हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #166 ☆ व्यंग्य – वैज्ञानिक सोच का हश्र ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘वैज्ञानिक सोच का हश्र’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 166 ☆

☆ व्यंग्य – वैज्ञानिक सोच का हश्र

 नन्दलाल को हम ‘लाइव वायर’ कहते हैं। हमेशा उत्तेजना की स्थिति में रहता है। अपने विश्वासों और निष्कर्षों के खिलाफ कोई बात सुनना उसे मंज़ूर नहीं। कहीं भी सड़क के किनारे उसे किसी के साथ बहस में उलझा देखा जा सकता है। घर के लोगों का कहना है कि पता नहीं चलता कि वह कब सोता है और कब बिस्तर छोड़ देता है।
दरअसल नन्दलाल स्कूल में मजूमदार सर का चेला रहा है। मजूमदार सर विज्ञान के शिक्षक थे। क्लास में जितना किताबी ज्ञान देते थे उतना ही अंधविश्वासों और ढकोसलों की बखिया उधेड़ते थे। जादूगरों और ओझाओं-गुनियों की ट्रिक्स की क्लास में पोल खोलते रहते थे। बर्तन से लगातार भभूत या पानी गिराना, मुँह से कई गोले निकालना, खरगोश या कबूतर प्रकट करना, आदमी को डिब्बे में बंद कर डिब्बे को बीच से काट देना— सब की असलियत मजूमदार सर क्लास में बताते थे और छात्रों को अंधविश्वासों से बचने की नसीहत देते थे। ग़रज़ यह कि मजूमदार सर पक्के विज्ञान के मार्गदर्शक थे।

नन्दलाल के सिर पर उन्हीं का जादू चढ़ गया था। अब वह जहाँ भी अंधविश्वास या ढकोसला देखता, उसकी पोल-पट्टी खोलने में लग जाता। कई बाबाओं की भूमि में समाधि लेने की योजना में उसके कारण पलीता लग गया। कई बाबाओं की महिलाओं को पुत्रवती बनाने की योजना उसके कारण विफल हो गयी। बड़े आयोजनों में भी वह प्रवचनकर्ताओं से सवाल- जवाब करने लगता और कई बार भक्तों के सामने गुरूजी का पानी उतर जाता। कोई और उपाय न होने पर ऐसे गुरुओं ने नन्दलाल पर ‘नास्तिक’ का ठप्पा लगा दिया था। सड़क पर मजमा लगाने वाले जादूगर नन्दलाल को पहचानने और उसके मुहल्ले से बचने लगे थे।

नन्दलाल को ताज़ी सूचना पास के गाँव में एक हँसिया वाले बाबा की मिली थी जो हँसिया से ऑपरेशन करके लोगों के रोग ठीक करते थे। सूचना मिलते ही नन्दलाल का चैन हराम हो गया। दूसरे दिन वह अपने जैसे दो दोस्तों के साथ बाबाजी के अड्डे पर पहुँच गया। बाबाजी एक पुराने मन्दिर में विराजे थे। चार पाँच चेले श्वेत वस्त्रों में उनके आसपास तैनात थे। मन्दिर के सामने करीब आधा किलोमीटर लंबी लाइन लगी थी जिसमें कई संभ्रांत, पढ़े-लिखे लगने वाले लोग भी दिखते थे। मन्दिर के सामने एक बड़ा सा पात्र रखा था जिस पर ‘दान-पात्र’ लिखा था।

नन्दलाल ने मन्दिर के सामने पहुँच कर देखा, अन्दर बाबाजी हाथ में हँसिया थामे एक लेटे हुए आदमी के पेट पर कुछ क्रिया कर रहे थे। उन्होंने हँसिये की नोक उसके पेट पर थोड़ी देर तक टिकायी और फिर लाल रंग से भीगे रुई के टुकड़े को हाथ उठाकर भीड़ को दिखाया। भीड़ ने प्रसन्न होकर जयजयकार की।उसके बाद बाबाजी ने मरीज़ के पेट के ऊपर अपनी हथेली घुमायी, और फिर उसे उठने का इशारा किया। मरीज़ उठकर बाबाजी को प्रणाम कर मन्दिर में ही कहीं अंतर्ध्यान हो गया।

आदतन नन्दलाल की बेचैनी बढ़ने लगी। मन्दिर में घुसकर वह बाबाजी के पास पहुँचने की कोशिश करने लगा। चेलों ने उसे ढकेला, बोले, ‘नीचे चलो। यहाँ कहाँ चढ़े आते हो?’

नन्दलाल बोला, ‘मुझे ऊपर आने दो। बाबाजी का ऑपरेशन देखना है।’

चेले बोले, ‘ऑपरेशन कोई नहीं देख सकता। जब तुम्हारी बारी आये तब आना। नीचे लाइन में लगो।’

नन्दलाल भीड़ की तरफ मुँह करके सीढ़ियों पर खड़ा होकर ऊँचे स्वर में बोलने लगा, ‘भाइयो, यह सब प्रपंच है। हँसिया से कोई ऑपरेशन नहीं हो सकता। घाव हो जाएगा तो सेप्टिक या टेटनस हो जाएगा। जान खतरे में पड़ जाएगी। घर जाकर डॉक्टर को दिखाइए।’

बाबाजी ने हाथ रोक कर रहस्यपूर्ण नज़रों से चेलों की तरफ देखा। चेले इशारा समझ गये। चिल्लाये, ‘अरे यह कोई नास्तिक, अधर्मी आ गया है। बाबाजी के इलाज पर शक करता है। मारो इसे।’

वे लाठी उठाकर नन्दलाल की तरफ लपके। लाइन में से भी ‘भगाओ, हटाओ इसे’ की आवाज़ें आयीं।

एक चेला चिल्लाया, ‘अरे यह पुराना पापी है। जब गणेश जी ने दूध पिया था तब इसी ने कई मन्दिरों में जाकर बिलोरन की थी। आज इसे नहीं छोड़ना है।’

चेलों को अपनी तरफ लपकते देख नन्दलाल जान बचाकर भागे। नन्दलाल के साथी  भी दौड़ लगाकर अपनी मोटरसाइकिलों तक पहुँचे। मदद की उम्मीद में इधर-उधर देखा तो दो पुलिसवाले दूर पेड़ के नीचे आराम करते दिखे।

नन्दलाल और उसके साथियों के मोटरसाइकिल स्टार्ट करते-करते बाबा जी के चेले लाठियाँ लहराते उन तक आ पहुँचे। चलते-चलते भी तीनों की पीठ पर दो-तीन लाठियाँ पड़ गयीं। पीछे से चेले चिल्लाये, ‘अब लौट कर मत आना बच्चू, नहीं तो अपने पाँवों पर चल कर नहीं जा पाओगे।’

शाम को मुहल्ले के थाने से नन्दलाल का बुलावा आ गया। दरोगा जी उसे जानते थे। कोमल स्वर में बोले, ‘मेरे पास शिकायत आयी है कि तुम हँसिया वाले बाबा के कार्यक्रम में बखेड़ा करने पहुँच गये थे। हम जानते हैं कि तुम्हारा सोच सही है, लेकिन ज़माने का वातावरण देख कर चलो। बड़े-बड़े लोग इन बाबाओं के पीछे बैठे हैं। ज़्यादा समाज सुधार के चक्कर में रहोगे तो किसी दिन जेल में ठूँस दिए जाओगे। फिर ज़मानत भी नहीं मिलेगी। ज़िन्दगी खराब हो जाएगी। इसीलिए थोड़ा सोच-समझ कर काम करो।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 115 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 115 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 115) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 115 ?

☆☆☆☆☆

रुह की प्यास बुझा दी

तेरी   क़ुरबत  ने,

तू कोई झील है, झरना है,

घटा  है, क्या  है  तू..!

नाम होठों पे तेरा आए

तो  राहत  सी  मिले,

तू तसल्ली है, दिलासा है,

दुआ  है, क्या  है तू…

☆☆

Your intimacy has quenched

the thirst of the soul…

Are you a lake, a waterfall, or

hanging clouds, what’re you…!

Coming of your name on lips

what a respite does it give,

Are you a consolation, a solace,

Or a prayer, what are you…!

☆☆☆☆☆ 

ख़्यालों को किसी आहट

की उम्मीद रहती है…

निगाहों को किसी सूरत

की आस रहती है…

तेरे बगैर किसी चीज़

की कमी तो नहीं

मगर तेरे बगैर तबियत

उदास सी रहती है…!

☆☆

Thoughts always expect

someone’s footsteps…

Eyes keep on longing to

see someone’s face…

Though nothing lacks in

the life without you…

But then, without you, mood

always remains sombre!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 162 ☆ वासुदेव: सर्वम्- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 162 ☆ वासुदेव: सर्वम्- ☆?

अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

( 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।

ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करे, बहन, बहन से द्वेष न करे, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें। 

आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

( अध्याय 4, श्लोक 71)

अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति। ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

(गीता 10।39)

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥

(11/ 7)

अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।

एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

(6।30)

अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’

इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥

अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।

संपृक्त श्रीमद्भागवत के इस अनहद नाद को सुनिए-

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम

 (2।9।32)

अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ।  

सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 114 ☆ बुन्देली नवगीत –  लछमी मैया! ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  बुन्देली नवगीत – लछमी मैया!…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 114 ☆ 

☆ बुन्देली नवगीत –  लछमी मैया! ☆

लछमी मैया!

माटी का कछु कर्ज चुकाओ

*

देस बँट रहो,

नेह घट रहो,

लील रई दीपक खों झालर

नेह-गेह तज देह बजारू

भई; कैत है प्रगतिसील हम।

हैप्पी दीवाली

अनहैप्पी बैस्ट विशेज से पिंड छुड़ाओ

*

मूँड़ मुड़ाए

ओले पड़ रए

मूरत लगे अवध में भारी

कहूँ दूर बनवास बिता रई

अबला निबल सिया-सत मारी

हाय! सियासत

अंधभक्त हौ-हौ कर रए रे

तनिक चुपाओ

*

नकली टँसुए

रोज बहाउत

नेता गगनबिहारी बन खें

डूब बाढ़ में जनगण मर रओ

नित बिदेस में घूमें तन खें

दारू बेच;

पिला; मत पीना कैती जो

बो नीति मिटाओ

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

 

१०-४-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #146 ☆ आलेख – प्रायश्चित ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 146 ☆

☆ ‌आलेख – प्रायश्चित ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

आप ने आलेखों की श्रृंखला में पश्चाताप शीर्षक से आलेख पढ़ा था, जिसकी विषयवस्तु थी  कि किस प्रकार  मानव यथार्थ का ज्ञान होने पर अपनी गलतियों पर पश्चाताप करता है, और पश्चाताप की अग्नि में जल कर व्यक्ति के सारे अवगुण नष्ट हो जाते हैं। 

उसकी अंतरात्मा की गई गलतियों के लिए उसे हर पल कोसती रहती है आदमी का सुख चैन छिन जाता है, और वह अपनी आत्मा के धिक्कार को सह नहीं पाता । और इंसान प्रायश्चित करने के रास्ते पर चल पड़ता है अपने कर्मों का आत्म निरीक्षण करता है। इस प्रकार पश्चाताप जहां जहां गलतियों की स्वीकारोक्ति है, वहीं प्रायश्चित स्वीकार्यता का परिमार्जन अर्थात् सुधार है। इंसानी सोच बदल जाती है दशा और दिशा बदल जाती है। उसकी समझ बढ़ जाती है। उसके बाद इंसान फिर से गलतियां ना करने का दृढ़ संकल्प लेता है, तथा अपनी पूर्ववर्ती गलतियों का प्रायश्चित करने पर उतर आता है, और प्रायश्चित पूर्ण करने के लिए हर सजा भुगतने के लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार कर लेता है।

या प्रकारांतर से ये कह लें कि प्रायश्चित  गलतियों को सुधारने के  अवसर का नाम है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

दिनांक 23–10–22  समय-12-10-22

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ वचन देई मला… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण – सुश्री नीलिमा खरे ☆

सुश्री नीलिमा खरे

अल्प परिचय 

बॅंकेतून रिटायर झाल्यावर काही वर्षे एका खाजगी कंपनीत काम केले.

कामाच्या व्यस्ततेमुळे मागे पडलेली वाचनाची आवड परत सुरू केली. कविता लेखनाची सुरुवात झाली. कवितेचे रसग्रहण हा प्रांत ही आवडू लागला आहे.

? काव्यानंद ?

☆ वचन देई मला… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण – सुश्री नीलिमा खरे ☆

डॉक्टर निशिकांत श्रोत्री यांच्या निशिगंध या काव्यसंग्रहात कवीने प्रेम विषयक विविध भाव वेगवेगळ्या कवितांतून वाचकांसमोर उलगडले आहेत. उदात्त ,शाश्वत ,समर्पित प्रेम तर कधी विरहाग्नीत होरपळणारे तनमन ,प्रतारणेतून अनुभवाला येणारे दुःख ,कधी प्रेमाच्या अतूटपणाबद्दल असलेला गाढ विश्वास आणि त्या विश्वासातून एकमेकांकडे मागितलेले वचन अशा विविध प्रेमभावना अत्यंत तरल पणे व तितक्याच बारकाव्याने आणि समर्थपणे काव्य रसिकांसमोर प्रस्तुत केल्या आहेत. या संग्रहातील वचन देई मला ही कविता अशीच प्रेमात गुंतलेल्या, रमलेल्या, प्रेमावर विश्वास असलेल्या प्रियकराचे भावविश्व आपल्यासमोर साकारते.

साधारणतः प्रियकर प्रेयसीला विसरतो अशी मनोधारणा असते.या कवितेचे वैशिष्ट्य असे की येथे प्रेयसी विसरेल अशी शंका प्रियकराच्या मनात आहे.रुढ मनोभावनेला छेद देणारी ही कविता लक्षवेधी ठरते.

कवितेतील प्रेयसी जर  कवितेतील प्रियकराला विसरली तर त्याच्या स्मृतीत तिने एक तरी अश्रू ढाळावा एवढी माफक अपेक्षा करणारा प्रियकर कवीने काव्य रसिकांसमोर शब्दांतून उभा केला आहे .

☆ वचन देई मला… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆

 विसरलीस जर कधी जीवनी एक वचन तू देइ मला

कधी झाकलो स्मृतीत तुझिया अश्रू एक तू ढाळ भला ।।ध्रु।।

 

प्रीत तरल ना देहवासना ही आत्म्याची साद तुला

एकरूप मी तव  हृदयाशी क्षण न साहवे द्वैत मला

पवित्र असता प्रेम चिरंतन विसरणार मी कसे तुला

कधी झाकलो स्मृतीत तुझिया अश्रू एक तू ढाळ भला ।।१।।

 

जगायचे ते तुला आठवत मरणही यावे तुज साठी

कधी न सुटाव्या शाश्वत अपुल्या प्रेमाच्या रेशिमगाठी

मृत्यूनंतर येउ परतुनि प्रेमपूर्तीची आंस मला

कधी झाकलो स्मृतीत तुझिया अश्रू एक तू ढाळ भला ।।२।।

 डॉ निशिकांत श्रोत्री

निशिगंध – रसग्रहण

प्रेम विश्वात रममाण असणाऱ्या प्रियकराच्या मनात उगीच शंका येते आणि तो प्रेयसीला म्हणतो की जर कधी जीवनात तू मला विसरलीस तरी एक वचन मात्र तू मला दे .ती विसरणार नाही याची खात्री विसरलीस जर या शब्दातून व्यक्त होते. तसेच पुढे तो म्हणतो की तू विसरलीस आणि जर कधी मी तुझ्या स्मृतीत डोकावलो म्हणजे त्याचा आठव जरी तिच्या मनात आला तर एक अश्रू मात्र तू ढाळ. भला हा शब्द अश्रूशी  निगडीत करताना तिच्या मनात त्याच्याविषयी कुठलाही गैरभाव ,गैरसमज नसावा हे सूचित केले आहे. विरह किंवा वियोग जर का झाला तर तो केवळ परिस्थितीमुळे होईल त्याच्या वर्तनाने नाही असा विश्वास या कवितेतून आपल्यासमोर व्यक्त केला गेला आहे .विसरली तरी प्रेयसी कडून वचन मागणारा, कधी तरी तिच्या स्मृतीत डोकावण्याची ,झाकण्याची मनोमन खात्री बाळगणारा हा प्रियकर मनाला मोहवून जातो.

ध्रुवपदामध्ये विसरलीस जर कधी ,तरी एक वचन दे, हा विरोधाभास मनाला भावतो.तसेच अश्रूला भला हे अत्यंत वेगळे विशेषण वापरले आहे.प्रियकराच्या सात्विक प्रेमाची साक्ष पटवणारा हा समर्पक शब्द कवितेतील आशयाला पुष्टी देतो.

 पहिल्या कडव्यात तो म्हणतो माझी प्रीत ही तरल निष्कलंक आहे .त्या भावनेत देहवासना,कामवासना नाही. तर ही आत्म्याची आत्म्याला साद आहे .तो खात्रीपूर्वक म्हणतो की तो तिच्या हृदयाशी एकरूप झाला आहे. ही समरसता, हे तादात्म्य आहे ते मनोमन झालेले आहे. त्यात अंतर नाही. त्यातले बंधन अनाठायी नाही.त्यामुळे कुठलेही ,कसलेही द्वैत अगदी क्षणा पुरते ही त्याला सहन होणार नाही.त्यांच्यातले प्रेम हे पवित्र तसेच चिरंतन आहे याची ग्वाही त्याच्या मनाला आहे त्यामुळे तो तिला कधीच विसरणार नाही हे ही तो स्पष्ट करतो. आणि असे असूनही जर कधी ती विसरली तर तो तिच्याकडून एकच वचन मागतो त्याच्या स्मृतीप्रीत्यर्थ एक भला अश्रू तिने ढाळावा.

देह व आत्मा यांचा उल्लेख प्रीतिला आध्यात्मिक उंची देतो.द्वैत व अद्वैत यांचा सुस्पष्ट व सुसंस्कृत विचार प्रेमाचा अर्थपूर्ण आविष्कार घडवतो.जे पवित्र ते चिरंतन हा साक्षात्कार प्रीतीच्या भावनेला पटणारा. एकरूप व द्वैत या विरोधाभासातून प्रीतिचे खरे स्वरूप प्रकटते. तुला, मला, भला अशा यमक सिध्दीने कवितेला सुंदर गेयता लाभली आहे.त्यामुळे कवितेतील भावार्थ सहजपणे लक्षात येतो.कवितेशी वाचकांची समरसता प्रस्थापित होते.

दुसऱ्या कडव्यात  प्रेयसीच्या केवळ एका अश्रूची  माफक अपेक्षा ठेवणारा तो म्हणतो की जे जगायचं ते तिला आठवत जगायचं आणि जर मरण आलं तर तेही तिच्यासाठी यावं असं त्याला वाटतं. सर्वस्व ,आपले जीवन तिच्यावर ओवाळून टाकण्याची त्याची मानसिक तयारी आहे. त्याच वेळी शाश्वत असलेल्या प्रेमाच्या रेशीमगाठी कधी न सुटाव्यात अशी योग्य व रास्त अपेक्षा तो बाळगून आहे .त्यांच्या प्रेमावर त्याची अढळ श्रद्धा आहे. त्यामुळे त्याला खात्री आहे जर कधी मृत्यू आला तर परत येऊन म्हणजे जणू काही पुनर्जन्म घेऊन आपण या इहलोकी परतू .कारण त्याला या प्रेमपूर्तीची आस आहे.स्वतः चे प्रेयसी वरील पवित्र,शाश्वत,निरंतर प्रेम याची कल्पना,जाण तिला देता देता प्राक्तनी कदाचित येईल अशा विरहाचा विचार त्याला सर्वथैव बैचेन करतो. त्यामुळे व्यथित तो प्रेयसीच्या प्रेमाविषयी खात्री असूनही साशंकता व्यक्त करतो.पण ती व्यक्त करताना ही त्यात तिच्या शाश्वत प्रेमाचा अर्थपूर्ण उल्लेख करतो.एकमेकांच्या सान्निध्यात जगत असताना चिरंतन प्रेमभावनेची जाण असूनही शाश्वत मरणाचे भान त्याला आहे.मृत्युने वियोग घडला तरी पुनर्जन्मी पुन्हा भेट होईल असा आशावाद व्यक्त केला आहे.तुजसाठी, रेशिमगाठी हे यमक साधले आहे.रेशिमगाठी शब्द वापरून प्रीतिची मुलायमता अधोरेखित केली आहे.

 संपूर्ण कवितेत प्रीत भावनेला सुयोग्य पणे व्यक्त करताना समर्पक व सुलभ शब्द योजना कवीने केली आहे.त्यामुळे प्रीतिचा तरल, पवित्र शाश्वत भाव मनाला स्पर्शून जातो.भावनेचा खरेपणा व त्यातली आर्तता मनाला भिडते.साहित्यिक अलंकारांचा अट्टाहास न ठेवता भावनेचा प्रांजळ पणा जपण्याचे भान कवीने ठेवले आहे. कवीची साहित्यविषयक, भाषाविषयक व काव्य विषयक सजगता यातून प्रतीत होते.साधी पण भावुकतेत न्हालेली ही कविता सर्वांना आवडेल अशीच आहे.

© सुश्री नीलिमा खरे

३-१०-२०२२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #163 – 49 – “ख़्वाब में तेरे जागते हुए सोते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ख़्वाब में तेरे जागते हुए सोते हैं…”)

? ग़ज़ल # 49 – “ख़्वाब में तेरे जागते हुए सोते हैं …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मैंने तो सच कहा तुम्हें बहाने लगे,

इश्क़ है तुम्हें कहने में ज़माने लगे।

नज़दीक आओ ज़रा पी लें इन्हें,

वस्ल में  ये आँसू क्यों बहाने लगे।

ख़्वाब में तेरे जागते हुए सोते हैं,

सोने दो यार  क्यों जगाने लगे।

हम समझे थे  तुम्हें नातजुर्वेकार,

बातों में यार तुम बड़े सयाने लगे।

बेकार का झगड़ा है  ये वस्ल-जुदाई,

शुकूं मिला जाम पे जाम चढ़ाने लगे।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 40 ☆ मुक्तक ।। भाई बहन के अटूट बंधन का प्रतीक भाई दूज का पर्व ।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।भाई बहन के अटूट बंधन का प्रतीक भाई दूज का पर्व।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 40 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।भाई बहन के अटूट बंधन का प्रतीक भाई दूज का पर्व।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

।। 1।।
भाई बहन के प्रेम स्नेह, का प्रतीक है भाई दूज।

एक तिलक की ताकत का, का यकीन है भाई दूज।।

सदियों से यही विश्वास, चलता चला आया है।

इसी अटूट बंधन की एक, लकीर है भाई दूज।।

।। 2।।
बहुत अनमोल पवित्र रिश्ता, भाई बहन का होता है।

बहन के हर दुख सुख में, भाई बहुत ही रोता है।।

रक्षा बंधन या त्यौहार हो, यह भाई दूज का।

जो निभाता नहीं ये रिश्ता वो, अपना सब कुछ खोता है।।

।।3।।
निस्वार्थ निश्चल प्रेम का एक, उदाहरण है भाई दूज का दर्प।

अनमोल रिश्तों की लड़ी का, उदाहरण है भाई दूज का गर्व।।

भावना संवेदना का प्रतीक, यह एक टीका और तिलक।

भाई बहन के अमूल्य रिश्तों, काआइना है भाईदूज का पर्व।।

।।4।।
रोली चावल चंदन टीके का, थाल सजा कर लाई हूं।

अपने प्यारे भैया की मूरत, दिल में बसा कर लाई हूं।।

‘मेरे भैया रक्षा करना मेरी सारी, उम्र कि सौगंध तुमको देनी है।

एक तिलक में प्यार का सारा, संसार लगा कर लाई हूं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 106 ☆ गजल – “समय…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गजल – “समय…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #106 ☆  गजल – “समय…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जग में सबको हँसाता है औ’ रूलाता है समय

सुख औ’ दुख को बताता है औ’ मिटाता है समय।

 

चितेरा एक है यही संसार के श्रृंगार का

नई खबरों का सतत संवाददाता है समय।

 

बदलती रहती है दुनियाँ समय के संयोग से

आशा की पैंगों पै सबकों नित झुलाता है समय।

 

भावनामय कामना को दिखाता नव रास्ता

साध्य से हर एक साधक को मिलाता है समय।

 

शक्तिशाली है बड़ा रचता नया इतिहास नित

किन्तु जाकर फिर कभी वापस न आता है समय।

 

सिखाता संसार को सब समय का आदर करें

सोने वालों को हमेशा छोड़ जाता है समय।

 

है अनादि अनन्त फिर भी है बहुत सीमित सदा

जो इसे है पूजते उनको बनाता है समय।

 

हर जगह श्रम करने वालों को है इसका वायदा

एक बार ’विदग्ध’ उसको यश दिलाता है समय।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 112 – ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #112 🌻  ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा बहुत ही महत्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया!

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नहीं क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!

एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के पास से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय में उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन में गड़वा दिया और कहा की जिसे भी वह खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधि से चौरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लें और ध्यान रखे कि उसे बिना कुछ खाये पीये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वह शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!

उस पर लिखा था हे राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हें इसी मिट्टी मे मिलना है!

सावधान राहगीर, जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसे ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों में तुम्हें अकेले ही भटकना है और हे राहगीर! ये कभी न भूलना कि “मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग-अलग है।”

फिर राजा जैसे-तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर कर रख दिया और सारे महल जनता को दे दिये और “अंतिम घर” की तैयारियों मे जुट गया!

हमें एक बात हमेशा याद रखना चाहिए कि इस मिट्टी ने जब रावण जैसे सत्ताधारियों को नहीं बख्शा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है? इसलिये ये हमेशा याद रखना कि मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी में मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ने वाली है!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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