हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 31 – कच्छ उत्सव – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – कच्छ उत्सव )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 31 – कच्छ उत्सव – भाग – 2 ?

(दिसंबर  2017)

अभी हम कच्छ के टेंटों में ही रह रहे थे। तीसरे दिन प्रातः 5.30 बजे हमें अपने टेंट के बाहर

तैयार होकर उपस्थित रहने के लिए कहा गया।

सही समय पर बैटरी गाड़ी आई और हमें थोड़ी दूरी पर जहाँ कई ऊँट की गाड़ियाँ खड़ी थीं वहाँ ले जाया गया।हम सखियाँ ऊँट गाड़ी में बैठ गईं। यह  बैल गाड़ी जैसी ही होती है और इसमें मोटा गद्दा बिछाया हुआ होता है।यह गाड़ी बैल गाड़ी से थोड़ी ऊँची होती है कारण ऊँट की ऊँचाई के अनुसार गाड़ी रखी जाती है।गाड़ी में लकड़ी का एक चौपाया मेज़ भी हीती है ताकि ऊँट गाड़ी में चढ़ने में सुविधा हो।

अभी हवा सर्द थी।साथ ही आकाश स्वच्छ काला -सा दिख रहा था।असंख्य तारे जगमगा रहे थे। इतना स्वच्छ आसमान और चमकते सितारे देखकर हम मुग्ध हो उठा।बड़े शहरों में प्रदूषण इतना होता है कि न तो आकाश नीला दिखता है न सितारे ही दिखाई देते हैं। अभी अंधकार था।ऊँट भी बहुत धीरे -धीरे चल रहे थे मानो वे अभी भी सुस्ताए हुए से थे।हम उबड़- खाबड़ मार्ग पर से हिचकोले खाते रहे। पंद्रह बीस मिनिट बाद हम फिर नमक से भरी सतहवाली जगह पर पहुँच गए। खुले मैदान पर हवा और भी सूखी और सर्द थी।हमें जहाँ ठहराया गया था वह एक टीले के समान जगह थी।

हम इस स्थान पर सूर्योदय देखने के लिए उपस्थित हुए थे।आँखों के सामने श्वेत बरफ़ जैसी सतह थी तो अभी अँधकार के कारण  राख रंग सी दिख रही थी।पौ फटते ही वह सतह चाँदी की दरी जैसी दिखने लगी।समय तीव्र गति से चल रहा था और आँखों के सामने कलायडोस्कोप में जैसे चंद काँच की चूड़ियों के टुकड़े  अपना आकार बदल लेती है ठीक उसी  तरह इस खारे सतह पर रंगों की छटाएँ बदल रही थीं। आसमान में लाल सा विशाल गेंद उभर आया और नमक पर लाल छटाएँ चमक उठीं।अभी नयन भरकर उस सौंदर्य का आनंद ले ही रहे थे कि आकाश के सारे तारे गायब हो गए। आसमान नीला -सा दिखाई देने लगा ।आकाश सूरज की किरणों से सुनहरा सा हो गया और नमक वाली सतह सुनहरी हो गई। क्या ही जादुई दृश्य था! हम सब निःशब्द , अपलक इस अपूर्व सौंदर्य को बस निहारते ही जा रहे थे।आकाश चमकने लगा। हवा में जो सर्दपन था वह खत्म हुआ ।सुबह के सात बज चुके थे और हम सब सखियाँ सूर्यदेव को प्रणाम कर अपनी ऊँटगाड़ी में जाकर बैठ गईं।

हम लोग जब सूर्यदेव के आगमन की प्रतीक्षा में थे तब बड़े फ्लास्क में चाय लेकर कच्छी महिलाएँ घूम रही थीं। यहाँ की चाय थोड़ी नमकीन -सी होती है क्योंकि ऊँट के दूध का उपयोग भी यहाँ होता है। ये कच्छी महिलाएँ सुँदर काँच लगाए घाघरा पहनी हुई थीं।पैरों में मोजड़ियाँ थी।शरीर भर में अनेक प्रकार के चाँदी के मोटे -मोटे आभूषण भी थे।लंबा सा दुपट्टा इस तरह शरीर को लपेटे हुए था कि शरीर का कोई भी हिस्सा खुला नज़र न आया। इस तरह वे स्वयं को ठंड से बचाती हैं।उनके कपड़े थोड़े मोटे से होते हैं।अधिकतर महिलाएँ चॉकलेटी घाघरा और काले दुपट्टे में थीं।यहाँ महिलाएँ बेखौफ़ घूमती हैं।वे चाय और कुछ नाश्ता बेच रही थीं।

प्रकृति का सुंदर दृश्यों का आनंद लेकर हम सब लौट आए।ऊँट गाड़ी से उतरे  तो वहीं पर बैटरी गाड़ियाँ खड़ी थीं।डायनिंग रूम के पास बैटरीकार से हम पहुँचाए गए। कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन नाश्ते में खाकर हम अपने टेंट पर लौट आए।

अब सभी ने थोड़ा आराम किया और उसके बाद स्नान करके तैयार होकर दस बजे हम लोग पुनः भ्रमण के लिए निकले।

यहाँ बता दें कि हम जब कच्छ उत्सव के लिए पैसे भरते हैं तो जिन जगहों के भ्रमण की बातें इस संस्मरण में लिख रहे हैं उसकी व्यवस्था बस द्वारा की जाती है। यह पाँच या छह दिनों के लिए ही होता है।इसके लिए अलग से धनराशि देने की आवश्यकता नहीं होती।

हम लोग मांडवी के लिए निकले।सभी से कह दिया गया था कि अगर बस के पास दस बजे उपस्थित न हुए तो बस प्रतीक्षा नहीं करेगी।

हम मांडवी पहुँचे। यहाँ का सफर तय करने के लिए हमें डेढ़ घंटे लगे।सड़क संकरी थी पर बहुत ही साफ़ और अच्छी।

सबसे पहले विजय विलास पैलेस देखने के लिए निकले।

युवराज विजय राजी के लिए यह महल बनावाया गथा था।यह उनके ग्रीष्मकालीन अवधि में आराम से रहने के लिए बनवाया गया महल था। इसका निर्माण 1920 में प्रारंभ हुआ और 1929 में पूर्ण हुआ।

यह महल लाल रंग के पत्थर से बनाया गया था जिसे बलुआ पत्थर कहते हैं। इसकी वास्तुकला विशिष्ट राजपूत वास्तुकला से मिलती -जुलती कला है। यहाँ इमारत के सबसे ऊपर खंभों पर एक  ऊँचा छतरीनुमा  गुंबद बनाया हुआ है।, किनारों पर कुछ ऐसे झरोखे हैं जो झूलते से लगते हैं। रंगीन काँच की खिड़कियाँ बनी हुई है, नक्काशीदार पत्थर की जालियाँ भी बनी हुई है।

हर कोने में गुंबददार बुर्ज फैला सा दिखता है। हभ सभी सहेलियाँ महल के ऊपर तक पहुँचीं तो वहाँ से चारों ओर का दृश्य बहुत आकर्षक दिख रहा था।

यहाँ इस  महल को ठंडा रखने के लिए बगीचों में  संगमरमर के फव्वारे बने हुए हैं। विविध पानी के चैनलों द्वारा पानी बहता है और महल को ठंडा रखता है।ऐसी व्यवस्था जयपुर के महलों में भी देखने को मिला है।कितनी अद्भुत टेक्नोलॉजी है कि कई सौ वर्ष पूर्व भी हमारे देश में ऐसी व्यवस्थाएँ हुआ करती थीं। जालियों, झरखों , छत्रियों , छज्जों पर तथा दीवारों पर पत्थर की नक्काशी है जो आकर्षक हैं।यहाँ कई  हिंदी फिल्मों की शूटिंग की जाती है।

यहाँ से निकल कर हम लोगों को श्यामजी कृष्ण वर्मा समाधि स्थल इंडिया हाउस ले जाया गया।यह भी मांडवी में ही स्थित  है।

श्मयामजी कृष्ण वकील थे। उनकी पढ़ाई भी लंदन में ही हुई थी।वे आज़ादी से पूर्व लंदन में रहते थे। जिस घर में वे रहते थे उसे उन्होंने इंडिया हाउस नाम दिया था। भारत से लंदन जानेवाले सभी विद्यार्थी ख़ासकर जो स्वाधीनता संग्रामी थे इसी घर में रहा करते थे।उन सबकी मीटिंग भी यहीं हुआ करती थी। सन 1905 में

यह घर लिया गया था।यह एक दृष्टि से भारतीय छात्रों का छात्रावास था।यहाँ से भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति भी दी जाती थी। यहीं पर वीर सावरकर,भीखाजी कामा तथा लाला हरदयाल और मदनलाल ढींगरा भी रह चुके थे।

ब्रिटेन पुलिस को जब इस बात की खबर हुई तो घर पर छापा मारा गया और वहाँ रहनेवाले छात्र अन्य देशों में चले गए। 1910 में यह संस्था बंद हो गई।

श्यामजी कृष्ण वर्मा अपनी धर्मपत्नी के साथ स्विटज़रलैंड चले गए। उन्होंने वहाँ की सरकार से निवेदन किया था कि अगर उन दोनों की मृत्यु हो जाए तो उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियाँ कलश में रखी जाएँ और जब भारत से कोई लेने आए तो दे दिया जाए।इन सबके लिए बड़ी धन राशि भी सरकार के पास जमा रखी गई  थी।

सन 2010 में नरेंद्र मोदी जी जब गुजरात के मुख्य मंत्री रहे तो अत्यंत सम्मान के साथ दोनों कलश भारत ले आए। यहीं मांडवी में इंडिया हाऊस की प्रतिकृति बनाई गई। वही लाल,  दो मंज़िली इमारत। बड़े से बगीचे में श्यामजीकृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी की बड़ी -सी मूर्ति भी बनाई गई। एक संग्रहालय है।दोनों की समाधि है तथा काँच की अलमारी में पीतल के कलश में फूल रखे गए  हैं।अत्यंत सुंदर आकर्षक इमारत है।सीढ़ियों से ऊपर जाते समय उस काल के विविध सावाधीनता संग्रामियों की तस्वीरें लगी हैं।तथा अन्य चित्रों के साथ इतिहास भी लिखा गया है।यह मेरा सौभागय रहा कि लंदन के उत्तरी भाग में क्रॉमवेल एवेन्यू हाईगेट में स्थित इस इमारत को बाहर से देखने का मौका मिला था।आज कोई और वहाँ अवश्य ही रहता है पर दीवार पर गोलाकार में एक संदेश है – विनायक दामोदर सावरकर – 1883-1966

भारतीय देशभक्त तथा फिलोसॉफर यहाँ रहते थे। लंदन में सजल नेत्र से बाहर से ही राष्ट्र के महान सपूत को नमन कर आए थे। पर मांडवी में फिर एक बार इंडिया हाउस के दर्शन से मैं पुनः भालविभोर हो उठी। लंदन, अंदामान और मांडवी सब जगह के इतिहास ने कुछ ऐसे तथ्यों को सामने लाकर खड़ा कर दिया था कि अपने भावों पर नियंत्रण रखना कठिन था।

मांडवी के इस इंडिया हाउस का दर्शन कर हम सब पुनः कच्छ उत्सव के टेंटों में लौट आए। सभी थके हुए थे। शीघ्र रात्रिभोजन कर टेंट में लौट आए।उस रात  हमलोग मनोरंजन के कार्यक्रम देखने नहीं गए बल्कि यायावर दल रात को देर तक देश की स्वाधीनता की लड़ाई की चर्चा करता रहा।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 309 ☆ कविता – “घृणा से निपटना ही होगा…  …” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 309 ☆

?  कविता – घृणा से निपटना ही होगा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मुफ्त  है

घृणा,

वही बंट रही है

दुनियां भर में

मुलम्मा चढ़ाया जाता है

घृणा पर

श्रेष्ठता और गर्व का

राजनैतिक दलों द्वारा

वोटों का सौदा करने

उम्दा जांचा परखा

फार्मूला है यह

एक वर्ग के

मन में

दूसरे के प्रति

नफरत भरना

आसान है।

 

कहीं जाति

कहीं मूल निवासी

कहीं सोशल स्टेटस

कहीं गोरा काला

इत्यादि इत्यादि

के वर्ग बनाना सरल है

निंदा , ईर्ष्या की फसलें खरपतवार सी उपजती हैं ।

मुश्किल है

पराली के धुएं सी

 छा जाती इस

धुंध से पार पाना

पर

इस मुश्किल से

है निपटना दुनियां को हर हाल में।

चुनौती है

जहरीले झाग से

यमुनोत्री से आती

मछलियों के

सुकोमल

मन तन को बचाना

पर बचाना तो है ही

घृणा के बारूद से दुनियां।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 209 – शुभ दीपावली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “जल संरक्षण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 208 ☆

🪔🪔शुभ दीपावली 🪔🪔

सारे जग में होती पूजा, धन श्री लक्ष्मी माता है।

दरिद्रता को दूर भगाती, चंचलता की दाता है।।

 *

घर-घर होती साफ सफाई, बच्चों की खुशहाली है।

काली रात अमावस आई, बिखरी छटा निराली है।।

जन-जन को यह पावन करती, सुख समृद्धि से नाता है।

सारे जग में होती पूजा, धन श्री लक्ष्मी माता है।।

 *

देवासुर संग्राम भयानक, अमृत को लालायित थे।

क्षीरसागर के गर्भ गृह में, कोटि रतन समाहित थे।।

समुद्र मंथन किया सभी ने, देव वेद के ज्ञाता थे।

सारे जग में होती पूजा, सुख समृद्धि से नाता है।।

 *

बनते मंदराचल मथानी, सर्प वासुकी डोर बने।

मंथन करते खींचातानी, देव दानव दोनों तने।।

निकले चौदह रत्न वहाँ से, सबके मन को भाता है।

सारे जग में होती पूजा, सुख समृद्धि से नाता है।।

 *

 लक्ष्मी जी जब निकली बाहर, नारायण को प्यारी है।

श्री लक्ष्मी नारायण महिमा, दुनिया तुम पर वारी है।।

विष को धारण करते शंकर, तीन लोक सब गाता है।

सारे जग में होती पूजा, धन श्री लक्ष्मी माता है।।

 *

पीकर अमृत देव अमर है, दानव दल तो हारा है।

त्रेता युग में दशरथ नंदन, रावण कुल को तारा है।।

निशिचर मारे लौट अयोध्या, राम राज्य फिर आता है।

सारे जग में होती पूजा, सुख समृद्धि से नाता है।।

 *

द्वारे दीपक सजा आरती, मंगल बेला आई है।

ढोल नगाड़े आतिशबाजी, बाज रहे शहनाई है।।

शुभ लाभ की देते बधाई, दीपावली सजाता है।

सारे जग में होती पूजा, धन श्री लक्ष्मी माता है।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 105 – देश-परदेश – ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 105 ☆ देश-परदेश – Who Ratan Tata? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज 11 अक्टूबर प्रातः काल के समय निकट के उद्यान में कुछ बच्चे खेलते हुए दिखे, तो अच्छा लगा कि प्रातः के समय बच्चे बिना किसी मोबाइल के सहारे खेल रहे हैं। उनकी आयु 13-14 वर्ष लग रही थी।

हम तीन साथी उनके पास जा कर प्रोहत्सहित करते हुए उनका मनोबल बढ़ाने लगे, बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं, वो बोले आज स्कूल में अचानक अष्टमी का हॉलीडे हो गया, इसलिए सुबह उठ गए वर्ना छुट्टी के दिन तो दस बजे ही उठते हैं।

हमारे एक साथी ने पूछा रतन टाटा को जानते हो क्या? एक बच्चा जो आठवीं का छात्र था, तुरंत बोला who Ratan Tata? दूसरे बच्चे ने कहा हां, कल टीवी पर दिन भर कुछ ऐसा ही बोल रहे थे। तीसरा बच्चा बोला, क्या वो पुराने जमाने के हीरो थे? जैसे वो भुजिया का एड करने वाले अभिताभ बच्चन हैं। आज उनका जन्मदिन भी है, बहुत मज़ा आयेगा। एक अन्य बच्चा बोला उनका नाम तो कभी बिग बॉस के लोगों में भी नही सुना हैं, जैसे सिद्धू अंकल तो क्रिकेट भी खेलते थे, और बिग बॉस में भी खेले थे।

हमने बच्चों को बोला वो तो “रियल हीरो” हैं। एक बच्चा बोला क्या वो इंडिया के लिए क्रिकेट खेलते थे? जैसे सारा अली खान के दादा अपने जमाने में खेलते थे। दूसरा बच्चा बोला उनको टीवी या किसी विज्ञापन में भी कभी नहीं देखा है। यादि वो बड़े उद्योगपति थे, तो अंबानी अंकल के बेटे की शादी में भी नहीं दिखे, क्रूज की लिस्ट में भी उनका नाम नहीं था।

बच्चों को पास में रखी हुई बेंच पर बैठा कर उनको समझाया की वो बहुत बड़े दानवीर थे, समाज के जरूरतमंद लोगों की बहुत सहायता भी करते थे। उन्होंने देश को बहुत सारे उद्योग धंधे भी दिए हैं। उनमें से एक बच्चा बोला, वो सब तो ठीक है, आप लोगों ने किस किस जरूरतमंद की हेल्प करी है, कौन कौन से उद्योग धंधे लगाए है?

धूप में तेज़ी आने का बहाना कर हम तीनों साथी रूमाल से पसीना पोंछते हुए उद्यान से बाहर आ गए।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #259 ☆ भूमीवरील तारे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 259 ?

भूमीवरील तारे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

*

पाणी जमीन सारे झाले कसे विकाऊ

माती तुझे ढिगारे झाले कसे विकाऊ

*

विस्तारले शहर हे दर्या तुझ्याच भवती

सारेच हे किनारे झाले कसे विकाऊ

*

झाले शिकून मोठे अन मागतात हुंडा

भूमीवरील तारे झाले कसे विकाऊ

*

पैसा किती अघोरी झाला जगात आहे

अक्रोश आणि नारे झाले कसे विकाऊ

*

राष्ट्रीय मान्यतेचा पक्षात एक पक्षी

त्याचेच हे पिसारे झाले कसे विकाऊ

*

पाणी नळातले हे आकाश फिरुन आले

बागेतले फवारे झाले कसे विकाऊ

*

लावून आज एसी होतो जरा पहुडलो

आले मनात वारे झाले कसे विकाऊ

 

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – १५ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – १५  ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

 गौरी गणपती २

पप्पांचा गणपती आणि आईची गौर  अशी या पूज्य दैवतांची आमच्या घरात अगदी सहजपणे विभागणीच झाली होती म्हणा ना आणि ही दोन्ही दैवते अत्यंत मनोभावे आणि उत्साहाने आम्हा सर्वांकडून पुजली  जायची. त्यांची आराधना केली जायची.

पप्पांचे मावस भाऊ आणि आमचे प्रभाकर काका  दरवर्षी आईसाठी गौरीचं, साधारण चार बाय सहा  कागदावरचं एक सुंदर चित्र पाठवायचे आणि मग आगामी गौरीच्या सोहळ्याचा उत्साह आईबरोबर आम्हा सर्वांच्या  अंगात संचारायचा.

माझी आई मुळातच कलाकार होती. तिला उपजतच एक कलादृष्टी, सौंदर्यदृष्टी प्राप्त होती. ती त्या कागदावर रेखाटलेल्या देखण्या गौरीच्या चित्राला अधिकच सुंदर करायची. गौरीच्या चित्रात  असलेल्या काही रिकाम्या जागा ती चमचमणाऱ्या लहान मोठ्या टिकल्या लावून भरायची. चित्रातल्या गौरीच्या कानावर खऱ्या मोत्यांच्या कुड्या धाग्याने टाके घालून लावायची. चित्रातल्या गौरीच्या गळ्यात सुरेख

गुंफलेली, सोन्याचे मणी असलेली  काळी पोत त्याच पद्धतीने लावायची. शिवाय नथ, बांगड्या, बाजूबंद अशा अनेक सौभाग्य अलंकाराची ती सोनेरी, चंदेरी, रंगीत मणी वापरून योजना करायची. या कलाकुसरीच्या कामात मी आणि ताई आईला मदत करायचो. आईच्या मार्गदर्शनाखाली या सजावटीच्या कलेचा सहजच अभ्यास व्हायचा. मूळ चित्रातली ही  कमरेपर्यंतची गौर आईने कल्पकतेने केलेल्या सजावटीमुळे अधिकच सुंदर, प्रसन्न आणि तेजोमय वाटायची. त्या कागदाच्या मुखवट्याला जणू काही आपोआपच दैवत्व प्राप्त व्हायचं. गौरीच्या सोहळ्यातला हा मुखवटा सजावटीचा  पहिला भाग फारच मनोरंजक आनंददायी आणि उत्साहवर्धक असायचा. एक प्रकारची ती ऍक्टिव्हिटी होती. त्यातून सुंदरतेला अधिक सुंदर आणि निर्जिवतेला सजीव, चैतन्यमय कसे करायचे याचा एक पाठच असायचा तो! 

पप्पांचा तांदुळाचा गणपती आणि आईच्या गौरी मुखवटा सजावटीतून नकळतच एक कलात्मक दृष्टी, सौंदर्यभान आम्हाला मिळत गेलं.

घरोघरी होणारे गौरीचे आगमन हे तसं पाहिलं तर रूपकात्मक असतं. तीन दिवसांचा हा सोहळा… घर कसं उजळवून टाकायचा. घरात एक चैतन्य जाणवायचं.

आजीकडून गौरीची कथा ऐकायलाही  मजा यायची. ती अगदी भावभक्तीने कथा उलगडायची. गौरी म्हणजे शिवशक्ती आणि गणेशाच्या आईचं रूप!  असुरांच्या त्रासाला कंटाळून सर्व स्त्रिया गौरीकडे गेल्या आणि सौभाग्य रक्षणासाठी त्यांनी गौरी कडे प्रार्थना केली. गौरीने असुरांचा संहार केला आणि शरण आलेल्या स्त्रियांचे सौभाग्य रक्षण केले. पृथ्वीवरील प्राण्यांना सुखी केले. ही कथा ऐकताना मला गौरीपूजन ही एक महान संकल्पना वाटायची. मी गौरीला प्रातिनिधिक स्वरूपात पहायची. माझ्या दृष्टीने अबलांसाठी गौरी म्हणजे एक प्रतीकात्मक सक्षम शौर्याची संघटन शक्ती वाटायची.

गावोगावच्या, घराघरातल्या  पद्धती वेगळ्या असतात. काही ठिकाणी मुखवट्याच्या गौरी, कुठे पाणवठ्यावर जाऊन पाच —सात — अकरा खडे आणून खड्यांच्या गौरी पूजतात पण आमच्याकडे तेरड्याची गौर पुजली जायची. पद्धती विविध असल्या तरी मूळ हेतू धान्य लक्ष्मीच्या पूजेचा, भूमी फलित करण्याचाच असतो.

सकाळीच बाजारात जाऊन तेरड्याच्या लांब दांड्यांची एक मोळीच विकत आणायची, लाल, जांभळी, गुलाबी पाकळ्यांची छोटी फुले असलेली ती तेरड्याची मोळी फारच सुंदर दिसायची. तसं पाहिलं तर रानोमाळ मुक्तपणे बहरणारा हा जंगली तेरडा. ना लाड ना कौतुक पण या दिवशी मात्र त्याची भलतीच ऐट! आपल्या संस्कृतीचं हेच खरं वैशिष्ट्य आहे. पत्री, रानफुलांना महत्त्व देणारी, निसर्गाशी जुळून राहणारी संस्कृती आपली!

तेरड्यासोबत  केळीची पाने, विड्याची पाने, सुपाऱ्या, फुलं, फुलांमध्ये प्रामुख्याने तिळाच्या पिवळ्या फुलांचा समावेश असायचा आणि असं बरंच सामान यादीप्रमाणे घरी घेऊन यायचं. बाजारात जाऊन या साऱ्या वस्तू आणण्याची सुद्धा गंमत असायची. माणसांनी आणि विक्रेत्यांनी समस्त ठाण्यातला बाजार फुललेला असायचा. रंगीबेरंगी फुले, गजरे, हार, तोरणं यांची लयलूट असायची. वातावरणात एक सुगंध, प्रसन्नता आणि चैतन्य जाणवायचं. मधूनच एखादी अवखळ पावसाची सरही यायची. खरेदी करता करता  जांभळी नाक्यावरचा गणपती, तळ्याजवळचं कोपीनेश्वर मंदिर, वाटेवरच्या विठ्ठलाच्या मंदिरात जाऊन घेतलेलं  देवतांचं दर्शन खूप सुखदायी, ऊर्जादायी वाटायचं. जांभळी नाक्यावरच्या गणपतीला या दिवसात विविध प्रकारच्या फुलांच्या, फळांच्या, खाद्यपदार्थांच्या सुंदर  वाड्या भरल्या जात, त्याही नयनरम्य असत. देवळातला तो घंटानाद  आजही माझ्या कर्णेंद्रियांना जाणवत असतो.

अशा रीतिने भाद्रपद महिन्यातल्या शुद्ध पक्षात, अनुराधा नक्षत्रावर आमच्या घरी या गौराईचं आगमन व्हायचं आणि तिच्या स्वागतासाठी आमचं कुटुंब अगदी सज्ज असायचं. गौराई म्हणजे खरोखरच लाडाची माहेरवाशीण. आम्हा बहिणींपैकीच कुणीतरी त्या रूपकात्मक तेरड्याच्या लांब दांडीच्या मोळीला गौर मानून उंबरठ्यावर घेऊन उभी राहायची मग आई तिच्यावरून भाकरीचा तुकडा ओवाळून, तिचे दूध पाण्याने पाद्यपूजन करायची. तिला उंबरठ्यातून आत घ्यायची. गौर घाटावरून येते ही एक समजूत खूपच गमतीदार वाटायची. गौराईचा गृहप्रवेश होत असताना आई विचारायची,

“गौरबाय गौरबाय कुठून आलीस?” बहीण म्हणायची’”घाटावरून, ”

“काय आणलंस?”

“धनधान्य, सुख, संपत्ती, आरोग्य, शांती, समृद्धी. . ”

हा गोड संवाद साधत या लाडक्या गौराईला हळद-कुंकवाच्या पावलावरून घरभर फिरवले जायचे आणि मग तिच्यासाठी खास सजवलेल्या स्थानी तिला आसनस्थ केले जायचे.

घरातली सर्व कामं आवरल्यानंतर गौरीला  सजवायचं. तेरड्यांच्या रोपावर सजवलेला तो गौरीचा मुखवटा आरुढ करायचा. आईची मोतीया कलरची ठेवणीतली पैठणी नेसवायची  पुन्हा अलंकाराने तिला सुशोभित करायचे. कमरपट्टा बांधायचा. तेरड्याच्या रोपांना असं सजवल्यानंतर खरोखरच तिथे एक लावण्य, सौंदर्य आणि तेज घेऊन एक दिव्य असं स्त्रीरूपच अवतारायचं. त्या नुसत्या काल्पनिक अस्तित्वाने घरभर आनंद, चैतन्य आणि उत्साह पसरायचा. खरोखरच आपल्या घरी कोणीतरी त्रिभुवनातलं सौख्य घेऊन आले आहे असंच वाटायचं.

दुसऱ्या दिवशी म्हणजे ज्येष्ठ नक्षत्रावर तिचं पूजन केलं जायचं. आज गौरी जेवणार  म्हणून सगळं घर कामाला लागायचं. खरं म्हणजे पप्पा एकुलते असल्यामुळे आमचं कुटुंब फारसं विस्तारित नव्हतं. आम्हाला मावशी पण एकच होती, मामा नव्हताच. त्यामुळे आई पप्पांच्या दोन्ही बाजूंकडून असणारी नाती फारशी नव्हतीच पण जी होती ती मात्र फार जिव्हाळ्याची होती. पप्पांची मावशी— गुलाब मावशी आणि तिचा चार मुलांचा परिवार म्हणजे आमचा एक अखंड जोडलेला परिवारच होता. आमच्या घरी किंवा त्यांच्या घरी असलेल्या सगळ्या सणसोहळ्यात सगळ्यांचा उत्साहपूर्ण, आपलेपणाचा सहभाग असायचा. पप्पांची मावस बहीण म्हणजे आमची कुमुदआत्या तर आमच्या कुटुंबाचा मोठा भावनिक आधार होती. आईचं आणि तिचं नातं नणंद भावजयीपेक्षा बहिणी बहिणीचं होतं. अशा सणांच्या निमित्ताने कुमुदआत्याचा आमच्या घरातला वावर खूप हवाहवासा असायचा. मार्गदर्शकही असायचा. घरात एक काल्पनिक गौराईच्या रूपातली माहेरवाशीण  आणि कुमुद आत्याच्या रूपातली वास्तविक माहेरवाशीण  असा एक सुंदर भावनेचा धागा  या गौरी सोहळ्याच्या निमित्ताने गुंफलेला असायचा.

केळीच्या पानावर सोळा भाज्या एकत्र करून केलेली भाजी, भरली राजेळी  केळी, अळूवडी, पुरणपोळी, चवळीची उसळ, काकडीची कढी, चटण्या, कोशिंबीर, पापड, मिरगुंडं, वरण-भात त्यावर साजूक तूप असा भरगच्च नैवेद्य गौरीपुढे सुबक रीतीने मांडला जायचा. जय देवी जय गौरी माते अशी  मनोभावे आरती केली जायची. आरतीला शेजारपाजारच्या, पलीकडच्या गल्लीतल्या, सर्व जाती-धर्माच्या बायका आमच्याकडे जमत. त्याही सुपांमधून गौरीसाठी खणा नारळाची ओटी आणत. फराळ आणत. कोणी झिम्मा फुगड्याही खेळत.

हिरव्या पानात हिरव्या रानात गौराई नांदू दे अशी लडिवाळ गाणी घरात घुमत. आमचं घर त्यावेळी एक कल्चरल सेंटर झाल्यासारखं वाटायचं. मंदिर व्हायचं, आनंदघर बनायचं.

या सगळ्या वातावरणात माझ्या मनावर कोरलं आहे ते माझ्या आईचं त्या दिवशीच रूप!  सुवर्णालंकारांनी भरलेले तिचे हात, गळा, कपाळावरचं ठसठशीत कुंकू, कळ्याभोर केसांचा अलगद बांधलेला अंबाडा, त्यावर माळलेला बटशेवंतीचा गजरा, नाकात ठसठशीत मोत्यांची नथ, दंडावर  पाचूचा खडा वसवलेला घसघशीत बाजूबंद आणि तिनं नेसलेली अंजिरी रंगाची नऊवारी पैठणी! आणि या सर्वांवर कडी करणारं तिच्या मुद्रेवरचं सात्विक मायेचं  तेज! साक्षात गौराईनेच  जणू काही तिच्यात ओतलेलं!

संध्याकाळी हळदी कुंकवाचा कार्यक्रमही असायचा. ठाण्यातल्या प्रतिष्ठित बायकांना आमंत्रण असायचं पण आजूबाजूच्या सर्व कामकरी महिलांसाठी हळदी कुंकवाचं आमंत्रण आवर्जून दिलेलं असायचं. पप्पा हळदीकुंकवाच्या कार्यक्रमासाठी प्रिन्सेस स्ट्रीटवरच्या पारसी डेअरी मधून खास बनवलेले केशरी पेढे आणायचे. एकंदरच गौरीच्या निमित्ताने होणारा हा हळदीकुंकवाचा कार्यक्रम थाटामाटात संपन्न व्हायचा. त्यावेळच्या समाज रीतीनुसार हळदीकुंकू म्हणजे सुवासिनींचं, या  मान्यतेला आणि समजुतीला आमच्या घरच्या या कार्यक्रमात पूर्णपणे  फाटा दिलेला असायचा. सर्व स्त्रियांना आमच्याकडे सन्मानाने पूजलं जायचं. आज जेव्हा मी याचा विचार करते, तेव्हा मला माझ्या आई-वडिलांचा खूप अभिमान वाटतो. त्यांनी किती सुंदर  पुरोगामी विचारांची बीजं आमच्या मनात नकळत रुजवली होती.

तिसऱ्या दिवशी गौरीचं विसर्जन असायचं. भरगच्च माहेरपण भोगून ती आता सर्वांचा निरोप घेणार असते. तिच्यासाठी खास शेवयांची खीर करायची, तिची हळद-कुंकू, फुले— फळे, धान्य, बेलफळ यांनी ओटी भरायची. मनोभावे आरती करून तिला निरोप द्यायचा. जांभळी नाक्यावरच्या तलावात तिचे विसर्जन करताना मनाला का कोण जाणे एक उदासीनता जाणवायचीच पण जो येतो तो एक दिवस जातो किंवा तो जाणारच असतो हे नियतीचे तत्त्व या विसर्जन प्रसंगी प्रकर्षाने जाणवायचं. गौरी गणपती विसर्जनासाठी तलावाकाठी जमलेल्या जमावात प्रत्येकाच्या मनात विविधरंगी भाव असतील. “गणपती बाप्पा मोरया पुढच्या वर्षी लवकर या “ या हाकेतल्या भक्तीभावाने मन मोहरायचं.

आजही या सोहळ्याचं याच प्रकाराने, याच क्रमाने, याच भावनेने आणि श्रद्धेने साजरीकरण होतच असतं पण आता जेव्हा जाणत्या मनात तेव्हाच्या आठवणींनी प्रश्न उभे राहतात की या सगळ्या मागचा नक्की अर्थ काय?  एकदा आपण स्वतःवर बुद्धीवादी विज्ञानवादी अशी मोहर उमटवल्यानंतर या कृतिकारणांना नक्की कोणत्या दृष्टिकोनातून पाहायचं? उत्तर अवघड  असलं तरी एक निश्चितपणे म्हणावसं वाटतं की या साऱ्या, जगण्याला आकार देणाऱ्या एक प्रकारच्या अॅक्टिव्हिटीज आहेत. त्यात एक कृतीशीलता आहे ज्यातून जीवनाचे सौंदर्य, माधुर्य कलात्मकता टिकवताना एक समाज भानही जपलं जातं. श्रद्धा, भक्ती, विश्वास या पलीकडे जाऊन  या सोहळ्यांकडे तटस्थपणे पाहिलं तर मानवी जीवनाच्या संस्कार शाळेतले हे पुन्हा पुन्हा गिरवावेत, नव्याने अथवा पारंपरिक पद्धतीने पण हे एक सोपे सकारात्मक ऊर्जा देणारे महान धडेच आहेत.

— क्रमश:भाग १५ 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 211 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 211 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

सब पाना चाहते थे

रति की प्रतिकृति

माधवी को ।

वरमाला हाथ में लिये

पूरे सभा मंडप में

घूम गई माधवी

किन्तु

किसी का सौभाग्य नहीं जगा ।

और माधवी

सबको प्रणाम अर्पित कर

प्रस्थित हुई

तपोवन की ओर।

(प्रश्न है

क्यों?

आसक्ति से विरक्ति ?

क्या

प्रायश्चित के लिये ?

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 210 – “सारे घर की खुशहाली…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत सारे घर की खुशहाली...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 210 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “सारे घर की खुशहाली...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

दादी अम्मा के कमरे

में रखी हुई अब भी ।

सारे घर की खुशहाली

की खुश नसीब चाभी

 

चाभी क्या वह एक

टीन का ताले का डिब्बा

जिसमें पता नहीं क्या

रखते थे घरके बब्बा

 

आधी रात गये रोजाना

सिक्के खनकाते थे

जिसमें बहती थी घर

की वह सौख्यवती राबी

 

बड़ी बहू उस डिब्बे को

गर हाथ लगा देती

या फिर बैठे पास श्वान

को जबरन भगवा देती

 

सारे घर को एक महा

भारत तब सहना होता

घर की सभी औरते पूछें

क्या करना भाभी ?

 

दादी मरी शान से, उसका

क्रिया करम हुआ

ताला लगी बकसिया का

भी परदाफाश हुआ

 

जिसमें निकली एक पथरिया

चाँदी का सिक्का

केवल यह सम्पत्ति जिसे

पाने थी  बेताबी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-10-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

डॉ. आनंद सिंह राणा

बी. एस. सी., एम ए (इतिहास), पी एच डी, एल एल बी.

उपाध्यक्ष इतिहास संकलन समिति महकौशल प्रांत एवं जिला संगठक राष्ट्रीय सेवा योजना, जबलपुर म प्र

संप्रति- विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, श्री जानकी रमण कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर,

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

वीरांगना दुर्गा भाभी

☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ ☆

☆ “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन में एक दल विशेष के समर्थक इतिहासकारों और उसके द्वारा रोपित वामपंथी इतिहासकारों ने तथाकथित गांधीवाद की आड़ में लिखे स्वर्णिम इतिहास में उन्हीं छद्म नायकों को स्थान मिला जो उनके इर्द-गिर्द रहते थे परंतु वहाँ भी नारी नायिकाओं के साथ उचित न्याय नहीं हुआ! वैंसे भारत के इतिहास का सच तो यही है किसी भी कालखंड में नारी नायिकाओं के साथ उचित न्याय हुआ ही नहीं, जो आज भी अपेक्षित है? रहा सवाल  क्रांतिकारी आंदोलन के नायक एवं नायिकाओं के अवदान को इतिहास में रेखांकित करने का तो, उत्तर में सभी को आतंकवादी अथवा अराजकतावादी बताकर खारिज कर दिया गया । जिसका प्रतिउत्तर और उन्मूलन समय रहते नहीं किया गया तो भावी पीढ़ियां सदैव गुमराह ही रहेंगी! एतदर्थ 

समाज और इतिहास की तलहटी में छिपे और वर्षों से हमारी आँखों से ओझल पहलुओं को सामने लाने की दिशा में एक सद्प्रयास है। 

वीरांगना परम आदरणीय, दुर्गा भाभी तथाकथित सुनहरे इतिहास के पन्नों में लुप्तप्राय एक सुनहरा व्यक्तित्व है। यूँ तो भारतीय इतिहास के पन्नों में,भारत के स्वाधीनता  संग्राम में भाग लेने वाले अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम दर्ज़ किए गए, लेकिन ऐसे बहुत से महान् सेनानी भी हैं जिन्होंने ना केवल अपना पूरा जीवन इस संघर्ष के नाम किया, वरन् इस संघर्ष को सफल बनाने में भी अपना अद्भुत एवं अद्वितीय योगदान दिया है, और इस संग्राम में अग्रणी रहने का श्रेय लेने की अपेक्षा पर्दे के पीछे रह कर अपने अग्रणियों को आगे बढ़ने और डटे रहने का साहस प्रदान किया। लेकिन दुर्भाग्यवश! इन्हें ना तो हमारे इतिहास के पन्नों पर उचित स्थान दिया गया और ना ही इनके बलिदान  को वो सम्मान मिल सका, जिनके ये अधिकारी थे और वे महत्वपूर्ण व्यक्तिव धीरे-धीरे हमारे सुनहरे इतिहास की चमक से पीछे विस्मृति के गर्भ में समाते से जा रहे हैं। ऐंसी ही विभूतियों में से एक हैं-‘वीरांगना दुर्गा भाभी’।                      

‘दुर्गा भाभी’ का वास्तविक नाम था-दुर्गावती देवी। इनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 में शहजादपुर ग्राम में पण्डित बांके बिहारी के यहां हुआ था। दुर्गावती का विवाह भगवती चरण वोहरा के साथ हुआ। दुर्गावती के पिता जहां इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाज़िर थे और उनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊँचे पद पर तैनात थे।                  

वोहरा क्रन्तिकारी संगठन एच. एस. आर. ए. के प्रचार सचिव थे। दिल्ली के क़ुतुब रोड में स्थित घर में,वोहरा, विमल प्रसाद जैन के साथ बम बनाने का काम करते थे,जिसमें दुर्गा भी उन लोगों की सहायता करती। प्रारंभिक दिनों में,दुर्गा भाभी सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और बम के सामान को लाने पहुँचाने का भी काम करती थी। 16 नवम्बर,1926 में लाहौर में,नौजवान भारत सभा द्वारा भाषण का आयोजन किया गया,जहां दुर्गावती नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आयी। दुर्गावती अद्भुत योजना-निर्मात्री थी,जिनकी योजना कभी-भी असफल नहीं होती थी।अभी भगवती चरण कलकत्ता में ही थे, कि 17 दिसंबर, 1928 को लाला लाजपत राय पर जेम्स एंडरसन स्काट के आदेश से लाठी चलाने वाले अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स का वध कर दिया गया। बरतानिया सरकार ने लाहौर पर तरह-तरह की पाबंदियां थोप दीं। दुर्गा भाभी अपने तीन वर्षीय अबोध पुत्र के साथ घर पर अकेली थीं कि देर रात किसी ने उनके घर की कुंडी धीरे से खटखटाई। दरवाजा खोला, तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सामने खडे़ थे। उन्हें समझते देर न लगी कि सांडर्स का वध इन्हीं का काम है।

उन्होंने इन लोगों को अपने घर में पनाह दी, पर इतना पर्याप्त न था। उन्हें मालूम था कि जब घर-घर तलाशी ली जा रही हो, तब आज नहीं तो कल पुलिस वहां भी आ धमकने वाली है। भगत सिंह और उनके साथियों के पकड़े जाने का मतलब होता, क्रांति की उफनती धारा का थम जाना। अनिश्चितता के उन्हीं लम्हों में वीरांगना दुर्गावती वोहरा ने एक अत्यंत साहसिक निर्णय लिया। वह भगत सिंह की पत्नी का स्वांग धर उन्हें लाहौर से सुरक्षित बाहर निकाल ले गईं। आज के उत्तर-आधुनिक भारत में भी ऐसी कार्रवाई को दुस्साहस कहा जाएगा।भगत सिंह अगर उस दौरान जिंदा बच सके, तो उसके पीछे दुर्गावती का दृढ़ निश्चय और असीम साहस था। उनके पतिदेव जो धन गाढ़े समय के लिए उन्हें सौंप गए थे, वह भी क्रांतिकारियों की राह सुगम करने में खर्च हो गया। उन दिनों पांच हजार की रकम बहुत बड़ी राशि मानी जाती थी। 

भगवती चरण वोहरा और दुर्गा भाभी का रिश्ता अनूठे विश्वास और साहचर्य का था। इसीलिए उनकी भूमिका सिर्फ क्रांतिकारियों की सहयोगी भर की नहीं थी। 

दुर्गावती वोहरा को भारत की अग्नि भी कहा जाता है। यह दुर्गा भाभी ही थीं जिन्होंने अपने पति के बम कारखाने पर छापा पड़ने के बाद, क्रांतिकारियों के लिए ‘’पत्र मंजूषा “का काम किया। जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ सप्ताह बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करनेवाले जातिंद्र नाथ दास की जेल में ही बलिदान हो गया था। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया।

भगवती चरण ने उन्हें बाकायदा बंदूक चलाना सिखाया था। 8 अक्तूबर, 1930 को उन्होंने दक्षिण बंबई के लैमिंग्टन रोड पर स्थित पुलिस स्टेशन के आगे एक ब्रिटिश पुलिस सार्जेंट और उसकी पत्नी पर गोली चला दी थी। यह कदम उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को एक दिन पहले सुनाई गई फांसी की सजा के प्रतिकार में उठाया था। बरतानिया सरकार के लिए यह बडे़ आश्चर्य की बात थी कि कोई महिला इतनी दुस्साहसी कैसे हो सकती है? फलस्वरूप सारा अमला उनके पीछे लग गया और वह अंतत: सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर ली गईं। हालांकि, उस गोलीकांड में उनकी भूमिका पर कुछ सवाल उठाए गए, मगर इससे उनकी गाथा पर फर्क क्या पड़ता है? वह बरतानिया सरकार की आंखों में कितना खटकती थीं, इसका खुलासा तत्कालीन इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस एसटी होलिन्स की पुस्तक नो टेन कमांडेंट्स  से भी होता है। इस बीच दो साल पहले भगवती चरण वोहरा रावी नदी के तट पर बम बनाते समय हुए विस्फोट में बलिदान हुआ था। दुर्गा भाभी को उनके आखिरी दर्शन तक नसीब नहीं हुए थे, पर अपने स्वर्गीय पति की प्रेरणा को उन्होंने मरते समय तक संजोए रखा। क्रांतिकारी उन्हें भाभी भी इसीलिए कहते कि वह उनके अग्रज भगवती चरण वोहरा की सहधर्मचारिणी थीं।इस सबके बाद दुर्गावती एकदम अकेली पड़ गई,लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल लार्ड हैली को मारने की साजिश रच डाली,जो क्रांतिकारियों का बड़ा दुश्मन था।1 अक्टूबर,1931 को बंबई के लेमिंग्टन रोड पर दुर्गावती ने साथियों के साथ मिलकर हैली की गाड़ी को बम से उड़ा दिया, जिसके बाद पूरी ब्रिटिश पुलिस दुर्गावती की तलाश में जुट गई। लेकिन वे दुर्गावती को खोज नहीं पाए, 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में पुनः लैमिंगटन रोड पर खड़े हुए एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए, उन्हें सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई।

भारत की स्वतंत्रता में उनका केवल यही योगदान नहीं था। सन् 1939 में, उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्ध शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था।

स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में दुर्गा देवी लखनऊ में गुमनामी की ज़िन्दगी जीती रहीं। 15 अक्टूबर, 1999 को 92 साल की उम्र में वे इस दुनिया को अलविदा कह गयीं ।

सदा यही होता आया है कि हमारा इतिहास उन महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को सदैव भूल सा जाता है जिन्होंने तत्कालीन सत्ताधारियों की चाटुकारिता कभी नहीं की। अनेक ऐसी वीरांगनाएं सदैव छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं वीरांगनाओं में से एक है 

देश की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम है। दुर्गावती की मृत्यु हुए यूँ तो कई साल बीत चुके है,लेकिन आज भी उनकी वीरता की कहानी हर हिन्दुस्तानी के ध्यान को आकृष्ट कर,उन्हें गौरवान्वित करती है। दुर्गावती मिसाल हैं, नारी के सशक्त रूप की और सच्चे देश भक्त की। जिनके लिए क्रांति का तात्पर्य केवल सत्ता का तख्ता पलट करना मात्र नहीं था,उनके लिए वास्तविक क्रांति का तात्पर्य था,स्वाधीनता के बाद एक सशक्त देश की नींव डालना, एक शिक्षित समाज का निर्माण करना और यही वजह थी कि दुर्गावती ने शुरु से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने का नेक काम शुरु किया,जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त कायम रखा। दुर्गावती की यही कार्य-प्रणाली और दूरदृष्टि उनके व्यक्तित्व को महान और अविस्मरणीय बनाती है।

© डॉ. आनंद सिंह राणा

संप्रति- विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, श्री जानकी रमण कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर,

उपाध्यक्ष इतिहास संकलन समिति महकौशल प्रांत एवं जिला संगठक राष्ट्रीय सेवा योजना, जबलपुर म प्र

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 195 ☆ # “सत्य-असत्य और आम आदमी…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सत्य-असत्य और आम आदमी…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 195 ☆

☆ # “सत्य-असत्य और आम आदमी…” # ☆

सत्य और असत्य के द्वंद में

आम आदमी पिसता  है

सदियों के इस जंग में

आम आदमी पिसता है

दुनिया के पुराने ढंग में

आम आदमी पिसता है

हर घड़ी बदलते हुए रंग में

आम आदमी पिसता है

उस के लिए

सत्य क्या है ?

उसके लिए

असत्य क्या है ?

 

सत्य है –

रोजमर्रा की कठिनाई  

बढ़ती हुई मंहगाई

बच्चों की पढ़ाई

बीमार पत्नी की दवाई

 

सर पर आवारा छत

जीवन की होती हुई गत

कौड़ी के मोल बिकते हुए मत

बस्ती की दारू की लत

 

भूख मिटाने के लिए रोटी

परिवार बड़ा, कमाई छोटी

न्याय पाने की उम्मीद खोटी

शरीर पर बची सिर्फ लंगोटी

 

हर पल संघर्ष में बीता है

हर बार हारा कब जीता है

हर बार कड़वे घूंट पीता है

उसका जीवन जलती हुई चिता है

 

उसके लिए असत्य है –

मन लुभावने वादे

झूठे पाखंड भरे इरादे

दिखते सीधे सादे

कोई वादा तो निभादे

 

सुनहरे रंगीन सपने

अब दिन बदलेंगे अपने

ख्वाब लगे है पकने

खुशी में माला लगे है जपने

 

भेदभाव मिटा देंगे

ऊंच-नीच हटा देंगे

वैमनस्य घटा देंगे

सीने से सटा देंगे

 

न्याय सुलभ सस्ता होगा

हर चेहरा हंसता होगा

हृदय में इश्वर बसता होगा

जीवन खुशीयों का गुलदस्ता होगा

 

हर हाथ को मिलेगा काम

कोई नहीं होगा नाकाम

भूखमरी का नही होगा नाम

रोटी का होगा इंतजाम

 

आम आदमी जिसे चाहें चुन लें

वो सब सिर्फ जुमले है

दिखावें की सब बातें है

यथार्थ में सब धुंधले है

 

इसलिए आम आदमी

सत्य असत्य के

फेर में नहीं पड़ता है

ना ही भविष्य के लिए

लक्ष्य गढ़ता है

जीवन भर जो पाता है

उसे अपना नसीब समझ

उसे पाने के लिए लड़ता है  /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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