आलेख – शाहरुख हैदर की चर्चित कविता “मैं एक शादी शुदा औरत हूं” पर सोचते हुए…
शाहरूख हैदर ईरान की शायरा हैं। उनकी यह नज्म ”मैं एक शादीशुदा औरत हूं”, कई देशों में समाज के आधे हिस्से के प्रति लोगों का नजरिया बताने को काफी है।
आप यह कविता हिन्दी कविता के फेसबुक वाल पर इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं 👉 “मैं एक शादी शुदा औरत हूँ”
महिलाओ को समाज का आधी आबादी कहा जाता है, पर मेरा मानना है की वे आधी से कहीं अधिक हैं, क्योंकि पुरुष का वजूद ही उनके बिना शून्य है, बच्चो का जन्म उनका लालन पालन, परिवार संस्था का अस्तित्व सब कुछ स्त्री पर ही निर्भर है, इसलिए स्त्री आधी से ज्यादा तवज्जो की हकदार है। किंतु दुनिया के अनेक हिस्सों में हालत वास्तव में कैसे हैं, यह बात रेखांकित करती है यह कविता। सिहरन होती है, रोंगटे खड़े करती है यह बेबाक बयानी। इसे हर लड़की और औरत को ही नहीं हर इंसान को कम से कम एक बार तो जरूर पढ़ना चाहिए, ये जानने के लिए ही सही कि, दुनिया के बाकी हिस्से में औरतों का क्या हाल है! संसार की हर औरत का हाल कमोबेश एक जैसा ही है। ये नज्म कम बल्कि एक तहरीर है औरत की, मर्दवादी समाज के खिलाफ। जिसमें सरहदों की हदें मायने नहीं रखती। हर मुल्क की सीमाओं में औरतों की चीखें गूंजती हैं। अंधेरा ही नहीं बल्कि दिन का उजाला भी डराता है। जब शादी शुदा औरत की यह दुर्दशा है जिसका एक अदद शौहर कथित रूप से उसकी रक्षा के लिए मुकरर्र है, तो फिर स्वतंत्र स्त्री की दुर्दशा समझना मुश्किल नहीं है।
हमारा देश तो लोकतंत्र है, यहां तो वुमन लिबर्टी के पैरोकार हैं पर यहां का हाल भी देख लीजिए। हर रोज गैंगरेप की खबरें, दुष्कर्म के बाद हत्या और छेड़खानियां आम हैं। राजनीति में कोई कहता है की स्त्री को बुरके में या घूंघट में कैद कर रखो, कोई बलात्कारियों को उनकी उम्र की गलती बता कर माफ करना चाहता है, तो कोई कहता है की बलात्कार पर फांसी की सजा के चलते स्त्रियों की हत्या होती है। क्या वजह है कि आज स्त्रियों के प्रति व्यवहार सुधारने का आव्हान करना पड़ रहा है ?
क्यों एक लड़की अपने से छोटे भाई का हाथ थामे भीड़ में खुद को सुरक्षित महसूस किया करती है ?
यह सारा परिदृश्य सुधारना होगा, और साहित्य को इसमें अपनी भूमिका निभाना है। शाहरुख हैदर की यह कविता महज किसी एक देश में स्त्रियों के हालत ही नहीं बताती इसके सॉल्यूशन भी बताने हैं। मलाला युसूफजई की तरह कुछ ग्राउंड पर करना है, जाने कितने नोबल प्राइज बांटे जाने हैं, पर कोई काम तो किए जाएं जिनसे हालात बदल जाएं और शादी शुदा औरत ही नहीं सारी स्त्री जात, इंसान के रूप में स्वीकार की जाएं।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈