हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #159 ☆ कहानी – एटिकेट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय कहानी  ‘एटिकेट ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 159 ☆

☆ कहानी – एटिकेट

गौरी के सामने वाले मकान में नये किरायेदार आ गये हैं। युवा पति-पत्नी और बूढ़ी माँ। दो छोटे बच्चे हैं, दोनों बेटे। बड़ा चार पाँच साल का होगा और छोटा ढाई तीन का। गौरी का मन बार-बार उस घर में जाने के लिए उझकता है। संबंध बनाने और निभाने की उसे आदत है। नये लोगों के प्रति मन में उत्सुकता है। लेकिन उसकी आदत छिद्रान्वेषण या निन्दा-पुराण की नहीं है। अभी तक पड़ोसियों से उसके संबंध प्रेम और मैत्री के रहे हैं और शहर छोड़ देने के बाद भी गौरी से उनका प्रेम-सूत्र अक्षत रहता है।
जल्दी ही पता चल गया कि सामने वाले दंपति सक्सेना हैं। बड़े लड़के का घर का नाम पिंटू और छोटे का गोलू है। बच्चे सुन्दर और प्यारे हैं। गौरी का उस परिवार से खाने-पीने की चीज़ों के आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़ा है।

उनका छोटा बेटा गोलू खूब नटखट और चंचल है। माँ-बाप ने अभी से उसे किसी नर्सरी में डाल दिया है। सवेरे से स्कूल की ड्रेस में सज-धज कर नेकर की जेबों में हाथ डाले गेट के सामने घूमता है तो बहुत भला लगता है। स्कूल जाने के नाम पर रोता नहीं, खुश खुश चला जाता है।

गोलू खूब सवेरे उठकर बाहर आ जाता है। घर के गेट का ‘लैच’ ऊपर से बन्द रहता है, लेकिन उसे खोलने की तरकीब उसने ढूँढ़ ली है। बन्दर की तरह गेट पर चढ़कर वह ‘लैच’ को पलट देता है और फिर उतरकर धक्का मारकर गेट को खोल देता है। इसके बाद जिधर मुँह घूम जाए, चल देता है। माँ-बाप जब बाहर आकर देखते हैं तो या तो पास के किसी घर के सामने रेत के ढेर पर खेलता मिलता है या फिर किसी पिल्ले को चूमते-चाटते। मुहल्ले में लोग उसे जानने लगे हैं, इसलिए कभी लंबा निकल जाए तो कोई न कोई हाथ पकड़ कर घर तक छोड़ जाता है।

गौरी का बेटा टीनू पाँच साल का है।एक दिन गोलू टीनू के पीछे पीछे गौरी के घर में दाखिल हो गया। वैसे भी वह फक्कड़ और मनमौजी है। किसी भी घर में घुसकर वहाँ खेलकूद में मस्त हो जाने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती। जब भूख या नींद लगती है तभी उसे घर की याद आती है।

गौरी के घर में आकर भी वह टीनू के खिलौनों की छीन-झपट में लग गया। टीनू को अपने खिलौनों से मोह है, किसी को देने में तकलीफ होती है। इसलिए थोड़ी देर खूब हंगामा हुआ। टीनू खिलौनों को अपनी तरफ खींचता था तो गोलू अपनी तरफ। खिलौनों को हाथ आते न देख गोलू ने चिल्ला चिल्ला कर रोना शुरू कर दिया। गौरी ने आकर टीनू को समझाया और गोलू को खिलौने दिलवाये। गोलू खिलौने समेटकर एक कोने में जम गया और दीन-दुनिया को भूल कर खेलने में व्यस्त हो गया।

तब से गौरी के घर में गोलू के आने का सिलसिला शुरू हो गया। वह खिलौने लेकर एक तरफ जम जाता और फिर घर-द्वार भूल जाता। माँ आवाज़ देती तो कहता, ‘अबी नईं आयेंगे’ या ‘थोला लुको, आते हैं।’ माँ बुला बुला कर परेशान हो जाती, लेकिन उस पर कोई असर न होता। अन्ततः गौरी ही उसे समझा-बुझा कर घर भेजती।

घर जाते वक्त वह किसी खिलौने को कंधे से चिपका कर चल देता। फिर उसके और टीनू के बीच खींचतान और हंगामा होता। गौरी टीनू को समझा-बुझा कर खिलौना उसे दे देती, कहती, ‘सवेरे वापस आ जाएगा।’ सवेरे तक गोलू की माँ खिलौना लौटा जाती, तब टीनू को संतोष होता।

आज की संस्कृति के हिसाब से गोलू एकदम नासमझ था। टीनू कुछ खाने को मेज़ पर बैठता तो वह भी बगल की कुर्सी पर जम जाता, कहता, ‘हमें भी दो। हम भी खायेंगे।’ एक बार लेने पर मन न भरता तो कहता, ‘औल दो। खतम हो गया।’ टीनू हँसता। उसे गोलू की बातें अजीब लगती थीं। उसे स्कूल और घर में ‘एटीकेट’ की शिक्षा दी गयी थी। उसे सिखाया गया था कि चीज़ों की माँग सिर्फ अपने घर में करनी है। दूसरे घर में कोई दे तब भी ‘थैंक यू’ कह कर मना कर देना है। उस घर के लोग खाने पीने के लिए बैठने लगें तो धीरे से खिसक लेना है। लेकिन गोलू अभी शिक्षित नहीं है। नादान और भोला है। अभी उस पर नयी तालीम और तहज़ीब का असर नहीं है।

बाहर पॉपकॉर्न बेचने वाला आवाज़ लगाता है तो टीनू की फरमाइश पर गौरी खरीदने जाती है। तभी सामने से गोलू प्रकट हो जाते हैं। कहते हैं— ‘हमें भी।’ जब तक उनके माँ या बाप बाहर निकलते हैं तब तक वे पॉपकॉर्न का पैकेट लेकर चल देते हैं। यही हाल गुब्बारे वाले के आने पर होता है। टीनू को गुब्बारे अच्छे लगते हैं लेकिन खरीदते वक्त अपना हिस्सा लेने के लिए गोलू हाज़िर हो जाते हैं। गुब्बारा देने में थोड़ी भी टालमटोल हो तो वहीं हाहाकार शुरू हो जाता है। उसकी फरमाइशों पर गौरी को भी मज़ा आता है।

कई बार गोलू की माँ संकोच में पड़ जाती है लेकिन गौरी उन्हें समझा देती है। कहती है, ‘वह अपना अधिकार समझ कर माँगता है। उसके मन में भेद नहीं है, न वह तेरा-मेरा जानता है। आप खामखाँ परेशान होती हैं।’

कुछ दिनों से गोलू का आना कम हो गया है। शायद उसे कोई और अड्डा मिल गया है। वैसे बीच की सड़क पर अब भी वह खेलता या कहीं भी आराम से टाँगें पसारकर अपने में मशगूल दिख जाता है। उसका स्कूल जाना बदस्तूर ज़ारी है।

एक दिन गोलू की माँ गप-गोष्ठी के इरादे से गौरी के घर आ गयी। पीछे पीछे गोलू था। पहले से थोड़ा बड़ा और शान्त हो गया था। आने पर उसने पहले की तरह खिलौनों की तरफ ताक- झाँक नहीं की। अच्छे बच्चों की तरह शान्त कुर्सी पर बैठा रहा।

थोड़ी देर में गौरी फ्रिज खोल कर उसके लिए चॉकलेट ले आयी। उसकी तरफ बढ़ा कर बोली, ‘लो बेटे।’

गोलू ने अपने हाथ पीछे बाँध लिये, माँ की तरफ देख कर बोला, ‘नईं।’

गौरी को आश्चर्य हुआ, कहा, ‘क्या नखरा करता है! ले ले।’

गोलू ने चॉकलेट की तरफ और फिर माँ की तरफ देखा, फिर वैसे ही हाथ पीछे किये हुए बोला, ‘नईं, हम नईं लेंगे।’

उसकी माँ ने कहा, ‘ले ले बेटे, आंटी दे रही हैं।’

गोलू ने धीरे-धीरे हाथ बढ़ाकर चॉकलेट ले ली, फिर कहा, ‘थैंक यू, आंटी।’

उसकी माँ का चेहरा गर्व से दीप्त हो गया। बोलीं, ‘स्कूल में सिखाया है। अब पहले जैसे नहीं करता। कोई कुछ देता है तो मना कर देता है। ‘थैंक यू’ कहना भी सीख गया है।’
गौरी गोलू का मुँह देखती रह गयी। उसे लगा एक और बच्चा ईश्वर की दुनिया से निकल कर आदमी की दुनिया में दाखिल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 109 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 110 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 110) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media# 110 ?

रात क्या होती है

हमसे पूछिए ना

आप तो सोये और…

बस सुबह हो गई…

What is the night,

just ask me,

You just sleep

and it’s morning…

☆☆☆☆☆

तलब करें तो मैं अपनी

आँखें भी उन्हें दे दूँ ,

मगर लोग तो मेरी आँखों

के  ख़्वाब  माँगते  हैं…

If you desire, I’m willing

to give my eyes to them,

but people ask for the

dreams of my eyes…

☆☆☆☆☆

मैं अभी से किस तरह से

उसको  बेवफ़ा  कहूँ,

बात तो मंज़िलों की है

रास्ते में क्या बयां करूं…

How can I just call her

unfaithful now itself,

It’s a matter of destination,

why to comment while enroute…!

☆☆☆☆☆

जलते सूरज ने गुरूर से कहा,

है क्या कोई मेरे जैसा…

तभी एक नन्हा सा दीया बोला,

जब शाम होगी तब देखेंगे…!

The burning sun said proudly,

Is there anyone like me…

Then a small lamp said,

We’ll see when it is evening!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 156 ☆ मेरी भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 156 ☆ मेरी भाषा ?

भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। कूटनीति का एक सूत्र कहता है कि किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा और संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की।

असली मुद्दा स्वाधीनता के बाद का है। राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की  प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं।

यूरोपीय भाषा समूह के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक  अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’, ‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो गया है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय, अर्थ का अनर्थ कर रहा है। ‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट खास तौर पर फेसबुक, ट्विटर, वॉट्सएप पर देवनागरी को रोमन में लिखने का चलन भी है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की  पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति संकोच अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके वैचारिक वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

हिंदी पखवाड़ा, सप्ताह या दिवस मना लेने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो जाती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। नयी शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं का प्रवेश हो चुका है,  यह सराहनीय है।

केदारनाथ सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है, जिसमें वे कहते हैं,

जैसे चींटियाँ लौटती हैं/ बिलों में,

कठफोड़वा लौटता है/ काठ के पास,

वायुयान लौटते हैं/ एक के बाद एक,

लाल आसमान में डैने पसारे हुए/

हवाई-अड्डे की ओर/

ओ मेरी भाषा/ मैं लौटता हूँ तुम में,

जब चुप रहते-रहते/

अकड़ जाती है मेरी जीभ/

दुखने लगती है/ मेरी आत्मा..!

अपनी भाषाओं के अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। नागरिकों से अपेक्षित है कि वे इस अरुण की रश्मियाँ बनें।

 © संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 108 ☆ अभियंता दिवस विशेष : हम अभियंता… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित अभियंता दिवस विशेष : हम अभियंता…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 108 ☆ 

☆ अभियंता दिवस विशेष : हम अभियंता… ☆

(छंद : हरिगीतिका)

*

हम अभियंता!, हम अभियंता!!

मानवता के भाग्य-नियंता…

*

माटी से मूरत गढ़ते हैं,

कंकर को शंकर करते हैं.

वामन से संकल्पित पग धर,

हिमगिरि को बौना करते हैं.

नियति-नटी के शिलालेख पर

अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.

असफलता का फ्रेम बनाकर,

चित्र सफलता का मढ़ते हैं.

श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-

फिर भविष्य की क्यों हो चिंता…

*

अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,

पंचतत्व औजार हमारे.

राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,

तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.

वर्तमान, गत-आगत नत है,

तकनीकों ने रूप निखारे.

निराकार साकार हो रहे,

अपने सपने सतत सँवारे.

साथ हमारे रहना चाहे,

भू पर उतर स्वयं भगवंता…

*

भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,

ऊसर में फसलें उपजाते.

हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.

मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.

प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,

आँखों से हम आँख मिलाते.

हरि सम हर हर आपद-विपदा,

गरल पचा अमृत बरसाते.

‘सलिल’ स्नेह नर्मदा निनादित,

ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता…

*

अभियांत्रिकी:

कण जोड़ती तृण तोड़ती पथ मोड़ती अभियांत्रिकी

बढ़ती चले चढ़ती चले गढ़ती चले अभियांत्रिकी

उगती रहे पलती रहे खिलती रहे अभियांत्रिकी

रचती रहे बसती रहे सजती रहे अभियांत्रिकी।

*

तकनीक:

नवरीत भी, नवगीत भी, संगीत भी तकनीक है 

कुछ प्यार है, कुछ हार है, कुछ जीत भी तकनीक है 

गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी तकनीक है 

श्रम-मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है 

*

भारत :

यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है 

कर दें सभी मिल देश का, निर्माण नव अभियान है 

गुणयुक्त हो अभियांत्रिकी, शर्म-कोशिशों का गान है 

परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखक ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

 

 ☆ कविता ☆ लेखक ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆ 

अनुभवों की पोटली

पीठ पर लादकर

कोई लेखक नहीं बनता

लेखक बनने के लिए

जरूरी नहीं कि तुमने

किसी युद्ध में भाग लिया है।

या की भूकंप की खबरें

देखी पड़ी हो

माना कि नदी के पूर ने

नहीं बहाया तुम्हारा कुछ

ना तो तुम

घड़ा बनाते हो ना बारिश

हां बारिश को

घड़े में भरकर

पानीदार होने का मुगालता

पाल सकते हो।

जरूरी नहीं कि तुम

लकड़हारे या मछुआरे बनो ।

बिना कुछ हुए भी तुम

रच सकते हो कविता

बशर्ते

तुम्हें भावनाएं हो

तो तुम भद्र हो

वरना अभद्र हो

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #141 ☆ प्रेरणा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 141 ☆

☆ ‌ आलेख ☆ ‌प्रेरणा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

वैसे तो प्रेरणा शब्द हिन्दी साहित्य के आम शब्दों जैसा ही है, लेकिन यह है बहुत महत्वपूर्ण,  इसका बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक महत्व है तथा इसका संबंध मानव मन की उर्जा से है, यह मानव के जीवन में उत्साह तथा उमंग का संचार करता है, उत्साहहीन मानव के जीवन से खुशियों के पल रूठ जाते हैं, और जीवन उद्देश्यविहीन हो जाता है। जब कि प्रेरित मानव जीवन में ऐसे-ऐसे काम कर जाता है, जिसकी उससे आप अपेक्षा नहीं किए होंगे।

इसका महत्व समझने के लिए हमें कुछ पौराणिक घटना क्रम पर विचार मंथन करना होगा।प्रेरक ही कार्य संचालन हेतु हृदय में प्रेरणा पैदा करता है प्रेरणा के गर्भ में उत्साह पलता है इसे हम पौराणिक काल में घटे कुछ घटना क्रम से समझते हैं।

उदाहरण नं १ – जरा उस समय की कल्पना कीजिये जब रामायण कथा लिखी जा रही थी। सीता हरण भी हो चुका था, उनका कुछ भी पता नहीं चल रहा था, सीता का पता लगाने के लिए, वानर राज सुग्रीव ने धमकी भरा चुनौती पूर्ण कार्य समस्त वानर समूहों को सौंपा गया था। और सुग्रीव द्वारा मधुवन में बिना कार्य सिद्धि के फल खाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तथा बिना लक्ष्य पूरा किए असफल हो कर लौटने पर जान गंवाने का भय था।

उस समूह के संरक्षक जामवंत तथा तथा नायक श्री हनुमान जी महाराज को बनाया गया था, सारे वानर समूह भूख प्रयास से थके हारे उत्साह हीन हो समुद्र किनारे बैठ कर पश्चाताप कर रहे थे। उनकी प्रेरणा मर चुकी थी, सीताहरण की ख़बर मिल चुकी थी पता भी चल चुका था कि माता सीता सौ योजन दूर समुद्र के भीतर रावण की स्वर्ण नगरी लंका में कैद है। लेकिन प्रश्न यह था कि आखिर लंका जाएगा कौन। इसी पर सबकी क्षमताओं का आकलन हो रहा था कोई चार कोई छ कोई दस योजन जाने की बात कर रहा था युवराज अंगद ने भी अपनी क्षमता का वर्णन कर दिया था। स्पष्ट बता भी दिया था कि-

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।

जियँ संसय कछु फिरती बारा॥

अर्थात्- मैं जा तो सकता हूं। लेकिन लौट कर आने में संदेह प्रकट किया था। वहीं समूह के नायक वीर हनुमान मौन हो सिर झुकाए बैठे थे। ऋषि के श्राप के कारण उनका हृदय प्रेरणा हीन था। बल और बुद्धि भूल गए थे। एक किनारे बैठे थे उनकी हालत उस मनुष्य जैसी थी  कि जो धन की गठरी पर बैठा धन  न होने की चिंता में पड़ा हुआ हो। उसे इसका ज्ञान ही नहीं है वह अपार धन-संपदा का मालिक है। आखिर में चिंता ग्रस्त हनुमान जी को उनकी बल बुद्धि की याद जामवंत जी को दिलाना ही पड़ा-

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।

का चुप साधि रहेहु बलवाना।।

पवन तनय बल पवन समाना।

बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।

और उस प्रेरक वचन के सुनते ही हनुमान जी का बल पौरुष जाग उठा था और शक्ति प्रदर्शन का मूल श्रोत बना जय श्री राम का उद्घोष।  फिर क्या था- 

जेहि गिरि चरन देइ हनुमंता|

चलेउ सो गा पाताल तुरंता||

उदाहरण नं २ – उस दृश्य की कल्पना कीजिये जब गांडीवधारी अर्जुन युद्ध क्षेत्र में मोह ग्रस्त खड़ा है, उसे युद्ध क्षेत्र में मृत्यु के पदचाप की आहट सुनाई दे रही है लेकिन प्रेरणा हीन अर्जुन भीख मांग कर खाने की बातें कर रहा है लेकिन, युद्ध करने से भाग रहा है क्यों कि हताशा निराशा ने उसे घेर रखा है जो बार-बार उसे कर्त्तव्य पथ से विमुख कर रहा है लेकिन भगवान श्री कृष्ण के प्रेरक वचनों ने अर्जुन के हृदय में प्रेरणा जगाई, और परिणाम महाभारत युद्ध में उसकी विजय। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सफलता का प्रयास प्रेरणा के गर्भ में पलता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #157 – ग़ज़ल-43 – “सबका इलाज़ तो किया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “सबका इलाज़ तो किया …”)

? ग़ज़ल # 43 – “सबका इलाज़ तो किया …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

वीरान खंडहरों की सैर को दो मायूस दिल गये,

ज़माने से उलझे दोज़ख़ के दरवाज़े मिल गये।

ज़िंदगी तब ख़ुशनुमा लिबास में मुसकाती थी,

चढ़ती उम्र के झौंके में वजूद के पत्ते हिल गये।

ग़म सलीके में रहे जब तलक लब खामोश थे,

हमारी ज़ुबां क्या खुली दर्द बेशुमार मिल गये।

सबका इलाज़ तो किया बस अपना न कर सके,

ज़माने के गरेबां रफ़ू किए ख़ुद के फटे मिल गये।

दर्द के फटे गलीचे सिलवाने जा रहा था शायर,

खुर्दबीन नुक़्ताचीं मगर नुक्कड़ पर मिल गये।

मैं ढूँढता रहा आस्तीन के साँपों को इर्द गिर्द,

ठीक से देखा ‘आतिश’ ने ज़हन में मिल गये।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 34 ☆ मुक्तक ।। झूठ  के पाँव  नहीं  होते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। झूठ  के पाँव  नहीं  होते हैं।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 34 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। झूठ  के पाँव  नहीं  होते हैं ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

यही सच  कि  सत्य  का  कोई  जवाब नहीं है।

एक सच ही जिसके चेहरे पर नकाब नहीं है।।

सच   सा  नायाब  कोई  और  नहीं  है  दूसरा।

इक  सच  ही  तो   झूठा  और  खराब  नहीं  है।।

[2]

सच   मौन   हो   तो   भी   सुनाई   देता है।

सात परदों के पीछे से भी दिखाई देता है।।

फूस में चिंगारी सा छुप कर आता है बाहर।

सच ही हर मसले की सही सुनवाई देता है।।

[3]

चरित्र   के   बिना   ज्ञान  इक  झूठी  सी  ही  बात है।

त्याग   बिन   पूजन   तो   जैसे   दिन   में   रात है।।

सिद्धांतों बिन राजनीति भी विवेकशील होती नहीं।

मानवता बिन विज्ञान  भी  इक  गलत  सौगात   है।।

[4]

सत्य  स्पष्ट  सरल  नहीं   इसमें  कोई  दाँव  होता  है।

जैसे   धूप   में   लगती  शीतल सी   छाँव   होता   है।।

गहन   अंधकार   को   भी   सच  का सूरज चीर देता।

सच के सामने नहीं टिकता झूठ का पाँव नहीं होता है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 100 ☆ ’’अपना भाग्य बनाइये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक कविता  “अपना भाग्य बनाइये…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 100 ☆ गज़ल – अपना भाग्य बनाइये” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

कोसिये मत भाग्य को, निज भाग्य को पहचानिये

भाग्य अपने हाथ में है, कुछ तो, इतना जानिये।

 

ज्ञान औ’ विज्ञान हैं आँखें दो, इनसे देखिये

भाग्य अपना, अपने हाथों, आप स्वयं सजाइये।

 

बीत गये वे दिन कि जब सब आदमी मजबूर थे

अब तो है विज्ञान का युग, हर खुशी घर लाइये

 

एक मुँह तो हाथ दो-दो, दिये हैं भगवान ने

बात कम, श्रम अधिक करने को तो आगे आइये।

 

अब न दुनियाँ सिर्फ, अब तो चाँद-तारे साथ हैं

क्या, कहाँ, कब, कैसे, क्यों प्रश्नों को भी सुलझाइये।

 

जरूरी है पुस्तकों से मित्रता पहले करें

हम समस्या का सही हल उनको पढ़कर पाइये।

 

पढ़ना-लिखना है जरूरी जिससे बनता भाग्य है

जिंदगी को नये साँचे में समझ के सजाइये।

 

बदलती जाती है दुनियॉ अब बड़ी रफ्तार से

आप पीछे रह न जायें तेज कदम बढ़ाइये

 

जो बढ़े, बन गये बड़े, हर जगह उनका मान है

आप भी पढ़ लिख के खुद सबकों यही समझाइये।

 

सोच श्रम औ’ योजनायें बदलती परिवेश को

खुद समझ सब, अपने हाथों अपना भाग्य बनाइये।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

 

मो. 9425484452

 

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 107 – ईमानदार राजा ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #107 🌻 ईमानदार राजा 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बड़ा सुन्दर शहर था, उसका राजा बड़ा उदार और धर्मात्मा था। प्रजा को प्राणों के समान प्यार करता और उनकी भलाई के लिए बड़ी-बड़ी और सुन्दर राज व्यवस्थाएं करता। उसने एक कानून प्रचलित किया कि अमुक अपराध करने पर देश निकाले की सजा मिलेगी। कानून तोड़ने वाले अनेक दुष्ट आदमी राज्य से निकाल बाहर किए गये, राज्य में सर्वत्र सुख शांति का साम्राज्य था।

एक बार किसी प्रकार वही जुर्म राजा से बन पड़ा। बुराई करते तो कर गया पर पीछे उसे बहुत दुःख हुआ। राजा था सच्चा, अपने पाप को वह छिपा भी सकता था पर उसने ऐसा किया नहीं।

दूसरे दिन बहुत दुखी होता हुआ वह राज दरबार में उपस्थित हुआ और सब के सामने अपना अपराध कह सुनाया। साथ ही यह भी कहा मैं अपराधी हूँ इसलिए मुझे दण्ड मिलना चाहिए। दरबार के सभासद ऐसे धर्मात्मा राजा को अलग होने देना नहीं चाहते थे फिर भी राजा अपनी बात पर दृढ़ रहा उसने कड़े शब्दों में कहा राज्य के कानून को मैं ही नहीं मानूँगा तो प्रजा उसे किस प्रकार पालन करेगी? मुझे देश निकाला होना ही चाहिये।

निदान यह तय करना पड़ा कि राजा को निर्वासित किया जाए। अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि नया राजा कौन हो? उस देश में प्रजा में से ही किसी व्यक्ति को राजा बनाने की प्रथा थी। जब तक नया राजा न चुन लिया जाए तब तक उसी पुराने राजा को कार्य भार सँभाले रहने के लिए विवश किया गया। उसे यह बात माननी पड़ी।

उस जमाने में आज की तरह वोट पड़कर चुनाव नहीं होते थे। तब वे लोग इस बात को जानते ही न हों सो बात न थी। वे अच्छी तरह जानते थे कि यह प्रथा उपहास्पद है। लालच, धौंस, और झूठे प्रचार के बल पर कोई नालायक भी चुना जा सकता है। इसलिए उपयुक्त व्यक्ति की कसौटी उनके सद्गुण थे। जो अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करता था वही अधिकारी समझा जाता था।

उस देश का राजा जैसा धर्मात्मा था वैसा ही प्रधान मंत्री बुद्धिमान था। उसने नया राजा चुनने की तिथि नियुक्त की। और घोषणा की कि अमुक तिथि को दिन के दस बजे जो सबसे पहले राजमहल में जाकर महाराज से भेंट करेगा वही राजा बना दिया जायेगा। राजमहल एक पथरीली पहाड़ी पर शहर से जरा एकाध मील हट कर जरूर था पर उसके सब दरवाजे खोल दिये गये थे, भीतर जाने की कोई रोक टोक न थी। राजा के बैठने की जगह भी खुले आम थी और वह मुनादी करके सब को बता दी गई थी।

राजा के चुनाव से एक दो दिन पहले प्रधान मंत्री ने शहर खाली करवाया और उसे बड़ी अच्छी तरह सजाया। सभी सुख उपभोग की सामग्री जगह-जगह उपस्थित कर दी। उन्हें लेने की सब को छुट्टी थी किसी से कोई कीमत नहीं ली जाती। कहीं मेवे मिठाइयों के भण्डार खुले हुए थे तो कहीं खेल, तमाशे हो रहे थे कहीं आराम के लिए मुलायम पलंग बिछे हुए थे तो कहीं सुन्दर वस्त्र, आभूषण मुफ्त मिल रहे थे। कोमलांगी युवतियां सेवा सुश्रुषा के लिए मौजूद थीं जगह-जगह नौकर दूध और शर्बत के गिलास लिये हुए खड़े थे। इत्र के छिड़काव और चन्दन के पंखे बहार दे रहे थे। शहर का हर एक गली कूचा ऐसा सज रहा था मानो कोई राजमहल हो।

चुनाव के दिन सबेरे से ही राजमहल खोल दिया गया और उस सजे हुए शहर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी गई। नगर से बाहर खड़े हुए प्रजा भीतर घुसे तो वे हक्के-बक्के रह गये। मुफ्त का चन्दन सब कोई घिसने लगा। किसी ने मिठाई के भण्डार पर आसन बिछाया तो कोई सिनेमा की कुर्सियों पर जम बैठा, कोई बढ़िया-बढ़िया कपड़े पहनने लगा तो किसी ने गहने पसंद करने शुरू किए। कई तो सुन्दरियों के गले में हाथ डालकर नाचने लगे सब लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सुख सामग्री का उपयोग करने लगे।

एक दिन पहले ही सब प्रजा को बता दिया गया था कि राजा से मिलने का ठीक समय 10 बजे है। इसके बाद पहुँचने वाला राज का अधिकारी न हो सकेगा। शहर सजावट चन्द रोज है, वह कल समय बाद हटा दी जायेगी, एक भी आदमी ऐसा नहीं बचा था जिसे यह बातें दुहरा-दुहरा कर सुना न दी गई हों, सभी ने कान खोलकर सुन लिया था।

शहर की सस्ती सुख सामग्री ने सब का मन ललचा लिया उसे छोड़ने को किसी का जी नहीं चाहता था। राज मिलने की बात को लोग उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे। कोई सोचता था दूसरों को चलने दो मैं उनसे आगे दौड़ जाऊँगा, कोई ऊंघ रहे थे अभी तो काफी वक्त पड़ा है, किसी का ख्याल था सामने की चीजों को ले लो, राज न मिला तो यह भी हाथ से जाएगी, कोई तो राज मिलने की बात का मजाक उड़ाने लगे कि यह गप्प तो इसलिये उड़ाई गई है कि हम लोग सामने वाले सुखों को न भोग सकें। एक दो ने हिम्मत बाँधी और राजमहल की ओर चले भी पर थोड़ा ही आगे बढ़ने पर महल का पथरीला रास्ता और शहर के मनोहर दृश्य उनके स्वयं बाधक बन गये बेचारे उलटे पाँव जहाँ के तहाँ लौट आये। सारा नगर उस मौज बहार में व्यस्त हो रहा था।

दस बज गये पर हजारों लाखों प्रजा में से कोई वहाँ न पहुँचा। बेचारा राजा दरबार लगाये एक अकेला बैठा हुआ था। प्रधान मंत्री मन ही मन खुश हो रहा था कि उसकी चाल कैसे सफल हुई। जब कोई न आया तो लाचार उसी राजा को पुनः राज भार सँभालना पड़ा

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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