हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 152 ☆ यह अपना  नूतन वर्ष है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 152 ☆

यह अपना  नूतन वर्ष है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(भारतीय नववर्ष विक्रम संवत 2080 के अवसर पर भारतीय नूतन वर्ष पर कोटिशः मंगलकामनाएं)

शस्य श्यामला धरती पर

हरषे नर्तन की शहनाई

तब अपना नूतन वर्ष है

मंद-सुगंध चले पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है।।

 

यह सर्द कुहासा छँटने दो

रातों का पहरा हटने दो

धरती का रूप निखरने दो

फागों के गीत थिरकने दो

कुछ करो प्रतीक्षा और अभी

प्रकृति को दुल्हन बनने दो

खुशियों में गाए अमराई

तब अपना नूतन वर्ष है।

 

मंद-सुगंध चले पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है।।

 

प्रतिप्रदा चैत की आने दो

धरती को सुधा लुटाने दो

चहुँदिश को ही महकाने दो

तन-मन में फाग सुनाने दो

यह कीर्ति सदा है आर्यों की

यह आर्यावर्त की प्रीत रही

जब धरा दुल्हन-सी मुस्काई

तब अपना नूतन वर्ष है।

 

मंद-सुगन्ध बहे पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #153 ☆ संत विसोबा खेचर… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 153 ☆ संत विसोबा खेचर… ☆ श्री सुजित कदम

संत विसोबा खेचर

करीतसे सावकारी

कापडाचे व्यापारी ते

वीरशैव निरंकारी…! १

 

वारकरी संप्रदाय

संत सज्जनांचा सेतू

विठू भेटवावा गळा

साधा सोपा शुद्ध हेतू…! २

 

ज्ञाना निवृत्ती सोपान

मुक्ताईचा द्रेष करी

मांडे भाजताना पाही

ज्ञानदेवा गुरू करी…! ३

 

सन्मानीले मुक्ताईस

विसरोनी अहंकार.

भक्ती योग चैतन्याचा

लिंगायत अंगीकार…! ४

 

योगविद्या अवगत 

नामदेवा उपदेश

अवकाशी फिरे मन

नाव खेचर विशेष..! ५

 

उचलोनी ठेव पाय

जिथे नाही पिड तिथे

गुरू विसोबा तात्विक

नामदेवा लावी पिसे…! ६

 

देव कृपा सहवास

तिथे भक्ता हवे काय

शंकराच्या पिंडीवर

गुरू विसोबांचे पाय..! ७

 

निराकार नी निर्गुण

पांडुरंग भेटविला

परब्रम्ह साक्षात्कार

विसोबांनी घडविला…! ८

 

लिंगायत साहित्यात

तत्व चिंतन पेरून

केले जन प्रबोधन

परखड वाणीतून …! ९

 

शिव मंदिरी बार्शीत

संत विसोबा समाधी

योग आणि परमार्थ

दूर करी चिंता व्याधी…! १०

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – बसंत बहार – ☆ सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– बसंत बहार – ? ☆ सुश्री ज्योत्स्ना तानवडे ☆

वाटेवरती उभी दुतर्फा

झाडे सलामीला सुंदरशी

रंगबिरंगी फुलोऱ्यातूनी

बहरून आली मनभावनशी ||

वाटेवरची आसने ती

वाट पाहती पांथस्तांची

घडीभरीचा देत विसावा

सेवा करती मानवतेची ||

असे वाटते झाडे जणू

भिडुनी खेळती झिम्मा

त्यांच्या खालून आपणही

खेळत जावे हमामा ||

वाटेवरची कमान जणू

साज ल्याली इंद्रधनुचा

पायतळीची  पखरण ती

असे गालिचा भूमातेचा ||

वाट अशी ही सोबतीला

नेते स्वप्नांच्या गावाला

प्रसन्नचित्ते मी ही तिथे

साद घालितसे सख्याला ||

चित्र साभार – सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #174 – परसों वाली रही न बातें… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “परसों वाली रही न बातें……”)

☆  तन्मय साहित्य  #174 ☆

☆ परसों वाली रही न बातें… 

बीता वक्त

साथ में बीत गए

स्वर्णिम पल

मची हुई

स्मृतियों में हलचल

 

शिथिल पंख

अनगिन इच्छाएँ

कैसे अब

उड़ान भर पाएँ,

आसपास

पसरे फैले हैं

लगा मुखौटे

छल बल के दल।

 

परसों वाली

रही न बातें

अन्जानी सी

अन्तरघातें,

सद्भावी नहरें

हैं खाली

हुआ प्रदूषित

नदियों का जल।

 

ऋतु बसन्त

अब भी है आती

होली, दीवाली

शुभ राखी,

परंपरागत

करें निर्वहन

पर न प्रेम वह

रहा आजकल।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 60 ☆ ग़ज़ल – प्रीत का हिंडोला… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल – “प्रीत का हिंडोला”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 60 ✒️

?  ग़ज़ल – प्रीत का हिंडोला… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

प्रीत के हिंडोले में

झूलती जवानी है ।

फूल हैं क़दमों तले

निगाहें आसमानी हैं ।।

 

मुझे रोक ना सकेगी दुनियां

रूढ़ियों की जंज़ीरों से।

मैं बहती हुई नदियां हूं

भावना तूफ़ानी है ।

प्रीत —————–।।

 

झर – झर – झरते – झरने

कल-कल करतीं नदियां ।

कर्मरत रहना ही

सफ़ल ज़िदगानी है ।

प्रीत —————–।।

 

चांदी की हों रातें

सोने भरे हों दिन ।

ऐसा स्वर्ग धरती में

हमने लाने की ठानी है ।

प्रीत —————–।।

 

स्वप्नों के पंख पसारे

क्षितिज के पार हम चलें ।

रात भीगी – भीगी है

भोर धानी – धानी है ।

प्रीत —————–।।

 

नेह के आलिंगन में

बांध लो तुम मुझको ।

वर्तमान से वंचित होना

निरीह नादानी है ।

प्रीत —————–।।

 

मेरा प्यार एक इबादत है

मेरे प्यार में शहादत भी है ।

हर हाल में सलमा को

वफ़ा ही निभानी है ।

प्रीत —————–।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 174 ☆ माझ्या वर्गातल्या मुली… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 174 ?

💥 माझ्या वर्गातल्या मुली… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती वर्षांनी भेटल्या

माझ्या वर्गातल्या मुली

आणि मनाची कवाडे

केली सर्वांनीच खुली !

वाट शाळेची सुंदर

आणि हातामधे हात

सरस्वतीची प्रार्थना

होई एकाच सुरात

गणवेश नील – श्वेत

खूप आवडे मनास

कुणी हुषार, अभ्यासू

कुणा वेगळाच ध्यास

एक मुलगी निर्मल

नेहमीच नंबरात

छान करियर झाले

टेलिफोन ऑफिसात

संजू,मंगलची मैत्री

होती खासच वर्गात

अशा मैत्र गाठी सखे

देव बांधती स्वर्गात

लता, हर्षा, सरसही

होत्या माझ्याच वर्गात

अल्प स्वल्प साथ त्यांची

खूप राहिली लक्षात

पुष्पा रेखितसे हाती

मेंदी सुबक, सुंदर

जयू अलिप्त,अबोल

साथ परी निरंतर

मधुबाला, उज्वलाही

सख्या सोबतीणी छान

उद्योजिका म्हणूनही

मोठा मिळविला मान

शशी – शारदा असती

दोन मैत्रीणी जीवाच्या

गुणवंत, कलावंत…

वलयांकित नावाच्या

मुग्ध माधुरी, फैमिदा

होत्या दोघीही हुशार

आठवणीच्या कुपीत

त्यांचे निखळ विचार

अशा वर्गातील मुली

अवखळ, आनंदीत

जिने तिने जपलेले

जिचे तिचे हो संचित

अशा आम्ही सर्वजणी

एका बागेतल्या कळ्या

जेव्हा भेटलो नव्याने

सुखे नाचलो सगळ्या

© प्रभा सोनवणे

१६ मार्च २०२३

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “या हृदयीचे त्या हृदयी” ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “या हृदयीचे त्या हृदयी” ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

चष्मा साफ करता करता एक वयस्कर काका आपल्या बायकोला म्हणाले : अगं,आपल्या जमान्यात मोबाइल नव्हते.

काकू : हो ना ! पण बरोबर 5 वाजून 55 मिनिटांनी मी पाण्याचा ग्लास घेवून दरवाजात यायची आणि तुम्ही पोहचायचे.

काका : मी तीस वर्षे नोकरी केली पण मला आजपर्यंत हे समजलं नाही की, मी यायचो त्यामुळे तू पाणी आणायचीस की तू पाणी आणायचीस, त्यामुळे मी लवकर यायचो.

काकू : हो. आणि अजून एक आठवतं की तुम्ही रिटायर व्हायच्या आधी तुम्हाला डायबीटीस नव्हता व मी तुमची आवडती खीर बनवायचे, तेव्हा तुम्ही म्हणायचे की, आज दुपारीच वाटलं होतं की आज खीर खायला मिळाली, तर काय मजा येईल.  

काका : हो ना .. अगदी. ऑफिसमधनं निघताना मी जोही विचार करायचो घरी आल्यावर बघतो, तर तू तेच बनवलेलं असायचं.

काकू  : आणि तुम्हाला आठवतं ? पहिल्या डिलीव्हरीच्या वेळी मी माहेरी गेले होते, तेव्हा मला कळा सुरू झाल्या होत्या. मला वाटलं, हे जर माझ्याजवळ असते तर ? आणि काय आश्चर्य, तासाभरात तर स्वप्नवत तुम्ही माझ्या जवळ होतात.

काका  : हो. त्या दिवशी मनात विचार आला होता, की तुला जाऊन जरा बघूयात.

काकू : आणि तुम्ही माझ्या डोळ्यात डोळे घालून कवितेच्या दोन ओळी बोलायचे.

काका : हो आणि तू लाजून पापण्या मिटवायचीस व मी त्या कवितेला तुझा ‘लाइक’ मिळाला असं समजायचो.

बायको  : एकदा दुपारी चहा करताना मला भाजलं होतं. त्याच दिवशी सायंकाळी तुम्ही बर्नोलची ट्यूब अापल्या खिशातनं काढून बोललात,’ही कपाटात ठेव’.

काका : हो..आदल्या दिवशीच मी बघितलं होतं की ट्यूब संपलीय. काय सांगता येतं, कधी गरज पडेल ते? हा विचार करून मी ट्यूब आणली होती.

काकू  : तुम्ही म्हणायचे की आज ऑफिस संपल्यावर तू तिथंच ये. सिनेमा बघूयात आणि जेवण पण बाहेरच करूयात.

काका : आणि जेव्हा तू यायचीस तर मी जो विचार केलेला असायचा तू अगदी तीच साडी नेसून यायचीस.

काका काकूजवळ जावून तिचा हात हातात घेत बोलले : हो, आपल्या जमान्यात मोबाइल नव्हते पण आपण कनेक्टेड होतो.

काकू  : आज मुलगा आणि सून सोबत तर असतात,पण गप्पा नाही, तर व्हाट्सएप असतं. आपुलकी नाही, तर टॅग असतं. केमिस्ट्री नव्हे, तर कॉमेंट असते. लव्ह नाही, तर लाइक असते. गोड थट्टामस्करीच्या ऐवजी अनफ़्रेन्ड असतं. त्यांना मुलं नकोत, तर कैन्डीक्रश सागा, टेम्पल रन आणि सबवे सर्फर्स पाहिजे.

काका : जाऊ दे गं! सोड हे सगळं. आपण आता व्हायब्रेट मोडवर आहोत. आपल्या बॅटरीची पण 1 च लाइन उरली आहे.

अरे ! कुठं चाललीस ?

काकू  : चहा बनवायला.

काका : अरे… मी म्हणणारच होतो की चहा बनव म्हणून.

बायको  : माहिती आहे. मी अजूनही कवरेज क्षेत्रात आहे आणि मेसेजेस पण येतात.

दोघेही हसायला लागले.

काका : बरं झालं,आपल्या जमान्यात मोबाइल नव्हते.

 

मित्रांनो !

खरंच आतापर्यंत बरंच काही निसटून गेलंय व बरंच काही निसटून जाईल.

बहुतेक आपली ही शेवटची पिढी असेल की जिला प्रेम, स्नेह, आपलेपणा ,सदाचार आणि सन्मानाचा प्रसाद वर्तमानपिढीला वाटावा लागेल. गरजेचं पण आहे. 

लेखक : अज्ञात 

संग्राहिका : सौ उज्ज्वला केळकर 

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग-2 – सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 33 – भाग- 2 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ सुंदर, शालीन आणि अभिमानी जपान ✈️

क्योटो इथे  एक बौद्ध मंदिर पाहिले. जगातले सगळ्यात मोठे लाकडी बांधकाम असे त्याचे वर्णन केले जाते. बौद्ध धर्माच्या प्रसारासाठी सहाव्या शतकात तिथे भारतातून नागार्जुन आणि वसुबंधू नावाचे बौद्ध भिक्षू आले होते, असे तिथे लिहिले होते. नंतर बुद्धाचे १००० सोनेरी पुतळे असलेले व मधोमध भगवान बुद्धाची शांत भव्य मूर्ती असलेले देऊळ पाहिले. त्या मूर्तीपुढील पुतळ्यांची नावे इंद्र, गंधर्व, नारायण, विष्णू, लक्ष्मी अशी आहेत पण त्यांचे चेहरे विचित्र दिसतात. एका पॅगोडामध्ये छताला भव्य सोनेरी कमळांची नक्षी आहे. पाऊस सुरू झाल्याने उरलेले क्योटो  दुसऱ्या दिवशी बघण्याचे ठरले.

क्योटो रेल्वे स्टेशनवर जायला म्हणून एका बसमध्ये चढलो. पण सकाळी जिथे उतरलो होतो ते स्टेशन कुठे दिसेना. कसे दिसणार? कारण आम्ही अगदी विरुद्ध दिशेच्या बसमध्ये बसलो होतो. आमची काहीतरी गडबड झाली आहे हे आजूबाजूच्या जपानी लोकांच्या लक्षात आले पण भाषेची फार अडचण! अगदी थोड्या जणांनाच इंग्रजी समजते. पण तत्परतेने मदत करण्याची वृत्ती दिसली. एका जपानी माणसाला थोडेफार समजले की आम्हाला क्योटो स्टेशनवर जायचे आहे. बस, डेपोमध्ये गेल्यावर त्याने खाणाखुणा करून सांगितल्याप्रमाणे आम्ही धावत पळत त्याच्या मागे गेलो. त्याने आम्हाला योग्य बसमध्ये बसवून दिले.

दुसऱ्या दिवशी क्योटोला जाऊन  गोल्डन टेम्पलला गेलो. एका तळ्याच्या मध्यावर संपूर्ण सोन्याच्या पत्र्याने मढविलेला पॅगोडा आहे. सभोवतालच्या तळ्यात त्याचे सोनेरी प्रतिबिंब चमकत होते. चारी बाजूंनी झाडीने वेढलेल्या पर्वतराजीत राजघराण्याचे हे देऊळ आहे .नंतर जवळच असलेल्या सिल्व्हर  टेम्पलला गेलो. असंख्य फुलझाडांच्या आणि शिस्तीने राखलेल्या झाडांमध्ये हे देऊळ आहे .डोंगरातून वरपर्यंत जाण्यासाठी वृक्षराजींनी वेढलेल्या पाऊलवाटा आहेत. स्वच्छ झऱ्यांमधून सोनेरी, पांढरे ,तांबूस रंगांचे मासे सुळकन इकडे तिकडे पळत होते.

जेवण आटोपून नारा इथे जाण्यासाठी छोट्या रेल्वे गाडीत बसलो. स्वच्छ काचांची छोटी, सुबक गाडी छोट्या छोट्या गावांमधून चालली होती. हिरवी, पोपटी डोलणारी शेती, आखीवरेखीव भाजीचे मळे, त्यात मन लावून कामं करणारी माणसं, टुमदार  घरं, घरापुढे छान छान मोटारगाड्या, रंगसंगती साधून जोपासलेला बगीचा असे चित्रातल्यासारखे दृश्य होते. नारा येथील हरीण पार्क विशेष आकर्षक नव्हते. जवळच असलेल्या लाकडी, भव्य तोडाजी टेम्पलमध्ये ७० फूट उंचीची भगवान बुद्धाची दगडी मूर्ती आहे. या मूर्तीच्या दोन्ही बाजूला तशाच भव्य पंचधातूच्या, पण सोनेरी मुलामा दिलेल्या बुद्धमूर्ती आहेत.देवळाचे प्रचंड लाकडी खांब दोन कवेत न मावणारे आहेत . जुन्या पद्धतीची जपानी बाग पाहिली. झुळझुळणाऱ्या झऱ्याच्या मध्यावर अगदी आपल्या कोकणातल्यासारखा लाकडी रहाट फिरत होता. पूर्वी ही रहाटाची शक्ती वापरून धान्य दळण्यासाठी त्याचा उपयोग करीत असत. बागेमध्ये अनंत व जास्वंदीची झाडे सुद्धा होती.

आज  मियाजिमा व हिरोशिमा इथे जायचे होते. शिनकानसेनने म्हणजेच बुलेट ट्रेनने हिरोशिमा इथे उतरून मियाजिमा  इथे गेलो. तिथून छोट्या बोटीने जाऊन पाण्यावर तरंगणारा पाच मजली शिंटो पॅलेस पाहिला.हे छोटेसे बेट पर्वतराजींनी वेढलेले आहे. त्यावरील घनदाट वृक्ष फॉल सीझनच्या रंगाने सजू लागले होते.

क्रूझने परत मिआजिमा स्टेशनला येऊन जपान रेल्वेने हिरोशिमाला आलो. जगातला पहिला अणुबॉम्ब जिथे टाकला गेला ते ठिकाण! मानवी क्रौर्याचे अस्वस्थ करणारे स्मारक! अगदी खरं सांगायचं तर तेथील म्युझियम, तिथे दाखवत असलेला माहितीपट  आम्ही फार वेळ बघू शकलो नाही. लोकांचे आक्रंदन, जळणारे देह, कोसळणाऱ्या इमारती यातील काहीही फार वेळ बघवत नाही. मानवतेवर कलंक लावणारे असे ते विदारक चित्र पाहून डोळ्यातून अश्रूधारा वाहू लागतात. मनुष्य इतका क्रूर बनू शकतो यावर विश्वास ठेवणं कठीण जातं. तिथल्या लहान मुलांच्या स्मारकाजवळ काचेच्या मोठ्या चौकोनी पेट्या ठेवल्या होत्या. अणुबॉम्बला विरोध आणि जागतिक शांततेला पाठिंबा दर्शविण्यासाठी  आपण तिथे ठेवलेल्या पांढऱ्याशुभ्र कागदांचे पक्षांचे आकार करून त्या पेट्यांमध्ये टाकायचे. आम्हीही तिथे नाव पत्ता लिहून आमचा शांततेला पाठिंबा दर्शवीत कागदाचे काही क्रेन्स करून त्या काचेच्या पेटीत टाकले. तत्परता म्हणजे एवढी, की आम्ही जपानहून परत येण्याच्या आधीच आम्ही शांततेला पाठिंबा दर्शविल्याबद्दल हिरोशिमाच्या मेयरचे आभारदर्शक पत्र घरी येऊन पडले होते.

आज हिमेजी कॅसल बघायला जायचे होते. कोबेच्या सान्योमिया स्टेशनवरून हिमेजीला जाताना अकाशी येथील सस्पेन्शन ब्रिज पहिला.अमेरिकेतील सॅनफ्रान्सिसकोच्या गोल्डन ब्रीजपेक्षासुद्धा हा ब्रीज लांबीने जास्त आहे.  हिमेजी स्टेशनला उतरून तिथला भव्य, संपूर्ण लाकडी राजवाडा बघायला गेलो. त्याच्या बाहेरील प्रांगणात बोन्सायचे आणि सुंदर फुलांचे मोठे प्रदर्शन भरले होते. मोठ्या वृक्षांची हुबेहूब छोटी प्रतिकृती करण्याची ही जपानी कला!  अगदी छोट्या, सुंदर आकारांच्या कुंड्यांमधून वाढवलेले छोटे वृक्ष, त्यांना आलेली छोटी फळं, छोटी जंगलं, दगडातील डोंगरातून वाहणारे झरे सारे पाहात रहावे असे होते. डेलिया, जरबेरा, सूर्यफुलांचे विविधरंगी ताटवे होते.

आज  सकाळी कोबेमध्येच घराजवळील रोपवे स्टेशनला जायचे होते. आम्ही राहात होतो, तिथून दहा मिनिटांच्या अंतरावर ओरिएंटल हॉटेल नावाची भव्य वास्तू होती. हॉटेलमधल्याच रस्त्याने बुलेट ट्रेनच्या शिनकोबे स्टेशनला जाण्याचा मार्ग होता. हॉटेलच्या लॉबीमध्ये दोन्ही बाजूला फर्निचर, कपडे, खेळण्यांची आकर्षक दुकाने होती. शिनकोबे क्लब होता. लहान मुलांना खेळायची जागा होती. छोटे पब, रेस्टॉरंट होते. जमिनीखालील दोन मजल्यांवर ग्रोसरी व फळे फुले यांची दुकाने होती. तिथून भुयारी रेल्वेच्या स्टेशनला जाता येत होते आणि आमचा रोपवेला जाण्याचा मार्ग हॉटेलच्या रस्त्यामधून एका बाजूला होता. एखाद्या जागेचा जास्तीत जास्त, अत्यंत सोयीस्कर व नेटका उपयोग कसा करून घ्यायचा याचे हे एक उत्तम उदाहरण वाटले.

रोपवेने डोंगरमाथ्यावर गेलो.फुजिसान म्हणजे फुजियामा पर्वत सोडला तर इथे कुठचाही डोंगर उघडा- बोडका नाहीच. वृक्षांची लागवड करून, ते जोपासून सारे हिरवे राखले आहे. डोंगर माथ्यावरील हर्ब पार्कमध्ये औषधी वनस्पती, भाज्या वाढविल्या आहेत. त्यात गवती चहा, पुदिना, तुळस, माका, ब्राह्मी, आले, मिरी वगैरे झाडे जोपासली होती. मोठ्या काचगृहातून केळीची लागवड केली होती. कारंजी ,झरे ,फुलांचे गालिचे होते. डोंगर माथ्यावरून साऱ्या कोबे शहराचा नजारा दिसत होता.

जपान भाग २ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 74 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 74 – मनोज के दोहे… ☆

1 क्षितिज

क्षितिज नापने उड़ चला, पंछी नित ही भोर।

शाम देख फिर आ गया, सुनने कलरव शोर ।।

वायुयान में बैठ कर, उड़े कनाडा देश।

अंतहीन इस क्षितिज का, समझ न पाया वेश।।

2 भूषित

धरा वि-भूषित वृक्ष से, करती है शृँगार।

प्राणवायु देती सुखद, जीवन हर्ष अपार ।।

भूषित प्रकृति संपदा, दर्शन का उन्मेश ।

पर्यटक आते देखने, मिटते मन के क्लेश।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 133 – “तूफानों से घिरी जिंदगी” – श्री हरि जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री हरि जोशी जी की आत्मकथा “तूफानों से घिरी जिंदगी” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 133 ☆

“तूफानों से घिरी जिंदगी” – श्री हरि जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

तूफानों से घिरी जिंदगी, आत्म कथा

हरि जोशी

प्रकाशक इंडिया नेट बुक्स, नोएडा दिल्ली

पृष्ठ २१८, मूल्य ४०० रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

मेरी समझ में हम सब की जिंदगी एक उपन्यास ही होती है. आत्मकथा खुद का लिखा वही उपन्यास होता है. वे लोग जो बड़े ओहदों से रिटायर होते हैं उनके सेवाकाल में अनेक ऐसी घटनायें होती हैं जिनका ऐतिहासिक महत्व होता है, उनके लिये गये तात्कालिक निर्णय पदेन गोपनीयता की शपथ के चलते भले ही तब उजागर न किये गये हों किंतु जब भी वे सारी बातें आत्मकथाओ में बाहर आती हैं देश की राजनीति प्रभावित होती है. ये संदर्भ बार बार कोट किये जाते हैं. बहु पठित साहित्यकारों, लोकप्रिय कलाकारों की जिंदगी भी सार्वजनिक रुचि का केंद्र होती है. पाठक इन लोगों की आत्मकथाओ से प्रेरणा लेते हैं. युवा इन्हें अपना अनुकरणीय पाथेय बनाते हैं.

हिन्दी साहित्य में पहली आत्मकथा के रूप में बनारसी दास जैन की सन १६४१ में रचित पद्य में लिखी गई ” अर्ध कथानक ” को स्वीकार किया गया है. यह ब्रज भाषा में है. बच्चन जी की आत्मकथा क्या भूलूं क्या याद करूं, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर और दशद्वार से सोपान तक ४ खण्डों में है. कमलेश्वर ने भी ३ किताबों के रूप में आत्मकथा लिखी है. महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग,बहुचर्चित है.  हिन्दी व्यंग्यकारों में भारतेंदु हरीशचंद्र की कुछ आप बीती कुछ जगबीती, परसाई जी ने हम इक उम्र से वाकिफ हैं, तो रवीन्द्र त्यागी की आत्मकथा वसंत से पतझड़ तक पठनीय पुस्तकें हैं. ये आत्मकथायें लेखकों के संघर्ष की दास्तान भी हैं और जिंदगी का निचोड़ भी.

सफल व्यक्तियों की जिंदगी की सफलता के राज समझना मेरी अभिरुचि रही है. उनकी जिंदगी के टर्निंग पाइंट खोजने की मेरी प्रवृति मुझे रुचि लेकर आत्मकथायें पढ़ने को प्रेरित करती है. इसी क्रम में मेरे वरिष्ठ हरि जोशी जी की सद्यः प्रकाशित आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी,पढ़ने का सुयोग बना तो मैं उस पर लिखे बिना रह न सका. मेरी ही तरह हरि जोशी जी भी  इंजीनियर हैं, उन्होंने मेरी किताब “कौआ कान ले गया” की भूमिका लिखी थी. फोन पर ही सही पर उनसे जब तब व्यंग्य जगत के परिदृश्य पर आत्मीय चर्चा भी हो जाती हैं.

यह आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी  दादा पोता संवाद के रूप में अमेरिका में बनी है. हरि जोशी जी का बेटा अमेरिका में है, वे जब भी अमेरिका जाते हैं छह महिनो के लम्बे प्रवास पर वहां रहते हैं. जब उनसे ६५ वर्ष छोटे उनके पोते सिद्धांत ने उनसे उनकी जिंदगी के विषय में जानना चाहा तो उसके सहज प्रश्नो के सच्चे उत्तर पूरी ईमानदारी से वे देते चले गये और कुछ दिनो तक चला यह संवाद उनकी जिंदगी की दास्तान बन गया. एक अमेरिका में जन्मा वहां के परिवेश में पला पढ़ा बढ़ा किशोर उनके माध्यम से भारत को, अपने परिवार पूर्वजों को, और अपने लेखक व्यंग्यकार दादा को जिस तरह समझना चाहता था वैसे कौतुहल भरे सवालों के जबाब जोशी जी ने देकर सिद्धांत की कितनी उत्सुकता शांत की और उसे कितने साहित्यिक संस्कार संप्रेषित कर सके यह तो वही बता सकता है, पर जिन चैप्टर्स में यह चर्चा समाहित की गई है वे कुछ इस तरह हैं, आत्मकथा का प्रारंभ खंड हरि जोशी जी का जन्म ठेठ जंगल के बीच बसे आदिवासी बहुल गांव खूदिया, जिला हरदा में हुआ था, शिशुपन की कुछ और स्मृतियाँ सुनो, कीचड़ के खेल बहुत खेले,  हरदा,  भोपाल, दुष्यंत जी की प्रथम पुण्यतिथि पर धर्मयुग में जोशी जी की ग़ज़ल का प्रकाशन,  इंदौर,  उज्जैन, दिल्ली  जहां जहां वे रहे वहां के अनुभवों पर प्रश्नोत्तरों को उसी शहर के नाम पर समाहित किया गया है. रचनात्मक योगदान और लेखक व्यंग्यकार हरि जोशी को समझने के लिये हिंदी लेखक खंड, सहित्यकारों से भेंट, विश्व हिंदी सम्मेलन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व, गोपाल चतुर्वेदी जी के व्यंग्य में नैरन्तर्य और उत्कृष्टता, मुम्बइया बोली के प्रथम लेखक यज्ञ शर्मा, अज्ञेय जी की वह अविस्मरणीय मुद्रा, वृद्धावस्था और गिरता हुआ स्वास्थ्य, बाबूजी मोजे ठंड दूर नहीं करते, ठिठुराते भी हैं, कोरोना काल “मेरी प्रतिनिधि रचनायें”, वृद्धावस्था के निकट, परिजन संगीत और साहित्य, लंदन, अमेरिका, पिछले दिनों फिर एक तूफानी समस्या,और अंत में  अमेरिका में मृत्यु पर ऐसा रोना धोना नहीं होता जैसे चैप्टर्स अपने नाम से ही कंटेंट का किंचित परिचय देते हैं. इस बातचीत में साफगोई, ईमानदारी और सरलता से जीवन की यथावत प्रस्तुति परिलक्षित होती है.

कभी कभी लगता है कि आम आदमी के हित चिंतन का बहाना करते राजनेता जो जनता के वोट से ही नेता चुने जाते हैं, पर किसी पद पर पहुंचते ही कितने स्वार्थी और बौने हो जाते हैं, जोशी जी ने 1982 में अपने निलंबन का वृतांत लिखते हुए तत्कालीन मुख्य मंत्री जी का नाम उजागर करते हुए लिखा है कि तब उन्हे सरकारी आवास आवंटित था, उस आवास पर एक विधायक कब्जा चाहते थे, इसलिए जोशी जी की रचना “रिहर्सल जारी है” को आधार बनाकर उन्होंने मुख्य मंत्री जी से उनका स्थानांतरण करवाना चाहा, उस रचना में किसी का कोई नाम नहीं था, और पूर्व आधार पर जोशी जी के पास कोर्ट का स्थगन था फिर भी विधायक जी पीछे लगे रहे, और अंततोगत्वा जोशी जी का निलंबन मुख्य मंत्री जी ने कर दिया । पुनः उनकी रचना दांव पर लगी रोटी छपी, विधान सभा में जोशी जी के प्रकरण पर स्थगन प्रस्ताव आया  ।

1997 में जब जबलपुर में भूकंप आया तो उनकी रचना नव भारत टाइम्स के दिल्ली, मुंबई संस्करण में छपी ” श्मशान और हाउसिंग बोर्ड का मकान ” इसपर तत्कालीन  राज्य मंत्री जी ने शासन की ओर से उनके विरुद्ध मानहानि का  दावा शुरू कर दिया था ।

वे बेबाक व्यंग्य लेखन के खतरे झेलने वाले रचनाकार हैं। अस्तु, अंततोगत्वा जोशी जी की कलम जीती, आज वे सुखी सेवानिवृत जीवन जी रहे हैं। पर उनकी जिंदगी सचमुच बार बार तूफानों से घिरी रही । आत्मकथा के संदर्भ में

 लिखना चाहता हूं कि यदि इसमें  शहरों, देश,  स्थानों के नाम से चैप्टर्स के विभाजन की अपेक्षा बेहतर साहित्यिक शीर्षक दिये जाते तो आत्मकथा के साहित्यिक स्वरूप में श्रीवृद्धि ही होती. आज के ग्लोबल विलेज युग में हरदा के एक छोटे से गांव से निकले हरि जोशी अपनी  प्रतिभा के बल पर इंजीनियर बने, जीवन में साहित्य लेखन को अपना प्रयोजन बनाया, व्यंग्य के कारण ही उनहें जिंदगी में तूफानों, झंझावातों, थपेड़ों से जूझना पड़ा पर वे बिना हारे अकेले ईमानदारी के बल पर आगे बढ़ते रहे, तीन कविता संग्रह, सोलह व्यंग्य संग्रह, तेरह उपन्यास आज उनके नाम पर हैं ।

उन्हें व्यंग्य लेखन के कारण जो समस्याएं आईं वे व्यंग्यकार की परीक्षा होती हैं, स्वयं मुझे नौकरी में तो व्यंग्य इतना बाधक नहीं बन सका क्योंकि मैंने कार्यालय और लेखन को हमेशा बिलकुल पृथक रखने का यत्न किया, जब प्रारंभ में कुछ पत्राचार मेरे अधिकारियों ने किया तो मैंने अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक प्रावधान तथा फंडामेंटल सर्विस रूल्स में लिटररी वर्क संबंधी नियम बताकर कानूनी जानकारी अपने जबाब में दे दी। पर अनेक संगठनों समय समय पर मेरे लेखन से आहत होते रहे और मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मान और अधिक प्रहार कारी लेखन करता रहा । इससे मेरी अपनी कार्यप्रणाली स्पष्ट और नियमानुसार कार्य करने की बनी तथा मेरी छबि स्वच्छ बनती गई,  मैने कभी अपने पास किसी फाइल को  लटकाया नही । लोग मुझसे अव्यक्त रूप से डरने भी लगे कि कहीं उन पर कुछ लिख न दूं । खैर ।

 हिन्दी व्यंग्य जगत की ओर से मेरी मंगलभावना है कि जोशी जी की किताबो की  यह सूची अनवरत बढ़ती रहे. इन दिनों वे मजे में अपनी सुबहें धार्मिक गीत संगीत से प्रारंभ करते हैं. मैं अक्सर कहा करता हूं कि यदि प्रत्येक दम्पति सुसभ्य संवेदनशील बच्चे ही समाज को दे सके तो यह उसका बड़ा योगदान होता है,हरि जोशी जी ने सुसंस्कारित सिद्धांत सी तीसरी नई पीढ़ी और अपना ढ़ेर सारा पठनीय साहित्य समाज को  दिया है, वे अनवरत लिखते रहें यही शुभ कामना है. यह आत्मकथा अंतरराष्ट्रीय संदर्भ बने.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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