(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – सिसकियाँ समझाएँगी…।)
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपके “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 155 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन
सागर का जल और उफ़नती लहरें मेरे लिए सदा आकर्षण का केंद्र रही हैं। देश -विदेश में कई स्थानों पर समुद्र तट देखने का आनंद मिला है पर जो सुख अपने देश के समुद्रतट पर खड़े रहकर आनंद मिलता है वह अतुलनीय है, वह अन्यत्र कहीं नहीं। हम भारतवासी भाग्यशाली हैं जो देश की तीन सीमाएँ समुद्र से घिरी हुई हैं ।
इस बार फिर एक बार गोवा आने का अवसर मिला। इस बार मन भरकर सागर के अथाह जल का आनंद लेने के लिए ही हम तीस वर्ष बाद फिर यहाँ लौट आए हैं। जवानी में गोवा आने पर हिप्पियों के दर्शन हुए थे पर अब ढलती उम्र में आनंद की सीमा कुछ और थी। इस बार पूरा परिवार साथ में गोवा आया था। बेटियाँ, दामाद और नाती -नातिन! अहा कैसा सुखद अनुभव ! कहीं और नज़र न गई।
मैं अथाह जल को निहार रही थी । अस्ताचल सूर्य की किरणें जल में प्रतिबिंबित होकर जल को सुनहरा बना रही थीं। फ़ेनिल लहरें तट की ओर तीव्र गति से कदमताल करती हुई बढ़ती आ रही थीं जैसे स्कूल की घंटी बजते ही उत्साह और उमंग से परिपूर्ण होकर छात्र अपने घर की दिशा में दौड़ने लगते हैं। तट को छूकर लहरें मंद गति से समुद्र की ओर इस तरह लौटती हैं मानो गृह पाठ न करने की गलती का छात्र को अहसास है और उसने अपनी गति धीमी कर दी है। इन लौटती लहरों का सामना उफ़नती दौड़ती लहरों से होती है और वे फिर उनके साथ तट की ओर द्रुत गति से बढ़ने लगती हैं मानों गृहपाठ पूर्ण कर देने का मित्रों ने भार ले लिया हो! मन इस दृश्य से प्रसन्न हो रहा था। शिक्षक का मन सदा चहुँ ओर छात्रों को ही देखता है। मैं अपवाद तो नहीं।
मन-मस्तिष्क के भीतर भी तीव्र गति से कुछ हलचल- सा हो रहा था। मन लहरों के साथ दौड़ रहा था।
अचानक किसी ने कहा आओ न पानी में चलें… और मैंने अपने बचपन को पानी की ओर बढ़ते देखा। लहरें तीव्रता से आईं मेरे नंगे पैरों को टखने तक भिगोकर लौट गईं। पैरों के नीचे मुलायम, स्निग्ध, गीली रेत थी। लहरों के लौटते ही वे रेत खिसकने लगीं और ऐसा लगा जैसे मैं भी चल रही हूँ। यह मन का भ्रम था। मैं अब भी तटस्थ वहीं खड़ी थी पर मेरा मन मीलों दूर पहुँच चुका था।
मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने नृत्य कर रहा था। कभी पानी में लहरों के आते ही बैठ जाता तो कभी छलाँग मारने लगता। कभी सूखी लकड़ी के टुकड़ों को पानी में फेंकता तो कभी मरे हुए छोटे स्टार फिश को जीवित करने के उद्देश्य से लहरों की ओर फेंक देता। बचपन की सारी हरकतें आँखों के सामने रीप्ले हो रही थीं और मैं मोहित -सी खड़ी उसे निहार रही थी।
अचानक एक मधुर सी आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया और पास में रेत से मेरे ही पैर के चारों ओर किला बनने लगा। नन्हे हाथ रेत को हल्के हाथों से थपथपा रहे थे जैसे माँ अपने नन्हे बच्चे को थपथपाकर सुलाती है। फिर उस पर कुछ सूखी रेत डाली गई। आस- पास से छोटे बड़े शंख चुनकर सजाए गए। नारियल के पेड़ की एक सूखी डंठल को किले पर पताका के रूप में सजाया गया। मैं मूर्तिवत काफी समय तक वैसी ही खड़ी रही। फिर बड़ी सावधानी से मैंने अपना पैर निकाल लिया। किला मजबूत खड़ा था। दो नन्हे हाथ तालियाँ बजाने लगीं। एक मीठी सी किलकारी सुनाई दी।
सूर्यास्त हो रहा था, आसमान नारंगी छटा से भर उठा, फिर बादलों के टुकड़ों के बीच से हल्का गुलाबी रंग झाँकने लगा। फिर सब श्यामल हो उठा। अथाह सागर का जल कहीं अदृश्य- सा हो उठा केवल भीषण नाद करती हुई श्वेत लहरें निरंतर चंचल बच्चों की तरह इधर -उधर दौड़ती दिखाई देने लगीं। अचानक सागर की लहरें अंधकार में और अधिक द्रुत गति से तट की ओर बढ़ने लगीं, सफ़ेद, फ़ेनिल जल सुंदर और आकर्षक दिखने लगा थोड़ा भयावह भी! समस्त परिसर को कालिमा ने ग्रस लिया।
अब तक जिस तट पर ढेर सारे बच्चे व्यस्त से नज़र आ रहे थे, गुब्बारेवाले, रंगीन बल्ब, जलने बुझनेवाले लाल, पीले, हरे उछालते खिलौनेवाले, घंटी बजाकर साइकिल पर आइसक्रीम बेचनेवाले वे सब लौटकर चले गए। अब तट पर रह गई थी मैं और ढेर सारे किले। एकांत – सा छा गया। वातावरण ठंडी हवा से भर उठा और तेज़ लहरों की ध्वनि नाद मंथन करती हुई और स्पष्ट हो उठी।
अचानक एक ऊँची लहर ने मेरे घुटने तक आकर मुझे तो भिगा ही दिया साथ ही साथ मेरी तंद्रा भी टूटी और नन्हे हाथ से बने उस किले को लहरें बहाकर ले गईं। अब रात भर ढूँढ़-ढूढ़कर लहरें तट पर बनी बाकी सभी किलों को तोड़ देंगी। कितना कुछ लिखा, बनाया गया था रेत की इस समतल भूमि पर ! कितनी आकृतियों ने अपना सौंदर्य बिखेर दिया था यहाँ ! अब सब मिट जाएगा। दूसरे दिन प्रातः फिर एक स्वच्छ सपाट तट यात्रियों को फिर तैयार मिलेगा।
किसी मधुर, मृदुल स्वर ने मुझे पुकारा, नानी चलो न अंधेरा हो गया ……
मेरे बचपन ने फिर एक बार मेरी उँगलियाँ थाम लीं। सुखद, भावविभोर करनेवाले अनुभव संजोकर मैं होटल के कमरे में लौट आई।
नीरवता से कोलाहल के जगत में। संभवतः जीवित रहने के लिए इन दोनों की आवश्यकता होती है। वरना जीवन नीरस बन जाता है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “गीता हिन्दू धर्म की ही नहीं मानव की शाश्वत मार्गदर्शक… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 318 ☆
आलेख – गीता हिन्दू धर्म की ही नहीं मानव की शाश्वत मार्गदर्शक… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
श्रीमद्भगवतगीता अध्यात्म ज्ञान और जीवन शैली सिखाने वाला विश्व विख्यात अनुपम ग्रंथ है। गीता के अध्ययन और मनन से व्यक्ति आत्म शांति का अनुभव कर सकता है। जीवन को सुखी बना सकता है।
योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को निष्ठापूर्वक कर्म करके अपने जीवन को सफल करने का जो महत्वपूर्ण उपदेश ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन्’ दिया । यह जीवन के मूल को समझने और व्यवहार करने का शाश्वत सूत्र है। रणभूमि में अर्जुन के हताश मन में नई स्फूर्ति और ओज भरने को कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया था। इस बहाने सारी मनुष्य जाति को जीवन-समर को सही रीति से जीतने का अमर मंत्र ही गीता में है। इस तरह गीता हिन्दू धर्म विशेष की नहीं वैश्विक मूल्य की कृति है। इसीलिए दुनियां की लगभग सभी भाषाओं में गीता प्रस्तुत की जा चुकी है। इसके भाष्य और विवेचन निरन्तर विद्वानों द्वारा किए जाते हैं । गीता पर प्रवचन लोग रुचि से सुनते हैं।
द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के समय आज से कोई पांच हजार वर्ष पूर्व कुरूक्षेत्र के रणांगण में उस समय गीता कही गई , जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओं को मिल चुके थे। श्रीमद्भगवदगीता के प्रथम अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। यथा युद्ध के वाद्यो का बजना, समस्त प्रकार के नादों का गूंजना, यहाँ तक कि तत्कालीन (द्वापर युग के) महानायक भगवान श्री कृष्ण के शंख “पांचजन्य” का उद्घोष, यह सब युद्धारंभ के स्पष्ट संकेत थे।
आज भी दुनियां कुछ वैसे ही कोलाहल , असमंजस और किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में है। मानव मन जीवन रण में छोटी बड़ी परिस्थितियों में सदैव इसी तरह की उहापोह में डोलता रहता है। इसलिए गीता सर्वकालिक सर्व प्रासंगिक बनी हुई है।
श्रीमदभगवदगीता का भाष्य ही वास्तव में “महाभारत” है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता को महाभारत के प्रसंगों में पढ़ना और हृदयंगम करना आवश्यक है। महाभारत तो विश्व का इतिहास ही है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षों को व्यवस्थित ढंग से समझा जा सकता है।
अनेक विद्वानों के गीता के हिंदी अनुवाद के क्रम में हिंदी काव्य में छंद बद्ध सरस पदों में प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध ने भी इसका पद्यानुवाद किया है जिसे पढ़कर गीता को सरलता से समझा व आत्मसात किया जा सकता है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय हृदयस्पर्शी लघुकथा “सिल्वर जुबली यादें”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 211 ☆
🌻लघुकथा🌻 🌧️ सिल्वर जुबली यादें 🌧️
अभी कुछ महीने पहले ही 25वीं शादी की सालगिरह मनाते दोनों पति-पत्नी ने एक दूसरे को सोने में जड़ी हीरे की अंगूठी पहनाई थी।
खुशी का माहौल दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था। क्योंकि बिटिया की शादी की तैयारी चल रही थी, मेहमानों का आना-जाना लगा था। सारी व्यवस्था एक होटल से ही की गई थी क्योंकि बारात और लड़के वालों ने एक ही साथ मिलकर शादी समारोह की व्यवस्था की थी।
घर में कहने को तो सभी पर केवल पैसे से खेलने, पैसों से बात करने, और पैसों से ही सारी व्यवस्था करना, सबको अच्छा लग रहा था।
बिटिया के पिताजी का बैंक बैलेंस शून्य हो चुका था। फरमाइश को पूरा करते-करते अब थकने लगे थे। होटल में कुछ ना कुछ सामान बढ़ते जा रहा था। एडवांस के बाद भी होटल मैनेजर बड़ी बेरुखी से बोला- सर अभी आप तुरंत पैसों का इंतजाम कीजिए नहीं तो इसमें से कुछ आइटम कम करना पड़ेगा।
उसने अपने सभी रिश्तेदारों के बीच अपनी बदनामी को डरते इशारे से अभी आता हूँ कह लार चले गए। पत्नी को समझते देर न लगी। आगे- पीछे देखती रही। पति आँख बचाकर ज्योंही मैनेजर के केबिन में आकर अपनी अंगूठी उतार देते हुए कहने लगे – यह अंगूठी अभी-अभी की है। फिलहाल आप गिरवी के तौर पर इसे रखिए क्योंकि मैं तुरंत पैसे का इंतजाम नहीं कर सकूंगा। पीछे से पत्नी ने अपने अंगूठी उतार देती बोली- मैनेजर साहब यह दोनों अंगूठी बहुत कीमती है। यह रही रसीद।
आप चाहे तो दुकानदार से पल भर में पता लगा लीजिए। परंतु सारी व्यवस्था रहने दीजिए। पतिदेव पत्नी का रूप देख कुछ देर सशंकित रहे, परंतु बाद में धीरे से कंधे पर हाथ रखते हुए बोले- हमारी सिल्वर जुबली यादें तो हमारे साथ है।
अभी वक्त है हमारी बिटिया के पारंपरिक जीवन का, शादी विवाह का।
मैनेजर भी हतप्रभ था। ड्यूटी से बंधा था। भींगी पलकों से रसीद और अंगूठी उठाकर रखने लगा। सोचा क्या ऐसा भी होता है?
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 111 ☆ देश-परदेश – रंगों की दुनिया ☆ श्री राकेश कुमार ☆
बचपन में लाल, हरा, नीला, काला, पीला और सफेद रंग ही सुने और देखे थे। वो तो बाद में भूरा, ग्रे आदि को समझा था।
आरंभ में नए रंगों का ईजाद पशु पक्षियों या सब्जी फल के नाम से जाने जाना लगा था। गुलाबी को गाज़री रंग कहने लगे थे, बाद में कपड़े वालों ने जबरदस्ती कपड़े बेचने के लिए गुलाबी और गाजरी को अलग रंग बना दिया था। हरा और तोते के रंग को भी अलग अलग मान्यता मिल चुकी हैं। मूंगे रत्न से भी एक नया रंग पैदा हो गया हैं।
ये सब छोड़िए सबसे आसान रंग सफेद और काला रंग की भी फैमिली बन चुकी हैं। काले में टेलीफोन ब्लैक, जेड ब्लैक, तवा ब्लैक ना जाने कितनी शाखाएं बन चुकी हैं। व्हाइट में भी स्नो व्हाइट, ऑफ वाइट, मून वाइट, क्रीमी वाइट ना जाने कितने रंग इन कपड़े और पेंट कंपनियों ने बना डाले हैं।
हमारे देश की महिलाएं स्वयं के बनाए हुए रंग भी बहुत पसंद करती हैं। कत्थे, भूरा रंग को कोकाकोला या काफी रंग कहना हो या फिर नारंगी रंग को फेंटा कलर के नाम से वस्त्र खरीद कर ये कहना ये ही कलर सबसे अधिक फैशन में हैं।
ऊपर की फोटो को पढ़ कर एक मित्र जो सूरत से साड़ियों मंगवा कर बेचता है का फोन आया। उसने कुछ प्रसिद्ध कॉफी शॉप के नाम लेकर कहा कि आज वहां चलकर कॉफी की फोटो खींचेंगे और पियेंगे भी, जिस कॉफी का रंग सबसे अच्छा और आकर्षित होगा, उसकी फोटो को सूरत भेज कर उसी रंग की साड़ियां मंगवाकर 2025 में अग्रणी रहेंगे। किसी को इस बाबत बताना नहीं, पूरे बाजार में इस नए रंग “मोचा मुस” की मार्केटिंग कर “पांचों अंगुलियां घी में” कर लेंगे।
आप लोग भी बाज़ार जाकर मोचा मुस रंग की पैंट/ शर्ट पहनकर 2025 फैशन के ब्रांड एंबेसडर बन सकते हैं।
पहाटेच्या प्रसन्न प्रहरी पप्पा ज्ञानेश्वरीतील ओव्या सुरेल स्वरात गात. सहजपणे साखर झोपेत असताना सुद्धा आमच्या कानावर त्या अलगद उतरत. नकळतपणे असं कितीतरी आमच्या अंतःप्रवाहात त्यावेळी ते मिसळलं आणि आजही ते तसंच वाहत आहे. पप्पांच्या खड्या आवाजातलं सुस्पष्ट, नादमय पसायदान आणि त्या नादलहरी अशाच मधून मधून आजही निनादतात.
।।दुरितांचे तिमिर जावो
विश्व स्वधर्म सूर्ये पाहो
जो जे वांछील तो ते लाहो
प्राणीजात।।
खरोखरच माऊलीने मागितलेलं हे पसायदान किती अर्थपूर्ण आहे! यातला संदेश वैश्विक आहे. त्रिकालाबाधित आहे.
आज दिवाळी सारखा प्रकाशाचा सण साजरा करत असताना मनात असंखय विचारांचं जाळं विणलं जातं. दिवाळी म्हणजे उजळलेल्या पणत्या, रंगीत रांगोळ्या, वातावरणातला तम सारणारे कंदील, खमंग —मधुर फराळ, नवी वस्त्रे, गणगोतांच्या भेटी, आणि अनंत हार्दिक शुभेच्छा. आनंद, सुख समाधानाच्या या साऱ्या संकल्पना. पण या पलीकडे जाऊन विचार केला तर असं वाटतं कुठेतरी यात “मी” “ माझ्यातले अडकले पण” आहे फक्त. यात प्रवाहापासून लांब असलेल्या, वंचित, उपेक्षितांच्या जीवनातही आनंदाचा उजेड पडावा यासाठी काही केले जाते का आपल्याकडून ?अनोख्या चैतन्याने आणि मांगल्याने भारणारा हा सण आहे. पण या चैतन्य उत्सवाच्या तरंगात सर्वव्यापीपणा अनुभवास येतो का? आपण आपल्यातच मशगुल असतो. आपल्या पलीकडे काय चाललं आहे, इतर जन कोणत्या अवस्थेत आहेत याचा विचार सहसा आपल्या मनाला स्पर्श करत नाही. आपल्या पलीकडल्यांचा विचार करणे हे या निमित्ताने गरजेचे वाटायला नको का? केवळ आर्थिक विषमतेच्या पातळीवरच नव्हे, तर मानसिक आधाराच्या दृष्टीनेही ते गरजेचे आहे. आनंद सुख समाधानाचे भाव केवळ आपल्या आपल्यातच अनुभवण्यापेक्षा विवंचनेत असणाऱ्या, परिस्थितीने गाजलेल्या, वंचित, उपेक्षित कारणपरत्वे कुटुंबाने व समाजानेही नाकारलेल्या, टाकलेल्या व्यक्तींच्या जीवनातले काही क्षण या सणाच्या निमित्ताने आपण उजळण्याचा का प्रयत्न करू नये?
माझ्या मनात बालपणापासून जपलेली एक आठवण आहे. खरं म्हणजे आज त्या आठवणीला मी एक संस्कार म्हणेन. बाळपणीच्या त्या दिवाळ्या स्मरणातून जाणे ही अशक्य बाब आहे. एका गल्लीतलं एकमेकांसमोर असलेल्या एक खणी दोन खणी घरांच्या वस्तीतलंच आमचंही घर. तिथली माणसं, तिथलं वातावरण, तिथले खेळ, सण, विशेषता दिवाळीची रोषणाई, पायरीवरच्या मंद पणत्या, ओटीवरच्या रांगोळ्या आणि एकमेकांच्या घरी जाऊन केलेले फराळ हे सतत फुलबाजी सारखे मनात उसळत असतात. पण या साऱ्या आनंदाच्या उन्मादात एक आकृती मात्र विसरता येत नाही. वृद्ध, थकलेल्या गात्रांची, घरासमोरच्या काशीबाईच्या घराच्या बाहेरच्या ओसरीवर कधीतरी कुठून तरी आश्रयाला आलेली— नाव, गाव, स्थान, जात धर्म कशाचीच माहिती नसलेली एक उपेक्षित वृद्ध अनामिका. पण अभावितपणे ती या गल्लीची कधी होऊन गेली हे कळलेच नाही आणि कुठलाही सण असो सोहळा असो गल्लीतली सगळी माणसं प्रथम तिचा विचार करायचे. पहिला फराळ तिला पोहोचवला जायचा. आम्ही गल्लीतली मुलं तिच्या पायरीवर पणत्या लावायचो. रांगोळ्या काढायचो. काशीबाईंनीही तिला तिचा ओसरीवरचा आश्रय कधीही हलवायला सांगितले नाही. या ऋणानुबंधाचा अर्थ तेव्हा कळत नव्हता पण त्या सुरकुतलेल्या अनामिकेवरच्या चेहऱ्यावरची आनंदाची लकेर आम्हाला खरा सणाचा आनंद द्यायची. आणि ती लकेर तशीच आजही मनात जपून आहे.
या सणानिमित्ताने भावंडात होणारी वाटणी कशाचीही असू दे, फराळाची, नव्या कपड्यांची. फटाक्यांची पण त्या सर्वांमधून बाजूला काढलेला एक सहावा हिस्सा असायचा. तो घरातल्या मदतनीसांच्या मुलांचा, रोज रात्री “माई” म्हणून हाक मारणाऱ्या त्या भुकेल्या याचकाचा, जंगलातून डोक्यावर जळणासाठी सालप्याचा भार घेऊन येणाऱ्या आदिवासी कातकरणीचा आणि घटाण्याच्या मागच्या गल्लीत वस्ती असलेल्या तृतीयपंथी लोकांचाही. त्यावेळी सहजपणे, विना तक्रार, विना प्रश्न होणाऱ्या या क्रियांचा विचार करताना आता वाटतं, वास्तविक तेव्हा हे उपेक्षित, वंचित, प्रवाहापासून दूर गेलेले कुणीतरी बिच्चारे म्हणून मुद्दाम का आपण करत होतो ? तेव्हा या विषमतेचा भावही नव्हता. तो केवळ एक रुजलेला उपचार होता. पण तरीही नकळत “कुणास्तव कुणीतरी” हा संस्कार मात्र मनावर बिंबवला गेला. या एका जीवनावश्यक सामाजिक संवादाची गुणवत्ता, आवशक्याता जाणली गेली हे मात्र निश्चित आणि पुढे वाढत्या वयाबरोबर हे पेरलेले बीज अंकुरित गेलं. साजरीकरणाकडे डोळसपणे, अर्थ जाणून आणि मन घालून कृती करण्याची एक सवय लागली.
इनरव्हील क्लब ची प्रेसिडेंट या नात्याने आम्ही दिवाळी सणांचे काही उपक्रम राबवत असू. वृद्धाश्रमातील फराळ भेट हा एक अत्यंत हृद्य कार्यक्रमअसायचा. रिमांड होमच्या मुलांबरोबर तिथेच फराळ बनवण्याचा कार्यक्रम असायचा, तसेच रांगोळ्या फटाके वाजवणे अशी धम्माल त्या मुलांबरोबर करताना खरोखरच एक आत्मिक समाधान अनुभवले. तांबापुरा वस्तीत घरोघरी जाऊन पणत्यांची रोषणाई केली, फराळ वाटप केले, कपडे, शाली त्यांना दिल्या आणि हे संवेदनशील मनाने केले. केवळ पेपरात फोटो येण्यासाठी नक्कीच नव्हे. रोटरी, इनरव्हील तर्फे आजही या सणांचं हे भावनिक बांधिलकीच रूप पाहायला मिळतं. शिवाय समाजात “एक तरी करंजी” सारख्या तरुणांच्या संघटना आहेत, जे स्वतः आदिवासी पाड्यावर जाऊन त्यांच्या समवेत दिवाळी हा सण धुमधडाक्यात साजरा करतात. या दृष्टीने दिवाळी ही मला नेहमीच महत्वाची वाटत आली आहे.
कविवर्य ना. धो. महानोर एकदा सहज म्हणाले होते,
मोडलेल्या माणसाचे
दुःख ओले झेलताना
त्या अनाथांच्या उशाला
दीप लावू झोपताना
अमळनेरला माझ्या सासरी पाडव्याच्या दिवशी घरातले सर्व पुरुष प्रथम धोबीणी कडून दिवा उतरवून घेतात. तिला ओवाळणी देतात. खूप भावुक असतो हा कार्यक्रम. धोबीणी कडून दिवा उतरवून घेणे आजही शुभ मानले जाते. या प्रथा गावांमध्ये आजही टिकून आहेत. विचार केला तर असे वाटते, हर दिन त्योहार असलेल्यांसाठी हे सण नसतातच. ज्यांच्या घरी रोजची चूल पेटण्याची विवंचना असते त्यांच्यासाठीच या सणांचं महत्त्व असतं आणि म्हणून सण साजरा करताना त्यांची आठवण ठेवून काही करण्यात खरा आनंद असतो
दिवाळीच असं नव्हे तर कुठलाही सण साजरा करताना अगदी सहज आठवण येते ती निराधार, बेघर, रस्त्यावर झोपणाऱ्या असंख्य लोकांची. भविष्याचा अंधकार असणाऱ्या, उघड्या नागड्या उपासमारीत वाढणाऱ्या मुलांची, दुष्काळामुळे हातबल झालेल्या शेतकऱ्याची, जन्मठेपेची शिक्षा भोगणाऱ्या कैद्यांची, शरीराचा बाजार मांडणार्या लालबत्ती भागातल्या असाहाय्य, पीडित, लाचार स्त्रियांची, कुटुंबाने नाकारलेल्या लोकांची, सीमेवर राष्ट्रासाठी स्व सुखाकडे पाठ फिरवून प्राणपणाने थंडी, वारा, ऊन पावसाची पर्वा न करता सीमेचं रक्षण करणार्या सैनिकांची, त्यांच्या कुटुंबीयांची, अनाथ —अपंगांची, सुधार गृहात डांबलेल्या, विस्कटलेल्या मुलांची. कोण आहे त्यांचं या जगात? त्यांच्या जीवनात आनंद निर्माण करण्याची कोणाची जबाबदारी? या समाज देहाचा तोही एक अवयवच आहे ना मग एक तरी पणती त्यांच्या दारी आपण लावूया. स्नेहाची, अंधार उजळणारी.
एक तरी करंजी त्यांना देऊया. एक मधुर, भावबंध साधणारी.
एक फुलबाजी त्यांच्यासमवेत लावूया. ज्याने त्यांच्याही चेहऱ्यावर हास्याची कारंजी उसळतील.
नकारात्मक बाबींच्या अंधकारावर प्रकाशाचे असे चांदणे पेरूया.
आपल्या भोवती असंख्य अप्रिय घटनांचा काळोख पसरलेला असला तरी अवघे विश्व अंधकारमय नाही. सत्याचे, दातृत्वाचे, चांगुलपणाचे, सृजनशीलतेचे असंख्य हात समाजात कार्यरत आहेत. जे पणती म्हणून सभोवतालचा अंधकार छेडण्याचे कार्य करत आहेत. आपणही अशीच त्यांच्यातली एक मिणमिणती पणती होऊया. तिथे जाणीवांचा, संवेदनाचा उजेड पेरूया..
बाळपणी झालेल्या संस्काराच्या या ज्योतीला असेच अखंड तेवत राहू दे !