हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #161 ☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 161 ☆

☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना ☆

‘यदि आप इस प्रतीक्षा में रहे कि दूसरे लोग आकर आपको मदद देंगे, तो सदैव प्रतीक्षा करते रहोगे’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह कथन स्वयं पर विश्वास करने की सीख देता है। यदि आप दूसरों से उम्मीद रखोगे, तो दु:खी होगे, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। इसलिए विपत्ति के समय अपना सहारा ख़ुद बनें, क्योंकि यदि आप आत्मविश्वास खो बैठेंगे, तो निराशा रूपी अंधकूप में विलीन हो जाएंगे और अपनी मंज़िल तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। ज़िंदगी तमाम दुश्वारियों से भरी हुई है, परंतु फिर भी इंसान ज़िंदगी और मौत में से ज़िंदगी को ही चुनता है। दु:ख में भी सुख के आगमन की उम्मीद कायम रहती है, जैसे घने काले बादलों में बिजली की कौंध मानव को सुक़ून प्रदान करती है और उसे अंधेरी सुरंग से बाहर निकालने की सामर्थ्य रखती है।

मुझे स्मरण हो रही है ओ• हेनरी• की एक लघुकथा ‘दी लास्ट लीफ़’ जो पाठ्यक्रम में भी शामिल है। इसे मानव को मृत्यु के मुख से बचाने की प्रेरक कथा कह सकते हैं। भयंकर सर्दी में एक लड़की निमोनिया की चपेट में आ गई। इस लाइलाज बीमारी में दवा ने भी असर करना बंद कर दिया। लड़की अपनी खिड़की से बाहर झांकती रहती थी और उसके मन में यह विश्वास घर कर गया कि जब तक पेड़ पर एक भी पत्ता रहेगा; उसे कुछ नहीं होगा। परंतु जिस दिन आखिरी पत्ता झड़ जाएगा; वह नहीं बचेगी। परंतु आंधी, वर्षा, तूफ़ान आने पर भी आखिरी पत्ता सही-सलामत रहा…ना गिरा; ना ही मुरझाया। बाद में पता चला एक पत्ते को किसी पेंटर ने, दीवार पर रंगों व कूची से रंग दिया था। इससे सिद्ध होता है कि उम्मीद असंभव को भी संभव बनाने की शक्ति रखती है। सो! व्यक्ति की सफलता-असफलता उसके नज़रिए पर निर्भर करती है। नज़रिया हमारे व्यक्तित्व का अहं हिस्सा होता है। हम किसी वस्तु व घटना को किस अंदाज़ से देखते हैं; उसके प्रति हमारी सोच कैसी है–पर निर्भर करती है। हमारी असफलता, नकारात्मक सोच निराशा व दु:ख का सबब बनती है। सकारात्मक सोच हमारे जीवन को उल्लास व आनंद से आप्लावित करती है और हम उस स्थिति में भयंकर आपदाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं। सो! जीवन हमें सहज व सरल लगने लगता है।

‘पहले अपने मन को जीतो, फिर तुम असलियत में जीत जाओगे।’ महात्मा बुद्ध का यह संदेश आत्मविश्वास व आत्म-नियंत्रण रखने की सीख देता है, क्योंकि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ सो! हर आपदा का साहसपूर्वक सामना करें और मन पर अंकुश रखें। यदि आप मन से पराजय स्वीकार कर लेंगे, तो दुनिया की कोई शक्ति आपको आश्रय नहीं प्रदान कर सकती। आवश्यकता है इस तथ्य को स्वीकारने की…’हमारा कल आज से बेहतर होगा’–यह हमें जीने की प्रेरणा देता है। हम विकट से विकट परिस्थिति का सामना कर सकते हैं। परंतु यदि हम नाउम्मीद हो जाते हैं, तो हमारा मनोबल टूट जाता है और हम अवसाद की स्थिति में आ जाते हैं, जिससे उबरना अत्यंत कठिन होता है। उदाहरणत: पानी में वही डूबता है, जिसे तैरना नहीं आता। ऐसा इंसान जो सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है, वह उन्मुक्त जीवन नहीं जी सकता। उसकी ज़िंदगी ऊन के गोलों के उलझे धागों में सिमट कर रह जाती है। परंतु व्यक्ति अपनी सोच को बदल कर, अपने जीवन को आलोकित-ऊर्जस्वित कर सकता है तथा विषम परिस्थितियों में भी सुक़ून से रह सकता है।

उम्मीद, कोशिश व प्रार्थना हमारी सोच अर्थात् नज़रिए को बदल सकते हैं। सबसे पहले हमारे मन में आशा अथवा उम्मीद जाग्रत होनी चाहिए। इसके उपरांत हमें प्रयास करना चाहिए और अंत में कार्य-सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। उम्मीद सकारात्मकता का परिणाम होती है, जो हमारे अंतर्मन में यह भाव जाग्रत करती है कि ‘तुम कर सकते हो।’ तुम में साहस,शक्ति व सामर्थ्य है। इससे आत्मविश्वास दृढ़ होता है और हम पूरे जोशो-ख़रोश से जुट जाते हैं, अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर। यदि हमारी कोशिश में कमी रह जाएगी, तो हम बीच अधर लटक जाएंगे। इसलिए बीच राह से लौटने का मन भी कभी नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि असफलता ही हमें सफलता की राह दिखाती है। यदि हम अपने हृदय में ख़ुद से जीतने की इच्छा-शक्ति रखेंगे, तो ही हमें अपनी मंज़िल अर्थात् निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी। अटल बिहारी बाजपेयी जी की ये पंक्तियां ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता/ टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता’ जीवन में निराशा को अपना साथी कभी नहीं बनाने का सार्थक संदेश देती हैं। हमें दु:ख से घबराना नहीं है, बल्कि उससे सीख लेकर आगे बढ़ना है। जीवन में सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलती है। इसलिए हमें दत्तात्रेय की भांति उदार होना चाहिए। उन्होंने अपने जीवन में चौबीस गुरु धारण किए और छोटे से छोटे जीव से भी शिक्षा ग्रहण की। इसलिए प्रभु की रज़ा में सदैव खुश रहना चाहिए अर्थात् जो हमें परमात्मा से मिला है; उसमें संतोष रखना कारग़र है। अपने भाग्य को कोसें नहीं, बल्कि अधिक धन व मान-सम्मान पाने के लिए सत्कर्म करें। परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। यदि वह दु:ख देता है, तो उससे उबारता भी वही है। सो! हर परिस्थिति में सुख का अनुभव करें। यदि आप घायल हो गए हैं या दुर्घटना में आपका वाहन का टूट गया, तो भी आप परेशान ना हों, बल्कि प्रभु के शुक्रगुज़ार हों कि उसने आपकी रक्षा की है। इस दुर्घटना में आपके प्राण भी तो जा सकते थे; आप अपाहिज भी हो सकते थे, परंतु आप सलामत हैं। कष्ट आता है और आकर चला जाता है। सो! प्रभु आप पर अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें।

हमें विषम परिस्थितियों में अपना आपा नहीं खोना चाहिए, बल्कि शांत मन से चिंतन-मनन करना चाहिए, क्योंकि दो-तिहाई समस्याओं का समाधान स्वयं ही निकल आता है। वैसे समस्याएं हमारे मन की उपज होती हैं। मनोवैज्ञानिक भी हर आपदा में हमें अपनी सोच बदलने की सलाह देते हैं, क्योंकि जब तक हमारी सोच सकारात्मक नहीं होगी; समस्याएं बनी रहेंगी। सो! हमें समस्याओं का कारण समझना होगा और आशान्वित होना होगा कि यह समय सदा रहने वाला नहीं। समय हमें दर्द व पीड़ा के साथ जीना सिखाता है और समय के साथ सब घाव भर जाते हैं। इसलिए कहा जाता है,’टाइम इज़ ए ग्रेट हीलर।’ सो दु:खों से घबराना कैसा? जो आया है, अवश्य ही जाएगा।

हमारी सोच अथवा नज़रिया हमारे जीवन व सफलता पर प्रभाव डालता है। सो! किसी व्यक्ति के प्रति धारणा बनाने से पूर्व भिन्न दृष्टिकोण से सोचें और निर्णय करें। कलाम जी भी यही कहते हैं कि ‘दोस्त के बारे में आप जितना जानते हैं, उससे अधिक सुनकर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि वह दिलों में दरार उत्पन्न कर देता है और उसके प्रति आपका विश्वास डगमगाने लगता है।’ सो! हर परिस्थिति में खुश रहिए और सुख की तलाश कीजिए। मुसीबतों के सिर पर पांव रखकर चलिए; वे आपके रास्ते से स्वत: हट जाएंगी। संसार में दूसरों को बदलने की अपेक्षा उनके प्रति अपनी सोच बदल लीजिए। राह के काँटों को हटाना सुगम नहीं है, परंतु चप्पल पहनना अत्यंत सुगम व कारग़र है।

सफलता और सकारात्मकता एक सिक्के के दो पहलू हैं। आप अपनी सोच व नज़रिया कभी भी नकारात्मक न होने दें। जीवन में शाश्वत सत्य को स्वीकार करें। मानव सदैव स्वस्थ नहीं रह सकता। उम्र के साथ-साथ उसे वृद्ध भी होना है। सो! रोग तो आते-जाते रहेंगे। वे सब तुम्हारे साथ सदा नहीं रहेंगे और न ही तुम्हें सदैव ज़िंदा रहना है। समस्याएं भी सदा रहने वाली नहीं हैं। उनकी पहचान कीजिए और अपनी सोच को बदलिए। उनका विविध आयामों से अवलोकन कीजिए और तीसरे विकल्प की ओर ध्यान दीजिए। सदैव चिंतन-मनन व मंथन करें। सच्चे दोस्तों के अंग-संग रहें; वे आपको सही राह दिखाएंगे। ओशो भी जीवन को उत्सव बनाने की सीख देते हैं। सो! मानव को सदैव आशावादी व प्रभु का शुक्रगुज़ार होना चाहिए तथा प्रभु में आस्था व विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि वह हम से अधिक हमारे हितों के बारे में जानता है। समय बदलता रहता है; निराश मत हों। सकारात्मक सोच रखें तथा उम्मीद का दामन थामे रखें। आत्मविश्वास व दृढ़संकल्प से आप अपनी मंज़िल पर अवश्य पहुंच जाएंगे। एमर्सन के इस कथन का उल्लेख करते हुए मैं अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी ‘अच्छे विचारों पर यदि आचरण न किया जाए, तो वे अच्छे सपनों से अधिक कुछ भी नहीं हैं। मन एक चुंबक की भांति है। यदि आप आशीर्वाद के बारे में सोचेंगे; तो आशीर्वाद खिंचा चला आएगा। यदि तक़लीफ़ों के बारे में सोचेंगे, तो तकलीफ़ें खिंची चली आएंगी। सो! हमेशा अच्छे विचार रखें; सकारात्मक व आशावादी बनें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #160 ☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – 1 ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 160 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – 1 

पवन वेग से उड़ रहे, उड़ते हैं हनुमान। 

वर्षा पुष्प की कर रहे, देव करे सम्मान।।

 

करते सीता खोज वह, उड़ते सागर पार

पर्वत से सागर कहे, बड़ा करो आकार।।

 

हाथ जोड़ मैनाक है, पवनपुत्र हनुमान।

आड़े आया आपके, कर लो कुछ आराम।।

 

निकले सीता खोज में, वंदन है हनुमान।

मेरे मन में आपका, बहुत बड़ा सम्मान।।

 

लंका की इस राह में, बाधा करें प्रहार।

करना सीता खोज है, पवन न माने हार।।

 

रामदूत हनुमान हूं, बीच करो ना घात।

रूप धरोना सिंहिका, करता हूं आघात।।

 

किया प्रवेश लंका में, भव्य भवन भंडार।

भेंट लंकिनी से हुई, करते पवन प्रहार।।

 

कहा लंकिनी ने बहुत, हे वीर हनुमान।

मेरा जीवन धन्य हुआ, वानर तुझे प्रणाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #147 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 147 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सिरफिरों ने कर दिया, चाहत को बदनाम

प्रेम दिखावा, क्रूर मन, करते कत्लेआम

 

संस्कार और संस्कृति, कभी न छोड़ें आप

अपनी यह पहचान है, जिसकी मिटे न छाप

 

बहूरूपियों से बचें, इनका दीन न धर्म

ये निकृष्टजन स्वार्थवश, करते खोटे कर्म

 

राह चलें हम धर्म की, करें नेक सब काज

रखें आचरण संयमित, मेरे ये अल्फ़ाज़

 

धर्म सनातन कह रहा, ईश्वर हैं माँ-बाप

मान रखें उनका सदा, बन कृतज्ञ सुत आप

 

बेटा हों या बेटियाँ, रखो धर्म की लाज

छोड़ें मत माँ-बाप को, कर मरज़ी के काज

 

कभी भरोसा मत करें, करके आँखे बंद

नकली हैं बहु चेहरे, जिनके नव छल-छंद

 

माना जीवन आपका, करें फैसले आप

ध्यान रखें पर कभी भी, दुखी न हों माँ-बाप

 

मात-पिता के प्यार से, बढ़कर  कोई प्यार

हुआ न होगा कभी भी, गाँठ बाँध लो यार

 

युग की नई विडंबना, आडंबर का जोर

बिन सोचे समझे चलें, जिसका ओर न छोर

 

किया प्रेम के नाम पर, मानवता का खून

जिसने तन टुकड़े किये, उनको डालो भून

 

जब भी बहकीं बेटियाँ, हुआ गलत अंजाम

छिनता है ‘संतोष’ तब, उल्टे होते काम

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #153 ☆ जिंदगी ही… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 153 – विजय साहित्य ?

☆ जिंदगी ही… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

शब्दातल्या शरांनी घायाळ जिंदगी ही

लाचार वेदनांची, जपमाळ जिंदगी ही.

 

एकेक यातनांची , जंत्री चितारलेली.

अक्षम्य त्या चुकांची, बेताल जिंदगी ही.

 

आहे अजून ताकद, हरणार ना कदापी

नापास ठरवते का, दरसाल जिंदगी ही.

 

देऊन टाकले मी, पैशातल्या सुखाला

का वेचतो गरीबी , नाठाळ जिंदगी ही.

 

शब्दास मोल नाही, दुनिया जरी म्हणाली

उध्वस्त आज करते , वाचाळ जिंदगी ही .

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १० (इंद्र सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १० (इंद्र सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १० ( इंद्र सूक्त )

ऋषी – मधुछंदस् वैश्वामित्र : देवता – इंद्र 

मधुछन्दस वैश्वामित्र ऋषींनी पहिल्या मंडळातील दहाव्या सूक्तात इंद्र देवतेला आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त इंद्रसूक्त म्हणून ज्ञात आहे. याच्या गीतरूप भावानुवादाच्या नंतर दिलेल्या लिंकवर क्लिक केले म्हणजे हे गीत ऐकायलाही मिळेल आणि त्याचा व्हिडीओ देखील पाहता येईल. 

मराठी भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री 

गाय॑न्ति त्वा गाय॒त्रिणोऽ॑र्चन्त्य॒र्कम॒र्किणः॑ ।

ब्र॒ह्माण॑स्त्वा शतक्रत॒ उद्वं॒शमि॑व येमिरे ॥ १ ॥

गायत्रीतुन भक्त उपासक तुझेच यश गाती

अर्कस्तोत्र रचुनी ही अर्कअर्चनेस अर्पिती

पंडित वर्णित तुझीच महती तुझेच गुण गाती

केतनयष्टी सम ते तुजला उच्च स्थानी वसविती  ||१||

यत्सानोः॒ सानु॒मारु॑ह॒द्भूर्यस्प॑ष्ट॒ कर्त्व॑म् ।

तदिन्द्रो॒ अर्थं॑ चेतति यू॒थेन॑ वृ॒ष्णिरे॑जति ॥ २ ॥

भक्त भटकला नगानगांच्या शिखरांवरुनीया

अगाध कर्तृत्वा इंद्राच्या अवलोकन करण्या 

भक्ती जाणुनि वर्षाधिपती प्रसन्न अति झाला

सवे घेउनीया लवाजमा साक्ष सिद्ध झाला ||२|| 

यु॒क्ष्वा हि के॒शिना॒ हरी॒ वृष॑णा कक्ष्य॒प्रा ।

अथा॑ न इन्द्र सोमपा गि॒रामुप॑श्रुतिं चर ॥ ३ ॥

घन आयाळी वर्षादायक अश्व तुझे बहु गुणी

धष्टपुष्ट देहाने त्यांच्या रज्जू जात ताठुनी 

जोडूनिया बलशाली हयांना रथास आता झणी

प्रार्थनेस अमुच्या ऐकावे सन्निध रे येउनी ||३||  

एहि॒ स्तोमा॑ँ अ॒भि स्व॑रा॒भि गृ॑णी॒ह्या रु॑व ।

ब्रह्म॑ च नो वसो॒ सचेन्द्र॑ य॒ज्ञं च॑ वर्धय ॥ ४ ॥

अमुचि आर्जवे सवे प्रार्थना ऐका धनेश इंद्रा

प्रसन्न होऊनी प्रशंसून त्या त्यासि म्हणा भद्रा

अमुची अर्चना स्वीकारा व्हा सिद्ध साक्ष व्हायला 

यज्ञा अमुच्या यशप्राप्तीचे आशीर्वच द्यायला ||४||

उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस्यं॒ वर्ध॑नं पुरुनि॒ष्षिधे॑ ।

श॒क्रो यथा॑ सु॒तेषु॑ णो रा॒रण॑त्स॒ख्येषु॑ च ॥ ५ ॥

ऐका याज्ञिक ऋत्वीजांनो इंद्रस्तोत्र गावे

सर्वश्रेष्ठ ते सर्वांगीण अन् परिपूर्ण ही असावे

सखेसोयरे पुत्रपौत्र हे असिम सुखा पावावे

देवेंद्राच्या कृपादृष्टीने धन्य कृतार्थ व्हावे ||५||

तमित्स॑खि॒त्व ई॑महे॒ तं रा॒ये तं सु॒वीर्ये॑ ।

स श॒क्र उ॒त नः॑ शक॒दिन्द्रो॒ वसु॒ दय॑मानः ॥ ६ ॥

मनी कामना इंद्रप्रीतिची वैभव संपत्तीची

करित प्रार्थना शौर्यप्राप्तीचा आशीर्वच देण्याची 

आंस लागली देवेंद्राच्या पावन चरणद्वयाची

प्रदान करी रे शक्ती आम्हा अगाध कर्तृत्वाची ||६||

सु॒वि॒वृतं॑ सुनि॒रज॒मिन्द्र॒ त्वादा॑त॒मिद्यशः॑ ।

गवा॒मप॑ व्र॒जं वृ॑धि कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः ॥ ७ ॥

तुझ्या कृपेने प्राप्त जाहली कीर्ती दिगंत होई

लहरत लहरत पवनावरुनी सर्वश्रुत ती होई

हे देवेंद्रा प्रसन्न होऊनी धेनु मुक्त करी 

प्रसाद देऊनि आम्हावरती कृपादृष्टीला धरी ||७||  

न॒हि त्वा॒ रोद॑सी उ॒भे ऋ॑घा॒यमा॑ण॒मिन्व॑तः ।

जेषः॒ स्वर्वतीर॒पः सं गा अ॒स्मभ्यं॑ धूनुहि ॥ ८ ॥

तुमच्या कोपा शांतवावया कधी धजे ना कोणी

भूलोकी वा द्युलोकीही असा दिसे ना कोणी

स्वर्गोदकावरी प्रस्थापुन सार्वभौम स्वामित्व

सुपूर्द करुनी गोधन अमुचे राखी अमुचे स्वत्व ||८||

आश्रु॑त्कर्ण श्रु॒धी हवं॒ नू चि॑द्दधिष्व मे॒ गिरः॑ ।

इन्द्र॒ स्तोम॑मि॒मम् मम॑ कृ॒ष्वा यु॒जश्चि॒दन्त॑रम् ॥ ९ ॥

श्रवण तुम्हाला समस्त सृष्टी ऐकावी प्रार्थना 

प्रसन्न व्हावे स्वीकारुनिया माझ्या या स्तोत्रांना 

तुम्हीच माझे सखा मित्र हो माझ्या हृदयाशी

जतन करावे या स्तवनाला घ्या अंतःकरणाशी ||९||

वि॒द्मा हि त्वा॒ वृष॑न्तमं॒ वाजे॑षु हवन॒श्रुत॑म् ।

वृष॑न्तमस्य हूमह ऊ॒तिं स॑हस्र॒सात॑माम् ॥ १० ॥

सर्वश्रेष्ठ तू अशी देवता ज्ञान अम्हापाशी

ऐकुनिया भक्तांची प्रार्थना सहजी प्रसन्न होशी

वरुणाचा तर तूच अधिपति तुझी प्रीति व्हावी

सहस्रावधी श्रेष्ठ कृपा तव अम्हावरती व्हावी ||१०||

आ तू न॑ इन्द्र कौशिक मन्दसा॒नः सु॒तं पि॑ब ।

नव्य॒मायुः॒ प्र सू ति॑र कृ॒धी स॑हस्र॒सामृषि॑म् ॥ ११ ॥

सोमरसाला स्वीकारुनिया सत्वर होई प्रसन्न

इंद्र कौशिका दीर्घायुष्य आम्हा देई दान 

सर्वांहुनिया सहस्रगुणांनी श्रेष्ठ ऐसे ऋषित्व

वर्षुनिया आम्हावरती द्यावे आम्हासि ममत्व ||११||

परि॑त्वा गिर्वणो॒ गिर॑ इ॒मा भ॑वन्तु वि॒श्वतः॑ ।

वृ॒द्धायु॒मनु॒ वृद्ध॑यो॒ जुष्टा॑ भवन्तु॒ जुष्ट॑यः ॥ १२ ॥

वैखरीतुनी सिद्ध स्तोत्र ही तुझेच स्तवन करो

स्वीकारास्तव मम स्तवने ही पात्र श्रेष्ठ ठरो 

करी सुयोग्य सन्मान तयांचा सर्वस्तुत देवा 

अनंत तव आयुसम त्यांना चिरंजीव वर द्यावा  ||१२|| 

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

९८९०११७७५४

[email protected]

https://youtu.be/VvefU67uon4

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ सात सुरांची साथ नव्यांची… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ सात सुरांची साथ नव्यांची… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

… तू जो मेरे सुर मे सुर मिलाके, संग गाले, तो  जिंदगी हो जाए सफल… सा रे ग म प ध..नी सा… ये म्हणा कि गं तुम्ही पण माझ्या बरोबर.सात सुरांची साथ नव्याची ऑडिशनला आपल्याला उदया जायचयं! आहेना लक्षात? आपल्या सातही जणींची  फायनला निवड पक्की होणारच.केशरबाई तू काळी दोन मधे सुरु करशील.पिवळाक्का तुम्ही काळी चार घ्या बरं. उदयाचा विठूचा गजर टिपेला न्या. तुम्ही दोघी करडू दिदी  यमनचा षड्ज द्रुतलयीत लावाल. मी आणि ग्रे ताई मालकंस नि भैरवी ने मंद्र सप्तकात सांगता करू.

…परिक्षक कोणी असले तरी आपण घाबरायचं नाही. घाबरायचं त्यांनी आपल्याला. एक सुरात म्याँव म्याँव करून त्यांना सळो कि पळो करु.पायात घुटमळत राहू.तोंड पुसत पुसत त्यांना आपली निवड करायला भाग पाडू.नाहीतर अंगावर फिस्कारुन येउ म्हणावं हि धमकी देऊ.आमच्या शिवाय स्पर्धा होणे नाही!आम्ही नसलो तर स्पर्धा उधळून लावू. इतकंच नाही तर विजेते आमच्यातलेच असतील.बाहेरचा कुणी दिसलाच तर स्पर्धेत फिक्सिंग झाले असण्याचा संशयाचा धुरळा मेडियात उडवू देउ अशी तंबीच त्यांना देउ या; आणि आपले सगळेच नंबर आले तर स्पर्धा खेळी मेळीत निकोप वातावरणात झाली,उदयाच्या नव्या गायकांना प्रोत्साहन प्रेरणा अश्या स्पर्धेतून मिळते,म्हणून अश्या स्पर्धा सतत होणं गरजेचे आहे असं मेडियाला मुलाखत देताना तोंड फुगवून सांगूया.यातूनच जे आयोजक, ठेकेदार यांचे उखळ कायम पांढरे होत जाईल. टीआरपी वाढला कि स्पर्धेचे एपिसोड वाढतील.चॅनेल वाल्यांची चांदी आणि नव्या गायकांची एक्सपोजरची नांदी होईल.तेव्हा उदया

“… सारे के सारे गा मा के लेकर गाते चले….”  कोरस हम साथ साथ मे म्हणू या… “

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470.

ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 128 ☆ साध्य और साधन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “साध्य और साधन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 128 ☆

☆ साध्य और साधन ☆ 

एक – एक कदम चलते रहने से कई कदम जुड़ने लगते हैं। स्वाभाविक है कि जब अच्छे उद्देश्य  को लेकर कोई यात्रा हो तो परिणाम सुखद होंगे।कहते हैं कि केवल किताबी ज्ञान से कुछ नहीं होगा जब तक धरातल पर उतरकर उसे जीवन की प्रयोगशाला में सिद्ध न किया जाए। सनातन धर्म में यही खूबी है कि सब कुछ वैज्ञानिकता की  कसौटी पर कसा जा चुका है, ये बात अलग है  कि पश्चिमी विज्ञान उसे आज मान्यता दे रहा है। हमारे यहाँ तो नदियों की पंचकोशी परिक्रमा का भी अनुष्ठान होता है। नर्मदा नदी की तो सम्पूर्ण परिक्रमा की जाती है। हरियाली से भरा परिवेश, जन – जीवन- जंगल- जमीन से जुड़कर जनमानस एक दूसरे का सहयोग करना सीख जाता है। नर्मदा किनारे बसे गाँवो के लोग अन्न क्षेत्र का निर्माण करते हैं। सामान्य परिवार भी किसी परिक्रमा वासी को भूखा नहीं रहने देते। आज के समय में जब लोग पाई- पाई का हिसाब रखते हैं तब भी कुछ स्थान ऐसे हैं जो खुले दिल से सम्मान करना और कराना जानते हैं।

यही तो यात्रियों और यात्राओं की खूबी है कि वो हर परिस्थिति, जलवायु में जीना जानते हैं। जो आनन्द पैदल चलने में है वो वाहन की सवारी में नहीं, लोग जब आपसे मिलने आते हों तो विशिष्टता का अहसास होता है और यही जीने की वजह बन जाता है। ऐसे में लक्ष्य को साधना सरल लगने लगता है। हाथों में हाथ लेकर  चलते हुए मन ये कहने लगता है अब मंजिल दूर नहीं।

सब कुछ सहजता से मिल सकता है बस नियत सच्ची होनी चाहिए। बिना योग्य हुए यदि मंजिल तक पहुँच भी गए तो भी वहाँ टिक नहीं सकते हैं। जब तक मनुष्य का सर्वांगीण विकास नहीं होगा तब तक  पाना- खोना चलता रहेगा। सबको साथ लेने की कला बहुत जरूरी होती है,जब तक मानव मन की समझ नहीं होगी तब तक साध्य असाध्य रोग की तरह पीछा करता रहेगा।

खैर चलते हुए लोग, उड़ते हुए पंछी, तैरती हुई मछली, हरा- भरा जंगल, कल- कल करती नदियाँ अच्छी लगतीं हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 181 ☆ व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 181 ☆  

? व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ?

मेकओवर का बड़ा महत्व होता है। सोकर उठते ही मुंह धोकर कंघी कर लीजिए  कपड़े ठीक कीजीए, डियो स्प्रे कर लीजिए  फ्रेश महसूस होने लगता है। महिलाओं के लिए फ्रेशनेस का मेकओवर  थोडी लंबी प्रक्रिया  होती है, लिपस्टिक, पाउडर, परफ्यूम आवश्यक तत्व हैं। ब्यूटी पार्लर में लड़की का मेकओवर कर उसे दुल्हन बना दिया जाता है। एक से एक भी बिलकुल बदली बदली सी लगने लगती हैं। दुल्हन के स्वागत समारोह के बाद  बारी आती है ससुराल में बहू के मेकओवर की। सास, ननदे  उसे गृहणी में तब्दील करने में जुट जाती हैं। शनैः शनैः  गृहणी से पूरी तरह पत्नी में मेकओवर होते ही, पत्नी पति पर भारी पड़ने लगती है।

 हर मेकओवर की एक फीस होती है। ब्यूटी पार्लर वह फीस रुपयों में लेता है। पर कहीं त्याग, समर्पण, अपनेपन, रिश्ते की किश्तों में फीस अदा होती है।

एक राजनैतिक पार्टी से दूसरी में पदार्पण करते नेता जी गले का अंगोछा बदल कर नए राजनैतिक दल का मेक ओवर करते हैं। यहां गरज का सिद्धांत लागू होता है, यदि मेकओवर की जरूरत आने वाले की होती है तो उसे फीस अदा करनी होती है, और अगर ज्यादा आवश्यकता बुलाने वाले की है तो इसके लिए उन्हें मंत्री पद से लेकर अन्य कई तरह से फीस अदा की जाती है। नया मेकओवर होते ही नेता जी के सिद्धांत, व्यापक जन हित में एकदम से बदल जाते हैं। विपक्ष नेता जी के पुराने भाषण सुनाता रह जाता है पर नेता जी वह सब अनसुना कर विकास के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं।

स्कूल कालेज कोरे मन के  बच्चों का मेकओवर कर, उन्हें सुशिक्षित इंसान बनाने के लिए होते हैं। किंतु हुआ यह कि वे उन्हें बेरोजगार बना कर छोड़ देते, इसलिए शिक्षा में आमूल परिवर्तन किए जा रहे हैं , अब केवल डिग्री नौकरी के मेकओवर के लिए अपर्याप्त है। स्किल, योग्यता और गुणवत्ता से मेकओवर नौकरी के लिए जरूरी हो चुके हैं। अब स्टार्ट अप के मेकओवर से एंजल इन्वेस्टर आप के आइडिये के लिए करोड़ों इन्वेस्ट करने को तैयार हैं।

पिछले दिनों हमारा अमेरिका आना हुआ, टैक्सी से उतरते तक हम जैसे थे, थे। पर एयरपोर्ट में प्रवेश करते हुए अपनी ट्राली धकेलते हम जैसे ही बिजनेस क्लास के गेट की तरफ बढ़े, हमारा मेकओवर अपने आप कुछ प्रभावी हो गया लगा। क्योंकि हमसे टिकिट और पासपोर्ट मांगता वर्दी धारी गेट इंस्पेक्टर एकदम से अंग्रेजी में और बड़े अदब से बात करने लगा।

बोर्डिंग पास इश्यू करते हुए भी हमे थोड़ी अधिक तवज्जो मिली, हमारा चेक इन लगेज तक कुछ अधिक साफस्टीकेटेड तरीके से लगेज बेल्ट पर रखा गया। लाउंज में आराम से खाते पीते एन समय पर हैंड लगेज में एक छोटा सा लैपटाप बैग लेकर जैसे ही हम हवाई जहाज में अपनी फ्लैट बेड सीट की ओर बढ़े सुंदर सी एयर होस्टेस ने अतिरिक्त पोलाइट होकर हमारे कर कमलों से वह हल्का सा बैग भी लेकर ऊपर  डेक में रख दिया, हमे दिखा कि इकानामी क्लास में बड़ा सा सूटकेस भी एक पैसेंजर स्वयं ऊपर  रखने की कोशिश कर रहा था। बिजनेस क्लास में मेकओवर का ये कमाल देख हमें रुपयों की ताकत समझ आ रही थी।

जब अठारह घंटे के आराम दायक सफर के बाद  जान एफ केनेडी एयरपोर्ट पर हम बाहर निकले,  तब तक बिजनेस क्लास का यह मेकओवर मिट चुका था, क्योंकि ट्राली लेने के लिए भी हमें अपने एस बी आई कार्ड से  छै डालर अदा करने पड़े, रुपए के डालर में मेकओवर की फीस कटी हर डालर पर कोई 9 रुपए मात्र। हमारे मैथ्स में दक्ष दिमाग ने तुरंत भारतीय रुपयों में हिसाब लगाया लगभग पांच सौ रुपए मात्र ट्राली के उपयोग के लिए। हमें अपने प्यारे हिंदोस्तान के एयर पोर्ट याद आ गए कहीं से भी कोई भी ट्राली उठाओ कहीं भी बेतरतीब छोड़ दो एकदम फ्री।  एकबार तो सोचा कितना गरीब देश है ये अमरीका भला कोई ट्राली के उपयोग करने के भी रुपए लेता है ? वह भी इतने सारे,  पर जल्दी ही हमने टायलेट जाकर इन विचारों का परित्याग किया और अपने तन मन का क्विक मेकओवर कर लिया। जैकेट पहन सिटी बजाते रेस्ट रूम से निकलते हुए हम अमेरिकन मूड  में आ गए। तीखी ठंडी हवा ने हमारे चेहरे  को छुआ, मन तक मौसम का खुशनुमा मिजाज  दस्तक देने लगा। एयरपोर्ट के बाहर बेटा हमे लेने खड़ा था, हम हाथ हिलाते  उसकी तरफ  बढ़ गए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #128 – लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “भ्रष्टाचार की सजा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆

☆ लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’  

अखबार हाथ में लेते ही उसे वह पल याद याद आ गया जब वह कलेक्टर साहब के पास गया था।

“क्यों भाई दो लाख रुपए की रिश्वत मांगी और मुझे पता भी नहीं चला!”

“सरजी! वह क्या है ना, आप का भी हिस्सा था उसमें।”

“मगर दो लाख रुपए क्यों मांगे? इसीलिए उसने शिकायत की और अखबार में भी दे दिया- ‘रजिस्ट्रार ने रजिस्ट्री पर रोक लगाई! भ्रष्टाचार में मांगे दो लाख’ “

“सरजी वह पाँच करोड रुपए लेकर सरकार रेट पर जमीन की पच्चीस लाख रुपए में रजिस्ट्री करवा रहा था। कम से कम इतना तो हमारा हक बनता है।”

“मगर शिकायत हुई तो तुम्हें सजा जरूर मिलेगी,” जैसे कलेक्टर साहब ने कहा तो उसका हाथ ब्रीफकेस पर मजबूती से कस गया। मगर दूसरे ही पल उसने ना जाने क्या सोचकर भी ब्रीफकेस पर पकड़ ढीली करके उसे साहब के घर पर ही छोड़ दिया।

यह स्मृति में आते ही उसने अखबार का पन्ना खोला। पहले पृष्ठ पर खबर छपी थी। ‘भ्रष्ट रजिस्टार का इंदौर स्थानांतरण”। 

यह पढ़ते ही उसके चेहरे पर धीरे-धीरे मुस्कान फैलती गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07-10-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 138 ☆ बाल कविता – भाए डोसा, साँभर, इडली… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 138 ☆

☆ बाल कविता – भाए डोसा, साँभर, इडली ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

आर्यन अतिशयी मतवाले।

चिकने बाल लगें घुँघराले ।।

 

दिनभर करते धमाचौकड़ी।

भाए डोसा, साँभर, इडली।।

 

सी – सी करते खाते जाते।

पानी माँगें शोर मचाते।।

 

पल में गुस्सा , पल में हँसते।

जिद पर कभी – कभी हैं अड़ते।।

 

दिनभर उनको खेल – ख़िलालो।

पढ़ने से नित जी चुरवा लो।।

 

नए – नए वह चित्र बनाते ।

शेर बनाकर कभी डराते।।

 

उनका जीवन रंग – बिरंगा।

बच्चों का मन पावन गंगा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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