(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 5 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
वायुयान में प्रवेश के समय अंतर्मन में विचार चल रहे थे, कि कैसी और कौनसी सीट मिलेगी। खिड़की वाली होगी तो ऊपर से अपनी प्यारी दुनिया देख सकेंगे। आज की पीढ़ी तो ऑनलाइन ही अपनी पसंदीदा सीट का चयन करने में सक्षम है। वैसे इस बेसब्री का अपना ही मज़ा हैं।
युवावस्था में बस / रेल यात्रा के समय खिड़की से रूमाल सीट पर फेंक कर कब्जा करने में भी महारत थी। ऐसी सीट को लेकर हमेशा विवाद ही हुआ करते थे।
विमान में अपनी सीट पर विराजमान होने के पश्चात व्योम बालाएं यात्रा के नियम इत्यादि की जानकारी देने का कार्य किया करती थी। अब समय के साथ उद्घोषणा और सीट के सामने लगें पट पर जानकारी उपलब्ध कराई जाती हैं।
कुछ यात्री जिनको आपने साथी के साथ सीट नहीं मिली थी, वो अब सीट बदलने / एडजस्ट करने में लग गए थे।उधर विमान गति पकड़ कर जमीं छोड़ने की तैयारी में था।एक झटका सा लगा और विमान ने जमीं छोड़ दी। हमे अपने बजाज स्कूटर की याद आ गई, जब उसमें स्टार्टिंग समस्या थी, तब उसको दौड़ा कर गाड़ी को गियर में डाल देते थे और उछल कर बैठ जाते थे, तो वैसा ही झटका लगता था। “हमारा बजाज” का कोई जवाब नहीं था। रजत जयंती मना कर ही उसको भरे मन से विदा किया था।
विमान परिचारिकाएं नाश्ता परोस गई हैं, खाने के बाद मिलते हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक विचारणीय गीत – 15 अगस्त…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 101 – गीत – 15 अगस्त…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “भारी बरसात और…”।)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “सहानुभूति”।)
☆ कथा-कहानी # 150 ☆ लघुकथा – “सहानुभूति” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
स्याह अंधेरे को चीरती अमरकंटक एक्सप्रेस अपनी पूरी स्पीड से दौड़ रही है। कड़ाके की ठंड में सामने की बर्थ में दाढ़ी वाला आदमी कांप रहा है, पतला सा कंबल ओढ़े वह धुप्प अंधेरे में भागते पेड़ पौधों को ताक रहा है। अचानक ट्रेन एक छोटे से प्लेटफार्म में रुकती है, कुछ यात्री शयनयान में घुसते हैं, उसकी निगाह एक सुंदर सी नवयौवना पर जाती है, काले लम्बे बाल सुन्दर नाक नक्श वाली वह नवयुवती जगह तलाशती हुई उस दाढ़ी वाले से अनुनय विनय करके उसके बगल में बैठ जाती है।
ट्रेन अपनी स्पीड पकड़ लेती है। घड़ी की सुइयां रात्रि साढ़े बारह बजने का संकेत दे रहीं हैं। सभी यात्री अपनी अपनी बर्थ में सो गए हैं, कुछ जाग रहे हैं।
युवती दाढ़ी वाले से सटती जा रही है और वह बेचारा संकोचवश खिड़की तरफ दबा जा रहा है। बड़ी देर बाद युवती ने ऐसा क्या किया कि वह आदमी चौकन्ना सा होकर अपने कंबल को बार बार समेटने लगा, शहडोल स्टेशन आने को है कि अचानक मैंने देखा युवती दाढ़ी वाले की सोने की चैन खींच चुकी थी एवं युवती ने चिल्लाना शुरू कर दिया था, बचाओ….. बचाओ ये दाढ़ी वाला आदमी मेरी इज्जत लूटने की कोशिश कर रहा है, इस बीच मैंने देखा उसने अपना ब्लाउज फाड़ लिया और साड़ी के पल्लू को पेटीकोट से अलग कर दिया। कोलाहल से कोच के अधिकांश लोग जाग गये एवं हम लोगों की बर्थ के पास काफी लोग इकट्ठे हो गए, गाड़ी स्टेशन पर खड़ी हो गई, उस युवती ने रोना धोना शुरू कर दिया है, भीड़ बढ़ रही है, भीड़ से मारो… मारो.. की आवाज से दाढ़ी वाला आदमी कांप उठा है, पर वह चुपचाप अपनी जगह पर ही बैठा हुआ है। भीड़ की आवाजें सुनकर वहां से गुजर रहे पुलिस वाले दौड़कर कोच में घुसे तब तक भीड़ ने उस दाढ़ी वाले को लात घूसों से तर कर दिया है और पुलिस वालों के आते ही उस पर कई डण्डे पड़ चुके हैं। वह कराह उठा, वह बेचारा हक्का बक्का सा मार खाते हुए कुछ बोलना चाहता था पर उसकी आवाज कोलाहल में गुम हो जाती थी। मैंने भी भीड़ और पुलिस को समझाने की कोशिश की तो दो चार डण्डे मुझे भी पड़ चुके थे। युवती बिफरती हुई धीरे धीरे कोच से बाहर भागने की फिराक में थी, भीड़ के कुछ लोग उसकी सुंदरता से घायल से हो गये थे और उस दाढ़ी वाले को कोस रहे थे। एक ने मां बहन की गाली बकते हुए कहा – साला चलती ट्रेन में युवती की इज्जत पर हाथ डाल रहा था। पुलिस वाले उस दाढ़ी वाले पकड़ कर घसीटते हुए प्लेटफार्म पर उतार रहे थे, वह लगातार अपने कंबल को मुंह में दबाए हुए कह रहा था – साब मेरी कोई ग़लती नहीं है बल्कि उस युवती ने मेरे सोने की चैन खींच ली है, ऐसा सुनते ही पुलिस वाले ने उस पर लातों की बरसात कर दी वह पस्त होकर जमीन पर गिर गया। पुलिस वाले ने जैसे ही उसका कंबल पकड़ कर घसीटना चाहा, कंबल पुलिस वाले के साथ में आ गया और भीड़ यह देखकर दंग रह गयी कि उस दाढ़ी वाले के दोनों हाथ कटे हुए थे और वह बेचारा अपाहिज कराह उठा। अचानक भीड़ उस युवती को तलाशने मुड़ गई, पर वह युवती भाग चुकी थी। भीड़ से आवाज आई कि ये आदमी उस युवती का ब्लाउज और साड़ी तो फाड़ ही नहीं सकता, इसके तो दोनों हाथ ही नहीं है, जरुर वह युवती जेबकतरे गैंग से संबंधित होगी पर रोज चलने वाले ये सिपाही जरूर युवती को जानते होंगे। इतना सुनते ही पुलिस वाले डण्डा पटकते हुए आगे बढ़ गये…..
इंजन की ओर हरी बत्ती चमक उठी, इंजन सीटी बजा रहा है, भीड़ देखते देखते ट्रेन में समा गई, लोग व्याकुल होकर खिड़कियों से झांक रहे हैं, अनायास मेरे हाथ जंजीर तक पहुंच गये और एक झटके के साथ ट्रेन रुक गई, भीड़ का हुजूम दाढ़ी वाले की तरफ टूट पड़ा, मेरे बाजू वाला यात्री भीड़ के चरित्र पर हंस पड़ा, दाढ़ी वाले के लिए सहानुभूति की लहर फैल चुकी थी और भीड़ ने उस दाढ़ी वाले को अपने सर पर उठा लिया फिर ट्रेन धीरे से चल पड़ी ….।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# रेशम के धागे… #”)
☆ विचार–पुष्प – भाग ३० परिव्राजक ८. अलवर ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
‘अलवर’ हे राजस्थानातले त्या काळातले एक संस्थान. संस्थानिक तिथले राजे असत आणि सर्व प्रजा त्यांना मानत असे. परंपरागत राजसत्तेचे ऐश्वर्य आणि इंग्रजी सत्तेचा प्रभाव असे मिश्र वातावरण तिथे होते. याचा प्रभाव तिथल्या थोड्या सुशिक्षितांवर होता. पण मोठ्या प्रमाणात प्रजा अशिक्षित, उपेक्षित, दारिद्र्य असणारी, जुन्या परंपरा पाळणारी आणि मर्यादित विश्वात राहणारी अशी होती.
अलवरच्या स्थानकावर उतरून स्वामीजी रस्त्यावरून पायी चालू लागले, संस्थानच्या शासकीय रुग्णालयासमोर ते पोहोचले तेंव्हा तिथे एक बंगाली गृहस्थ गुरुचरण लष्कर उभे होते. ते त्या रुग्णालयाचे प्रमुख डॉक्टर होते. स्वामीजींनी त्यांना विचारले, इथे संन्याशांना राहण्यास एखादी जागा कोठे मिळेल? हे ऐकताच गुरुचरण स्वत: त्यांना बाजारात घेऊन गेले आणि एक खोली दाखवली. चालेल ना? स्वामीजी म्हणाले, ‘अगदी आनंदाने’. त्यांची प्राथमिक सोय करून देऊन डॉक्टर तिथून निघून थेट त्यांच्या मुस्लिम मित्राकडे गेले. ते माध्यमिक शाळेत उर्दू आणि पर्शियन शिकवणारे शिक्षक होते. डॉक्टर उत्साहाने त्यांना सांगत होते की, “मौलवीसाहेब आताच एक बंगाली साधू आला आहे. मी तर असा महात्मा आजपर्यंत पाहिला नाही. तुम्ही लगेच चला. थोडं त्यांच्याशी बोला तोवर मी काम आवरून येतोच. डॉक्टर आणि मौलवी स्वामीजींकडे आले. बोलणे सुरू झाले अर्थातच धर्म विषय निघाला. स्वामीजी म्हणाले, “ कुराणाचं एक फार मोठं वैशिष्ट्य आहे, अकराशे वर्षापूर्वी ते निर्माण झालं, तेंव्हा ते जसं होतं, त्याच स्वरुपात ते जसच्या तसं आजही आपल्या समोर आहे. त्यात कोणताही प्रक्षिप्त भाग शिरलेला नाही.” मौलवी भेटून परत गेले. डॉक्टर आणि मौलवींनी जाता येतं ज्याला त्याला स्वामिजींबद्दल सांगितले. त्याचा परिणाम असा झालं की, दोनच दिवसात अनेकजण स्वामीजींच्या भेटीला येऊ लागले.
स्वामीजींच्या अमोघ शैलीमुळे सर्वजण भारावून जात. आपले विचार मांडताना ते हिन्दी, संस्कृत,बंगाली, उर्दू या भाषांचाही उपयोग करत. गीता, उपनिषद,कधी बायबल यांचाही संदर्भ देत असत. विषयाचे विवेचन करताना ते कधी विद्यापती, चंडीदास ,रामप्रसाद ,कबीर, तुलसीदास यांची भजने सुद्धा म्हणत. गौतम बुद्ध , शंकराचार्य यांच्या चरित्रातला प्रसंग सांगत. श्रोत्यांमध्ये कुणी सुशिक्षित दिसला तर इंग्रजी किंवा पाश्चात्य तत्वज्ञान याचा आधार घेत. आणि राजस्थान मध्ये श्रीकृष्ण भक्त असल्याने तिथे विशेषता श्रीकृष्ण चरित्रातील रोमहर्षक प्रसंग सांगत, प्रेम आणि भक्ति सांगत. ते सांगताना तन्मय होत तर श्रोते ऐकताना भावुक होत. असे बरेच दिवस चालले होते. त्यानंतर, अलवर संस्थांनचे निवृत्त इंजिनीअर पंडित शंभुनाथ, स्वामीजींना आपल्या घरी घेऊन गेले. तिथे सकाळी नऊ वाजल्यापासून लोक जमायला सुरुवात होई.
हे लोक म्हणजे सर्व प्रकारचे, हिंदू, मुसलमान, शैव, वैष्णव, कुणी गाढे अभ्यासक, वेदांती, कुणी परंपरावादी, तर कुणी आधुनिक सुद्धा असत. गावातले श्रीमंत, गरीब, प्रतिष्ठित, सामान्य असे सर्वच लोक स्वामीजींकडे येत. अनेक विषयांवर संवाद चालत असे. काही वेळा नेहमीप्रमाणे भक्तीगीत होई. श्रोते धुंद होत आणि संगीताची बैठक असलेली पाहून आश्चर्य चकित होत. हे सर्व ऐकून हा तरुण संन्यासी प्रेमळ, विद्वान, विनम्र बघून काही जणांना त्यांच्या जातीबद्दल उत्सुकता असे. ते विचारत, स्वामीजी आपण कोणत्या जातीचे? पण स्वामी विवेकानंद कसलाही संकोच न करता स्पष्ट सांगत, “मी कायस्थ होतो.” आपण ब्राम्हण आहोत असा गैरसमज होऊ नये आणि तो झालाच तर विनाकारण श्रेष्ठ जातीमुळे मिळणारा आदर आपल्याला देऊ नये म्हणून ते स्पष्ट सांगत.
असे प्रश्न आले की, यावरून त्यांना आपला समाज कसा आहे, तो एखाद्या गोष्टीकडे कोणत्या दृष्टीकोणातून पाहतो? कोणत्या जातीत त्यांच्या परांपरानुसार कोणते विचार आहेत? ते त्यांच्या वागण्यातून कसे उमटतात हे त्यांना अनुभवायला येत होते. अशा प्रकारे भारतीय समाजाचे खरेखुरे दर्शन अशा ठिकाणी त्यांना होत होते. लोकांना जसे स्वामीजींकडून मोलाचे विचार ऐकायला मिळत होते. तसेच स्वामीजींना पण त्यांचे विचार कळत. त्यांच्याही ज्ञानात भर पडे.
मौलवी तर सुरुवाती पासूनच स्वामीजींच्या व्यक्तिमत्वाने प्रभावित झाले होते. त्यांना मनापासून वाटत होतं की अशा तपस्वी माणसाचे पाय आपल्या घरालाही लागले पाहिजेत. त्यांनी हे, शंभुनाथांना सांगितलं, म्हणाले, “ मी कोणातरी ब्राम्हणाकडून माझी खोली स्वच्छ करून घेईन, खुर्च्या सुद्धा पुसून घेईन, भांडीकुंडी ब्राम्हणाच्या हातून पाणी घालून शुद्ध करून घेईन. कोणीतरी ब्राह्मण शिधा घेऊन येईल, त्याच्याकडूनच स्वयंपाक करून घेईन. पण स्वामीजींनी माझ्या घरी एकदा येऊन भोजन करावं अशी माझी इच्छा आहे. मी लांब उभा राहून त्यांना जेवताना पाहीन.”
केव्हढा हा प्रभाव? शंभु नाथांनी त्यांना सांगितलं ते सन्यासी आहेत, धर्म, जात,पंथ या भेदापलीकडे आहेत. ते नक्की येतील अशी खात्रीच दिली त्यांनी. कारण शंभुनाथ पण उदार दृष्टीकोनाचे होते.
आणि खरच एकदा दोघही मौलवींकडे जेवायला गेले. त्यानंतर अनेक जणांकडे जेवायला जात होते. आसपासच्या परिसरात स्वामीजींची ख्याती वाढत चालली होती. लोकसंपर्क वाढत होता.
☆ सैनिक हिमालयाचा… कर्नल शरदचंद्र पाटील (निवृत्त) ☆ परिचय – सुश्री अलकनंदा घुगे आंधळे ☆
कर्नल शरदचंद्र पाटील (निवृत्त)
पुस्तकाचे नाव : “सैनिक हिमालयाचा “
लेखक : कर्नल शरदचंद्र पाटील ( निवृत्त )
प्रकाशक : अनुकेशर प्रकाशन
पृष्ठसंख्या : २२८
किंमत : रु. ३५०/-
(या पुस्तकातून मिळणारा सर्व नफा लेखक, “आर्मी सेंट्रल वेलफेअर फंड” निधीला प्रदान करणार आहेत, तेव्हा हे पुस्तक खरेदी करून आपण फूल न फुलाची पाकळी या निधीसाठी मदतच करणार आहोत..एक प्रकारे देशसेवाच आपल्या हातून घडणार आहे. तेव्हा कृपया सर्वांनी पुस्तक खरेदी करून वाचावे..ही विनंती ..)
तरुणपणी अक्षय कुमारचा सैनिक नावाचा चित्रपट पाहिला होता. त्यानंतर बॉर्डर..चित्रपटांमधून सैनिक फक्त गरजेनुसार दाखवला जातो; खरी थीम तर लवस्टोरीच असते.. अलीकडे आलेले सत्य घटनेवरील काही चित्रपट याला अपवाद आहेत. या चित्रपटातून सैनिक मला जितका समजला नाही, तितका परवाच वाचलेल्या एका पुस्तकातून समजला. पुस्तकाचे नाव आहे, ‘सैनिक हिमालयाचा’.. आणि लेखक आहेत निवृत्त कर्नल शरदचंद्र पाटील..
चित्रपट पाहताना एक गोष्ट माईंडमधे सेट असते की, समोरचा सैनिक हा सैनिक नसून फक्त एक्टिंग करतोय. अनेक रिटेक घेऊन त्याने प्रत्येक सीन शूट केलेला असतो. मात्र वास्तवात सैनिकांच्या आयुष्यात त्यांना प्रत्येक सीन एकदाच, एका शॉटमधे ओके आणि सक्सेसफुल करायचा असतो. हाच फरक आहे चित्रपटातून सैनिक बघण्यात आणि प्रत्यक्ष पुस्तकातून सैनिक समजण्यात..
अलीकडेच प्रकाशित झालेले हे पुस्तक नुसते पुस्तक नसून, एका सैनिकाचे आत्मवृत्त आहे. एका सैनिकाने वाचक आणि भारतीय जनतेशी साधलेला संवादच आहे. २६ – २७ वर्षाच्या सैनिकी आयुष्यात लेखकाने दहा अकरा वर्षे हिमालयात घालवली. आजही लेखकाला हिमालय साद घालतो. आणि खरं सांगू का? पुस्तक वाचताना मी ही कित्येक वेळा मनोमन हिमालयात जाऊन आले. इतका जिवंतपणा लेखनातून जाणवला. प्रसंग चांदण्या रात्रीचे असोत, अंधाऱ्या रात्रीचे असोत, हिमवृष्टीचे असोत किंवा हिमस्खलनाचे असोत.. प्रत्येक प्रसंग डोळ्यासमोर जसाचा तसा उभा करण्यात लेखकाने कमालीचे यश मिळवले आहे. बर्फाच्या गुहेत अडकलेला प्रसंग असो किंवा राहत्या बंकरवर कोसळलेल्या महाकाय शिळेचा प्रसंग असो; केवळ नशीब बलवत्तर म्हणून लेखक जिवंत राहतात.. हे वाचून मन विषण्ण होते. कसे राहत असतील हे सैनिक जीवावर उदार होऊन..? सियाचीन हिमनदीसारख्या मृत्यूच्या जबड्यात जाऊन देशसेवा करण्याचे धैर्य या सैनिकांच्या अंगी कुठून येत असेल देव जाणे ..! तीन महिने दाढी न करता, केस न कापता,अंघोळ न करता? बर्फात 24 तास थंडी आणि हिमवृष्टीशी युद्ध तर चालू असते या सैनिकांचे..! मी तर आत्तापर्यंत समजत होते, सियाचीन हे नाव चीनच्या नावावरून पडले असेल, पण तसे नाही..तिबेटी भाषेत ‘सिया’ म्हणजे ‘गुलाब’ आणि ‘चेन’ म्हणजे ‘मुबलक’..सियाचेन म्हणजे ‘मुबलक गुलाबांची जागा’.. हे या पुस्तकातूनच उलगडले.. ऑफिसर्स मेस म्हणजे सामान्य जनतेच्या दृष्टीने चैनीची जागा, पण तसे नाही..हवामानाशी जुळवून घेण्याची कला म्हणजे अॕक्लमटायझेशन..अशा कित्येक सैनिकी संकल्पना जाणून घ्यायच्या असल्यास पुस्तक वाचावे..आतापर्यंत दोन दंश माझ्या परिचयाचे होते. एक म्हणजे सर्पदंश आणि दुसरा म्हणजे विंचूदंश.. पण हिमदंश पण असतो हे पुस्तक वाचून कळले.. हाताच्या बोटाचा सतत बर्फाशी संपर्क येऊन बोटांची संवेदनाच निघून जाते. प्रसंगी बोटे कापावीही लागतात. बोटावर निभावले तर ठीक, नाही तर मृत्यूही येऊ शकतो..इतका कठीण असतो हा हिमदंश.. खरेच या आणि अशा कित्येक गोष्टी लेखकाने या पुस्तकात जीव ओतून लिहिल्या आहेत.
कॅप्टन कपूर यांच्या जीवावर बेतलेला हिमस्खलनाचा, त्यांनी त्यांच्या डायरीत लिहून ठेवलेला प्रत्यक्ष अनुभव वाचून तर अंगावर काटा उभा राहतो.सिक्कीमच्या जंगलातील जळवांचा हल्ला असो वा हिमालयातील प्रत्येक ठाण्यावर पोहोचण्यासाठी करावी लागणारी कसरत असो; या सैनिकांच्या जिद्द, चिकाटी आणि धैर्याला सलाम करावासा वाटतो..
कश्मीर फाईल्स जर समजून घ्यायची असेल तर एका सैनिकाइतकी ती कोणीच मांडू शकत नाही. त्यासाठी तरी हे पुस्तक अवश्य वाचावे, असे मी म्हणेन..जागोजागी वापरलेली कृष्णधवल आणि रंगीत छायाचित्रे पुस्तकाच्या आशय-विषयाचे सौंदर्य वाढवतात. दारूगोळ्याची साफसफाई, हिमनदी, सफरचंदाच्या बागांची चित्रे खरोखर पाहण्यालायक आहेत..मधेमधे प्रसंगानुरूप लिहिलेल्या गज़ला लेखकाच्या साहित्यिक प्रतिभेची ओळख करून देतात.. खरे तर अशी पुस्तके सैनिकाकडून लिहिणे जाणे आवश्यक आहे, जेणेकरून सैनिकांविषयी सामान्य जनतेच्या मनात आदर निर्माण होईल आणि तरुण वर्ग सैनिक होण्याकडे प्रवृत्त होईल..सैनिक कोणत्या हालअपेष्टातून जातात, ते ही सर्वांना कळेल..आपण विकेंडला मौजमजा करतो, सण,समारंभ साजरे करतो, जन्मदिवस साजरे करतो..तेव्हा हे सैनिक आपल्या कुटुंबापासून दूर कुठे तरी सीमेवर देशाचे रक्षण करत असतात.. अशा प्रत्येक सैनिकाला मानाचा मुजरा !
या लेखातून सर्वांना विनंती ..चला थोडे सैनिकांनाही प्रसिद्ध करूया.. कारण खरे हिरो तेच आहेत, चित्रपटातले नव्हे.. लेखकाने पुस्तकात लिहिलेली काही वाक्ये, खूप काही सांगून जातात.. जसे की,
“…संपूर्ण सैनिकी आयुष्यात फाजील आत्मविश्वास चालत नाही. आत्मविश्वास असावा. धाडस असावे, पण नियमांची काटेकोर अंमलबजावणी करूनच ! तसे केले नाही तर कधी मृत्यू झडप घालेल ते सांगता येत नाही ..”
आणखी एका प्रसंगी लेखक म्हणतात, ” पुस्तकी ज्ञान आणि प्रत्यक्ष युद्धभूमीवरचे ज्ञान यात जमीन-अस्मानाचा फरक असतो..” आणि उपसंहारमधे लिहिलेली कविता, ‘त्रिवार वंदन’ तर लाजबाव आहे.
या पुस्तकातून मिळणारा सर्व नफा लेखक, “आर्मी सेंट्रल वेलफेअर फंड” निधीला प्रदान करणार आहेत, तेव्हा हे पुस्तक खरेदी करून आपण फूल न फुलाची पाकळी या निधीसाठी मदतच करणार आहोत..एक प्रकारे देशसेवाच आपल्या हातून घडणार आहे. तेव्हा कृपया सर्वांनी पुस्तक खरेदी करून वाचावे..ही विनंती ..
परीक्षण : अलकनंदा घुगे आंधळे
औरंगाबाद
मोबाईलः ९४२२२४३१५९
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/सौ. सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈