हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 136 ☆ बस थोड़ी देर में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बस थोड़ी देर में…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 136 ☆

बस थोड़ी देर में… 

हर कार्य को टालते जाना, अंतिम समय में तेजी से करते हुए झंझट निपटाने की आदत आपको लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही तोड़ कर रख देती है। जब अनुशासन और समय प्रबंधन का अभाव हो तो ऐसा होना तय समझिए। इसका एक और कारण समझ में आता है कि मानव का मूल स्वभाव नवीनता की खोज है। जब तक उसे कुछ नया सीखने नहीं मिलेगा वो ऐसे ही व्यवहार करेगा। आजकल तो गूगल में नवीन विचारों की भरमार है। बस प्रश्न पूछिए उत्तर हाजिर है। दिनभर व्यतीत करने के बाद जब डायरी में दिनचर्या का लेखा- जोखा लिखो तो समझ में आता है कि सार्थक कोई कार्य तो हुआ नहीं। बस यही क्रम वर्षों से चला आ रहा है, इसी अपराध बोध के साथ अगले दिन कुछ करेंगे यह सोचकर व्यक्ति चैन की नींद सो जाता है। यही किस्सा रोज एक नए बहाने के साथ चलता रहता है।

आजकल एक शब्द बहुत प्रचलित है, जिसे माइंड सेट कहा जाता है। मन से मनुष्य कहाँ से कहाँ चला जाता है, ये वो स्वयं भी नहीं जान पाता। जो चाहोगे वो मिलेगा ये केवल यू ट्यूब के थम्बनेल में नहीं लिखा होता है, ये तो से सदियों पहले लिखा जा चुका है –

जो इच्छा करिहों मन माहीं, राम कृपा ते दुर्लभ नहीं।

कोई इसे यूनिवर्स की शक्ति से जोड़ता है तो कोई माइंड पावर से। ॐ मंत्र में ब्रह्मांड को देखते ध्यान करने से सब कैसे मिलता है, ये भी विज्ञान की कसौटी पर परखा जा रहा है। मन दिन भर इसी उथल- पुथल भरे विचारों से ग्रसित होकर सोने जैसे समय को अनजाने ही व्यर्थ करता जा रहा है।

ज्यादा चिंतनशील लोग अपने कर्मों का स्वतः मूल्यांकन करते हुए अपनी गलतियाँ  ढूंढ़ते हैं फिर उदास होकर डिप्रेशन में जाने की तैयारी करते हैं, जो कर्म करेगा उससे ही गलतियाँ होगीं, कुछ जानी कुछ अनजानी। गलती करना  उतना गलत नहीं  जितना जान कर अनजान बनना और अपनी भूल को स्वीकार न करना होता है।  भूल को  सहजता से स्वीकार कर लेना, व भविष्य में इसका दुहराव न हो इस बात का ध्यान रखना है।

अक्सर देखने में आता है कि आदर्शवादी लोग जल्दी ही इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं वे छोटी से छोटी बातों के लिए खुद को जिम्मेदार मानकर अपना साहस खो भावनाओं में बहकर अपराधबोध का शिकार   हो जाते हैं।  यदि  उनके आस- पास का वातावरण सकारात्मक नहीं हुआ तो वे आसानी से टूटने लगते हैं।

अपने अपराध को स्वीकार करना  कोई सहज नहीं होता है पर  इतना  भी  मनोबल का टूटना उचित नहीं कि आप नव जीवन को स्वीकार ही न कर पाएँ।

जीवन में आप अकेले नहीं जिससे गलतियाँ हुई हैं या हो रही हैं या हो सकती हैं। ऐसी  परिस्थितियों में दृढ़ता पूर्वक अपने विचारों में  अड़िग  रहते हुए  ग़लती स्वीकार कर सहज हो जाइए जैसे कुछ हुआ ही नहीं। पुरानी यादों और बातों को छोड़ नये कार्यों में अपना शत- प्रतिशत   समर्पण दें और फिर कोई गलती हो तो सहजता से स्वीकार कर आगे बढ़े। मजे की बात कहीं हम गलती न कर दें इसलिए कोई कार्य करते ही नहीं और अनजाने में जीवन के मूल्यवान अवसरों को खो देते हैं।

इस संबंध में हमें प्रकृति से बहुत  कुछ सीखना  चाहिए जैसे-   पतझड़ की ऋतु के बाद वृक्ष उदास नहीं होता बल्कि नयी कोपलें पुनः प्रस्फुटित होने लगती हैं। परिस्थितियों पर काबू पाना ही बुद्धिमत्ता है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि आस्तिक विचार धारा, अहंकार का त्याग, सत साहित्य, सत्संगति,सात्विक भोजन, गुरुजनों का आशीर्वाद,  सत्कर्म, नेक राह व माता- पिता की सेवा सकारात्मक  वातावरण निर्मित करते हैं। अच्छा लिखें अच्छा पढ़ें, परिणाम आशानुरूप होंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 197 ☆ व्यंग्य – बजट तो बजट ही है, पिछले साल का है तो क्या हुआ ? — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य  – बजट तो बजट ही है पिछले साल का है तो क्या हुआ ?–) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 197 ☆  

? व्यंग्य  – बजट तो बजट ही है, पिछले साल का है तो क्या हुआ ? —?

बजट तो बजट ही है पिछले साल का हुआ तो क्या फर्क पड़ता है ?  न तो टैक्स पेयर आम जनता, न ही विपक्ष पर और न ही पत्रकार,  किसी को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री विधान सभा में आठ मिनट तक पिछले साल का बजट ही पढ़ते रहे. उन्हें अपनी गलती का स्वयं आभास तक नहीं हुआ. एक दूसरे मंत्री  जो बजट भाषण मिला रहे थे उन्होंने मुख्यमंत्री जी को उनकी गलती का ध्यान दिलाया, तब कहीं पिछले बरस के बजट भाषण का पन्ना बदला गया. इस तरह प्रमाणित हुआ कि प्राम्पटर बड़ा जरूरी होता है फिर वह स्टेज पर नाटक हो या विधानसभा. यूं विधान सभायें भी नाटक के स्टेज ही तो हैं जहां कलफ किये श्वेत कुर्ते पायजामों जैकेट में माननीय या प्योर सिल्क की हथकरघा पर बनी साड़ियां पहने महिला विधायक आम जनता का भला करने का अभिनय हैं.  दरअसल मुख्यमंत्री जी की इस गलती को बिलकुल तवज्जो नहीं दी जानी चाहिये उनको विपक्ष ही नहीं अपनी ही पार्टी के भितरघात से भी सरकार बचाने जैसे और भी ढ़ेर से काम होते हैं. वे केवल वित्त मंत्री थोड़े हैं जो बस बजट पर ध्यान देते.   वे पेड़ के पके आम की तरह परिपक्व नेता हैं उन्होने कई वित्त वर्ष देखते हुये अपने बाल सफेद किये हैं, उनके चेहरे की झुर्रियां उनकी परिपक्वता का बखान करती  हैं. वे कोई नये नवेले मंत्री थोड़े ही हैं जो शीशे के सामने खड़े होकर अकेले में बजट भाषण का रिहर्सल कर विधान सभा आते. उन्हें अच्छी तरह समझ है कि बजट पिछले साल का हो या नये साल का, अच्छा हो या बुरा, फर्क नहीं पड़ता.

नया बजट पढ़ो या पुराना विपक्ष की प्रतिक्रिया नयी  कहां आती है ? नेता प्रतिपक्ष को तो यही कहना है कि बजट जन विरोधी है. पत्रकारों को हेड लाईन के लिये कोई बढ़िया सा शेर सुना दिया जाये तो उन्हें मसाला मिल ही  जाता है, तो वह तो हर बजट भाषण में होता ही है. रही बात जनता की तो उसे तो हर बजट में खरबूजे की तरह कटना ही है, चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर यह ज्यादा मायने नहीं रखता. बजट किसी साल का हो, नया हो, पुराना हो उसका कंटेंट स्वास्थ्य या महिला पत्रिकाओ जैसा ही होता है जो हमेशा प्रासंगिक बना रहता है. कभी शराब पर टैक्स बढ़ा दिया जाता है, कभी सिगरेट पर. कभी लिपस्टिक सस्ती हो जाती है कभी सिंदूर. गैस सिलेंडर, बिजली, डायरेक्ट टैक्स, इनडायरेक्ट टैक्स में अर्थशास्त्रियों को उलझा दिया जाता है, शाम को टी वी पर बहस करने के मुद्दे बन जाते हैं. जमीन पर ज्यादा कुछ बदलता नहीं.

कर्मचारियों से वादे करना होता है, बेरोजगारों को सपने दिखाने होते हैं. योजनायें जनहितैषी दिखनी चाहिये बस, होता तो वही है जो होना होता है. फिर एक अच्छे बजट में बंगलों पर होने वाले वास्तविक खर्चों का जिक्र थोड़े ही किया जाता है, वे सब तो अनुपूरक मांगों में बिना बहस मेजें ठोंककर स्वीकृत करवा लेना कुशल राजनीतिज्ञ को आना चाहिये.

मेरा मानना तो यह है कि बेकार ही हर सरकार अपना बजट खुद बनाकर समय व्यर्थ करती है. मेरा सुझाव है कि अब जमाना कम्प्यूटर का है, सरकारों को मुझ जैसे पेशेवर लेखको से स्टैंडर्ड बजट फार्मेट तैयार करवा लेना चाहिये. हम मौजू शेरो शायरी से लबरेज आकर्षक बजट भाषण तैयार कर देंगे, मंत्री जी को महज अपने राज्य का नाम बदलना होगा, वर्ष बदलना होगा फटाफट लाल लैपटाप में बोल्ड लैटर्स में बजट तैयार मिलेगा.  विपक्ष के लिये भी बजट पर प्रतिक्रियाओ के आप्शन्स लेखक रेडी कर देंगे, इस सब से माननीय जन प्रतिनिधियों का कीमती समय बचेगा और वे आम जनता के हित चिंतन में निरत, बजट के उनके हिस्से में आये रुपयों से  बेहतर मजे कर सकेंगे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 147 ☆ बाल गीत – भारत के सपूत नेताजी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 147 ☆

☆ बाल गीत – भारत के सपूत नेताजी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

भारत के सपूत नेताजी

मिलकर हम गुणगान करें।

देश की खातिर अमर हो गए

आओ सभी प्रणाम करें।।

 

कतरा – कतरा लहू तुम्हारा

काम देश के आया था।

इसीलिए तो आजादी का

झंडा भी फहराया था।

 

वतन कर रहा याद आपको

हम शुभ – शुभ सारे काम करें।

देश की खातिर अमर हो गए

आओ सभी प्रणाम करें।।

 

गोरों को भी खूब छकाया

जोश नया दिलवाया था।

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान – मान करवाया था।

 

कुर्बानी को याद रखें हम

राष्ट्र की ऊँची शान करें।

देश की खातिर अमर हो गए

आओ सभी प्रणाम करें।।

 

नेताजी उपनाम आपका

सब श्रद्धा से हैं लेते।

नेता आज नई पीढ़ी के

बीज घृणा के हैं देते।

 

भेदभाव का जहर मिटाएँ

सदा ऐक्य का मान करें।।

देश की खातिर अमर हो गए

आओ सभी प्रणाम करें।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #148 ☆ बाप…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 148 ☆ बाप…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

बाप देवळातला देव पुजा त्याचीही करावी

आई समान काळजात मुर्ती त्याचीही असावी..

 

बापाच्याही काळजाला असे मायेची किनार

त्याच्या शिवीतही असे ऊब ओवीची अपार..

 

पोरांसाठी सारे घाव बाप हसत झेलतो

स्वतः राहून उपाशी घास लेकराला देतो..

 

बापाच्या कष्टाला नाही सोन्या चांदीचे ही मोल

त्याच्या राकट हातात आहे भविष्याची ओल..

 

लेकराला बाप जेव्हा त्याच्या कुशीमध्ये घेतो

सुख आभाळा एवढे एका क्षणांमध्ये देतो..

 

बापाला ही कधी कधी त्याचा बाप आठवतो

नकळत डोळ्यांमध्ये त्यांच्या पाऊस दाटतो..

 

कधी रागाने बोलतो कधी दुरून पाहतो

एकांताच्या वादळात बाप घर सावरतो..!

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ माय…. श्री सोमनाथ चौधरी  ☆ प्रस्तुती –  श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई  ☆

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– माय…. श्री सोमनाथ चौधरी  ? ☆ प्रस्तुती –  श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆

पोट तुझं भरलं असेल तर,

देवा माझ्यासाठी घेऊ का,

तुझं राहिलेलं उष्ट,

माझ्या घरी मी नेऊ का.?

देवा इथे मात्र तुमची,

मस्त अंगत पंगत रंगलीय,

घरात पीठ नाही म्हणून,

सकाळीच आई बाबासोबत भांडलीय.

आटवा भर पिठासाठी,

आई सगळ्या गल्लीत हिंडली,

सगळ्या शेजारच्यांनी,

तुझ्या निवदाची सबब सांगितली.

देवा आज सकाळी मला,

सडकून भूक लागली,

अचानक तुला आठवून,

तुझ्या मंदिराकडे धूम ठोकली.

देवा मला तुझा ,

कधी कधी हेवा वाटतो,

एका जाग्यावर बसून,

मस्त निवदाचा मलिदा लाटतो.

दर्शनासाठी आलेल्या लोकांनी,

नारळाचा तुकडा हातावर ठेवला,

तुला मात्र देवा त्यांनी,

अर्धा नारळचं वाहिला.

माफ कर देवा मला,

तुझा घास हिसकावतोय,

अर्ध्या कोर तुकड्यासाठी,

भाऊ माझा घरात रडतोय.

देवा मी आता ठरवलंय,

तुझ्यासोबत बंड करायचं,

माझ्या भाकरीच्या प्रश्नासाठी,

स्वतःच पेटून उठायचं!”

❤️

कवी – श्री सोमनाथ चौधरी 

प्रस्तुति – श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

सांगली

मो. – 8806955070

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #169 – तन्मय के दोहे – धूप छाँव टिकती कहाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं तन्मय के दोहे – “धूप छाँव टिकती कहाँ…”)

☆  तन्मय साहित्य  #169 ☆

☆ तन्मय के दोहे – धूप छाँव टिकती कहाँ 

बदतमीज  मौसम  हुआ,  हवा हुई है आग।

बीज  विषैले हो गए, फसलों  में  है  दाग।।

धूप  कभी  अच्छी  लगे, कभी लगे संताप।

मन के जो अनुरूप हो, वैसे भरे अलाप।।

धूप छाँव टिकती कहाँ, एक ठिकाने ठौर।

जैसे  टिके न पेट में,  मुँह से खाया  कौर।।

वे  पढ़ पाते  हैं   कहाँ, जो  लिखते  हैं  आप।

सुबह-शाम मन में चले, बस रोटी का जाप।।

सीधे-सादे  श्रमजीवी,  रहते आधे  पेट।

हरदम होती ही रहे, पीठ पेट की भेंट।।

रोज   रोपते  रोटियाँ, रोज  काटते  खेत।

इनको एक समान है, सावन भादौ चैत।।

भादौ में छप्पर चुए, जेठ  सताये घाम।

ठंडी में ठिठुरे यहाँ, कष्ट चले अविराम।।

थाली नित  खाली रहे, पेट  रहे  बीमार।

आँख दिखाए सेठ जी, सिर पर ठेकेदार।।

पेट पीठ में  मित्रता, रोटी  के  मन  बैर।

रोज रात सँग भूख के, करें स्वप्न में सैर।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 55 ☆ कविता – बेचारी… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “बेचारी…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 55 ✒️

?  कविता – बेचारी…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

यौवनावस्था  में  पुरुष, कमाने को लेकर रौब जमाते हैं ।

कर्तव्य परायणता को नकार कर, भगवान बन जाते हैं ।।

माता पिता  हृदय  थामकर, आश्चर्य  से  देखते  रह जाते हैं ।

बच्चे चिड़िया के बच्चों की तरह, पंख आने पर उड़ जाते हैं ।।

बहू को बेटी बनाने की होड़ में सदा, ससुर प्रथम आते हैं ।

बेटे बहू की आड़ लेकर संगिनी का, अनादर करवाते हैं ।।

वृद्धावस्था में आकर शरीर मन विचारों से, शिथिल हो जाते हैं ।

पति के सानिध्य को तरसती पत्नी के, सारे सपने खो जाते हैं ।।

क्या  समर्पित  त्यागमयी  नारी  के, जीवन  की  यही  थाती  है ।

फिर क्यों कहते हैं लोग कि, पति और पत्नी दीया और बाती हैं ।।

फंड – पेंशन के कारण बच्चे, पिता के आसपास मंडराते हैं ।

मां को नकारते हुए अनजाने में ही, पिता  के  गुण  गाते हैं ।।

भीगे तरल  नेत्र  बच्चों  के  चेहरों को, निहारते रह जाते हैं ।

तब ममता की मारी मां को, बचपन के दिन याद आते हैं ।।

जीवन की सांझ में विचारी पत्नी, पति के साथ को तरसती है ।

एकाकी  जीवन  में  चारों  ओर  घोर  निराशा ही बरसती है ।।

बीमार पत्नी को अकेला छोड़ पति, अलग कमरे में सो जाता है ।

पति  के  होते  हुए  पत्नी  का हाल विधवा नारी सा हो जाता है ।।

तब उसे मंदा, नंदा,गीता, इंद्रा विधवा सखियां, याद आती हैं ।

ह्रदय  वेदना  से  फटने  लगता  है  और  आंखें  भीग जाती हैं ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ उसनी गाणी… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ उसनी गाणी… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆ 

डोळ्यात वाचली मी               

             होती तुझ्या कहाणी

तेथे समर्पणाची

            मज भेटली निशाणी

 

निरखून डोह गहीरा

                अंदाज घेतला मी

मग खोल खोल पाणी

                 पोहून पाहिले मी

 

त्या काळजात दडले

               ते स्वप्न जाणले मी

स्वप्नात आशयाचे

              घर छान बांधले मी

 

तू शब्द दिलेला तेव्हा

              झेलून घेतला हाती

मजबूत कराया धजलो

           मी दोघा मधली नाती

 

शेवटच्या थांब्या साठी

           भरधाव धावणे नडले

घसरून तोल जाताना

           विपरीतच सारे घडले

 

आताही रोज फुला़ंचा

       मज काच जाचतो भारी

पण रोज तुझ्या स्मरणाची

          मन मारून घडते वारी

 

वठलेल्या झाडाला ही

        मी बसतो घालत पाणी

हट्टाने म्हणतो सारी

       दुस-यांची उसणी गाणी

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 39 – भाग-1 – साद उत्तराखंडाची ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 39 – भाग-1 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ साद उत्तराखंडाची  ✈️

शाळेत असताना हिंदीच्या पाठ्यपुस्तकात ‘चांदणी’ नावाची एक गोष्ट होती. अलमोडा पहाडात राहणाऱ्या अबूमियांची चांदणी नावाची एक खूप लाडकी बकरी होती. कापसासारख्या शुभ्र, गुबगुबीत चांदणी बकरीच्या कपाळावर एकच काळा ठिपका होता. एकदा चरण्याच्या नादात चांदणी एकटीच पहाडात दूर दूर जाते. चुकलेल्या चांदणीला अबूमिया हाकारत राहतात आणि शेवटी नाइलाजाने इतर बकऱ्यांना घेऊन उदास मनाने घरी परततात. पहाडात सैरभैर फिरणाऱ्या चांदणीची गाठ एका कोल्ह्याशी पडते. चांदणी प्राणपणाने कोल्ह्याशी झुंज देते. पण…….! चांदण्याने निथळलेला गुढरम्य अलमोडा पहाड, तिथली घनदाट वृक्षराजी, चांदणीची आर्त साद आणि एकाकी झुंज दीर्घकाळ स्मरणात राहिली. त्यानंतर खूप वर्षांनी हिमालयातील अलमोडा पर्वतराजी पाहण्याचा योग आला तेव्हा चांदणीची आठवण झाली.

पूर्वीच्या उत्तर प्रदेशचे २००० साली विभाजन करून उत्तराखंड राज्याची निर्मिती झाली. डेहराडून ही या राज्याची राजधानी. गढवाल आणि कुमाऊँ असे उत्तराखंडचे दोन भाग पडतात. गढवालचे टेहरी गढवाल आणि पौरी गढवाल असे दोन मोठे विभाग आहेत, तर कुमाऊँ टेकड्यांमध्ये नैनीताल, अलमोडा हा पूर्वेकडचा भाग येतो. उत्तराखंडाच्या उत्तरेकडे तिबेट, पूर्वेकडे नेपाळ आणि पश्चिम व दक्षिणेकडे उत्तर प्रदेश राज्य आहे.

आम्ही लखनौहून रात्रीच्या ट्रेनने काठगोदाम इथे सकाळी पोहोचलो. काठगोदामहून नैनीताल हा साधारण दोन तासांचा रस्ता अतिशय सुंदर आहे पण आमची बस अर्ध्यावाटेमध्ये बिघडल्याने मेकॅनिकची वाट पाहण्यात बराच वेळ गेला. शेवटी तिथेच उतरून पहाडाच्या माथ्यावरच बरोबर आणलेलं जेवण घेतलं. एका बाजूला खोल दरी होती. लांबवर कुमाऊँ पहाडांची रांग दिसत होती. सगळ्या दऱ्या डोंगरांवर साल, देवदार आणि पाईन वृक्ष ताठ मानेने उंच उभे होते. गाडी दुरुस्त होऊन थोडा प्रवास झाल्यावर डोंगर आडोशाच्या एका छोट्या टपरीत चहासाठी थांबलो. पण कसले काय? भन्नाट वाऱ्याने तिथे थोडा वेळसुद्धा थांबू दिले नाही. टपरीवाल्याचे टेबलांवरचे, छपरावरचे प्लास्टिक उडून गेले. टेबल- खुर्च्या थरथरायला लागल्या. पाऊसही सुरू झाला. धावत पळत कसेबसे गाडीत येऊन बसलो. नैनितालला पोहोचायला रात्र झाली.

आमचं हॉटेल नैनी लेकच्या समोरच होतं. लंबगोल प्रचंड मोठ्या नैनीतालच्या भोवती रमत- गमत एक फेरी मारली. तलावात बोटिंगची सोयही आहे. वातावरणात थंडी होती आणि डोक्यावर ऊन होते. मॉल रोडवर प्रवाशांना हाकारणारी शेकडो दुकाने आहेत. तिबेटी स्त्रियांच्या दुकानातील असंख्य स्वेटर्स, आकर्षक कपडे, परदेशी वस्तू, वस्तूंच्या भावावरून घासाघीस सारे हिल स्टेशनला साजेसे होते. नैना देवीचं दर्शन घेतलं. दुपारी भीम ताल, सात ताल  बघायला बाहेर पडलो. बसमधून घनदाट वृक्ष आणि कुमाऊँ रेंजची दूरवर दिसणारी बर्फाच्छादित शिखरं न्याहाळत चाललो होतो. आमचा गाईड चांगला बोलका व माहीतगार होता. कालच्या  सोसाट्याच्या भन्नाट वाऱ्यात ठामपणे उभ्या असलेल्या वृक्षांबद्दल विचारलं. तर त्याने पाईनवृक्षाचे एक पडलेले फळ आणून दाखविले. त्या फळाच्या देठाशी जो चिकट द्रव होता तो म्हणजे राळ. या राळेपासून टर्पेंटाईन बनवलं जातं. इथल्या गावातून दिव्यात घालण्यासाठीसुद्धा राळ वापरली जाते. पाईनचे लाकूड पटकन पेट घेते म्हणून थंडीच्या दिवसात शेकोटीसाठी याचा वापर करतात. या लाकडापासून बनवलेली झाकणं स्वयंपाकाच्या भांड्यांवर ठेवतात. त्यामुळे कडाक्याच्या थंडीत पदार्थ बराच वेळ गरम राहू शकतो अशी छान माहिती त्याने सांगितली. भीमतालवर जाण्यासाठी उतरलो पण तिथे पोहोचू शकलो नाही. मुसळधार पाऊस सुरू झाला. थंडीने हृदय काकडले. कसेबसे हॉटेलला परतलो.

दुसऱ्या दिवशी जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान बघायला निघालो. जाताना खोल दऱ्यांमधील अनेक छोटेमोठे जलाशय दिसत होते. त्यात स्वच्छ निळ्याभोर आकाशाचे प्रतिबिंब पडल्यामुळे ते नीलमण्यांसारखे भासत होते. पुढचा रामनगरपर्यंतचा रस्ता पहाडी नाही. रस्त्याच्या दोन्ही बाजूंना गव्हाची आणि मोहरीची मोठी शेती होती. भरपूर आम्रवृक्ष होते. आपल्याइथला हापूस आंब्याचा सिझन संपत आला की बाजारात येणारे दशहरी, केशर, नीलम, लंगडा आंबे हे उत्तराखंड, उत्तर प्रदेशचे असतात. थंडगार पहाडावरून सपाटीवर आलो होतो. भरपूर वृक्ष आणि हवेतला ओलसर दमटपणा यामुळे घामाघूम झालो होतो .एका धाब्यावर गरम चविष्ट पराठा खाऊन मोठा ग्लास भरून दाट मधुर लस्सी घेतली आणि पोटभरीचे जेवण झालं. अभयारण्यच्या आधी ‘जीम कॉर्बेट’ म्युझियम आहे. पुढे थोड्या अंतरावर छोटासा धबधबा आहे. रंगीबेरंगी पक्षी, सुगरणीची घरटी, हरणे, रान कोंबड्या यांचं दर्शन झालं. तीन-चार फूट उंच वारूळं रस्त्याच्या दोन्ही कडांना होती. ड्रायव्हरने जंगलवाटा धुंडाळल्या पण व्याघ्रदर्शन झाले नाही. दूरवर चरणारे जंगली हत्ती, मोर, गरुड दिसले. कडूलिंबाचे प्रचंड मोठे वृक्ष होते.

उत्तराखंड भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 69 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 69 – मनोज के दोहे  ☆

1 फागुन

फागुन का यह मास अब, लगता मुझे विचित्र।

छोड़ चला संसार को, परम हमारा  मित्र।।

2 फाग

उमर गुजरती जा रही, फाग न आती रास।

प्रियतम छूटा साथ जब, उमर लगे वनवास।।

3 पलास

रास न आते हैं अभी, अब पलास के फूल।

बनकर दिल में चुभ रहे, काँटों से वे शूल।।

4 वन

वन में झरे पलास जब, लगें गिरे अंगार।

आग लगाने को विकल, लीलेंगे संसार।।

5 जोगी

धर जोगी का रूप दिल, चला छोड़ संसार।

तन बेसुध सा है पड़ा, जला रहा अंगार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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