हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 117 ☆ भारत माँ के सपूत स्वामी विवेकानंद ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 117 ☆

☆ भारत माँ के सपूत स्वामी विवेकानंद ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

ओ!सपूत प्रिय भारत माँ के

तुमको मेरा शत – शत वंदन।

जगा अलख यूके,अमरीका

झंडा गाड़ दिया जा लंदन।।

 

तन – मन- धन सब किया समर्पित

तुमने सारा देश जगाया।

तुमने ही गुरु ज्ञानी बनकर

विश्व पटल पर रंग जमाया।

समता, ऐक्य प्रेम सेवा से

निर्धन , नारी मान बढ़ाया।

वेद, पुराण, सार गीता का

सारे जग में ही फैलाया।

 

सौ – सौ बार नमन है मेरा,

कलयुग के प्यारे रघुनंदन।।

 

परिव्राजक नंगे पाँवों के

योद्धा वीर और संन्यासी।

सभी तीर्थ के तीर्थ बने तुम

तुम ही मथुरा, तुम ही काशी।

ईश्वर को जन जन में परखा

तुम ही बने अखिल अविनाशी।

गूंज रहे स्वर दिशा-दिशा में

जयकारों के नित आकाशी।

 

फिर से जन्मो एक बार तुम

भारत माँ के चर्चित चंदन।।

 

विश्वनाथ घर जन्म लिया था

भुवनेश्वरी मातु थीं ज्ञानी।

कलकत्ता थी जन्मभूमि पर

बचपन में की थीं शैतानी।

सब धर्मों में प्रेम बढ़ाकर

बने आप प्रिय  हिंदुस्तानी।

बालक , बूढ़े सभी दिवाने

यादगार हैं सभी कहानी।

 

त्याग, तपस्या फलीभूत हो

करता भारत है अभिनंदन।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #116 – स्वप्न…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 116 – स्वप्न…! ☆

पावसात भिजताना “तिला”

आठवणारा मी

आज माझ्या फुटपाथ वरच्या झोपडीची

तारांबळ बघत होतो

आणि…

पावसाचं पाणी झोपडीत येऊ नये म्हणून

माझ्या माऊलीची चाललेली धडपड

नजरेत साठवत होतो

इतक करूनही..झोपडीत

निथळणार पाणी थेट तिच्या

काळजाला भिडत होत

आणि…

काय कराव या विचारानेच

तिच्या डोळ्यात पाणी कसं

अगदी सहज दाटत होत

कुटुंबातली लेकरं

अर्ध्या-मुर्ध्या कपड्यावर

मनसोक्त भिजत होती

माझी माय मात्र

आपल्या तुटपुंज्या संसाराची

स्वप्ने आवरत होती

तिची स्वप्ने म्हणजे तरी

काय असणार?

एका बंद पेटीत कोंडलेली चार दोन भांडी

आणि संसारा प्रमाणे फाटलेली

बोचक्यात बांधुन ठेवलेली काही लुगडी

फुटपाथ वरच्या संसारात

असतच काय खरतर

आवरायला कमी आणि सावरायला जास्त

कुठेही गेल की

चुल तेवढी बदलत जाते आणि..

फिरता संसार घेऊन फिरणार्‍या

माझ्या माऊलीची स्वप्न मात्र

ती बंद पेटीच पहात असते…!

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – उंबरा… – ☆ सुश्री हेमा फाटक ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – उंबरा… –  ? ☆ सुश्री हेमा फाटक 

उंबर्‍याशी विसावलं

घाई नाही कसलीही

म्हातारपण द्वाड बाई

सय नाही सुटलेली—- 

घर खाया उठलेलं

सारं कसं चिडीचूप

दिसागणिक वाढते

लेकरांची याद खूप—-

भरलेला होता वाडा

ओसरीला आला-गेला

पायताणांचा राबता

सडा पडे गर्द ओला—-

लेकरांनी माजघर

तिथं कालवा केवढा

रडे हट्ट हाणामारी

शांत रातीस तेवढा—-

पाखरा इवं सारी पोरे

शिकूनिया दूर गेली

विसरोनी गांव खेडी

शहराची वासी झाली—-

धनी काळवासी झाले

आता कोठला दरारा

म्हातारीच्या डोईवर

उभा रिता हा पसारा—-

फक्त उन्हाळ्याची सुट्टी

घालवण्या पोरे येती

म्हातारीच्या सोबतीला

फक्त मोकळ्याच राती—-

रस्त्यावर वाटसरू

येतां जातां ख्याल पुसें

अवचित बोला साठी

माय उंबर्‍याला बसे—–

माय उंबर्‍याला बसे !!—-

चित्र साभार – सुश्री हेमा फाटक

© सुश्री हेमा फाटक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#139 ☆ तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…1 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…1”)

☆  तन्मय साहित्य # 138 ☆

☆ तन्मय दोहे – मायावी षड्यंत्र…1 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

अभिलाषाएँ  अनगिनत, सपने  कई हजार।

भ्रमित मनुज भूला हुआ, कालचक्र की मार।।

 

नकली जीवन जी रहे, सुविधा भोगी लोग।

स्वांग संत का दिवस में, रैन अनेकों भोग।।

 

पानी पीते छानकर, जब हों बीच समाज।

सुरा पान एकान्त में, बड़े – बड़ों  के राज।।

 

साधे जो जन स्वयं में, योगसिद्ध गुरु ज्ञान

दायित्वों के साथ में, चढ़े प्रगति सौपान ।।

 

मंचों पर वह राम का अभिनय करता खास।

मात – पिता को दे दिया, उसने ही वनवास।।

 

सभी  मुसाफिर है यहाँ, बँधे  एक ही  डोर।

मंत्री  –  संत्री, अर्दली,  साहूकार  या  चोर।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 39 – पारिवारिक रिश्ते ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  पारिवारिक रिश्ते।)   

☆ कथा कहानी # 39 – पारिवारिक रिश्ते ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

मां की ममता की हकदार तो सभी संताने होती हैं और उन्हें मिलती भी है पर निर्भरता बेटों की मां पर बहुत ज्यादा होती है. मां के लिये बेटों से जुड़े भविष्य के सपनों, आकांक्षाओं के पूरे होने की उम्मीद रहती है जबकि बेटियों का वैवाहिक जीवन सफल,समृद्ध,सुखी हो, पति का प्यार और पति के पेरेंट्स का स्नेह मिलता रहे, यही कामनायें मां करती हैं.बेटियां उच्च और महंगी शिक्षा प्राप्त कर स्वर्णिम कैरियर बनाते हुये आत्मनिर्भर बनें और अपने जीवन के हर महत्वपूर्ण फैसले खुद लें, यह बेटियों की इच्छा तो होती है पर ये उपलब्धि पाने का लक्ष्य मां के मन के अंदर की असुरक्षा रूपी भय को दूर नहीं कर सकता. शायद यही सदियों से भारतीय संस्कृति के साइड इफेक्ट हैं जिन्हें हर मां और वो बेटी भी जब मां बनती है तो अपने बेटी के लिये महसूस करती है. हम लोग कितनी भी प्रगति कर लें और बेटियाँ कितनी भी शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बन जायें पर पेरेंट्स के दिलों से ये असुरक्षा का भय कभी जाता नहीं है.बेटों का अकेले कहीं भी और कभी भी आना जाना अनुशासन की दृष्टि से भले ही नियंत्रित किया जाय पर असुरक्षा के लिहाज से पेरेंट्स के दिलों में कभी भी चिंता उत्पन्न नहीं करता.

फिल्मों में भी मां और बेटे का प्यार और एक दूसरे के लिये हद से गुजर जाना हिट फार्मूला है. इन भावनाओं का दोहन, फिल्म के हिट होने की गारंटी होती है. सारे सिंगिग और डांसिंग रियल्टी शोज़ के एक एक एपीसोड मां के नाम रिजर्व होते हैं और viewership के मामले में ये देशभक्ति के एपीसोड के साथ साथ ही हमेशा पहली पायदान पर होते हैं.

बेटियां पिता के लिये बहुत मूल्यवान और शायद दिल के ज्यादा नज़दीक होती हैं,यह एक बायोलाजिकल फेक्ट है पर पिता और बेटी के खूबसूरत रिश्तों और संवेदनाओं को उकेरती इक्का दुक्का फिल्में ही बनी हैं. एक फिल्म याद आती है “परिचय” जिसमें पिता और बेटी का किरदार संजीव कुमार और जया भादुड़ी ने निभाया था. हालांकि संजीव कुमार बहुत कम समय ही फिल्म में रहे. ये दोनों ही कलाकार अभिव्यक्ति के मामले में संवाद पर निर्भर नहीं हैं. इनकी आंखें वो सब दर्शकों के मन तक पहुँचा जाती हैं जो भावनात्मक भारी भरकम डॉयलाग भी नहीं कर पाते.एक और फिल्म है”पीकू” जिसमें अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोन के बीच पिता और पुत्री के रिश्ते को बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया था.अपनी आंखों से बहुत कुछ कहने वाले अभिनेता हैं “अमिताभ बच्चन जिनकी फिल्में ” काला पत्थर और शक्ति ” में उनकी खामोश आवाज पर बोलती आँखों से दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं.शक्ति में तो अपनी मौजूदगी पर एक दूसरे पर भारी पड़ते अभिनेता थे दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन.. कमाल के सीन थे फिल्म शक्ति के जिसके बारे में अमिताभ बच्चन ने स्वंय कहा था कि जब मैं सीन के दौरान दिलीप साहब की आंखों में देखता था तो उनके चुंबकीय व्यक्तित्व से मोहित होकर खुद एक्टिंग करना भूल जाता था. दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन ही ऐसे दो अभिनेता हैं कि जब ये चुप रहते हैं तो इनकी आंखे बोलती हैं और वह सब संप्रेषित हो जाता है जिसके लिये डॉयलाग भी कम पड़े ,पर जब ये बोलते हैं तो इनकी बेमिसाल आवाजें सुनकर लगता है कि बस सुनते जाइये सुनते जाइये. लीजिए इनका जिक्र करते करते हम भी भटक गये. इन अभिनेताओं के चक्कर में भटकना स्वाभाविक भी था.

पिता और बेटी के अनूठापन लिये हुये स्नेह का रिश्ता, एक दूसरे पर निर्भरता, बेटी के विवाह के बाद खालीपन महसूस करते पिता और ससुराल में अपने पिता की छवि को तलाशती बेटी पर कोई फिल्म बनी हो याद नहीं आता. अगर बनती भी तो इन भूमिकाओं को न्याय बलराज साहनी, संजीव कुमार और जया भादुड़ी ,दीपिका पादुकोन जैसे ही अपनी भावप्रवणता से दे पाते और निर्देशक भी फिर उसी स्तर के ही ये सब संभव कर पाते.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 140 ☆ आता… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 140 ?

☆ आता… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आता सगळ्या कविता….

बासनात बांधून माळ्यावर टाकल्या….

किंवा अडगळीत फेकल्या…

काय फरक पडणार आहे?

 

कधीतरी वाटायचं आपल्याला सुचते कविता….

काहीतरी उगवतंय मेंदूत..

आणि उतरतंय कागदावर…

 

किती तरी वेगळे आहोत

आपण

इतरांहून !

 

….जे उगवतंय…ते अव्वल नसलं

तरी सुमार ही नाही…..

पण ही ओळख स्वतःची स्वतःला…!!

 

कुणी म्हटलं कुत्सितपणे,

एवढे कागद आणि शाई

खर्च करून काय उपयोग?

ज्ञानपीठ मिळणार आहे का ??

 

तर कुणी म्हटलं ….

“तुझं जगणं हीच कविता आहे.”

आणि मी लिहीत गेले कविता…

त्या सा-या अलवार क्षणांवर…..!!

 

आता भूतकाळाचं फुलपाखरू भुर्र्कन उडून गेलं…..

कविता म्हातारी झाली

की आऊट डेटेड माहित नाही…..

 

आता झाडं बोलत नाहीत….

पक्षी गात ,

माझ्या कवितेच्या प्रदेशातले ….

 

कविता संपली आहे माझ्यातली….की माझ्यातून ??

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ शोध आनंदाचा…भाग – 5 ☆ सुश्री शुभदा जोशी ☆

सुश्री शुभदा जोशी

 

? मनमंजुषेतून ?

 ☆ शोध आनंदाचा…भाग – 5 ☆ सुश्री शुभदा जोशी ☆ 

निखळ, मोकळा आणि अर्थपूर्ण संवाद ही आनंदाची पर्वणीच म्हणायला हवी!

मी एकटी जेव्हा विचार करते तेव्हा एका टप्प्यावर येऊन मला थांबल्यासारखे वाटते. पुढचे दिसत नाही. जेव्हा मी मला काय वाटतं आहे, समजलं आहे ह्या बद्दल मी इतरांशी बोलते तेव्हा माझ्या विचारांमध्ये अगदी वेगळी, अनपेक्षित अशी भर पडू शकते. किंवा माझ्या विचारांमधली तृटी दाखवणारा एखादा मुद्दादेखील हाती लागू शकतो. माझ्या विचारांना चालना मिळते. थांबलेले विचार प्रवाही होतात. अशा देवाणघेवाणीतून, मंथनातून जे आकलन आकार घेते त्याची अनुभूती चकित करणारी असते.

एकाच अनुभवासंदर्भात देखील त्यात सहभागी असलेल्या प्रत्येकाचा प्रतिसाद वेगवेगळा असू शकतो. प्रत्येक माणूस हा एकमेवाद्वितीय असतो. त्याचा स्वभाव, विचार करण्याची पद्धत, दृष्टीकोन वेगवेगळा असतो. हे वेगळे पण कुठून येते? 

माणूस ज्या सामाजिक – सांस्कृतिक परिवेशात वाढतो आणि त्या अनुभवांचा अर्थ तो त्या त्या वेळी कसा लावतो यावर हे वेगळेपण अवलंबून असते. या Cultural Capital बद्दल जेव्हा मी पहिल्यांदा वाचले होते तेव्हा मला बरेच काही उलगडले होते.

माणूस हा सामाजिक प्राणी आहे, तो एकटा जगू शकत नाही. इतरांच्या साथीनेच तो समृद्ध बनत जातो. एकमेकांना पूर्ण करणारे हे परस्परावलंबन सर्वांच्याच  आयुष्यात आनंद फुलवते.

©  सुश्री शुभदा जोशी  

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २५ – भाग २ -वास्को-डि-गामाचे हिरवे पोर्तुगाल ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २५ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ वास्को-डि-गामाचे हिरवे पोर्तुगाल  ✈️

पोर्टोहून कोइंब्रा इथे आलो. मोंडेगा नदीच्या काठी असलेल्या या शहरामध्ये ‘युनिव्हर्सिटी ऑफ कोइंब्रा’ ची स्थापना १५३७ साली झाली. विद्यार्थ्यांचे शहर अशीच या शहराची ओळख आहे. इटली, स्पेन, पॅरिस व इंग्लंडनंतर स्थापन झालेली ही युरोपमधील पाचवी  युनिव्हर्सिटी आहे. उच्च शिक्षण आणि संशोधन यासाठी ही युनिव्हर्सिटी नावाजली जाते. युरोप व अन्य देशातील विद्यार्थ्यांना इथे वेगवेगळ्या शाखांमधून प्रवेश मिळविण्यासाठी अतिशय कठीण अशी प्रवेश परीक्षा द्यावी लागते. रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र, गणित, इंजीनियरिंग, इतिहास, भाषाशास्त्र, कायदा, मानववंशशास्त्र अशा अनेक शाखांमध्ये इथे अध्ययन  केले जाते. सर्व शिक्षणाची अधिकृत भाषा पोर्तुगीज आहे. विद्यार्थ्यांना पारंपरिक पद्धतीचा काळा, लांब गाऊन घालावा लागतो. युरोपमधील विद्वान प्रोफेसर्सची इथे नेमणूक केली जाते.

विद्यापीठाच्या खूप मोठ्या प्रांगणातील बेल टॉवरमधील घंटा चार टनाची आहे.  दोन लाखांहून अधिक पुस्तके असलेली इथली लायब्ररी बघण्यासारखी आहे. प्राचीन हस्तलिखिते, सोळाव्या शतकातील तत्वज्ञान, मेडिसिन यावरील अमूल्य ग्रंथसंपदा इथे आहे. षटकोनी आकारातील, खूप उंची असलेल्या या लायब्ररीचे कमानीसारखे प्रवेशद्वार लाकडी आहे पण ते मार्बलसारखे वाटते. पोर्तुगालमधील ओक वृक्षांचे व ब्राझीलमधील जॅकरन्डा वृक्षांचे लाकूड वापरून भिंतीपासून उंच छतापर्यंत कोरीव काम केलेले आहे. साऱ्या कोरीव कामाला खऱ्या सोन्याचा मुलामा दिलेला आहे. पुस्तके ठेवण्यासाठी उंच उघडी कपाटे लायब्ररीच्या सर्व भिंतींवर व त्यावरील माडीवर केलेली आहेत. उंचावरील पुस्तके काढण्यासाठी केलेल्या शिड्या, दोन कपाटांच्या मधल्या खाचेत बरोबर बसतील अशा केलेल्या आहेत. छताजवळील उंच कोपऱ्यात चारी दिशांना चार सुंदर देवतांचे उभे पुतळे चार खंडांचे प्रतीक म्हणून आहेत. ( तेंव्हा अमेरिकेचा शोध लागलेला नव्हता.) लायब्ररीच्या बाहेरच्या सर्व बाजूंनी खूप रुंद अशी भिंत पुस्तकांचे उन्हा- पावसापासून संरक्षण करण्यासाठी बांधली आहे. खूप उंचावर असलेली काचेची तावदाने उघडता-मिटता येतात. त्यातून आत प्रकाश झिरपतो. या पुस्तकांमधील कोणतेही पुस्तक वाचण्यासाठी बाहेर नेता येत नाही. विद्यार्थ्यांना लेखी परवानगी घेऊन, हवे असलेले पुस्तक विद्यापीठाच्या अभ्यासिकेत बसून वाचावे लागते.

गाईडने सांगितले की इथले संपूर्ण लाकूड न किडणाऱ्या  वृक्षांचे आहे. तरीसुद्धा रात्री पावसात इथे किडेमकोडे येतातच. त्यासाठी इथे वटवाघळे पाळली आहेत. त्यांना रात्री पिंजऱ्याबाहेर सोडले जाते. ते किडेमकोडे खातात व पुस्तके सुरक्षित राहतात. रोज रात्री लायब्ररीतील सर्व टेबलांवर विशिष्ट प्रकारचे कापड पसरले जाते. त्यावर पडलेली वटवाघळांची शी सकाळी साफ केली जाते. त्या काळातील उनाड, मस्तीखोर विद्यार्थ्यांना शिक्षा म्हणून जिथे ठेवत ती तळघरातील जागा गाईडने दाखविली.

युनिव्हर्सिटीतील मोनेस्ट्रीची लांबलचक भिंत लाकडी असून ती सुंदर पेंटिंग्जनी सजलेली आहे.मोनेस्ट्रीचे छत सपाट आहे पण विशिष्ट तऱ्हेने केलेल्या रंगकामामुळे ते अर्धगोलाकार वाटते. युनिव्हर्सिटीतून बाहेर पडल्यावर या मोनेस्ट्रीचे मुख्य प्रवेशद्वार दिसते. ते खूप उंचावर व किल्ल्याच्या तटबंदीसारखे आहे.मोरोक्कोमधील मूरिश लोकांच्या आक्रमणापासून संरक्षण करण्यासाठी अशी व्यवस्था  करण्यात आली होती.

यूनिव्हर्सिटीच्या पहिल्या मजल्यावरील गॅलरीतून,काचेच्या बंद दरवाजातून, खालच्या भव्य हॉलमध्ये वेगवेगळ्या विषयांच्या व्हायवा घेतल्या जातात ते दिसत होते. तिथल्या दुसऱ्या दरवाजाने बाहेर पडल्यावर समोरच मोंडेंगो नदी व शहराचे दर्शन होते. पायर्‍या चढून गेल्यावर मिनर्व्हा या ज्ञानदेवतेचा भव्य पुतळा आहे.

पूर्वीच्या काळी या युनिव्हर्सिटीत फक्त विद्यार्थ्यांना प्रवेश मिळत असे. ज्ञानार्जनाच्या काळात या शहरातील तरुणींबरोबर त्यांची मैत्री होई. पण शिक्षण पूर्ण करून जाताना त्यांची मैत्रिणींबरोबर ताटातूट होई. अशा विद्यार्थ्यांनी रचलेली अनेक विरहगीते युनिव्हर्सिटीपासून थोड्या लांब अंतरावरील एका  दरीकाठच्या लांबट- उभ्या दगडांवर कोरून ठेवलेली गाईडने दाखविली. या गीतांना ‘फाडो’ असे म्हटले जाते. ‘फाडो’चा  अर्थ दैव (destiny ) असा आहे. आम्ही रात्री तिथल्या एका ‘फाडो शो’ला गेलो होतो. काळ्या कपड्यातील दोन गायक स्पॅनिश गिटार व व्हायोलाच्या साथीने खड्या आवाजात गाणी म्हणत होते पण पोर्तुगीज भाषा अजिबात न समजल्याने त्या विरहगीतांचा आस्वाद घेता आला नाही.

(कोइंब्रा लायब्ररी, पोर्टो नदी व त्यावरील पूल)

कोइंब्रा युनिव्हर्सिटीजवळ अठराव्या शतकातील एक खूप मोठी बोटॅनिकल गार्डन आहे. पोर्तुगीजांच्या जगभर जिथे जिथे वसाहती होत्या तिथून विविध प्रकारची झाडे आणून त्यांचे इथे संवर्धन केलेले आहे. त्यांचा शास्त्रशुद्ध अभ्यास केला जातो.

तिथून जवळ असलेल्या ‘कॉन्व्हेंट ऑफ संता क्लारा’ मधील चर्चमध्ये क्वीन इसाबेल या संत स्त्रीची कोरीव चांदीची टुम्ब ( थडगं ) आहे. इथे नंन्सना धार्मिक शिक्षण दिले जाते व त्यांच्यासाठी वसतिगृह आहे. कोइंब्रामध्ये भारतीय पद्धतीच्या उपहारगृहात रात्रीचे जेवण घेत असताना तिथे आलेले दोन भारतीय विद्यार्थी भेटले.ध्रूव पांडे हा कानपूरहून आलेला विद्यार्थी भाषाशास्त्रात डॉक्टरेट करण्यासाठी आला होता तर विजय शर्मा हा जोधपूरचा विद्यार्थी इथे कायद्यामधील डॉक्टरेट करण्यासाठी आला होता.

भाग २ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 40 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 40 – मनोज के दोहे

संविधान से झाँकती, मानवता की बात।

दलगत की मजबूरियाँ, कर जातीं आघात।।

 

शांति और सौहार्द से, आच्छादित वेदांत

धर्म ध्वजा की शान यह, सदा रहा सिद्धांत।।

 

आभा बिखरी क्षितिज में,खुशियों की सौगात।

नव विहान अब आ गया, बीती तम की रात।।

 

मन ओजस्वी जब रहे, कहते तभी मनोज।

सरवर के अंतस उगें, मोहक लगें सरोज।।

 

देवों की आराधना, करते हैं सब लोग।

कृपा रहे उनकी सदा, भगें व्याधि अरु रोग।।

 

दिल से बने अमीर सब, कब धन आया काम।

नहीं साथ ले जा सकें, होती है जब शाम।।

 

महल अटारी हों खड़ीं, दिल का छोटा द्वार।

स्वार्थ करे अठखेलियाँ, बिछुड़ें पालनहार।।

 

छोटा घर पर दिल बड़ा, हँसी खुशी कल्लोल ।

जीवन सुखमय से कटे, जीवन है अनमोल ।।

 

माँ की ममता ढूँढ़ती, वापस मिले दुलार। 

वृद्धावस्था की घड़ी, सबके दिल में प्यार।।

 

वृद्धाश्रम में रह रहे, कलियुग में माँ बाप।

सतयुग की बदली कथा, यही बड़ा अभिशाप।।

 

नई सदी यह आ गई, जाना है किस ओर।

भ्रमित हो रहे हैं सभी, पकड़ें किस का छोर।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 111 –“ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)” … लेखक… श्री प्रभात गोस्वामी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है लेखक… प्रभात गोस्वामी के व्यंग्य संकलन  “ऐसा भी क्या सेल्फियाना ” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆

☆ “ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)” … लेखक… श्री प्रभात गोस्वामी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)

लेखक… प्रभात गोस्वामी

प्रकाशक.. किताब गंज प्रकाशन, गंगापुर सिटि

मूल्य २०० रु, पृष्ठ १३६

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

प्रभात गोस्वामी का तीसरा व्यंग्य संग्रह ऐसा भी क्या सेल्फियाना पढ़ने का अवसर मिला. चुटीले चालीस व्यंग्य आलेखों के साथ समकालीन चर्चित सोलह व्यंग्यकारो की प्रतिक्रियायें भी किताब में समाहित हैं. ये टिप्पणियां स्वयमेव ही पुस्तक की और प्रभात जी के व्यंग्य कर्म की समीक्षायें हैं. प्रभात गोस्वामी कि जो सबसे बडी खासियत पाठक के पक्ष में मिलती है वह है उनका विषयों का चयन. वे पाठकों की रोजमर्रा की जिंदगी के आजू बाजू से मनोरंजक विषय निकाल कर दो तीन पृष्ठ के छोटे से लेख में गुदगुदाते हुये कटाक्ष करने में माहिर हैं. ऐसा भी क्या सेल्फियाना लेख के शीर्षक को ही किताब का शीर्षक बनाकर प्रकाशक ने साफ सुथरी त्रुटि रहित प्रिंटिग के साथ अच्छे गेटअप में किताब प्रकाशित की है. सेल्फी के अतिरेक को लेकर कई विचारशील लेखकों ने कहीं न कही कुछ न कुछ लिखा है. मैंने अपने एक व्यंग्य लेख में सेल्फी को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बतलाया है. प्रभात जी ने सेल्फी की आभासी दुनियां और बाजार की मंहगाई, सेल्फी लेने की आकस्मिक आपदाओ,किसी हस्ती के साथ सेल्फी लेने  का रोचक वर्णन,  अपने क्रिकेट कमेंटरी के फन से जोड़ते हुये किया हैं. किन्तु जीवन यथार्थ के धरातल पर चलता है, सोशल मीडीया पर पोस्ट की जा रही आभासी सेल्फी से नहीं, व्यंग्य में  इसका आभास तब होता है जब भोजन की जगह पत्नी व्हाट्सअप पर आभासी थाली फारवर्ड कर देती हैं. इस व्यंग्य में ही नहीं बल्कि प्रभात जी के लेखन में प्रायः बिटविन द लाइन्स अलिखित को पढ़ने, समझने के लिये पाठक को बहुत कुछ होता है.

इसी तरह एलेक्सा तुम बतलाओ कि हम बतलायें क्या भी छोटा सा कथा व्यंग्य है. लेखक जेंडर इक्विलीटी के प्रति सतर्क है, वह तंज करता है कि एलेक्सा और सीरी से चुहल दिलजलों को बर्दाश्त नहीं, वे इसके मेल वर्जन की मांग करते हैं. व्यंग्य के क्लाइमेक्स में नई दुल्हन एलेक्सा को पति पत्नी और वो के त्रिकोण में वो समझ लेती है और पीहर रुखसत कर जाती है. प्रभात जी इन परिस्थितियों में लिखते हैं एलेक्सा तुम बतलाओ कि हम बतलायें क्या, और पाठक को घर घर बसते एलेक्सा के संसार में थोड़ा हंसने थोड़ा सोचने के लिये विवश कर देते हैं

रचना चोरों के लिये साहित्यिक थाना, पहले प्यार सी पहली पुस्तक, आओ हुजूर तुमको, दो कालम भी मिल न सके किसी अखबार में जैसे लेख प्रभात जी की समृद्ध भाषा, फिल्मी गानों में उनकी अभिरुचि और सरलता से अभिव्यक्ति के उनके कौशल के परिचायक हैं.

कुल जमा ऐसा भी क्या सेल्फियाना मजेदार पैसा वसूल किताब है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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