मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #144 ☆ रडला पाउस… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 144 ?

☆ रडला पाउस…

आकाशाने पंख झटकले पडला पाउस

तिच्या नि माझ्या प्रेमासाठी भिजला पाउस

 

भेटीसाठी झाडांच्या तो नित्य यायचा

वृक्षतोडही झाली म्हणुनी चिडला पाउस

 

सत्तेला या कळकळ नाही कधी वाटली

शेतकऱ्यांचा फास पाहुनी रडला पाउस

 

नांगरलेल्या ढेकळास ह्या मिठी मारुनी

कोंबासोबत हसता हसता रुजला पाउस

 

रात्री त्याने कहरच केला बरसत गेला

शांत जाहला बहुधा होता थकला पाउस

 

आकाशाच्या पटलावरती किती मनोहर

इंद्रधनुष्या सोबत होता नटला पाउस

 

गळून पडले फुलातील या पराग तरिही

तुझ्या नि माझ्या प्रीतीचा मी जपला पाउस

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 94 – गीत – ओ शीशे की राजकुमारी ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – ओ शीशे की राजकुमारी…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 94 – गीत – ओ शीशे की राजकुमारी✍

बिखर बिखर कर गिरो नहीं तो

तुमको हाथ लगा देखूँ

पावन नदी कंठ तक आई

अपनी प्यास जगा देखूँ।

 

ऐसी देह दमकती जैसे

कोई निर्मल दरपन  हो

ऐसी ठंडी आग कि जिसमें

 जलता मन भी चंदन हो ।

 

ओ शीशे की राजकुमारी ,छूकर देखूँ देह तुम्हारी

 

देह धर्म का दरवाजा है

ऐसा लोग कहा करते

संयम की साँकल में बँधकर

कितने लोग रहा करते?

 

एक सुद्र माटी का पुतला

कब तक नेम निभाएगा

बाँहो के राहों में बोलो

रथ रूपम कब आएगा।

 

ओ फूलों की राजकुमारी, छूकर देखूँ देह तुम्हारी

ओ यादों  की राजकुमारी, छूकर देखूँ देह तुम्हारी।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 96 – “कहाँ रहेगी माँ, यह भय है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कहाँ रहेगी माँ, यह भय है…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 96 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कहाँ रहेगी माँ, यह भय है”|| ☆

जितने बेटे, उतने कमरे

कहाँ रहेगी माँ, यह भय है

बेशक यह बूढ़ी अम्मा का

सुविधा वंचित कठिन समय है

 

माता जो निश्चेष्ट बैठकर

देख रही सारी गतिविधियाँ

क्या ग्यारस, रविवार काटने

दौड़ा करते वासर-तिथियाँ

 

जिन बहुओं के होने का वह

गर्व सदा करती आयी

उनकी घनाक्षरी के आगे

चकित अचंभे में छप्पय है

 

सुबह नाश्ता दोपहरी  हो

या फिर संध्या की ब्यालू

क्रम से बँटी तीन बेटों में

पर माँके हिस्से आलू-

 

की चीजें उस मधुमेही को

मिलती रहती हैं प्रतिदिन

जान सकी है पति न रहनेकी

विपदा का क्या आशय है

 

तीनों बहुयें स्वांग किया

करती हैं लोगों के आगे-

” अम्मा जैसी सासू माँ

से भाग हमारे हैं जागे “

 

कोई अगर न देखे तो मुँह

फेर चली जाया करतीं

मगर लोग भी जान गये थे

उनका यह नकली अभिनय है .

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 143 ☆ चिंतन – मेरी-आपकी कहानी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय आलेख  “चिंतन – मेरी-आपकी कहानी”।)  

☆ आलेख # 143☆ चिंतन – मेरी-आपकी कहानी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

वियतनाम युद्ध से वापस अमेरिका लौटे एक सैनिक के बारे में यह कहानी प्रचलित है। लौटते ही उसने सैन-फ्रांसिस्को से अपने घर फोन किया। “हाँ पापा, मैं वापस अमेरिका आ गया हूँ, थोड़े ही दिनों में घर आ जाऊंगा पर मेरी कुछ समस्या है. मेरा एक दोस्त मेरे साथ है, मैं उसे घर लाना चाहता हूँ। “

“बिलकुल ला सकते हो. अच्छा लगेगा तुम्हारे दोस्त से मिलकर “

“पर इससे पहले की आप हां कहें, आपको उसके बारे में कुछ जान लेना चाहिए, ‘वियतनाम में वह बुरी तरह ज़ख्मी हो गया था, उसका पैर एक बारूदी सुरंग पर पड़ गया और वह एक हाथ और एक पैर गवां बैठा’. अब उसका कोई ठिकाना नहीं है, समझ नही आता की वो अब कहाँ जाए। सोचता हूँ जब उसका कोई आसरा नहीं है तो क्यों ना वह हमारे साथ रहे।””बहुत बुरा लगा सुनकर, चलो कुछ दिनों में उसके रहने का बंदोबस्त भी हो जाएगा, हम लोग इंतजाम कर लेंगे।”

“नहीं, कुछ दिन नहीं, वो हमारे साथ ही रहेगा, हमेशा के लिए।”

“बेटा” पिता ने गंभीर होकर कहा, “तुम नहीं जानते की तुम क्या कह रहे हो। हमारे परिवार पर बहुत बड़ा बोझ पड़ जाएगा अगर इतना ज़्यादा विकलांग इन्सान हमारे साथ रहेगा तो। देखो, हमारा अपना जीवन भी तो है, अपनी जिंदगियाँ भी तो जीनी हैं ना हमें…नहीं, तुम्हारी इस मदद करने की सनक हमारी पूरी ज़िंदगी में बाधा खड़ी कर देगी। तुम बस घर लौटो और भूल जाओ उस लड़के के बारे में। वो अपने दम पे जीने का कोई ना कोई रास्ता खोज ही लेगा।”

लड़के ने फोन रख दिया, इसके बाद उसके माता-पिता से उसकी कोई बात नहीं हुई। बहरहाल, कुछ दिनों बाद ही, सैन-फ्रांसिस्को पुलिस से उनके पास कॉल आया। उन्हें बताया गया की उनके बेटे की एक बहुमंजिला इमारत से गिरकर मृत्यु हो गई है। पुलिस का मानना था की यह आत्महत्या का मामला है। रोते-बिलखते माता पिता ने तुरंत सैन-फ्रांसिस्को की फ्लाईट पकड़ी जहाँ उन्हें मृत शरीर की पहचान करने शवगृह ले जाया गया।

शव उन्ही के बेटे का था, पर उनकी हैरानी की सीमा नहीं रही, जब उन्होंने कुछ ऐसा देखा जिसके बारे में उनके बेटे ने उन्हें नहीं बताया था, उसके शरीर पर एक हाथ और एक पैर नहीं था।

इस बूढे दम्पत्ति की कहानी मेरी-आपकी ही कहानी है। खूबसूरत, खुशनुमा और हँसते-खिलखिलाते लोगों के बीच जीना काफी सरल होता है। पर हम उन्हें पसंद नहीं करते जो हमारे लिए असुविधा पैदा कर सकते हैं या हमें कठिनाई भरी स्थिति में डाल सकते हैं। हम उनसे दूर ही रहते हैं जो इतने सुंदर, स्वस्थ और बुद्धिमान नहीं होते, जितने की हम हैं।पर सौभाग्य से कोई है, जो हमें इस तरह नहीं छोडेगा।

साहस प्रेम प्यार कमजोरी जीवन कोई है, जिसका प्रेम किसी भी शर्त के परे है, उसके परिवार में हर परिस्थिति में हमारे लिए अत है, चाहे हमारी हालत कितनी ही बुरी क्यों ना हो।क्या हम उसी की तरह लोगों को वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकते जैसे की वो हैं? उनकी हर कमी, हर कमजोरी के बावजूद?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 87 ☆ # बात ही कुछ और है # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# बात ही कुछ और है #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 87 ☆

☆ # बात ही कुछ और है # ☆ 

अंबर पर छाई घटा ये घनघोर है

दीवाने बादलों पर किसका ज़ोर है

ना जाने किसको तरसा दे

ना जाने किस पर बरसा दे

तुम भी आ जाओ

वर्षा में खो जाओ

पहले प्यार में डूबने की

या पहले बारिश में भीगने की

बात ही कुछ और है

 

वर्षा की ऋतू आई है

संग रिमझिम फुहारें लाई है

बूँद बूँद में प्यास है

धरती से मिलने की आस है

वसुंधरा झूम रही है

फुहारों को चूम रही है

इस अनोखे मिलन की तो

बात ही कुछ और है

 

पेड़ पौधे, चर-अचर

सब उन्माद में डूबे हैं

बूंदों को आगोश में लेकर

प्रणय में भीगे हैं

कण कण में तरूनाई आई है

वसुंधरा पर हरियाली छाई है

जंगल में नाचते मयूर की तो

बात ही कुछ और है

 

तुम भी अब दौड़कर आ जाओ

रिमझिम बारिश में आग लगा जाओ

तुम्हारा वो बारिश में भीगना

कूदकर पानी मुझपर उड़ाना

नज़रों से मुझपर बिजली गिराना

हाथ छुड़ाकर भाग जाना

भीगी साड़ी में वो सिमट जाना

बिजली के कड़क से लिपट जाना

सच कहूं, तुम्हारी भीगी काया की तो

बात ही कुछ और है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 86 ☆ नम्रता असावी … ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 86 ? 

☆  नम्रता असावी… ☆

अभंग ईश्वरा, मागणे मागतो

सदैव चिंतीतो, साह्य तुझे…!!

 

तुझा सहवास, मला प्राप्त व्हावा

माझ्यातला जावा, अहंकार…!!

 

नम्रता असावी, माझ्या वागण्यात

अर्थ जगण्यात, सापडावा…!!

 

तुझे सूत्र देवा, आचार घडावा

देह हा पडावा, तुझ्या द्वारी…!!

 

कवी राज म्हणे, आगाधा अनंता

तूच माय पिता, जगतिया…!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 23 – १. केल्याने देशाटण .. ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 23 – परिव्राजक –१. केल्याने देशाटण .. ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

तीर्थंभ्रमणाला निघायच्या आधी पण नरेंद्रनाथ आंटपूर, वैद्यनाथ, शिमूलतला इथे कित्येकदा आले होते. उजाडल्यानंतर सूर्य किरणे सर्व दिशांना पसरतात हे सांगायची गरज नसते. तसे स्वामीजी जिथे जिथे जातील तिथे तिथे प्रभाव पाडत असत. असाच अनुभव ते फिरलेल्या प्रत्येक प्रांतात दिसतो. बिहार प्रांत फिरत फिरत ते हिंदू भारतभूमीचं हृदय समजल्या जाणार्‍या काशीला आले. इथे ते संस्कृत भाषेचे पंडित आणि साहित्य व वेदांत पारंगत असलेले सद्गृहस्थ श्री प्रमदादास मित्र यांच्याकडे राहिले. स्वामीजींना त्यांच्या विद्वत्तेबद्दल आदरभाव वाटू लागला. पुढे पुढे तर ते वैदिक धर्म आणि तत्वज्ञान याबद्दल काही शंका असली की ते प्रमदादास यांना पत्र लिहून विचारात असत. आपले आजोबा दुर्गाप्रसाद हे संन्यास घेतल्यावर काशीत आले होते. श्रीरामकृष्ण पण इथे येऊन गेले होते. तिथे मद्रासी, पंजाबी, बंगाली, गुजराथी, मराठी हिंदुस्तानी अशी प्रभृती सर्वजण, आचारांची भिन्नता असूनही एकाच उद्देशाने विश्वेश्वराच्या मंदिरात एकत्र येत असत. यात नरेंद्रनाथांना या विविध लोकांमधला ऐक्याचा विशेष गुण भावला. म्हणूनच त्यांना सगळीकडे फिरून भारत जाणून घ्यावसा वाटला होता.

शिवाय इंग्रजांची सत्ता, गुलामी असताना वर्तमान अवस्थेत, देशातील आध्यात्मिक संस्कृती कशी आहे, सामान्य लोक कसे जगताहेत? शिक्षणाची काय परिस्थिति आहे? सनातन धर्म सगळीकडे कसा आहे? याची सगळीकडे हिंडून माहिती करून घ्यावीशी वाटली. त्यासाठी ते इथून निघून कन्याकुमारी पर्यन्त शहरे, खेडी, विविध लोक, शेतकरी, गरीब, दीन दुबळे, राजे रजवाडे, संस्थानिक आणि जे जे आवश्यक त्यांच्या भेटी घेत अवलोकन करता करता भ्रमण करत होते.

उत्तरेत फिरून झाल्यावर ते शरयू तीरावरच्या अयोध्येला येऊन पोहोचले. काशी आणि अयोध्या ही धर्मक्षेत्र होती. त्यामुळे स्वामीजींचे आध्यात्मिक मन तिथे रमले. ‘अयोध्या’ जिच्या मातीशी सूर्यवंशी राजांच्या गौरवाची स्मृती जोडलेली आहे. शरयू नदीच्या तीरावरून आणि घाटावरील विविध मंदिरातून फिरतांना त्यांच्या डोळ्यासमोर प्रभू श्रीरामचंद्रांचे चरित्रच उभे राहिले. आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श पती, आदर्श भाऊ, अशा प्रभू श्रीरामचंद्राच्या अयोध्येत आल्याबरोबरच त्यांना लहानपणची रामसीतेची भक्ती, रामायण प्रेम, वीरभक्त श्री हनुमानवरची गाढ श्रद्धा आणि आईच्या तोंडून ऐकलेल्या रामाच्या कथा सारे सारे आठवले असणारच. काही दिवस इथे त्यांनी रामायत संन्याशांच्या समवेत श्रीरामनामसंकीर्तनात घालवून पुढे ते ऑगस्ट१८८८ मध्ये लखनौ- आगरा मार्गाने पायी पायी चालत वृंदावनच्या दिशेने निघाले.    

लखनौला त्यांनी बागा, मशिदी, नबाबाचे प्रासाद बघितले. आग्र्याला आल्यावर तिथल्या शिल्प सौंदर्याचा जगप्रसिद्ध नमुना ‘ताजमहाल’ मोगलकालीन इमारती, किल्ले पहिले.  मोगल साम्राज्याचा इतिहास त्यांच्या डोळ्यासमोर उभा राहिला. लखनौ आणि आग्रा या ऐतिहासिक स्थळं सुद्धा  त्यांच्या मनात भरली. कारण ती भारताच्या इतिहासाच्या पर्वाची महत्वाची खूण होती आणि स्वामीजी त्याबद्दल पण जागरूक होते. म्हणून एक वैभवशाली साम्राज्याची स्मृती म्हणून ते पाहत होते.

शिवाची काशी पाहिली, श्रीरामची अयोध्या पाहिली आता भगवान श्री कृष्णाच्या वृंदावनला स्वामीजी  पोहोचले. राधा कृष्णाची लीलाभूमी असलेल्या वृंदावनात, मर्यादित परिसरात असलेले विविध प्रकारचे, भिन्न काळात बांधले गेलेले वास्तूकलेचे, अनेक मंदिरांचे नमुने त्यांना पाहायला मिळाले. वृंदावनला ते बलराम बसुंच्या पूर्वजांनी बांधलेल्या कुंजामध्ये राहिले. तिथे यमुनेच्या वळवंटात असो की भोवताल च्या परीसरात असो सगळीकडेच, श्रीकृष्णाच्या बासरीचा मधुर ध्वनी येतोय असे वाटावे अशा काव्यात्मक आणि भक्तिपूर्ण वातावरण त्यांनी अनुभवले. गोवर्धन पर्वताला त्यांनी प्रदक्षिणा घातली. तेंव्हाच त्यांनी मनाशी संकल्प केला की, कोणाकडेही भिक्षा मागायची नाही. कोणी आपणहून आणून दिले तरच त्या अन्नाचा स्वीकार करायचा. हे बिकट व्रत त्यांनी घेतले. एकदा तर त्यांना पाच दिवस उपाशी राहावे लागले होते. पण इथे त्यांनी दोन वेळा परमेश्वर भक्तीचा ईश्वरी अनुभव घेतला आणि श्रीकृष्णाची भक्ती आणखीनच दृढ झाली.

पुढे ते हरिद्वारला गेले. वाटेत जाता जाता ते हाथरस च्या स्थानकावर बसले असताना, त्यांना थकलेल्या अवस्थेत स्थानकाचे उपप्रमुख असलेले शरदचंद्र गुप्त यांनी पाहिले. आणि, “स्वामीजी आपल्याला भूक लागलेली दिसते आपण माझ्या घरी चलावे” अशी विनंती केली. स्वामीजींनी लगेच हो म्हटले आणि त्यांच्या घरी गेले. स्वामीजींचे व्यक्तिमत्व बघून शरदचंद्र गुप्त आकर्षित झाले होते , त्यांनी स्वामीजींना काही दिवस इथे राहावे असा आग्रह केल्याने ते खरच तिथे राहिले. सर्व बंगाली लोक संध्याकाळी एकत्र जमत. आपला धर्म आणि समाज यावरील सद्यस्थितीबद्दल  स्वामीजी बोलत. आपल्या मधुर आवाजात गीतं म्हणत. येणारे सर्व बंगाली मोहित होऊन जात. त्यांच्यातील भांडणे जाऊन एकोपा निर्माण झाला. 

एकदा चिंतेत असताना शरदचंद्रांनी स्वामीजींना पाहिलं आणि विचारलं, “आपण एव्हढे कसल्या विचारात आहात?” स्वामीजी म्हणाले, “मला खूप काम करायचं आहे. पण माझी शक्ती कमी. काम मोठं आहे. मातृभूमीचं पुनरुत्थान घडवून आणायच आहे. तीचं आध्यात्मिक सामर्थ्य क्षीण झालं आहे. सगळा समाज भुकेकंगाल आहे. भारत चैतन्यशाली झाला पाहिजे. अध्यात्मिकतेच्या बळावर त्यानं सारं जग जिंकलं पाहिजे”. अशा प्रकारचे संवाद होत होते. चर्चा होत होत्या. काही दिवसांनी  स्वामीजी तिथून निघतो म्हटल्यावर, शरदचंद्र जाऊ नका म्हणून विनवणी करू लागले आणि ‘मला आपला शिष्य करून घ्या’ असेही म्हणू लागले. तुम्ही जिथं जाल तिथं मी तुमच्या मागोमाग येईन हा त्यांचा दृढ निश्चय ऐकून, “शेवटी तुम्ही माझ्याबरोबर येण्याचा आग्रहच धरता आहात तर घ्या हे भिक्षा पात्र आणि स्थानकातले जे हमाल आहेत त्यांच्या दरात जाऊन भिक्षा मागून आणा” असे स्वामीजी म्हटल्याबरोबर, शरदचंद्र तडक उठले आणि भिक्षा पात्र घेऊन सर्वांकडून भिक्षा मागून आणली. स्वामीजी अत्यंत खुश झाले. त्यांनी शरदचंद्रांचा शिष्य म्हणून स्वीकार केला. असे शरदचंद्र गुप्त हे स्वामीजींचे पहिले शिष्य झाले, आणि मातापित्यांचा आशीर्वाद घेऊन, नोकरीचा राजीनामा देऊन, स्वामीजीं बरोबर ते हाथरस सोडून हृषीकेशला आले. त्यांचे नाव स्वामी सदानंद असे ठेवण्यात आले. असा सुरू होता स्वामीजींचा प्रवास .

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 17 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 17 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

[२४]

 दिवस ढळू लागला आहे,

 पक्षी गायचे थांबले आहेत,

 वाराही वहायचा थांबला आहे.

 अशा वेळी झोपेच्या पातळ पडद्याने,

 माझ्या भोवती अंधाराची चादर लपेटून

 कमळाच्या पाकळ्या मिटून घे.

 

प्रवास संपण्यापूर्वीच माझी शिदोरी संपली आहे

धुळीनं भरलेली माझी वस्त्रं फाटली आहेत

मी गलीतगात्र झालो आहे.

माझी लज्जा, माझं दारिद्र्य दूर कर.

 

दयामय रात्रीच्या पंखाखाली

एखाद्या पुष्पाप्रमाणं माझं जीवन पुन्हा उमलू दे.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #146 ☆ व्यंग्य – उदर-रोग आख्यान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘उदर-रोग आख्यान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 146 ☆

☆ व्यंग्य – उदर-रोग आख्यान

सेवा में सविनय निवेदन है कि मैं पेट का ऐतिहासिक मरीज हूँ। मर्ज़ अब इतना पुराना हो गया है कि मेरे व्यक्तिगत इतिहास में लाख टटोलने पर भी इसकी जड़ें नहीं मिलतीं। अब तक इस रोग के नाना रूपों और आयामों में से गुज़र चुका हूँ।

पेट का रोग संसार में सबसे ज़्यादा व्यापक है। शायद इसका कारण यह है कि अल्लाह ने भोजन करने का काम तो हमारे हाथ में दिया है लेकिन आगे के सारे विभाग अपने हाथ में ले रखे हैं। काश कोई ऐसा बटन होता जिसे दबाते ही भोजन अपने आप पच जाता और शरीर का सारा कारोबार ठीक से चलता रहता। कमबख्त पेट की गाड़ी ऐसी होती है जो एक बार पटरी से उतरी सो उतरी। फिर आप पेट के मरीज़ होने का गर्व करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।

एक विद्वान ने कहा है कि जिसे हम अक्सर आत्मा का रोग समझ लेते हैं वह वास्तव में पेट का मर्ज़ होता है। जो लोग दार्शनिक या कवि जैसे खोये खोये बैठे रहते हैं यदि उनकी दार्शनिकता की तह में प्रवेश किया जाए तो कई लोग पेट के रोग से ग्रस्त मिलेंगे। इसीलिए दार्शनिकों और कवियों की पूरी जाँच होना चाहिए ताकि पता लगे कि कितने ‘जेनुइन’ कवि हैं और कितनों का कवित्व ‘मर्ज़े मैदा’ से पैदा हुआ है।

पेट का मरीज़ मेहमान के रूप में बहुत ख़तरनाक होता है। वह जिस घर में अतिथि बनता है वहाँ भूचाल पैदा कर देता है। उसे तली चीज़ नहीं चाहिए, धुली हुई दाल नहीं चाहिए, नींबू चाहिए, काला नमक चाहिए, दही चाहिए, अदरक चाहिए। ‘बिटिया, शाम को तो मैं खिचड़ी खाऊँगा। ईसबगोल की भूसी हो तो थोड़ी सी देना और ज़रा पानी गर्म कर देना।’ ऐसा मेहमान मेज़बान को कभी पूरब की तरफ दौड़ाता है, कभी पच्छिम की तरफ। ऐसी चीजें तलाशना पड़ती हैं जिनका नाम सुनकर दूकानदार हमारा मुँह देखता रह जाता है। घर के बाथरूम पर मेहमान का पूरा कब्ज़ा होता है। वे दो बार, चार बार, छः बार, जितने बार चाहें वहाँ आते जाते रहते हैं। कई लोग जो आठ बजे घुसते हैं तो फिर दस बजे तक पुनः दर्शन नहीं देते।

पेट का मरीज़ अपने साथ दुनिया भर का सरंजाम लेकर चलता है— नाना प्रकार के चूर्ण, लहसुन वटी, चित्रकादि वटी, द्राक्षासव, और जाने कितने टोटके। दवाइयों के हजारों कारखाने पेट के रोगियों के लिए चलते हैं। पेट के रोगी का बिगड़ा हुआ पेट बहुत से पेट पालता है।

पेट के रोगी के साथ मुश्किल यह होती है कि उसकी दुनिया अपने पेट तक ही सीमित रहती है। वह हर चार घंटे पर अपने पेट के स्वास्थ्य का बुलेटिन ज़ारी करता है। जिस दिन उसका पेट ठीक रहता है वह दिन उसके लिए स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य होता है। जब बाकी सब लोग अफगानिस्तान और ईरान की समस्या की बातें करते हैं तब वह बैठा अपना पेट बजाता है।

पेट का रोगी बड़ा चिड़चिड़ा, बदमिजाज़ और शक्की हो जाता है। इसलिए पेट के रोगी को कभी ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं बैठाना चाहिए। ऐसा आदमी जज बन जाए तो रोज़ दो चार को फाँसी पर लटका दे, अफसर बन जाए तो रोज़ दो चार को डिसमिस करे, और किसी देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन जाए तो ज़रा सी बात पर जंग का नगाड़ा बजवा दे। घर और पड़ोस के लोग पेट के रोगी से त्रस्त रहते हैं क्योंकि वह हर बात पर काटने को दौड़ता है। उसका चेहरा बारहों महीने मनहूस बना रहता है।

पेट के रोग का यह वृतांत एक किस्से के साथ समाप्त करूँगा। एक दिन जब डॉक्टर के दवाखाने से पेट की दवा लेकर चला तो एक रोगी महोदय मेरे पीछे लग गये। वे स्वास्थ्य की जर्जरता  में मुझसे बीस थे।

उन्होंने मुझसे पूछा, ‘आप पेट के रोगी हैं?’

मेरे ‘हाँ’ कहने पर उन्होंने पूछा, ‘कितने पुराने रोगी हैं?’

जब मैंने पंद्रह वर्ष का अनुभव बताया तो वे प्रसन्न हो गये। उन्होंने बड़े जोश में मुझसे हाथ मिलाया। बोले, ‘मैं भी अठारह वर्ष की हैसियत का पेट का रोगी हूँ। मेरा नाम बी.के. वर्मा है।’

मैंने प्रसन्नता ज़ाहिर की तो वे बोले, ‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। दरअसल हमने इस शहर में ‘एक उदर रोगी संघ’ बनाया है। उसकी मीटिंग इतवार को शाम को होती है। मैं चाहता हूँ कि आप भी इसमें शामिल हों।’

इतवार की शाम उनके बताये पते पर पहुँचा। वह घर उनके संघ के अध्यक्ष का था जो पैंतालीस वर्ष की हैसियत के उदर रोगी थे।वहाँ अलग अलग अनुभव वाले लगभग पच्चीस उदर रोगी एकत्रित थे। उन्होंने बड़े जोश से मेरा स्वागत किया, जैसे उन्हें ‘बढ़त देख निज गोत’ खुशी हुई हो।

उस सभा में पेट के रोगों के कई आयामों की चर्चा हुई। कई नई औषधियों का ब्यौरा दिया गया। वहाँ उदर रोग के मामले में ‘सीनियर’ ‘जूनियर’ का भेद स्पष्ट दिखायी दे रहा था। जो जितना सीनियर था वह उतने ही गर्व में तना था।

उस दिन के बाद मैं उदर-रोगी संघ की मीटिंग में नहीं गया। करीब पंद्रह दिन बाद दरवाज़ा खटका तो देखा वर्मा जी थे। वे बोले, ‘आप उस दिन के बाद नहीं आये?’

मैंने उत्तर सोच रखा था। कहा, ‘क्या बताऊँ वर्मा जी। अबकी बार मैंने जो दवा ली है उससे मेरा उदर रोग काफी ठीक हो गया है। इसीलिए मैं आपके संंघ के लिए सही पात्र नहीं रह गया।’

वर्मा जी का मुँह उतर गया। वे बोले, ‘तो आपका रोग ठीक हो गया?’

मैंने कहा, ‘हाँ, लगता तो कुछ ऐसा ही है।’

वे बोले, ‘इतनी जल्दी कैसे ठीक हो सकता है?’

मैंने कहा, ‘मुझे अफसोस है। लेकिन बात सही है।’

वर्मा जी बड़ा मायूस चेहरा लिये हुए मुड़े और मेरे घर और मेरी ज़िंदगी से बाहर हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 144 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 144 ☆ वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा – भाग – 1 ?

श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि-  वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏

डॉक्यूमेंट्री फिल्म का यूट्यूब लिंक (कृपया यहाँ क्लिक करें) 👉  वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा

निर्माण – श्री  प्रभाकर बांदेकर 

लेखन एवं स्वर – श्री संजय भारद्वाज  

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

क्रमश:…

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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