मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #148 ☆ पाडवा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 148 – विजय साहित्य ?

☆ पाडवा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

साडेतीन मुहुर्तात

असे पाडव्याची शान

व्यापाऱ्यांचे नववर्ष

वहिपुजनाचा मान….! १

 

कार्तिकाची प्रतिपदा

येई घेऊन गोडवा.

दीपावली दिनू खास

होई साजरा पाडवा. . . . ! २

 

तेल, उटणे लावूनी

पत्नी हस्ते शाही स्नान.

साडेतीन मुहूर्ताचा

आहे पाडव्याला मान. . . . ! ३

 

सहजीवनाची गाथा

पाडव्याच्या औक्षणात

सुख दुःख वेचलेली

अंतरीच्या अंगणात.. . . . ! ४

 

भोजनाचा खास बेत

जपू रूढी परंपरा.

व्यापारात शुभारंभ

नवोन्मेष स्नेहभरा.. . . . ! ५

 

ताळेबंद रोजनिशी

जमा खर्च खतावणी

पाडव्याच्या मुहूर्ताला

होई व्यापार आखणी…! ६

 

व्यापाऱ्यांचा दीपोत्सव

वही पूजनाचा थाट

येवो बरकत घरा

यश कीर्ती येवो लाट. . . . ! ७

 

राज्य बळीचे येऊदे

दिला वर वामनाने

दीपोत्सव पाडव्याला

बळीराजा पुजनाने…! ८

 

संस्कारांचा महामेरू

बलिप्रतिपदा सण

दानशूर बळीराजा

केले गर्वाचे हरण…! ९

 

तीन पावले जमीन

दान केली वामनाला

क्षमाशील सत्वशील

सत्व लावले पणाला…! १०

 

पंच महाभुती पुजा

पंचरंगी‌ रांगोळीने

पंच तत्वे नात्यातील

शुभारंभ दिवाळीने…! ११

 

काकू वहिनी मावशी

आई आज्जचे कोंदण

पती पत्नी औक्षणाने

स्नेह भेटीचे गोंदण…! १२

 

शुभारंभ खरेदीचा

वास्तू, वस्त्र, अलंकार

गृह उपयोगी वस्तू

सौख्य वाहन साकार…! १३

 

फटाक्यांची रोषणाई

पंच पक्वांनाचा घाट

नव दांपत्य दिवाळी

कौतुकाचा थाट माट…! १४

 

जावयाचा मानपान

दिन दिवाळ सणाचा

तन मन सालंकृत

सण मांगल्य क्षणांचा…! १५

 

घरोघरी उत्साहात

आनंदाची मेजवानी

आला दिवाळी पाडवा

शेती वाडी आबादानी….! १६

 

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 103 ☆ लड़की की माँ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा लड़की की माँ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 103 ☆

☆ लघुकथा –लड़की की माँ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अरे! जल्दी चलो सब, बारात दरवाजे पर आ गई है। भारी भरकम साड़ी पहने और कंधे पर बड़ा सा पर्स टांगे वह तेज कदमों से मुख्य द्वार की ओर चल दी। बैंड-बाजों की तेज आवाजें उसकी धड़कन बढ़ा रही थीं। द्वार तक पहुंचते पहुंचते वह कई बार मन में दोहरा चुकी थी – लड़के के माता – पिता, बहन – बहनोई सबके पाँव पखारने हैं, पहले जल से, फिर दूध से और कपड़े से पैरों को पोंछना है। उसके बाद सभी महिलाओं को हल्दी – कुंकुम लगाना है। ना जाने कितनी परीक्षाएं उसने पास की थीं पर आज का यह पाठ पता नहीं क्यों बड़ा कठिन लग रहा है। बेटी के ससुरालवालों ने कहलाया था कि हमारे यहाँ द्वार-  पूजा में लड़की की माँ ही सबके पाँव पखारती है। बेटी का खुशी से दमकता चेहरा देख वह यंत्रवत काम करती जा  रही थी।

वह हांफ रही थी तेज चलने से नहीं, भीतरी द्वंद्व से। सब कुछ करते हुए कहीं कुछ खटक रहा है। दिमाग के किसी एक कोने में उथल –पुथल मची हुई थी जिसने उसे बेचैन कर रखा है। उसके विचार और वास्तविकता के बीच  भयंकर द्वंद्व  चल रहा है। परंपरा और अपनी आधुनिक सोच के मकड़जाल में वह घुट रही थी। दिल कहा रहा था – जैसा बताया है, करती जा चुपचाप, अपनी बेटी की खुशी देख, बस –।  ये सब परंपराएं हैं, सदियों से यही हो रहा है लेकिन दिमाग वह तो मानों घन बजा रहा था – सारी रस्में लड़की की माँ के लिए ही बनी हैं? क्यों भाई? दान – दहेज, लेना – देना सब लड़कीवालों के हिस्से में? वह बेटी की माँ है तो? क्यों बनाईं ऐसी रस्में?‘ कन्यादान’  शब्द सुनते ही ऐसा लग रहा है मानों किसी ने छाती पर घूंसा मार दिया हो, रुलाई फूट पड़ रही है बार- बार, कुछ उबाल सा आ रहा है दिल में। ऐसा अंतर्द्वंद्व जिसे वह किसी से बाँट भी नहीं सकती। जिससे कहती वही ताना मारता – अरे ! यही तो होता आया है। लड़कीवालों को झुककर ही रहना होता है लड़केवालों के सामने। हमारे यहाँ तो — इसके आगे सामनेवाला जो रस्मों की पिटारी खोलता, वह सन्न रह जाती। उसके पिता का कितना रोब- दाब था समाज में लेकिन फेरे के समय वर पक्ष के सामने सिर झुकाए समर्पण की मुद्रा में बैठे थे।

उसने अपने को संभाला – नहीं- नहीं, यह ठीक नहीं है। इस समय अपनी शिक्षा,अपने पद को दरकिनार कर वह एक लड़की की माँ है, एक सामान्य स्त्री और कुछ नहीं ! पर दिमाग कहाँ शांत बैठ रहा था उसकी बड़ी – बड़ी डिग्रियां उसे कुरेद रही थीं, उफ! काश डिलीट का एक बटन यहाँ भी होता, उसने विचार झटक दिए। वह तेजी से मुख्य द्वार पर पहुँची। द्वार पर वर, बेटी के सास – ससुर, नंद – ननदोई, उनके पीछे रिश्तेदार और पूरी बारात खड़ी थी। सजे – संवरे,  उल्लसित  चेहरे। पाँव पखारने की रस्म के लिए वे सब अपनी चप्पल उतारकर खड़े थे। मुस्कुराते हुए चेहरे से उसने मेहमानों का स्वागत किया और झुक-  झुककर, वर, उसके माता – पिता , बहन – बहनोई के  पाँव धोए, पहले पानी से फिर दूध से और साफ कपड़े से पोंछती  जा रही थी। उसे लग रहा तथा कि पढ़े – लिखे जवान बच्चों में से कोई तो कहेगा – नहीं, आप हमारे पैर मत छुइए। पर कोई नहीं बोला। समाज द्वारा लड़की की माँ के लिए बनाई गई रस्मों पर उसकी आँखों में  आँसू छलक उठे। 

उसकी छलकती आँखें खुद को अपने बेटे की शादी में वधू के माता – पिता के पैर पखारते, आरती करते देख मुस्कुरा रही थीं।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 123 ☆ आकार को साकार करें ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आकार को साकार करें। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 123 ☆

☆  आकार को साकार करें ☆ 

आभाषी सम्बन्धों की गर्मी समय के साथ बदलती जाती है। वैसे भी जब तक एक विचार धारा के लोग न हों उनमें दोस्ती संभव नहीं। जिस तरह कार्यों के संपादन हेतु टीम बनाई जाती है उसी तरह कैसे लोगों का सानिध्य चाहिए ये भी निर्धारित होता है। कार्य निकल जाने के बाद नए लोग ढूंढे जाते हैं। जीवन अनमोल है इसे व्यर्थ करने से अच्छा है कि समय- समय पर अपनी उपलब्धियों का आँकलन करते हुए पहले से बेहतर बनें और जोड़ने- तोड़ने से न घबराएँ। इन सब बातों से बेखबर सुस्त लाल जी एक ही ढर्रे पर जिए चले जा रहे थे। मजे की बात सबको तो डाँट- फटकार पड़ती पर उनका कोई बाल बांका भी नहीं कर पाता था क्योंकि जो कुछ करेगा गलती तो उससे होगी।

भाषा विकास के नाम पर कुछ भी करो बस करते रहो, सम्मान समारोह तो इस इंतजार में बैठे हैं कि कब सबको सम्मानित करें। कोई अपना नाम सम्मान से जोड़कर अखबार की शोभा बढ़ा रहा है तो कोई सोशल मीडिया पर रील वीडियो बनाकर प्रचार- प्रसार में लगा है। सबके उद्देश्य यदि सार्थक होंगे तो परिणाम अवश्य ही आशानुरूप मिलेंगे। सोचिए जब एक चित्र कितना कुछ बयान करता है तो जब दस चित्रों को जोड़कर रील बनेंगी तो मानस पटल कितना प्रभाव छोड़ेगी। इस के साथ वेद मंत्रों के उच्चारण का संदेश, बस सुनकर रोम- रोम पुलकित हो उठता है। हैशटैग करते हुए पोस्ट करना अच्छी बात है किंतु अनावश्यक रूप से अपने परिचितों की फेसबुक वाल पर घुसपैठ करना सही नहीं होता। हम अच्छा लिखें और अच्छा पढ़ें इन सब बातों के साथ- साथ जब कुछ नया सीखते चलेंगे तो मुंगेरीलाल के हसीन सपने अवश्य साकार होंगे। शब्द जीवंत होकर जब भावनाओं को आकार देते हैं तो एक सिरे से दूसरे सिरे अपने आप जुड़ते चले जाते हैं। सात समुंदर पार रहने वाले कैसे शब्दों के बल पर खिंचे चले आते हैं ये तो उनके चेहरों की मुस्कुराहट बता सकती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 178 ☆ व्यंग्य – पड़ोसी के कुत्ते ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – पड़ोसी के कुत्ते।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 178 ☆  

? व्यंग्य –  पड़ोसी के कुत्ते ?

मेरे पड़ोसी को कुत्ते पालने का बड़ा शौक है. उसने अपने फार्म हाउस में तरह तरह के कुत्ते पाल रखे हैं. कुछ पामेरियन हैं, कुछ उंचे पूरे हांटर हैं कुछ दुमकटे डाबरमैन है, तो कुछ जंगली शिकारी खुंखार कुत्ते हैं.पामेरियन   केवल भौंकने का काम करते हैं, वे पड़ोसी के पूरे घर में सरे आम घूमते रहते हैं. पड़ोसी उन्हें पुचकारता, दुलारता रहता है. ये पामेरियन अपने आस पास के लोगो पर जोर शोर से भौकने का काम करते रहते हैं,  और अपने मास्टर माइंड से साथी खुंखार कुत्तो को आस पास के घरो में भेज कर कुत्तापन फैलाने के प्लान बनाते हैं.

पड़ोसी के कुछ कुत्ते बहुत खूंखार किस्म के हैं, उन्हें अपने कुत्ते धर्म पर बड़ा गर्व है, वे समझते हैं कि इस दुनिया में सबको बस कुत्ता ही होना चाहिये. वे बाकी सबको काट खाना जाना चाहते हैं.और इसे कुत्तेपन का धार्मिक काम मानते हैं.  ये कुत्ते योजना बनाकर जगह जगह बेवजह हमले करते हैं.इस हद तक कि  कभी कभी स्वयं अपनी जान भी गंवा बैठते हैं. वे बच्चो तक को काटने से भी नही हिचकते. औरतो पर भी ये बेधड़क जानलेवा हमले करते हैं. वे पड़ोसी के  फार्म हाउस से निकलकर आस पास के घरो में चोरी छिपे घुस जाते हैं और निर्दोष पड़ोसियो को केवल इसलिये काट खाते हैं क्योकि वे उनकी प्रजाति के नहीं हैं. मेरा पड़ोसी इन कुत्तो की परवरिश पर बहुत सारा खर्च करता है, वह इन्हें पालने के लिये उधार लेने तक से नही हिचकिचाता. घरवालो के रहन सहन  में कटौती करके भी वह इन खुंखार कुत्तो के दांत और नाखून पैने  करता रहता है. पर पड़ोसी ने इन कुत्तो के लिये कभी जंजीर नही खरीदी. ये कुत्ते खुले आम भौकने काटने निर्दोष लोगो को दौड़ाने के लिये उसने स्वतंत्र छोड़ रखे हैं. पड़ोसी के चौकीदार उसके इन खुंखार कुत्तो की विभिन्न टोलियो के लिये तमाम इंतजाम में लगे रहते हैं, उनके रहने खाने सुरक्षा के इंतजाम और इन कुत्तो को दूसरो से बचाने के इंतजाम भी ये चौकीदार ही करते हैं. इन कुत्तो के असाधारण खर्च जुटाने के लिये पड़ोसी हर नैतिक अनैतिक तरीके से धन कमाने से बाज नही आता.इसके लिये पड़ोसी अफीम  ड्रग्स की खेती तक  करने लगा है. जब भी ये कुत्ते लोगों  पर चोरी छिपे खतरनाक हमले करते हैं तो पड़ोसी चिल्ला चिल्लाकर सारे शहर में उनका बचाव करता घूमता है. पर सभ्यता का अपना बनावटी चोला बनाये रखने के लिए  वह सभाओ में  यहां  तक कह डालता है  कि ये कुत्ते तो उसके हैं ही नहीं. पड़ोसी कहता है कि वह खूंखार कुत्ते पालता ही नहीं है. लेकिन सारा शहर जानता है कि ये कुत्ते रहते पड़ोसी के ही फार्म हाउस में ही हैं. ये कुत्ते दूसरे देशो के देशी कुत्तो को अपने गुटो में शामिल करने के लिये उन्हें कुत्तेपन का हवाला देकर बरगलाते रहते हैं.

जब कभी शहर में कही भले लोगो का कोई जमावड़ा होता है, पार्टी होती है तो पड़ोसी के तरह तरह के कुत्तो की चर्चा होती है. लोग इन कुत्तो पर प्रतिबंध लगाने की बातें करते हैं. लोगो के समूह, अलग अलग क्लब मेरे पड़ोसी को समझाने के हरसंभव यत्न कर चुके हैं, पर पड़ोसी है कि मानता ही नहीं. इन कुत्तो से अपने और सबके बचाव के लिये शहर के हर घर को ढ़ेर सी व्यवस्था और  ढ़ेर सा खर्च व्यर्थ ही करना पड़ रहा है. घरो की सीमाओ पर कंटीले तार लगवाने पड़ रहे हैं, कुत्तो की सांकेतिक भाषा समझने के लिये इंटरसेप्टर लगवाने पड़े हैं. अपने खुफिया तंत्र को बढ़ाना पड़ा है, जिससे कुत्तो के हमलो के प्लान पहले ही पता किये जा सकें. और यदि ये कुत्ते हमला कर ही दें तो बचाव के उपायो की माक ड्रिल तक हर घर में लोग करने पर विवश हैं. इस सब पर इतने खर्च हो रहे हैं कि लोगो के बजट बिगड़ रहे हैं. हर कोई सहमा हुआ है जाने कब किस जगह किस स्कूल, किस कालेज, किस मंदिर,  किस गिरजाघर,  किस बाजार , किस हवाईअड्डे, किस रेल्वेस्टेशन, किस मॉल  में ये कुत्ते जाने  किस तरह से हमला कर दें ! कोई नही जानता. क्योकि सारी सभ्यता, जीवन बीमा की सारी योजनायें  एक मात्र सिद्धांत पर टिकी हुई हैं कि हर कोई जीना चाहता है.   कोई मरना नही चाहता इस  मूल मानवीय मंत्र को ही इन कुत्तों ने  किनारे कर दिया है. इनका इतना ब्रेन वाश किया गया है कि अपने कुत्तेपन के लिये ये खुद मरने को तैयार रहते हैं. इस पराकाष्ठा से निजात कैसे पाई जावे यह सोचने में सारे बुद्धिजीवी  लगे हुये हैं. कुत्ते की दुम टेढ़ी ही रहती है, उसे सीधा करने के सारे यत्न फिर फिर असफल ही होते आए हैं.खुद पड़ोसी कुत्तो के सामने मजबूर है, वह उन्हें जंजीर नही पहना पा रहा. अब शहर के लोगो को ही सामूहिक तरीके से कुत्ते पकड़ने वाली वैन लगाकर मानवता के इन दुश्मन कुत्तो को पिंजड़े में बंद करना होगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 133 ☆ एक दीया जलाना है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 133 ☆

☆ एक दीया जलाना है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

एक दीया जलाना है

          प्यारमयी प्रकाश का

एक दीया जलाना है

         अंधकार के विनाश का

 

एक दीया जलाना है

         उपकार का विश्वास का

एक दीया जलाना है

          सत्कार रास  हास का

 

एक दीया जलाना है

          अपने वीर जवानों का

एक दीया जलाना है

          सच्चे प्रिय इंसानों का

 

एक दीया जलाना है

          नफरत और भेद मिटाने का

एक दीया जलाना है

         हिंदी राष्ट्र भाषा बनाने का

 

एक दीया जलाना है

           मित्रों में प्रेम बढ़ाने का

एक दीया जलाना है

           मन के शत्रु हटाने का

 

एक दीया जलाना है

            मन को गीत सुनाने का

एक दीया जलाना है

           उपवन बाग लगाने का

 

एक दीया जलाना है

          धरती को स्वर्ग बनाने का

एक दीया जलाना है

           सपनों में खो जाने का

 

एक दीया जलाना है

         आलस को राह दिखाने का

एक दीया जलाना है

          अच्छी सोच बनाने का

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #124 – “कमरे का रिश्ता” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  लघुकथा – “कमरे का रिश्ता”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 124 ☆

☆ लघुकथा – कमरे का रिश्ता ☆ 

“क्या बात है सुमन जी, पहली बार हाथ से सब्जी-रोटी बना रहे हो” घनश्याम ने आते ही पूछा तो सुमन ने कहा, “ताकि मेरा पुत्र मुझे अपने साथ न ले जा सके।”

“मैं समझा नहीं,” घनश्याम ने कहा,” खाने का पुत्र के साथ ले जाने से क्या संबंध है?”

“यही कि अच्छा खाना देखकर वह समझे कि मैं यहां मजे से खा-पीकर रह रहा हूं। रोज खाना बनाता और खाता हूं।”

“मगर तुम तो कभी पौहे खाकर, कभी होटल में खाना खाकर, कभी चावल बना कर खा लेते हो। ताकि बचे हुए समय का उपयोग लेखन में कर सकों। मगर यह काम तो अपने पुत्र के साथ शहर में जाकर भी कर सकते हो।”

“कर तो सकता हूं,” सुमन ने कहा, “मगर शहर में मेरे पुत्र के पास एक ही कमरा है। मैं नहीं चाहता हूं कि मेरी वजह से मेरे पुत्र, उसकी पत्नी के जीवन नीरस हो जाए,” यह कहते हुए जल्दी-जल्दी स्वादिष्ट खाना बनाने लगे।

इधर घनश्याम इसी उलझन में उलझा हुआ था कि कमरे का पति-पत्नी के सरस व नीरस रिश्ते से क्या संबंध हो सकता है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-10-22

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #133 ☆ फराळ..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 133 ☆ फराळ..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

(दिवाळी निमित्त एक खास कविता….!)

आई म्हंटली दिवाळीला

फराळ करू छान

फराळात चकलीला

देऊ पहिला मान..!

 

गोल गोल फिरताना

तिला येते चक्कर

पहिलं कोण खाणार

म्हणून घरात होते टक्कर..!

 

करंजीला मिळतो

फराळात दुसरा मान

चंद्रासारखी दिसते म्हणून

वाढे तिची शान..!

 

एकामागून एक करत

करंजी होते फस्त

फराळाच्या डब्यावर

आईची वाढे गस्त..!

 

साध्या भोळ्या शंकरपाळीला

मिळे तिसरा मान

मिळून सा-या एकत्र

गप्पा मारती छान…!

 

छोट्या छोट्या शंकरपाळ्या

लागतात मस्त गोड

दिसत असल्या छोट्या तरी

सर्वांची मोडतात खोड..!

 

बेसनाच्या लाडूला

मिळे चौथा मान

राग येतो त्याला

फुगवून बसतो गाल..!

 

खाता खाता लाडूचा

राग जातो पळून

बेसनाच्या लाडू साठी

मामा येतो दूरून..!

 

चटपटीत चिवड्याला

मिळे पाचवा मान

जरा तिखट कर

दादा काढे फरमान..!

 

खोडकर चिवडा कसा

मुद्दाम तिखटात लोळतो

खाता खाता दादाचे

नाक लाल करतो…!

 

रव्याच्या लाडूला

मिळे सहावा मान

पांढरा शुभ्र शर्ट त्याचा

शोभून दिसतो छान…!

 

आईचा लाडका म्हणून

हळूच गालात हसतो

दादा आणि मी मिळून

त्यालाच फस्त करतो…!

 

लसणाच्या शेवेला

मिळतो सातवा मान

जास्त नको खाऊ म्हणून

आई पिळते माझा कान..!

 

शेवेचा गुंता असा

सुटता सुटत नाही

एकमेकां शिवाय ह्यांचं

जरा सुद्धा पटत नाही…!

 

दिवाळीच्या फराळाला

सारेच एकत्र येऊ

थोडा थोडा फराळ आपण

मिळून सारे खाऊ..!

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्री महागणेश पञ्चरत्नस्तोत्रम्– (मूळ रचना : आदी शंकराचार्य) — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्री महागणेश पञ्चरत्नस्तोत्रम्– (मूळ रचना : आदी शंकराचार्य) — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

मुदा करात्त मोदकं सदा विमुक्ति साधकम्

कलाधरावतंसकं विलासलोक रक्षकम्।

अनायकैक नायकं विनाशितेभ दैत्यकम्

नताशुभाशु नाशकं नमामि तं विनायकम् ॥१॥

 

नतेतराति भीकरं नवोदितार्क भास्वरम्

नमत्सुरारि निर्जरं नताधिकापदुद्धरम्।

सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं

महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम् ॥२॥

 

समस्त लोक शङ्करं निरस्त दैत्यकुंजरं

दरेतरोदरं वरं वरेभ वक्त्रमक्षरम्।

कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करं

मनस्करं नमस्कृतां नमस्करोमि भास्वरम् ॥३॥

 

अकिंचनार्ति मार्जनं चिरन्तनोक्ति भाजनं

पुरारि पूर्व नन्दनं सुरारि गर्व चर्वणम्।

प्रपंच नाश भीषणं धनंजयादि भूषणं

कपोल दानवारणं भजे पुराण वारणम् ॥४॥

 

नितान्त कान्त दन्त कान्ति मन्त कान्तिकात्मजं

 अचिन्त्य रूपमन्त हीन मन्तराय कृन्तनम्।

हृदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनां

तमेकदन्तमेव तं विचिन्तयामि सन्ततम्॥५॥

 

महागणेश पंचरत्नमादरेण योऽन्वहं

प्रजल्पति प्रभातके हृदि स्मरन् गणेश्वरम्।

अरोगतां अदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रतां

समीहितायुरष्टभूतिमभ्युपैति सोऽचिरात्॥६॥

॥इति श्रीआदिशंकराचार्य विरचित श्रीमहागणेश स्तोत्रं संपूर्णम्॥

 

श्रीमहागणेश पञ्चरत्न स्तोत्र

मराठी भावानुवाद 

शिरावरी शशीरूपे किरीट हा विराजतो 

अनायकांचा नायक गजासुरा काळ तो

विमुक्तिचा जो साधक सर्वपाप नाशक 

अर्चना विनायका अर्पुनिया मोदक ||१||

 

सूर वा असूर वा नतमस्तक तव चरणी

तेज जणू उषःकाल सर्वश्रेष्ठ देवगणी

सुरेश्वरा निधीश्वरा गजेश्वरा गणेश्वरा 

तव आश्रय मागतो ध्यानि-मनि महेश्वरा ||२||

 

गजासुरा वधूनिया सुखा दिले सकल जना 

तुंदिल तनु शोभते तेजस्वि गजानना 

बुद्धि यशाचा दाता अविनाशी भगवन्ता

क्षमाशील तेजस्वी तुज अर्पण शत नमना ||३||

 

सुरारि नाश कारण दीनांचे दुःखहरण 

प्रपंच क्लेशनाशक धनंजयादि भूषण

शिवपुत्र तव नाम  नाग दिव्यभूषण

तुझे दानवारी रे पुराण भजन गजानन ||४||

 

तेजोमय अतिसुंदर शुभ्र दंत शोभतो 

मतीतीत तव रूप  बाधेसीया हरतो

योगिहृदयी अविनाशी वास करी शाश्वत

एकदंत दर्शन दे सदा तुझ्या चिंतनात ||५||

 

पठण प्रातःकाल नित्य हे महागणेश स्तोत्र 

स्मरितो श्रीगणेश्वरा हृदयातुन पञ्चरत्न

निरामय क्लेशमुक्त ज्ञानभुषण  जीवन 

अध्यात्मिक भौतीक शांति मिळे शाश्वत ||६||

॥इति श्रीआदिशंकराचार्य विरचित निशिकान्त भावानुवादित श्रीमहागणेश स्तोत्र संपूर्ण॥

भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री 

९८९०११७७५४

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#155 ☆ कविता – जीवन क्या है? ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता “जीवन क्या है?”)

☆  तन्मय साहित्य # 155 ☆

☆ जीवन क्या है? ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

सुखद समुज्ज्वल दूध

दूध में जब खटास का

दुःख जरा सा भी मिल जाए

धैर्य रखेंगे तो फिर

वही दूध परिवर्तित

हो कर शुद्ध दही बन जाए,

गहरे मंथन से फिर

रूप बदलता है दधि

मक्खन हो कर तपे

खूब तप कर

गुणकारी घी बन कर के

स्वाद बढ़ाए

बस ऐसे ही

जीवन में दुख की खटास भी

चिंतन मनन धैर्य से

हमको सुखी बनाए

बिना दुखों के स्वाद

कहाँ सुख का मिल पाए।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 45 ☆ गीत – भाई दूज… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “भाई दूज…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 45 ✒️

? गीत – भाई दूज…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

ख़ूब मनाई दिवाली अब ,

भाई दूज की बारी है ।

बहनें करें भाई को टीका ,

इस पर दुनिया वारी है ।।

 

अमावस्या का घना तिमिर है ,

दीपावली की है शाम ,

जश्न मने, हो आतिशबाज़ी ,

सबके घर ख़ुशियां तमाम ,

दीपों से लेकर प्रकाश ,

राह आसान हमारी है ।

बहनें —————————— ।।

 

कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया ,

इसके बाद आ जाती है ,

संग जन्में पले भाई बहन

की याद बहुत दिलाती है ,

भारतीय संस्कृति का पर्व है ,

बाक़ी सब त्यौहारी है ।

बहनें —————————– ।।

 

जब हमारे मन का प्रकाश ,

बाहर तक आ जाएगा ,

अन्दर बाहर रोशन होगा ,

मार्ग हमें मिल जाएगा ,

सारे रिश्तो में सुंदर

भाई बहन की किलकारी है ।

बहनें —————————– ।।

 

मेल मिलाप को समय देना ,

है महत्वपूर्ण व विशेष ,

संसार की कल्याण कामना

हो पर्वों का शुभ संदेश ,

समय के साथ सोच बदलना ,

सलमा बेहद हितकारी है ।

बहनें —————————– ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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