मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #146 ☆ पिंजऱ्याचे दार… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 145 ?

☆ पिंजऱ्याचे दार…

मी कशाला बांध घालू आसवांना ?

रोखुनी का त्या धरावे यातनांना ?

 

बातम्यांचा पूर तसल्या रोज येतो

बांध घालू भोगवादी वासनांना

 

वृक्ष आहे माय-बापाहून मोठे

काळजाला घर पडावे छाटताना

 

जीर्ण नाही का तरीही फाटते हे ?

त्रास होतो हृदय कायम टाचताना

 

झोपण्याची वेळ झाली ही तरीही

पाहिला मी चंद्र रात्री जागताना

 

माणसांसाठीच आहे जन्म अपुला

हे अजूनी का कळेना माणसांना ?

 

पिंजऱ्याचे दार आता मी उघडले

हर्ष होतो पाखरांना सोडतांना

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – निवृत्ती ज्ञानदेव सोपान मुक्ताबाई – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – निवृत्ती ज्ञानदेव सोपान मुक्ताबाई –  ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

आई बाबा जेव्हा गेले

चार भावंडेच उरले

चार वर्षाची मुक्ताई

तीन मोठे भाऊ राहिले—–

सहा वर्षाचा सोपाना

आठ नऊचा होता ज्ञाना

निवृत्तीदादा मोठा होता

केवळ अकरा बाराचा—–

कोरान्नाची भिक्षा मागती

नेहमी निवृत्ती अन ज्ञाना

छोट्या मुक्ताईला सांभाळी

मोठा होऊनी सोपाना—–

हीच छोटी मुक्ताबाई

झाली सर्वांची ताई

कोंडुन बसल्या ज्ञानासाठी

विनवित ताटीचे अभंग गाई—–

गोऱ्या कुंभाराचे मडके

कच्चे तिनेच दाखवले

वडील आणि गुरूस्थानी

निवृत्ती नाथा पूजियले—–

मुक्ताबाई श्रेष्ठ योगिनी

निवृत्ती सोपान ज्ञानेश्वर

बळ देऊनी वारकरी पंथा

अठराव्यात होई समाधिस्थ—-

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 41 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 41 – मनोज के दोहे

देख पसीना बह रहा, कृषक खड़ा है खेत।

जेठ पूस सावन-झरे, हर फसलों को सेत।।

 

जेठ उगलता आग है, श्रमिक रहा है ताप।

अग्नि पेट की शांत हो, करे कर्म का जाप।।

 

अग्नि-परीक्षा की घड़ी, करो विवेकी बात।

आपस में मिलकर रहें, दुश्मन को दें मात।।

 

मरघट में ज्वाला जली, दे जाती संदेश।

मानव की गति है यही, छोड़ चला वह वेश।।

 

सूरज का आतप बड़ा, दे जाता संताप।

वर्षा ऋतु ही रोकती, सबका रुदन-प्रलाप।।

 

खुश होता है वह श्रमिक, उसको मिले रसूख।

उसके घर चूल्हा जले, मिटे पेट की भूख।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 96 – गीत – आओ तो केवल तुम आओ! ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – आओ तो केवल तुम आओ!…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 96 – गीत – आओ तो केवल तुम आओ!✍

आओ तो केवल तुम आओ

मत सपनों की भीड़ लगाओ।

 

संवादी सपने जब आते

यादों की बाती उकसाते

दिया नहीं घावों पर मरहम

किंतु नमक तो मत छिड़काओ।

आओ तो केवल तुम आओ

 

सपनों की तासीर गर्म है

अश्क आंख का देह धर्म है

विषम भूमि में क्या उपजेगा

मत पानी में आग लगाओ।

आओ तो केवल तुम आओ

 

आग नाग का एक वंश है

एक दाह है एक  दंश   है

सुध  बुध    खो       दे

कोई ऐसा राग सुनाओ ।

आओ तो केवल तुम आओ।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 98 – “गीले इतिहासों का…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “गीले इतिहासों का…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 98 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “गीले इतिहासों का”|| ☆

विरवा की शाखों में

चिडिया की पाँखो में

क्या-क्या टटोल गया

बादल आषाढ़ का

इमरत सा घोल गया

 

नीम की निबौरी में

घर-घर की मोरी में

बासमती चावल की

खुली नई बोरी में

 

हाथ चार हाथ कहीं

गठरी सी खोल गया

 

सुरमे की आँखो में

खोज रही बाँको में

दाँत चमक जाते हैं

विद्युती -ठहाकों में

 

छोटी पटरानी का

धीरज फिर डोल गया

 

छप्पर से नहीं चुई

पानी की बूँद नई

खोज रही भूसे में

जैसे कोई सुई

 

सजा हुआ यौवन बस

माटी के मोल गया

 

छाती में आग कहीं

चूनर में दाग कहीं

बिखर गया सहसा ही

रितु का पराग कहीं

 

गीले इतिहासों का

जैसे भूगोल गया

बादल आषाढ का

इमरत सा घोल गया

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

१०-०६-२०२२

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 145 ☆ लघुकथा – भुट्टे का मजा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “भुट्टे का मजा”।)  

☆ कथा कहानी # 145 ☆ लघुकथा – भुट्टे का मजा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हम दस बारह बुड्ढे पार्क में रोज मिलते हैं, बैठकर बतियाने की आदत है। कभी अच्छे दिन पर चर्चा चलती है, कभी मंहगाई पर, तो कभी महिलाओं के व्यवहार पर। दो चार बुड्ढे पुराने पियक्कड़ हैं, दारू की बात पर अचानक जवान हो जाते हैं, दो तीन बुड्ढे पत्नी पीड़ित हैं, और एक दो को भूलने की बीमारी है,दो तीन मोदी के अंधभक्त हैं। एक दो तो ऐसे हैं कि मोतियाबिंद के आपरेशन करा चुके हैं पर पार्क में आंख सेंकने आते हैं।

बैठे ठाले एक दिन बुड्ढों ने भुट्टे खाने का प्रोग्राम बना लिया।पाठक दादा ने आफर दिया भुट्टे हम अपने अंगने में भूनकर सबको खिलायेंगे। मुकेश और बसंत बुड्ढों ने कहा कि पड़ाव से हम दोनों देशी भुट्टे छांटकर लायेंगे।महेश को देखकर सबको गलतफहमी होती थी कि ये आधा जवान और आधा बुड्ढा सा लगता है,आंख सेंकने से आई टानिक मिलता है, पर विश्वास करता है। हृदय डुकर को नींबू और नमक लाने का काम दिया गया।

हम और बल्लू भैया फंस गए,हम लोगन से कहा गया कि आप लोग शहर से कोयला ढूंढ कर लायेंगे। बड़े शहर में कोयले की दुकान खोजना बहुत कठिन काम है, दो किलो कोयला लेने के लिए दुकान खोजने में तीन लीटर पेट्रोल खर्च होता है तीन लीटर पेट्रोल मतलब तीन सौ रुपए से ऊपर। हम लोग कोयले की दुकान ढूंढने निकले तो दो बार कार के चके पंचर हो गये, क्यों न पंचर हों, हमारी स्मार्ट सिटी में गड्ढों में सड़क ढूंढनी पड़ती है। जब दुकान ढूंढते ढूंढते परेशान हो गए तो बल्लू भैया ने कहा अगले मोड़ पर एक भुट्टे बेचने वाले से पूछते हैं कि कोयला कहां मिलेगा, जब मोड़ पर भुट्टे वाले से पूछा तो उसने बताया कि यहां से दस पन्द्रह किलोमीटर दूर एक श्मशान के सामने एक टाल है वहां कोशिश करिए, शायद मिल जाय। हम लोग कोयला ढूंढते ढूंढते थक गए थे तीन लीटर पेट्रोल खतम हो चुका था, उसकी बात सुनकर थोड़ी राहत हुई। पाठक और बसंत डुकरा तेज तर्रार स्वाभाव के थे उनकी डांट से डर लगता था, इसलिए हम दोनों भी डरे हुए थे कि कहीं कोयला नहीं मिला तो क्या होगा,पर अभी अभी भुट्टे बेचने वाले की बात से थोड़ा सुकून मिला। हम दोनों तेज रफ्तार से उस श्मशान के पास वाले टाल को ढूंढने चल पड़े। रास्ते में बल्लू भैया बोले -अरे एक ठो भुट्टा खाना है और इतना नाटक न्यौरा क्यों। एक घंटा बाद हम लोग श्मशान के पास वाले टाल में खड़े थे और कोयले का मोल भाव कर रहे थे, दुकान वाला भुनभुनाया.. कहने लगा -दो किलो कोयला लेना है और दो घंटे से मोलभाव कर रहे हैं, बल्लू हाथ जोड़कर बोला – भैया सठियाने के बाद ऐसेई होता है।

दुकान वाले ने पूछा – इतने दूर से आये हो तो दो किलो कोयले से क्या करोगे ? दुकानदार की बात सुनकर हमने पूरी रामकहानी सुना दी। ईमानदारी से हमारी बात सुनकर दुकानदार को हम लोगों पर दया आ गई बोला – दादा आप लोगों से झूठ बोलने का नईं…. आजकल कोयला कहां मिलता है, हमारे पास जो थोड़ा बहुत कोयले जैसे आता है वह वास्तव में श्मशान से आता है, कुछ बच्चे जिनको दारू की लत लगी है वे जली लाश के आजू बाजू का कोयला बीनकर लाते हैं और सस्ते में यहां बेच जाते हैं और दारू पी लेते हैं। हां कुछ भुट्टे बेचने वाले यहां से ये वाला कोयला आकर खरीद लेते हैं और भुट्टे भूंजकर अपना पेट पालते हैं, क्या करियेगा मंहगाई भी तो गजब की है।आप लोग अपने घर में भुट्टा भूंजकर भुट्टे खाने का आनंद लेना चाहते हैं तो मेरी सलाह है कि ये कोयला मत लो ….

हम दोनों ठगे से खड़े रह गए, समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। बसंत बुड्ढे का फोन आ रहा था कि इतना देर क्यों लगा रहे हो ?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 89 ☆ # हाथ की लकीरें # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# हाथ की लकीरें #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 89 ☆

☆ # हाथ की लकीरें # ☆ 

तू हाथ की लकीरों में

क्या ढूंढ रहा है ?

अपनी किस्मत या

ऊपरवाले की रहमत ?

उसने तो तुझे

सब कुछ दिया है

जब तेरा सृजन किया है

 

सुंदर आकर्षक तन

मोहित करनेवाला मन

प्रेम, दया, करूणा, धन

खुशी और अपनापन

फिर तू क्यों उलझा है

लकीरों में ?

ग्रहों, तारों के फेरों में

कर्मकाण्डो के ढेरों में

निम्बू, मिर्ची बांटते फकीरों में

 

हार ओर जीत

हाथ का मैल है

यह सब सोच का

खेल है

मान लो तो हार

ठान लो तो जीत

ज़िंदगी, तो दो

पहियों की रेल है

मेहनत से बदलेंगे

भाग्य तेरे

शीर्ष पर पहुंचायेंगी

यहीं लकीरें

बगैर हाथ के भी

नसीब होते हैं

खुद पर भरोसा कर

भाई मेरे/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवन वारी… ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जीवन वारी… ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

मूलमंत्र जीवनाचा रुजवी वारी

शिस्तपालन  प्रवाहित करते वारी

 

समता हाच आत्मा सांगे  हो वारी

वारकऱ्यात माऊली दाखवी वारी

 

निसर्गास समर्पित दिसली  वारी

मग अतिथीतच विठ्ठल पाहे वारी

 

कर्मकांडा विन ईश पूजा सांगे वारी

निष्कांचनास  समृद्धी दावी वारी

 

निष्काम कर्मयोगी घडवि वारी

माणसास माणूस बनवी वारी

 

मार्ग गीतेचा जगवी जीवनी वारी

जीवन  जगावे सहज बनून वारी

© श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 88 ☆ शापित गंधर्व… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 88 ? 

☆ शापित गंधर्व.… ☆

काटा पायात रुततो

तरी तसाच राहतो

कुटुंब पोसण्या बाप

अजन्म हो लढतो…०१

 

काट्याचे कुरूप जाहले

बापाचा पाय तो सडला

रुतणाऱ्या काट्याने

पिच्छा नाहीच सोडला…०२

 

एक वेळ अशी येते

पायच तोडल्या जातो

उभ्या आयुष्याचा तेव्हा

स्तंभ सहज ढासळतो…०३

 

तरी हा पोशिंदा बाप

लढत पडत राहतो

त्याच्या रक्तात कधी

दुजा भावच नसतो…०४

 

पूर्ण आयुष्य बापाने

डोई भार वाहिला

कुटुंबास पोसण्या

दिस-वार ना पहिला…०५

 

ना रडला कधी बाप

ना कधी व्यथा मांडल्या

मोकळे आयुष्य जगतांना

कळा भुकेच्या सोसल्या…०६

 

असा बाप तुमचा आमचा

अहोरात्र झुंजला गांजला

का कुणास ठाऊक मात्र

बाप शापित गंधर्व का ठरला…०६

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 25 – परिव्राजक –३. गाजीपूर ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 25 – परिव्राजक –३. गाजीपूरडाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

गाजीपूरच्या लोकांबरोबर स्वामीजींच्या खूप छान वैचारिक चर्चा होत होत्या. आपल्या समाजात दूरवर शिक्षणाचा प्रसार झाला पाहिजे. आपल्या संस्कृतीतील सत्वांश जाणून घेऊन समाजाला प्रेमाने विश्वासात घेऊन सुधारकांनी सुधारणा घडवून आणली पाहिजे. ती सहज प्रक्रियेतून व्हायला हवी. लादली जाऊ नये. शिक्षणाचा पाया आणि त्यातील तत्वे हिंदू विचारधारेवर आधारित असली पाहिजेत. जे चांगलं आहे ते गौरवपूर्वक मांडलं गेलं पाहिजे. हिंदू धर्मात मानले गेलेले आदर्श नीट समजून घेऊन समाजासमोर ठेवले पाहिजेत. असं समाजसुधारकांना बजावून सांगताना स्वामीजी म्हणतात, “ध्यानात ठेवा हिंदू धर्म हे काही केवळ चुकीच्या गोष्टींचे एक गाठोडे नाही. खोलवर बुडी मारा, तुमच्या हाताला अनमोल रत्ने लागतील. परक्या लोकांची संस्कृती आणि चालीरीती, यांच्या डामडौलावर भुलून जाऊ नका. आपली ही मातृभूमी कशी आहे ते समजून घ्या. आपल्या भारतीय समाजाचा जीवनहेतु काय आहे आणि त्याच्या अस्तित्वाची प्रेरणा कशात आहे, याचा तुम्ही शोध घ्या. आपल्या संस्कृतीतील आध्यात्मिक आदर्श आपण विसरून गेलो आहोत, हे आपले खरे दारिद्र्यपण आहे. आपल्या ठायी स्वत:च्या अस्मितेचे भान उत्पन्न होईल तेंव्हाच आपले सारे प्रश्न सुटतील”.

इथेच गाजीपूरमध्ये स्वामीजींच्या विचारांना एक आकार येत चालला होता. सतत आध्यात्मिक विचार तर होतेच डोक्यात, पण देशाच्या वर्तमानस्थितीबद्दल त्यांना चिंता सतावत होती आणि त्यातून बाहेर येण्याचा मार्ग शोधताना भविष्यातला दृष्टीकोण आकार घेत होता असे दिसते.

गाजीपूरला काही इंग्रज अधिकारीही होते. त्यातील दोघांशी स्वामीजींचा संवाद होत होता. अफू विभागात रॉस म्हणून एक अधिकारी होते, त्यांना हिंदू धर्म व त्यातले देवदेवता, उत्सव, सामाजिक चालीरीती, याचे खूप कुतूहल होते. काही रूढी आणि आचार उघड उघड सदोष होते, अशा आचारांना हिंदूच्या धर्मग्रंथात काही आधार आहे का याचं त्यांना कोडं पडलं होतं. मग स्वामीजींनी प्रतिसाद देत, धार्मिक कल्पनांचा विकास, आणि सामाजिक आचारांच्या मागे उभी असणारी आध्यात्मिक बैठक त्यांनी सांगितली. हे ऐकून हिंदू धर्मातला व्यापक दृष्टीकोण रॉस यांच्या लक्षात आला.

एकदा, रॉस यांनी तिथले जिल्हा न्यायाधीश पेंनिंग्टन यांची स्वामीजींशी भेट घडवून आणली. स्वामीजींनी त्यांच्या बरोबर हिंदू धर्माचे पुनरुत्थान, आजच्या विज्ञानामुळे होऊ घातलेले परिवर्तन, योगाच्या मागचा शास्त्रीय विचार, सन्याशांचा संयम आणि मनोनिग्रह यावर आधारित जीवननिष्ठा यावर संवाद साधला. स्वामीजींचा, मुलभूत मानवी शक्ति, प्रेरणा आणि साधना याबद्दलचा वेगळा दृष्टीकोण  पेंनिंग्टन यांना खूप आवडला. त्यांना वाटलं याचं तर आधुनिक मानसशास्त्राच्या आधारे विश्लेषण होऊ शकतं की. ते एव्हढे प्रभावित झाले की, ते म्हणाले, “हिंदूंचा धर्म आणि त्यांचा सामाजिक आचार याविषयीचे आपले विचार तुम्ही इंग्लंडला जाऊन तेथील विचारवंतांपुढे ठेवले पाहिजेत.”

“वादे वादे जायते तत्वबोध:” सतत तत्वचिंतन सुरू असल्याने स्वामीजींचे हे विचार  आतापर्यंत फक्त गुरुबंधु, आपल्या समाजाचे लोक यांच्यापुरताच मर्यादित होते. आज मात्र ते निराळ्या संस्कृतीत वाढलेल्या विचारवंतांपुढे मांडल्यामुळे त्याचे परिमाणच बदलले होते.

स्वामीजींच्या या समाधानकारक चर्चा तर चालू होत्याच, पण गाजीपूरला येण्याचा त्यांचा मूळ उद्देश होता, श्रेष्ठ आध्यात्मिक विभूति पवहारी बाबा यांची भेट घेणं. न्याय, वेदान्त, व्याकरण अशा सर्व शास्त्रांचा अभ्यास, भारतभर केलेला प्रवास, संस्कृत बरोबर इतर भाषांचे ज्ञान, सद्गुरूंकडून योगमार्गाची मिळालेली दीक्षा, त्याप्रमाणे वर्षानुवर्षे केलेली साधना आणि शेवटी शेवटी चालू असलेला निराहार अवस्थेतला एकांतवास व मौनाचा स्वीकार अशा तपश्चर्येचं तेज असणारे पवहारी बाबा. स्वामीजींची यांची भेट घेण्याची तीव्र इच्छा होती. त्यानंतर ते वाराणशी करून वराहनगर मठात आले. कारणही तसच होतं,  बलराम बाबू यांचं निधन झालं होतं, त्या पाठोपाठ सुरेन्द्र नाथांचे पण निधन झाले, त्यांच्या आध्यात्मिक परिवारात खूप मोठी पोकळी निर्माण झाली.

वराहनगर मठाची  व्यवस्था लावून, नंतर त्यांना हिमालयात जाऊन गढवाल च्या शांत परिसरात साधना करण्याची इच्छा होती. यावेळी त्यांचा भ्रमणाचा काळ जवळ जवळ सलग पावणेतीन वर्ष होता. आणि प्रदेश थेट हिमालयापासून ते कन्याकुमारी पर्यंतचा, विविध प्रांत, भाषा, प्रदेश, अनेक प्रकारच्या व्यक्ती असा विविधतेने नटलेल्या भारताच्या भागात त्यांनी संचार केला. त्यांनी गाजीपूरला समाजसुधारकांना म्हटलं होतं की, ‘आपली मातृभूमी समजून घ्या’ त्याप्रमाणे ते ही याच उद्देशाने स्वदेश संचाराला निघाले होते.    

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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