हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 38 ☆ मुक्तक ।। तेरी ही दी खुशियां, आती दुगनी वापिस होकर ।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।तेरी ही दी खुशियां, आती दुगनी वापिस होकर।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 38 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। तेरी ही दी खुशियां, आती दुगनी वापिस होकर ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

ख़ुशियाँ हर मोड़ पर कि, चाहो तो मौज मिलती है।

बात नहीं एक दिन की, ढूंढो तो रोज़ मिलती है।।

खुशी बसती नहीं कहीं दूर, बहुत ऊपर आसमान में।

तेरे भीतर बसेरा इनका, खोज वहीं पर मिलती है।।

[2]

बहुत आसान इन खुशियों, से रोज़ मुलाकात करना।

बांटते रहो फिर इन्हें, अपनों में आबाद  करना।।

यही छोटी मोटी खुशियां, लौट कर आती बड़ी होकर।

फिर इन खुशियों को तुझ, को ही है प्राप्त करना।।

[3]

मत ढूंढता रह हमेशा धन, दौलत की सौगातों  को।

निकाल कर ला हर बात, में खुशी की अफरातों  को।।

तेरी ही खुशी जान ले कि, दुगनी होकर आती वापिस।

बस अहसास कर महसूस, कर इन मुस्कराहटों को।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 104 ☆’’हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक रचना “हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #104 ☆’’हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण

सुख, विभव, आनंद-दायक, शांति प्रद प्रभु तव चरण।।

 

कामना तव कृपा की ले नाथ हम आये शरण

आशुतोष अपारदानी कीजिये सब दुख हरण।।

 

हृदय की सब जानते हो भक्त के, भगवान तुम

तुम्हीं संरक्षक जगत के प्राणियों के प्राण तुम।।

 

विधि न मालूम अर्चना की भावना के हैं सुमन

नेह आलोकित हृदय है, धवल हिम सा शुद्ध मन।।

 

तमावृत हर पथ जगत का मोह के अंधियार से

बढ़ रहे हैं कष्ट नित नव स्वार्थ के विस्तार से।।

 

है भयावह रात काली, कहीं न दिखती है किरण

तव कृपा की कामना ले हैं बिछे पथ में नयन।।

 

दीजिये वर अब हो सत्यं शिवं शुभ सुंदरम

मन में करूणा का उदय हो, क्लेश, प्रभु हो जायें कम।।

 

अश्रु- जल कर सके उठती द्वेष- लपटों का शमन

विनत तव चरणों में शंकर हमारा शत शत नमन।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 111 – पाप का भागी कौन—पाप किसने किया? ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #111 🌻 पाप का भागी कौन—पाप किसने किया? 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। उसे बड़े मनोयोग पूर्वक संभालता, पेड़ लगाता, पानी देता। एक दिन गाय चरती हुई बाग में आ गई और लगाये हुए कुछ पेड़ चरने लगी। ब्राह्मण का ध्यान उस ओर गया तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने एक लट्ठ लेकर उसे जोर से मारा। कोई चोट उस गाय पर इतने जोर से पड़ी कि वह वहीं मर गई। गाय को मरा जानकर ब्राह्मण बड़ा पछताया। कोई देख न ले इससे गाय को घसीट के पास ही बाग के बाहर डाल दिया। किन्तु पाप तो मनुष्य की आत्मा को कोंचता रहता है न। उसे संतोष नहीं हुआ और गोहत्या के पाप की चिन्ता ब्राह्मण पर सवार हो गई।

बचपन में कुछ संस्कृत ब्राह्मण ने पढ़ी थी। उसी समय एक श्लोक उसमें पढ़ा जिसका आशय था कि हाथ इन्द्र की शक्ति प्रेरणा से काम करते हैं, अमुक अंग अमुक देवता से। अब तो उसने सोचा कि हाथ सारे काम इन्द्र शक्ति से करता है तो इन हाथों ने गाय को मारा है इसलिए इन्द्र ही गोहत्या का पापी है मैं नहीं?

मनुष्य की बुद्धि की कैसी विचित्रता है, जब मन जैसा चाहता है वैसे ही हाँककर बुद्धि से अपने अनुकूल विचार का निर्णय करा लेता है। अपने पाप कर्मों पर भी मिथ्या विचार करके अनुकूल निर्णय की चासनी चढ़ाकर कुछ समय के लिए कुनैन जैसे कडुए पाप से सन्तोष पा लेता है।

कुछ दिनों बाद गौहत्या का पाप आकर ब्राह्मण से बोला— मैं गौहत्या का पाप हूँ तुम्हारा विनाश करने आया हूँ।

ब्राह्मण ने कहा—गौहत्या मैंने नहीं की, इन्द्र ने की है। पाप बेचारा इन्द्र के पास गया और वैसा ही कहा। इन्द्र अचम्भे में पड़ गये। सोच विचारकर कहा— ‛अभी मैं आता हूँ।’ और वे उस ब्राह्मण के बाग के पास में बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर गये और तरह−तरह की बातें कहते करते हुए जोर−जोर से बाग और उसके लगाने वाले की प्रशंसा करने लगा। प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण भी वहाँ आ गया और अपने बाग लगाने के काम और गुणों का बखान करने लगा। “देखो मैंने ही यह बाग लगाया है। अपने हाथों पेड़ लगाये हैं, अपने हाथों से सींचता हूँ। सब काम बाग का अपने हाथों से करता हूँ। इस प्रकार बातें करते−करते इन्द्र ब्राह्मण को उस तरफ ले गये जहाँ गाय मरी पड़ी थी। अचानक उसे देखते इन्द्र ने कहा। यह गाय कैसे मर गई। “ब्राह्मण बोला—इन्द्र ने इसे मारा है।”

इन्द्र अपने निज स्वरूप में प्रकट हुआ और बोला—‟जिसके हाथों ने यह बाग लगाया है, ये पेड़ लगाये हैं, जो अपने हाथों से इसे सींचता है उसके हाथों ने यह गाय मारी है इन्द्र ने नहीं। यह तुम्हारा पाप लो।” यह कहकर इन्द्र चले गये। गौ हत्या का पाप विकराल रूप में ब्राह्मण के सामने आ खड़ा हुआ।

भले ही मनुष्य अपने पापों को किसी भी तरह अनेक तर्क, युक्तियाँ लगाकर टालता रहे किन्तु अन्त में समय आने पर उसे ही पाप का फल भोगना पड़ता है। पाप जिसने किया है उसी को भोगना पड़ता, दूसरे को नहीं। यह मनुष्य की भूल है कि वह तरह−तरह की युक्तियों से, पाप से बचना चाहता है। अतः जो किया उसका आरोप दूसरे पर न करते हुए स्वयं को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 124 – स्वप्नमहाल ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 124 – स्वप्नमहाल ☆

स्वप्नमहाल बांधण्याचे

स्वप्न होते महान ।

वास्तवाच्या बेड्यांचे  

नव्हतंच मुळी भान।।धृ।।

 

निश्चयाचे बळ होते

आकांक्षांच्या पंखांना।  

जिद्दीची किनार होती

प्रयत्नांच्या साथीला ।

बुद्धीचेही मिळालेले

दैवी जन्मजात दान ।।१।।

 

गरिबीचा बेड्यां घालत

पायात नेहमीच खोडे।

पैसा वाचून घोडे सारे

जागच्या जागीच अडे।

हुशारीलाही शोभायचं

कपड्यांचेच कोंदण ।।२।।

 

मोडायचे होते चालू

जगाची हे चलन ।

लुटायचं होत आं ता

विजयाचे हे दालन ।

म्हणून स्वीकारलं हे    

समर्थपणे आव्हान ।।३।।

 

विजयाला जाग आली

बुद्धी प्रभा झळकली ।

लक्ष्मीवल्लभांनी सुद्धा

स्तुतीं सुमने उधळली।

नाठाळही करती आज

बुद्धीचे गुण गाण।।४।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #154 ☆ शब्द-शब्द साधना ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शेष या अवशेष। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 154 ☆

☆ शब्द-शब्द साधना ☆

‘शब्द शब्द में ब्रह्म है/ शब्द शब्द में सार। शब्द सदा ऐसे कहो/ जिन से उपजे प्यार।’ वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है जीवन का संदेश…इसलिए सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेम भाव प्रकट हो। कबीरदास जी का यह दोहा ‘ऐसी बानी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ ख़ुद भी शीतल होय’ …उपरोक्त भाव की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं; जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि ‘शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म। शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम’ शब्द में निहित हैं ख़ुशी व ग़म के भाव– परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है।

वास्तव में शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहाँ वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं; वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है और शब्द ही मरहम है। शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर कारग़र दवा का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस मन:स्थिति में किन शब्दों का प्रयोग किस अंदाज़ से करते हैं।

‘हीरा परखै जौहरी/ शब्द ही परखै साध। कबीर परखै साध को/ ताको मतो अगाध’ हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत्य वचनों अर्थात् सत्संग को ही महत्व प्रदान करता है और आनंद प्राप्त करता है। वह उनके संदेशों को जीवन में धारण कर सुख व संतोष प्राप्त करता है; स्वयं को भाग्यशाली समझता है। परंतु कबीरदास जी उस साधु को परखते हैं कि उसके भावों व विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है; उसकी सोच कैसी है और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है; वह उचित है या नहीं? वास्तव में संत वह है; जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और उसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते; उसे सत्मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते–वही श्रद्धेय है, पूजनीय है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्मचर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व सपाट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, तो अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाएं अर्थात् कुत्सित भावनाओं व विचारों को अपने मनोमस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें, क्योंकि ये दोनों मानव के अजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं को नियंत्रित करना आवश्यक है।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को तो हानि पहुंचाता ही है; वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में न जाने क्या-क्या कह जाता है; जिसके लिए उसे बाद में प्रायश्चित करना पड़ता है। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के ज़ख्म कभी नहीं भरते; वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहाँ मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं; वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपका दु:खी व आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और वह स्वयं को अकेला व असहाय अनुभव नहीं करता। उसे ऐसा लगता है कि आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।

एकांत में व्यक्ति के लिए अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना करना भी अनिवार्य है… सोच- समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी ग़लती का एहसास दिलाना है, तो उससे एकांत में बात करो, क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है। अक्सर उस स्थिति में दोनों के अहं का टकराव होता है। अहं से संघर्ष का जन्म होता है और उस स्थिति में वह दूसरे के प्राण लेने पर उतारु हो जाता है। गुस्सा चाण्डाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं। परशुराम का क्रोध में अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का अहिल्या का श्राप देना आदि हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना अर्थात् तोलना चाहिए। उस विषम परिस्थिति में कटु व अनर्गल शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए और दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए; जिसे सहन करने की क्षमता आप में है। सो! आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति ईर्ष्या, दुर्भावना व दुष्भावनाएं मत रखिए, बल्कि बोलने से पहले उसके औचित्य-अनौचित्य का चिन्तन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर उसके प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों-सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं और उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता। बिना सोच-विचार के किए गए कर्म केवल आपको ही हानि नहीं पहुंचाते; परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।

सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि ग़लत हों, तो गुमराह कर देते हैं; यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त उक्ति हमें आग़ाह करती है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरु होता है; जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको ग़लत मार्ग व ग़लत दिशा की ओर जाने पर सचेत करता है तथा आपकी उन्नति को देख कर प्रसन्न होता है; आप को उत्साहित करता है। पुस्तकें मानव की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छे मित्र के साथ न होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है।

हाँ! सबसे बड़ी है मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे के भावों से परिलक्षित होता है और व्यवहार उसके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, सहानुभूति आदि को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना को दूर से सलाम कीजिए, क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु यदि वह उन असामान्य परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं खोता; दु:खी नहीं होता, बल्कि उससे सीख लेता है तो वह अपनी मंज़िल को प्राप्त कर अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि ‘सुख- दु:ख तो अतिथि हैं’…’जो आया है, अवश्य जाएगा’ को अपना मूल-मंत्र स्वीकार संतोष से अपना जीवन बसर करता है। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए, ताकि दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपके सत्मार्ग पर चलने में बाधा उपस्थित न करें अर्थात् आपको ग़लत राह का अनुसरण न करने दें। वास्तव में पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देते हैं और उससे उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव अमानुष। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधाओं के बारे में सोचता है। इसलिए ऐसा स्थान यश व लक्ष्मी को रास नहीं आता और वे वहां से रुख़्सत हो जाते हैं।

सो! जहां सत्य है; वहां धर्म है, यश है और वहीं लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है; सौहार्द व सद्भाव है; मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है और वहां कलह, अशांति, ईर्ष्या-द्वेष आदि प्रवेश पाने का साहस नहीं जुटा सकते। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है; उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय बनें, क्योंकि हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी ज़िंदगी के प्रणेता हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23.8.22

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – करवा चौथ विशेष – मैली चाँदनी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – मैली चाँदनी ??

(करवाचौथ के दिन रचित 2007, कवितासंग्रह ‘योंही’ से।)

गैर घरों में

झाड़ू-पोछा करती,

अपने बच्चों की

फीस भरती,

परायी किचन में

चपाती सेकती;

अपनी रसोई चलाती,

जुआरी पति की

भद्दी गालियाँ सुनती,

शराबी मर्द के

लात-घूँसे खाती,

हर रात बलत्कृत होती,

फिर भी

करवा चौथ का व्रत करती…!

काश चाँद औरत होता..!

इन बदनसीब कालिमाओं

के जीवन में

थोड़ी चाँदनी होती…!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #141 ☆ एक पूर्णिका – अहसास का रिश्ता ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “एक पूर्णिका – अहसास का रिश्ता । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 141 ☆

 ☆ एक पूर्णिका – अहसास का रिश्ता ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कैसे अब  हम  प्यार   लिखें

कैसे  दिल    बेकरार   लिखें

 

प्रश्न  उठाते   जो  नियत  पर

कैसे   उन्हें   सत्कार    लिखें

 

गल  रहा उल्फत  का कागज

अब  कैसे  हम  श्रृंगार   लिखें

 

लिखता   रहा   खतायें    मेरी

उस  पर  क्या अशआर  लिखें

 

है “संतोष” अहसास का रिश्ता

कैसे   आखिर   इंकार    लिखें

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #146 ☆ ओवीबद्ध रामायण – खंड सीता स्वयंवर ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 146 – विजय साहित्य ?

☆ ओवीबद्ध रामायण – खंड सीता स्वयंवर ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(काव्य प्रकार – साडेतीन चरणी ओवी)

रामचरणांची ख्याती, पसरली सर्व दूर

कौतुकाचा एक सूर, मिथिलेत….!

 

राजा मिथिलापतीचे, विश्वामित्रा निमंत्रण

धर्मकार्या आमंत्रण, जनकाचे…..!

 

अलौकिक विहंगम, परिसर रमणीय

सौंदर्य ते स्पृहणीय, मिथिलेचे….!

 

धर्मनिती परायण, यज्ञकार्यी योगदान

शिवधनुष्याचा मान, जनकास….!

 

पवित्र ते शिवधनू, पुजनीय जनकाला

दिगंतश्या प्रतापाला, तोड नाही…!

 

दाशरथी युवराज, विश्वामित्र मुनिजन

मिथिलेत राममन, विसावले….!

 

राजनंदिनी सीतेच्या, स्वयंवराचा सोहळा

जमलासे गोतावळा, नृपादिक….!

 

भव्य दिव्य राजवाडे, गुढ्या तोरणे पताका

दुजी अयोध्या शलाका, भासतसे….!

 

मिथिलेत सौख्य पूर, सुवर्णाची छत्रछाया

दरवळे गंधमाया, कस्तुरीची….!

 

स्वयंवराची तयारी, मिथिलेत उत्साहात

प्रवेशले नगरात, रघुनाथ…!

 

सीता जनकनंदिनी, स्वयंवर रचियले

शिवधनू ठेवियले, पणासाठी…!

 

सीता जगतजननी, स्वयंवराचा हा घाट

पहा किती थाट माट, मिथिलेत…!

 

आदिनाथ रामरूप, सीता दर्शनात दंग

आदिशक्ती भवबंध, एकरूप….!

 

भरलासे दरबार, शिवधनुष्य भेदन

झालें गर्वाचे छेदन, राजधामी….!

 

लक्ष गजबल खर्ची, शिवधनू आणविले

स्वयंवरे आरंभले, जनकाने….!

 

शिवधनुष्याचे धूड, पेलवोनी पेलवेना

जिंकण्यास उचलेना, दिव्य धनू…..!

 

उचलेना शिवधनू, असफल ठरे शौर्य

अपमाने जागे कौर्य, नृपनेत्री….!

 

एक एक नृप येई, लावी सारे आत्मबल

सारे नृप हतबल, पणापाई….!

 

अवघड ठरे पण, चिंतातूर राणीवसा

आसवांनी भरे पसा, आशंकेने…!

 

सुकुमार जानकीस, मिळणार कोण वर

उंचावला चिंतास्वर, मंडपात….!

 

कुठे गेले क्षात्रतेज, कुठे गेले नृप वीर

झुकले का नरवीर, धनूपुढे…..!

 

गुरूआज्ञा घेऊनीया, रघुनाथ पुढे आले

जन चिंताक्रांत झाले, सभागृही…!

 

विनम्र त्या, सेवाभावे, धनू लिलया पेलले

लाखो नेत्र विस्फारले, रामशौर्यी…..!

 

कडाडत्या वज्राघाती, रामे प्रत्यंचा लावली

टणत्कारे थरारली, वसुंधरा…!

 

बलशाली त्या धनुचे, दोन तुकडे करुन

पण घेतला जिंकून, रामचंद्रे….!

 

अचंबित प्रजाजन, हादरले नृपवर

राम जिंके स्वयंवर , अकस्मात…!

 

राजगृही शंखनाद, झाला आनंदी आनंद

लज्जा कमलाचे कंद, सीतानेत्री…!

 

अधोवदनी सीतेचे, मोहरले तनमन

आला सौभाग्याचा क्षण, स्वयंवरे…!

 

घेऊनीया हाती माला, सीता घाली वरमाला

राम जानकीचा झाला, भाग्यक्षण…!

 

याचं लग्न मंडपात, श्रृतकीर्ती भगिनीचे

उर्मिला नी मांडवीचे, लग्न झाले.

स्वयंवर जानकीचे, रामचंद्र जिंके पण

अलौकिक दिव्य क्षण, अंतर्यामी….!

(एक अलौकिक साहित्य निर्मिती आज खुली करीत आहे. ओवीबद्ध रामायण या खंडकाव्य लवकरच प्रकाशित होईल. आपले अभिप्राय अपेक्षित आहे. काही चुक असेल तरी मोकळेपणाने सांगा. संपूर्ण रामायण दीड हजार ओव्यांचे आहे. त्यांतील सीता स्वयंवर प्रसंग प्रस्तुत आहे.)

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गृहिणीची कमाई… सुश्री सुमन नासागवकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गृहिणीची कमाई… सुश्री सुमन नासागवकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

एक दिवस एक उच्चशिक्षित नवरा आपल्या बायकोला  भाषण देत होता, “पैसे कमव आणि मग तुला कळेल  की पैसा कसा खर्च करावा.मी तुला आज एक दिवस देतो. घराच्या बाहेर पड आणि बघ किती स्पर्धा चालू आहे. काहीतरी प्रयत्न कर काम शोधण्यासाठी”…..आणि तीही एक शिक्षित बायको, एक आई आणि एक सून होती.

ती बाहेर निघाली आणि दिवसभर फिरत राहिली.. इकडे जा, तिकडे जा आणि मग तिच्या लक्षात आले, ‘अरे हो. खरंच की. आपण ही पैसा कमावू शकतो. मग का आपण शिक्षित असूनही इतके दिवस घालवले?’

घरी आली. नेहमीप्रमाणे सासू सासऱ्यांना वेळेवर नाश्ता, जेवण, मुलांचा डबा, वेळेवर शाळेत पाठवणे , नवऱ्याला डबा, त्याचा आवडीचा नाश्ता, जेवण बनवले आणि खोलीत गेली.

नवरा आला आणि म्हणाला, ” काय मग? कळाले असेल आज, मार्केटमध्ये किती स्पर्धा चालू आहे आणि तू फक्त घरात बसलीयस.”

तिने काही न बोलता त्याला एक लिस्ट दिली. त्यात तिने घरात  घालवलेली अनेक व्यर्थ वर्षे व मार्केट मध्ये त्या कामांसाठी मोजावी लागणारी किंमत यांची यादी होती.

तिने सुरुवात  त्याच्याच आई-वडिलांपासून केली होती. ज्यावेळेस त्याने वाचायला सुरुवात केली, त्याला एकदम घाम फुटला.

  • सासू-सासऱ्यांची सेवा, ज्याला मार्केटमध्ये केअरटेकर म्हणतात. पगार – ₹20,000
  • मुलांचा सांभाळ आणि त्यांना संस्कार लावणे ज्याला मार्केटमध्ये बेबीसीटिंग म्हणतात. पगार ₹15000
  • घरातील पसारा जागेवर ठेवणे  आणि घर काम करणे ज्याला मार्केटमध्ये मेड म्हणतात.पगार ₹5000
  • आणि त्याच बरोबर सर्वांची आवडनिवड बघून सकाळ संध्याकाळ केलेला स्वयंपाक,ज्याला मार्केटमध्ये कूक म्हणतात.पगार ₹10000
  • घरात आलेल्या पाहुण्यांचा पाहुणचार ज्याला मार्केटमध्ये पाहुण्यांचे आदरातिथ्य करणारा होस्ट म्हणतात. पगार ₹5000 अशा प्रकारे तिने नवऱ्याकडे महिन्याच्या ₹55000 पगाराची मागणी केलेली होती.

मग त्याच्या डोळ्यातून हळू हळू अश्रूंच्या धारा वाहू लागल्या. ज्या व्यक्तीने स्वतःचा  कणभरही विचार न करता  माझ्या घराला वेळ दिला, तिची  किंमत मार्केटमध्ये शोधूनही न मिळणारी होती.

तात्पर्य एवढेच की ज्यावेळेस एक शिक्षित स्त्री घरात बसते त्यावेळेस ती खूप विचार करुन सगळं काही करत असते. एक आईच मुलांवर चांगले संस्कार करू शकते. त्यांच्याकडे चांगले लक्ष देऊ शकते.

गृहीत धरलेली प्रत्येक बायको ही एक जबाबदार सून, आई आणि बायको ह्यांचं कर्तव्य निस्वार्थपणे निभावत असते. त्यांना कमी लेखू नका.

लेखिका: सुमन नासागवकर, अमळनेर.

संग्राहिका :मंजुषा सुनीत मुळे.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 121 ☆ टीम बड़ी या नेतृत्व ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “टीम बड़ी या नेतृत्व। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 121 ☆

टीम बड़ी या नेतृत्व ☆ 

बहुत से लोग अपनी सशक्त टीम के बल पर शीर्ष पर पहुँचते हैं। बस यहीं से टीम टूटने लगती है उसके सदस्यों को लगता है कि यहाँ तक उन्होंने पहुँचाया है जबकि स्थिति इससे उलट होती है। सबसे महत्वपूर्ण कार्य विजन का होता है जो कि टीम लीडर ने किया है। उसके बाद लक्ष्य तय करना, योजना बनाना, उसे पूरा करने की सीमा तय करना, सदस्यों का चयन उनकी उपयोगिता के आधार पर, उनसे कार्य करवाना, दिशा निर्देशन देना। यहाँ तक कि हर छोटे- बड़े फैसले भी खुद लेना।

अब तक के कार्यों को देखें तो इसमें टीम ने क्या किया है ? दरसल ये सदस्य किसी एक कार्य के लिए चुने जाते हैं उसके पूरा होते ही इनका टूट कर बिखरना पहले से ही तय रहता है। जब टीम के सदस्य कार्य करते हैं तो उन्हें प्रोत्साहित करने हेतु कहा जाता है कि आप ने यह कार्य बहुत अच्छे से किया, ऐसा कोई कर नहीं सकता। बस यहीं से वो भ्रमित होकर अपने को सर्वे सर्वा समझने लगते हैं और खुद अलग होकर स्वतंत्र कम्पनी स्थापना कर बैठते हैं। अगर ध्यान से देखिए तो पता चलेगा कि टीम के सदस्यों ने केवल वही कार्य किया जो लीडर ने निर्धारित किया था। इनसे जो पहले से बनता था उतना आज भी बन रहा है। बस इनको ये भ्रम हो गया था कि इनके दम पर ये लीडर बना है।

ऐसा जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है, हम बिना स्वमूल्यांकन के अनजाने क्षेत्रों में कूद पड़ते हैं और बाद में हताश होकर अधूरे कार्यों के साथ दोषारोपण करते हैं। जरा सोचिए कि अलग- अलग होकर बिना मतलब का कार्य करने से कहीं अधिक अच्छा होता कि एक जुटता के साथ किसी बड़े लक्ष्य पर कार्य करते।

इस संदर्भ में एक प्रसंग याद आ रहा है कि एक संस्था प्रमुख ने अपने जन्मोत्सव को मनाने के लिए सभी साहित्यकारों को इकट्ठा किया और अपने अनुसार पूरे सात दिनों तक गुणगान करवाया। समय पास करने हेतु लोग मिल जाते हैं सो उन्हें भी मिल गए। खूब माला पहनी व पहनायी। अंत में भोजन की व्यवस्था भी थी सो हास- परिहास के साथ सब कुछ सम्पन्न हो गया।

जरा सोचिए कि जब बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे कार्यक्रमों में शामिल होकर अपने को जाया करेगा तो हम विश्व स्तर पर कैसे पहुँचेंगे, जब हमारा लक्ष्य ही आत्म केंद्रित हो जाएगा तो हिंदी का परचम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कैसे फहरा पायेंगे।

बात वहीं पर आकर ठहरती है कि जिस नेतृत्व में आप कार्य कर रहें उसे योग्य, दूरदर्शी व सबको साथ लेकर चलने वाला है या नही।

खैर कुछ भी करें पर करते रहिए। सार्थक कार्य आपको कभी न कभी शीर्ष पर विराजित करेगा किन्तु आलस्य सामान्य सदस्य भी बना रहने देगा या नहीं ये कहा नहीं जा सकता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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