हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 118 ☆ भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…२…” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 118 ☆ 

☆ भजन – प्रभु हैं तेरे पास में…२ ☆

*

जग असार सार हरि सुमिरन ,

डूब भजन में ओ नादां मन…

*

निराकार काया में स्थित,

हो कायस्थ कहाते हैं.

रख नाना आकार दिखाते,

झलक तुरत छिप जाते हैं..

प्रभु दर्शन बिन मन हो उन्मन,

प्रभु दर्शन कर परम शांत मन.

जग असार सार हरि सुमिरन ,

डूब भजन में ओ नादां मन…

*

कोई न अपना सभी पराये,

कोई न गैर सभी अपने हैं.

धूप-छाँव, जागरण-निद्रा,

दिवस-निशा प्रभु के नपने हैं..

पंचतत्व प्रभु माटी-कंचन,

कर मद-मोह-गर्व का भंजन.

जग असार सार हरि सुमिरन ,

डूब भजन में ओ नादां मन…

*

नभ पर्वत भू सलिल लहर प्रभु,

पवन अग्नि रवि शशि तारे हैं.

कोई न प्रभु का, हर जन प्रभु का,

जो आये द्वारे तारे हैं..

नेह नर्मदा में कर मज्जन,

प्रभु-अर्पण करदे निज जीवन.

जग असार सार हरि सुमिरन ,

डूब भजन में ओ नादां मन…

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #150 ☆ आलेख – श्री सत्यनारायण व्रत पूजा कथा रहस्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 150 ☆

☆ ‌आलेख – श्री सत्यनारायण व्रत पूजा कथा रहस्य ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(दो शब्द रचनाकार के – आज मुझे पुरोहित कर्म करते हुए काफी समय गुजर गया है अपनी पुरोहित कर्म के दौरान तमाम जिज्ञासु जन मुझसे प्रश्न करते रहे कि आखिर वह कौन सी कथा थी जिसे भगवान विष्णु जी ने दरिद्रता से मुक्ति के लिए उस गरीब को उपाय के रूप में सुनाया। अपने अध्ययन में मैंने जो भी तथ्य पाया उसे जिज्ञासु जन की जिज्ञासा शांत करने के लिए सबके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ । इस प्रस्तुति का आधार पौराणिक मान्यताओं-कथाओं के तथ्य पर आधारित है, जो किसी विवाद को नहीं स्वीकार करता। इसका समर्थन अथवा विरोध पाठक वर्ग के स्वविवेक पर निर्भर है।)

श्री सत्य नारायण कथा का मूल उदगम स्कंध पुराण के रेवा खंड से लिया गया है। पौराणिक श्रुति के अनुसार मृत्यु लोक के दुख पीड़ा जैसी तमाम कष्टो से जूझते हुए प्राणी के मुक्ति के लिए नैमिषारण्य  तीर्थ क्षेत्र में जो कभी अठ्ठासी हजार ऋषियों का संकुल था, वहीं पर श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रादुर्भाव हुआ और यह कथा प्रचलन में आई।

ऋषि शौनक जी तथा अन्य ऋषियों ने महात्मा सूत जी से सरल सहज तथा सूक्ष्म उपाय पूछा था, उन्होंने जो पूजा कथा बताई वह इस प्रकार है।

उन्होंने बताया कि एक बार देवर्षि नारद जी भगवान विष्णु के पास गए तथा लोकहित की इच्छा से प्रश्न किया कि – “हे सर्वेश्वर! मैंने पृथ्वी लोक के भ्रमण के दौरान दुख और पीड़ा से व्याकुल मानव समाज देखा है, जिससे मेरा हृदय करूणासिक्त हो रहा है, इससे मुक्ति का कोई उपाय हो तो मुझे बताएं।”

उनकी लोकहित वाणी सुनकर भगवान ने कहा कि- “हे देवर्षि! आप का प्रश्न लोकहित से जुड़ा है इस निमित्त मैं यह उपाय अवश्य बताऊंगा।”

देवर्षि नारद जी ने आगे कथा का विस्तार करते हुए बताया और व्रत पूजा का विधान समझाया। यदि हम सत्यनारायण कथा पुस्तक के शीर्षक का विवेचन करें तो सारा अर्थ स्पष्ट हो जाता है। अर्थात् श्री सत्यनारायण व्रत पूजा कथा- जिसका आशय है पहले व्रत का संकल्प, तत्पश्चात पूजा विधान, फिर कथा विधान। अर्थात् कथा का अध्ययन यह सिद्ध करता हैं कि कथा श्रवण के पूर्व ब्राह्मण ने कथा पूजा करने का संकल्प लिया, जिसके संकल्प मात्र से उसे प्रचुर मात्रा में धन मिला। फिर पूजा का विधान किया और उसके बाद कथा के बाद प्रसाद वितरण किया जो उसका नैमित्तिक कर्म बन गया। वही स्थिति लकड़हारे की हुई, लेकिन संकल्प पूर्ण नहीं करने पर साधूराम बनिया को अपने जीवन के संत्रास से गुजरना पड़ा। वहीं राजा को प्रसाद न ग्रहण करने के कारण दुख भोगना पड़ा। वहीं अधूरी कथा छोड़ने के कारण लीलावती तथा कन्या कलावती को पिता तथा पति के दर्शन से विमुख होना पड़ा था।

भगवान विष्णु ने अपने स्वरूप शालिग्राम के विग्रह पूजन का निर्देश दिया – फिर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उस भिक्षुक ब्राह्मण से मिले, जो सुदामा की तरह भूख की पीड़ा से भिक्षा मांगने के लिए दर दर भटकता फिर रहा था। उन्होंने उस ब्राह्मण से पूछा था कि- हे ब्राह्मण! आप आखिर इस प्रकार क्यों दर दर भटकते  घूम रहे हैं।

तब ब्राह्मण ने कहा  –  “मैं गरीबी के मकड़जाल में फंसा हुआ भूख की पीड़ा से व्याकुल भिक्षा मांगने हेतु विवश हो भटकता फिर रहा हूँ । इस गरीबी के अभिशाप से मुक्ति हेतु यदि कोई उपाय जानते हो तो बताएं मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा। तब उन नारायण रूप में आए वृद्ध  ब्राह्मण  के वेष में भगवान श्री विष्णु जी ने अपने शालिग्राम रूपी विग्रह की सत्यनारायण व्रत पूजा कथा का विधान बताया, जो सर्व कामना पूर्ण करती है। भगवान शालिग्राम विग्रह की कथा देवासुर संग्राम के जालंधर वध से संबंधित है जिसे सारा विद्वत समाज परिचित है। जो वृंदा के शाप के कारण शालिग्राम की पाषाण खंड के रूप में परिणत हो गई तथा भगवान विष्णु के वरदान से वृंदा तुलसी के बिरवा के रूप में अवतरित हुई। बिना तुलसी दल तथा मंजरी के आज़ भी भगवान विष्णु की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती।

शेष सत्यनारायण व्रत में पूजा का विधान बताया गया है। पूजा में सर्व प्रथम पवित्रीकरण के बाद प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश तथा माता गौरी के आह्वान पूजन का विधान है जिसके बारे में यह विश्वास है कि यदि कुमारी कन्या विधान पूर्वक माँ गौरी का पूजन कर उन्हें सिंदूर चढ़ाती है तो उन्हें मनवांछित वर की प्राप्ति होती है और जो पत्नी पति मिल कर माँ  गौरी और गणेश जी को पूजन के साथ सिंदूर चढ़ाते है तो उस परिवार में सुख शांति समृद्धि सौहार्द तथा जीवन में प्रेम बना रहता है।

गौरी पूजन का प्रमाण  हमें माता सीता के स्वयंवर के समय गौरी पूजन के रूप में मिलता है।

विनय प्रेम बस भई भवानी।

खसी माल मूरति मुस्कानी।

वर सहज सुन्दर सांवरो ।

करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो ॥

एहि भांति गौरी असीस सुन सिय सहित हिय हरषित अली।

तुलसी भवानी पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥

इसके बाद पृथ्वी पूजन का विधान है जिसके बारे में मान्यता है कि पृथ्वी ही हमारे जीवन का आधार है, इस के बिना जीवन संभव ही नहीं है। उसी से हमें अन्न वस्त्र, फल फूल,  हीरे-जवाहरात मिलते हैं जो हमारी संपन्नता का प्रतीक है। उसके बाद फिर भगवान वरूण देव की पूजा का विधान है जिसके लिए हम घट पूजा करते हैं। अगले चरण में हम नवग्रह शांति के लिए नवग्रहों की पूजा करते हैं। उस के पश्चात हम  दीप के रूप में अग्नि देवता की पूजा करते हैं। तत्पश्चात भगवान शालिग्राम के विग्रह की पूजा करते हैं। इस प्रकार एक पूजा में ही पंच पूजा समाहित है जिसका उद्देश्य लोक हितकारी है।

शेष पांचों अध्याय तो हमें यह समझाते हैं शालिग्राम की पूजा तो दरिद्र ब्राह्मण, लकड़हारा, नि:संतान साधूराम बनिया, राजा, तथा गोप गण, अर्थात् समाज का सभी वर्ग ने किया। अपनी मंशा के अनुरूप फल प्राप्त किया । जिसने संकल्प लेकर भी पूजा नहीं किया। वह ईश्वर के रूष्ट होने पर अनेकों कष्ट सहने पर मजबूर हुआ।

यही सत्य नारायण पूजा कथा तथा व्रत का विधान है जिसे बार बार एक व्यक्ति ने दूसरे को बताया यह श्रुति कथा आज भी पूरे श्रद्धा विश्वास के साथ कही सुनी सुनाई जाती है। यही तो है भगवान सत्यनारायण व्रत पूजा कथा।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ आठवणीतील सांस्कृतिक पुणे… लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुश्री सुलू साबणे जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

☆ आठवणीतील सांस्कृतिक पुणेलेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुलू साबणे जोशी ☆

सुमारे ३५-४० वर्षांपूर्वी, किंबहुना त्यापेक्षाही अगोदरपासूनच्या कालखंडात पुणे हे एक छोटेखानी पण टुमदार, आटोपशीर गाव होतं…” पुणे शहर ” झालेलं नव्हतं….

सदाशिव, शनिवार, नारायण, शुक्रवार वगैरे पेठांमध्ये वाडे एकमेकांना चिकटून, जणू एकमेकांच्या हातात हात घालून उभे होते. चोर-पोलीस खेळतांना सहज एका वाड्यातून दुसऱ्या वाड्यात जाता येत असे. किंबहुना शेजारच्यांच्या घरात घुसून बिनदिक्कत कॉटखाली वगैरे लपता येत असे. लाकडी जिन्यातून कुणी भरभर खाली उतरलं की अक्षरशः ढगांच्या गडगडाटाचा आवाज येत असे. चौकात संध्याकाळी डबडा ऐसपैसचा नाहीतर इस्टॉपाल्टीचा डाव रंगत असे. फार दमायला झालं, किंवा धो धो पाऊस पडला, तर कुठे तरी वाड्यात वळचणीला बसून गाण्यांच्या भेंड्या रंगत असत. मग एक तरी सुरेल गाणारी तिखट चिमुरडी “आ जा सनम मधुर चांदनीमें हम….” हे गाणं म्हणतच असे. 

किंवा देशांच्या राजधान्या ओळखणे, चेरापुंजी कशासाठी प्रसिद्ध आहे?? वगैरे “जनरल नॉलेज” च्या गप्पा होत होत,

” तुला माहितीये का ?? पाकिस्तानकडे शंभर ऍटम बॉम्ब आहेत…”  किंवा ” माझे बाबा एकदा अमावास्येला शनिवारवाड्याच्या जवळून रात्री येत होते, तेव्हा त्यांनी ‘ काका मला वाचवा….’ असा आवाज ऐकला होता ” 

अशा स्वरूपाच्या दंतकथा रंगत. एखादा शी – शू विहार मधला गडी मग तिथेच रडू लागे. आणि मग 

” ए … कशाला रडवता रे त्याला?? ” असा सज्जड दम एखादी आई देई.

शाळांच्या पटांगणात रात्री ” गीत रामायण,” “ जाणता राजा ” यासारख्या कार्यक्रमांची रेलचेल आणि मेजवानी असे. मग रात्री भारावलेल्या वातावरणात शांत झोपी गेलेले वाडे बघत बघत घरी पायी, नाही तर सायकलवर वाटचाल करायची. क्वचित थंडीत स्वेटर, शाल, चादर पांघरून कुडकुडत घरी जायचं….. गोदरेजचं कुलूप उघडून जाड लोखंडी साखळी असलेला दरवाजा उघडायचा….. काळ्या बटनावर लागणारा पिवळा साठचा बल्ब लावायचा…. कुणाकडे हातात सेलची बॅटरीही असायची…. 

पुण्याचं तेव्हाचं सांस्कृतिक केंद्र म्हणजे ” भरत नाट्य मंदिर “…. मध्यंतरात भजी खायची… चहा प्यायचा…. आणि अंधारात चाचपडत येऊन आपली सीट पकडायची….

भरत नाट्य बाहेर मधू आपटे हे ज्येष्ठ अभिनेते खुर्ची टाकून बसलेले असायचे…..

कुणी नाटकानंतरही “गुडलक” “पॅराडाईज” “रीगल” वगैरे इराणी हॉटेलात तळ देत…. किंवा वाड्याच्या दारातच मध्यरात्रीपर्यंत कुडकुडत गप्पा छाटायच्या……

तेव्हाचं पुणं मध्यमवर्गीय, साधं…..पेरूगेट, नु.म.वि., अहिल्यादेवी, विमलाबाई गरवारे, हुजूरपागा या संस्कारकेंद्रांभोवती विणलेलं….. “स्वामी”… “छावा”…. “नाझी भस्मासुराचा उदयास्त”…… इत्यादि साहित्यविश्वात रमणारं होतं…… भीमसेन जोशींना अगदी समोर बसून ऐकता येत होतं किंवा भेटता येत होतं…..

ना. ग. गोरे… एस. एम. जोशी अशी थोर नेतृत्वं होती…

खरोखरच तेव्हाचं पुणं हे त्यावेळच्या पहाटेच्या सुंदर धुक्यासारखं एक गोड सांस्कृतिक स्वप्न होतं…..

सुंदर स्वप्नातून जागं झाल्यावरही त्या स्वप्नाची आठवण दिवसभर मनात रेंगाळत रहावी, तसं हे तेव्हाचं सुंदर पुणं मनात सदैव रेंगाळत राहतं……….!!!

संग्राहिका : सुश्री सुलू साबणे जोशी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ मुलांकडे (थोडे) दुर्लक्ष करा… – लेखक : श्री शिवराज गोर्ले ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

📖 वाचताना वेचलेले  📖

 ☆ मुलांकडे (थोडे) दुर्लक्ष करा… – लेखक : श्री शिवराज गोर्ले ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆ 

मुलांना जबाबदार  बनवायचं असेल, तर अर्थातच त्यांना काही गोष्टीचं स्वातंत्र्य द्यायला हवं. याचाच अर्थ त्यांच्याकडं जसं लक्ष द्यायला हवं, तसंच थोडं दुर्लक्षही करायला हवं. रेणू दांडेकर यांनी यासाठी ‘ हेल्दी निग्लिजन्स ‘ हा शब्द सुचवला आहे. त्या म्हणतात, ‘आजकाल घरात एकच मूल असतं. फार फार तर दोन. या ‘दोन बाय दोन’,च्या रचनेत मुलंच केंद्रस्थानी असतात. लक्ष्य असतात. त्यामुळंच कधी कधी आपलं नको इतकं लक्ष मुलांकडे असतं.

त्यांनी असं एक उदाहरणही दिलंआहे: माझी एक मैत्रीण मुलांच्या बाबतीत अत्यंत जागृत होती. तिनंच तिच्या मनानं मुलांच्या अभ्यासाच्या वेळा…जेवायच्या वेळा… आहार… कोणत्या वेळी कोणत्या विषयाचा अभ्यास, या सगळ्याचंच वेळापत्रक बनवलं होतं. सतत त्यानुसार ती आपल्या मुलांवर देखरेख ठेवायची. मुलं अगदी जखडून गेली, कंटाळली, हळूहळू ऐकेनाशी झाली.

आईची प्रतिक्रिया, ‘ मी मुलांचं इतकं करते,तरी मुलं अशी वागतात. यापेक्षा किती लक्ष द्यायचं? ‘

” तू जरा जास्तच लक्ष देते आहेस.” रेणूताईंनी म्हटलं ,” थोडं दुर्लक्ष कर .मुलांना त्यांचं स्वतःचं जगणं आहे. जर त्यांच्या प्रत्येक क्षणावर ताबा ठेवलास तर कसं चालेल? जरा ‘हेल्दी निग्लिजन्स’ करायला शिक.” 

मुलांना मोकळेपणा, स्वातंत्र्य दिल्याशिवाय ती जबाबदार कशी होतील? फक्त एवढंच की ती स्वातंत्र्याचा योग्य उपयोग करत आहेत ना, हे त्यांच्या नकळत पहायला हवं. लक्ष हवंच, पण न जाचणारं ! मूल पोहायला लागलं तरी आईनं त्याच्या पाठीवर डबा बांधला, त्याचा हात धरला तर ते तरंगणार कसं?हात पाय हलवणार कसं? ते आता पोहू शकतंय यावर विश्वास ठेवायला हवा. आपण ते बुडेल ही भीती सोडायला हवी. थोडं काठावर उभं राहता आलं पाहिजे, थोडं पाण्यातही भिजता आलं पाहिजे. पालक प्रशिक्षणातला हा एक धडा फार महत्त्वाचा आहे. शोभा भागवत म्हणतात त्याप्रमाणे, ‘मूल मोठं व्हावं, शहाणं व्हावं, असं तोंडानी बोलत, मनात ठेवत, प्रत्यक्षात आपण त्याला ‘लहान’च ठेवत असतो. तोंडी बोलण्यापलीकडं मूल आरपार आपल्याला पहात असतं. आपण ‘ मूल ‘ राहण्यातच पालकांना समाधान आहे, हेही ते जाणतं आणि तसं वागत राहतं.’

ते विश्वासानं शहाणं व्हायला हवं असेल, तर पालकांनी सतत पालक म्हणून वागायचं सोडून द्यायला हवं. पालकपणाचा (अधून मधून) राजीनामा द्यायला हवा.

लेखक : श्री शिवराज गोर्ले

प्रस्तुती : सुश्री सुनिता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – किनारा शोधत राही – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? ⛵– किनारा शोधत राही 🚤 ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

अथांग सागर भवताली

आकाशाची जली निळाई

दिशा द्यायला नाही वल्हे

नाव एकटी टिकून राही

बोलवी का कुणी किनारा?

शाश्वत सहारा नीत देणारा

त्याच किनार्‍याच्या विश्वावर

मिठीत घेईल पुर्ण सागरा

सागराची निळी नवलाई

भूल पाडत हाकारत जाई

भरकटण्याचे भय होडीला

म्हणून किनारा शोधत राही

किनारा मिळे बंधन येते

बंधन विश्वहर्तता देते

प्रेमरज्जू साथीला मिळता

होडी सागरी खुशाल फिरते

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #167 – 53 – “सारी रात गुज़ार देते बातों में ही…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “सारी रात गुज़ार देते बातों में ही…”)

? ग़ज़ल # 53 – “सारी रात गुज़ार देते बातों में ही…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जो दोस्त करते नहीं सगा करते,

सगे दोस्त कभी नहीं दगा करते।

मिल गए तो सँभाल कर रखिए,

दोस्त पेड़ों पर नहीं लगा करते।

आँसुओं से सींचना पड़ता इन्हें,

दोस्त खेत में नहीं ऊगा करते।

हमेशा साथ रहते वक़्ते मुसीबत,

छोड़ कर तुम्हें नहीं भगा करते।

सारी रात गुज़ार देते बातों में ही,

कोई इस तरह नहीं जगा करते।

दोस्ती को धर्म की तरह निभाओ,

आस्था में रस यूँ नहीं पगा करते।

दोस्त भी इश्क़ की नाईं है आतिश,

मन हर किसी से नहीं लगा करते।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 44 ☆ मुक्तक ।।हर दिन इक़ नया संग्राम है यह जिन्दगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।हर दिन इक़ नया  संग्राम है यह जिन्दगी।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 44 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।हर दिन इक़ नया  संग्राम है यह जिन्दगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

बस सुख और   आराम ,नहीं है जिंदगी।

ना होना दुख का निशान, नहीं है जिंदगी।।

संघर्षों से दाम वसूलती, वह  जिंदगी है।

गमों पर  लगे   विराम,  नहीं है जिंदगी।।

[2]

ऐशो आराम  तामझाम,  नहीं है  जिंदगी।

बस खुशियों का ही पैगाम,नहीं है जिंदगी।।

कभी खुशी कभी  गम,   का ही नाम यह।

कोशिशों से पाना मुकाम ,है यह   जिंदगी।।

[3]

हर सुख का मिला जाम, नहीं है जिंदगी।

बस  यूँ ही गुमनाम,    नहीं  है जिंदगी।।

संघर्ष अग्नि पर ,तपकर बनता है सोना।

अपने स्वार्थ से ही,काम नहीं है जिंदगी।।

[4]

सुख दुःख का छाया, घाम है यह जिंदगी।

हरदिन इक़ नया संग्राम,है यह   जिंदगी।।

अपने लिए नहीं दूजों के,लिये जीना यहाँ।

सरोकारों के  चारों  धाम, है यह जिंदगी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 109 ☆ ग़ज़ल – “हैरान हो रहे हैं सब देखने वाले हैं…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “हैरान हो रहे हैं सब देखने वाले हैं…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #110 ☆  ग़ज़ल  – “हैरान हो रहे हैं सब देखने वाले हैं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

सच आज की दुनियॉं के अन्दाज निराले हैं

हैरान हो रहे है सब देखने वाले हैं।

 

धोखा, दगा, रिश्वत  का यों बढ़ गया चलन है

देखों जहॉं भी दिखते बस घपले-घोटाले हैं।

 

पद ज्ञान प्रतिष्ठा ने तज दी सभी मर्यादा

धन कमाने के सबने नये ढंग निकाले हैं।

 

शोहरत औ’ दिखावों की यों होड़ लग गई है

नज़रों में सबकी, होटल, पब, सुरा के प्याले हैं।

 

महिलायें तंग ओछे कपड़े पहिन के खुश है

आँखें  झुका लेते वे जो देखने वाले हैं।

 

शालीनता सदा से श्रृंगार थी नारी की

उसके नयी फैशन ने दीवाले निकाले हैं।

 

व्यवहार में बेइमानी का रंग चढ़ा ऐसा

रहे मन के साफ थोड़े, मन के अधिक काले हैं।

 

अच्छे-भलों का सहसा चलना बड़ा मुश्किल है

हर राह भीड़ बेढ़ब, बढ़े पॉंव में छाले हैं।

 

जो हो रहा उससे तो न जाने क्या हो जाता

पर पुण्य पुराने हैं, जो सबको सम्हाले हैं।

 

आतंकवाद नाहक जग को सता रहा है

कहीं आग की लपटें, कहीं खून के नाले है।

 

हर दिन ये सारी दुनियॉं हिचकोले खा रही है

पर सब ’विदग्ध’ डरकर ईश्वर के हवाले हैं।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 130 – हवा अंत ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 130 – हवा अंत ☆

मनी वाचतो मी तुझा ग्रंथ आता।

जिवाला जिवाची नको खंत आता।

 

असावी कृपा रे तुझी माय बापा।

नको ही निराशा दयावंत आता।

 

पताका पहा ही करी घेतली रे।

अहंभाव नाशी उरी संत आता ।

 

सवे पालखीच्या निघालो दयाळा।

घडो चाकरी ही नवा पंथ आता।

 

तुला वाहिला मी अहंभाव सारा।

पदी ठाव देई कृपावंत आता।

 

चिरंजीव भक्ती तुला मागतो मी ।

नको मोह खोटा हवा अंत आता

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #160 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 160 ☆

☆ अधूरी ख़्वाहिशें  ☆

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं  की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक होते हैं। इसलिए उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम स्व-पर व राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि बता! तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समूल नष्ट हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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