(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता “मन दर्पण में…”। )
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण बुन्देली गीत“नाचो मोर…”।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ…“।)
स्वयं को पढ़ना सबसे कठिन कार्य है, इसलिए कबीर कह गये कि
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
ज्ञान अगर पुस्तकों से मिलता तो गौतम बुद्ध ,एल्बर्ट आईंस्टीन और आचार्य रजनीश को किसी विश्वविद्यालय से मिलता, पेड़ के नीचे नहीं. प्रतिभा पुस्तकों से अगर मिलने लगती तो क्रिकेट साहित्य पढ़कर सचिन तेंदुलकर, संगीत शास्र पढ़कर लता मंगेशकर और शतरंज की पुस्तकें पढ़कर आनंद विश्वनाथन हजारों या लाखों की संख्या में आते रहते. ये बात अलग है कि सिर्फ वृक्ष के नीचे बैठने से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता. मूलतः चिंतन, मनन और रिसर्च की प्रवृत्ति के साथ साथ वस्तु, व्यक्ति या घटनाओं का ऑब्जरवेशन महत्वपूर्ण है.
Creativity is important rather than copy and paste.
शायद इसलिए भी रचनाकार वही करिश्मा बार बार नहीं दोहरा पाते क्योंकि वे नया रचने का जोखिम लेने से बचना चाहते हैं. तो जो हिट हुआ है, उसकी सीरीज़ बनाते रहते हैं और पैसे कमाते रहते हैं पर ये तो वणिकता है, रचनात्मकता नहीं.
पुस्तकें जानकारियों का संग्रह होती हैं जैसे कि आज के युग में गूगल. पर अविष्कार की ताकत न गूगल में है न ही पोथियों में. वे तो एक बार ही सजीव थीं जब लिखी गईं पर फिर तो जड़ हो गईं और उनसे ज्यादा जड़ता तो उनमें है जो आँख बंद कर वही पढ़े जा रहे हैं, वही रटे जा रहे हैं और वही बोले जा रहे हैं. उससे आगे सोचना बंद कर वही पर्याप्त है ऐसी धारणा बना चुके हैं. ऐसे जड़ लोगों से बेहतर तो वायरस हैं जो अपने आपको निरंतर अपडेट करते रहते हैं. ओमिक्रान, कोरोना का अपडेट है. मनुष्य जब तक वेक्सीन बनाकर, टेस्ट करने के बाद पूर्ण वेक्सीनेशन तक पहुंचेगा, उससे पहले ही ये अपना अगला वरस वर्जन लेकर मार्केट में आ जाते हैं. तुम डाल डाल हम पात पात. हमारे पास तो कहावतें भी पीढ़ियों पुरानी हैं.
सनातन का प्रयोग तो धर्म नामक शब्द के साथ ज्यादा प्रचलित है जिसका भावार्थ यही है कि जो सदा नूतन हो, नदी के समान प्रवाहित होता रहे न कि कुंये के समान जड़ रहे. कुयें की इसी जड़ता से शब्द बना है “कूपमंडूकता ” गहरा पर चारों तरफ से घिरा हुआ. याने बंधन, प्रोटोकॉल, सीमा को ही अंतिम क्षमता मान लेने की मानसिकता. इसलिये ही कुएं की नहीं नदियों की पूजा होती है, उन्हें माता का सम्मान दिया जाता है, पवित्रता का पर्याय माना जाता है, स्थिरता नहीं बल्कि प्रवाह, निरंतरता, नूतनता ही सम्मान पाते है. क्योंकि ये सीमाओं के बंधनों से मुक्त हैं. संपूर्ण अंतरिक्ष गतिशील है और समय भी.ये गतिशीलता ही जीवन है और जीवन का सत्य भी. Move on बहुत नयी तो नहीं पर बहुत पुरानी कहावत भी नहीं है.
सुप्रभात, आपके जीवन में नूतनता से भरा दिवस शुभ हो.
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण गीत –क्षण को क्यों बचा लिया।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 115 – गीत – क्षण को क्यों बचा लिया
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “रिस रही है धूप…”।)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य–“खंभों पर सवार चापलूसी”।)
☆ व्यंग्य # 164 ☆ “खंभों पर सवार चापलूसी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं । हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)
शहर के बिजली खंभों को देखकर कभी कभी दया आ जाती है, कभी कभी लगता है खंभे न होते तो चापलूसों का जीवन जीना मुश्किल हो जाता। खंभो का मुफ्त उपयोग दो ही प्राणी करते हैं.. एक चापलूस , दूसरे कुत्ते। बड़े घर का कुत्ता जब बंगले के बाहर मेडम के साथ सड़क पर निकलता है तो सड़क पर खड़े बेचारे खंभे पर टांग उठाकर अपनी भड़ास निकाल देता है। सड़क छाप कुत्ते दिन भर इन बेचारे खंभों को सींचने का काम करते रहते हैं पर खम्भों को किसी से शिकायत नहीं होती, वह चिलचिलाती धूप, कुनमुनाती ठंड और बरसते आसमान के नीचे खड़ा खिलखिलाते हुए खुश रहता है।
बिजली के खंभे बहुउपयोगी होते हैं। बिजली के तारों से कसे हुए ये सबके घरों को रोशन करते हैं, इंटरनेट -केबिल कंपनियां भी अपने तार इनके ऊपर लाद देती हैं, बिजली के खंभे चापलूसों के लिए बड़े काम के होते हैं, शहर में नेताओं का आगमन-प्रस्थान हो, नेता जी का जन्मदिन हो, झूठ-मूठ का आभार प्रदर्शन हो, ऐसे सब तरह के फ्लेक्स लटकाने के लिए शहर के बिजली के खंभे चापलूसी करने के लिए काम के होते हैं, एक फ्लेक्स हटता नहीं और दूसरा आकर लटक जाता है। शहर में कोई न कोई नेता आता ही रहता है, खंभों ने लदना सीख लिया है, एक मंत्री हर हफ्ते राजधानी से हवाई जहाज में लद के पत्नी से मिलने आते और चमचों को खबर कर देते, चमचे प्रेस विज्ञप्ति देते लोग चापलूसी करने बैनर खंभों पर टांग देते, हवा से कई बार बैनर आधा लटक जाते फिर मोहल्ले के कुत्ते उसमें लघुशंका करते। बैनर फ्लेक्स लगाने वाले छुटकू नेता कभी कभी सोचते भी थे कि खंभे नहीं होते तो क्या होता ? नगर निगम चाहे तो बैनर फ्लेक्स लटकाने वालों से जुर्माना भी वसूल कर सकती है पर बैनर फ्लेक्स लटकाने वाले छुटकू चिपकू नेता सत्ताधारी पार्टी के चमचे होते हैं इनसे वसूल करोगे तो बात चाचा मामा तक पहुंच जाएगी, और नगर निगम के अफसरों के ऊपर खंभा गाड़ दिया जाएगा।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#खाली हाथ जाना है…#”)
☆ विचार–पुष्प – भाग – ४४ – ते … पाच आठवडे ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
आलीया भोगासी असावे सादर ! केव्हढा मोठा धक्का? ज्या सर्वधर्म परिषदेत भाग घ्यायला अमेरिकेत आलो ते ध्येय च साध्य होणार नाही? आपल्यासाठी सर्व शिष्यांनी एव्हढी धडपड केली ती सर्व व्यर्थ जाणार? मनातून स्वामीजी नक्कीच खूप अस्वस्थ झाले असतील. आपलीही चूक त्यांच्या लक्षात आली. म्हणजे या विषयीचं अज्ञान जाणवलं. कारण सर्वधर्म परिषद भरवण्याची योजना गेली दोन वर्ष चालू होती. जगातले सर्व प्रमुख धर्म, पंथ,संप्रदाय त्या त्या धर्माच्या विविध संस्था यांच्याशी पत्रव्यवहार चालू होता. त्यामुळे त्या त्या देशासाठी समित्याही स्थापन झाल्या होत्या. एव्हढच काय भारतासाठीही समिति झाली होती. पण याची तिळभरही कल्पना स्वामीजींना आणि त्यांच्या शिष्यांना नव्हती. शिवाय अशी अधिवेशने कशी भरतात,त्याची पद्धत काय असते, हे ही माहिती नव्हते. शिष्यांनाही वाटलं की एकदा अमेरिकेला पोहोचले की पुढचं सगळं आपोआप होईल. या त्रुटी लक्षात आल्या. आणखी एक महत्वाचं कारण होतं, या धर्म परिषदेसाठी केलेल्या भारतीय समितीत परंपरांबरोबर धर्माला विरोध करणारे ब्राह्म समाजाचे आणि सामाजिक सुधारणेचे पुरस्कर्ते होते. की जे स्वामीजींना पण ओळखत होते. त्यांनी महाबोधी समिति आणि जैन समिती च्या प्रतींनिधींना परवानगी दिली होती. भारतातला प्रमुख धर्म हिंदू असला तरी त्याच्या प्रतिनिधित्वाबद्दल विचार केला गेला नव्हता. दुर्दैवच म्हणावं.
परिषदेला अजून वेळ होता तोवर शिकागोतले हे थंडीचे दिवस कसे निघणार?जवळचे पैसे तर भरभर संपत होते. आता सर्वात गरज होती ती पैशांची. थंडीसाठी गरम कपडे घेण्यासाठी शंभर डॉलर्स लागणार होते. स्वामीजी हताश झाले त्यांनी अलसिंगा ना तार केली, ‘सर्व पैसे संपत आलेत उपाशी राहण्याची वेळ आली आहे’. मद्रासला अलसिंगा यांनी भरभर वर्गणी गोळा करून तीनशे रुपये आणि मन्मथनाथ यांनी पाचशे रुपये पाठवले.’ एका दुर्बल क्षणी’ आपण तार केली असे त्यांनी पत्रात म्हटले. पण त्यांचा निर्धार पक्का होता काही झाले तरी मागे हटायचे नाही. परिषदेत भाग घ्यायचाच.
इथली व्यवस्था लागेपर्यंत स्वामीजी वेळ सत्कारणी लावत होते. तिथे जे औद्योगिक प्रदर्शन भरलं होतं ते पहायला रोज जात. ते अवाढव्यच होतं. सातशे एकर जागेवर ते उभं केलं होतं. या कामासाठी दोन वर्ष, सात हजार मजूर काम करत होते. सातशे जखमी झाले, अठरा मृत्यूमुखी पडले. यावरून त्याच्या भव्यतेची कल्पना येते. त्यात वेगवेगळे विभाग होते, रचना सुंदर होती. अडीच कोटीहून अधिक लोकांनी याला भेट दिली होती. यात विज्ञानातील अद्ययावत संशोधन, त्याचा उपयोग, यंत्रे उपकरणे, हे सर्व मांडलं होतं. यातलं मानवाची बुध्दी आणि कर्तृत्व स्वामीजींना आकर्षित करणारं होतं. त्यांना ते आवडलं होतं. ते आठवडाभर रोज बघायला जात.
त्या प्रदर्शनात स्वामीजींना अनेक अनुभव आले. अमेरिकन वृत्तपत्राची नीतीमत्ता कशी याचा अनुभव आला. कपूरथळयाचे महाराज प्रदर्शनात फिरत होते. पहिल्याच दिवशी प्रदर्शनात एक वार्ताहर एका भारतीय माणसाची मुलाखत घेत होता, तो भारतीय लोकांची अवस्था सांगू लागला, दुसर्या दिवशी वृत्तपत्रात ‘ हा महाराज दिसतो तसा नाही ,तो हलक्या जातीचा आहे, हे सर्व राजे ब्रिटीशांचे गुलाम आहेत, ते नैतिकतेने वागत नाहीत असं काही स्वामीजींना उद्देशून सनसनाटी वृत्त दिले, भारतातील एक विद्वान प्रदर्शनास भेट देतो अशी स्तुति करून, ते न बोललेली वाक्ये त्यांच्या तोंडी घातली होती.
त्यांच्या वेषामुळे सर्वांच लक्ष वेधलं जायचं. प्रदर्शन पाहता पाहता एकदा तर मागून कुणीतरी त्यांच्या फेट्याचं टोक ओढलं. स्वामीजींनी मागे वळून इंग्रजीतून आपली नाराजी व्यक्त केली. तसे, सद्गृहस्थ स्वामीजीना इंग्रजी येतं हे ऐकून, वरमून म्हणाले तुम्ही असा पोशाख का करता? कुतूहल म्हणून कुणी विचारलं तर ठीक, पण असा मागून ओढणं हा असभ्यपणाच. प्रदर्शन पाहताना एकदा गर्दीत तर त्यांना मागून ढकललं आणि मुद्दाम धक्का पण मारला गेला होता. असाही अनुभव त्यांना आला. वरच्या वर्गातील सुशिक्षित लोक असे वागतात याचं त्यांना आश्चर्य वाटलं.
बोस्टनला तर आणखीनच वाईट अनुभव. स्वामीजी रस्त्यावरून जात असताना त्यांना आपल्या मागून कुणीतरी येत असल्याचा भास झाला. त्यांनी मागे वळून पाहिले तर, काही मुलांचा आणि मोठ्या माणसांचा जमाव मागून येत असल्याचे दिसले ते पाहून स्वामीजी वेगात चालू लागले, तसे ते ही लोक वेगात आले. क्षणात आपल्या खांद्यावर काहीतरी आदळलं हे कळताच स्वामीजी धावत सुटले आणि अंधार्या गल्लीत नाहीसे झाले. थोड्या वेळाने मागे पहिले तर तो जमाव निघून गेला होता. स्वामीजींनी सुटकेचा निश्वास टाकला. स्वामीजींना लक्षात आली पाश्चात्य देशातली वर्णभेदाची विषमता. समतेचं तत्व पाश्च्यात्यांकडून शिकावं असं भारतात अनेक वर्ष शिकवलं जात होतं. तिथेच हे अनुभव आले. पाश्चात्य संस्कृतीतल्या गुणदोषांची आल्या आल्याच जवळून ओळख होत होती. स्वामीजींवरील हा हल्ला परदेशात झाला होता . इथे प्रकर्षाने आठवण झाली ती नुकत्याच पालघर मध्ये झालेल्या निर्दोष साधूंच्यावरील हल्ल्याची. त्यात त्यांना प्राणास ही मुकावे लागले. जी सर्वसामान्य प्रत्येक माणसाला प्रचंड धक्का देणारी होती. आपल्याच देशात घडलेली ही घटना समता बंधुत्वाबद्दल काय सांगते?
आता विवेकानंदांना आर्थिक अडचण सोडवण महत्वच होतं. बोस्टनला राहील तर स्वस्त पडेल असं कळल्याने ते तिकडे जाण्याचं प्रयत्न करू लागले. स्वामीजी प्रथम जहाजातून व्हंकुव्हरला उतरून शिकागोला जाणार्या कॅनेडियन पॅसिफिक या गाडीत बसले तेंव्हा, स्वामीजिंना भेटलेल्या केट सॅंनबोर्न यांनी पत्ता दिला होता तो बोस्टन जवळचा होता. या पहिल्याच भेटीत ओळख झालेल्या स्वामीजींचं वर्णन करताना त्यांनी म्हटलंय की, “रेल्वेत मी विवेकानंदांना प्रथम पाहिलं, त्यांचे रुबाबदार व्यक्तिमत्व हा पौरुषाचा एक उत्तुंग आविष्कार होता. त्यांचे इंग्रजी माझ्यापेक्षाही अधिक चांगले होते. प्राचीन आणि अर्वाचीन साहित्याशी त्यांचा परिचय होता. शेक्सपियर किंवा लॉङ्गफेलो किंवा टेनिसन, डार्विन, मूलर, आणि टिंडॉल यांची वचने त्यांच्या मुखातून अगदी सहजपणे बाहेर पडत होती. बायबलमधील उतारे त्यांच्या जिभेवर होते. सारे धर्म आणि संप्रदाय याची त्यांना माहिती होती आणि त्या सर्वांविषयीची त्यांची दृष्टी सहिष्णुतेची होती. त्यांच्या सान्निध्यात असणे हेच एक शिक्षण होते”.असा ठसा त्यांच्या मनात पाहिल्याच भेटीत उमटला होता. ही एक चांगली आनंद देणारी बाब होती.
विवेकानंदांनी केट सॅंनबोर्न यांच्याकडे जाण्याचं ठरवलं आणि शिकागोहून रेल्वेने बोस्टनला आले. विश्रांगृहात थांबून त्यांनी आल्याची तार केली त्याला उत्तर आलं की, ‘आजच्या दुपारच्या गाडीने तडक इकडे या’. तिथून त्यांचे घर चाळीस किलोमीटर वर गूसव्हिल इथे होते. त्या स्वता विवेकानंदांना घ्यायला आल्या आणि त्यांना घरी घेऊन गेल्या. इथूनच सुरू झाला त्यांच्यासाठी अनुकूल घटनांचा काळ.