☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 151 ☆
☆ व्यंग्य – नार्सिसस की सन्तानें ☆
ग्रीक मिथकों में नार्सिसस नामक चरित्र की कथा मिलती है जो इतना रूपवान था कि अपने ही रूप पर मुग्ध हो गया था।पानी में अपना प्रतिविम्ब देखते देखते वह डूब कर मर गया था और एक फूल में परिवर्तित हो गया था।इसीलिए आत्ममुग्धता की प्रवृत्ति को ‘नार्सिसस कांप्लेक्स’ कहा जाता है।आज की दुनिया में भी ऐसे चरित्र बहुतायत में मिल जाते हैं।
मैं उस नये शहर में बड़ी उत्कंठा से उनसे मिलने गया था। बड़ी देर तक उनका घर ढूँढ़ता रहा। जब घर के सामने पहुँचा तो देखा, वे किसी अतिथि को छोड़ने के लिए सीढ़ियाँ उतर रहे थे। उन्हें मैंने बड़ी गर्मजोशी से नमस्कार किया, लेकिन उत्तर में उन्होंने जैसा ठंडा नमस्कार मेरी तरफ फेंका उसे पाकर मैं सोचने लगा कि मैं इनसे सचमुच डेढ़ साल बाद मिल रहा हूँ या अभी थोड़ी देर पहले ही मिलकर गया हूँ। मेरा सारा जोश बैठ गया।
मैं सीढ़ियों पर खड़ा रहा और वे आराम से अतिथि को विदा देते रहे। लौटे तो उसी ठंडक से बोले, ‘आइए।’
सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते मैंने उनसे क्षमा याचना की- ‘आया तो तीन दिन पहले था लेकिन दम मारने को फुरसत नहीं मिली। इसीलिए आपसे नहीं मिल पाया।’
वे बोले, ‘फुरसत तो मुझे भी बिलकुल नहीं है।’
कमरे में घुसे तो देखा दो विद्यार्थीनुमा लड़के परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाओं का ढेर सामने रखे टोटल कर रहे थे। मित्र बोले, ‘कानपुर यूनिवर्सिटी की कॉपियाँ हैं। आज रात भर जाग कर इन्हें जाँचा है। टोटल करने के लिए इन विद्यार्थियों को बुला लिया है।’ वे दोनों शिष्य पूरी निष्ठा से काम में लगे थे।
मेरा और उनका परिचय दस बारह वर्ष पुराना था। लगभग आठ वर्ष पहले उन्होंने नौकरी लग जाने के कारण मेरा शहर छोड़ दिया था। तब से उनके दंभी और अहंकारी होने के चर्चे सुने थे, लेकिन खुद अनुभव करने का यह पहला मौका था। बीच में एक दो बार उनसे मुलाकात हुई थी लेकिन संक्षिप्त मुलाकात में उनमें हुए परिवर्तन का अधिक आभास नहीं हुआ था।
मैं सोच रहा था कि उनसे उनके परिवार की कुशल-क्षेम पूछूँ कि वे उठकर दोनों हाथ अपनी कमर पर रख कर मेरे सामने खड़े हो गये। मेरे चेहरे पर गर्वपूर्ण निगाहें जमा कर बोले, ‘जानते हो, आजकल मैं अपने कॉलेज में सबसे महत्वपूर्ण आदमी हूँ। यों समझो कि प्राचार्य का दाहिना हाथ हूँ। मुझसे पूछे बिना प्राचार्य कोई काम नहीं करते।’
वे कमरे में उचकते हुए आत्मलीन टहलने लगे। टहलते टहलते भी उनका भाषण जारी था, ‘प्राचार्य का मुझ पर पक्का विश्वास है। वे अपनी परीक्षा की कॉपियां जाँच कर छोड़ देते हैं। बाकी टोटल से लेकर डिस्पैच तक का पूरा काम मेरे भरोसे छोड़ देते हैं।’
उनकी गर्दन गर्व से तनी हुई थी। मुझे उनकी बात पर हँसी आयी, लेकिन मैंने उसे घोंट दिया। प्राचार्य की चमचागीरी करने के बाद भी वह बड़े गर्वित थे।
वे पूर्ववत उचकते हुए, कमर पर हाथ रखे टहल रहे थे। फिर बोलने लगे, ‘जानते हो, जो आदमी महत्वपूर्ण हो जाता है उसके दस दुश्मन हो जाते हैं। कॉलेज में मेरे महत्व के कारण सब मुझसे जलते हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जिस दिन मेरी किसी से झड़प नहीं होती। साले मुझे प्रिंसिपल का चमचा कहते हैं, लेकिन मेरे ठेंगे से।’
उन्होंने अपना दाहिना अँगूठा उठाकर मुझे दिखाया। मैं उनसे कुछ पारिवारिक बातें शुरू करने के लिए कोई सूराख़ ढूँढ़ रहा था लेकिन वे मुझे सूराख़ नहीं मिलने दे रहे थे।
वे फिर बोलने लगे, ‘बात यह है कि मैं पीएचडी नहीं हूँ और बहुत से गधे पीएचडी हैं। लेकिन पीएचडी से क्या होता है? विद्वत्ता में मेरी बराबरी का कोई नहीं है।’ वे अपनी छाती ठोकने लगे।
चलते चलते वे शीशे के सामने रुक गये और मुँह को टेढ़ा-मेढ़ा करके अपनी छवि निहारने लगे। वहीं से बोले, ‘विद्यार्थी सब मेरे नाम से थर्राते हैं। एक दो की तो पिटाई भी कर चुका हूँ। बहुत हंगामा हुआ लेकिन मेरा कुछ नहीं बिगड़ा। अन्त में जब वे लड़के मेरी शरण में आये तभी पास वास हुए, नहीं तो सब लटक गये थे।’
वे फिर टहलने लगे। साथ ही बाँहें झटकते हुए बोले, ‘बड़ी व्यस्तता है। दुनिया भर की यूनिवर्सिटियों की कॉपियाँ आती हैं। यहाँ रोज आदिवासी हॉस्टल में लेक्चर देना पड़ता है। पैसा तो मिलता है लेकिन साँस लेने की फुरसत नहीं मिलती।’
फिर मुझसे मुखातिब हुए। हँस कर बोले, ‘यहाँ के लोग मुझे बहुत पैसे वाला समझते हैं। यहाँ जो सामने टाल वाला है वह कहता है साझे में बिज़नेस कर लो, लेकिन मैं इस लफड़े में फँसने वाले नहीं।’
वे मुझे बातचीत में घुसने के लिए कहीं संधि नहीं दे रहे थे। अब तक मुझे लगने लगा था जैसे मैं किसी गैस चेंबर में फँस गया हूँ। लगता था जैसे सब तरफ से ‘मैं मैं मैं मैं’ की ध्वनियाँ आ रही हों। लगा, ज़्यादा समय तक यहाँ रहा तो पागल हो जाऊँगा।
मैंने घड़ी देखकर चौंकने का अभिनय किया, कहा, ‘अरे बातों में भूल ही गया। अभी वापस पहुँचना है।’
वे अपनी दुनिया से मेरी तरफ लौटे। बोले, ‘रुकिए, आपको पान खिलाऊँगा।’ उन्होंने एक विद्यार्थी से कहा, ‘जा नीचे से पान ले आ।’
वह उपेक्षा से बोला, ‘जरा काम खत्म कर लूँ, तब लाता हूँ।’ वे अवाक हुए।
मैंने उन्हें रोका, कहा, ‘चलिए, नीचे ही खा लेंगे।’
उनके साथ नीचे उतरा। जब नीचे की खुली हवा लगी तब दिमाग कुछ शान्त हुआ, नहीं तो दिमाग में घन बज रहे थे।
पान खाने के बाद उन्होंने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला ही था कि मैं लपक कर एक रिक्शे पर बैठ गया और रिक्शेवाले से कहा, ‘जल्दी चलो।’
जब रिक्शा करीब दस कदम चल चुका तो एकाएक वे पीछे से चिल्लाये, ‘आपने अपने बारे में तो कुछ बताया नहीं। आप कैसे हो?’
मैंने गर्दन निकाल कर जवाब दिया, ‘अभी तक तो ज़िन्दा हूँ।’
वे इसे मज़ाक समझ कर ज़ोर से हँस दिये।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार