हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 154 – आशा की किरण ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श  और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “आशा की किरण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 154 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 आशा की किरण ❤️

बड़े बड़े अक्षरों पर लिख था – – – ” भ्रूण का पता लगाना कानूनी अपराध है।”

मेडिकल साइंस की देन गर्भ में भ्रूण का पता लगा लेना।

आशा भी इस बीमारी का शिकार बनी। उसे लगा कि भ्रूण पता करके यदि शिशु बालक है तो गर्भ में रखेगी अन्यथा वह गर्भ गिरा झंझट से मुक्त हो जाएगी।

क्योंकि गरीबी परिस्थिति के चलते अपने घर में बहनों के साथ होते अन्याय को वह बचपन से देखते आ रही थी।

सुंदर सुशील पढ़ी-लिखी होने के कारण उसका विवाह बिना दहेज के एक सुंदर नौजवान पवन के साथ तय हुआ। विवाह के बाद पता चला कि वह माँ बनने वाली है।

किसी प्रकार पैसों का इंतजाम कर अपने पति पवन को मना वह भ्रूण जांच कराने चली गई। रिपोर्ट आई कि होने वाली संतान बालक है खुशी का ठिकाना ना रहा। दुर्गा माता की नवरात्र का समय था। वह अपनी प्रसन्नता जल्दी से जल्दी बताना चाहती थी परंतु यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे समय आने पर पता चलेगा।

आज प्रातः स्नान कर वह खुशी-खुशी अस्पताल पहुंच गई। मन में संतुष्टि थी कि होने वाला बच्चा बेटा ही होगा। वह भी नवरात्र के पहला दिन। निश्चित समय पर ऑपरेशन से  बच्चा बाहर आया। आशा को  होश नहीं था। होश आने पर उसने देखा… उसका पति एक हाथ में शिशु और दूसरे हाथ में मिठाई का डिब्बा ले, सभी को मिठाइयाँ बाँट रहा है वह प्रसन्नता से भर उठी। उसकी आशा जो पूरी हो गई।

पास आकर पवन ने कहा… “बधाई हो मेरी ग्रहलक्ष्मी हमारे घर आशा की किरण आ गई। अब हमारे दिन सुधर जाएंगे।”

“साधु संतो के मुख से सुना है कि अश्वमेध यज्ञ करने के बाद भी आदमी को संतान की प्राप्ति नहीं होती, परंतु जिसके घर स्वयं भगवान चाहते हैं वहाँ बिटिया का जन्म होता है। स्वयं माँ भगवती पधारती है।”

आशा अपने पति को इतना खुश देख कर थोड़ी हतप्रभ थी क्योंकि, इतनी बड़ी बात उन्होंने छुपा कर रखा था और उसे एक महापाप से बचा लिया।

 आँखों से बहते आंसुओं की धार से बेटे और बेटी का फर्क मिट चुका था। आशा अपने किरण को पाकर बहुत खुश हो गई और पति देव का बार-बार धन्यवाद करने लगी।

शुभ नव वर्ष और नवरात्र की कामना करते वह भाव विभोर होने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 26 – छविगृह व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 26 – छविगृह व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में बॉलीवुड शब्द अमेरिका के हॉलीवुड की नकल है। हमारी फिल्में, संगीत आदि भी बहुत कुछ यहां की कॉपी है ऐसा लोग कहते हैं। कभी कभी अनुमति अवश्य ले ली जाती है, जिसका शुल्क भी अदा किया जाता हैं।

विदेश में पास के एक छोटे से कस्बे में रीगल नामक छविगृह हैं। जिसमें दो हिंदी फिल्में चल रही थी, पहला दिन और पहला शो, तीन सौ सीट के हाल में हमारे सहित कुल दस लोग थे। सत्तर के दशक में कॉलेज के दिन याद आ गए। परिचित कर्मचारी से एक दिन पूर्व मिल कर टिकट की व्यवस्था या छविगृह में साईकिल स्टैंड वाले से अतिरिक्त राशि देकर टिकट प्राप्त की जाती थी।

यहां छविगृह में वाहन पार्किंग निशुल्क थी। हमारे समय में तो  साइकिल की पार्किंग के लिए दस पैसे बचाने के लिए दो मित्र एक ही साइकिल पर चल देते थे।

यहां टिकट प्राप्ति के लिए कियोस्क से अपनी पसंद की पिक्चर चुनकर कार्ड से या नगद राशि से भुगतान कर मशीन से  टिकट प्राप्त की जा सकती हैं। छविगृह में चौदह अलग स्क्रीन हैं। प्रवेश के लिए कोई टॉर्च लिया हुआ गेटकीपर भी नहीं है।

छविगृह में सीजन पास की भी व्यवस्था है। पूरे अमेरिका में स्थित दो सौ रीगल में कहीं भी अनगिनत पिक्चर्स देखी जा सकती है। कार्ड धारक को मद्यपान छोड़ कर सभी खानपान में विशेष छूट का प्रावधान है। पॉपकॉर्न का बड़ा डिब्बा या ठंडे पेय की बोतल को कितनी बार दुबारा मुफ्त में भरने की सुविधा सब के लिए उपलब्ध है।

पिक्चर में मध्यांतर नहीं होता है। सबसे अच्छी बात हमारे जैसे उम्र दराज दर्शकों को टिकट में विशेष छूट की व्यवस्था भी है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – नेपाल से ☆ प्रस्तुति – डॉ निशा अग्रवाल ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – नेपाल से  – डॉ निशा अग्रवाल🌹

🌹 चतुर्थ इंडो-नेपाल त्रिदिवसीय साहित्यिक महोत्सव आयोजित 🌹

नेपाल महानगरपालिका विराटनगर और क्रांतिधरा साहित्य अकादमी मेरठ भारत के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित चतुर्थ इंडो-नेपाल त्रिदिवसीय साहित्यिक महोत्सव में राव शिवराज पाल सिंह (इनायती) और डॉ निशा अग्रवाल का सम्मानित🌹

नेपाल विराटनगर महानगरपालिका और क्रांतिधरा साहित्य अकादमी मेरठ भारत के संयुक्त तत्वावधान में बिराटनगर नेपाल में त्रिदिवसीय साहित्यिक महोत्सव दिनांक 17, 18 और 19 मार्च 2023 को आयोजित किया गया जिसमें भारत और नेपाल के 350 से अधिक साहित्यकारों ने भाग लिया। कार्यक्रम के संयोजक विराटनगर निवासी डॉ देवी पंथी एवं आयोजक मेरठ निवासी डॉ विजय पंडित रहे। कार्यक्रम का उद्घाटन मुख्य अतिथि विराटनगर महानगरपालिका मेयर नागेश कोइराला , विशिष्ट अतिथि गंगा सुबेदी, दधिराज सुबेदी, कार्यक्रम अध्यक्ष विवश पोखरेल की मौजूदगी में हुआ। कार्यक्रम पांच सत्र में संपन्न हुआ। कार्यक्रम के द्वितीय सत्र का संचालन नेपाल के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ देवी पंथी ने किया। समारोह के प्रथम दिवस को आयोजित कविता वाचन सत्र की अध्यक्षता नेपाल के प्रोफेसर तेजप्रकाश ने की जिसमें मुख्य अतिथि जयपुर के राव शिवराज पाल सिंह तथा विशिष्ट अतिथि डॉ निशा अग्रवाल एवं अन्य रहे। इस सत्र का मुख्य आकर्षण जयपुर की डॉ निशा अग्रवाल का प्रभावशाली कविता वाचन रहा। इस सत्र का उद्बोधन राव शिवराज पाल सिंह के शब्दों के साथ हुआ। राव शिवराज ने कहा कि-  “हिंदी और नेपाली भाषा संस्कृत से निकली भाषाएं है। एक भाषा, दूसरी भाषा का विकास करती है और हमें एक दूसरे के साहित्य को पढ़ते रहना चाहिए।”

साहित्य में अनुवाद की महत्ता विषय पर परिचर्चा और शोधपत्र वाचन सत्र का संचालन कार्यक्रम आयोजक और अच्छे साहित्यकारों में शुमार मेरठ के डा विजय पंडित ने कहा कि- “साहित्य समाज का दर्पण के साथ एक दीपक का भी काम करता है जो समाज को एक नई दिशा दिखलाता है और साहित्यिक महोत्सव के माध्यम से हम दोनों देशों के बीच एक मजबूत साहित्यिक सेतु का निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं।डॉ निशा ने अपने वक्तव्य में कहा कि- “साहित्य भावनाओं की वह त्रिवेणी है जो जनहित की धरा के साथ उच्चादर्शों की दिशा में प्रवाहित होती है।राव शिवराज ने कहा कि- “साहित्य के बिना समाज गूंगा है और समाज के बिना साहित्य मात्र कोरी कल्पना।” अतः साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। वक्ताओं ने कहा कि-  “भारत नेपाल के मध्य साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने हेतु यह सफल और शानदार वैश्विक मंच हैं। ” कार्यक्रम में नेपाल के वरिष्ठ एवं नवोदित साहित्यकार के साथ साथ भारत के विभिन्न राज्यों से आए गजलकार अशोक श्रीवास्तव प्रयागराज, कवि हरीश देहरादून, ओंकार कश्यप पटना, अंजनी सुमन भागलपुर, राजकुमार चित्तौड़गढ़, प्रीति सैनी जमशेदपुर , हेमलता शर्मा इंदौर, राधा पांडे सिक्किम , नूतन सिन्हा बिहार,रीमा दीवान चढ़ा नागपुर, डॉ त्रिलोकचंद फतेहपुरी, अर्चना तिर्की रांची एवं अन्य वरिष्ठ एवं नवोदित साहित्यकारों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। सभी कलमकारों की लघु कथाओं और बहुभाषी कवि सम्मेलन ने कार्यक्रम में शमां बांध दिया।

समारोह में राव शिवराज पाल सिंह और डॉ निशा अग्रवाल को सम्मान पत्र और ट्रॉफी भेंट कर सम्मानित किया गया।

साहित्यकारों के इस विशाल कुंभ के व्यवस्थित आयोजन और सफल संचालन के पीछे भारत से डॉ विजय पंडित और नेपाल से डॉ देवी पंथी की मुख्य भूमिका रही।

राव शिवराज और डॉ निशा ने कार्यक्रम के संयोजक,आयोजक, व्यवस्थापक टीम के साथ समस्त आगंतुक विद्वतजनों का आभार व्यक्त करते हुए कार्यक्रम के सफल संचालन के लिए सभी को बधाई दी।

साभार –  डॉ निशा अग्रवाल

जयपुर ,राजस्थान  

 ☆ (ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)  ☆ एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री  ☆ 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #180 ☆ जन्मदर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 180 ?

☆ जन्मदर… ☆

रावणांचा जन्मदर हा वाढलेला

भ्रूण स्त्रीचा उकिरड्यावर फेकलेला

 

लग्नसंस्थेचाच मुद्दा ऐरणीवर

अन् तरीही माणसा तू झोपलेला

 

साधु संताचे अता संस्कार नाही

वासनेचा डोंब आहे पेटलेला

 

पायवाटा नष्ट केल्या डांबराने

कृत्य काळे आणि रस्ता तापलेला

 

कोणताही पक्ष येथे राज्य करुदे

अन्नदाता दिसत आहे त्रासलेला

 

पाय मातीवर म्हणे आहेत त्याचे

गालिच्यावर तो फुलांच्या चाललेला

 

छान संस्कारात सारे वाढलेले

का तरीही एक आंबा नासलेला ?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 131 – भटक रहा है बंजारे सा… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – भटक रहा है बंजारे सा…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 131 – भटक रहा है बंजारे सा…  ✍

व्याप गई है ऐसी जड़ता, जैसी कमी न व्यापी ।

मौसम का मन बदल गया है

करता है मनमानी

ऊपर से तुम शह देते हो

लगे मुझे हैरानी।

अपने पाँव देख चुप बैठे, जैसे कोई कलापी।

 

यादों की वंशी बजती थी

वह है बात पुरानी

अता पता कुछ नहीं याद का

शायद कहीं हिरानी।

घटनाओं का क्रम अटूट है, लगता जीवन शापी।

 

बात कौन सोची थी मैंने

सोच सोच कर हारा

ठीक नहीं हैं मन के लच्छन

निकल गया आवारा।

 

भटक रहा है बंजारे सा, राह सड़क सब नापी।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 130 – “ढलते सूरज में दिखती है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “ढलते सूरज में दिखती है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 130 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

ढलते सूरज में दिखती है

सरक गया सिर से

रेशम की साडी का कोना

कोई खिड़की पर बैठा

करता जादू टोना

 

उसकी भूखी आँत

उलहना देती सी आखें

बहुत फड़फडाता उडने

को श्वेत श्याम पाँखें

 

उसके शब्दों में गहरी

पीडा निवास करती

आखिर क्यों कर कडुवाहट

का वह है सिनकोना

 

खिड़की पर बाँसुरी

बजाना उसका क्यों भारी

लोग समझते उसको

है यह शापित बीमारी

 

सरगम के सब तार

लिपट कहते बंसी धुन में

छलना रेशम को आता है

तिस पर क्या रोना

 

ढलते सूरज में दिखती है

उस को परछाईं

प्रिय की किसी सुशोभन

अनुपम मुद्रा की नाईं

 

चेहरे पर नैराश्य और

छाती में  शून्य रहा

बस अटके है प्राण

अधर में दोना- दो- दोना

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

11-03-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 179 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक  विचारणीय लघुकथा – ऐसा भी होता है...”।)

☆ लघुकथा # 180 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

नर्मदा जी के किनारे एक श्मशान में जल रहीं हैं कुछ चिताएं। राजू ने बताया कि उनमें से बीच वाली चिता में कपाल क्रिया जो सज्जन कर रहे हैं वे फारेस्ट डिपार्टमेंट के बड़े अधिकारी हैं, इसीलिए चिता चंदन की लकड़ियों से सजाई गयी है,और उसके बाजू में जो चिता सजाई जा रही है, वह गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले अति गरीब की है।

उनके लोगों का कहना है कि जितनी लकड़ियां तौलकर आटो से आनीं थीं, उसमें से बहुत सी लकड़ियां आटो वाला चुरा ले गया। किन्तु, ऐसे समय कुछ कहा नहीं जा सकता, न शिकायत की जा सकती है,  क्योंकि, आजकल लोग बात बात में दम दे देते हैं, अलसेट दे देते हैं और काम नहीं होने देते।

गरीब मर गया तो आखिरी समय भी उसके साथ गेम हो गया। गरीब के रिश्तेदारों ने बताया कि जलाने के लिए ये जो लकड़ियां ख़रीदीं गईं थीं, उसके लिए पैसे उधार लिए गए थे। इसके बाद भी गरीब का दाहसंस्कार करने के लिए तत्पर बेटे को इस बात से खुशी है कि पिताजी ने जरूर कोई पुण्य कार्य किए होंगे, तभी इतने अमीर की चिता के बाजू में स्थान मिला, और बाजू की चिता से जलती हुई चंदन की लकड़ी का धुंआ उनकी चिता को पवित्र करेगा और वैसा ही हुआ। चिता को अग्नि दी गई और हवा की दिशा बदल गई। चंदन की लकड़ी से उठता हुआ धुआं गरीब की चिता में समा गया। श्रद्धांजलि सभा में कहा गया उसने जीवन भर गरीबी से संघर्ष किया पर वो पुण्यात्मा था, तभी तो ऐसा चमत्कार हुआ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 121 ☆ # खंडहर… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी होली पर्व पर विशेष कविता “# खंडहर… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 121 ☆

☆ # खंडहर… # ☆ 

सूरज की किरणों से

जो धरती जाग जाती थी

जहां ठंडी ठंडी पुरवाई

नया सवेरा लाती थी

स्नान, पूजा, ध्यान, तप

जहां घुला था कण-कण में

जहां मंदिर की घंटियां और

अजान एक साथ होती थी

रणबाँकुरे अपनी आजादी के लिए

लड़ते रहे आखरी सांस तक

सिर कटा दिया अपना

पर आने नहीं दी आंच तक

अपने पौरुष के दम पर

अपना साम्राज्य फैलाया था

एक छोर से दूसरे छोर तक

अपना ध्वज लहराया था

प्रजा का कल्याण, हित

हर राजा को प्यारा था

यहां कोई नहीं पराया था

यहां दुश्मन भी जान से प्यारा था

सुख, शांति, धर्म के

सब रखवाले थे

अपनी धार्मिक आस्था पर

जान न्योछावर करने वाले थे

हिंदू राजा का सेनापति मुगलवंशी था

तो मुगल का सेनापति हिंदू था

चाहे जिस खेमें में हो पर

समर्पण सबका बिंदु था

अपने अपने कर्तव्य को

निष्ठा से निभाते थे

शहादत दे देते रण में

पर कभी पीठ नहीं दिखाते थे

रणबाँकुरे ने लड़ी लड़ाइयां

कुछ जीती, कुछ हारे

अपने सम्मान के लिए

लड़ते रहे वो सारे

वीरांगनाओं ने भी अदम्य साहस

दिखाया था

सतीत्व की रक्षा के लिए

तीन बार जौहर अपनाया था

इन योद्धाओं को, वीरांगनाओं को

शत्, शत् नमन है

जिनको जान से ज्यादा

प्यारा वतन है

 

यह ऊंचे ऊंचे दुर्गम किले

अपनी कहानी दोहराते हैं

हर पत्थर बोलता है

इतिहास को समझाते हैं

सबको गले लगाओ

हर शख्स को अपना बनाओ

सब मिलकर रहेंगे तो

तूफानों को सह पायेंगे

वर्ना

समय के तूफान में

इन किलों की तरह बिखरकर

एक एक पत्थर निकलकर

सिर्फ

खंडहर रह जायेंगे /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 122 ☆ अनामिक तू… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 122 ? 

☆ अनामिक तू…

तुला काय बोलावे, मला कळत नव्हते

तुझ्याशिवाय दुसरे, पहावत सुद्धा नव्हते.!!

 

अशी कशी आलीस, हवे सारखी तू

अर्धवट एक, रात्रीचे स्वप्न माझे तू.!!

 

तुला पाहण्यात, माझा वेळ खर्ची झाला

लोभस मोहक सोज्वळ, भुरळ माझ्या मनाला.!!

 

अबोल स्तब्ध अन्, अचेतन मी क्षणभर झालो

पाहुनी तुझ्या सौंदर्याला, मलाच मी विसरलो.!!

 

पुन्हा कधी भेटशील, शक्यता नाहीच आता

कधी भेटू वळणार, तर ती वेळ कुठे आता.!!

 

अनामिक ललना तुला, नामना सांग काय देऊ

असेच कधी भेटू पुन्हा, मनाला दिलासा देऊ.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 61 – स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान –  लेखांक दोन ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 61 – स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान –  लेखांक दोन डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजींनी दक्षिणेश्वरच्या मंदिरातील कालीमातेचं/जगन्मातेचं दर्शन घेऊन परिव्राजक म्हणून प्रवास सुरू केला तो आता कन्याकुमारी मंदिरात दर्शनाने संपणार होता.

उत्तरेकडील बर्फाच्छादित हिमालयापासून सुरू झालेली स्वामीजींची प्रदीर्घ यात्रा आता भारताच्या दक्षिण टोकास संपली होती. तामिळनाडू मध्ये जिथे अरबी समुद्र, हिंद महासागर, आणि बंगालची खाडी यांचा संगम होतो तिथे माता कन्याकुमारीचे प्राचीन मंदिर आहे. तिचे पौराणिक संदर्भ पण आहेत.    

या मंदिरात स्वामीजी गेले आणि साष्टांग नमस्कार करून, कन्यारूपातील जगन्मातेचं दर्शन घेऊन बाहेर आले. तशी समोर लांबवर नजर गेली, दीड फर्लांग अंतरावर दोन प्रचंड शिलाखंड दिसले.यावरच माता कन्याकुमारीने /पार्वतीने स्वत: इथे तपस्या केली होती. या शिला खंडावर तिचे पदचिन्ह आज ही आहेत म्हणून त्याला ‘श्रीपाद शिला’ म्हणून ओळखले जाते. मनशांती साठी व चिंतनासाठी आपल्याच भूमीवरच्या या शिलाखंडावर जायची त्यांना मनोमन इच्छा झाली. तिथे गेलो तर खर्‍या अर्थाने मातृभूमीचे दक्षिण टोक आपण गाठले असा अर्थ होईल. म्हणून कसही करून त्या खडकांवर आपण जावं असं वाटून, ते किनार्‍यावर आले. समोर उंच उंच फेसाळत्या लाटा होत्या.त्याची जराही भीती वाटली नाही कारण, मनात तर याहीपेक्षा मोठे वादळ उठलेले होते. समोरच होड्या होत्या. काही कोळी पण उभे होते. स्वामीजींनी त्यांची  चौकशी केली. त्या नावेतून खडकापर्यंत पोहोचविण्यास नावाडी तयार होते, फक्त पैसे द्यावे लागणार होते. नावाड्यांनी त्याचे ३ पैसे सांगितले.  स्वामीजी तर निष्कांचन होते.तीन काय, एक पैसा सुद्धा त्यांच्या जवळ नव्हता. पण साहस तर होतं.  झालं,क्षणाचाही विलंब न करता, त्यांनी त्या उंच लाटांमध्ये उडी घेतली आणि पोहत पोहत जाऊन ते खडक गाठले. समुद्राला रोजचे सरावलेले असतांनाही नावाडी हे बघून स्तब्धच झाले. लाटा उसळणार्‍या तर होत्याच पण तिथे शार्क माशांपासून पण धोका होता हे त्यांना माहिती होतं. हे पाहून दोन तीन नावाडी स्वामीजींच्या पाठोपाठ गेले. ते सुखरूप पोहोचले हे बघून, त्यांना काही हवे का विचारले. आम्ही आणून देऊ असे सांगीतल्यावर थोडे दूध आणि काही शहाळी पुरेशी आहेत असे स्वामीजींनी सांगितले.

राष्ट्र चिंतन पर्व – २५, २६ २७ डिसेंबर  

स्वामी विवेकानंदांनी या आधी आध्यात्मिक साधना म्हणून अनेक वेळा एकांतात ,अरण्यात वगैरे ध्यान केलं होतं. पण आता चे ध्यानचे रूपच वेगळे होते. अरण्य नाही,झाडं झुडुपं नाही, गुहा नाही ,उघड्या खाडकावर आकाशाचे चं छत आणि आजूबाजूला प्रचंड आणि चोवीस तास खळाळणार्‍या समुद्राच्या लाटा,दिवसा सूर्यची प्रखर किरणे, जोरात येणार्‍या वार्‍याचे झोत असा पारंपरिक ध्यान धारणेचा वेगळाच एकांतवास तिथे होता.२५ डिसेंबर १८९२ रोजी स्वामी ध्यानास बसले. स्वामीजींनी या शिलाखंडावर तीन दिवस, तीन रात्र अखंड ध्यान केलं. लाटांच्या अखंड गंभीर नादाबरोबर स्वामीजींचे गाढ चिंतन सुरू झाले. कलकत्त्यातून बाहेर पडल्यापासुनचे सर्व दिवस, त्यात आलेले अनुभव, सगळं डोळ्यासमोर उभं राहिलं होतं. जगन्मातेचं ध्यान आणि भारत मातेचं चिंतन तीन दिवसात झालं. चौथ्या दिवशी सकाळी तरुण नावाड्यांनी जाऊन होडीतून त्यांना पुन्हा किनार्‍यावर आणलं. जे शोधायला स्वामीजी आले होते ते त्यांना इथे मिळालं. भारताचा गौरवशाली इतिहास, भयानक वर्तमानकाळ आणि आणि आधी पेक्षाही अधिक स्वर्णिम भविष्यकाळ याचा चित्रपटच जणू त्यांच्या डोळ्यासमोर उभा राहिला.सिंहावलोकन करण्याचा तो क्षण होता. भारताच्या श्रेष्ठ संस्कृतीतले वास्तव तसाच त्यातलं सुप्त सामर्थ्य त्यांना या क्षणी जाणवलं होतं. त्याच्या मर्यादा ही त्यांना जाणवल्या होत्या.

प्राचीन इतिहास असलेला हा विशाल देश, इतिहासाचे केव्हढे चढउतार, सार्‍या जगाला हेवा वाटेल असे प्राचीन काळातील द्रष्ट्या ऋषीमुनींनी दिलेले आध्यात्मिक धन. पण तरीही आज भारत कसा आहे? त्याची अस्मिताच हरवलेली दिसत आहे. सगळ्या मानव जातीने स्वीकारावीत अशी शाश्वत मूल्यं पूर्वजांकडून लाभली आहेत तरीही त्यातल्या तत्वांचा त्याला विसर पडला आहे. अभिमान वाटावा असा भूतकाळाचा वारसा आहे पण वर्तमानात मात्र घोर दुर्दशा आहे. यातून समाजाचं तेज पुनः कसं प्रकाशात आणता येईल?  अशा प्रश्नांची उत्तरे त्यांना शोधायची होती. उपाय शोधायचे होते. एखाद्या शिल्पकाराने उत्तम मूर्ती घडविताना त्याचा सर्वांगीण विचार करावा तसा स्वामीजी भारताचा विचार यावेळी करत होते. 

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares