मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #155 ☆ लोणच्याची बरणी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 155 ?

☆ लोणच्याची बरणी…

मांडणीवर ठेवलेली

लोणच्याची बरणी

टकमक पहात होती

त्या लिंबाकडं

लिंबाचंही लक्ष

होतंच तिच्याकडं

झाली दोघांची नजरानजर

हृदयाच्या घड्याळात

वाजला होता गजर

आले दोघे

लगेच भानावर

गेलं नाही ना प्रकरण

हे कुणाच्या कानावर

बरणीत उतरायची

इच्छा अनावर

मनातल्या भावनांनी पुरवला पिच्छा

सुरीनं पुरी केली त्याची इच्छा

जखमा झाल्या अंगभर

मीठ चोळलं जखमेवर

तिखट, हळद इतरांची

झाली होती युती

गरजेचीच होती

त्यांची ही कृती

धीर द्यायला आला

नंतर थोडा गूळही

आतड्याला पडलेला

होता थोडा पीळही

बरणी सोबत रहायचं

होतं काही दिवस

काही दिवसांनी करावंच

लागेल तिला मिस

हळूहळू कमी होत

चाललाय आता थर

एक दिवस सोडावच

लागणार आहे घर…

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग 7 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग – 7 ☆ सौ. अमृता देशपांडे  

प्रत्येक विवाहित स्त्रीच्या आयुष्यातला ह्रद्य प्रसंग म्हणजे तिची लग्नाच्या दिवशी सासरी पाठवणी…ही वेळ तिच्या साठी तर कठीण असतेच, पण आईवडील,  बहीण भाऊ,  मित्रमैत्रिणी यांच्यासाठी सुद्धा कठीण असते. लेकीचं लग्न ठरलेल्या दिवसापासून तयारीत गुंतले  असताना हे सगळेजण काळजात एक हुरहुर घेऊन वावरत असतात. प्रत्येक जण प्रेम, आपुलकी,  जबाबदारी यांची वसने स्वखुशीने अंगी लेवून कार्यतयारीत  मग्न असतो. धुमधडाक्याने लग्न करायचे, कुठेच काही कमी होऊ नये,  हा एकच ध्यास असतो. त्यातून वधूबद्दलचे प्रेमच ओसंडत असते. एकदा का अक्षता पडल्या, आणि जेवणे पार पडली की इतके दिवस आवरून धरलेलं अवसान  पूर्णपणे गळून पडते आणि डोळ्यांच्या पाण्याच्या रूपाने घळाघळा वाहू लागते.  आईला लग्न ठरल्य्पासून पोटात आतडे तुटल्यासारखे वाटतेच. वडिलांनी कन्यादानात लाडक्या लेकीचा हात जावयाच्या हातात देताना थरथरत्या स्पर्शातून खूप काही सांगितले असते.मुलीकडच्या सर्वांना तिचे जन्मापासूनच आतापर्यंतचे सहवासाचे क्षण आठवत असतात.  आता इथून पुढे ती आपल्या बरोबर नसणार याचे वाईट वाटते. पण ती सासरी आनंदात रहावी ही भावनाही असते. अशी डोळ्यातल्या पाण्याची शिदोरी घेऊन सासरी गेलेली लेक तिथे फुलते, फळ ते, बहरते,  आनंदी होते.त्यातच आईवडिलांना समाधान असते. तिने सासरी समरस होऊन सासर आपलेसे करणे,  हेच आणि हेच अपेक्षित असतं त्यांना… पाठवणीच्या वेळी आलेलं डोळ्यातलं पाणी दोन्ही परिवारांच्या ह्रदयातला सेतू असतो. म्हणून लग्नात अश्रूंनी ओलीचिंब झालेली पाठवणी ही प्रत्येक धर्मात एक संस्कारच आहे. इथे अश्रू अक्षतांप्रमाणेच पवित्र आणि मंगलरूप धारण करतात.  म्हणूनच त्यांना गंगाजमुना म्हणतात.गंगाजमुना या पवित्र नद्या.  जल जेव्हां प्रवाहीत असते, तेव्हा सगळा कचरा वाहून जाऊन स्वच्छ पाणी वहात असते. वाहून न गेलेले पाणी साचलेले डबके होते. पाण्याने प्रवाहीत असणे, हाच त्याचा धर्म.  डोळ्यातून पाझरणा-या गंगाजमुना नी हा क्षण पवित्र आणि अविस्मरणीय होतो.

मराठी चित्रपट सृष्टीत या प्रसंगावरून ‘ लेक चालली सासरला, ‘ ‘ माहेरची साडी’ असे कित्येक चित्रपट वर्षोंवर्ष गर्दी खेचत होते. गीतकार पी. सावळाराम यांचं ” गंगाजमुना डोळ्यात उभ्या का, जा मुली जा दिल्या घरी तू सुखी रहा’ हे गाणं त्रिकालाबाधित आहे.  कानावर पडताच काळीज गलबलतं…स्त्रीवर्गच नाही तर प्रत्येक पुरूष ही कासावीस होतो. ” सासुरास चालली लाडकी शकुंतला, चालतो तिच्यासवे तिच्यात जीव गुंतला” हे हुंदके एका ऋषींचे…..

” बाबुलकी दुवाएँ लेती जा

जा तुझको सुखी संसार मिले

मैकेकी कभी ना याद आए

ससुरालमें इतना प्यार मिले”

हे नीलकमल या सिनेमातलं गाणं, 

हम आपके है कौन?  यातलं

” बाबुल जो तूने सिखाया,  जो तुमसे पाया,  सजन घर ले चली ” हे  गाणं किंवा हल्लीच्या “राजी”  मधलं “उंगली पकडके तुमने चलना सिखाया था ना दहलीज ऊंची है पार करा दे”

नीलकमल 1960-70 या दशकातला, हम आपके है कौन? हा सिनेमा 1990 च्या दशकातील,  तर राजी 2020 चा. साठ वर्षांच्या काळात किती तरी मोठे बदल झाले, शतक ओलांडलं,  पण या प्रसंगाची भावना तीच, आणि डोळ्यातलं पाणी ही तेच!

(क्रमशः… प्रत्येक मंगळवारी)

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 105 – गीत – यदि मैं करता कुछ शब्दों का… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके गीत – यदि मैं करता कुछ शब्दों का…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 105 – गीत – यदि मैं करता कुछ शब्दों का✍

यदि मैं करता हूं शब्दों का उच्चारण।

सपनों का संबंध सत्य से हो जाता

यदि मैं करता कुछ शब्दों का उच्चारण।

 

अधर अधीन हुए थे लेकिन लक्ष्मण रेखा बन गया अहम

संदेहों के  लाक्षागृह      में साध लिया साधुओं ने संयम।

 

मैं समझा तुम खोज रहे हो संकोच शिफ्ट प्रश्नों का हल

किंतु दहकती रही कामना लुप्त रहा उत्तर का मृग जल।

 

तृष्णा का संबंध तृप्ति से हो जाता

यदि मैं करता संकेतों  का निर्धारण

यदि मैं करता कुछ शब्दों का उच्चारण।

 

आकांक्षा की आंख खोलकर आकर्षण ने आँजा काजल।

लेकिन विकल वयस्क दृष्टि को ज्ञात नहीं था यह सारा छल।

 

 साँस हुई  मीरा सी तन्मय ध्यान तुम्हारा आठ  प्रहर

मुग्धा थी,  बावरी हो  गई तन्मयता ने पिया  जहर।।

 

आँखों का अनुबंध रुप से हो जाता

तुम विशेष से हो जाते तब साधारण ।।

यदि मैं करता कुछ शब्दों का उच्चारण।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 107 – “कई कठिनाइयों ने…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कई कठिनाइयों ने…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 107  ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कई कठिनाइयों ने”|| ☆

कुछ परेशानियाँ लेकर

उधार आया हूँ

साथ में मोल, दिक्कतें

दो चार  लाया हूँ

 

मुश्किलों का मुझे

बाजार में मिला ठेका

कई कठिनाइयों ने

वादा किया आने का

 

कुछेक काँटों के गुजरा

हूँ मोड़ से बेशक

कई छालों का गुमशुदा

विचार लाया हूँ

 

यहा सहूलियत से

मिलती हैं समस्यायें

आपको चाहिये तो

कृपा कर यहाँ आयें

 

लिखा था झूठ फर्म

के नियोन बोर्डों पर

उन्हीं से माँग कर

घटिया प्रचार लाया हूँ

 

रहे परिवार यहाँ कई

हजार रोगों के

कोई कहता ये तजुर्वे

है कई लोगों के

 

वो कि जिनको उदास

रहने की ही आदत है

उन्हें मायूसियाँ ही

खुशगवार लाया हूँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-08-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 154 ☆ लघुकथा – “एकलव्य और अंगूठा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “एकलव्य और अंगूठा”)  

☆ लघुकथा # 154 ☆ “एकलव्य और अंगूठा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

घर के आंगन में लगे अमरूद के पेड़ के नीचे बैठे बड़े पंडित जी चाय पी रहे हैं ,ऊपर कोयल बोल रही है , शिक्षक दिवस के कारण शिष्यों का आना जाना सुबह से लगा है। गुरु जी आज स्कूल नहीं गये, सुबह से शिष्य गुरु वंदना करने आते हैं और कुछ कुछ गुरु जी को चढ़ा जाते हैं, कुछ ने मोबाइल दिया, कुछ ने लिफाफा। एक जमींदार शिष्य खाली हाथ आया था तो गुरु जी उसका अंगूठा देखने लगे, शिष्य ने मजाक में कहा कि जल्दबाजी में गुरु जी कुछ ला नहीं पाया, एक काम कीजिए ज्यादा है तो ये मेरा अंगूठा ले लीजिए। शिष्य जमींदार की बात सुनकर गुरु जी अपने पीए से बोले कि इनका अंगूठा स्टांपित दानपत्र पर लगवा लीजिए, पांच एकड़ जमीन बहुत है। शिष्य ने लघुशंका का बहाना बनाकर दौड़ लगा दी और एकलव्य बनने से बच गया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 97 ☆ # शिक्षक दिवस पर… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# शिक्षक दिवस पर… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 97 ☆

☆ # शिक्षक दिवस पर… # ☆ 

जो भोर की किरण बनकर आया

जिसने कली कली को

छू कर जगाया

जो ओस की बूंदों में झिलमिलाया

वो हमारे जीवन में

शिक्षक कहलाया

 

उसने हमको पढ़ना सिखाया

उसने हमको लिखना सिखाया

उसने हमको बोलना सिखाया

उसने हमको लड़ना सिखाया

 

विद्या का दिया हमको दान

समझाया सत्य-असत्य का ज्ञान

हमारे जीवन की खाली स्लेट पर

जीवन का मर्म समझाकर

भर दिए हममें प्राण

 

हमारी हर गलती पर हमको डांटा

फिर भी ना सुधरें तो मारा चांटा

हमारे साथ साथ जाग जाग कर

हमारे यश-अपयश को बांटा

 

प्रेम, भाईचारे का महत्व बताया

धर्म -अधर्म का अर्थ समझाया

त्याग, करुणा, दया

हमारे अंत:करण में डाली

अहिंसा पर चलने वाला

सच्चा इंसान बनाया

 

हम बिन गुरु ज्ञान कहां से पाते

हम बिन गुरु समझ कहां से लाते

जीवन की राह पर भटकते रहते

हम बिन गुरु शिखर पर कहां से जाते

 

आओ, अपने गुरु के आगे

शीश झुकाएं

गुरु की शिक्षा को

अपने जीवन में लाऐं

गुरु का आदर्श

विद्यार्थी बनकर

चलो, आज

शिक्षक दिवस मनाएं/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588\

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 97 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 97  ? 

☆ अभंग… ☆

सतत करावे, देवाचे भजन

आणिक चिंतन, नका करू…!!

 

एक तोचि ठेवा, अखंड ध्यानात

आणि जीवनात, प्रभू ध्यास…!!

 

शुद्ध भक्ती वेड, लावून घेयावे

बंधन तोंडावे, स्व-प्रवृत्ती…!!

 

येणे जाणे सर्व, थांबविल देव

आपुला स्वभाव, शांत करा…!!

 

कवी राज म्हणे, ईश ओळखावा

निर्भेळ पूजावा, अविरत…!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ३४ परिव्राजक १२ – आदर ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ३४ परिव्राजक १२ – आदर ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

 खेतडीचे राजे अजितसिंग, वयाच्या नवव्या वर्षीच गादीवर बसलेले. हे संस्थान छोटंच होतं. त्यांच्या संस्थांनाची प्रगती आणि विकास होण्यात त्यांना अडचण वाटायची ती, अशिक्षित प्रजा. त्यामुळे त्यांना अनेक प्रश्न सतावत असत. जगमोहनलाल यांनी राजेसाहेबांची स्वामीजींबरोबर भेट ठरवली. पहिल्याच भेटीत दोघंही जुना परिचय असल्यासारखे मनमोकळे बोलू लागले. औपचारिक परिचय झाल्यावर अजितसिंग यांनी पहिलाच प्रश्न विचारला, “स्वामीजी जीवन म्हणजे काय?” स्वामीजी म्हणाले, “परिस्थितीच्या दडपणाचा प्रतिकार करत करत माणसाच्या ठायी असलेल्या आंतरिक शक्तीचा जो विकास आणि आविष्कार होतो ते जीवनाचे स्वरूप होय”. या उत्तराने प्रभावित होऊन त्यांनी पुढचा प्रश्न विचारला,“शिक्षण म्हणजे काय?” स्वामीजी म्हणाले, “मी असं म्हणेन की, विशिष्ट विचारांशी माणसांच्या जाणिवांचा जो अतूट असा संबंध निर्माण होतो, त्याला शिक्षण हे नाव द्यावं”. वा, म्हणजे फक्त अनेक विषयांची माहिती करून घेणे एव्हढाच शिक्षणाचा मर्यादित अर्थ नाही. त्यातील तत्वांमुळे जाणीव आणि भावना एकरूप होऊन जीवनाला विशेष अशी दिशा यातून मिळाली पाहिजे. तेंव्हाच त्याला खरे शिक्षण म्हणता येईल. स्वामीजींनी घेतलेल्या अनुभवावरून त्यांचे हे शिक्षणाबद्दल मत झाले होते.

यानंतर वरचेवर स्वामीजी आणि महाराज यांच्या भेटी होत राहिल्या. अनेकवेळा स्वामीजी भोजनासाठी जात. काहीवेळा काही निमंत्रित व्यक्तीही पंगतीला असत. एकदा खास भोजन आयोजित केले असताना महाराजांनी ठाकूर फत्तेसिंह राठोड, अलिगड जवळच्या जलेश्वरचे ठाकूर मुकुंदसिंग चौहान, जामनगरचे मानसिंह यांनाही बोलावले होते. या खास व्यक्तींमध्ये राजस्थान मधले समाजसुधारक हरविलास सारडा ज्यांनी तिथल्या बालविवाह प्रतिबंधित कायदा प्रयत्न करून संमत करून घेतला होता त्या काळात पुढे हा कायदा त्यांच्याच नावाने ओळखला जाऊ लागला असे लोक यावेळी उपस्थित होते.

हरविलास अजमेरचे आर्य समाजाचे अध्यक्ष पण होते. त्यांच्या याआधी स्वामीजीबरोबर अजमेर, अबू, इथेही भेटी झाल्या झाल्या होत्या. वेदान्त, स्त्रियांच्या सुधारणा, संगीत, मातृभूमीचं प्रेम आणि स्वतंत्र बाणा अशा अनेक विषयांवर चर्चा झाल्या होत्या. स्वामीजींचा त्यांच्यावरही खूप मोठा प्रभाव पडला होता.

राजे अजितसिंग यांच्याबरोबर तर त्यांचे नातेच जुळले होते. ते वयाने समवयस्कही होते. त्यामुळे घोड्यावरून रपेट मारणे, खेळ खेळणे, अशा काही गोष्टी ते एकत्र करत आणि आस्वाद घेत. स्वामीजी गाणं म्हणायला लागले की राजे स्वत: हार्मोनियमची त्यांना साथ करायला बसत. अशा प्रकारे संगीत ते तत्वज्ञानपर्यंतच्या त्यांच्या सर्व आवडीनिवडी जुळल्या होत्या. जसा राजस्थानच्या गौरवशाली इतिहासा बद्दल स्वामीजींना आदर होता तसा स्वामीजींच्या आध्यात्मिक अधिकाराचा आजीतसिंगांना आदर होता. या सहवासातून राजे अजितसिंग, जगमोहन, आणि काही जणांनी स्वामीजींकडून दीक्षा घेतली. अजितसिंग खेत्रीचे सत्ताधीश होते तरी पण, शिष्य म्हणून गुरुचं स्थान त्यांच्या दृष्टीने उच्चच होते. गुरुविषयी नितांत आदर आणि भक्ति होती. एव्हढी की, गुरुची सेवा आपल्या हातून घडावी असं त्यांना मनापासून वाटायचं.

स्वामीजी तेंव्हा राजवाडयातच राहत होते. ते झोपले असताना अजितसिंग हळूच येऊन पंख्याने वारा घालायचे, त्यांची झोपमोड होऊ नये म्हणून काळजी घ्यायचे, त्यांचे पाय दाबून द्यायचे. एकदा तर स्वामीजींना जाग आली आणि त्यांनी पाय दाबताना थांबवले तर, “माझा शिष्य म्हणून सेवा करण्याचा हक्क हिरावून घेऊ नका” असं काकुळतीला येऊन अजीतसिंगांनी त्यांना सांगितलं. भर दिवसा लोक आजूबाजूला असताना अजितसिंग स्वामीजींना गुढगे टेकवून प्रणाम करीत. इतकी नम्रता ते या पदावर असताना सुद्धा होती. पण स्वामीजींनी त्यांना या पासून परावृत्त केले कारण, नाहीतर त्यांचा प्रजेमधला जो आदरभाव होता त्याला धक्का पोहोचू शकत होता याचं भान स्वामीजींना होतं.

खेतडीला स्वामीजी दोन ते तीन महीने राहिले. गहन आणि तात्विक प्रशनाची उत्तरे स्वामीजींनी तर त्यांना दिली होतीच. पण आधुनिक विज्ञानातील भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र यातील महत्वाच्या सिद्धांताचा परिचय पण त्यांना करून दिला होता स्वामीजींनी. स्वामीजींच्या सूचनेवरून राजवाड्यात एक प्रयोगशाळा सुरू करण्यात आली. गच्चीवर एक दुर्बिण बसविण्यात आली. स्वामीजी व अजितसिंग दोघेही गच्चीतून त्याद्वारे आकाशातील तार्‍यांचे निरीक्षण करत असत. स्वामीजींचा संस्थानच्या बाहेरील सुद्धा लोकांशी संबंध येत असे. सर्वांना ते भेटत असत.

या वास्तव्यात स्वामीजींना खूप काही शिकायला मिळाले होते. एकदा राजवाड्यात नर्तकीचे गायन आयोजित केले होते. तंबोर्‍याच्या तारा जुळल्या, गाणे सुरू होणार तसे अजितसिंग यांनी स्वामीजींना ऐकायला बोलवले. तेंव्हा स्वामीजींनी त्यांना उत्तर पाठवले, आपण संन्यासी आहोत, कार्यक्रमास येऊ शकत नाही. हे त्या गायिकेच्या मनाला लागलं. तिने षड्ज लावला, आणि संत सूरदासांचे भजन म्हणण्यास सुरुवात केली. ध्रुवपद होतं,

हमारे प्रभू अवगुण चित न धरो,

समदर्शी प्रभू नाम तिहारो,

अब मोही पार करो!      

अर्थ – हे प्रभो माझे अवगुण मनात ठेऊ नका, आपल्याला समदर्शी म्हणजे सार्‍या भूतमात्राकडे समान दृष्टीने पहाणारे असे म्हणतात, तेंव्हा आपण माझा उद्धार करा .

रात्रीच्या शांत वेळी हे आर्त आणि मधुर सूर स्वामीजींपर्यंत पोहोचले. गीतातला पुढच्या ओळींचा अर्थ होता,

‘लोखंडाचा एक तुकडा मंदिरामध्ये मूर्तीत असतो, तर दूसरा एक कसायाच्या हातात सूरीच्या रूपात असतो, पण परिसाचा स्पर्श होताच,त्या दोहोंचे सुवर्ण होऊन जाते. आपण तसे समदर्शी आहात. आपण माझा उद्धार करा’.

एका ठिकाणचे पाणी नदीच्या प्रवाहात असते, तर दुसर्‍या ठिकाणी ते कडेच्या गटारातून वाहत असते.  पण दोन्ही पाणी एकदा गंगेला जाऊन मिळाले की, सारखेच पवित्र होऊन जाते. आपण तसे समदर्शी आहात, कृपा असेल तर माझा उद्धार करा’.

हे शब्द स्वामीजींच्या अंत:करणाला जाऊन भिडले. नंतर स्वामीजींनी त्या गायिकेची क्षमा मागितली. आपण बोलतो आणि वागतो त्यात विसंगती असते. या दोन्हीत एकरूपता साधायला हवी हा धडा स्वामीजींनी कायम लक्षात ठेवला. त्यांचा दृष्टीकोन बदलला.

जीवनातल्या यात्रेतल्या प्रत्येक वळणावर स्वामीजी स्वत: सतत शिकत राहिले होते आणि दुसर्‍यालाही काहींना काही देत होते. अशा प्रकारे स्वामीजींनी आता सहा महिन्यांनी खेत्रीचा जड अंतकरणाने निरोप घेतला.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 28 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 28 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

४२.

फक्त तू आणि मी

असे दोघेच एका नावेत बसून

पर्यटनाला जायचे म्हणाला होतास.

 

ही आपली यात्रा कोणत्या देशाला जाणार,

केव्हा संपणार हे कोणालाच माहीत नाही.

 

किनारा नसलेल्या त्या महासागरात

तू शांतपणे स्मितहास्य करत असताना

लाटांसारखी माझी गीतं

 नि:शब्दपणे स्वरमय होतील.

 

ती निघायची वेळ अजून आली नाही का?

कामं अजून पूर्ण व्हायची आहेत का?

 

बघ! किनाऱ्यावर सांज उतरली आहे,

तिच्या संधिप्रकाशात समुद्रपक्षी

आपापल्या घरट्याकडं परत फिरताहेत.

 

साखळदंड केव्हा सुटतील आणि

सूर्याच्या सायंकालीन अखेरच्या किरणांप्रमाणं

रात्रीच्या काळोखात नाव अंधारात विरून जाईल?

 

४३.

त्या दिवशी तुझ्या आगमनासाठी मी तयार झालो नव्हतो.

तू न सांगताच ऱ्हदयप्रवेश केलास,

इतर साध्या माणसाप्रमाणं!

आणि हे राजेश्वरा, तू येऊन माझ्या आयुष्यातल्या

क्षणिकतेवर चिरंतनपणाची मुद्रा उमटविलीस!

 

आज सहजपणे माझी नजर त्या क्षणावर वळते

आणि तुझी मुद्रा मला दिसते तेव्हा

सुखदुःखाच्या क्षणिक दिवसांप्रमाणं

ती विस्मरणाच्या धुळीत गेल्याचं समजतं.

 

धुळीतल्या माझ्या पोरकट खेळाकडं तू तिरस्कारानं पाहिलं नाहीस.

तारका – तारकांच्या मधून वाजणारी

तुझी पावलं च् माझ्या भोवतालातून

मला ऐकू येत होती.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #158 ☆ व्यंग्य – गाँव की धूल और नेता के चरन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य गाँव की धूल और नेता के चरन। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 158 ☆

☆ व्यंग्य – गाँव की धूल और नेता के चरन

नेताजी के गाँव के दौरे पर आने की खबर पहुँच चुकी थी। कलेक्टर और बहुत से छोटे अफसर साज़-सामान के साथ पहुँच चुके थे। कलश, फूलमाला वगैरः का मुकम्मल प्रबंध हो चुका था। गाँव के लोगों की एक भीड़ नेता जी के भाषण के लिए बनाये गये मंच के पास इकट्ठी होकर उत्सुकता से उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। बच्चे और औरतें किलिर-बिलिर कर रहे थे।

नेता जी की कार आती दिखी और इंतज़ामकर्ताओं और दर्शकों में हरकत होने लगी।  कार रुकी और उसके रुकते ही धूल का एक बड़ा ग़ुबार उठा और गाँव वालों के ऊपर बरस गया। गाँव वालों ने अपने गमछों से मुँह और कपड़ों की धूल झाड़ी।

नेता जी ने मोटर से उतर कर गाँव वालों को झुक कर नमस्कार किया। सरपंच के हाथों से माला पहनी। जब गाँव की स्त्रियों के द्वारा उनकी आरती उतारी गयी तो वे आँखें मूँदे, हाथ जोड़े खड़े रहे। यह सब हो गया तो नेता जी ने घूम कर गाँव का सिंहावलोकन किया। उनकी मुद्रा से ऐसा लगा जैसे वह गाँव को देख कर भाव-विभोर हो गये। उनका मुख प्रसन्नता के फैल गया और दोनों हाथ प्रशंसा के भाव से उठ गये।

नेताजी की इच्छानुसार उन्हें पूरे गाँव के राउंड पर ले जाया गया। नेताजी अगल-बगल के घरों में झुक झुक कर झाँकते जाते थे, हाथ जोड़कर नमस्कार करते जाते थे। गाँव की स्त्रियाँ घूँघट में दो उँगलियाँ लगाये उन्हें देख रही थीं। एक घर में से हाथ-चक्की चलने की आवाज़ आ रही थी। नेताजी एकाएक भाव-विभोर होकर उस घर की चौखट पर बैठकर ठुनकने लगे— ‘मैं तो चने की मोटी रोटी और चटनी खाऊँगा।’ कलेक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहाँ से उठाया। नेताजी जैसे बड़ी अनिच्छा से दुखी मुँह लिये उठे। गाँव वाले उनकी सरलता को देखकर बहुत प्रभावित, एक दूसरे का मुँह देख रहे थे।

गाँव के चक्कर के बाद नेता जी का भाषण हुआ। नेताजी बोले, ‘भाइयो, मेरी मोटर और मेरे कपड़ों को देखकर आप समझते होंगे कि मैं बहुत सुखी हूँ। लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस देश में आपसे ज्यादा सुखी कोई नहीं है। हम शहर में रहने वाले माटी की इस सुगंध के लिए, इस ताजी हवा के लिए, इन पेड़ों के लिए तरसते हैं। मैं शहर में रहता हूँ, लेकिन मेरी आत्मा भारत के गाँवों में घूमती रहती है। मेरे प्यारे ग्रामवासियो, तुम अपने को छोटा मत समझो। तुम हमारे अन्नदाता हो, हमारे मालिक हो। मैं आप लोगों को प्रणाम करता हूँ।’

नेता जी ने झुक कर गाँव वालों को नमस्कार किया।

नेता जी ने एक गाँव वाले को मंच पर बुलाया, जिसकी नीली कमीज़ पर पसीने की अनगिनत सफेद रेखाएं थीं। नेताजी ने उसे बगल में खड़ा करके उसकी कमीज़ की तरफ इशारा किया, बोले,  ‘भाइयो, ये पसीने के निशान देखते हैं आप? यह पसीना गंगा के पानी से भी ज्यादा पवित्र है। आप अपनी गरीबी पर दुखी मत होइए। आज आपसे धनी कोई नहीं। आपके पास मेहनत की संपत्ति है, इसलिए आप गरीब होते हुए भी राजा हो और हम जैसे लोग निर्धन हैं।’

नेताजी ने गर्व से दाहिने-बायें देखा और सरपंच ने कलेक्टर के इशारे पर तालियाँ बजवा दीं।

भाषण खत्म करते हुए नेताजी बोले, ‘मेरे प्यारे गाँववासियो, मैं राजधानी में जरूर रहता हूँ, लेकिन मेरा दिल हमेशा आपके साथ रहता है। काम ज्यादा रहने के कारण आपके बीच में आने का सुख प्राप्त नहीं कर पाता। लेकिन मैं आपका आदमी हूँ। आप कभी राजधानी आयें तो मुझे सेवा का मौका दें। मेरा दरवाजा हर वक्त आपके लिए खुला रहेगा।’

कलेक्टर और सरपंच के इशारे पर गाँव वालों ने फिर तालियाँ बजायीं।

उधर नेताजी की कार के पास उनके ड्राइवर से एक ग्रामीण युवक बड़ी दीनता से बात कर रहा था। युवक ड्राइवर से बोला, ‘ड्राइवर साहब, शहर में हमारे लिए कुछ काम का जुगाड़ लगवा दो।’

ड्राइवर सिगरेट का कश खींचकर बोला, ‘किराये के पैसे हों तो दिल्ली आ जाना। वहाँ आकर नेता जी से विनती करना।’

युवक विनती के स्वर में बोला, ‘किराये के पैसे कहाँ हैं साहब? इसी मोटर में एक कोने में बैठा कर ले चलते तो बड़ी मेहरबानी होती।’

ड्राइवर ने सिगरेट मुँह से निकाल कर ठहाका लगाया, फिर हाथ झटकता हुआ बोला, ‘अरे भाग पगलैट, भाग यहाँ से। कैसे-कैसे पागल आ जाते हैं।’

युवक वहाँ से खिसक कर कुछ दूर जाकर चुपचाप खड़ा हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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