हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #169 ☆ कहानी ☆ नये क्षितिज ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी नये क्षितिज। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 169 ☆

☆ कथा कहानी ☆ नये क्षितिज

शुभा अपना हाथ ऊपर उठाकर देखती है। त्वचा सूखी और सख़्त हो गयी है। उम्र का असर साफ दिखता है। शीशा उठाकर देखती है तो बालों में कई अधूरी-पूरी रजत-रेखाएँ दिखायी पड़ती हैं। चेहरा भी सख़्त हो गया है, पहले जैसा चिकनापन और मृदुता नहीं रही। सड़क पर चलते अब लोगों की निगाहें उसके चेहरे पर टिकती नहीं। सरकती हुई दूसरी चीज़ों की तरफ चली जाती हैं, जैसे वह भी सड़क पर चलती हज़ार सामान्य चीज़ों में से एक हो।

घर के बाहर कोने में वह नीम का दरख्त अब भी है जहाँ वह रोज़ सवेरे पिता की कुर्सी के बगल में दरी बिछाकर पढने बैठ जाती थी।  जब हवा चलती तो पत्तियों की सरसराहट से संगीत फूटता। पिता अपना काम-धाम निपटाते रहते और वह अपनी किताब, कॉपी, पेंसिल और स्केल से जूझती रहती। पढ़ने में वह तेज़ थी। कई बार पिता पूछते, ‘पढ़ लिख कर क्या बनेगी तू?’ शुभा का एक ही जवाब होता, ‘डॉक्टर बनूँगी, बाबा।’

पिता कहते, ‘अच्छी बात है। लेकिन पैसा-बटोरू डॉक्टर मत बनना। जिनके पास पैसा नहीं है उनके लिए भी कोई डॉक्टर चाहिए। एक बार मेरे सामने एक बूढ़े ने डॉक्टर से आँख की जाँच करायी। डॉक्टर जब फीस माँगने लगा तो बूढ़ा हक्का-बक्का हो गया। उसे पता ही नहीं था कि आँख की जाँच कराने की फीस लगती है। पैसा भी नहीं था उसके पास। डॉक्टर आगबबूला हो गया। जाँच का कार्ड छीन कर अपने पास रख लिया और बूढ़े को भगा दिया।’

अपनी कॉपी-किताब में उलझी शुभा को पिता की आधी बात समझ में आती है। कहती है, ‘तुम फिकर न करो बाबा। मैं सब का इलाज मुफ्त करूँगी।’

पिता हँसते, कहते, ‘देखूँगा। नहीं तो कान ऐंठने के लिए मैं तो हूँ ही।’

लेकिन पिता शुभा के कान ऐंठने के लिए रहे नहीं। एक दिन अपने भलेपन और भोलेपन की वजह से वे सड़क पर गुंडों से पिटते एक युवक को बचाने पहुँच गये। पचीसों लोग दर्शक बने यह तमाशा देख रहे थे। गुंडों के लिए यह इज़्ज़त का सवाल था। नतीजा यह कि पिता पेट में छुरे का वार झेल पर वहीं सड़क पर लंबे लेट गये और उन्हें वहाँ से तभी हटाया जा सका जब गुंडों ने अपना नाटक पूरा कर भद्र लोगों के लिए मंच खाली किया। सहायता उपलब्ध कराते तक बहुत देर हो चुकी थी।

शुभा को चौबीस घंटे नसीहत देने वाले पिता मौन हो गये और शुभा अचानक मजबूरन बड़ी हो गयी। चीनू और टीनू अभी नादान थे। वही कुछ करने लायक थी। माँ इस आघात से हतबुद्धि हो गयीं। उनका सारा आत्मविश्वास जाता रहा। अब दरवाज़े पर कोई भी आता तो ‘शुभी, शुभी’ चिल्लाकर पूरे घर को सिर पर उठा लेतीं। दुनिया और हालात का सामना करने का उनका सारा बल ख़त्म हो गया। ज़्यादातर वक्त वे अपने कमरे में कुहनी पर सिर रखे, आँखें बन्द किये लेटी रहतीं।

शुभा के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। घर में दो नादान भाई थे जिन्हें पढ़ा-लिखा कर आदमी बनाना था। वर्तमान भले ही बिगड़ गया हो, भविष्य को सँवारना ज़रूरी था, अन्यथा अँधेरे की सुरंग कभी ख़त्म नहीं होगी। वह सवेरे दोनों भाइयों को डाँट-डपट  कर उठा देती और उन्हें  स्कूल के लिए तैयार होने को छोड़ उनके लिए टिफिन-बॉक्स तैयार करने में लग जाती। भाइयों के लिए वह बिलकुल पुलिस-इंस्पेक्टर बन गयी थी। स्कूल से सीधे घर आना ज़रूरी था, और पढ़ाई के घंटों में कोई दूसरा काम दीदी की अनुमति के बिना नहीं हो सकता था। इस व्यवस्था में अगर माँ भी हस्तक्षेप करतीं तो उन्हें भी डाँट खानी पड़ती।

भाइयों की सब हरकतों पर शुभा की चौकस निगाह रहती थी। वे कहाँ खेलते हैं, किसके साथ उठते बैठते हैं, इसकी मिनट मिनट की खबर उसे रहती थी। जहाँ भी वे खेलते-कूदते वहाँ दीदी एकाध चक्कर ज़रूर लगाती।

एक बार मुसीबत हो गयी जब मुहल्ले के लड़के दोनों भाइयों को सिनेमा ले गये। तीन-चार दिन बाद एक भेदी ने भेद खोल दिया और बात दीदी तक पहुँच गयी। उसके बाद घर में जो लंकाकांड हुआ उसकी याद करके दोनों भाई आज भी सिहर कर माथे पर हाथ रख लेते हैं। शुभा रणचंडी बन गयी थी और माँ के लिए बेटों को उसकी मार से बचाना खासा मुश्किल काम हो गया था। माँ चिल्लातीं, ‘अरे निर्दयी, अब मार ही डालेगी क्या बच्चों को?’ और शुभा जवाब देती, ‘हाँ मार डालूँगी। कम से कम बाबा के जाने के बाद इन्हें आवारा बनाने का कलंक तो नहीं लगेगा।’

शुभा का क्रोध भाइयों तक ही सीमित नहीं रहा। उसके बाद वह मुहल्ले के दादा प्रेम प्रकाश पर भी टूटा जिनकी अगुवाई में यह टोली सिनेमा देखने गयी थी। शुभा छड़ी लेकर पागलों की तरह पिल पड़ी और प्रेम प्रकाश का सारा प्रकाश-पुंज उस दिन बुझ गया। शुभा के हाथों मार खाने के बाद उसका दादापन तो अस्त हुआ ही,  शहर में उसका राजनीतिक कैरियर भी उठते उठते डूब गया।

लेकिन परिवार की देखरेख के चक्कर में शुभा की अपनी पढ़ाई मार खाने लगी। स्कूल तो उसने पास कर लिया, लेकिन कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसके पास वक्त नहीं था। माँ की मानसिक स्थिति कुछ ऐसी थी कि घर में अकेली होते ही उन्हें अवसाद घेर लेता था। बच्चों के भविष्य के बारे में सारी दुश्चिंताएँ उन्हें जकड़ने लगतीं। बच्चों के घर लौटने तक वे उद्विग्न, घर में इधर-उधर घूमती रहतीं। इसलिए शुभा ने आगे की पढ़ाई घर में ही रहकर करने का निश्चय किया।

जैसा कि होता है, शुभा के रिश्तेदार, परिवार के मित्र और शुभचिन्तक अब माँ को शुभा की शादी की नसीहत देने लगे थे। माँ तत्काल उनसे सहमत होतीं और कहतीं कि कोई ठीक लड़का हो तो उन्हें बतायें। शुभा सुनती तो उसे हँसी और रुलाई दोनों ही आती। वह जानती थी कि अभी उसका विवाह संभव नहीं है। वह चली जाएगी तो माँ की पूरी गृहस्थी बैठ जाएगी। भाई अपने रास्ते से भटक जाएँगे और माँ के लिए उन्हें सँभालना मुश्किल हो जाएगा।

बी.ए. पास करने और माँ का मन कुछ स्थिर होने पर उसने एक चिकित्सा-उपकरण बनाने वाली कंपनी में नौकरी प्राप्त कर ली थी। अब दुनिया कुछ भिन्न और विस्तृत हो गयी। कुछ आत्मबल भी बढ़ा। नये वातावरण में घर के दबाव और चिन्ताओं से कुछ देर मुक्त रहने का अवसर मिला।

ऐसे ही वक्त गुज़रता गया। बड़ा चीनू बी.एससी. पास करके एक दवा कंपनी में नौकरी पा गया। जल्दी ही उसकी शादी की बातें होने लगीं। घर में बहू आ जाए तो माँ को सहारा देने के लिए कोई रहे। माँ दबी ज़ुबान में कहतीं, ‘शुभी की शादी से पहले चीनू की शादी कैसे कर दें?’ शुभा हँस कर कहती, ‘माताजी, फालतू की बकवास छोड़ो। बूढ़ों की शादी की चिन्ता मत करो। चीनू की शादी कर डालो।’

माँ दुखी हो जातीं। ‘कैसी जली-कटी बातें करती है यह लड़की! कैसी पत्थरदिल हो गयी है।’

अन्ततः चीनू की शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। जल्दी ही टीनू कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर नौकरी करने नागपुर चला गया।

चीनू की पत्नी को यह घर भाता नहीं था। छोटा सा, पुराना घर था। उसमें बहू की कोई स्मृतियाँ नहीं थीं। फिर उसे लगता था कि इस घर में दीदी की कुछ ज़्यादा ही चलती है। जब मन होता तब वह मायके जा बैठती। चीनू परेशान होने लगा। एक दिन शुभा ने खुद ही कह दिया, ‘भाई, तू अपनी बीवी के लिए कोई अच्छा सा घर ढूँढ़ ले और चैन से रह। हम माँ-बेटी यहाँ रह लेंगे।’ कुछ समय पाखंड करने के बाद चीनू ने घर ढूँढ़ लिया और अपनी गृहस्थी लेकर उसमें चला गया।

अब शुभा शीशे में अपनी बढ़ती उम्र के प्रमाणों को देखती रहती है। माँ उम्र बढ़ने के साथ-साथ निर्बल हो रही है। कभी हो सकता है कि वह घर में अकेली रह जाए और उसका मददगार कोई न हो। माँ ने अभी भी उसकी शादी की रट छोड़ी नहीं है। उनका विचार है अभी भी कोई नया नहीं तो दुहेजू वर तो मिल ही सकता है। कोई एकाध बच्चे वाला भी हुआ तो क्या हर्ज है? ऐसे एक दो प्रस्ताव आये भी हैं। लेकिन अब शुभा की विवाह में रुचि नहीं है। विवाह के नाम से स्फुरण होने वाली उम्र गुज़र चुकी है। अब शादी का नाम उठते ही अनेक आशंकाएँ मन को घेरने लगती हैं। ज़िन्दगी का जो ढर्रा बन गया है उसमें कोई बड़ा मोड़ पैदा करना संभव नहीं है।

घर के पास ही एक तालाब है। पक्की सीढ़ियों और छायादार वृक्षों के कारण वहाँ का दृश्य मनोरम हो गया है। शाम को अक्सर शुभा एक-दो घंटे वहीं गुज़ारती है।नहाने धोने वालों की वजह से वहाँ का वातावरण गुलज़ार बना रहता है। शुभा को देख कर कुछ पाने की लालच में एक दो बच्चे उसके पास आ बैठते हैं। शंकर से शुभा की पटती है। बातूनी और प्यारा लड़का है, लेकिन वक्त की मार झेलता, निरुद्देश्य भटकता रहता है।

एक दिन शुभा ने उससे पूछा, ‘स्कूल नहीं जाता तू?’

‘न! बापू नहीं भेजता। कहता है फीस और किताबों के लिए पैसे नहीं हैं।’

शुभा ने पूछा, ‘मैं फीस और किताबों के पैसे दूँ तो पढ़ेगा?’

शंकर खुश होकर बोला, ‘पढ़ूँगा, लेकिन बापू से बात करनी पड़ेगी।’

शुभा ने उसका हाथ पकड़ा, कहा, ‘आ चल। तेरे बापू से बात करती हूँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 117 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 117 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 117) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 117 ?

☆☆☆☆☆

जिस रोज़ से तूने छोड़ा इसे

हमने भी खाली ही रखा है,

यहां तलक खुशियों को भी

इस दिल में ठहरने न दिया…

☆☆

Ever since you vacated it,

I’ve also kept it empty only

Not even allowed the joy

to enter in this heart…!

☆☆☆☆☆ 

तजुर्बे अजीबो गरीब

हैं ज़िंदगी के कई,

ज़ालिम भी बने हैं

किरदार बंदगी के कई…

☆☆

Many experiences of life

are intriguingly strange…

Seen many oppressors too

becoming servitors of God…!

☆☆☆☆☆ 

 मैं फूल ही चुनती रह गई और

मुझे ख़बर तलक नहीं हुई

कि वो शख़्स मेरे शहर में

आकर चला भी गया…!

☆☆

 I kept picking flowers only

and didn’t even know that…

That person came to my

city and went away…!

☆☆☆☆☆ 

 ऐ ज़िंदगी तेरे नाराज़ होने

से भी भला क्या होगा…

हमेशा मुसकुराते  रहने का तो

हमारी फितरत में शुमार है…!

☆☆ 

O life, what will happen

even if you get angry

Always keep smiling

is one of my habit…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 165 ☆ तीर्थाटन – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 165 ☆ तीर्थाटन – 2 ☆?

गतांक में हमने विभिन्न ग्रंथों में वर्णित व्याख्या के आधार पर तीर्थाटन के धार्मिक, आध्यात्मिक महत्व को समझने का प्रयास किया था। सनातन दर्शन पग-पग पर विराट है। जंगम, स्थावर तथा मानस तीर्थों में वर्गीकरण इसी विराट की प्रतीति है। तीन शब्दों में वर्गीकृत यह सीमित, तीनों लोक नाप लेने जैसा असीमित है। आज हम सर्वसामान्य व्यक्ति द्वारा अनुभूत तीर्थ के महत्व की चर्चा करेंगे।

1) सभी तीर्थ जलवायु की दृष्टि से बेहद उपयोगी स्थान हैं। इनमें से अधिकांश स्थानों पर नदी का जल स्वास्थ्यप्रद है। अनेक प्राकृतिक लवण पाये जाते हैं जिससे जल सुपाच्य और औषधि का काम करता है। विशेषकर गंगाजल को संजीवनी यों ही नहीं कहा गया। बढ़ती जनसंख्या, प्रदूषण, उचित रखरखाव के अभाव ने अनेक स्थानों पर तीर्थ की अवस्था पहले जैसी नहीं रहने दी है तथापि गंगा का अमृतवाहिनी स्वरूप आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है।

2) तीर्थयात्रा को पदयात्रा से जोड़ने की उदात्त दृष्टि हमारे पूर्वजों की रही। आयुर्वेद इसे प्रमेह चिकित्सा कहता है। पैदल चलने से विशेषकर कमर के नीचे के अंग पुष्ट होते हैं। पूरे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह होता है। भूख अच्छी लगती है, पाचन संस्थान प्रभावी रूप से काम करता है।

3) व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने की कुँजी है तीर्थाटन। लोकोक्ति है, ‘जिसके पैर फटे न बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई!’ तीर्थाटन में अच्छे-बुरे, अनुकूल-प्रतिकूल सभी तरह के अनुभव होते हैं। अनुभव से अर्जित ज्ञान, किताबी ज्ञान से अनेक गुना प्रभावी, सच्चा और सदा स्मरण रहनेवाला होता है। इस आलेख के लेखक की एक चर्चित कविता की पंक्तियाँ हैं,

उसने पढ़ी
आदमी पर लिखी किताबें,
मैं आदमी को पढ़ता रहा..!

तीर्थाटन में नये लोग मिलते हैं। यह पढ़ना-पढ़ाना जीवन को स्थाई सीख देता है।

4) संग से संघ बनता है। तीर्थाटन में मनुष्य साथ आता है। इनमें वृद्धों की बड़ी संख्या होती है। सत्य यह है कि अधिकांश बुजुर्ग, घर-परिवार-समाज से स्वयं को कटा हुआ अनुभव करते हैं। परस्पर साथ आने से मानसिक विरेचन होता है, संवाद होता है। मनुष्य दुख-सुख बतियाना है, मनुष्य एकात्म होता है। पुनः अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ स्मरण आती हैं,

विवादों की चर्चा में
युग जमते देखे,
आओ संवाद करें,
युगों को
पल में पिघलते देखें..!
मेरे तुम्हारे चुप रहने से
बुढ़ाते रिश्ते देखे,
आओ संवाद करें,
रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें..!

बूढ़ी नसों में बचपन का चैतन्य फूँक देती है तीर्थयात्रा।

5) तीर्थाटन मनुष्य को बाहरी यात्रा के माध्यम से भीतरी यात्रा कराता है। मनुष्य इन स्थानों पर शांत चित्त से पवित्रता का अनुभव करता है। उसके भीतर चिंतन जन्म लेता है जो चेतना के स्तर पर उसे जाग्रत करता है। यह जागृति मनुष्य को संतृप्त की ओर मोड़ती है। अनेक तीर्थ कर चुके अधिकांश लोग शांत, निराभिमानी एवं परोपकारी होते हैं।

6) तीर्थाटन में साधु-संत, महात्मा, विद्वजन का सान्निध्य प्राप्त होता है। यह सान्निध्य मनुष्य की ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा और पिपासा को न्यूनाधिक शांत करता है। व्यक्ति, सांसारिक और भौतिक विषयों से परे भी विचार करने लगता है।

7) किसी भी अन्य सामुदायिक उत्सव की भाँति तीर्थाटन में भी बड़े पैमाने पर वित्तीय विनिमय होता है, व्यापार बढ़ता है, आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। वित्त के साथ-साथ वैचारिक विनिमय, भजन, कीर्तन, प्रवचन, सभा, प्रदर्शनी आदि के माध्यम से मनुष्य समृद्ध एवं प्रगल्भ होता है।

सार है कि संसार से तारता है तीर्थ। विश्वास न हो तो तीर्थाटन करके देखें। ..इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 117 ☆ भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…१…” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 117 ☆ 

☆ भजन – प्रभु हैं तेरे पास में…१ ☆

*

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

तन तो धोता रोज न करता, मन को क्यों तू साफ रे!

जो तेरा अपराधी है, उसको कर दे हँस माफ़ रे..

प्रभु को देख दोस्त-दुश्मन में, तम में और प्रकाश में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

चित्र-गुप्त प्रभु सदा चित्त में, गुप्त झलक नित देख ले.

आँख मूँदकर कर्मों की गति, मन-दर्पण में लेख ले..

आया तो जाने से पहले, प्रभु को सुमिर प्रवास में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

मंदिर-मस्जिद, काशी-काबा मिथ्या माया-जाल है.

वह घट-घट कण-कणवासी है, बीज फूल-फल डाल है..

हर्ष-दर्द उसका प्रसाद, कडुवाहट-मधुर मिठास में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #149 ☆ कविता – महात्मा गांधी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 149 ☆

☆ ‌कविता – महात्मा गांधी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

सत्य अहिंसा  उनके मन में, उनका नाम  महात्मा गांधी।

 अंग्रेजों की  चूल हिल गई, जब आई  वैचारिक आंधी  ।

असहयोग आंदोलन के जनक बने,  लाठी डंडे खाए।

सही यातना की पीड़ा, फिर भी कभी न पछताए ।।1।।

 

दुबला पतला शरीर था उनका, थे आतम बल के न्यारे।

 वाणी में  आकर्षण के चलते, जनता के बीच हुए प्यारे।

 दांडी आंदोलन के बल पर, सत्याग्रह अभियान चलाया।

 विदेशी कपड़ों की जला के होली, गली गली में नाम कमाया।।2।।

 

हर दिल में वैचारिक क्रांति का, गांधी ने उद्घघोष किया।

रामराज्य का सपना देखा, दुखियों  के दुख  अंत किया।

गांवों के विकास का सपना, उनकी आंखों ने देखा था।

और गुलामी से मुक्ति को, संघर्ष का नारा चोखा था।।3।।

 

राष्ट्र पिता की छवि बनी,  भारत को आजाद कराए।

औ खादी आंदोलन कर के, जन जन  के तन पर वस्त्र सजाए।

दो अक्टूबर को हम सब मिलकर, गांधी जयंती मनाते हैं।

 कभी न भूले शास्त्री जी को, उनको भी शीष झुकाते हैं।।4।।

 

आज के दिन ही भारत मां नें, जन्माए दो लाल थे।

सत्य, अहिंसा, और इमान के, दोनों बने मिसाल थे

दोनों ने अपनी कुर्बानी दे, अपने वतन का मान बढ़ाया।

अपनी हिम्मत अपने ताकत से, उसका शीष झुकाया।।5।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #166 – 52 – “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…”)

? ग़ज़ल # 52 – “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

कुछ लोग तो सत्तर में भी जवां रहते हैं,

अपनी मस्ती में हर वक़्त रवां रहते हैं।

जिनको दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं है,

आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं।

देखना धोखे में उनके कहीं आ न जाना तुम,

वो जो मासूम से लोग आस्तीनों में रहते हैं।

किसी पे कोई भरोसा ज़रा  नहीं करता यहाँ,

यह कैसा समय है जिसमें हम लोग रहते हैं।

किसी से पूछना ज़रूरी तो नहीं है कुछ भी,

दिल के हालात  ‘आतिश’ में अयाँ रहते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 43 ☆ मुक्तक ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 43 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

मोमबत्ती नहीं हर हाथ, में मशाल चाहिए।

नम नहीं आंखें अब, यह   लाल चाहिए।।

नारी के प्रति श्रद्धा, जब होने लगे कम।

कबतक यूं हीअब, हल यह सवाल चाहिए।।

[2]

नर पिशाच नहीं ये, नर नारायण का देश है।

बदल रहा क्यों  यह, जहरीला परिवेश है।।

नारी प्रति भेदभाव विद्वेष, कब तक चलेगा।

नारी शक्ति देवी पूज्य, यही पुरातन संदेश है।।

[3]

नारी सृष्टि रचनाकार, विधि विधान उसी से है।

मातृ भूमि धरा का भी,  सम्मान उसी से है।।

विधाता का रूप  स्वरूप, समाया हर स्त्री में।

मानवता की सेवा  और, गुणगान उसी से है।।

[4]

बच्चों को प्रारंभ से, साहस संस्कार देना चाहिए।

उनको उचित ज्ञान और, सरोकार देना चाहिए।।

बेटियों को बेटों सा,  ही  हमें सशक्त बनाना है।

जबअस्मिता पेआंच, हाथ में तलवार देना चाहिए।।

5

नारी तुमकोअबला नहीं, सबला बनके  जीना है।

तुझसे ही घर परिवार, सुंदर  रूप नगीना है।।

स्त्री सम्मान ही धुरी, अपने समाज कल्याण की।

बन जा रणचंडी नहीं घूंट, अपमान का पीना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 109 ☆ ग़ज़ल – “जमाने की हवा से अब…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “जमाने की हवा से अब…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #109 ☆  ग़ज़ल  – “जमाने की हवा से अब…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

नये युग की धमक है अब धुंधलके से उजाले तक

नया सा दिखता है अब सब बाजारों से शिवाले तक।

 

पुराने घर, पुराने सब लोग, उनकी पुरानी बातें

बदल गई सारी दुनियां ज्यों सुराही से प्याले तक।

 

जमाने की हवा से अब अछूता कुछ नहीं दिखता

झलक दिखती नये रिश्तों की पति-पत्नी से साले तक।

 

चली हैं जो नयी फैशन दिखावों औ’ मुखोटों की,

लगे दिखने हैं अब चेहरे तो गोरे रंग से काले तक।

 

ली व्यवहारों ने जो करवट बाजारू सारी दुनिया में

किसी को डर नहीं लगता कहीं करते घोटाले तक।

 

निडर हो स्वार्थ अपने साधना, अब आम प्रचलन है

दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक।

 

मिलावट हो रही हर माल में भारी धड़ाके से

बाजारों में नही मिलते कहीं असली मसाले तक।

 

फरक आया है ऐसा सबकी तासीरों में बढ़चढ़कर

नहीं देते है गरमाहट कि अब ऊनी दुशाले तक।

 

बताने, बोलते, रहने, पहिनने के सलीकों में

नयापन है बहुत खानों में, स्वदों में निवाले तक।

 

खनक पैसों की इतनी बढ़ गई अब बिक रहा पानी

नहीं तरजीह देते फर्ज को कोई कामवाले तक।

 

गिरावट आचरण की, हुई तरक्की हुई दिखावट की

’विदग्ध’ मुश्किल से मिलते है, कोई सिद्धान्त वाले अब।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 129 – तुझे रूप दाता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 129 – तुझे रूप दाता ☆

तुझे रूप दाता स्मरावे किती रे ।

नव्यानेच आता भजावे किती रे।

 

अहंकार माझा मला साद घाली ।

सदाचार त्याला जपावे किती रे।

 

नवी रोज स्पर्धा इथे जन्म घेते।

कशाला उगा मी पळावेकिती रे ।

 

नवी रोज दःखे नव्या रोज व्याधी।

मनालाच माझ्या छळावे किती रे।

 

कधी हात देई कुणी सावराया।

बहाणेच सारे कळावे किती रे ।

 

पहा सापळे हे जनी पेरलेले ।

कुणाला कसे पारखावे किती रे ।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #159 ☆ परखिए नहीं – समझिए ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परखिए नहीं–समझिए । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 159 ☆

☆ परखिए नहीं–समझिए ☆

जीवन में हमेशा एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करें; परखने का नहीं। संबंध चाहे पति-पत्नी का हो; भाई-भाई का हो; मां-बेटे का हो या दोस्ती का… सब विश्वास पर आधारित हैं, जो आजकल नदारद है। परंंतु हर व्यक्ति को उसी की तलाश है। इसलिए ‘ऐसे संबंध जिनमें शब्द कम और समझ ज्यादा हो; तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो; आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो–की दरक़ार हर इंसान को है। वास्तव में जहां प्यार और विश्वास है, वही संबंध सार्थक है, शाश्वत है। समस्त प्राणी जगत् का आधार प्रेम है, जो करुणा का जनक है और एक-दूसरे के प्रति स्नेह, सौहार्द, सहानुभूति व त्याग का भाव ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का प्रेरक है। वास्तव में जहां भावनाओं का सम्मान है, वहां मौन भी शक्तिशाली होता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘खामोशियां भी बोलती हैं और अधिक प्रभावशाली होती हैं।’

यदि भरोसा हो, तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के अनेक अर्थ निकलने लगते हैं। इस स्थिति में मानव अपना आपा खो बैठता है। वह सब सीमाओं को लाँघ जाता है और मर्यादा के अतिक्रमण करने से अक्सर अर्थ का अनर्थ हो जाता है, जो हमारी नकारात्मक सोच को परिलक्षित करता है, क्योंकि ‘जैसी सोच, वैसा कार्य व्यवहार।’ शायद! इसलिए कहा जाता है कि कई बार हाथी निकल जाता है, पूँछ रह जाती है।

संवाद जीवन-रेखा है और विवाद रिश्तों में अवरोध उत्पन्न करता है, जो वर्षों पुराने संबंधों को पल-भर में मगर की भांति लील जाता है। इतना ही नहीं, वह दीमक की भांति संबंधों की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देता है और वे लोग, जिनकी दोस्ती के चर्चे जहान में होते हैं; वे भी एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। उनके अंतर्मन में वह विष-बेल पनप जाती है, जो सुरसा के मुख की मानिंद बढ़ती चली जाती है। इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न किया करें, उससे ज़िंदगी छोटी हो जाती है…बहुत सार्थक संदेश है। परंंतु यह तभी संभव है, जब मानव क्रोध के वक्त रुक जाए और ग़लती के वक्त झुक जाए। ऐसा करने पर ही मानव जीवन में सरलता व असीम आनंद को प्राप्त कर सकता है। सो! मानव को ‘पहले तोलो, फिर बोलो’  अर्थात् सोच-समझ कर बोलने का संदेश दिया गया है। दूसरे शब्दों में तुरंत प्रतिक्रिया देने से मानव मन में दूरियां इस क़दर बढ़ जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जीवन-साथी– जो दो जिस्म, एक जान होते हैं; नदी के दो किनारों की भांति हो जाते हैं, जिनका मिलन जीवन-भर संभव नहीं होता। इसलिए बेहतर है कि आप परखिए नहीं, समझिए अर्थात् एक-दूसरे की परीक्षा मत लीजिए और न ही संदेह की दृष्टि से देखिए, क्योंकि संशय, संदेह व शक़ मानव के अजात-शत्रु हैं। वे विश्वास को अपने आसपास भी मंडराने नहीं देते। सो! जहां विश्वास नहीं; सुख, शांति व आनंद कैसे रह सकते हैं? परमात्मा भाग्य नहीं लिखता; जीवन के हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म हमारा भाग्य लिखते हैं। इसलिए अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए। संसार में जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लीजिए और शेष को नकार दीजिए। परंतु किसी की आलोचना मत कीजिए, आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। वे सब आपको मित्र सामान लगेंगे और चहुंओर ‘सबका मंगल होय’ की ध्वनि सुनाई पड़ेगी। जब मानव में यह भावना घर कर लेती है, तो उसके हृदय में व्याप्त स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाएं मुंह छुपा लेती हैं अर्थात् सदैव के लिए लुप्त हो जाती हैं और दसों दिशाओं में दिव्य आनंद का साम्राज्य हो जाता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह हमें किसी के सम्मुख झुकने अर्थात् घुटने नहीं टेकने देता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है और दूसरों को नीचा दिखा कर ही सुक़ून पाता है। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की। इसलिए दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन ही सार्थक व सफल होता है। इसलिए मानव को सुख में अहं को निकट नहीं आने देना चाहिए और दु:ख में धैर्य नहीं खोना चाहिए। दोनों परिस्थितियों में सम रहने वाला मानव ही जीवन में अलौकिक आनंद प्राप्त कर सकता है। सो! जीवन में सामंजस्य तभी पदार्पण कर सकेगा; जब कर्म करने से पहले हमें उसका ज्ञान होगा; तभी हमारी इच्छाएं पूर्ण हो सकेंगी। परंतु जब तक ज्ञान व कर्म का समन्वय नहीं होगा, हमारे जीवन की भटकन समाप्त नहीं होगी और हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी। इच्छाएं अनंत है और साधन सीमित। इसलिए हमारे लिए यह निर्णय लेना आवश्यक है कि पहले किस इच्छा की पूर्ति, किस ढंग से की जानी कारग़र है? जब हम सोच-समझकर कार्य करते हैं, तो हमें निराशा का सामना नहीं करना पड़ता; जीवन में संतुलन व समन्वय बना रहता है।

संतोष सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम धन है। इसलिए हमें जो भी मिला है, उसमें संतोष करना आवश्यक है। दूसरों की थाली में तो सदा घी अधिक दिखाई देता है। उसे देखकर हमें अपने भाग्य को कोसना नहीं चाहिए, क्योंकि मानव को समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी, कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। संतोष अनमोल पूंजी है और मानव की धरोहर है। ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान,’ रहीम जी की यह पंक्ति इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि संतोष के जीवन में पदार्पण करते ही सभी इच्छाओं का शमन स्वतः हो जाता है। उसे सब धन धूलि के समान लगते हैं और मानव आत्मकेंद्रित हो जाता है। उस स्थिति में वह आत्मावलोकन करता है तथा दैवीय व अलौकिक आनंद में डूबा रहता है; उसके हृदय की भटकन व उद्वेलन शांत हो जाता है। वह माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होता तथा निंदा-स्तुति से बहुत ऊपर उठ जाता है। यह आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति है, जिसमें मानव को सम्पूर्ण विश्व तथा प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता है। वैसे आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है। संसार में सब कुछ मिथ्या है, परंतु वह माया के कारण सत्य भासता है। इसलिए हमें तुच्छ स्वार्थों का त्याग कर सुक़ून व अलौकिक आनन्द प्राप्त करने का अनवरत प्रयास करना चाहिए। इसके लिए आवश्यकता है उदार व विशाल दृष्टिकोण की, क्योंकि संकीर्णता हमारे अंतर्मन में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों को पोषित करती है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजना बेहतर है और जो बुरा है, उसका त्याग करना बेहतर है। इस प्रकार आप बुराइयों से ऊपर उठ सकते हैं। उस स्थिति में संसार आपको सुखों का सागर प्रतीत होगा; प्रकृति आपको ऊर्जस्वित करेगी और चहुंओर अनहद नाद का स्वर सुनाई पड़ेगा।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जीवन में दूसरों की परीक्षा मत लीजिए, क्योंकि परखने से आपको दोष अधिक दिखाई पड़ेंगे। इसलिए केवल अच्छाई को देखिए ;आपके चारों ओर आनंद की वर्षा होने लगेगी। सो! दूसरों की भावनाओं को समझने और उनकी बेरुखी का कारण जानने का प्रयास कीजिए। जितना आप उन्हें समझेंगे, आपकी दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का अंत हो जाएगा। इंसान ग़लतियों का पुतला है और कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है। फूल व कांटे सदैव साथ-साथ रहते हैं, उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। सृष्टि में जो भी घटित होता है–मात्र किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं; सबके मंगल के लिए कारग़र व उपयोगी सिद्ध होता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

29.8.22

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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