हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 177 ☆ शाहरुख हैदर की चर्चित कविता ” मैं एक शादी शुदा औरत हूं ” पर सोचते हुए… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – शाहरुख हैदर की चर्चित कविता ” मैं शादी शुदा औरत हूं ” पर सोचते हुए…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 177 ☆  

? आलेख – शाहरुख हैदर की चर्चित कविता “मैं एक शादी शुदा औरत हूं” पर सोचते हुए… ?

शाहरूख हैदर ईरान की शायरा हैं। उनकी यह नज्म ”मैं एक शादीशुदा औरत हूं”, कई देशों में समाज के आधे हिस्से के प्रति लोगों का नजरिया बताने को काफी है।

आप यह कविता हिन्दी कविता के फेसबुक वाल पर इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं 👉  “मैं एक शादी शुदा औरत हूँ”

महिलाओ को समाज का आधी आबादी कहा जाता है, पर मेरा मानना है की वे आधी से कहीं अधिक हैं, क्योंकि पुरुष का वजूद ही उनके बिना शून्य है, बच्चो का जन्म उनका  लालन पालन, परिवार संस्था का अस्तित्व सब कुछ स्त्री पर ही निर्भर है, इसलिए स्त्री आधी से ज्यादा तवज्जो की हकदार है। किंतु दुनिया के अनेक हिस्सों में हालत वास्तव में कैसे हैं, यह बात रेखांकित करती है यह कविता। सिहरन होती है, रोंगटे खड़े करती है यह बेबाक बयानी। इसे हर लड़की और औरत को ही नहीं हर इंसान को कम से कम एक बार तो जरूर पढ़ना चाहिए, ये जानने के लिए ही सही कि, दुनिया के बाकी हिस्से में औरतों का क्या हाल है!  संसार की हर औरत का हाल कमोबेश एक जैसा ही है।  ये नज्म कम बल्कि एक तहरीर है औरत की, मर्दवादी समाज के खिलाफ। जिसमें सरहदों की हदें मायने नहीं रखती। हर मुल्क की सीमाओं में औरतों की चीखें गूंजती हैं। अंधेरा ही नहीं बल्कि दिन का उजाला भी डराता है। जब शादी शुदा औरत की यह दुर्दशा है जिसका एक अदद शौहर कथित रूप से उसकी रक्षा के लिए मुकरर्र है, तो फिर स्वतंत्र स्त्री की दुर्दशा समझना मुश्किल नहीं है।

हमारा देश तो लोकतंत्र है, यहां तो वुमन लिबर्टी के पैरोकार हैं पर यहां का हाल भी देख लीजिए। हर रोज गैंगरेप की खबरें, दुष्कर्म के बाद हत्या और छेड़खानियां आम हैं। राजनीति में कोई कहता है की स्त्री को बुरके में या घूंघट में कैद कर रखो, कोई बलात्कारियों को उनकी उम्र की गलती बता कर माफ करना चाहता है, तो कोई कहता है की बलात्कार पर फांसी की सजा के चलते स्त्रियों की हत्या होती है। क्या वजह है कि आज स्त्रियों के प्रति व्यवहार सुधारने का आव्हान करना पड़ रहा है ?

क्यों एक लड़की अपने से छोटे भाई का हाथ थामे भीड़ में खुद को सुरक्षित महसूस किया करती है ?

यह सारा परिदृश्य सुधारना होगा, और साहित्य को इसमें अपनी भूमिका निभाना है। शाहरुख हैदर की यह कविता महज किसी एक देश में स्त्रियों  के हालत ही नहीं बताती इसके सॉल्यूशन भी बताने हैं। मलाला युसूफजई की तरह कुछ ग्राउंड पर करना है, जाने कितने नोबल प्राइज बांटे जाने हैं, पर कोई काम तो किए जाएं जिनसे हालात बदल जाएं और शादी शुदा औरत ही नहीं सारी स्त्री जात, इंसान के रूप में स्वीकार की जाएं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 124☆ बाल रचना – कृष्णावतार और मुन्ना जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 124 ☆

☆ बाल रचना – कृष्णावतार और मुन्ना जी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

 (बच्चों के लिए रचना कैसे हुआ भगवान कृष्ण का जन्म ?) 

बोला मुन्ना मात से , कृष्ण लिए अवतार।

कैसे जन्मे कृष्ण जी , मुझे बताओ सार ।।

 

सुनो पुत्र पावन कथा, श्री कृष्ण  भगवान।

अपने ही वरदान से , दिया देवकी – मान।।

 

उग्रसेन ने पुत्र का , नाम रखा था कंस।

अतिशय ही वह क्रूर था, देता सबको दंश।।

 

उग्रसेन राजा हुए, मथुरा ब्रज के धाम।

वे उदार प्रभु भक्त थे, करते जनहित काम।।

 

उग्रसेन के भ्रात थे, देवक उनका नाम।

पुत्री उनकी देवकी, जने उसी ने श्याम।।

 

हुआ ब्याह वसुदेव से, जो कुंती के भ्रात।

मंत्री मथुरा राज के, बँधी देवकी साथ।।

 

विदा हुई जब देवकी, रथ को हाँके कंस।

बहुत खुशी था आज वह, जैसे मानस हंस।।

 

रथ लेकर आगे बढ़ा , आई यह आवाज।

कंस काल सुत आठवाँ, छीने तेरा ताज।।

 

जैसे ही उसने सुना, बहना का सुत काल।

गुस्से में वह भर गया, हुआ चेहरा  लाल।।

 

तुरत – फुरत वापस हुआ, डाला उनको जेल।

जंजीरों में जकड़कर , नहीं करा फिर मेल।।

 

उग्रसेन क्रोधित हुए , किया कंस प्रतिरोध।

कंस न माना एक भी, भूल गया सब बोध।।

 

कैद किए अपने पिता, डाला कारागार।

मद , घमण्ड में भूलकर , खूब किया प्रतिकार।।

 

राजा मथुरा का बना, बढ़ गए अत्याचार।

मनमानी वह नित करे, बढ़े पाप के भार।।

 

भद्र अष्टमी व्योम घन, छाईं खुशी अपार।

मातु देवकी गर्भ से , हुआ कृष्ण अवतार।।

 

पुत्र आठवें कृष्ण थे, सत्य हुई यह बात।

बरसे जमकर मेघ तो, थी अँधियारी रात।।

 

ताले टूटे जेल के , हुआ कृष्ण अवतार।

प्रहरी सोए नींद में, मातु कर रही प्यार।।

 

वासुदेव गोकुल चले, सुत को लेकर साथ।

शेषनाग अवतार ने , ढका कृष्ण का गात।।

 

यमुना जी भी घट गईं, किया कृष्ण को पार।

घर आए वह नन्द के, प्रभु की कृपा अपार।।

 

लिटा पलँग पर कृष्ण को, हो वसुदेव निहाल।

प्रभु की लीला चल रही, अदभुत मायाजाल।।

 

मातु यशोदा नींद में , रिमझिम है बरसात।

बेटी उनकी साथ ले, लौटे रातों – रात।।

 

जन्मे माता रोहिणी , सुंदर से बलराम।

जग में प्यारे नाम हैं, बलदाऊ औ’ श्याम।।

 

धन्य यशोदा हो गईं , पाकर के गोपाल।

गोकुल में खुशियाँ बढ़ीं, उच्च नन्द का भाल।।

 

अत्याचारी कंस के , बढ़े पाप आचार।

चली एक कब कंस की, ईश लिए अवतार।।

 

बलदाऊ सँग कृष्ण ने, किए अनेकों खेल।

गोकुल रसमय हो गया, बढ़ा प्रेम अरु मेल।।

 

गाय चराईं कृष्ण ने, ग्वालों के नित संग ।

कभी चुराते मधु , दही , सभी देखकर दंग।।

 

मिश्री , माखन, दही प्रिय, उनको भाए खूब।

रोज करें नाटक नए , कभी न आए ऊब।।

 

हँस – हँस बीता बालपन, किए चमत्कृत काम।

देख चकित गोकुल हुआ, मनमोहन – बलराम।।

 

कंस किया मलयुद्ध को, मिला निमंत्रण श्याम।

साथ – साथ दोनों चले, कृष्ण और बलराम।।

 

छोटे से ही कृष्ण ने, मल्ल भी दिए पछाड़।

अत्याचारी कंस को, दिया उसी दिन मार।।

 

कैद से छूटे मातु – पित, और नानु उग्रसेन।

खुशियाँ घर – घर बढ़ गईं, प्रेम में भीगे नैन।।

 

मातु देवकी खुश बहुत, और पिता वसुदेव।

कृष्ण सभी को प्रिय हैं, हैं देवों के देव।।

 

मुन्ना भी खुश बहुत था, सुनकर कृष्णावतार।

भक्तों का करते रहे, सदा कृष्ण उद्धार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #123 – कान्हा…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 123 – कान्हा…! ☆

कान्हा वेणू नाद काळजात असा

दिसतोस जसा घननीळ…!

 

कान्हा भाव रंग येई आठवण

सुखाची पेरण जन्मांतरी….!

 

कान्हा शब्द श्वास कवितेत येतो

अंतरी राहतो चिरंतन….!

 

कान्हा तुझा मित्र भक्ती निजरूप

उधळीला धूप जीवनाचा…!

 

कान्हा जन्मोत्सव आनंद स्वरूप

कृष्णमय रूप डोळ्यांमध्ये ..!

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#147 ☆ हो यथार्थ पर ध्यान… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके कुछ यथार्थवादी दोहे  हो यथार्थ पर ध्यान…”)

☆  तन्मय साहित्य # 147 ☆

☆ हो यथार्थ पर ध्यान… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

यश-अपयश के बीच में, बहती जीवन धार।

निश्छल मन करता रहे,  जीव मात्र से प्यार।।

 

अति वर्जित हर क्षेत्र में, अति का नशा विचित्र।

अति से  दुर्गति ही  सदा,  छिटके सभी सुमित्र।।

 

कब बैठे सुख चैन से, नहीं  किसी को याद।

कल के सुख की चाह में, आज हुआ बर्बाद।।

 

फुर्सत मिलती है कहाँ, सबके मुख यह बोल।

बीते  समय  प्रमाद में,  कहाँ समय का मोल।।

 

फैल रही चारों तरफ, यश की मुदित बयार।

पेड़ सहेगा क्यों भला, म्लान पुष्प का भार।।

 

ज्यों-ज्यों खिलता पुष्प है, महके रस स्वच्छंद।

रसिक भ्रमर  मोहित  हुए,  पीने को  मकरंद।।

 

कागज के सँग कलम का, है अलिखित अनुबंध।

प्रीत  पगी   स्याही  मिले,  महके   शब्द   सुगंध।।

                    

आदर्शों की  बात अब,  करना है  बेकार।

छल-छद्मों से घिर गए, हैं आचार-विचार।।

 

सजा मिले सच बोलते, झूठों की जय कार।

हवा  भाँपकर  जो चले, उसका  बेड़ा  पार।।

 

जाति धर्म औ’ पंथ के, भेदभाव  को  त्याग।

समता भावों में छिपा, जीवन-सुख अनुराग।।

 

चिह्न  समय की  रेत पर, बनते मिटते मौन।

पल-पल परिवर्तन करे, वह अबूझ है कौन।।

 

कौन भरे रस नारियल, सरस संतरे, आम।

एक बीज हो सौ गुना, है ये किसका काम।।

 

बुद्धि विलास बहुत हुआ,  तजें कागजी ज्ञान।

कुछ पल साधे मौन को, हो यथार्थ पर ध्यान।।

 

खुद ही खुद को छल रहे, बन कर के अनजान।

भटक रहे  हैं  भूल कर,  खुद की  ही  पहचान।।

 

अहंकार मीठा जहर, नई-नई नित खोज।

व्यर्थ लादते गर्व को, अपने सिर पर रोज।।

                      

अनुत्तरित हम ही रहे, जब भी किया सवाल।

हमें  मिली  अवमानना,  उनको  रंग  गुलाल।।

 

चमकदार    संवेदना,    बदल    गया   प्रारब्ध।

अधुनातन गायन रुदन, नव तकनिक उपलब्ध।।

 

हुआ अजीरण  बुद्धि का,  बढ़े घमंडी बोल।

आना है फिर शून्य पर, यह दुनिया है गोल।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 35 ☆ गीत – आज फिर तुमने रुलाया… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गीत  “आज फिर तुमने रुलाया… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 35 ✒️

? गीत – आज फिर तुमने रुलाया… — डॉ. सलमा जमाल ?

आज फिर तुमने रुलाया।

मुझसे बिछुड़ा मेरा साया।।

 

है अमावस का अंधेरा,

देर से होगा सवेरा,

झींगुरों ने लय बद्ध होकर,

सोये भावों को जगाया।

आज फिर —————-।।

 

बादलों की गड़गड़ाहट,

उस पर पवन की सरसराहट,

उजड़ न जाए नीड़ साथी,

था जतन से हमने बनाया।

आज फिर —————-।।

 

क्या कहा तुमने अभी,

समझूं तुम्हें मैं अजनबी,

सात जन्मों के बंधन को,

कटु शब्दों ने क्षण में भुलाया।

आज फिर —————-।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 45 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला  “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ व्यंग्य  # 45 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

चमत्कारी प्रशिक्षु: किस्सा इंदौर प्रशिक्षण केंद्र का है. वाकया उस वक्त का जब हर सत्र के दौरान विषय से संबंधित “हेंड आउट्स” सभी पार्टिसिपेंट्स को वितरित किये जाते थे. यह चमत्कारी युवा बड़ी शिद्दत से एक-एक हेंड ऑउट से अपना फोल्डर सजाता था. मजाल है कि एक भी कम हो जाये. पर फिर भी अविश्वास इतना कि कांउटिंग रोज होती थी. आज तक कितने हो गये. कभी कोई मजा़क में कह दे कि अरे तुम्हारे पास एक कम कैसे है, कौन सा पेपर नहीं है. फिर भारी टेंशन कि कौन सा वाला मिस कर दिया. किसी सहयोग करने वाले बंदे की शरण ली जाती, फुरसत में एक एक हैंड ऑउट, करेंसी की तरह टैली किये फिर पता चलता कि ये तो प्रैंक था.

उस जमाने में इंदौर कपडों के लिये भी प्रसिद्ध था तो रविवार उपलब्ध होने पर कपड़े भी खरीदे जाते. चमत्कारी युवक ने भी कपड़े खरीदे और कुछ ज्यादा ही खरीद लिये, लेटेस्ट फैशन और किफायती होने के कारण. अंतिम दिन जब पैकिंग की बारी आई तो ट्रेनिंग नोट्स के कारण फोल्डर भी भारी हो गया था. सूटकेस के बगावती तेवर सिर्फ एक ही ऑप्शन प्रदान कर रहे थे या तो तंदुरुस्त फोल्डर जगह पायेगा या नये कपड़े. और कोई दूसरा रास्ता था नहीं. वापसी की ट्रेन या बस जो भी रही हो, पकड़ने के लिये समय बहुत कम बचा था. निर्णय जल्दबाजी में, कुशल ज्ञानी सहपाठियों के सिद्धांत के आधार पर लिया गया. कपड़े छोड़े नहीं जा सकते क्योंकि मनपसंद और कीमती हैं. ज्ञान तो व्यवहारिक है, गिरते पड़ते सीख ही जायेंगें. फिर भी मन नहीं माना तो मेस के ही एक सेवक के पास अमानत के तौर पर रखवा दिये कि बहुत जल्दी फिर प्रशिक्षण पर आना ही है, इतनी जल्दी हम न सीखते हैं न ही सुधरते हैं. सेवक भी, प्रशिक्षण केंद्र में काम-काम करते-करते कोर्स से इतर विषयों में प्रशिक्षित हो गया था तो उसने हल्की मुस्कान से इन साहब के आदेश का पालन किया और अमानत में खयानत की भावना के साथ फोल्डर को अपना संरक्षण प्रदान किया.

वैसे जो फोल्डर लेकर जाते हैं, वे भी कितना पढ़ पाते हैं ये शोध का विषय हो सकता है या फिर confession का. 😀

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 147 ☆ गज़ल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 147 ?

☆ गज़ल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(वृत्त-मंजुघोषा)

(गालगागा  गालगागा गालगागा)

आज आला अंगणी हा धुंद श्रावण

वेड लावी साजणी हा धुंद श्रावण

 

पैठणीचा रंग माझ्या खास होता

भासला की बैंगणी हा धुंद श्रावण

 

अंग माझे चिंब भिजले पावसाने

पाहिला मी दर्पणी हा धुंद श्रावण

 

साजणाची याद आली चांदराती

पौर्णिमेच्या पैंजणी हा धुंद श्रावण

 

चालताना तोल गेला ऐनवेळी

काच पिचता काकणी हा धुंद श्रावण

 

नीज आली सूर्य येता तावदानी

घेत आहे चाचणी हा धुंद श्रावण

 

रात्रभर मी जागले त्याच्याच साठी

आज झाला पापणी हा धुंद श्रावण

 

 या विजेने बांधले की चाळ पायी

गात आहे लावणी हा धुंद श्रावण

 

 का “प्रभा” नाराज तू  आहेस येथे

  करतसे  वाखाणणी हा धुंद श्रावण

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ प्रार्थनेचे शब्द – सुश्री हेमलता फडणीस ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ प्रार्थनेचे शब्द – सुश्री हेमलता फडणीस ☆ प्रस्तुती – श्री सुहास सोहोनी ☆ 

प्रार्थनेचे शब्द महत्वाचे नसतात, तर त्या मागचा भाव महत्वाचा असतो… ( का इंग्रजी मेसेजचा हा अनुवाद.)

एक लहान मुलगी रोज सकाळी मंदिरात जावून मूर्तीसमोर उभी राही व डोळे बंद करून हात जोडत दोन मिनिटे काहीतरी पुटपुटत असे.

नंतर डोळे उघडून नतमस्तक होई व स्मितहास्य करून धावतपळत बाहेर जात असे.

हा दिनक्रम रोजचाच झाला होता.

देवळातील पुजारी तिच्याकडे निरखून पहात होता. ती रोज काय करीत असते हे समजण्याची उत्सुकता त्याला वाटू लागली. त्याला वाटले, ती मुलगी इतकी लहान आहे की धर्माचा सखोल अर्थ तिला समजणे केवळ अशक्य.

तिला कोणतीही प्रार्थना येत नसेल. मग रोज सकाळी देवळात येण्याचा काय अर्थ !—-असेच १५ दिवस निघून गेले. तिच्या वर्तनाविषयी अधिक जाणून घेण्याच्या जिज्ञासेमुळे त्याची बेचैनी वाढू लागली. एकदा सकाळी ती मुलगी तेथे येण्याच्या अगोदर तो तेथे पोहोचला. तिचा नित्यक्रम संपण्याची त्याने वाट पाहिली. त्याने तिच्या डोक्यावर हात ठेवून तिला म्हणाला, मागील १५ दिवसांपासून तू नियमितपणे येथे येते हे मी पहात असतो. तू काय करतेस ?

ती एकदम म्हणाली, “प्रार्थना”.

पुजाऱ्याने जरा साशंकतेनेच  विचारले, तुला एखादी प्रार्थना येते?

“नाही” असे ती म्हणाली.

“ मग तू डोळे मिटून रोज काय करतेस ?” असे त्याने हसून विचारले.

अगदी निरागसपणे ती म्हणाली, “ मला कोणतीच प्रार्थना येत नाही पण मला,” a,b,c,d पासून z पर्यंत माहित आहे. ते ५ वेळा मी म्हणते आणि परमेश्वराला सांगते की मला तुझी प्रार्थना येत नाही पण ती नक्कीच या alphabets च्या बाहेर असूच शकत नाही.  ही alphabets तुझ्या इच्छेनुसार क्रमश: लावून घे आणि तीच माझी प्रार्थना. “

—ती उड्या मारत बेभानपणे धावत निघून गेली.  ती दिसेनाशी होईपर्यंत निरखून तिच्याकडे पहात पुजारी नि:स्तब्ध होऊन उभा राहिला.

ज्याची आपण मनोभावे पूजा करतो, अशा परमेश्वरावर अतूट असलेली हीच ती श्रद्धा.

@ fb~हेमलता फडणीस

(अगा बावन्न वर्णा परता। कोण मंत्रु आहे पांडुसूता।। —ज्ञानेश्वरी ) 

संग्राहक – सुहास सोहोनी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनीक्रमांक २६- भाग २ – पूर्व पश्चिमेचा सेतू – इस्तंबूल ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २६ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ पूर्व पश्चिमेचा सेतू– इस्तंबूल ✈️

इस्तंबूल येथील १४५५ मध्ये बांधलेला ‘ग्रँड बाजार’ म्हणजे  एक आश्चर्य आहे. ३००० हून अधिक दुकानं असलेला हा ग्रँड बाजार म्हणजे भूलभुलय्या आहे. कापड, क्रोकरी, चपला, पर्सेस, बॅगा, तयार कपड्यांपासून ते सोन्या हिऱ्यापर्यंतची सगळीच दुकानं प्रवाशांना आकर्षित करतात. बाजाराच्या आतल्या साऱ्या वाटा  चक्रावून टाकणाऱ्या आहेत.  ‘आपण इथे हरवणार तर नाही ना?’ असं सारखं वाटंत होतं. खरेदीही महाग होती. ‘स्पाइस मार्केट’ इथे गेलो. स्पाइस मार्केटमध्ये पोत्यावरी पिस्ते, अक्रोड, अंजीर, खजूर, हेजलनट्स ठेवले होते. ड्रायफ्रूट्सच्या विविध  मिठायांनी दुकानं भरली होती. इथली ड्रायफ्रूट्सनी भरलेली बकलावा नावाची मिठाई खूप  आवडली.

(गलाटा टॉवर, फनीक्युलर रेल्वे, क्रूज प्रवास)

संध्याकाळी आम्ही सर्वांनी तिथल्या ट्रामने शहराचा फेरफटका मारायचं ठरवलं.त्या ट्रामने एक स्टेशन जा नाहीतर दहा स्टेशनं! तिकीट एकाच रकमेचं होतं.  आम्हाला तिकीट म्हणून नाण्यांसारख्या धातूच्या गोल चकत्या दिल्या. प्रत्येकाने तिथल्या मशीनमध्ये ते नाणं टाकलं की तो फिरता दरवाजा उघडे. ट्राम साधारण रेल्वेच्या डब्यासारखी होती.  कार्यालये नुकतीच सुटल्यामुळे गर्दीने खचाखच भरलेली होती. धक्के खात, खिसा- पाकीट सांभाळत थोडा प्रवास झाल्यावर गर्दी कमी झाली. दुतर्फा सजलेल्या दुकानांसमोर, रुंद फुटपाथवर टेबल खुर्च्या मांडून निवांतपणे खाण्यापिण्याचा आस्वाद घेणे चालले होते. ट्रेनच्या शेवटच्या स्टेशनला म्हणजे कलाबाश इथे आम्ही उतरलो. तिथून आम्हाला फनीक्युलर रेल्वेने प्रवास करायचा होता. डोंगराच्या पोटातून खोदलेल्या रेल्वेमार्गाने डोंगर चढत जाणारी ही गाडी होती. इलेक्ट्रिक वायरने ही गाडी डोंगरमाथ्यावर खेचली जाते. दोन डब्यांची ती सुबक, सुंदर, छोटी गाडी आतून नीट न्याहाळेपर्यंत डोंगरमाथ्याला आलोसुद्धा! या भागाला ‘इस्तीकलाल’ म्हणतात. आपल्या फोर्ट  विभागासारखा हा भाग आहे. दुतर्फा दुकानं, बँका, निरनिराळ्या देशांचे दूतावास, कार्यालये  आहेत.. केकपासून कबाबपर्यंत असंख्य गोष्टींनी दुकानं भरलेली होती. तो शनिवार होता आणि रविवारच्या सुट्टीला जोडून सोमवारी २९ ऑक्टोबरला  टर्कीच्या ‘रिपब्लिक डे’ ची सुट्टी होती. चंद्रकोर व चांदणी मिरवणारे लाल झेंडे जिकडेतिकडे फडकत होते. जनसागर मजेत खात-पीत, फिरत होता. रस्त्याच्या दोन्ही बाजूला मधूनच  उतरत्या वाटा आणि त्यांच्या कडेने सुंदर, स्वच्छ इमारती आहेत. बास्पोरस खाडीच्या किनाऱ्यावर दीपगृहासारख्या दिसणाऱ्या टॉवरच्या अगदी उंचावर, एक गोल प्रेक्षक गॅलरी आहे. काही हौशी लोक किनाऱ्यावरून खाली खाडीमध्ये गळ टाकून माशांची प्रतीक्षा करीत होते.

बास्पोरस खाडीच्या मुखावर असलेलं ‘गोल्डन हॉर्न’ हे एक नैसर्गिक व सुरक्षित बंदर आहे. प्रवासासाठी, व्यापारासाठी या बंदराचा फार पूर्वीपासून उपयोग केला गेला. गोल्डन हॉर्नच्या साथीने आणि साक्षीने इस्तंबूल विकसित आणि समृद्ध होत गेलं. युरोप व आशिया खंडांना जोडणारा बास्पोरस खाडीवरील जुना पूल वाहतुकीला अपुरा पडू लागल्यावर आता आणखी एक नवा पूल तिथे बांधण्यात आला आहे. गोल्डन हॉर्नमधील लहान मोठ्या बोटींवरील दिवे चमचमत होते. खाडीच्या पाण्यात त्या दिव्यांची असंख्य प्रतिबिंबे हिंदकळत होती. क्रूझमधून जुन्या बास्पोरस ब्रिजपर्यंत जाऊन आलो. बास्पोरस खाडीतच पाय बुडवून उभ्या असलेल्या, गतवैभवाची साक्ष असणाऱ्या, राजेशाही, देखण्या इमारती, काठावरचा डोल्माबाची पॅलेस, त्यामागे डोकावणारं अया सोफिया म्युझियम, दूरवर दिसणारे ब्लू मॉस्कचे मिनार यांनी रात्र उजळून टाकली होती. युरोप- आशियाला जोडणारा बास्पोरस खाडीवरील सेतू, छोट्या- छोट्या लाल निळ्या दिव्यांनी चमचमत होता.

हातांनी विणलेले लोकरीचे व रेशमी गालीचे ही टर्कीची प्राचीन, परंपरागत कला आहे. तिथल्या लालसर गोऱ्या स्त्री कारागीर, त्यांच्या लांबसडक बोटांनी गालीचे विणण्याचे काम कौशल्याने करीत होत्या. एका लेदर फॅक्टरीमध्ये आधुनिक फॅशनचा, पुरुषांच्या व स्त्रियांच्या लेदर कपड्यांचा फॅशन शो बघायला मिळाला. रात्री एका हॉटेलमध्ये गोऱ्यापान, कमनीय, निळ्या परीचा बेली डान्स पाहिला. प्रवाशांसाठी मदिराक्षी बरोबर मदिरेची  उपस्थिती हवीच! राकी नावाचं बडीशेपेपासून बनविलेलं मद्य ही टर्कीची खासियत आहे.

मारमारा समुद्र आणि काळा समुद्र यांना जोडणाऱ्या बास्पोरसच्या खाडीवरील पूल ओलांडून  आम्ही इस्तंबूलच्या आशिया खंडातील भागात असलेल्या हैदरपाशा रेल्वे स्टेशनला पोहोचलो. आज नेमका दसरा होता आणि दसऱ्याचं सीमोल्लंघन आम्ही युरोपाखंडातून  आशिया खंडात आणि ते सुद्धा बसने केलं. रेल्वेगाडीत दोन प्रवाशांची सोय असलेल्या छोट्या केबिन्स सर्व सोयींनी सुसज्ज होत्या. रेल्वे मार्गाच्या दोन्ही बाजूंनी नेत्रसुखद रंगांच्या सुरेख, शोभिवंत इमारती, हिरव्या बागा, पलीकडे एजिअन समुद्र आणि थंड, स्वच्छ, कोरड्या हवेत रमत गमत चालणारे, युरोपियन पेहरावतले स्त्री-पुरुष, मुलं असं दृश्य काळोख होईपर्यंत दिसंत राहीलं.

इस्तंबूल भाग २ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 47 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे किले पर खड़ा तिरंगा….। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 47 – मनोज के दोहे …. 

अधर फड़कते रह गए, प्रियतम आए द्वार।

प्रेम-पियासे ही रहे, मिला न कुछ उपहार।।

 

रच-हाथों में मेहँदी, बाँधा बिखरे -केश।

पावों में अलता लगा, चली सजन के देश।।

 

अलकें लटकीं गाल पर, सपन सलोना रूप।

आँखों में साजन बसे, ऋतु बसंत की धूप।।

 

कंपन करते ओष्ठ हैं, पिया-सेज-शृंगार ।

नव जीवन की कल्पना, खड़े प्रेम के द्वार।।

 

अलि के कानों में कहा, जाती बाबुल देश।

रक्षाबंधन आ रहा, भाई का संदेश।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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