆

सलाहकार की फौज होने से कोई विजेता नहीं बन जाता, एक व्यक्ति हो पर सच्चा और समझदार हो तो मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। नासमझी के चलते लोग ऐसी टीम गठित कर लेते हैं, जहाँ हर सिक्का खोटा होता है, अब खोटे से कुछ होने से रहा, सो खींचतान करते हुए अपनी जगह पर मशीनी साइक्लिंग करते नज़र आते हैं। ऐसी दशा में वजन भले ही कम हो किन्तु दिशा बदलने से रही।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त द्वारा नए साम्रज्य की स्थापना कर दी किन्तु अविवेकपूर्ण व्यक्ति न तो स्वयं बढ़ेगा न दूसरों को बढ़ने देगा। केवल धक्का- मुक्की के बल पर भला शिखर पर विराजित हुआ जा सकता है।

यदि आपमें नेतृत्व की क्षमता न हो तो जरूरी नहीं कि मुखिया बनें आप ऐसी टीम के साथ जुड़कर कार्य कर सकते हैं जहाँ बुद्धिमत्ता पूर्वक निर्णय लिए जा रहे हों। देश निर्माण में लगे रहना, विश्व बंधुत्व को बढ़ावा, तकनीकी विकास, आर्थिक उदारता के साथ अपने को विश्व का मुखिया बना लेना। कदम दर कदम चलते रहने का ही परिणाम है।

तेरा- मेरा छोड़कर मिल बाँट कर रहना सीखिए। सब कुछ केवल मेरा हो ये प्रवृत्ति जब तक मन से नहीं जायेगी तब तक मानसिक शांति नहीं मिल सकती।  जो लोग साथ रहने की आदत  रखते हैं वे हमेशा मुस्कुराते हुए हर परिस्थितियों का सामना करते जाते हैं।  कोई भी वस्तु या  क्षण स्थायी नहीं होता  इसमें बदलाव होना स्वाभाविक  है अतः किसी वस्तु के प्रति अनावश्यक मोह नहीं पालना चाहिए, कैसे योग्य बनें इस पर चिंतन करते हुए स्वयं को निखारते रहें। अनायास ही जब प्रकृति आपसे दी हुई सुविधाएँ वापस लेने लगे तो समझ जाइये की वक्त बदल रहा है सो अभी भी समय है बदलिए। पुरानी बातों का ढ़िढोरा पीटने से कुछ नहीं होगा।

हर घटना कुछ न कुछ सिखाती है व हमें अवसर प्रदान करती है खुद को सिद्ध करने का। अतः किसी एक क्षेत्र में प्रयास करते रहें जब तक मंजिल न मिल जाए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें’ – श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ जी  की पुस्तक  गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें की समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें’ – श्री लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

पुस्तक- गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें

रचनाकार- लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’

प्रकाशक- सुमन पुस्तक भंडार, सुखीपुर-5, लड़कन्हाँ, सिरहा नेपाल

पृष्ठ संख्या-152

मूल्य-₹250

समीक्षक ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ समीक्षा – गजल संरचना की बेहतरीन पुस्तक ☆

गजल का अपना मिजाज होता है। इसी मिजाज के चलते इसके नियम दृढ़ होते हैं। जिसके परिपालन से गजल में वजन बढ़ जाता है। तभी जाकर बेहतरीन गजल का प्रत्येक शेर अपने आप में संपूर्ण होता है। इसे सुनने के बाद श्रोता आह और वाह कर उठते हैं।

इसी वजह से गजल लिखना, आरंभ में बहुत कठिन कार्य होता है। जब आप इसकी रग-रग से वाकिफ हो जाते हैं तब इससे सरल काव्य रचना कोई नहीं होती है। यही कारण है कि जो एक बार ग़ज़ल लिखना शुरु कर देता है तब वह दूसरी काव्य विधा की ओर नहीं जाता है।

यही वजह है कि प्रत्येक काव्य रचयिता अपने जीवन में एक ना एक बार गजल लिखने की कोशिश करता है। यदि वह इसमें कामयाब हो जाता है तो ग़ज़ल का होकर रह जाता है। यदि इस दौरान अन्य काव्य-रचना लिखता है तो उसमें भी वजन बढ़ जाता है।

इसी कारण से हरेक देश में गजल और उसकी संरचना पर अनेक पुस्तकें लिखी गई है। इसी तारतम्य में हमारे समक्ष नेपाल की एक पुस्तक- गजल की संरचना और नेपाल की हिंदी गज़लें, समीक्षार्थ रूप से रखी हुई है। इस पुस्तक को नेपाल की ग़ज़लकार लक्ष्मण यादव ‘लक्ष्मण’ ने लिखा है।

पुस्तक में नेपाल की हर छोटे-बड़े रचनाकार, हिंदी के समर्थक, कवि, कहानीकार आदि ने अपने पत्रों से इस पुस्तक को आशीर्वाद प्रदान किया है। जो इसके आरंभिक पृष्ठों पर प्रकाशित हैं। यह पुस्तक सात अध्याय और उसके पांच से अधिक उपाध्याय में विभक्त है।

नेपाल में हिंदी की पृष्ठभूमि कैसी है? वहां पर गजल का विकास क्रम किस प्रकार का हुआ है? इस प्रथम अध्याय में गजल, अर्थ, परिभाषा, अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी गजलों के बारे में जानकारी दी गई है।

गजल की बात हो और उसके प्रकार का उल्लेख न किया जाए, यह नहीं हो सकता है। दूसरा अध्याय इसी पर केंद्रित है। जहां पर भाव, तुकान्त, राग-विराग आदि अनेक आधारों पर ग़ज़ल के अंतर को बारीकी से समझाया गया है।

गजल की संरचना का उल्लेख किए बिना ग़ज़ल की पुस्तक अधूरी होती है। जब संरचना की बात हो तो उसकी विशेषता, आंतरिक और बाहरी संरचना का उल्लेख होना बहुत जरूरी होता है। इसे के द्वारा गजल के अंग- मतला, रदीफ काफिया, मिशरा, तखुल्लुम, शेर, मकता और गजल की जमीन को समझा जा सकता है।

गजल की अपनी भाषा है। यह भाषा गजल की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसमें किन शब्दों का कब और कहां उपयोग किया जाता है, यह भी महत्वपूर्ण होता है। इसका भी बारीकी से उल्लेख किया गया है।

गजल का संविधान अलग होता है। इसमें हिंदी काव्य की तरह मात्रा की गणना करने का अपना विधान है। कब और कहां मात्रा को गिराया जाता है? वह किस बहर पर रची जाएगी और उसके बहर के प्रकार क्या है? यह एक ग़ज़लकार ही बता सकता है।

इन्हीं प्रवृत्तियों का प्रस्तुतीकरण इस पुस्तक में किया गया है। साथ ही नेपाल के प्रसिद्ध गजलकारों और उनकी गज़लों को भी इस पुस्तक में शामिल किया गया है। चूंकि इस पुस्तक का लेखक नेपाल का निवासी है इस कारण इस पुस्तक में नेपाल के कुछ विशिष्ट शब्दों का समावेश हो गया है। इसके कारण वे पढ़ते समय हमारे दिमाग में खटकने लगते हैं। क्योंकि वह हमारे लिए नए होते हैं। इसके बावजूद गजल की संरचना समझने व सीखने के लिए यह बेहतरीन पुस्तक है। इसमें दो राय नहीं है।

इस बेहतरीन ग़ज़ल संरचना की पुस्तक लिखने के लिए रचनाकार लक्ष्मण यादव बधाई के पात्र हैं। उन्हें हमारी ओर से हार्दिक साधुवाद।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03-04-2023

मित्तल मोबाइल के पास, रतनगढ़,  जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 

मोबाइल नंबर 7024047675, 8827985775

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 204 ☆ व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य जूम और मीट की बहार है

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 204 ☆  

? व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है… ?

लोकतंत्र में बिना चर्चा कोई काम नहीं होता. सबकी सहभागिता जरूरी है. सहभागिता के लिये मीटिंग आवश्यक हैं. कोरोना जनित नया जमाना वर्चुएल मीटिंग्स का है. जूम और मीट की बहार है.वर्क फ्राम होम का कल्चर फल फूल पनप रहा है. विकास की चर्चाओ के लिये सरकारी और साहित्य की असरकारी मीटिंग्स पोस्ट कोरोना युग में मोबाईल और लैपटाप्स पर ही सुसंपन्न हो रही हैं. जूम पर या गूगल मीट पर मीटींग्स के लिये पहले दिन और समय तय होता है. संबंधितो को व्हाट्सअप ग्रुप्स पर मीटिंग का संदेश दिया जाता है. यदि मीटिंग सरकारी है तब तो बडे साहब के चैम्बर में उनकी सीट के सामने की दीवार पर एक बड़ा सा मानीटर होता है. एक युवा साफ्टवेयर इंजीनियर पहले ब्राडबैंड सिग्नल, बैकग्राउंड  दृश्य और साउंड क्वालिटी चैक करता है. फिर जिन अन्य मातहत कार्यालयों को मीटिंग में जोड़ना होता है, बारी बारी से उन्हें फोन करके उनसे संपर्क करता है जिससे जब साहबों की वास्तविक मीटिंग हो तो बेतार के तार निर्विघ्न जुड़े रहें. नियत समय से कुछ पहले से ही मातहत अपनी प्राग्रेस रिपोर्ट या प्रस्तावों के प्रतिवेदन तैयार करके, अपने कपड़े ठीक ठाक करके कैमरे के सम्मुख विराजमान हो जाते हैं. यदि मीटिंग बड़ी हुई यानी उसमें प्रदेश भर के कार्यालय जुड़ने वाले हुये तो आईडेंटीफिकेशन के लिये मातहत आफिसों के नाम की फलेक्स पट्टिकायें भी लगा दी जातीं है.  इस बीच यदि कोई फरियादी जरुरी से जरूरी काम लेकर भी साहब से मिलना चाहता है तो सफेद ड्रेस में सज्जित दरबान उसे बाहर ही रोक देता है, और थोड़े रोब से बताता है आज साहब हेड आफिस से वीसी मतलब वर्चुएल कांफ्रेंस में हैं. आगंतुक समझ जाता है कि आज साहब पास होकर भी दूर वालों के ज्यादा पास हैं. आज उन तक फरियाद पहुंचाना मुश्किल है.

वर्चुएल मीटिंग को साहित्यकारों ने भी बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया है. योग, नृत्य, ट्यूशन क्लासेज भी जूम और मीट प्लेटफार्म पर सक्सेजफुली चल रही हैं. अब साहित्य की गोष्ठियां मोबाईल से ही निपटा ली जाती है. इनवीटेशन, हाल बुकिंग, मंच माला माईक, चाय नाश्ता, सारी झंझटों से मुक्ति मिल गई है. वरचुएल मीट प्रारंभ होते ही जब अधिकाधिक लोग जुड़े होते हैं, अखबारी न्यूज के लिये स्क्रीन शाट ले लिये जाते हैं.  चतुर लोग धीरे से अपना वीडीयो और माईक बंद करके दूसरे काम निपटा लेते हैं. कुछ तो मीटिंग साउंड भी बंद करके मोबाईल जेब के हवाले कर देते हैं, पर वर्चुएली मीटिंग से जुड़े रहकर समूह के साथ अपनी सालीडेरिटी बनाये रखते हैं. ऐसे साफ्टवेयर फ्रेंडली रचनाकार वर्चुएल बैकग्राउंड में किताबों से भरी लाईब्रेरी का चित्र लगाकर अपना प्रोफाईल कुछ खास बना लेते हैं. जो थोड़ा बुजुर्ग या अधेड़ उम्र के वरिष्ठ या गरिष्ट साहित्यकार होते हैं, यदि वे जूम फ्रेंडली नहीं होते कि मींटिंग के दौरान हैंण्ड रेज कर सकें, माईक चालू या बंद कर सकें और अपना कैमरा सेट कर सकें, तो मदद के लिये वे अपने साथ अपने नाती पोतों या युवा पीढ़ी से बेटे, बहू को पकड़ रखते हैं. यदि सब सैट करके बच्चे खिसक लिये तो ऐसे लोगों की प्रोफाईल पर सीलींग का पंखा देखने मिल सकता है. कभी कभी जब किचन की आवाजें जूम मीटिंग में सुनाई दें तो समझ लें किसी न किसी ऐसे ही व्यक्ति का माईक खुला हुआ है. प्रायः जब किसी ऐसे व्यक्ति के बोलने की बारी आती है तो माईक चालू करते ही वे शुरुवात करते हुये कहते हैं ” मेरी आवाज आ रही है न ! ” तब संचालक को बताना पड़ता है कि, जी हाँ आपकी पूरी आवाज आ रही है. सच तो यह है कि कभी कभार हुये आकस्मिक तकनीकी व्यवधान छोड़ दिये जायें तो फाईव जी के इस जमाने में आवाज तो सबकी पूरी ही आती है, ये और बात है कि सबकी आवाजें सुनी नहीं जातीं.जूम और मीट की बहार है.  वर्चुएल मीटिंग का बड़ा लाभ यही है कि कार्यालयों की मीटिंग में जब डांट पड़ने लगती है तो आवाजें डिस्टर्ब कर ली जातीं हैं, साहित्यिक मीटींग्स में आत्ममुग्धता से भरे व्याख्यान खुद बोलो खुद सुनो बनकर रह जाते हैं क्योंकि आवाज आती तो है पर सुनना न सुनना दूसरे छोर पर बैठे व्यक्ति के हाथ होता है. अच्छी से अच्छी बातें तो हमेशा से हैं आ रही हैं, उन्हें सुन भी लें तो उन्हें ग्रहण करना तो सदा से हम पर ही निर्भर है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 154 ☆ बाल कविता – आर्यन और अनवी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 154 ☆

☆ बाल कविता – आर्यन और अनवी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

आर्यन जी नाना हैं कहते

       अनवी कहती हैं जी नानू।

दोनों ही नाना के प्यारे

      प्राण छिड़कते उन पर नानू।।

 

दोनों करते खेल निराले

         भागें – दौड़ें इधर – उधर को।

निश्छल, सरल, सहज है जीवन

        खुशियों से भर देते घर को।।

        

अनवी जी टीचर बन जातीं

   आर्यन जी हैं पढ़नेवाले।

ट्वन्टी तक गिनती वे बोलें

     ए,बी,सी,डी अ ,आ आले।।

 

कभी बनाते घर गत्ते के

        कभी बने वे स्वयं डॉक्टर।

कभी सफर करते हैं बस में

        कभी करें एरोप्लेन पर।।

 

बचपन के भी सपन सलोने

        बचपन तो लगता चिड़ियाघर।

अनवी भोली, आर्यन नटखट

      वे कभी झगड़ते खूब मगर।।

 © डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #155 ☆ संत रामदास… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 155 ☆ संत रामदास… ☆ श्री सुजित कदम 

नारायण ठोसर हे

समर्थांचे मुळ नाव

राम आणि हनुमान

अंतरीचा घेती ठाव…! १

 

बालपणी ध्यानमग्न

अष्टमित्र सहवास

ज्ञान संपादन कार्य

विश्व कल्याणाचा ध्यास..! २

 

गाव टाकळी नासिक

जपतप अंगीकार

तपश्चर्या रामनाम

दासभक्ती आविष्कार…! ३

 

केली दीर्घ तपश्चर्या

पंचवटी तीर्थ क्षेत्री

रामदास नावं नवे

प्रबोधक तीर्थ यात्री….! ४

 

एकाग्रता वाढवीत

केली मंत्र उपासना

तेरा अक्षरांचा मंत्र

राम नामाची साधना…! ५

 

रघुवीर जयघोष

रामदासी दरबार

दासबोध आत्माराम

मनोबोध ग्रंथकार…! ६

 

दैनंदिन तपश्चर्या

नाम जप तेरा कोटी

रामदासी कार्य वसा

ध्यान धारणा ती मोठी…! ७

 

श्लोक मनाचे लिहिले

आंतरीक प्रेरणेने

दिले सौख्य समाधान

गणेशाच्या आरतीने…! ८

 

श्लोक अभंग भुपाळ्या

केला संगीत अभ्यास

रागदारी ताल लय

सुरमयी शब्द श्वास….! ९

 

रामदासी रामायण

ओव्या समासांची गाथा

ग्रंथ कर्तृत्व अफाट

रामनामी लीन माथा…! १०

 

प्रासंगिक निराशा नी

उद्वेगाचे प्रतिबिंब

वेदशास्त्र वेदांताचे

रामदास रविटिंब….! ११

 

दिली करुणाष्टकाने

आर्त भक्ती आराधना

सामाजिक सलोख्याची

रामभक्ती संकल्पना…! १२

 

शिवराय समर्थांची

वैचारिक देवघेव

साधुसंत उपदेश

आशीर्वादी दिव्य ठेव…! १३

 

पुन्हा बांधली मंदिरे

यवनांनी फोडलेली

देवी देवता स्थापना

सांप्रदायी जोडलेली…! १४

 

वैराग्याचा उपासक

दासबोध नाही भक्ती

दिली अखिल विश्वाला

व्यवहार्य ग्रंथ शक्ती….! १५

 

आत्य साक्षात्कारी‌ संत

केले भारत भ्रमण

रामदास पादुकांचे

गावोगावी संक्रमण…! १६

 

दासबोध ग्रंथामध्ये

गुरू शिष्यांचा संवाद

हिमालयी एकांतात

राम रूप घाली साद…! १७

 

राम मंदिर स्थापना

गावोगावी भारतात

भक्ती शक्ती संघटन

मठ स्थापना जनात….! १८

 

दिले चैतन्य विश्वाला

हनुमान मंदिराने

सिद्ध अकरा मारुती

युवा शक्ती सामर्थ्याने…! १९

 

नाना ग्रंथ संकीर्तन

केले आरत्या लेखन

देवी देवतांचे स्तोत्र

पुजार्चना संकलन…! २०

 

स्फुट अभंग लेखन

श्लोक मनाचे प्रसिद्ध

वृत्त भुंजंग प्रयात

प्रबोधन कटिबद्ध….! २१

 

केले विपुल लेखन

ओवी छंद अभंगांत

कीर्तनाचा अधिकार

दिला महिला  वर्गात….! २२

 

धर्म संस्थापन कार्य

कृष्णातीरी चाफळात

पद्मासनी ब्रम्हालीन

समाधिस्थ रामदास…! २३

 

गड सज्जन गातसे

रामदासी जयघोष

जय जय रघुवीर

दुर पळे राग रोष…! २४

 

माघ कृष्ण नवमीला

दास नवमी  उत्सव

रामदास पुण्यतिथी

भक्ती शक्ती महोत्सव…! २५

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – चिमुकला बाळ – ☆ सौ. जयश्री अनिल पाटील ☆

सौ. जयश्री अनिल पाटील

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – चिमुकला बाळ – ? ☆ सौ. जयश्री अनिल पाटील 

बाळ थकून झोपला

नाही कशाचेच भान

पोटासाठी धडपड

करी असून लहान

चिमुकला जीव त्याचा

जाई दमून भागून

खस्ता सतत खाऊन

गेला अलगद झोपून

शुभ्र फुलांचे गजरे

माळा विकता विकता

हतबल होई कधी

रोज सतावते चिंता

कष्ट करता करता

जीव येई मेटाकुटी

रस्त्यावर मग त्याची

पडे कधी वळकटी

चित्र साभार – सौ. जयश्री पाटील

© सौ. अनिल  जयश्री पाटील

विजयनगर.सांगली.

मो.नं.:-8275592044

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #176 – तन्मय के दोहे – हो यथार्थ पर ध्यान… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है तन्मय के दोहे – हो यथार्थ पर ध्यान… )

☆  तन्मय साहित्य  #176 ☆

☆ तन्मय के दोहे – हो यथार्थ पर ध्यान… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

यश-अपयश के बीच में, बहती जीवन धार।

निश्छल मन करता रहे,  जीव मात्र से प्यार।।

अति वर्जित हर क्षेत्र में, अति का नशा विचित्र।

अति से  दुर्गति ही  सदा,  छिटके सभी सुमित्र।।

कब बैठे सुख चैन से, नहीं  किसी को याद।

कल के सुख की चाह में, आज हुआ बर्बाद।।

फुर्सत मिलती है कहाँ, सबके मुख यह बोल।

बीते  समय  प्रमाद में,  कहाँ समय का मोल।।

फैल रही चारों तरफ, यश की मुदित बयार।

पेड़ सहेगा क्यों भला, म्लान पुष्प का भार।।

ज्यों-ज्यों खिलता पुष्प है, महके रस स्वच्छंद।

रसिक भ्रमर  मोहित  हुए,  पीने को  मकरंद।।

कागज के सँग कलम का, है अलिखित अनुबंध।

प्रीत  पगी   स्याही  मिले,  महके   शब्द   सुगंध।।

                    

आदर्शों की  बात अब,  करना है  बेकार।

छल-छद्मों से घिर गए, हैं आचार-विचार।।

सजा मिले सच बोलते, झूठों की जय कार।

हवा  भाँपकर  जो चले, उसका  बेड़ा  पार।।

जाति धर्म औ’ पंथ के, भेदभाव  को  त्याग।

समता भावों में छिपा, जीवन-सुख अनुराग।।

चिह्न  समय की  रेत पर, बनते मिटते मौन।

पल-पल परिवर्तन करे, वह अबूझ है कौन।।

कौन भरे रस नारियल, सरस संतरे, आम।

एक बीज हो सौ गुना, है ये किसका काम।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 02 ☆ समय है भारी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “समय है भारी…।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 02 ☆ समय है भारी… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

बहुत भीतर तक

समंदर हुआ दूषित

मछलियों पर समय है भारी।

 

किनारों पर बैठकर

रोती लहर है

ज्वार भाटे से डरा

सारा शहर है

 

हवाओं के नम

हुए चेहरे प्रकंपित

झलकती हर ओर लाचारी।

 

मनुजता की लाश पर

गिद्ध मँडराते

तटों पर की साजिशें

जलयान थर्राते

 

यात्रा के पाँव

ठहरे से अचंभित

मंजिलों के ठाँव सरकारी।

 

गुंबदों वाले महल

हैं नाम जिनके

नदी मुड़ती है वहीं

हर घाट जिनके

 

धार है मँझधार

जल सारा प्रदूषित

नाव ढोती व्यथाएँ सारी।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 176 ☆ अस्तित्व… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 176 ?

💥 अस्तित्व… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

तू नसताना उदासवाणे घर दिसते हे

अंगण, गोठा, परसबागही सुनेसुनेसे

पुन्हा परतशी वाटे आता तत्परतेने

आपोआपच दिवे लागती त्या  येण्याने

 असणे होते खूप तुझे बाई मोलाचे   

तू असताना कळले नाही महत्व त्याचे

तू गेल्यावर शांत जाहला गोठा सारा

घालत नाही कुणीच आता ओला चारा

गाई गो-ही फरार झाली  गोठ्यामधली

रांगोळीही कुणी रेखिना रंगभारली

तू गेल्यावर झाले आहे सारे खोटे

मंतरलेली होती आई, तुझीच बोटे

© प्रभा सोनवणे

१६ मार्च २०२३

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “जीवन प्रवास” – (आत्मवृत्त) – सौ. वर्षा महिंद भाबळ ☆ परिचय – सौ. राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “जीवन प्रवास” – (आत्मवृत्त) – सौ. वर्षा महिंद भाबळ ☆ परिचय – सौ. राधिका भांडारकर  

पुस्तकाचे नाव: जीवन प्रवास (आत्मवृत्त)

लेखिका: सौ. वर्षा महेंद्र भाबळ.

प्रकाशक: सौ. अलका देवेंद्र भुजबळ.(न्यूज स्टोरी टुडे)

प्रथम आवृत्ती: डिसेंबर २०२२

पृष्ठे:१३६

किंमत:२००/—

“आयुष्य फार सुंदर आहे.  आयुष्य जगताना प्रत्येकाने त्याकडे पाहण्याचा दृष्टिकोन सकारात्मक ठेवला, तर सर्व मानव जातीला ही दुनिया सुखमय भासेल.”

” सुख आणि दुःख ही जीवन पुस्तकाची दोन पाने आहेत. दुःख सहन करता आलं पाहिजे आणि सुख निर्माण करता आलं पाहिजे.  पण या दोन्ही भावनांची आपण अनुभूती घेतली पाहिजे.”

” कितीही वाटलं तरी, मानवाच्या भावनांचे नाजूक असे स्वाभिमानाचे आवरण कुठे ना कुठे विरतेच.  मग ते स्वाभिमानाचे आवरण कसं जपायचं, कसं वापरायचं नि कसं टिकवायचं हे आपणच ठरवायचं असतं .”

— अशी आणि अशाच प्रकारची सुंदर, जीवनाचे धडे देणारी भाष्ये,  सौ वर्षा महेंद्र भाबळ यांच्या 

‘ जीवन प्रवास ‘ या आत्मकथनपर पुस्तकात वाचायला मिळतात.

वर्षा ताईंचे जीवन प्रवास हे पुस्तक वाचल्यानंतर माझ्या मनात प्रथम विचार आला तो असा की ,आजपर्यंत आत्मवृत्तपर पुस्तके ही  सर्वसाधारणपणे प्रसिद्धी मिळवलेले, विशेषतः कलाकार, नावाजलेले लेखक, राजकीय नेते, चित्रपट क्षेत्राशी संबंधित, किंवा उद्योजक थोडक्यात जे सेलिब्रिटी असतात त्यांचीच वाचली जातात. पण जीवन प्रवास हे पुस्तक वाचल्यानंतर या विचारांना फाटा फुटतो. हा गैरसमज दूर होतो.

 लाखो— करोडो स्त्री पुरुषांसारखं वर्तुळातलं आयुष्य जगणाऱ्या व्यक्तीलाही जर प्रातिनिधिक स्वरूपात 

‘जगणं ‘ या संज्ञेचा विशिष्ट अर्थ सापडला असेल, तर त्याने का लिहू नये? वर्षाताईंनी चाकोरीतल आयुष्य जगत असताना,  जे टिपलं, जे अनुभवलं, आणि त्यातूनच जगण्याच्या अर्थाचा जो प्रामाणिक, अत्यंत बोलका, डोळस शोध घेतला आहे.. त्याचंच प्रतिपादन त्यांनी त्यांच्या आत्मकथनात इतकं सुंदरपणे केलं आहे की, वाचणारा त्यांच्या जीवनाशी त्या संदर्भांशी अगदी सहजपणे  बांधला जातो.  

माणूस कुठल्या कुटुंबात, कुठल्या जातीत, समाजात, गावात , जन्माला आलाय हे महत्त्वाचं नसतंच.  तो कसा जगला आणि त्याने आपल्या जगण्यातून इतरांना काय दिले हेच महत्त्वाचे.  सामान्य— असामान्य, प्रसिद्ध— अप्रसिद्ध, श्रेष्ठ कनिष्ठ, गरीब— श्रीमंत हे सर्व शब्द संदीग्ध  आहेत. प्रत्येकाच्या निरनिराळ्या दृष्टिकोनातून या प्रस्थापित शब्दांचे रूढार्थच बदलू शकतात, याची जाणीव जीवन प्रवास हे पुस्तक वाचताना पावलोपावली होते. 

प्रथम तुमच्यामध्ये जीवनाविषयीची प्रचंड ओढ असायला हवी. तुमच्या ठायी सुप्तपणे असलेल्या अनेक गुणांची तुम्हाला योग्य वेळी ओळख झाली पाहिजे.  आणि सुसह्य जीवनासाठी या गुणांचा कसा वापर करता येईल हेही उमजले पाहिजे.  आणि हे ज्याला जमतं तो वाळवंटातही हिरवळ निर्माण करू शकतो.  रुक्ष पाषाणातूनही एखादा शितल पाण्याचा झरा जन्माला येऊ शकतो, याचा अनुभव हे पुस्तक वाचताना येतो.

.. नव्हे ! तशी मनाची खात्रीच पटते.

वर्षाताईंच्या सामान्य जगण्यातलं असामान्यत्व असं सुरेख दवबिंदू सारखं मनावर घरंगळतं.

जवळजवळ २५  लहान लहान भागातून वर्षाताईंनी त्यांच्या जीवनसफरीतून वेचलेले मोती वाचकाच्या ओंजळीत घातले आहेत.  त्यांचे बालपण, त्यांचे गाव, आई-वडील, भावंडे ,गणगोत,शिक्षण, प्रेमविवाह, वैवाहिक जीवनातले अटीतटीचे प्रसंग, नोकरी, मुलांचे संगोपन नातेसंबंध, समाजाने दिलेली भलीबुरी वागणूक, जोडीदारासोबत चालवलेले अभ्यास वर्ग, विद्यार्थ्यांशी असलेली जिव्हाळ्याची नाती, स्वतःचे छंद, भेटलेले गुरु,  आदर्शवत व्यक्ती, या सर्वांविषयी वर्षाताईंनी यात भरभरून आणि मनापासून लिहिले आहे. आणि ते वाचत असताना एका अत्यंत संवेदनशील, कोमल, मृदू तरीही कणखर जबरदस्त टक्कर देणारी, सर्वांना सांभाळून सोबत घेऊन जगणारी आणि केवळ स्वतःपुरतेच न बघता सतत एक सामाजिक दृष्टिकोन ठेवून  विश्वासाने,चौकस बुद्धीने, कृतज्ञतेने, दिमाखाने जगणाऱ्या व्यक्तीचेच दर्शन होत राहते.  यात कुठलाही अतिरेक नाही. पोकळ शब्दांचा… केवळ ग्लोरी फाय करण्याचा कुठलाही हेतू नाही. हे सारं मनापासून वाटलं म्हणूनच लिहिलं.

आवारातल्या नारळाच्या झाडाची आठवण देतानाही वर्षाताई  एकीकडे सहज म्हणतात,

” देवांना अर्पण केले जाणारे फळ म्हणजे श्रीफळ! कल्पतरूला आपल्या धर्मात खूप महत्त्व आहे. माडाचा प्रत्येक अवयव उपयोगात येणारा आहे. अर्थात्  गुणसंपन्न!  त्या तरूचे गुण आमच्यात रुजावेत, अशी मनी सुप्त इच्छा ठेवून या वृक्षासोबत आमच्या नव्या पर्वाला आम्ही सुरुवात केली.!”

— वा वर्षाताई!! तुमच्या या सोन्यासारख्या विचार प्रवाहाला माझा मानाचा मुजरा! 

अध्यात्म तत्त्वज्ञान हे वाचून रुजत नाही, तर त्याची बीजं अंतरंगातच असावी लागतात हे तुम्ही सिद्ध केलंत.

एखाद्या नोकरीच्या ठिकाणीही कामाव्यतिरिक्त पारिवारिक, सांस्कृतिक, नात्यानात्यातला आगळावेगळा जिव्हाळा…ईर्षा, प्रसिद्धी, चढाओढ, द्वेष मत्सर यांच्या पलीकडे जाऊन कसा निर्माण होऊ शकतो आणि कामातला आनंद कसा गुणित करू शकतो याचा सुंदर वस्तूपाठच,  वर्षाताईंच्या अडतीस वर्षाचे  एमटीएनएल मधले नोकरी विषयक किस्से वाचताना मिळतो. 

सर्वांग सुंदर असेच हे पुस्तक आहे.  वाचकाला खूप काही देणारं आहे !  संदेशात्मक, सकारात्मक आणि कुठलाही अभिनिवेश, अहंकार नसणारं  हे नम्र लेखन आहे. 

हे पुस्तक वाचताना मला असे वाटले की सर्वसाधारणपणे आपण एखादा पडलेला दगड पाहतो, एखादा चुरगळलेला कागद दिसतो, एखादं साचलेलं पाणी पाहतो… पण आपल्या मनात येतं का या दगडातून एकेदिवशी  सुंदर शिल्प निर्माण होऊ शकतं,  हा चुरगळलेला कागद थोडा उलगडला तर आपण एखादा सुविचार त्यावर लिहू शकतो, या साचलेल्या पाण्यावरही कमळ फुलवू शकतो.?   नसण्यातून असण्याला जन्म देणं हीच महानता ! आणि या महानतेचं दर्शन सौ.वर्षा भाबळ यांच्या “जीवन प्रवास” या पुस्तकातून अगदी सहजपणे होतं. 

सुंदर भाषा, सुंदर विचार आणि सुंदर मन यांचं सुरेख मिश्रण म्हणजे जीवन प्रवास हे पुस्तक !

सौ अलका भुजबळ यांनी हे पुस्तक देखण्या स्वरुपात प्रकाशित करून फार मोलाची कामगिरी केली आहे रसिक वाचकांसाठी !  त्याबद्दल मी समस्त मराठी भाषा प्रेमिकांतर्फे आणि वाचकांतर्फे आपले आभार मानते ! मा. देवेंद्रजी भुजबळ यांनी सुरेख प्रस्तावना लिहून पुस्तकाचा  यथोचित गौरव केला आहे.

वर्षाताई ! प्रथम आपणास मानाचा मुजरा करते. आणि नंतर अभिनंदन आणि आपल्या उर्वरित जीवनप्रवासासाठी खूप खूप शुभेच्छा !! धन्यवाद !

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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