हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #138 ☆ संतोष के दोहे – शिक्षा ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – शिक्षा। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 140 ☆

☆ संतोष के दोहे – शिक्षा ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पढ़ें-लिखें आगे बढ़ें, जिससे बनें नवाब

कहते लोग पुरातनी, बढ़ता तभी रुआब

 

ज्ञान न बढ़ता पढ़े बिन, गुण का रहे अभाव

शिक्षा जब ऊँची मिले, बढ़ता तभी प्रभाव

 

बढ़े प्रतिष्ठा सभी की, मिले मान सम्मान

काम-काज अरु नौकरी, करती यह आसान

 

रोशन होती ज़िंदगी, पाता ज्ञान प्रकाश

खुद निर्भर हो मनुज तो, यश छूता आकाश

 

शिक्षा देती आत्मबल, जग में बढ़ता मान

शिक्षित होना चाहिये, कहते चतुर सुजान

 

महिलाओं को दीजिए, शिक्षा उच्च जरूर

दो कुल को रोशन करें, बढ़ता गौरव नूर

 

शिक्षा में शामिल करें, नैतिकता का पाठ

बनें सुसंस्कृत नागरिक, खुले बुद्धि की गांठ

 

शिक्षा ऐसा धन सखे, जिसमें टूट न फूट

चोर चुरा सकता नहीं, होती कभी न लूट

 

शिक्षा से हमको मिले, सदा शांति संतोष

खुशियाँ जीवन में बढ़ें, और बढ़े धन-कोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #143 ☆ आठवण…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 143 – विजय साहित्य ?

☆ आठवण…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

आठवण येता तुझी

शहारते तन मन

अलबेली वर्षा सर

वेचितसे क्षण क्षण…! १

 

आठवण येता तुझी

होते कलिकेचे फूल

आसवांची आठवांना

बघ लागते चाहूल….! २

 

आठवण येता तुझी

भावनांच्या पायघड्या

येती सुसाट धावत

शब्द रेशमाच्या लड्या…!३

 

आठवण येता तुझी

ऋतूराज रेंगाळतो

संसाराचा सारीपाट

कोण त्वरे गुंडाळतो…!४

 

आठवण येता तुझी

मन राहिना मनांत

विरहाच्या एकांतात

साद तुझी अंतरात…!५

 

आठवण येता तुझी

डोळे बोलके होतात

गात्र गात्र थकलेली

तुझी वाट पाहतात…!६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 101 ☆ ये पब्लिक है —☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘ये पब्लिक है —’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 101 ☆

☆ लघुकथा – ये पब्लिक है — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

राजा का दरबार सजा  था। सभी विभागों के मंत्री अपनी – अपनी गद्दी पर आसीन थे। ‘अच्छे दिन आएंगे एक दिन– ’की मीठी धुन पार्श्वसंगीत की तरह बज रही थी। राजा एक – एककर मंत्रियों से देश के राजकाज के बारे में पूछ रहा था। मंत्रीगण भी बड़े जोश में थे। गृह मंत्री बोले –‘ सुशासन है, भाईचारा है महाराज ! भ्रष्टाचार,घूसखोरी खत्म कर दी हमने। रिश्वत ना लेंगे, ना देंगे। सब कुछ व्यवस्थित चल रहा है देश में।‘ मंत्री जी ने गरीबी, बेरोजगारी जैसी अनेक समस्याओं को अपने  बटुए में चुपके से डाल डोरी बाँध दी। राजा मंद – मंद मुस्कुरा रहा था।

वित्त मंत्री खड़े हुए – महाराज! गरीबों को गैस सिलेंडर मुफ्त बाँटे जा रहे हैं। किसानों को कम ब्याज पर कर्ज दिया जा रहा है। गरीबों के लिए ‘तुरंत धन योजना’  शुरू की है और भी बहुत कुछ। किसानों की आत्महत्याओं, महंगाई के मुद्दे को उन्होंने जल्दी से अपने बटुए  में खिसका दिया। धुन बज उठी – ‘अच्छे दिन आएंगे एक दिन — -’। राजा मंद – मंद मुस्कुरा रहा था।

रक्षा मंत्री की बारी आई, रोब-दाब के साथ राजा को खड़े होकर सैल्यूट मारा और बोले – हमारी सेनाएं चौकस हैं। सीमाएं सुरक्षित हैं। कहीं कोई डर नहीं। नक्सलवाद, आतंकवादी हमले, शहीद सैनिकों की खबरें, सब बड़े करीने से इनके बटुए  में दफन हो गईं। राजा मुस्कुराते हुए ताली बजा रहा था।

अब शिक्षा मंत्री तमाम शिष्टाचार निभाते हुए सामने आए – शिक्षा के क्षेत्र में तो आमूल-चूल परिवर्तन किए गए हैं महाराज! नूतन शिक्षा नीति लागू हो रही है, फिर देखिएगा —। गरीबों को मुफ्त शिक्षा दी जा रही है। शिक्षकों के  भर्ती  घोटाले, महाविद्यालयों में पाँच – सात हजार पर काम करते शिक्षक जैसे ना जाने कितने मुद्दे इनके भी बटुए में  चले ही गए।

राजा – मंत्री सब एक सुर  में बोल रहे थे और ‘अच्छे दिन आएंगे एक दिन’ की ताल पर मगन मन थिरक रहे थे।

राजा के दरबार के एक कोने में ‘अच्छे दिन’ की आस में अदृश्य जनता खड़ी थी। राजा उसे नहीं, पर वह सब देख – सुन और समझ रही थी। ये पब्लिक है,सब जानती है —

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 118 ☆ जागिए – जगाइए ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जागिए – जगाइए । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 118 ☆

जागिए – जगाइए  

जरा सी आहट में नींद टूट जाती है, वैसे भी अधूरी नींद के कारण ही आज इस उच्च पद पर विराजित हैं। बस अंतर इतना है कि पहले पढ़ने के लिए ब्लैक कॉफी पीकर जागते थे। अब कैसे ब्लैक मनी को व्हाइट करे इस चिंतन में रहते हैं। अब तो कॉफी से काम नहीं चलता अब  शराब चाहिए गम गलत करने के लिए।

भ्रष्टाचार की पालिश जब दिमाग में चढ़ जाती है तो व्यक्ति गरीब से भी बदतर हो जाता है। सोते-जागते बस उसे एक ही जुनून रहता है कि कैसे अपनी आमदनी को बढ़ाया जाए। उम्मीद की डोर थामें व्यक्ति इसके लिए क्या- क्या कारगुजारियाँ नहीं करता।

वक्त के साथ- साथ लालच बढ़ता जाता है, एक ओर उम्र साथ छोड़ने लगती है तो वहीं दूसरी ओर व्यक्ति रिटायरमेंट के करीब आ जाता है। अब सारे रुतबे छूटने के डर से उसे पसीना छूट जाता है। ऐसे में पता चलता है कि हार्ट की बीमारी ने आ घेरा। बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर दवाइयों से भी काबू नहीं आ रहा। ऐसे में उतार- चढ़ाव भरी जिंदगी भगवान का नाम भी नहीं ले पा रही है। समय रहते जो काम करने चाहिए थे वो किए नहीं। बस निन्यानवे का चक्कर वो भी गलत रास्ते थे। बच्चों को विदेश भेजकर  पढ़ाया वो भी वहीं सेटल हो गए। इतने बड़े घर में बस दो प्राणी के अलावा पालतू कुत्ते दिखते। जीवन में वफादारी के नाम पर कुत्तों से ही स्नेह मिलता। अपनी अकड़ के चलते पड़ोसियों से कभी नाता जोड़ा नहीं। वैसे भी धन कुबेर बनने की ललक हमें दूर करती जाती है।

जीवन के अंतिम चरण में बैठा हुआ व्यक्ति यही सोचता है ये झूठी कमाई किस काम की, जिस रास्ते से आया उसी रास्ते में जा रहा है। काला धन विदेशी बैंकों में जमा करने से भला क्या मिलेगा। देश से गद्दारी करके अपने साथ-साथ व्यक्ति सबकी नजरों में भी गिर जाता है। सदाचार की परंपरा का पालन करने वाले देश में भ्रष्टाचार क्या शोभा देता है। सारी समस्याओं की जड़ यही है। आत्मा की आवाज सुनने की कला जब तक हमारे मनोमस्तिष्क में उतपन्न नहीं होगी तब तक ऐसे ही उथल-पुथल भरी जीवन शैली का शिकार हम सब होते रहेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 123 – “व्यंग्य राग” – श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री कुमार सुरेश जी द्वारा लिखी कृति  “व्यंग्य राग” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 123 ☆

☆ “व्यंग्य राग” – श्री कुमार सुरेश ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

कृति : व्यंग्य राग

लेखक : कुमार सुरेश

प्रकाशक: सरोकार प्रकाशन, भोपाल (मप्र),

मूल्य: 200 रुपये, संस्करण वर्ष २०२०

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

कुमार सुरेश की पुस्तकें “व्यंग्य राग” व्यंग्य संकलन, व्यंग्य उपन्यास तंत्र कथा, शब्द तुम कहो, एवं भाषा सांस लेती है प्रकाशित हो चुकी हैं. स्पष्ट है कि वे बहुविध रचनाकार हैं. कविता की तरह नपे तुले शब्दों में गहरी अभिव्यक्ति इस संग्रह के छोटे छोटे व्यंग्य लेखों में पढ़ने मिली. जरा धीरे धीरे उड़ो मेरे साजना शीर्षक के साथ वे स्वप्न लोक में उड़ जाते हैं, लोग चिल्लाते हुये उनका पीछा करते हैं ” तेरी हिम्मत कैसे हुई उड़ने की, हम जमीन पर खड़े हैं और तू उड़ने लगा “, नींद खुलती है तो पत्नी सुनाती है ” क्या उड़ना उड़ना बक रहे थे, उड़ने की कोशिश भी मत करना ” मैंने उनका यह व्यंग्य उनके मुंह से सुना हुआ है. ” मुझे पता लगा कि ऊचाई के साथ दूसरों को नुकसान पहुंचाने की ताकत भी होनी चाहिये तभी लोग सफलता को स्वीकार करते हैं ” जैसे गहरे कटाक्षों से लबरेज व्यंग्य में उन्होंने अच्छे तरीके से  भाषाई ट्रीटमेंट के साथ कथ्य को निभाते हुये अपनी बात रखी है.

नदी किनारे क्षण भर मुर्गा में वे भाषा चातुर्य के साथ बैंक के लोन वसूली अभियान की बात करते हैं, किसान को नया लोन देकर, क्षण भर के लिये बैंक की कागजों पर पुराने लोन की वसूली बता, किसान को क्षण भर कर्ज मुक्त बता दिया गया, नदी के किनारे को भी अंग्रेजी में बैंक कहते हैं,  नदी किनारे किसान मुर्गा बन गया,  किसान की पीड़ा में अपना उल्लू सीधा करते वसूली कर्मचारियों पर बुनी गई हास्य व्यंग्य कथा है.

इसी शैली में सोशल मीडीया श्रमिक, पीछा छुड़ा लो जी इस नाक से, उड़ जायेगा हंस अकेला, छेड़ना हो तो सुर छेड़िये, एक इंडियन की भारतीयों से अपील, गठबंधन, ठग बंधन और लठ बंधन, ब्यूटी पार्लर और साहित्य, इनका उनका राजनैतिक कैरियर, नेता नीति नेति नेति, घोड़े कहाँ बिकते हैं भैया आदि छोटे छोटे राजनैतिक, सामाजिक विषयों पर व्यंग्य लेख पुस्तक में संकलित हैं. ये लेख वर्ष १९८७ से २०२० की लम्बी अवधि में विभिन्न समाचार पत्रों यथा नईदुनिया, राज एक्सप्रेस, विजय दर्पण टाईम्स, आदि  में प्रकाशित हुये हैं, जिसका उल्लेख फुट नोट में किया गया है.वर्तमान में  व्यंग्य, पाठक, संपादक, लेखक सभी की प्रिय विधा है. व्यंग्य को यह स्वरूप देने में श्रीलाल शुक्ल, परसाई,  शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, नरेंद्र कोहली, शंकर पुणतांबेकर, सुशील सिद्धार्थ, की राह पर बढ़ते प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, ज्ञान चतुर्वेदी,  गिरीश पंकज, सुभाष चन्दर, सुरेश कांत जैसे अनेकानेक व्यंग्यकारों का सतत लेखन है. कुमार सुरेश भी इसी राह के अनथक यात्री हैं. वे व्यंग्य उपन्यास से व्यंग्य कविता तक के विस्तृत विधा आयाम के व्यंग्यकार हैं. एक एक्टिविस्ट से बातचीत  प्रश्न उत्तर शैली में रचा गया व्यंग्य है. साहित्य पुरस्कार योजना में हास्य कटाक्ष से भरी बिन्दु रूप नियमावली में व्यंग्य अभिव्यक्ति है. यथा नियमावली में एक नियम है कि पुरस्कार लेन देन योजना के अंतर्गत उस रचनाकार को प्रदाय किया जायेगा जो खुद किसी पुरस्कार का कर्ता धर्ता होगा, उसे अलिखित समझौता करना होगा कि “वह मेरी किताब को पुरस्कृत करेगा और मैं उसकी “. साहित्यकारों का नार्को टेस्ट, एक आभार पत्र जैसे व्यंग्य लेखो में थोड़ा डिफरेंट तरीके से मस्ती में वे व्यंग्य रस प्रवाहित करते मिले.

ओम वर्मा ने किताब की भूमिका लिखी है, उन्होंने संग्रह के व्यंग्य लेखों में सार्थकता और जीवंतता महसूस की है. पुस्तक  त्रुटि रहित मुद्रण के संग,  स्तरीय प्रस्तुति है. कुमार सुरेश से पाठको को बहुत कुछ निरंतर मिल रहा है, बस उन्हें सोशल मीडीया पर फालो कीजीये अखबार, पत्र पत्रिकाओ में उन्हें पढ़ते रहिये.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #119 – लघुकथा – “राम जाने” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय लघुकथा – “राम जाने।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 119 ☆

☆ लघुकथा – राम जाने ☆ 

बाबूजी का स्वभाव बहुत बदल गया था। इस कारण बच्चे चिंतित थे। उसी को जानने के लिए उनका मित्र घनश्याम पास में बैठा था, “यार! एक बात बता, आजकल तुझे अपनी छोटी बेटी की कोई फिक्र नहीं है?”

बाबू जी कुछ देर चुप रहे।

“क्या होगा फिक्र व चिंता करने से?” उन्होंने अपने मित्र घनश्याम से कहा, “मेरे बड़े पुत्र को में इंजीनियर बनाना चाहता था। उसके लिए मैंने बहुत कोशिश की। मगर क्या हुआ?”

“तू ही बता?” घनश्याम ने कहा तो बाबूजी बोले, “इंजीनियर बनने के बाद उसने व्यवसाय किया, आज एक सफल व्यवसाई है।”

“हां, यह बात तो सही है।”

“दूसरे बेटे को मैं डॉक्टर बनाना चाहता था,” बाबू जी बोले, “मगर उसे लिखने-पढ़ने का शौक था। वह डॉक्टर बन कर भी बहुत बड़ा साहित्यकार बन चुका है।”

“तो क्या हुआ?” घनश्याम ने कहा, “चिंता इस बात की नहीं है। तेरा स्वभाव बदल गया है, इस बात की है। ना अब तू किसी को रोकता-टोकता है न किसी की चिंता करता है। तेरे बेटा-बेटी सोच रहे हैं कहीं तू बीमार तो नहीं हो गया है?”

“नहीं यार!”

“फिर क्या बात है? आजकल बिल्कुल शांत रहता है।”

“हां यार घनश्याम,” बाबूजी ने एक लंबी सांस लेकर अपने दोस्त को कहा, “देख- मेरी बेटी वही करेगी जो उसे करना है। आखिर वह अपने भाइयों के नक्शे-कदम पर चलेगी। फिर मेरा अनुभव भी यही कहता है। वही होगा जो होना है। वह अच्छा ही होगा। तब उसे चुपचाप देखने और स्वीकार करने में हर्ज ही क्या है,” कहते हुए बाबूजी ने प्रश्नवाचक मुद्रा में आंखों से इशारा करके घनश्याम से पूछा- मैं सही कह रहा हूं ना?

और घनश्याम केवल स्वीकृति में गर्दन हिला कर चुप हो गया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07/02/2018

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 128 ☆ गजल – बाँट सके तो खुशियां बाँट ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 128 ☆

☆ गजल – बाँट सके तो खुशियां बाँट  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

सच्ची रोज कहानी लिख

      हँसती हुई जवानी लिख

 

माना मुश्किल जीना है

     बहता दरिया पानी लिख

 

कौन बुरा है, यह तू छोड़

   मन की सोच सुहानी लिख

 

जीते जी कब पूरा पड़ता

    बचपन गुड़िया रानी लिख

 

जीवन को कुछ हँसकर जी ले

       अपने को तू सानी लिख

 

देश रहेगा तू भी होगा

     खुद को हिंदुस्तानी लिख

 

बाँट सके तो खुशियां बाँट

       दादा दादी नानी लिख

 

प्यार बढ़ा ले नदियों से

    उनकी नई कहानी लिख

 

चक्र कहे पेड़ हम रोपें

  साँसों की जिंदगानी लिख

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #127 – जगणं…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 127 – जगणं…! 🍃 श्री सुजित कदम ☆

माझ्या मायेला डोक्यावरून

पाण्याचा हंडा घेऊन येताना

पाहीलं ना

की वाटतं पाण्याशिवाय

जगता आलं असतं तर

किती बरं झालं असत….

माझ्या मायेच्या पायाना

झालेल्या जखमांची संख्या

जरा कमी झाली असती…

आणि

भेगाळलेल्या भुईसारखी

कोरड्या पडलेल्या घशाची

तहान आम्हाला

पाण्याच्या एका घोटावर

भागवावी लागली नसती

गोठ्यातली जनावर

डोळ्यांसमोर तडफडून मरून

पडली नसती

अन् कर्जामुळ माझ्या बापाला

आत्महत्या ही करवी लागली नसती…

लहान असतानाच माझ्या मायेन

मला बोट धरून

डचमळत का होईना

पाण्याचा तांब्या हातात धरून

चालायला शिकवलय

तेव्हा मी

ओळखू शकलो नाही

की माझी माय मला

चालायला आणि जगायला

दोन्ही शिकवतेय ते

माय नेहमी म्हणायची

तूला चालता आणि जगता दोन्ही यायला हवंं

कारण

चाललास तर पाणी आहे

अन् पाणी आहे तर जगणं आहे…

आज इतक्या वर्षी नंतर ही

माय डोक्यावर पाण्याचा हंडा घेऊन चालते आहे

आणि तिच्या बरोबरीने मी ही….!!!!

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#150 ☆ लघुकथा – हिंदी और बदलती सोच… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “हिंदी और बदलती सोच…”)

☆  तन्मय साहित्य # 150 ☆

☆राजभाषा मास विशेष –  लघुकथा – हिंदी और बदलती सोच… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

लघुकथा

 

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घर पर आए मेहमान का स्वागत करते हुए अपने दस वर्षीय पोते विनोद को विद्यासागरजी ने उन्हें प्रणाम करने का संकेत किया।

“नमस्ते अंकल जी” कहते हुए विनोद ने मेहमान के घुटनों को एक हाथ से छूते हुए प्रणाम करने की रश्म निभाई।

“कौन सी कक्षा में पढ़ते हो बेटे?”

“क्लास सिक्स्थ में “

“कौन सी स्कूल में”

“अंकल,  डी पी एस- देहली पब्लिक स्कूल”

“अरे वाह! वहाँ तो पूरे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई होती है ना?”

“हाँ भाई सा.! ए – टू जेड इंग्लिश मीडियम में,  बीच में ही विद्यासागर जी सगर्व भाव से बोल पड़े। और तो और वहाँ आपस में भी हिंदी में बात करना एलोड नहीं है, साथ में बहुत सारी अदर एक्टिविटीज भी सिखाते हैं।”

“सिखाने की बात से याद आया, भाई जी, अब तो ये छुटकू इंग्लिश शब्दों में मेरी भी गलतियाँ निकालने लगा है, कल ही मार्केट जाते समय मैंने कहा कि बेटू – ट्राफिक बहुत बढ़ गया है आजकल।”

तो कहने लगा “दादूजी आप गलत बोल रहे हो, ट्राफिक नहीं ट्रैफिक या ट्रॉफिक बोलते हैं।”

यह बताते हुए विद्यासागर जी का चेहरा पुनः गर्व से दीप्त हो उठा।

“ये तो बहुत अच्छी बात है। अच्छा विद्यासागर जी, वहाँ हिंदी भी तो एक विषय होगा ना?”

“अब क्या बताएँ भाई जी, है तो हिंदी विषय सिलेबस में, पर कहाँ पढ़ पाते हैं ये आज के बच्चे, अब इसे ही देखो हिंदी वर्णमाला और हिंदी की गिनती भी ठीक से नहीं आती जब कि इंग्लिश में फर्राटे से सब कुछ बता देगा ये, फिर एक विजयी मुस्कान तैर गयी चेहरे पर।”

“तो आप क्यों नहीं पढ़ाते इन्हें घर पर हिंदी ?”

“आप भी तो जानते हैं अब आज के समय में कहाँ बखत रह गयी हिंदी की भाई जी!”

“इसलिए समय के साथ जो चल रहा है वही ठीक है।”

ज्ञातव्य हो कि कईं सम्मान-अलंकरणों से सम्मानित विद्यासागर जी हिंदी के एक सुविख्यात वरिष्ठ साहित्यकार है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 39 ☆ गीत – जीवन के सपने… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत “जीवन के सपने… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 39 ✒️

 

? गीत – जीवन के सपने… — डॉ. सलमा जमाल ?

जीवन के सपने चूर हुए ।

हम साथी से दूर हुए ।।

 

कर्तव्य मात्र दिखावा था ,

प्रेम ना था छलावा था ,

प्रेम पाश में बंध कर बरसों,

फ़िर भी दूर – दूर रहे ।

जीवन के ———————।।

 

खिंच गई दीवार भ्रम की ,

शेष स्मृतियां जागरण की,

परिणय सूत्र में बंधने को ,

क्यों कर तुम मजबूर हुए ।

जीवन के ———————- ।।

 

नियति है नारी का झुकना ,

पुरुष को शोभित अकड़ना ,

याद रहे तुमको बस इतना,

मिटे सलमा जो मगरूर हुए ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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