हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 118 – “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 118 ☆

☆ “आज की मधुशाला (काव्य संग्रह)” – डॉ संजीव कुमार ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ संजीव कुमार जी के काव्य-संग्रह “आज की मधुशाला” की समीक्षा।

पुस्तक – आज की मधुशाला

लेखक  – डा संजीव कुमार

प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स, नोयडा

संस्करण –  २०२२,

मूल्य – ३५० रु

☆ एक सदी के अंतराल से मधुशाला का सार्थक रिमेक – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मनोभावना और सरोकारों को स्पर्श करता साहित्य अमर हो जाता है. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला ऐसी ही अद्भुत काव्य कृति है, जिसके लक्षणा और व्यंजना अर्थ अमिधा अर्थो से कहीं ज्यादा व्यापक और मर्मस्पर्शी हैं. वर्ष 1935 में प्रकाशित मधुशाला के अनगिनत संस्करण पुनर्प्रकाशित हो चुके हैं, अनेक भाषाओ में इसके अनुवाद और भावार्थ तथा आध्यात्मिक व्याख्यायें की गई हैं. उमर खैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित मधुशाला हिन्दी साहित्य की धरोहर है. मधु, मदिरा, हाला (शराब), साकी (शराब पड़ोसने वाली),  प्याला  (ग्लास), मधुशाला और मदिरालय की मदद से जीवन की जटिलताओं की सरल, गेय व्याख्या ने इसे रसिक स्वरूप में प्रतिष्ठित किया. बाद में नृत्य-नाटिका, आडियो व विभिन्न स्वरूपों में मधुशाला की अनेक प्रस्तुतियां होती रही हैं. रुबाईयों के सहज छंद बार बार अनेक कवियों के द्वारा अपनाये जाते रहे हैं. बच्चन जी के स्वर्गवास पर मैने “नीर नर्मदा का मधु है” लिखकर उन्हें श्रद्धांजली दी थी..

“कण कण शंकर बन आप्लावित ऐसी है माँ की मधुशाला,

माँ के दर्शन से पायें सुदर्शन को बन साकी पीने वाला”.

डा संजीव कुमार वर्तमान साहित्य जगत में वह नाम बन गया है, जो श्रेष्ठ विगत का अध्ययन कर, वर्तमान पर संधारित करके नितांत नया बनाकर आज के हिन्दी प्रेमी विश्व के लिये नूतन गढ़ रहे हैं. मुझे खुशी है कि मुझे डा संजीव कुमार रचित आज की मधुशाला के अध्ययन का सुअवसर मिला. मूल मधुशाला में १३५ हिंदी रुबाईयां हैं, उसी का अवलंब लेकर आज की मधुशाला में भी डा संजीव कुमार ने १३५ रुबाईयां ही लिखी हैं, वही शैली है बस दृश्य परिवर्तित हैं. बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशको में सूफी वाद का प्रतिनिधित्व करती मूल मधुशाला लिखी गई थी. डा संजीव कुमार की आज की मधुशाला को पढ़ते हुये  ऐसा लगता है कि एक सदी के अंतराल से पुनः स्टेज का गिरा हुआ पर्दा उठा है और मूल मधुशाला का सार्थक रिमेक हिन्दी प्रेमियों के लिये आया है.

उदाहरण देखिये, पहला ही पद है…

मधुशाला सौगात मानकार दिल ने सदा संभाली है,

हरि की इच्छा नेह समझकर हमने अब तक पाली है.

युग बदला है जीवन बदले बदल गई साकी बाला,

मौन ताकती रहती व्याकुल अब तो सबको मधुशाला.

या आत्म केंद्रित युग परिवर्तन पर यह देखिये…

प्यास तपाती थके पांव से

नाच नहीं पाता कोई

प्याला लेकर साकी बनकर

आज नहीं गाता कोई

४६ वीं रुबाई में हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखा था…

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

आज की मधुशाला में वहीं पर डा संजीव कुमार लिखते हैं…

मंदिर मस्जिद के विवाद में बडी सियासत होती है

देख दिलों की आज दूरियां साकी घायल होती है

कहाँ शरण पीने वाले को कहां मार्ग का दर्शन है

भटक रहा हे प्याले के संग वह ढ़ूंढ़ रहा हे मधुशाला…  ४६

किसी रचना के इस तरह के महत्वपूर्ण कालांतरण कार्य हेतु मूल कवि के चोले में परकाया प्रवेश कर यथा स्वरूप रचना करने में डा संजीव कुमार की सफलता हेतु वे हिन्दी जगत की बधाई के सुपात्र हैं. यह आज की मधुशाला उसी तरह बारम्बार पढ़ी जायेगी जैसे मूल मधुशाला सदैव प्रासंगिक बनी हुई है. डा संजीव कुमार स्वयं इंडिया नेटबुक्स, नोयडा के निदेशक हैं, कहना न होगा कि पठनीय सामग्री के साथ साथ किताब का प्रकाशन, प्रस्तुति, कागज,  त्रुटि रहित मुद्रण आदि सब कुछ उत्कृष्ट कोटि का वैश्विक स्तर का है. मैं और उदाहरण देकर या रुबाईयों की व्याख्या करके आपके स्वयं पढ़ने के आनंद को कम नहीं करना चाहता, इसलिये बस यह लिखते हुये कि तुरंत आर्डर करें और इत्मिनान से मूल मधुशाला के संग संग आज की मधुशाला पढ़ें, और वैचारिक मधुर द्वंद का आनंद उठायें. एकदम पैसा वसूल, अवश्य पठनीय तथा संग्रहणीय किताब है.

अंत में एक सौ तैंतीसवा छंद देखिये..

पहले पंथ मतो का इतना उग्र रूप न दिखता था

अब तो घड़ी घडी लिखते हैं सब जैसे सेक्युलर बन के

पहले फिरते थे मधुशाला के पीछे याची बनकर

अब तो सबने छोड़ दिया है फिर फिर जाना मधुशाला

युग परिवर्तन को महसूस कीजिए.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 123☆ गीत – वंदेमातरम गाओ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 123 ☆

☆ गीत – वंदेमातरम गाओ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।

घर – घर फहरे आज तिरंगा

पावन पर्व मनाओ।।

 

बलिदानों की गौरव गाथा

भारतवासी भूल न जाना

प्राण लुटाए हँसते – हँसते

वंदेमातरम बोल गाना

 

ऐक्य भाव से बढ़ती समृद्धि

मातृभूमि बलि जाओ।

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।।

   

जो भी अच्छा कर सकते हम

सदा देश हित जीवन जीएँ

याद भी करना भगत सिंह को

जीवन सत्य , प्रेम रस पीएँ

 

भोगवाद में डूब न जाना

निज कर्तव्य निभाओ।

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।।

 

जातिवाद और क्षेत्रवाद को

तूल नहीं देना है अच्छा।

भाषा तो सब ही हैं प्यारी

संस्कृति करे सभी की रक्षा।।

 

देश बढ़ेगा हिंदी से ही

निज भाषा अपनाओ।

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।।

 

राजनीति से उठकर देखो

हिंसा , दंगा मत फैलाओ।

मानवता के लिए जीएँ सब

कर्तव्यों को सभी निभाओ।।

 

मानव हैं तो अच्छा सोचें

सबको मित्र बनाओ।

आजादी की नूतन बेला

फूलों – सा मुस्काओ।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #122 – गेली कित्येक वर्षी… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 122 – गेली कित्येक वर्षी…… ☆

शहरात गेल्यापासून

तुम्ही पार विसरून गेलात मला..,

आज इतक्या वर्षानंतर

तुम्ही मला घर म्हणत असाल की नाही

ठाऊक नाही…

पण मी अजूनही सभांळून

ठेवलंय..,घराच घरपण

तुम्ही जस सोडून गेलात तसंच

गेल्या कित्येक वर्षीत

अनेक उन पावसाळ्यात

मी तग धरून उभा राहतोय

कसाबसा…. तुमच्या शिवाय…

रोज न चुकता तुमच्या सर्वांची

आठवण येते …

पण खर सांगू आता नाही

सहन होत हे ऊन वा-याचे घाव …

माझ्या छप्परांनी ही आता माझी साथ

सोडायचा निर्णय घेतलाय…

माझा दरवाजा तर तुमची वाट पाहून पाहून

कधीच माझा हात सोडून

निखळून पडलाय….

माझ्या समोरच अंगण तुळशीव्दावन

सगळच कसं दिसेनास झालंय आता…

माझ्या भिंतीनी माझा श्वास

मोकळा करून देण्या आधी

एकदा तरी फक्त एकदा तरी ….

मला भेटायला याल अशी आशा आहे…

तूमचं घर तुमची वाट पाहतय…

गेली कित्येक वर्षी…

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – हर घर तिरंगा – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – हर घर तिरंगा   ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

हर घर तिरंगा

केवढी संधी

केवढा मान

मोठीच शान —

खोचला पदर

कसली कंबर

कासोटा घट्ट 

मनात आदर —

मजबूत  हात 

भक्कम  साथ

 वर मान  ताठ

 ध्वजाला हात —

अशा हातांनी

ध्वजारोहण 

अमृतमहोत्सव 

 रास्त  कारण —

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#146 ☆ गीत – देश प्रेम के गाए मंगल गान, वंदे मातरम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय अप्रतिम रचना “देश प्रेम के गाए मंगल गान, वंदे मातरम…”)

☆  तन्मय साहित्य # 146 ☆

☆ गीत – देश प्रेम के गाए मंगल गान, वंदे मातरम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

अमर रहे जनतंत्र

शक्ति संपन्न रहे भारत अपना

सोने की चिड़िया फिर

जगतगुरु हो ये सब का सपना

देश बने सिरमौर जगत में

ये दिल में अरमान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।

 

युगों युगों तक लहराए

जय विजयी विश्व तिरंगा ये

अविरल बहती रहे, पुनीत

नर्मदा, जमुना, गंगा ये,

सजग  जवान, सिपाही, सैनिक

खेत और खलिहान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 34 ☆ पावस ऋतु… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत  “पावस ऋतु… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 34 ✒️

? पावस ऋतु… — डॉ. सलमा जमाल ?

 पावस ऋतु आगमन।

नाच उठा मयूर मन।।

 

तृप्त हुए चर – अचर,

मनमोद करते विचर- विचर,

हरीतिमा डगर – डगर,

वृक्ष गए संवर – संवर,

ओढ़कर हरी चुनर,

झूम उठे वन उपवन।

नाच उठा मयूर मन।।

 

काली-काली बदलियां,

कड़क रहीं हैं बिजलियां,

मोर की अठखेलियां,

कोयल की रंगरेलियां,

नृत्य करतीं तितलियां,

रिमझिम – रिमझिम सावन।

नाच उठा मयूर मन।।

 

पायल की मधुर रुनझुन,

बज उठे चूड़ी कंगन,

दुल्हन बैठी है बनठन,

मिल रहा धरती गगन,

बरस उठे श्याम घन,

प्रेमियों का है मिलन।

पावस ऋतु आगमन।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 44 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला  “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ व्यंग्य  # 44 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

मेरी स्वरचित सभी पोस्ट, तुरंत तैयार की जाती हैं गरमागरम जलेबियों की तरह. जब लिखना शुरू होता है तो उसका कलेवर और यात्रा फिर विराम निश्चित नहीं होता. पहले कथा के पात्र या विषय पर कल्पना से सृजन किया जाता है फिर कहानी आगे बढ़ती है. हो सकता है इस कारण भी कभी कभी पात्र शुरुआत में जैसे होते हैं, वैसे अंत तक नहीं रहते, बदल जाते हों. परम संतोषी जी भी प्रारंभ मे शायद अलग रंग के लगे पर बाद में उनमें रचनात्मकता डालते डालते और उनके परिवार के आने से वो सबके प्रिय होते चले गये. खलनायक पात्रों का सृजन भी लेखकीय कर्म है, और उतना ही महत्वपूर्ण भी है, नायक का किरदार गढ़ने जितना. गब्बर सिंह के किरदार को गढ़ना इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है कि दर्शकों का डर और गुस्सा उसे ज्यादा, और ज्यादा, ज्यादा से ज्यादा लोकप्रिय बनाता चला गया. फिर इस रोल में अमजद खान का अभिनय, उनके डॉयलाग और बोलने की शैली ने गब्बर सिंह को फिल्मों का ऐतिहासिक खलनायक बना दिया. क्रूरता और कुटिलता के इस संगम की अपार लोकप्रियता और जन जन तक पहुंच, फिल्मजगत के लिये ऐतिहासिक और मील का पत्थर बन गई.

प्रशिक्षण के ये अनुभव भी Trainee  प्रशिक्षु की हैसियत से 1975 से 2011 के बीच अटैंड किये गये विभिन्न प्रशिक्षण कोर्स पर आधारित हैं जिनमें मनोरंजन को ही प्राथमिकता दी गई है.

जब प्रायः रविवार को लोग प्रशिक्षण केंद्र पहुंचते हैं तो वहां का केंटीन स्टाफ भी शाम से चैतन्य हो जाता है. पिछले बैच के विदा होने से उत्पन्न हुआ खालीपन, रविवार शाम से ही धीरे धीरे भरने लगता है और सोमवार सुबह से ही कैंटीन फुल फ्लेज्ड वर्किंग मोड में आ जाती है.

कुछ प्रशिक्षण कार्यक्रम अनूठे होते हैं, रोचक भी, जिनमें “बिहेवियर साईंस और परिवर्तन 1,2,3.प्रमुख थे. इनकी एप्रोच और कलेवर ही अलग था जो यह संदेश भी देने में सफल रहा कि  “Elephant can also fly if there is vision and approach.  It was attempted seriously as well as successfully and results have to come as expected which came rightfully.”

प्रशिक्षण का एक कार्यक्रम ऐसा भी था जिसके सभी प्रतिभागी नये नये फील्ड ऑफीसर थे और उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः शासन प्रायोजित ऋण योजनाएं और कृषि प्रखंड के ऋणों तक ही सीमित था, पर कार्यक्रम “हाई वेल्यू एडवांस इन SSI & C&I Segment ” था. जाहिर था जो प्रतिभागी पढ़ना और सीखना चाहते थे, प्रशिक्षण उससे अलग परिपक्वता के लिये उपयोगी था. समापन दिवस पर पधारे मुख्य अतिथि के सामने जब यह बात उठी तो बॉल क्षेत्रीय कार्यालय और शाखाओं के कोर्ट में डाल दी गई. पर मुख्य अतिथि ने ये अवश्य कहा कि पार्टीसिपेंट्स अगर कार्यक्रम के हिसाब से नहीं आये थे, तो जो आये थे, उनके हिसाब से उपयुक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम दिया जा सकता था. यही इनोवेटिव भी होता और व्यवहारिक भी.

प्रशिक्षण जारी रहेगा, इसी उम्मीद के साथ कि तारीफ करना मुश्किल हो तो आलोचना ही कर दीजिए, वो भी चलेगी.😀

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 146 ☆ माझ्या मनाचे आभाळ ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 146 ?

माझ्या मनाचे आभाळ ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

माझ्या मनाचे आभाळ,

नेहमीच भरून यायचे आणि…

बरसत रहायचे धुवाँधार …..

उगीचच!

शाळेत असताना…

इवलेसेच होते आकाश …

दप्तरातल्या वह्या पुस्तकात कमी आणि

कथा कादंबरीत जास्त रमायचे !

गुंतायचे रेडिओवरच्या गाण्यात…

हिंदी सिनेमातही ….!

 

माझ्या मनाचे आभाळ,

माझ्यासारखेच वेंधळे…

ओढाळ आणि एकाकी

गुलशन नंदाच्या उपन्यासात…

शोधत असायचे चंद्र सूर्य तारे !

 

खिळून रहायचे राजेंद्र यादवांच्या

“सारा आकाश”च्या पानापानावर,

मनाच्या आभाळाला,

आपोआप मिळायचे,

कुठले कुठले रंग….

इंद्रधनुष्यही यायचे हातात !

चंद्र सूर्य तारेही

आपल्याच मालकीचे वाटायचे !

चांदण्या मस्त

रुणझुणत रहायच्या,

वारे ही वहायचे मर्जीनुसार

 

पण खूप एकटे होते माझे ते

मूठभर आकाश!

विस्तारण्याची स्वप्नेही

नव्हते पहात !

महत्त्वाकांक्षेच्या वारूवर

नाही झाले स्वार कधी ,

माझ्या मनाचे आभाळ

 नेहमीच

जमीनीवर राहिले!

 

काळे पांढरे रंग सोसत,

निरभ्र होत गेले!

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनीक्रमांक २६- भाग १ – पूर्व पश्चिमेचा सेतू – इस्तंबूल ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २६ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ पूर्व पश्चिमेचा सेतू– इस्तंबूल ✈️

‘अंकारा’ ही आधुनिक टर्कीची (Turkey) राजधानी आहे पण टर्कीची (टर्कीचे आता ‘टर्कीये’ (Turkiye )असे नामकरण झाले आहे.) ऐतिहासिक, औद्योगिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक व व्यापारी राजधानी ‘इस्तंबूल’ आहे. इस्तंबूलचं पूर्वीच नाव कॉन्स्टॅन्टिनोपल. जुन्या सिल्क रूटवरील  (रेशीम मार्ग) या महत्त्वाच्या शहरात प्राचीन आणि अर्वाचीन संस्कृतीचा सुंदर संगम झाला आहे. जुन्या वैभवाच्या खुणा अभिमानाने जपणाऱ्या इस्तंबूलचं भौगोलिक स्थान वैशिष्ट्यपूर्ण आहे. भूमध्य समुद्र आणि काळा समुद्र यांच्यामध्ये असलेलं टर्की हे  मुख्यतः आशिया खंडात येतं. पण इस्तंबूलचा वायव्यकडील थोडासा भाग युरोप खंडात येतो. इस्तंबूलच्या एका बाजूला मारमारा समुद्र तर दुसऱ्या बाजूला बॉस्पोरसची खाडी आहे. बॉस्पोरस खाडीवरील पुलाने  युरोप व आशिया हे दोन खंड जोडले जातात.

इस्तंबूलला लाभलेले स्वच्छ, सुंदर समुद्रकिनारे, थंड कोरडी हवा यामुळे मे महिन्यापासून ऑक्टोबर महिन्यापर्यंत जगभरच्या प्रवाशांनी इस्तंबूल फुलून जाते. समुद्रस्नान, सूर्यस्नान करण्याची मजा, ताजी रसरशीत फळं, तरतऱ्हेच्या भाज्या, विपुल प्रमाणात असणारे अंजीर, बदाम, खजूर, अक्रोड, पिस्ते आणि समृद्ध सागरी मेजवानी यामुळे प्रवाशांचं, खवय्यांचं हे आवडतं ठिकाण आहे. ऑलिव्ह फळांचा हा मोठा उत्पादक देश आहे. लज्जतदार जेवणामध्ये, तरतऱ्हेच्या सॅलड्समध्ये मुक्तहस्ताने ऑलिव्ह ऑइल  वापरले जाते.

रोमन, ग्रीक, ख्रिश्चन, ऑटोमन साम्राज्याचे सुलतान अशा वेगवेगळ्या संस्कृती इथे हजारो वर्षे नांदल्या. या कालावधीत निर्माण झालेली अनेक वास्तूशिल्पे म्हणजे कलेचा   प्राचीन  अनमोल वारसा आजही टर्कीने कसोशीने जपला आहे. कालौघात काही वास्तू भग्न झाल्या तर काही नष्ट झाल्या. तरीही असंख्य उर्वरित वास्तु प्रवाशांना आकर्षित करतात.

इस्तंबूलमधील ‘अया सोफिया म्युझियम’ हे एक चर्च होतं. चौदाशे वर्षांपूर्वी सम्राट जस्टिनियन याने ते बांधलं . एका भव्य घुमटाच्या चारही बाजूंना चार अर्ध घुमट आहेत.  त्या घुमटांना आतील बाजूनी सोनेरी आणि निळसर रंगाच्या लक्षावधी मोझॅक टाइल्स लावल्या आहेत. वास्तूच्या भिंती आणि खांब यांच्यासाठी गुलबट रंगाच्या संगमरवराचा वापर केला आहे. छताला ख्रिश्चन धर्मातील काही प्रसंग, मेरी व तिचा पुत्र अशा भव्य चित्रांची पॅनल्स आहेत. इस्लामच्या आगमनानंतर यातील काही पॅनेल्स प्लास्टर लावून झाकायचा प्रयत्न झाला.घुमटाच्या खालील भिंतींवर कुराणातील काही अरेबिक अक्षर कोरली आहेत. उंच छतापासून  लांब लोखंडी सळ्या लावून त्याला छोटे छोटे दिवे लावले जायचे.   पूर्वी या दिव्यांसाठी ऑलिव्ह ऑइल वापरत असंत. ऑलिव्ह ऑइल ठेवण्याचा एक भला मोठा संगमरवरी कोरीव रांजण तिथे एका बाजूला चौथ्यावर ठेवला आहे. आता हे दिवे इलेक्ट्रिकचे आहेत.घुमटांना आधार देणारे खांब भिंतीत लपविलेले आहेत. त्यामुळे प्रथमदर्शनी आधाराशिवाय असलेले हे भव्य घुमट पाहून आश्चर्य वाटतं.

तिथून जवळच सुलतान अहमद याने सोळाव्या शतकात सहा मिनार असलेली भव्य मशीद उभारली आहे. ती आतून निळ्या इझनिक टाइल्सने सजविली आहे. म्हणून या वास्तूला  ‘ब्लू मॉस्क’ असं नाव पडलं आहे .उंचावरील रंगीबेरंगी काचेच्या खिडक्या, असंख्य हंड्या- झुंबरं, त्यात लांब सळ्यांवरून सोडलेले छोटे छोटे दिवे त्यामुळे सकाळच्या सूर्यप्रकाशात सर्वत्र सोनेरी निळसर प्रकाश पाझरत होता.

मारमारा समुद्रकिनाऱ्यापासून जवळ असलेला ‘टोपकापी पॅलेस’ म्हणजे ऑटोमन साम्राज्याच्या सुलतानांच्या वैभवाची साक्ष  आहे. इसवीसन १४०० ते१८०० ही चारशे वर्षं इथून राज्यकारभार चालला. त्या भव्य महालात वेगवेगळे विभाग आहेत. भल्यामोठ्या स्वयंपाकघरातील महाकाय आकाराची भांडी, चुली, झारे, कालथे, चिनी व जपानी सिरॅमिक्सच्या सुंदर डिझाइन्सच्या लहान मोठ्या डिशेस, नक्षीदार भांडी बघण्यासारखी आहेत. काही विभागात राजेशाही पोशाख, दागिने मांडले होते. तीन मोठे पाचू बसविलेला रत्नजडित टोपकापी खंजीर आणि ८६ कॅरेट वजनाचा सोन्याच्या कोंदणात  बसविलेला  लखलखीत हिरा, रत्नजडित सिंहासन वगैरे पाहून डोळे दिपतात. सुलतानाच्या स्त्री वर्गाचं राहण्याचं ठिकाण म्हणजे ‘हारेम’ राजेशाही आहे. बाहेरच्या एका मनोऱ्यात मंत्रिमंडळाच्या बैठकीची जागा आहे.

बास्पोरसच्या किनाऱ्यावर ‘अल्बामाची’ हा सुलतानांनी बांधलेला युरोपियन धर्तीचा राजवाडा आहे. उंची फर्निचर, गालीचे, सोन्या चांदीने नटविलेले,मीना वर्कने  शोभिवंत केलेले चहाचे सेट्स, डिशेस, वेगवेगळ्या खेळांची साधने सारे चमचमत होते. ‘हारेम’ विभागात माणकांसारखी लाल, बखरा क्रिस्टलची दिव्यांची लाल कमळं, त्याचे लाल लाल लोलक,लाल बुट्टीदार गालीच्यांच्या पार्श्वभूमीवर डोळ्यात भरत होते. फ्रेंच क्रिस्टल ग्लासचे कठडे असलेला, लाल कार्पेटने आच्छादित केलेला रुंद जीना उतरून आम्ही खालच्या भव्य हॉलमध्ये आलो. सगळीकडे सुंदर शिल्पे मांडलेली होती. भिंतीवरील भव्य छायाचित्रे नजर खिळवून ठेवत होती. हॉलमध्ये साडेसातशे दिव्यांचं, चार हजार किलो वजनाचं भव्य झुंबर आहे. हे झुंबर ज्या छताला बसवलं आहे ते छत इटालियन, ग्रीक, फ्रेंच अशा कारागिरांच्या कलाकृतींनी सजलेलं आहे. छत अशा पद्धतीने रंगविलं आहे की ते सरळ, सपाट असे न वाटता, इल्युजन पेंटिंगमुळे घुमटाकार  भासत होतं.

‘हिप्पोड्रोम’ हे रोमन काळामध्ये रथांच्या शर्यतीचं ठिकाण होतं. जवळच इजिप्तहून आणलेला ओबेलिक्स म्हणजे ग्रॅनाईटचा खांब उभा केला आहे. त्यावर इजिप्तशियन चित्रलिपी कोरलेली आहे. त्यापासून थोड्या अंतरावर डेल्फीहून म्हणजे ग्रीसमधून आणलेला सर्पस्तंभ आहे. त्याची सोन्याची  ३ मुंडकी लुटारुंनी फार पूर्वीच पळविली आहेत. जवळच एका जर्मन सम्राटाने सुलतानाला भेट म्हणून दिलेलं कारंजं आहे.

तिथून थोड्या अंतरावर सम्राट जस्टिनियन याने चौदाशे वर्षांपूर्वी बांधलेला टोरेबातान सरा नावाचा जलमहाल आहे. जमिनीखाली असलेला हा जलमहाल अजूनही चांगल्या स्थितीत आहे. ग्रॅनाईटच्या लाद्यांवर जुन्या महालांचे सुस्थितीतील ३५० खांब उभे करून त्यावर गच्चीसारखं बांधकाम केलं आहे. लांबवर असलेल्या डोंगरातील पाणी पाईपने  इथे आणून त्याचा साठा करून ठेवंत असंत. युद्धकाळात या साठ्याचा उपयोग होत असे. या जलमहालाचा एक खांब म्हणजे ‘मेडूसा’ या शापित सौंदर्यवतीचा मुखवटा आहे. मेडूसाचा हा मुखवटा उलटा म्हणजे डोकं खाली टेकलेला असा आहे. तिच्याकडे सरळ, नजरेला नजर देऊन कोणी पाहिलं तर ती व्यक्ती नष्ट होत असे अशी दंतकथा आहे.

इस्तंबूल भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 46 – गीत – लाल किले पर खड़ा तिरंगा…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष पर एक भावप्रवण गीत “लाल किले पर खड़ा तिरंगा….। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 46 – गीत – लाल किले पर खड़ा तिरंगा….🇮🇳

लाल किले पर खड़ा तिरंगा,

बड़े शान से लहराता।

आजादी की गौरव गाथा,

स्वयं देश को बतलाता।

त्याग और बलिदान कहानी ,

जन-जन तक है पहुँचाता।

गांधी जी का सत्याग्रह हो,

चन्द्रशेखर का शंखनाद।

भगत सिंह का फाँसी चढ़ना ,

नेता जी का क्रांतिनाद।

अहिंसावाद क्रांतिवाद का ,

फर्क नहीं कुछ बतलाता ।

सावरकर की अंडमान का ,

चित्र उभरकर छा जाता।

विस्मिल तिलक खुशीराम का ,

पन्ना पुनः पलट जाता ।

सबने मिलकर लड़ी लड़ाई,

गौरव गाथा कह जाता।

कितने वीर सपूतों ने हँस,

फाँसी का फंदा झूला ।

कितनों ने खाईं हैं गोली ,

ना उपकारों को भूला ।

अमर रहे बलिदान सभी का,

इसका मतलब समझाता ।

सबसे ऊपर केसरिया रंग ,

बलिदानी गाथा लिखता।

बीच श्वेत रंग लिए हुए वह,

शांतिवाद जग को कहता।

हरा रंग वह हरितक्राँति को,

पावन सुखद बना जाता ।

कीर्ति चक्र को बीच उकेरा,

प्रगतिवाद का है दर्शन।

उन्नति और विकास दिशा में ,

हित सबका है संवर्धन।

तीन रंग से सजा तिरंगा,

यह संदेश सुना जाता।

अमरित पर्व महोत्सव आया,

घर घर झंडे लहराना ।

सबको आजादी का मतलब ,

प्रेम भाव से समझाना ।

छोड़ सभी सत्ता का लालच,

कर्तव्यों को बतलाता ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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