हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उस करिश्माई दरवेश के… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

(ई-अभिव्यक्ति में श्री हेमन्त तारे जी का स्वागत है। आप भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – उस करिश्माई दरवेश के…।)

✍ उस करिश्माई दरवेश के… ☆ श्री हेमंत तारे  

जिसे चाहा उस फ़न का मैं माहिर बना

जुनूँ था कि,  क़ादिर बनू,  क़ादिर बना

*

चाहिता तो,  मुर्शिद भी बन सकता था 

ग़मज़दा बशर देखे तो मैं काफ़िर बना

*

गाड़ी बंगला कोठी ये, सुकूं के सामां नही

सुकूं उसको मिला, जो कोई तारिक बना

*

उस करिश्माई दरवेश के मैं सदके जाउं

जिस संग को छुआ उसने वो नादिर बना

*

रब की ईबादत का सिला सबको मिला

कोई मुलाजिम बना तो कोई ताजिर बना

*

वाइज़ की सोहबत, सबको कहां हांसिल

मुझ कमज़र्फ को मिली और मैं आरिफ़ बना

*

मुश्किल घडी में सब बचकर निकल गये

‘हेमंत’ वो तेरा दोस्त था जो जाँनिसार बना

(क़ादिर  =  शक्तिमान,   मुर्शिद =  धर्मगुरु, ग़मज़दा बशर  =  दु:खी मनुष्य,  काफ़िर  = नास्तिक, तारिक  =  त्यागी,  संग = पत्थर,  नादिर = अमूल्य, ताजिर = सौदागर,   वाइज़ = धर्मोपदेशक, आरिफ़ = ज्ञाता,  जाँनिसार  = प्राण रक्षक)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆ लघुकथा – संभावना… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “चौथी सीट“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆

✍ लघुकथा – संभावना… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

जब राज बहादुर  बुढापे की ओर बढने लगे तो उनके बेटे ने घर की जिम्मेदारी में हाथ बँटाना शुरू कर दिया। उन्होंने बेटी का विवाह कर दिया तो उसकी ओर से निश्चिंत हो गए। चाहते थे कि हाथ पाँव चलते बेटे का भी विवाह हो,  परंतु बेटा जगदीश यह कह कर टाल देता कि वह अपनी कमाई से संतुष्ट हो जाए और स्वतंत्र रूप से गृहस्थी चलाने योग्य हो जाए तब विवाह की सोचेगा। उसने अपने पिता से कहा कि घर बनाते समय जो कर्ज चुक भी नहीं पाया और बहन के विवाह में कर्ज और चढ गया तो ऐसी हालत में और खर्च बढाना उचित नहीं है। राज बहादुर अंदर ही अंदर यह सुनकर प्रसन्न होते लेकिन बिना दर्शाए कहते, “कहते तो ठीक हो पर सही उम्र में काम होना उचित रहता है। समाज भी देखना पड़ता है।” वे केवल कहने के लिए कहते, पालन करने के लिए नहीं।

ऐसे ही समय ठीक ठाक कट रहा था। बेटी एक बच्चे की माँ बन गई थी। जगदीश का भी विवाह हो गया। काम भी ठीक चल ही रहा था। राज बहादुर कढाई का काम करते थे पर नज़र कमजोर होने की वजह से काम बंद कर दिया था। फिर भी जो काम मिलता कर लिया करते। उनकी आमदनी में घर चल जाता था पर वे कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कर सके जिससे बुढापे में पैंशन मिल सके। न सरकारी नौकरी थी न किसी बड़ी कंपनी की नोकरी, जिससे रिटायर होने पर पैंशन मिलती है।वरिष्ठ नागरिक की उम्र पार करने पर उन्होंने वृद्धावस्था पेंशन के लिए कोशिश की।  केंद्र व राज्य सरकार की पेंशन योजना में पैंशन के लिए आवेदन करने गए तो बताया गया कि केवल निराधार वृद्धों को पैंशन दी जाती है। निराधार का मतलब जिनके बेटा न हो। अगर  बेटा हो भी तो परिवार की आय एक निश्चित रकम से कम होनी चाहिए। उनके बेटे जगदीश की आय आयकर के दायरे में तो नहीं आती परंतु उस सीमा से अधिक थी जिस सीमा तक सरकार की पैंशन मिलती है। राज बहादुर यह तो कह ही नहीं सकते कि उनका बेटा नहीं है। जगदीश एक कंपनी में काम करता था। उसके वेतन से घर चल जाता था। फिर भी कुछ ऐसे काम थे कि उसका वेतन कम पड़ जाता। घर का टैक्स यानी प्रापर्टी टैक्स तीन गुना बढ़ गया था और जगदीश टैक्स जमा नहीं कर पा रहा था। टैक्स जमा न करने के नोटिस आते तो जगदीश अपने पिता तक नहीं पहुंचने देता।

तीन साल का प्रापर्टी टैक्स देना बाकी था, इसका नोटिस देखा तो राज बहादुर सोच में पड़ गए। सोच रहे थे कि जगदीश ने टैक्स जमा क्यों नहीं किया?  जगदीश से पूछने में भी उन्हें संकोच हो रहा था। क्योंकि, जगदीश ने उनसे कभी कुछ छुपाया ही नहीं। वे सोच रहे थे कि जरूर कोई गंभीर बात है।  खाना खाने के बाद सब सोने चले गए पर राज बहादुर को नींद नहीं आ रही। वे वॉशरूम के लिए उठे तो देखा जगदीश के कमरे की लाइट जल रही है। पता नहीं उन्हें कमरे में झाँकने की इच्छा ने मजबूर कर दिया। वे किसी के कमरे में झाँकने को बहुत बुरा मानते थे। परंतु इस बार वे अपने आपको रोक नहीं सके। देखा जगदीश लेपटॉप खोल कर बड़ी गंभीरता से कुछ देख रहा है और कागज पर कुछ नोट करता जा रहा है।  आखिर कमरे में घुसते हुए पूछ बैठे,

 “जगदीश बेटा अभी तक सोए नहीं? क्या काम बहुत ज्यादा है। ” जगदीश चौंक गया। कुर्सी से उठा और सोचा कि पिताजी से छुपना ठीक नहीं तो  बोला, “पापा जॉब ढूंढ़ रहा हूँ। कंपनी में छँटनी हो रही है। एकाध हफ्ते में मेरा नंबर भी आ सकता है।” “छँटनी?” “हाँ पापा छँटनी, तीन साल से यह तलवार लटकी हुई है पर अब सिर पर गिरने ही वाली है। मैंने प्रॉपर्टी टैक्स जमा नहीं किया बल्कि छोटी सी बचत कर रहा था ताकि अचानक ऐसा वक्त आए तो कम से कम रसोई चल सके। नया जॉब मिलने पर टैक्स जमा कर दूंगा। सॉरी पापा!” राज बहादुर सोचते रहे कि दिन पर दिन बढती महँगाई, तीन गुना घर का टैक्स और बेरोज़गारी की लटकती तलवार, जीना कैसे संभव होगा। ऊपर अँधेरे में आसमान की ओर हाथ उठाते हुए बड़बड़ाए “जीने की संभावना मर नहीं सकती।” तभी जगदीश कमरे से बाहर निकल आया और बोला, “पापा मुझे नया जॉब मिल जाएगा। कल इंटरव्यू है।”  राज बहादुर के चेहरे पर कैसे भाव आए, उन्हें जगदीश नहीं देख सका।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 58 – बंधन से आजाद… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन से आजाद ।)

☆ लघुकथा # 58 – बंधन से आजाद  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

 

क्या बात है दादाजी मम्मी पापा घूमने जाते हैं और हमें छोड़ जाते हैं? हम सब साथ जाते तो कितना मजा आता।

कोई बात नहीं बेटा रिंकू हम दोनों घर में खूब मजे करेंगे और कल मैं तुम्हें सुबह पार्क भी ले जाऊंगा। चलो तुम्हें क्या खाना है मैं वही बनाता हूं। वह लोग तो बाहर खाने में पता नहीं क्या कचरा सड़ा गला कितने दिनों का बासी खाएँगे। मैं तुम्हें ताजा फ्रेश  खिलाता हूं। आलू और मटर की सब्जी बढ़िया रोटी में तुमको रोल करके देता हूं। तुम्हारी दादी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थी। मैं उन्हें देखते-देखते ही सीख गया। आज काम आ रहा है।

दादाजी, मैं भी जब बड़ा हो जाऊंगा तो उन्हें लेकर कहीं नहीं जाऊंगा हम और आप चलेंगे?

ठीक है  अच्छे से पढ़ाई कर लो रिंकू।

तभी अचानक बहू बेटे आ जाते हैं और बहू रिंकू की बात सुन लेती है। बाबूजी आप छोटे से बच्चे के कान में हमारे खिलाफ क्या-क्या भरते रहते हैं? कल हम इसे हॉस्टल भेज देंगे आपकी संगत में यह बिगड़ जाएगा।

हां बात तो सही है तुम्हारी। रेनू जब मैं छोटा था तो बाबूजी मुझे यही बात कहते रहते थे। हां किशोर मैं तुम्हें यही बात तो कहता रहता था लेकिन तुमने मेरी बात सुनी कहा विदेश पढ़ने के लिए भेजा था अपने लिए कुछ ना रखते हुए तुम्हें पढ़ाया लिखाया। और मुझे क्या पता था कि तुम मेरा ही जीवन नर्क बनाओगे। नहीं तो तुम कभी रेनू से शादी करते?

मैं इतना ख्याल रखती हूं बाबूजी आपका। तब भी आप मेरे लिए ऐसे ही सोचते हैं अब तो लग रहा है कि आपको वृद्ध आश्रम के रास्ते दिखाने पड़ेंगे।

मैं जानता था कि एक दिन ऐसा आएगा। पंडित जी के आश्रम में अभी जा रहा हूं। यह तो मैं पोते के मोह में यहां पर था। रिंकू में जा रहा हूं पास में आश्रम और मंदिर है तुम बेटा आते रहना। मुझे तुम पर गर्व है तुम मेरी तरह बनना। अपने माता-पिता की तरह नहीं। आज तुम्हारा धन्यवाद अदा करता हूं कि तुम लोगों ने मुझे इस बंधन से आजाद कर दिया। मैं थोड़ा लोभी हो गया था।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 259 ☆ कृष्णार्पण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 259 ?

☆ कृष्णार्पण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

गॅसवरचं दूध ऊतू जाणं

तसं नित्याचंच

आणि बोलणं खाणं अटळ!

कानकोंडं होणं, अपराधी वाटणं,

चुटपूट लागणं, हे ही वर्षानुवर्षे!

दूध ऊतू गेलं की वाईट वाटतं ते

साय वाया गेल्याचं,

अंशानं लोणीतुपाचंही नुकसान!

अनेकदा ठरवूनही,

नाही थांबवता आलं ऊतू जाणं!

फायद्याची गणितंही

 नाहीच साधता आली!

आजी म्हणाली होती एकदा,

“आवडत नसलं तरी ,

 कपभर दूध घेत जा रोज, कॅल्शियम असतं त्यात!”

अंगी लागण्यापेक्षा ऊतूजाणंच

अंगवळणी पडत गेलं!

नवरा म्हणतो कुत्सितपणे,

“आमच्या घरी रोजच रथसप्तमी”

स्वतःच्या वेंधळेपणाचं समर्थन न करता ,

मी ही गॅसवर दूध ठेवून,

उचलते फोन, घुटमळते टीव्ही समोर, डोकावते वर्तमानपत्रात…..

गॅसवरच्या दूधासारखंच

मनाचंही ऊतूजाणं !

मनाला शिस्त लावण्याऐवजी,

कृष्णार्पण म्हणून टाकावं,

सा-याच ऊतू जाण्याला!

हेच तेवढं हाती उरलंय ……

ऊतू जाणं अटळ झालंय!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 89 – आज, जीवन मिला दुबारा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आज, जीवन मिला दुबारा है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 89 – आज, जीवन मिला दुबारा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

साथ जबसे मिला तुम्हारा है 

नाम, शोहरत पे अब हमारा है

*

जन्मतिथि याद थी नहीं अपनी 

आज, जीवन मिला दुबारा है

*

नाम, सबकी जुबान पर केवल 

हर तरफ, आपका-हमारा है

*

आज महफिल में मुझको लोगों ने 

आपके नाम से पुकारा है

*

तेरे सजदे में सारा आलम है 

कितना रंगीन ये नजारा है

*

तेरे बिन, किस तरह अकेले में 

वक्त हमने कठिन गुजारा है

*

तेरे बिन, एक पल रहूँ जिन्दा 

ऐसा जीना, नहीं गवारा है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 331 ☆ कविता – “महानता मां की…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 331 ☆

?  कविता – महानता मां की…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

महिमा मंडन कर खूब

बनाकर महान

मां को

मां से छीन लिया गया है

उसका स्व

मां के त्याग में

महिला का खुद का व्यक्तित्व

कुछ इस तरह खो जाता है

कि खुद उसे

ढूंढे नहीं मिलता

जब बड़े हो जाते हैं बच्चे

मां खो देती हैं

अपनी नृत्य कला

अपना गायन

अपनी चित्रकारी

अपनी मौलिक अभिव्यक्ति,

बच्चे की मुस्कान में

मां को पुकारकर

मां

उसका “मी”

उसका स्वत्त्व

रसोई में

उड़ा दिया जाता है

एक्जास्ट से

गंध और धुंए में ।

 

बड़े होकर बच्चे हो जाते हैं

फुर्र

उनके घोंसलों में

मां के लिए

नहीं होती

इतनी जगह कि

मां उसकी महानता के साथ समा सके ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 43 – लघुकथा – अनुभवी काल का अंत ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – अनुभवी काल का अंत)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 43 – लघुकथा – अनुभवी काल का अंत ?

घटना तब की है जब पिथौरागढ़ एक छोटी – सी जगह थी। कुमाऊँ- गढ़वाल इलाके का एक साधारण गाँव। यह गाँव पहाड़ों के ऊपरी इलाके में स्थित था। अल्पसंख्यक जनसंख्या थी।

रतनामाई छोटी – सी उम्र में ब्याह कर यहीं आई थी। फिर यही गाँव और अपना छोटा – सा घर उसकी दुनिया बन गई थी। वह निरक्षर थी पर अपने सिद्धांतों की बहुत पक्की थी। आत्मनिर्भरता का गुण उसमें कूट-कूटकर भरा था।

प्रातः उठना घर की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाना और फिर पास के मैदानों से लकड़ियाँ तोड़कर लाना, उन्हें घर के पास पत्थरों से बने एक कमरे में जमा करना उसकी आदत थी। बूढ़ी हो गई थी पर यह आदत न छुटी।

पति के गुज़रने के बाद उसने अपने घर के बाहरी आँगन में पत्थरों को मिट्टी से लीपकर टेबल जैसा बना लिया था और छोटी – सी आँगड़ी पर चाय बनाकर बेचा करती थी। घर की छोटी-मोटी ज़रूरतें उससे पूरी हो जाती थीं। दोनों बेटिओं ने भी अपनी माँ का साथ दिया तो कभी पकोड़े तो कभी मैगी भी अब दुकान में बिकने लगीं थीं।

अब तो माई की उम्र सत्तर के करीब थी। दोनों बेटियाँ ब्याही गई थीं, दो बेटे जवान हो चुके थे, बहुएँ और पोते – पोतियाँ थीं पर अभी भी प्रातः उठकर चूल्हा जलाना, गरम पानी रखना, चाय बनाना, आटा गूँदना और फिर थोड़ी धूप निकलते ही लकड़ियाँ चुनने खुले मैदान की ओर निकल जाना उनकी दिनचर्या में शामिल था।

बेटों ने कई बार अपनी माँ से कहा कि अब तो सरकार ने गैस सिलिंडर भी दे रखे हैं क्या ज़रूरत है लकड़ियाँ एकत्रित करने की भला ? उत्तर में रतनामाई कहतीं -कल किसने देखा बेटा, क्या पता कब ये लकड़ियाँ काम आ जाएँ!

उसकी बात सच निकली। मानो उसे दूरदृष्टि थी। एक साल इतनी अधिक बर्फ पड़ी कि पंद्रह दिनों के लिए रास्ते बंद पड़ गए और गैस सिलिंडर दूर -दराज़ गाँवों तक समय पर न पहुँचाए गए। ऐसे समय माई की जमा की गई लकड़ियाँ ही ईंधन के काम आईं, बल्कि पड़ोसियों को भी माई की इस मेहनत का प्रसाद मिला।

अनुभवी और दूरदृष्टि रखनेवाली माँ से अब उनके बेटे विवाद न करते। समय बीतता रहा।

कुछ समय पहले इतनी भारी बर्फ पड़ी कि सारी भूमि श्वेतिमा से भर उठी। दूर – दूर तक बर्फ़ ही बर्फ़ दिखाई देती। जनवरी का महीना था अभी ही तो सबने नए साल का जश्न मनाया था पर उस दिन सुबह रतनामाई नींद से न जागी। रात के किसी समय नींद में ही वह परलोक सिधर गई।

बाहर बर्फ की मोटी परतें चढ़ी थीं, सूर्यदेव भी छुट्टी पर थे। मोहल्लेवालों ने आपस में तय किया कि इतनी भारी बर्फ में माई को श्मशान तक ले जाना कठिन होगा। इसलिए पास के खुले मैदान पर जहाँ बर्फ तो थी पर घर के पास की ही समतल भूमि पर चिता सजाई गई। माई के अंतिम संस्कार में माई द्वारा संचित लकड़ियाँ उस दिन काम आईं।

चिता जल उठी, माई का स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता और दूरदृष्टि धू- धूकर जलती हुई लपटों में लिपट कर आकाश की ओर मानो प्रभु से मिलने को निकल पड़ी। एक अनुभवी काल का अंत हुआ।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 161 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 161 – मनोज के दोहे ☆

मौसम कहता है सदा, चलो हमारे साथ।

कष्ट कभी आते नहीं, खूब करो परमार्थ।।

 *

जीवन में बदलाव के, मिलते अवसर नेक।

अकर्मण्य मानव सदा, अवसर देता फेक।।

 *

कुनकुन पानी हो तभी, तब होंगे इसनान।

कृष्ण कन्हैया कह रहे, न कर, माँ परेशान।।

 *

सूरज कहता चाँद से, मैं करता विश्राम।

मानव को लोरी सुना, कर तू अब यह काम।।

कर्मठ मानव ही सदा, पथ पर चला अनूप।

थका नहीं वह मार्ग से, हरा सकी कब धूप ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 117 – देश-परदेश – करे कोई भरे कोई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 117 ☆ देश-परदेश – करे कोई भरे कोई ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जुड़वां भाइयों में जब शक्ल मिलती है, तो ये अक्सर सुनने में आता है, कि शैतानी एक भाई करता है, और दंड दूसरे भाई को मिलता है। हमारी फिल्मों में भी ऐसा ही कुछ दिखाया जाता है, लड़की प्रेम एक भाई से करती है, और घूमने दूसरे भाई के साथ निकल जाती है। सीता और गीता नाम से भी एक ऐसी ही फिल्म आई थी। कुंभ में जुड़वा भाई गुम जाते है, एक ईमानदार तो दूसरा बेईमान बन जाता है। ये सब हमारे बॉलीवुड में ही होता है।

अब जब बात फिल्मों की हो रही है, तो मुम्बई का जिक्र ना हो, ये कैसे हो सकता हैं। मुम्बई और फिल्म जगत एक दूसरे के पूरक हैं। कुछ दिन पूर्व ही नवाब ऑफ पटौदी पर  हुए हमले के सिलसिले में छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर में एक संदिग्ध व्यक्ति को पकड़ा गया, क्योंकि उसकी शक्ल सी सी टीवी कैमरे की तस्वीर से जो मिलती थी।

कुछ समय बाद उस संदिग्ध व्यक्ति को छोड़ दिया गया था। मीडिया ने उसको सभी चैनल पर दिखवाकर उसका खूब प्रचार प्रसार कर डाला था। मीडिया ट्रायल में उसको दोषी भी मान लिया था।

जब पुलिस ने उसको बरी किया तब तक उस व्यक्ति की मुम्बई की नौकरी चली गई है। नियोक्ता ने ये विचार किया होगा, पुलिस उससे आगे भी जिरह कर सकती है, इत्यादि। इन सबसे अच्छा है, उसको नौकरी से ही निकाल दो।

मामला इतना सीधा नहीं है, उस व्यक्ति का विवाह भी तय हो चुका था। अब उसकी सगाई भी टूट गई है। जीवन भर का दाग लग गया है। आने वाले समय में उसकी पहचान के साथ “सैफ का नकली कातिल” जैसे जुमले जुड़ जाएंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 215 – हर पल हो आराधना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अप्रतिम गीत हर पल हो आराधना”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 215 ☆

🌻 गीत 🌻 🌧️ हर पल हो आराधना 🌧️

हर पल हो आराधना, इस जीवन का सार।

सच्चाई की राह में, प्रभु संभाले भार।।

 *

कुछ करनी कुछ करम गति, कुछ पूर्वज के भाग।

रहिमन धागा प्रेम का, मन में श्रद्धा जाग।।

गागर में सागर भरे, पनघट बैठी नार।

हरपल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

बूँद – बूँद से भरे घड़ा, बोले मीठे बोल।

मोती की माला बने, काँच बिका बिन मोल।।

सत्य सनातन धर्म का, राम नाम शुभ द्वार।

हर पर हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

परहित सेवा धर्म का, सदा लगाना टेर।।

अंधे का बन आसरा, करना तुम उपकार।

हर पल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

चार दिनों की चाँदनी, माटी का तन ठाट।

काँधे लेकर चल दिये, लकड़ी का है खाट।।

घड़ी बसेरा साधु का, थोथा सब संसार।

हरपल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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