हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 164 ☆ तीर्थाटन-1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 164 ☆ तीर्थाटन – 1 ☆?

भारतीय दर्शन में तीर्थ के अनेक अर्थ मिलते हैं। तरति पापादिकं तस्मात। अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य दैहिक, दैविक एवं भौतिक, सभी प्रकार के पापों से तर जाए, वह तीर्थ है। इसीके समांतर भवसागर से पार उतारने वाला अथवा वैतरणी पार कराने वाला के अर्थ में भी तीर्थ को ग्रहण किया जाता है।

संभवत: इसी आधार पर स्कंदपुराण के काशी खंड में तीन प्रकार के तीर्थ बताये गए हैं- जंगम, स्थावर तथा मानस। संत, वेदज्ञ एवं गौ, जंगम यानि चलते-फिरते तीर्थ। सत्पुरुषों को जंगम तीर्थ कहा गया। सच्चे और परोपकारी भाव के सज्जनों का आशीर्वाद फलीभूत होने की सामुदायिक मान्यता भी जंगम तीर्थ को मिली है। कतिपय विशिष्ट स्थानों को स्थावर तीर्थ कहा गया। इन स्थानों का अपना महत्व होता है। यहाँ एक दैवीय सकारात्मकता का बोध होता है। अद्भुत प्रेरणादायी ऐसे तीर्थस्थान सामान्यत: जल या जलखंड के समीप स्थित होते हैं। ‘पद्मपुराण’ स्थावर तीर्थों को परिभाषित करते हुए लिखता है,

तस्मात् तीर्थेषु गंतव्यं नरै: संसार भिरूभि: पुण्योदकेषु सततं साधुश्रेणी विराजिषु।

पग-पग पर बुद्धिवाद को प्रधानता देनेवाली वैदिक संस्कृति ने समस्त तीर्थों में मानसतीर्थ को महत्व दिया है। मानसतीर्थ अर्थात मन की उर्ध्वमुखी प्रवृत्तियाँ। इनमें सत्य, क्षमा, इंद्रियनिग्रह, दया, दान, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, मधुरवचन, सरलता, संतोष सभी शामिल हैं।

अनेक मीमांसाकारों ने तीर्थों के 9 प्रकार बताते हैं। उन्होंने पहले तीन प्रकार का नामकरण नित्य, भगवदीय एवं संत तीर्थ किया है। ये तीर्थ ऐसे हैं जो अपने स्थान पर सदा के लिए स्थित हैं।

नित्य तीर्थ में पवित्र कैलाश पर्वत, मानसरोवर, काशी,  गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी आदि का समावेश है। माना जाता है कि इन स्थानों पर सृष्टि की रचना के समय से ही ईश्वर का वास है।

जिन स्थानों की रज पर भगवान के चरण पड़े, वे भगवदीय तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनमें ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, अयोध्या, वृंदावन आदि समाविष्ट हैं‌।

संतों की जन्मभूमि, कर्मभूमि, निर्वाणभूमि को संत तीर्थ कहा गया है। ये क्षेत्र मनुष्य को दिव्य अनुभूति एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं।

प्रत्यक्ष जीवन में, नित्य के व्यवहार में निरंतर ईश्वरीय सत्ता का दर्शन करनेवाली वैदिक संस्कृति अद्भुत है। वह अपने आसपास साक्षात तीर्थ देखती, दिखाती और जीवन को धन्य बनाती चलती है। इसी विराट व्यापकता ने अगले  6 तीर्थों में भक्त, गुरु, माता, पिता, पति, पत्नी को स्थान दिया है। अपने साथ ही तीर्थ लेकर जीने की यह वैदिक शब्दातीत दिव्यता है।

वैदिक दर्शन में चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवनचक्र के लिए उद्दिष्ट माने गये हैं। तीर्थ का एक अर्थ तीन पुरुषार्थ धर्म, काम और मोक्ष का दाता भी माना गया है। एक अन्य मत के अनुसार सात्विक, रजोगुण या तमोगुण जिस प्रकार का जीवन  जिया है, उसी आधार पर तीर्थ का परिणाम भी मिलता है। समान कर्म में भी भाव महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ परमाणु ऊर्जा से एक वैज्ञानिक बिजली बनाने की सोचता है जबकि दूसरा मानवता के नाश का मानस रखकर परमाणु बम पर विचार करता है।

जिससे संसार समुद्र तीरा जाए, उसे भी तीर्थ कहा जाता है। अगस्त्य मुनि ने एक आचमन में समुद्र को पी लिया था। प्रभु श्रीराम के धनुष उठाने पर समुद्र ने रास्ता छोड़ा था। तीर्थयात्रा संसार समुद्र के पार जाने का सेतु बनाती है।

तीर्थ मृण्मय से चिन्मय की यात्रा है। मृण्मय का अर्थ है मृदा या मिट्टी से बना। चिन्मय, चैतन्य से जुड़ा है। देह से देहातीत होना, काया से आत्मा की यात्रा है तीर्थ। आत्मा के रूप में हम सब एक ही परमात्मा के अंश हैं, इस भाव को पुनर्जागृत और पुनर्स्थापित करता है तीर्थ। अनेक से एक, एक से एकात्म जगाता है तीर्थ। अत: मनुष्य को यथासंभव तीर्थाटन करना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 116 ☆ दोहा सलिला – “मन दर्पण में देख रे!…” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित दोहा सलिला – “मन दर्पण में देख रे!…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 116 ☆ 

☆ दोहा सलिला –  मन दर्पण में देख रे!

कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान

पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण

मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ

हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ

हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर

मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर.

मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स

वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स

जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार

छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार

माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार

माटी माटी से मिले, माटी ले आकार

मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम

मैना – कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२७-१०-२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #148 ☆ आलेख – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 148 ☆

☆ ‌आलेख – एक हृदय स्पर्शी संवाद – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

अगर सच कहा जाए तो सूर दास जी के द्वारा रचित कृष्ण चरित पर आधारित सूर  सागर में जितना सुंदर कथानक प्रेम में संयोग श्रृंगार का है।  

उससे भी कहीं अनंत गुना ज्यादा आत्म स्पर्शी वर्णन उन्होंने वियोग श्रृंगार का किया है। कृष्ण जी की ब्रजमंडल में की गई बाल लीलाएं जहां मन को मुदित करती है, एक-एक रचना का सौंदर्य, बाल लीला की घटनाएं जहां आनंदातिरेक में प्रवाहित कर देती है वहीं प्रेम के  वियोग श्रृंगार-श्रृंखला की रचनाएं बहाती नहीं बल्कि पाठक वर्ग को करूणा रस में डुबा देती हैं, कृष्ण की यादों ने जहां ब्रज मंडल की गोपिकाओं तथा राधा को विक्षिप्तता की स्थिति में ला खड़ा किया है, वह कृष्ण की यादों में खोई कृष्णमयी हो गई है, जिसे पढ़ते हुए समस्त पाठक वर्ग को आत्म विभोरता की स्थिति में ला के खड़ा कर देती है।

जिसका जीवंत उदाहरण कृष्ण-उद्धव, तथा उद्धव गोपियों के संवाद में दिखाई देता है तो वहीं दूसरी ओर कृष्ण जी मात्र गोपियों को ही नहीं याद करते बल्कि उनके स्मृतियों में तो पूरा का पूरा ब्रजमंडल ही समाया हुआ है। जो ईश्वरीय चिंतन के असीमित विस्तार को दिखाता है। जब कृष्ण जी कहते हैं कि – “उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं”।

तब, कालिंदी कुंज की यादें, यशोदा के साथ की गई बाल लीला प्रसंग, गायों तथा गोप समूहों के साथ बिताए गए दिन तथा गोपियों और राधिका के साथ बिताए पलों को तथा ब्रज मंडल के महारास लीला को भूल नहीं पाते – बिहारी जी के शब्दों में वे अनोखी घटनाएं —-

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।

सौह कहै भौहनि हसै, देश कहै नटि जाय।।

तथा छछिया भर छांछ पर नाचना आज भी नहीं भूला है कृष्ण को साथ ही याद है मइया यशोदा के हाथ का माखन याद है ब्रज की गलियां। तभी तो अपने हृदय की बात कहते हुए अपने सखा उद्धव से अपने मन की बात कह ही देते हैं। – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही”। 

ऐसा भी नहीं है कि कृष्ण को ही मात्र ब्रज की यादें व्यथित किए हुए हो, बल्कि सारा ब्रजमंडल ही कृष्ण वियोग की यादों में पगलाया हुआ है। जिसकी झांकी जब ऊधव ब्रज की गोपियों को निराकार ब्रह्म का उपदेश देने जाते हैं तब रास्ते के कांटे भी ऊधव जी को प्रेम का अर्थ समझाते हुए प्रतीत होते हैं जिसका यथार्थ चित्रण बिंदु जी की रचनाओं में दृष्टि गोचर होता है।

चले मथुरा से जब कुछ दूर, बृंदावन निकट आया।

वहीं पर प्रेम ने उनको, अनोखा रंग दिखलाया।

उलझ कर वस्त्र से कांटे, लगे ऊधव को समझानें।

तुम्हारा ज्ञान परदा फाड़ देंगे, प्रेम दीवाने।

…में प्रेम की गहन अनुभूति नहीं कराता बल्कि ऊधव को मजबूर कर प्रेम के सागर में डुबो देता है फिर तो एक हाथ में यशोदा का माखन तथा दूसरे में राधा द्वारा दी गई मुरली लिए  राधे राधे गा उठते हैं। और लौट आते हैं अपने बाल सखा के पास। भला प्रेम के वियोग श्रृंगार का ऐसा उत्कृष्ट और अनूठा चित्रण सूरसागर के अलावा कहाँ मिलेगा?

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ च म त्का र ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? 💓 च म त्का र ! 💃 ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक 

☆ 

गोड गुलाबी दोन जीवांचा

मूक संवाद नजरेत भरला

पाहून प्रेमाची मुग्ध भाषा

मम हृदयी पीळ तो पडला

बघता निरखून प्रेमिकांना

  ठोका काळजाचा चुकला

अनोख्या फुलांचा चमत्कार

निसर्गाने होता घडवला

छायाचित्र  – मोहन कारगांवकर, ठाणे.

© प्रमोद वामन वर्तक

ठाणे.

०६-११-२०२२

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #165 – 51 – “मिटा दे अपनी हस्ती ग़र…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मिटा दे अपनी हस्ती ग़र …”)

? ग़ज़ल # 51 – “मिटा दे अपनी हस्ती ग़र …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

अदब की महफ़िल में यार तू शायरी कर,

मत यूँ ही अल्फाज़ की तू जादूगरी कर।

क्यों लागलपेट की बात करता तू उठते बैठते,

कर जुमलों दरकिनार एक बात तो खरी कर।

क़ीमतों की मार से बेबस को राहत तो मिले,

शहंशाह है बीमार की कुछ तो चारागरी कर।

अदब-तहजीब को धंधा बनाये कुछ सुख़नवर,

अय कलम ईमान भूलों की मत चाकरी कर।

फ़िरक़ा परस्ती मिट जाए लोगों के दिलों से,

यार सोच समझ कर कुछ तो सौदागरी कर।

मिटा दे अपनी हस्ती ग़र कोई मर्तबा चाहे है,

मुल्क को ख़ुशनुमा खुद को ख़ुदी से बरी कर।

दिल में कुछ ईमान रखकर ज़ाया कर मंदिर,

मुफ़्त में वोटों के लिए मत तू यायावरी कर।

दिल मे हैं तामीर उसके मंदिर ओ’ मस्जिद,

रियाया को मिले धंधा ऐसी तू बाज़ीगरी कर।

शौक़ हुकूमत का पाल बख़ूबी तू सियासत कर,

मुल्क में अमन वास्ते ‘आतिश’ कारीगरी कर।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 42 ☆ मुक्तक ।। वरिष्ठ नागरिक, जिंदगी की शाम नहीं, इक नया सवेरा है ।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।वरिष्ठ नागरिक, जिंदगी की शाम नहीं, इक नया सवेरा है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 41 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। वरिष्ठ नागरिक, जिंदगी की शाम नहीं, इक नया सवेरा है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

जिंदगी की शाम नहीं इक नया सबेरा है।

यह तो जीवन की दूजी पारी का फेरा है।।

अनुभव और दुनियादारी का है अवसर।

हर पल हो उपयोग कि चार दिन का डेरा है।।

[2]

बदलते समय से अपना नाता जोड़ना है।

नई पीढ़ी को सही दिशा में मोड़ना है।।

अनुभव संपन्न विनम्र और संयमशील उम्र यह।

भूले बिसरे शौकों का हर पत्ता अब तोड़ना है।।

[3]

दुनियादारी का हर कर्ज लौटाने का वक्त है।

रिश्ते नाते का हर फर्ज निभाने का वक्त है।।

इस सफर ने जाने अंजाने सिखाया बहुत कुछ।

किस्से कहानी की हर तर्ज सुनाने का वक्त है।।

[4]

निराशा असंतोष को जीवन में पाना नहीं है।

अवसाद अकेलापन जीवन में लाना नहीं है।।

बुढ़ापा नहीं  वरिष्ठता को हमें है अपनाना।

अपने  अनमोल दोस्तों को छोड़ जाना नही है।

[5]

हर लम्हा जिंदगी जीने का अरमान जगाना है।

छोटी छोटी खुशी का भी जश्न मनाना है।।

उम्र हमारी सोच पर हावी ना होने पाए।

एक ही मिली जिंदगी कि यादगार बनाना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 108 ☆ ग़ज़ल – “वह याद चली आती…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “वह याद चली आती…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #108 ☆  ग़ज़ल  – “वह याद चली आती…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दुनियाँ से जुदा, दिल में रहती है जो शरमाई 

वह याद चली आती, जब देखती तनहाई।

 

मिलकर के मेरे दिल को दे जाती है कुछ राहत

जो रखती मुझे हरदम उलझनों में भरमाई।

 

लगती उदास मुझको ये कायनात सारी

तस्वीर तुम्हारी ही आँखों में है समाई।

 

सदा सोते जागते भी सपने मुझे दिखते है

पर फिर से कभी मिलने तुमसे न घड़ी आई।

 

अनुमान के परदे पर कई रूप उभरते है

कभी बातें करते, हँसते पड़ती हो तुम दिखाई।

 

सब जानते समझते धीरज नहीं मन धरता

पलकों में हैं भर जाते कभी आँसू भी बरियाई।

 

मन बार-बार व्याकुल हो साँसें भरा करता

कर पाई कहॉ यादें इन्सान की भरपाई।।

 

दिन आते हैं जाते हैं पर लौट नहीं पाते

देती ’विदग्ध’ दुख यह संसार की सच्चाई।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 128 – नको साजणी तू ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 128 – नको साजणी तू ☆

नको साजणी तू ।अशी दूर आता।

मनी आसवांचा । नको पूर आता।

 

तुझा छंद माझ्या। जिवाला जडे हा।

तुझ्या दर्शनाने । टळे धूर आता।

 

अशा शांत वेळी । नको हा दुरावा।

तुझा हात हाती ।असे नूर आता।

 

किती भाव नेत्री। तुझ्या दाटलेले।

इशारा कशाला । जुळे सूर आता।

 

तुझा स्पर्श भासे जणू चांदण्याचा।

उगी लाजण्याने। अशी चूर आता।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ संस्कृत साहित्यातील स्त्रिया…3 ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆

डॉ मेधा फणसळकर

? विविधा ?

☆ संस्कृत साहित्यातील स्त्रिया…3 ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆ 

द्रौपदी

महाभारतातील एक महत्वपूर्ण पात्र म्हणजे द्रौपदी! वास्तविक संपूर्ण महाभारताचा विचार करता कथेची नायिका द्रौपदी व नायक श्रीकृष्ण आहे असे म्हणावे लागेल.

द्रौपदीच्या चरित्राचा अभ्यास करताना असे लक्षात येते की तिच्या स्वभावाचे अनेक चांगले- वाईट कंगोरे होते. स्वयंवराचा ‛पण’ अर्जुनाने जिंकला असला तरी कुंतीच्या सांगण्यावरून ती पाचही पांडवांचा पती म्हणून स्वीकार करते. यातून तिच्यातील आज्ञाधारक सून जाणवते. पण ज्यावेळी पांडवांवर संकट येते आणि कोणताही निर्णय घेण्यास ते असमर्थ ठरत त्यावेळी योग्य सल्ला द्यायचे काम तीच खंबीरपणे करत असे. प्रसंगी त्यांच्या चुका दाखवण्यातही ती मागेपुढे पाहत नसे. द्युतात हरल्यावर पांडवांना जेव्हा वनवासात जावे लागले तेव्हाही तिने त्यांच्या मनात प्रतिशोधाची ज्योत सतत जागी ठेवण्याचा प्रयत्न केला. एका प्रसंगात ती युधिष्ठिराला म्हणते,“ पूर्वी सकाळी ज्या सुंदर भूपाळी आणि वाद्यवादनाने तुम्हाला जाग येत असे तेच तुम्ही सर्व राजे आता सकाळच्या कोल्हेकुईने जागे होता. जिथे तुम्ही पंचपक्वान्नांचा आस्वाद घेत होता तेच तुम्ही आता कंदमुळांवर गुजराण करत आहात. ज्या भीमाच्या गदेच्या प्रहाराची सर्वाना भीती वाटते तो भीम जंगलातील झाडांवर कुऱ्हाडीचा प्रहार करून लाकडे गोळा करत आहे….” अशाप्रकारे आपल्या कर्तव्याची आपल्या पतींना जाणीव करून देणारी ती कर्तव्यदक्ष आणि महत्वाकांक्षी स्त्री वाटते.

आजच्या काळातही अजूनही स्त्री- पुरुष यांच्या मैत्रीच्या निखळ नात्यावर फारसा विश्वास ठेवला जात नाही. पण त्या काळात द्रौपदी आणि श्रीकृष्ण यांची मैत्री अनोखी होती. त्यांच्यात खऱ्या अर्थाने सखा, भाऊ आणि सवंगड्याचे नाते होते. म्हणूनच तिला ‛कृष्णा’ या नावानेही ओळखले जात असे. ज्यावेळी भर दरबारात तिला डावावर लावण्यात आले आणि तिला निर्वस्त्र करण्याचा प्रयत्न केला गेला तेव्हा तिला केवळ कृष्णाचीच आठवण झाली. तिने स्वतःच्या रक्षणासाठी कृष्णाचा धावा करताना म्हटले,“ माझा कोणी पती नाही, माझा कोणी पुत्र नाही, माझा कोणी पिता नाही. हे मधुसूदन, तुझे माझे तर कोणतेच नाते नाही. पण तू माझा सच्चा मित्र- सखा आहेस. म्हणून तू माझे रक्षण करावेस.” असे म्हणून तिने केवळ त्यांच्यातील मैत्रभावनेलाच हात घातला नाही तर त्याला आपल्या कर्तव्याचीही जाणीव करून दिली. इतकेच नव्हे तर त्याचवेळी कुरुवंशातील ज्येष्ठ आणि श्रेष्ठ व्यक्तींना दूषण देण्यासही ती कचरली नाही. वास्तविक द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र यांनी ही सर्व विपरीत घटना घडत असताना ते थांबवणे गरजेचे होते. त्यामुळे अन्यायाविरुद्ध लढण्याची आणि आपला अधिकार हक्काने मागणारी द्रौपदी निश्चितच सर्व स्त्रियांसाठी आदर्श ठरावी.

जोपर्यंत तिच्या या अपमानाचा बदला घेतला जात नाही तोपर्यंत तिने आपले केस मोकळे सोडले होते. दुर्योधनाच्या रक्तानेच वेणी बांधण्याची तिने प्रतिज्ञा केली होती. आणि जोपर्यंत तिचे ते मोकळे केस दिसत होते तोपर्यंत तिच्या पतींना तिच्या अपमानाचा आणि त्याचा बदला घेण्याचा विसर पडू नये हीच तिची त्यामागची भावना असावी. यातून तिच्यामधील निश्चयी आणि तितकीच आपल्या मताशी ठाम असणारी स्त्री दिसून येते.

जितकी ती प्रसंगी कठोर होत असे तितकीच ती मनाने कोमल होती. जयद्रथ म्हणजे खरे तर तिच्या नणंदेचा पती! पण तो तिचे अपहरण करतो आणि नंतर त्याच्या या अपराधासाठी त्याला ठार मारण्याची युधिष्ठिराकडे मागणी होत असताना ती आपल्या नणंदेला वैधव्य प्राप्त होऊ नये म्हणून सर्वाना त्यापासून परावृत्त करते. मात्र जयद्रथाला आपल्या या दुष्कृत्याची सतत जाणीव राहावी म्हणून त्याचा चेहरा विद्रुप करण्याची आज्ञा देते.

ती पाच पतींची पत्नी असली तरी वारंवार असे जाणवत राहते की ती भीमावर मनापासून प्रेम करत होती. कारण ज्या ज्या वेळी तिच्यावर संकट आले त्या त्या वेळी तो पती म्हणून तिच्या पाठीशी उभा राहिला. वस्त्रहरणाच्या वेळी पण त्याने एकट्यानेच त्याविरुद्ध आवाज उठवला होता. त्यामुळे जेव्हा द्रौपदीचा अंतिम काळ आला त्यावेळी ती भीमाला म्हणाली,“ जर पुन्हा जन्म मिळालाच तर तुझीच पत्नी व्हायला मला आवडेल.” द्रौपदीमधील ही प्रेमिका मनाला मोहवून जाते.

अशी ही महाभारताची नायिका असणारी द्रौपदी अनेक आयामातून संस्कृत साहित्यात भेटत जाते. काहीजणांच्या मते केवळ द्रौपदीच्या अहंकारी स्वभावाने आणि रागामुळे संपूर्ण महाभारत घडले. पण माझ्या मते या संपूर्ण कथेत द्रौपदीवर जितका अन्याय झालेला दिसतो तितका इतर कोणत्याही स्त्रीवर झालेला दिसत नाही. राजघराण्यातील असूनही संपूर्ण जीवन संघर्ष आणि दुःखात गेले. मुले असूनही मातृत्व नीट उपभोगता आले नाही. सौंदर्यवती असूनही नेहमीच पाच पतींमध्ये विभागली गेली. ज्याच्यावर तिचे खऱ्या अर्थाने प्रेम होते त्याला पूर्णपणे समर्पित होऊ शकत नव्हती. आणि या सर्व प्रतिकूल परिस्थितीतही ती तितकीच खंबीर होती. पण तरीही शेवटी ती एक सामान्य स्त्री होती. म्हणूनच काही वेळा प्रेम, ईर्षा, राग या सहज भावना तिच्यात उफाळून येत असाव्यात. त्यामुळे हे सामान्यत्वच उराशी बाळगून तिने आपले असामान्यत्व सिद्ध केले होते असेच म्हणावे लागेल.

© डॉ. मेधा फणसळकर

सिंधुदुर्ग.

मो 9423019961

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #158 ☆ उपलब्धि व आलोचना ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख उपलब्धि व आलोचना । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 158 ☆

☆ उपलब्धि व आलोचना ☆

उपलब्धि व आलोचना एक दूसरे के अभिन्न मित्र हैं। उपलब्धियाँ बढ़ेंगी, तो आलोचनाएं भी बढ़ेंगी। वास्तव मेंं ये दोनों पर्यायवाची हैं और इनका चोली-दामन का साथ है। इन्हें एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना भी बेमानी है। उपलब्धियां प्राप्त करने के लिए मानव को अप्रत्याशित आपदाओं व कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। जीवन में कठिनाइयाँ हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं, बल्कि ये हमारी छिपी हुई सामर्थ्य व शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। ‘सो! कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उनसे भी अधिक मज़बूत व बलवान हैं।’ इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोना चाहिए तथा आपदाओं को सदैव अवसर में बदलने का प्रयास करना चाहिए। कठिनाइयाँ हमें अंतर्मन में संचित आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य का एहसास दिलाती हैं और उनका डट कर सामना करने को प्रेरित करती हैं। उस स्थिति में मानव स्वर्ण की भांति अग्नि में तप कर कुंदन बनकर निकलता है और अपने भाग्य को सराहने लगता है। उसके हृदय में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ का भाव घर कर जाता है, जिसके लिए वह भगवान का शुक्र अदा करता है कि उसने आपदाओं के रूप में उस पर करुणा-कृपा बरसायी है जिसके परिणाम-स्वरूप वह जीवन में उस मुक़ाम पर पहुंच सका है। दूसरे शब्दों में वह अप्रत्याशित उपलब्धियाँ प्राप्त कर सका है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते-निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फ़रिश्ता बन जाते’ गुलज़ार की यह सीख अत्यंत कारग़र है। परंतु मानव तो दूसरों की दूसरों की निंदा व  आलोचना कर आजीवन सुक़ून पाता है। इसके विपरीत यदि वह दूसरों में कमियाँ तलाशने की अपेक्षा आत्मावलोकन करना प्रारंभ कर दे, तो जीवन से राग-द्वेष, वैमनस्य व कटुता भाव का सदा के लिए अंत हो जाए। परंतु आदतें कभी नहीं बदलतीं; जिसे एक बार यह लत पड़ जाती है, उसे निंदा करने में अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। वैसे आलोचना भी उसी व्यक्ति की होती है, जो उच्च शिखर पर पहुंच जाता है। उसकी पद-प्रतिष्ठा को देख लोगों के हृदय में ईर्ष्या भाव जाग्रत होता है और वह सबकी आंखों में खटकने लग जाता है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि जो सामान्य-जन का प्रिय होता है– आलोचना का केंद्र नहीं बनता, क्योंकि उसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं। सो! उपलब्धि व आलोचना एक सिक्के के दो पहलू हैं, जिन्हें एक-दूसरे से अलग करना नामुमक़िन है।

समस्याएं हमारे जीवन में बेवजह नहीं आतीं।  उनका आना एक इशारा है कि हमें अपने जीवन में कुछ बदलाव लाना आवश्यक है। वास्तव में यह मानव के लिए शुभ संकेत होती हैं कि अब जीवन में बदलाव लाने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। यदि जीवन सामान्य गति से चलता रहता है, तो निष्क्रियता इस क़दर अपना जाल फैला लेती है कि मानव मकड़ी के जाले की मानिंद उस भ्रम में फंसकर रह जाता है कि अब उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसी स्थिति में उसमें अहम् का पदार्पण हो जाता है कि अब उसका जीवन सुचारू रूप से  चल रहा है और उसे डरने की आवश्यकता नहीं है। परंतु कठिनाइयां व समस्याएं मानव को शुभ संकेत देती हैं कि उसे ठहरना नहीं है, क्योंकि संघर्ष व निरंतर कर्मशीलता ही जीवन है। इसलिए उसे चलते जाना है और आपदाओं से नहीं घबराना है, बल्कि उनका सामना करना है। परिवर्तनशीलता ही जीवन है और सृष्टि में भी नियमितता परिलक्षित है। जिस प्रकार रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व यथासमय ऋतु परिवर्तन होता है तथा प्रकृति के समस्त उपादान अहर्निश क्रियाशील रहते हैं। सो! मानव को उनसे सीख लेकर निरंतर कर्मरत रहना है। ‘जीवन में सुख-दु:ख तो मेहमान हैं’ आते-जाते रहते हैं। परंतु एक के जाने के पश्चात् ही दूसरा दस्तक देता है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘नर हो ना निराश करो मन को/  कुछ काम करो, कुछ काम करो’, क्योंकि गतिशीलता ही जीवन है और निष्क्रियता मृत्यु है।

सम्मान हमेशा समय व स्थिति का होता है। परंतु भ्रमित मानव उसे अपना समझ लेता है। खुशियाँ धन-संपदा पर नहीं, परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं। एक बच्चा गुब्बारा खरीद कर खुश होता है, तो दूसरा बच्चा उसे बेचकर फूला नहीं समाता। व्यक्ति को सम्मान, पद-प्रतिष्ठा अथवा उपलब्धि संघर्ष के बाद प्राप्त होती है, परंतु वह सम्मान उसकी स्थिति का होता है। परंतु बावरा मन उसे अपनी उपलब्धि समझ हर्षित होता है। प्रतिष्ठा व सम्मान तो रिवाल्विंग चेयर की भांति होते है; जब तक आप पदासीन हैं और सबकी नज़रों के समक्ष हैं; सब आप को सलाम करते हैं। परंतु आपकी नज़रें घूमते ही लोगों के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन हो जाता है। सो! खुशियाँ परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं, जो आपकी अपेक्षा व इच्छा का प्रतिरूप होती हैं। यदि उनकी पूर्ति हो जाए, तो आपके कदम धरती पर नहीं पड़ते। यदि आपको मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो आप हैरान- परेशान हो जाते हैं और कई बार वह निराशा अवसाद का रूप धारण कर लेती है, जिससे मानव आजीवन मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता।

मानव जीवन क्षण-भंगुर है, नश्वर है, क्योंकि इस संसार में स्थायी कुछ भी नहीं। मानव इस संसार में खाली हाथ आता है और उसे खाली हाथ लौट जाना है। हमें अगली सांस लेने के लिए पहली सांस को छोड़ना पड़ता है। इसलिए जो आज हमें मिला है, सदा कहने वाला नहीं; फिर उससे मोह क्यों? हमें जो मिला है यहीं से प्राप्त हुआ है, फिर उसके न रहने पर दु:ख क्यों? संसार में सब रिश्ते-नाते, संबंध- सरोकार सदा रहने वाले नहीं हैं। इसलिए उन में लिप्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि जो आज हमारा है, कल छूटने वाला है; फिर चिन्ता व परेशानी क्यों? ‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/  तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है।’ हर व्यक्ति किसी को सलाम तभी करता है, जब तक वह उसके स्वार्थ साधने में समर्थ है तथा मतलब निकल जाने के पश्चात् मानव किसी को पहचानता भी नहीं। यह दुनिया का दस्तूर है और उसका बुरा नहीं मानना चाहिए।

समस्याएं भय और डर से उत्पन्न होती हैं। यदि भय, डर,आशंका की जगह विश्वास ले ले, तो समस्याएं अवसर बन जाती हैं। नेपोलियन विश्वास के साथ समस्याओं का सामना करते थे और उसे अवसर में बदल डालते थे। यदि कोई समस्या का ज़िक्र करता था, तो वे उसे बधाई देते हुए कहते थे कि ‘यदि आपके पास समस्या है, तो नि:संदेह एक बड़ा अवसर आपके पास आ पहुंचा है। अब उस अवसर को हाथों-हाथ लो और समस्या की कालिमा में सुनहरी लकीर खींच दो।’ नेपोलियन का यह कथन अत्यंत सार्थक है। ‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर सोचते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’ स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन मानव की सोच को सर्वोपरि दर्शाता है कि हम जो सोचते हैं, वैसे बन जाते हैं। इसलिए सदैव अच्छा सोचो; स्वयं को ऊर्जस्वितत अनुभव करो, तुम सब समस्याओं से ऊपर उठ जाओगे और उनसे उबर जाओगे। सो! आपदाओं को अवसर बना लो और उससे मुक्ति पाने का हर संभव प्रयास करो। आलोचनाओं से भयभीत मत हो, क्योंकि आलोचना उनकी होती है, जो काम करते हैं। इसलिए निष्काम भाव से कर्म करो। सत्य शिव व सुंदर है, भले ही वह देर से उजागर होता है। इसलिए घबराओ मत। बच्चन जी की यह पंक्तियां ‘है अंधेरी रात/ पर दीपक जलाना कब मना है’ मानव में आशा का भाव संचरित करती हैं। रात्रि के पश्चात् सूर्योदय होना निश्चित है। इसलिए धैर्य बनाए रखो और सुबह की प्रतीक्षा करो। थक कर बीच राह मत बैठो और लौटो भी मत। निरंतर चलते रहो, क्योंकि चलना ही जीवन है, सार्थक है, मंज़िल पाने का मात्र विकल्प है। आलोचनाओं को सफलता प्राति का सोपान स्वीकार अपने पथ पर निरंतर अग्रसर हो।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

29.8.22

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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