(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “क्या है जिंदगी अपनी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 89 ☆ ’’क्या है जिंदगी अपनी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
सुना है, लोग कहते है, ये दुनियाँ एक सपना है
अगर ये सच है तो फिर सच में कहो क्या है जिंदगी अपनी।।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #97 देने की नीति… ☆ श्री आशीष कुमार☆
कड़ाके की ठंड पड़ी। पृथ्वी पर रेंगने वाले कीटक उससे सिकुड़ कर मरने लगे। वन्य प्राणियों के लिए आहार की समस्या उत्पन्न हो गई। लोग शीत निवारण के लिए जलावन ढूंढ़ने निकले। सब के शरीर अकड़ रहे थे तो भी कष्ट निवारण का उपाय किसी से बन नहीं पड़ रहा था।
वृक्ष से यह सब देखा न गया। इन कष्ट पीड़ितों की सहायता के लिए उसे कुछ तो करना ही चाहिए। पर करें भी तो क्या। उसके पास न बुद्धि थी, न पुरुषार्थ, न धन और न अवसर।
फिर भी वह सोचता ही रहा- क्या मेरे पास कुछ भी नहीं है? भला ऐसा कैसे होगा? सर्वथा साधन हीन तो इस सृष्टि में एक कण भी नहीं रचा गया है? गहराई से विचार किया तो लगा कि वह भी साधनहीन नहीं है। पत्र-पल्लवों की प्रचुर संपदा प्रकृति ने उसे उन्मुक्त हाथों से प्रदान की है। वृक्ष ने संतोष की साँस ली। पुलकन उसके रोम-रोम में दौड़ गई।
वृक्ष ने अपने सारे पत्ते जमीन पर गिरा दिए। रेंगने वालों ने आश्रय पाया, पशुओं को आहार मिला, जलावन को समेट कर मनुष्यों ने आग तापी और जो रहा बचा सो खाद के गड्ढे में डाल दिया। दुम हिलाते रंग बदलते गिरगिट अपनी कोतर से निकला और वृक्ष से पूछने लगा- अपनी शोभा सम्पदा गँवाकर तुम ढूँठ बन गये। इस मूर्खता में आखिर क्या पाया?
वृक्ष गिरगिट को निहारता भर रहा पर उत्तर कुछ नहीं दिया। कुछ समय उपरान्त बसन्त आया। उसने ढूँठ बनकर खड़े हुए वृक्ष को दुलारा और पुराने पके पत्तों के स्थान पर नई कोपलों से उसका अंग प्रत्यंग सजा दिया। यह तो उसके दान का प्रतिदान था। अभी उपहार का अनुदान शेष था सो भी बसन्त ने नये बसंती फूलों से मधुर फलों से लाद कर पूरा कर दिया। वृक्ष गौरवान्वित था और सन्तुष्ट भी।
गिरगिट फिर एक दिन उधर से गुजरा। वृक्ष पहले से अधिक सम्पन्न था। उसने देने की नीति अपना कर खोया कम और पाया ज्यादा यह उसने प्रत्यक्ष देखा।
पूर्व व्यंग की निरर्थकता का उसे अब आभास हुआ सो लज्जा से लाल पीला होता हुआ वह फिर अपने पुराने कोंतर में वापिस लौट गया।
हेमलता भालचंद्र फडके यांचं “आठवणींच्या रांगोळ्या” हे आत्मवृत्त त्यांच्या व पतीच्या आठवणींचा संग्रह आहे. मराठीतील मान्यवर समीक्षक, प्राध्यापक डाॅ. भालचंद्र फडके यांच्या त्या पत्नी.. त्यांच्या निधनानंतर मन मोकळं करण्यासाठी त्यांनी ” शब्द ” या माध्यमाचा आधार घेतला..हे त्यांचं लेखन आठवणींचे कथन करणारे असल्यामुळे त्यात जीवनातले कडू गोड प्रसंग वर्णन करण्यावर भर आहे.
हेमलताबाईंनी आपल्या दोन्हीकडच्या आजोळचं चित्रण केलेले आहे.. त्या सोलापूरच्या.. माहेरचं नाव हेमलता बाबूराव कदम… महाविद्यालयीन वयात प्रा. भालचंद्र फडके त्यांच्या विधवा मावशीला शिकवायला घरी येत.. (सगळे घरचे त्यांना सर म्हणतं)
त्यांच्या आयुष्यातील महत्त्वाची घटना ती म्हणजे सरांशी म्हणजेच प्रा. भालचंद्र फडके यांच्याशी केलेला प्रेमविवाह… भालचंद्र फडके कोकणस्थ ब्राम्हण तर या शहाण्णव कुळी मराठा.. पण त्यांच्या माहेरी प्रागतिक विचारांचा प्रभाव असल्यामुळे लग्नाला विरोध नव्हता, पण त्यांच्या आईचा मात्र होता.( त्यांना हे लग्न मान्य नव्हते) त्यामुळे प्रत्यक्ष लग्न होईपर्यंत बराच काळ गेला. इतकं होऊनही त्यांच्या सासूबाईनी त्यांना स्वीकारलं नाही.
संघर्षशील संसाराचे हे स्मृतिचित्र — फडके यांच्याशी लग्न होईपर्यंतच्या कालखंडातील आठवणी यात आहेत..त्या सरांविषयीच्या आदराने आणि दिलखुलास व्यक्तिमत्वाच्या प्रभावाने भारलेल्या आहेत. त्या लग्नानंतरही पतीला सरच म्हणत.. त्या लिहितात.. ते माझे जीवनसाथी असूनही माझे मार्गदर्शक होते. मला कधीही एक पै चा हिशोब विचारला नाही की घरात नवरेशाही दाखवली नाही…
नोकरी निमित्ताने भालचंद्र फडके यांना अकोला अमरावती येथे काही काळ वास्तव्य करावे लागले. तेथील त्यांच्या वास्तव्यातील फडके यांच्या सार्वजनिक जीवनातील यशस्वी सहभागाविषयी त्यांनी लिहिलेले आहे. ( भाषणे आदी माध्यमातून) …
“ संसाराचं सामान हलवताना ‘— यात फडके यांच्या ( सरांच्या) पुस्तकसंग्रहाला मिळालेला डालडा तुपाच्या डब्यांचा सहवास– त्यामुळे घडलेलं रामायण, यांचे मिश्किल वर्णन त्यांनी केलं आहे..
ना.सी. फडके यांच्या उपस्थितीत फडक्यांनी ( सरांनी) केलेले परखड भाषण आणि ना.सी. फडके यांचे त्यावरील उत्तर…फडक्यांना पुणे विद्यापीठात नोकरी मिळाल्यानंतरचा हा प्रसंग लक्षात राहणारा आहे..
” तुकारामपणा ” हा त्यांचा स्वभाव हेमलताबाईंना खटकत असे.. विद्यापीठीय राजकारणाचे बसलेले चटके, त्यांच्या भिडस्तपणाचा इतरांनी घेतलेला फायदा, निवृत्तीनंतर पेंशन मिळण्यासाठी सात वर्षे करावी लागलेली प्रतीक्षा, या सा-या गोष्टी त्यांना संसार चालवतानाही त्रास देत होत्या.. त्या संदर्भात काही व्यक्तींचे तक्रारवजा उल्लेख यात प्रसंगपरत्वे आहेत..
मुलीचा जन्म व तिचे शिक्षण व स्वतः एम.ए ची पदवी प्राप्त करून विमलाबाई गरवारे प्रशालेत केलेलं अध्यापन, या जमेच्या बाजु.. सुखवस्तू घरातील असल्याने त्या अनाठायी खर्च करतील असा सरांचा झालेला समज. त्यामुळे त्यांचा विश्वास संपादन करायला मला दहा वर्षे लागली असे त्या इथे नमूद करतात..अनेक बाबतीत आर्थिक तपशीलही देतात….. स्वतःचा भित्रा स्वभाव व स्वतःविषयीचा न्यूनभावही व्यक्त करतात..
निवृत्तीनंतर काही वर्षातचं सरांचे सुरू झालेले आजारपण सुमारे तेरा वर्षे चालूच राहिले होते…..हे फडक्यांचे (सरांचे)
आजारपण हेमलताबाईंसाठी सत्वपरीक्षेचा अनुभव होता. त्यातील अनेक आठवणी त्या इथे तपशीलवारपणे देतात..
फडक्यांना जवळच्या असलेल्या विद्यार्थ्यांपैकी सुभाष मेंढापूरकर, तेज निवळीकर, डाॅ. किरवले यांच्या आठवणी हृद्य आहेत.. मात्र नातेवाईक मंडळींचा आधार मिळाला नाही.. त्या लिहितात- काही गैरसमजाने दोन्हीकडचे म्हणजे सासर-माहेरचे लोक आमच्याशी बोलत नव्हते.. प्रत्यक्षात त्यांनी काही नातेवाईक मंडळींचे प्रतिकूल अनुभव दिले आहेत..
भालचंद्र फडके यांच्या मृत्युनंतर त्यांचे मन त्यांच्या आठवणींनी व्याकूळ होई. त्या लिहितात, प्रथम प्रथम मी त्यांच्याशी तिन्ही भाषेत बोले. ते समोर आहेत असे समजून जे बोलत असे ते वहीत लिहीत असे..
आठवणींतून स्वतःला बळ देण्याची, स्मरण संजीवनाची खास स्त्री- संवेदनायुक्त अशी ही प्रेरणा आहे.
स्त्रीसाहित्यामागची ही ठळक निर्मिती प्रेरणा ” आठवणींच्या रांगोळ्या ” मधील वेधक आकृती व उदास रंग उठावदार करते..
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख औरत की नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 140 ☆
☆ औरत की नियति ☆
‘दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुज़र गई/ रात की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र गई/ जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं/ मेरी सारी उम्र उस घर को सजाने में गुज़र गई।’ जी हां! यह पंक्तियां हैं अतुल ओबरॉय की, जिसने महिलाओं के दर्द को आत्मसात् किया; उनके दु:ख को समझा ही नहीं, अनुभव किया और उनके कोमल हृदय से यह पंक्तियां प्रस्फुटित हो गयीं; जो हर औरत के जीवन का सत्य व कटु यथार्थ हैं। वैसे तो यदि हम औरत शब्द को परिभाषित करें, तो उसका शाब्दिक अर्थ जो मैंने समझा है– औरत औ+रत अर्थात् जो औरों की सेवा में रत रहे; जो अपने अरमानों का खून कर दूसरों के लिए जिए और उनके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर प्रसन्नता का अनुभव करे।
यदि हम नारी शब्द को परिभाषित करें, तो उसका अर्थ भी यही है– ना+अरि, जिसका कोई शत्रु न हो; जो केवल समझौता करने में विश्वास रखती हो; जिसमें अहं का भाव न हो और वह दूसरों के प्रति समर्पित हो। वैसे तो समाज में यही भावना बलवती होती है कि संसार में उसी व्यक्ति का मान-सम्मान होता है; जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए हों और औरत इसका अपवाद है। जीवन संघर्ष का पर्याय है। परंतु उसे तो जन्म लेने से पूर्व ही संघर्ष करना पड़ता है, क्योंकि लोग भ्रूण-हत्या कराते हुए डरते नहीं– भले ही हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को कुम्भीपाक नरक प्राप्त होता है। दुर्भाग्यवश यदि वह जन्म लेने में सफल हो जाती है; घर में उसे पग-पग पर असमानता-विषमता का सामना करना पड़ता है और उसे बचपन में ही समझा दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं है; वह वहां चंद दिनों की मेहमान है। तत्पश्चात् उसे स्वेच्छा से उस घर को छोड़कर जाना है और विवाहोपरांत पति का घर ही उसका घर होगा। बचपन से ऐसे शब्द-दंश झेलते हुए वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाती। पति के घर में भी उसे कहाँ मिलता है स्नेह व सम्मान, जिसकी अपेक्षा वह करती है। तदोपरांत यदि वह संतान को जन्म देने में समर्थ है तो ठीक है, अन्यथा वह बाँझ कहलाती है और परिवारजन उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। उसका जीवन साथी कठपुतली की भांति मौन रहकर उस अप्रत्याशित हादसे को देखता रहता है, क्योंकि उसकी मंशा से ही उसे अंजाम दिया जाता है और वह मन ही मन नववधु के स्वप्न संजोने लगता है।
सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देने के पश्चात् उसे जननी व माता का दर्जा प्राप्त होता है और वह अपनी संतान की अच्छी परवरिश हित स्वयं को मिटा डालती है। उसके दिन-रात कैसे गुज़र जाते हैं; वह सोच भी नहीं पाती। दिन की रोशनी तो ख़्वाबों को सजाने व रातों की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र जाती है। उसे आत्मावलोकन करने का तो समय ही नहीं मिलता। परंतु वह खुली आंखों से स्वप्न देखती है कि बच्चे बड़े होकर उसका सहारा बनेंगे। सो! उसका सारा जीवन इसी उधेड़बुन में गुज़र जाता है। दिन भर वह घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती है और परिवारजनों के इतर कुछ भी सोच ही नहीं पाती। उसकी ज़िंदगी ता-उम्र घर की चारदीवारी तक सिमट कर रह जाती है। परंतु जिस घर को अपना समझ वह सजाने-संवारने में लिप्त होकर अपने सुखों को तिलांजलि दे देती है; उस घर में उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं मिलती, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है और वह सोचने पर विवश हो जाती है कि ‘जिस घर में उसकी उसके नाम की तख्ती भी नहीं; उसकी सारी उम्र उस घर को सजाने-संवारने में गुज़र गयी।’
वास्तव में यही नियति है औरत की– ‘उसका कोई घर नहीं होता और वह सदैव परायी समझी जाती है। उन विषम परिस्थितियों में वह विधाता से प्रार्थना करती है कि ऐ मालिक! किसी को दो घर देकर उसका मज़ाक मत उड़ाना। पिता का घर उसका होता नहीं और पति के घर में वह अजनबी समझी जाती है। सो! न तो पति उसका हो पाता है; न ही पुत्र।’ अंतकाल में कफ़न भी उसके मायके से आता है और मृत्यु-भोज भी उनके द्वारा–यह देखकर हृदय उद्वेलित हो उठता है कि क्या पति व पुत्र उसके लिए दो गज़ कफ़न जुटाने में अक्षम हैं? जिस घर के लिए उसने अपने अरमानों का खून कर दिया; अपने सुखों को तिलांजलि दे दी; उसे सजाया-संवारा– उस घर में उसे अजनबी अर्थात् बाहर से आयी हुई कहा जाता है।
मुझे स्मरण हो रही हैं मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियां ‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी/ आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।’ इक्कीसवीं सदी में भी नब्बे प्रतिशत महिलाओं के जीवन का यही कटु यथार्थ है। वे मुखौटा लगा समाज में खुश रहने का स्वाँग करती हैं। परंतु उनके भीतर का सत्य यही होता है। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार बन जाते हैं। उसे तो आजीवन उस अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ती है, जो उसने किया ही नहीं होता। इतना ही नहीं, उसे तो जिरह करने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता, जो हर अपराधी को कोर्ट-कचहरी में प्राप्त होता है– अपना पक्ष रखने का अधिकार।
धैर्य एक ऐसा पौधा होता है, जो होता तो कड़वा है, परंतु फल मीठे देता है। बचपन से उसे हर पल यह सीख जाती है कि उसे सहना है, कहना नहीं और न ही किसी बात पर प्रतिक्रिया देनी है, क्योंकि मौन सर्वोत्तम साधना है और सहनशीलता मानव का अनमोल गुण। परंतु जब निर्दोष होने पर भी उस पर इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा किया जाता है, तो वह अपने दिल पर धैर्य रूपी पत्थर रख चिन्तन करती है कि मौन रहना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि उसके परिणाम भी मनोहारी होते है। शायद! इसलिए ही लड़कियों को प्रतिक्रिया न देने की सीख दी जाती है और वे मासूम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आजीवन कोसों दूर रहती हैं। बचपन में वे पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे तथा विवाहोपरांत पति व पुत्र के अंकुश में रहती हैं और अपनी व्यथा-कथा को अपने हृदय में दफ़न किए इस बेदर्द जहान से रुख़्सत हो जाती हैं। नारी से सदैव यह अपेक्षा की जाती है कि वह निष्काम कर्म करे और किसी से अपेक्षा न करें।
परंतु अब ज़माना बदल रहा है। शिक्षित महिलाएं सशक्त व समर्थ हो रही हैं; परंतु उनकी संख्या नगण्य है। हां! उनके दायित्व अवश्य दुगुन्ने हो गए हैं। नौकरी के साथ उन्हें पारिवारिक दायित्वों का भी वहन पूर्ववत् करना पड़ रहा है और घर में भी उनके साथ वैसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता है और उन्हें मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है।
परंतु संविधान ने महिलाओं के पक्ष में कुछ ऐसे कानून बनाए गए हैं, जिनके द्वारा वर पक्ष का उत्पीड़न हो रहा है। विवाहिता की दहेज व घरेलू-हिंसा की शिकायत पर उसके पति व परिवारजनों को जेल की सीखचों के पीछे डाल दिया जाता है; जहाँ उन्हें अकारण ज़लालत व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए लड़के आजकल विवाह संस्था को भी नकारने लगे हैं और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प कर लेते हैं। इसे हवा देने में ‘लिव इन व मी टू’ का भी भरपूर योगदान है। लोग महिलाओं की कारस्तानियों से आजकल त्रस्त हैं और अकेले रहना उनकी प्राथमिकता व नियति बन गई है। सो! वे अपना व अपने परिजनों का भविष्य दाँव पर लगाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते।
‘अपने लिए जिए तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल! ज़माने के लिए।’ यह पंक्तियां औरत को हरपल ऊर्जस्वित करती हैं और साधना, सेवा व समर्पण भाव को अपने जीवन में संबल बना जीने को प्रेरित करती हैं।’ यही है औरत की नियति, जो वैदिक काल से आज तक न बदली है, न बदलेगी। सहसा मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियां ‘चुपचाप सहते रहो, तो आप अच्छे हो; अगर बोल पड़ो, तो आप से बुरा कोई नहीं।’ यही है औरत के जीवन के भीतर का कटु सत्य कि जब तक वह मौन रहकर ज़ुल्म सहती रहती है; तब तक सब उसे अच्छा कहते हैं और जिस दिन वह अपने अधिकारों की मांग करती है या अपने आक्रोश को व्यक्त करती है, तो सब उस पर कटाक्ष करते हैं; उसे बुरा-भला कहते हैं। परंतु ध्यातव्य है कि रिश्तों की अलग-अलग सीमाएं होती हैं, लेकिन जब बात आत्म-सम्मान की हो; वहाँ रिश्ता समाप्त कर देना ही उचित है, क्योंकि आत्मसम्मान से समझौता करना मानव के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। परंतु नारी को आजीवन संघर्ष ही नहीं; समझौता करना पड़ता है; यही उसकी नियति है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – वह मारा गया।)
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे …”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना “बारिश आई… … ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – शिल्पी ! ।)