(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ।।इंसान बनने का सफर, हमेशा जारी रखो।।)
☆ मुक्तक – ।। इंसान बनने का सफर, हमेशा जारी रखो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆
[1]
चलता चल अभी इंसान होने का सफर बाकी है।
अभी समाज के लिये करने की डगर बाकी है।।
बहुत से इम्तिहान देने हैं अभी इस जीवन में।
अभी हौसलें दिखाने को जिगर बाकी है।।
[2]
बनना है अभी एक अच्छा इंसान जीवन में।
अभी होना किसी दुर्बल पर मेहरबान जीवन में।।
किसी साथी का दर्द गम बांटना इसी जिंदगी में।
सुनना अभी किसी महा पुरुष व्यख्यान जीवन में।।
[3]
किसी चुनौती मुश्किल का सामना करना बाकी है।
किसी भी गुनाह के लिए प्रभु से डरना बाकी है।।
सीखना क्रोध और अहम को अभी वश में रखना।
इस अनमोल जिंदगी का अभी कर्ज़ भरना बाकी है।।
[4]
मन में विश्वास और दिल में तुम जरूर खुद्दारी रखो।
लोभ द्वेष तृष्णा को भी तुम त्यागने की तैयारी रखो।।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “’कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 88 ☆ ’’कौन है जिसको न भाता आगमन बरसात का…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #96 कर्मो का लेखा जोखा… ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक महिला बहुत ही धार्मिक थी ओर उसने ने नाम दान भी लिया हुआ था और बहुत ज्यादा भजन सिमरन और सेवा भी करती थी किसी को कभी गलत न बोलना, सब से प्रेम से मिलकर रहना उस की आदत बन चुकी थी. वो सिर्फ एक चीज़ से दुखी थी के उस का आदमी उस को रोज़ किसी न किसी बात पर लड़ाई झगड़ा करता। उस आदमी ने उसे कई बार इतना मारा की उस की हड्डी भी टूट गई थी। लेकिन उस आदमी का रोज़ का काम था। झगडा करना। उस महिला ने अपने गुरु महाराज जी से अरज की हे गुरुदेव मेरे से कौन सी भूल हो गई है। मै सत्संग भी जाती हूँ सेवा भी करती हूँ। भजन सिमरन भी आप के हुक्म के अनुसार करती हूँ। लेकिन मेरा आदमी मुझे रोज़ मारता है। मै क्या करूँ।
गुरु महाराज जी ने कहा क्या वो तुझे रोटी देता है महिला ने कहा हाँ जी देता है। गुरु महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। कोई बात नहीं। उस महिला ने सोचा अब शायद गुरु की कोई दया मेहर हो जाए और वो उस को मारना पीटना छोड़ दे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस की तो आदत बन गई ही रोज़ अपनी घरवाली की पिटाई करना। कुछ साल और निकल गए उस ने फिर महाराज जी से कहा की मेरा आदमी मुजे रोज़ पीटता है। मेरा कसूर क्या है। गुरु महाराज जी ने फिर कहा क्या वो तुम्हे रोटी देता है। उस महिला ने कहा हांजी देता है। तो महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। तुम अपने घर जाओ। महिला बहुत निराश हुई के महाराज जी ने कहा ठीक है।
वो घर आ गई लेकिन उस के पति के स्वभाव वैसे का वैसा रहा रोज़ उस ने लड़ाई झगडा करना। वो महिला बहुत तंग आ गई। कुछ एक साल गुज़रे फिर गुरु महाराज जी के पास गई के वो मुझे अभी भी मारता है। मेरी हाथ की हड्डी भी टूट गई है। मेरा कसूर क्या है। मै सेवा भी करती हूँ। सिमरन भी करती हूँ फिर भी मुझे जिंदगी में सुख क्यों नहीं मिल रहा। गुरु महाराज जी ने फिर कहा वो तुजे रोटी देता है। उस ने कहा हांजी देता है। महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। परन्तु इस बार वो महिला जोर जोर से रोने लगी और बोली की महाराज जी मुझे मेरा कसूर तो बता दो मैंने कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है।
महाराज कुछ देर शांत हुए और फिर बोले बेटी तेरा पति पिछले जन्म में तेरा बेटा था। तू उस की सोतेली माँ थी। तू रोज़ उस को सुबह शाम मारती रहती थी। और उस को कई कई दिन तक भूखा रखती थी। शुक्र मना के इस जन्म में वो तुझे रोटी तो दे रहा है। ये बात सुन कर महिला एक दम चुप हो गई। गुरु महाराज जी ने कहा बेटा जो कर्म तुमने किए है उस का भुगतान तो तुम्हें अवश्य करना ही पड़ेगा फिर उस महिला ने कभी महाराज से शिकायत नहीं की क्योंकि वो सच को जान गई थी।
इसलिए हमे भी कभी किसी का बुरा नहीं करना चाहिए सब से प्रेम प्यार के साथ रहना चाहिए। हमारी जिन्दगी में जो कुछ भी हो रहा है सब हमारे कर्मो का लेखा जोखा है। जिस का हिसाब किताब तो हमे देना ही पड़ेगा।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख गुण और ग़ुनाह। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 139 ☆
☆ गुण और ग़ुनाह ☆
‘आदमी के गुण और ग़ुनाह दोनों की कीमत होती है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि गुण की कीमत मिलती है और ग़ुनाह की उसे चुकानी पड़ती है।’ हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। गुणों की एवज़ में हमें उनकी कीमत मिलती है; भले वह पग़ार के रूप में हो या मान-सम्मान व पद-प्रतिष्ठा के रूप में हो। इतना ही नहीं, आप श्रद्धेय व वंदनीय भी बन सकते हैं। श्रद्धा मानव के दिव्य गुणों को देखकर उसके प्रति उत्पन्न होती है। यदि हमारे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा के साथ प्रेम भाव भी जाग्रत होता है, तो वह भक्ति का रूप धारण कर लेती है। शुक्ल जी भी श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति स्वीकारते हैं। सो! आदमी को गुणों की कीमत प्राप्त होती है और जहां तक ग़ुनाह का संबंध है, हमें ग़ुनाहों की कीमत चुकानी पड़ती है; जो शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना रूप में हो सकती है। इतना ही नहीं, उस स्थिति में मानव की सामाजिक प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग सकती है और वह सबकी नज़रों में गिर जाता है। परिवार व समाज की दृष्टि में वह त्याज्य स्वीकारा जाता है। वह न घर का रहता है; न घाट का। उसे सब ओर से प्रताड़ना सहनी पड़ती है और उसका जीवन नरक बन कर रह जाता है।
मानव ग़लतियों का पुतला है। ग़लती हर इंसान से होती है और यदि वह उसके परिणाम को देख स्वयं की स्थिति में परिवर्तन ले आता है, तो उसके ग़ुनाह क्षम्य हो जाते हैं। इसलिए मानव को प्रतिशोध नहीं; प्रायश्चित करने की सीख दी जाती है। परंतु प्रायश्चित मन से होना चाहिए और व्यक्ति को उस कार्य को दोबारा नहीं करना चाहिए। बाल्मीकि जी डाकू थे और प्रायश्चित के पश्चात् उन्होंने रामायण जैसे महान् ग्रंथ की रचना की। तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त थे और उसकी दो पंक्तियों ने उसे महान् लोकनायक कवि बना दिया और वे प्रभु भक्ति में लीन हो गए। उन्होंने रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की, जो हमारी संस्कृति की धरोहर है। कालिदास महान् मूर्ख थे, क्योंकि वे जिस डाल पर बैठे थे; उसी को काट रहे थे। उनकी पत्नी विद्योतमा की लताड़ ने उन्हें महान् साहित्यकार बना दिया। सो! ग़ुनाह करना बुरा नहीं है, परंतु उसे बार-बार दोहराना और उसके चंगुल में फंस कर रह जाना अति- निंदनीय है। उसे इस स्थिति से उबारने में जहां गुरुजन, माता-पिता व प्रियजन सहायक सिद्ध होते हैं; वहीं मानव की प्रबल इच्छा- शक्ति, आत्मविश्वास व दृढ़-निश्चय उसके जीवन की दिशा को बदलने में नींव की ईंट का काम करते हैं।
इस संदर्भ में, मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगी कि यदि ग़ुनाह किसी सद्भावना से किया जाता है, तो वह निंदनीय नहीं है। इसलिए धर्मवीर भारती ने ग़ुनाहों का देवता उपन्यास का सृजन किया,क्योंकि उसके पीछे मानव का प्रयोजन द्रष्टव्य है। यदि मानव में दैवीय गुण निहित हैं; उसकी सोच सकारात्मक है, तो वह ग़लत काम कर ही नहीं सकता और उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हो ही नहीं हो सकते। हाँ! उसके हृदय में प्रेम, स्नेह, सौहार्द, करुणा, सहनशीलता, सहानुभूति, त्याग आदि भाव संचित होने चाहिए। ऐसा व्यक्ति सबकी नज़रों में श्रद्धेय, उपास्य, प्रमण्य व वंदनीय होता है। ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु तिन मूरत देखी तैसी’ अर्थात् मानव की जैसी सोच, भावना व दृष्टिकोण होता है; उसे वही सब दिखाई देता है और वह उसमें वही तलाशता है। इसलिए सकारात्मक सोच व सत्संगति पर बल दिया जाता है। जैसे चंदन को हाथ में लेने से उसकी महक लंबे समय तक हाथों में बनी रहती है और हमें उसके बदले में मानव को कोई मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। इसके विपरीत यदि आप कोयला हाथ में लेते हो, तो आपके हाथ काले अवश्य हो जाते हैं और आप पर कुसंगति का दोष अवश्य लगता है। कबीरदास जी का यह दोहा तो आपने सुना होगा–’कोयला होय न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन लाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसलिए मानव को निराश नहीं होना चाहिए और अपने सत् प्रयास अवश्य जारी रखने चाहिए।
यह कथन कोटिश: सत्य हैं कि यदि व्यक्ति ग़लत संगति में पड़ जाता है, तो उसको लिवा लाना अत्यंत कठिन होता है, क्योंकि ग़लत वस्तुएं अपनी चकाचौंध से उसे आकर्षित करती हैं, जैसे माया रूपी महाठगिनी अपनी हाट सजाए सबका ध्यान आकर्षित करने में प्रयासरत रहती है।
शेक्सपीयर भी यही कहते हैं कि जो दिखाई देता है; वह सदैव सत्य नहीं होता और हमें छलता है। सो! सुंदर चेहरे पर विश्वास करना स्वयं को छलना व धोखा देना है। इक्कीसवीं सदी में सब धोखा है, छलना है, क्योंकि मानव की कथनी और करनी में बहुत अंतर होता है। लोग अक्सर मुखौटा धारण कर जीते हैं। इसलिए रिश्ते भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। रिश्ते खून के हों या अन्य भौतिक संबंध– भरोसा करने योग्य नहीं हैं। संसार में हर इंसान एक-दूसरे को छल रहा है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं; जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। अक्सर आसपास के लोग व निकट के संबंधी उनकी अस्मत से खिलवाड़ करते पाए जाते हैं। उनकी स्थिति बगल में छुरी ओर मुंह में राम-राम जैसी होती है। वे एक भी अवसर नहीं चूकय और दुष्कर्म कर डालते हैं, क्योंकि उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। वास्तव में उनकी आत्मा मर चुकी होती है, परंतु सत्य भले ही देरी से उजागर हो; होता अवश्य है। वैसे भी भगवान के यहां सबका बही-खाता है और उनकी दृष्टि से कोई भी नहीं बच सकता। यह अकाट्य सत्य है कि जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का फल मानव को किसी भी जन्म में भोगना अवश्य पड़ता है।
आइए! आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता पर दृष्टिपात करें, जो ‘खाओ पीयो,मौज उड़ाओ’ में विश्वास कर ग़ुनाह पर ग़ुनाह करती चली जाती है निश्चिंत होकर और भूल जाती है ‘यह किराये का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर पायेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यही संसार का नियम है कि इंसान कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। परंतु वह आजीवन अधिकाधिक धन-संपत्ति व सुख- सुविधाएं जुटाने में लगा रहता है। काश! मानव इस सत्य को समझ पाता और देने में विश्वास रखता तथा परहितार्थ कार्य करता, तो उसके ग़ुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी नहीं होती। अंतकाल में केवल कर्मों की गठरी ही उसके साथ जाती है और कृत-कर्मों के परिणामों से बचना असंभव है।
मानव के सबसे बड़े शत्रु है अहं और मिथ्याभिमान; जो उसे डुबो डालते हैं। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय मानता है। इसलिए वह कभी दयावान नहीं हो सकता। वह दूसरों पर ज़ुल्म ढाने में विश्वास कर सुक़ून पाता है और जब तक व्यक्ति स्वयं को उस तराजू में रखकर नहीं तोलता; वह प्रतिपक्ष के साथ न्याय नहीं कर पाता। सो! कर भला, हो भला अर्थात् अच्छे का परिणाम अच्छा व बुरे का परिणाम सदैव बुरा होता है। शायद! इसीलिए शुभ कर्मण से कबहुं न टरौं’ का संदेश प्रेषित है। गुणों की कीमत हमें आजीवन मिलती है और ग़ुनाहों का परिणाम भी अवश्य भुगतना पड़ता है; उससे बच पाना असंभव है। यह संसार क्षणभंगुर है, देह नश्वर है और मानव शरीर पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व आकाश तत्वों से बना है। अंत में इस नश्वर देह को पंचतत्वों में विलीन हो जाना है; यही जीवन का कटु सत्य है। इसलिए मानव को ग़ुनाह करने से पूर्व उसके परिणामों पर चिन्तन-मनन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने के पश्चात् ही आप ग़ुनाह न करके दूसरों के हृदय में स्थान पाने का साहस जुटा पाएंगे।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे …”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं “संतोष के दोहे… ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“आता फार काही बोललास तर तोंडाला फेफर येई पर्यंत हा पेपरवेट फेकून मारिन मोऱ्या तुला !”
“हे बरं आहे पंत, आपणच प्रश्न विचारायचा आणि मी उत्तर द्यायला लागलो की….”
“अरे गाढवा तुझा पत्ता काय म्हणजे इतके दिवस कुठे गायब झाला होतास ? असं विचारतोय मी !”
“अस्स होय ! पंत तुम्हीं सुचवलेले अनेक व्यवसाय आता नावा रुपाला आले आहेत आणि ते सांभाळता सांभाळता दिवसाचे २४ तास पुरत नाहीत मला !”
“मग आज कसा काय वेळ मिळाला ?”
“पंत, चांगली पावसाळी हवा आहे, हवेत छान गारवा आहे, अशा वेळेस काकुंच्या हातचा आल्याचा गरमा गरम चहा मिळाला तर मग काय, सोनेपे सुहागा ! म्हणून आलो !”
“मोऱ्या उगाच चहाला जाऊन कप लपवू नकोस !”
“म्हणजे ?”
“म्हणजे आता इतक्या दिवसांनी आला आहेस मोऱ्या, तर तुला चहा मिळणारच आहे, पण मी तुझ्या बारशाच्या घुगऱ्या खाल्ल्या आहेत हे विसरू नकोस ! त्यामुळे पटकन काय ते खरं कारण सांग, म्हणजे हिला सांगून तुझ्या नरड्यात चहा ओतलाच म्हणून समज !”
“पंत तुम्ही खरंच मनकवडे आहात अगदी !”
“आता मला जास्त मस्का न लावता चटचट बोललास तरच तुला लवकर चहा मिळेल मोऱ्या, नाहीतर माझं मन वाकड झालं तर चहाच काय, साध पाणी सुद्धा मिळणार नाही तुला लक्षात ठेवं !”
“सांगतो, सांगतो पंत ! आता पावसाळा जवळ येवून ठेपलाय दारात हे तर तुम्हांला माहित आहेच !”
“बरं मग ?”
“तर पंत या पावसाळ्यात एखादा नवीन उद्योग सुरु करावा असं मनांत आलं आणि म्हणून तुमच्या सुपीक डोक्यात एखादी नवीन आयडिया आली असेल आणि ती जर कळली तर…..”
“अब आया उंट पहाडके नीचे !”
“म्हणजे मी उंट ?”
“नाही रे, तू तर पहाड !”
“मग उंट कोण ?”
“तो तिकडे अरबस्तानात !”
“पण त्याचा इथे काय संबंध पंत ?”
“खरंच कठीण आहे तुमच्या हल्लीच्या पिढीच मोऱ्या !”
“म्हणजे ? मी नाही समजलो पंत!”
“ते सोडून दे मोऱ्या, आता तू तुझ्या येण्याचं खरं खरं कारण सांगितलं आहेस तर मी तुला एक धंद्याची नवीन आयडिया, जी आजच माझ्या सुपीक डोक्यात आली आहे ती सांगतो तुला !”
“म्हणजे तुमच्या डोक्यात ऑलरेडी नवीन आयडिया आलेली आहे ?”
“अरे उंटा…..”
“पण पंत तो तर अरबस्तानात असतो ना ?”
“अरे हॊ खरंच की !”
“मग !”
“सॉरी, सॉरी मोरू ! माझ्या गाढवा, हे कसं वाटतंय ?”
“हां, आता कसं बरं वाटलं कानाला पंत !”
“मला पण बरं वाटलं मोऱ्या ! तर काय सांगत होतो… हां उंट या प्राण्याला वाळवंटातल जहाज म्हणतात हे तुला ठाऊक असेलच !”
“हॊ पंत, शाळेत असतांना शिकलोय!”
“नशीब त्या उंटाच !”
“काय ?”
“काही नाही रे गधडया ! तर तू म्हणतोयस ते बरोबरच आहे, पावसाळा अगदी सुरू झाला आहे आणि तशातच पेपर मधल्या आणि न्यूज चॅनेलच्या बातम्या वाचून आणि ऐकून मला या नवीन उद्योगाची आयडिया सुचली बघ !”
“कुठल्या बातम्या पंत ?”
“मोऱ्या या पावसाळ्यात सुद्धा दरवर्षी प्रमाणे रस्त्यांच्या नद्या होणार आहेत आणि आपले मुंबई बेट दरवर्षी 2 सेंटीमीटर या वेगाने पुढच्या अनेक वर्षात समुद्रात बुडणार आहे !”
“काय सांगता काय पंत ? हे खरं आहे ?”
“पेपरवाले तरी असं ओरडून ओरडून सांगतायत आणि सगळे न्यूज चॅनेल पण त्यांचीच री ओढतायत !”
“मग अशा येवू घातलेल्या आपत्तीत, कुठला नवीन उद्योग करून मी माझ्या संपत्तीत भर घालावी असं वाटतंय तुम्हांला पंत ?”
“अरे व्वा मोऱ्या, अगदी अलंकारिक बोलायला लागलास की !”
“कसचं कसचं पंत, तुमच्या सहवासात राहून थोडं थोडं शिकलोय झालं ! बरं पण तुम्ही धंद्याची नवीन आयडिया सांगणार होतात ती तर सांगा आधी !”
“मोऱ्या या पावसाळ्यात तू लोकांना छत्र्यांचे मोफत वाटप करावेसे असं मला वाटतं !”
“पंत, आत्ताच मी कुठला नवीन धंदा करून माझ्या संपत्तीत भर घालावी असं म्हटलं आणि तुम्ही मला छत्र्या मोफत वाटायला सांगताय ?”
“अरे माझं नीट ऐकून तर घे !”
“बरं पंत, बोला !”
“अरे मी मगाशी तुला म्हटलं ना, या पावसाळ्यात पण मुंबईच्या रस्त्यांच्या नद्या होणार आहेत म्हणून!”
“हॊ, पण हल्ली गेला बाजार प्रत्येकाकडे छत्री असतेच असते आणि नसेल तर रेनकोट तरी असतोच असतो !”
“ते माहित आहे रे मला, पण रस्त्याची नदी झाल्यावर या दोघांचा काही उपयोग आहे का सांग बरं मला मोऱ्या !”
“नाही, पुरुषभर पाण्यात तसा या दोघांचा काडीचा उपयोग नाही हे तुमचं म्हणणं खरं आहे पंत ! “
“हॊ ना, म्हणून तू आता पोहतांना शिकावू स्विमर जसे प्लास्टिकचा हवा भरलेला फ्लोट वापरतात त्याचा बिझनेस सुरु कर आणि एका फ्लोटवर एक छत्री मोफत दे, म्हणजे जोराचा पाऊस असेल तेव्हा लोकं छत्री वापरतील आणि…. “
“रस्त्यांच्या नद्या झाल्या तर फ्लोट वापरून लोकं आपला जीव वाचवतील, हॊ ना पंत ?”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘जब आवै संतोष धन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 94 ☆
☆ लघुकथा – जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
योग के एक सप्ताह के कोर्स का अंतिम दिन। गुरु जी का आदेश था कि आज सबको साथ बैठकर भोजन करना है और खाना भी अपने घर से अपनी पसंद का ही लाना है। सब बहुत खुश थे, ऐसा लग रहा था कि ना जाने कब से मन- माफिक भोजन मिला ही नहीं। उसने पत्नी से अपनी मनपसंद चीजें बनवाईं। पत्नी ने छोटे- छोटे डिब्बों में बड़े करीने से अचार, चटनी, पापड़ से लेकर पति की पसंद की सब्जी, मिठाई सब चीजें रख दीं। योग की कक्षा में एक पेड़ के नीचे सबको गोलाकार बैठा दिया और कहा गया – ‘सब अपनी – अपनी थाली में अपना खाना परोस लें।‘ सबके सामने रखीं थालियां तरह – तरह के व्यंजनों से सज गईं। गुरु जी का आदेश हुआ – ‘ अब ये थालियां आगे बढ़ाई जाएंगी।‘ मतलब ? एक बेचैन साधक ने पूछा। गुरु जी मुस्कुराते हुए बोले – ‘अपनी थाली अपने आगेवाले व्यक्ति को देते जाइए। इस प्रकार थालियां गोलाकार तब तक घूमती रहेंगी जब तक मैं रुकने का आदेश नहीं देता।‘ हर किसी की थाली एक – दूसरे के हाथों से होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। किसी की आँखें अपनी मनपसंद थाली का पीछा कर रही थीं तो कोई अनेक व्यंजनोंवाली थाली पर नजर गढ़ाए बैठा था। पर थालियाँ तो आगे ही सरकती जा रही थीं । थोड़ी देर बाद गुरु जी ने कहा – रुको, अब जिसके हाथ में जो थाली है उसे अपने सामने रखो और भोजन शुरू करो।