(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे – मीरा ”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – “हमने देखे हैं अश्क़ तेरी आँखों में…”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 150 ☆
☆ एक पूर्णिका – “हमने देखे हैं अश्क़ तेरी आँखों में…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १३ (आप्री सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १३ (आप्री सूक्त)
ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – आप्री देवतासमूह
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील बाराव्या सूक्तात मधुछन्दस वैश्वामित्र या ऋषींनी अग्निदेवतेला आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त अग्निसूक्त म्हणून ज्ञात आहे.
मराठी भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री
☆
सुस॑मिद्धो न॒ आ व॑ह दे॒वाँ अ॑ग्ने ह॒विष्म॑ते । होतः॑ पावक॒ यक्षि॑ च ॥ १ ॥
यज्ञामध्ये अग्निदेवा हवी सिद्ध जाहला
प्रदीप्त होऊनी आता यावे स्वीकाराया हविला
हे हविर्दात्या सकल देवता घेउनी सवे यावे
पुण्यप्रदा हे अमुच्या यागा पूर्णत्वासी न्यावे ||१||
हे सूक्त व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.
“.. अगं तारामती !चल चल लवकर पाय उचलत राहा… अजून तालूक्याचं गाव आलं नाही!.. पाच सहा मैलाची रपेट करायची आपल्याला… आपल्या कनवाळू मायबाप सरकारने यंदाच्या दिवाळी साठी दुर्बल कुटुंबांना दिवाळीसामानाचं पॅकेट देणारं आहेत फक्त शंभर रुपयात….त्या स्वस्त शिधावाटप दुकानातून… आपल्याला तिथं जाऊन नंबर लावला पाहिजे तरच ते आपल्याला मिळेल…त्यासाठी आधी बॅंकेत जाऊन हया महिन्याची स्वातंत्र्य सेनानी पेंशन योजनेतील जमा झालेली पेंशन काढायला हवी… तुला एक खादीची साडी आणि मला जमला तर खादीचा सदरा घ्यायला हवा…गेली दोन अडीच वर्षे कोरोना मुळे फाटकेच कपडे तसेच वापरले गेले आणि आता तेही घालण्याच्या उपयोगी नाही ठरले… यावर्षीची दिवाळी आपली खास जोरदार दिवाळी होणार आहे बघ… एक किलो रवा, एक किलो साखर, एक किलो तेल, एक किलो डाळ, अंगाचा साबण, सुवासिक तेलाची बाटली हे सगळं त्या पॅकेट मधे असणार आहे… ते आपल्याला मिळाले कि दिवाळीचा सणाचा आनंद होणार आहे… अगं चल चल लवकर… तिकडे बॅकेत किती गर्दी असते तुला ठाऊक नाही का? . मग पैसे मिळाले की त्या रेशन दुकानावर किती गर्दी उसळली असेल काही सांगता येत नाही… “
…बॅकेत पोहचल्यावर त्यांना सांगण्यात आलं…स्वातंत्र्य सेनानीं ची पेंशन मध्ये वाढ द्यायची का नाही यावर शासनाचा निर्णय प्रलंबित असल्याने निर्णय झाल्यावरच पेंशन खात्यावर जमा होईल… तेव्हा पेंशन धारकानी बॅकेत वारंवार चौकशी करू नये… खादीची साडी नि सदरा, दिवाळीचं पॅकेट दुकानात वाट बघत राहिलं… अन पेपरला बातमी आली… सरकारी दिवाळी पॅकेज कडे लाभार्थींनी पाठ फिरवली त्यामुळे सगळी पॅकेटची खुल्या बाजारात विक्री करण्यास अनुमती दिली आहे…
… रेशन दुकानाच्या पायरीवर ते दोघे थकून भागून बसले.. पिशवीतून आणलेल्या पाण्याच्या बाटलीतले चार घोट पाणी पिऊन तरतरीत झाले…आजही स्वतःच्या अस्तित्व टिकविण्याच्या धावपळीत त्यांना पंचाहत्तर वर्षापूर्वीचा स्वातंत्र्य लढ्यात केलेल्या धावपळीचा भूतकाळ आठवला… तन,मन,धन वेचून देश स्वतंत्र व्हावा म्हणून त्यांनी योगदान दिले होते… देश स्वतंत्र झाला पण…पण स्वतंत्र देशाच्या अनुशासनाचे आजही ते गुलामच राहिले आहेत…
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘वोट के बदले नोट’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 109 ☆
☆ लघुकथा – वोट के बदले नोट ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
हैलो रमेश ! क्या भाई, चुनाव प्रचार कैसा चल रहा है ?
बस चल रहा है । कहने को तो शिक्षा क्षेत्र का चुनाव है लेकिन कथनी और करनी का अंतर यहाँ भी दिखाई दे ही जाता है । कुछ तो अपने बोल का मोल होना चाहिए यार ? मुँह देखी बातें करते हैं सब, पीठ पीछे कौन क्या खिचड़ी पका रहा है, पता ही नहीं चलता ?
अरे छोड़ , चुनाव में तो यह सब चलता ही रहता है। जहाँ चुनाव है वहाँ राजनीति और जहाँ राजनीति आ गई वहाँ तो —–
पर यह तो विद्यापीठ का चुनाव है, शिक्षा क्षेत्र का! इसमें उम्मीदवारों का चयन उनकी अकादमिक योग्यता के आधार पर ही होना चाहिए ना !
रमेश किस दुनिया में रहता है तू ? अपनी आदर्शवादी सोच से बाहर निकल। अकादमिक योग्यता, कर्मनिष्ठा ये बड़ी – बड़ी बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं । तुझे पता है क्या कि अभय ने कई मतदाताओं के वोट पक्के कर लिए हैं ?
कैसे ? मुझे तो कुछ भी नहीं पता इस बारे में ।
इसलिए तो कहता हूँ अपने घेरे से बाहर निकल, आँख – कान खुले रख । खुलेआम वोट के बदले नोट का सौदा चल रहा है । बोल तो तेरी भी बात पक्की करवा दूं ? ठाठ से रहना फिर, हर कमेटी में तेरा नाम और जिसे तू चाहे उसका नाम डालना। चुनाव में खर्च किए पैसे तो यूँ वापस आ जाएंगे और सब तेरे आगे – पीछे भी रहेंगे ।
नहीं – नहीं यार, शिक्षक हूँ मैं, वोट के बदले नोट के बल पर मैं जीत भी गया तो अपने विद्यार्थियों को क्या मुँह दिखाऊंगा। अपनी अंतरात्मा को क्या जवाब दूंगा ?
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “स्नेह की ताकत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 130 ☆
☆ स्नेह की ताकत ☆
वैसे तो हर दिन अपने आप में नया होता है किन्तु एक विशेष दिन का निर्धारण करना ही चाहिए, जो उसकी पहचान बनें। अभी हम लोग कैलेंडर नववर्ष को मना रहे हैं। इस समय अपने संकल्प को फलीभूत करने हेतु बहुत से वायदे करते हैं। जहाँ कुछ लोग समय के साथ चलकर इसे पूर्ण करते हैं तो वहीं अधिकांश लोग इसे केवल डायरी तक ही रख पाते हैं। खैर जितने कदम चलें, चलिए अवश्य क्योंकि आपकी यात्रा व्यर्थ नहीं जाएगी। उचित समय पर परिणाम मिलेगा। इस दौरान लोगों का स्नेह आपको शक्ति व संबल प्रदान करेगा।
प्रकृति में उसी व्यक्ति या वस्तु का अस्तित्व बना रहेगा जो समाज के लिए उपयोगी हो, समय के साथ अनुकूलन व परिवर्तन की कला में सुघड़ता हो। अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि मुझे जो मिलना चाहिए वो नहीं मिला या मुझे लोग पसंद नहीं करते ।एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचने के दौरान आपको विभिन्न जलवायु, खानपान, वेशभूषा के लोगों का सानिध्य रहेगा। सबको समझने के लिए जुड़ाव होना बहुत जरूरी है।
यदि ऐसी परिस्थितियों का सामना आपको भी करना पड़ रहा है तो अभी भी समय है अपना मूल्यांकन करें, ऐसे कार्यों को सीखें जो समाजोपयोगी हों, निःस्वार्थ भाव से किये गए कार्यों से अवश्य ही एक न एक दिन आप लोगों की दुआओं व दिल में अपनी जगह बना पायेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – बदलते कहां हैं अब कैलेंडर?)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 186 ☆
आलेख – नए साल की चुनौतियां और हमारी जिम्मेदारी
नया साल प्रारंभ हो चुका है. आज जन मानस के जीवन में मोबाईल इस कदर समा गया है कि अब साल बदलने पर कागज के कैलेंडर बदलते कहां हैं ?अब साल, दिन, महीने, तारीखें, समय सब कुछ टच स्क्रीन में कैद हाथो में सुलभ है. वैसे भी अंतर ही क्या होता है, बीतते साल की आखिरी तारीख और नए साल के पहले दिन में, आम लोगों की जिंदगी तो वैसी ही बनी रहती है.
हां दुनियां भर में नए साल के स्वागत में जश्न, रोशनी, आतिशबाजी जरूर होती है. लोग नए संकल्प लेते तो हैं, पर निभा कहां पाते हैं? कारपोरेट जगत में गिफ्ट का आदान प्रदान होता है, डायरी ली दी जाती है, पर सच यह है की अब भला डायरी लिखता भला कौन है ? सब कुछ तो मोबाइल के नोटपैड में सिमट गया है.देश का संविधान भी सुलभ है, गूगल से फरमाइश तो करें. समझना है की संविधान में केवल अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी तो दर्ज हैं. लोकतंत्र के नाम पर आज स्वतंत्रता को स्वच्छंद स्वरूप में बदल दिया गया है.
इधर मंच से स्त्री सम्मान की बातें होती हैं उधर भीड़ में कुत्सित लोलुप दृष्टि मौका मिलते ही चीर हरण से बाज नहीं आती. स्त्री समानता और फैशन के नाम पर स्त्रियां स्वयं फिल्मी संस्कृति अपनाकर संस्कारों का उपहास करने में पीछे नहीं मिलती.
देश का जन गण मन तो वह है, जहां फारूख रामायणी अपनी शेरो शायरी के साथ राम कथा कहते हैं. जहां मुरारी बापू के साथ ओस्मान मीर, गणेश और शिव वंदना गाते हैं. पर धर्म के नाम पर वोट के ध्रुवीकरण की राजनीति ने तिरंगे के नीचे भी जातिगत आंकड़े की भीड़ जमा कर रखी है.
इस समय में जब हम सब मोबाइल हो ही गए हैं, तो आओ नए साल के अवसर पर टच करें हौले से अपने मन, अपने बिखर रहे संबंध, और अपडेट करें एक हंसती सेल्फी अपने सोशल मीडिया स्टेटस पर नए साल में, मन में स्व के साथ समाज वाले भाव भरे सूर्योदय के साथ.
यह शाश्वत सत्य है कि भीड़ का चेहरा नहीं होता पर चेहरे ही लोकतंत्र की शक्तिशाली भीड़ बनते हैं. सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर सेल्फी के चेहरों वाली संयमित एक दिशा में चलने वाली भीड़ बहुत ताकतवर होती है. इस ताकतवर भीड़ को नियंत्रित करना और इसका रचनात्मक हिस्सा बनना आज हम सब की जिम्मेदारी है.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा –“गंदगी”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 130 ☆
☆ लघुकथा – “गंदगी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
” गंदगी तेरे घर के सामने हैं इसलिए तू उठाएगी।”
” नहीं! मैं क्यों उठाऊं? आज घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाने का नंबर तेरा है, इसलिए तू उठाएगी।”
” मैं क्यों उठाऊं! झाड़ू लगाने का नंबर मेरा है। गंदगी उठाने का नहीं। वह तेरे घर के नजदीक है इसलिए तू उठाएगी।”
अभी दोनों आपस में तू तू-मैं मैं करके लड़ रही थी। तभी एक लड़के ने नजदीक आकर कहा,” मम्मी! वह देखो दाल-बाटी बनाने के लिए उपले बेचने वाला लड़का गंदगी लेकर जा रहा है। क्या उसी गंदगी से दाल-बाटी बनती है?”
यह सुनते ही दोनों की निगाहें साफ सड़क से होते हुए गंदगी ले जा रहे लड़के की ओर चली गई। मगर, सवाल करने वाले लड़के को कोई जवाब नहीं मिला।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 141 ☆
☆ बाल गीत – धरा, गगन है चिड़ियाघर… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆