हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #257 ☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता एक कप कॉफ़ी…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #257 ☆

☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

आस्तीन के साँप जो, बाहर निकले आज।

विचर रहे फुँफकारते, बढ़ी बदन में खाज।।

*

पीले पत्ते झड़ रहे, छोड़ रहे हैं साथ।

बँधी मुट्ठियाँ खुल गयी, हैं अब खाली हाथ।।

*

अलग अलग सब उँगलियाँ, सब की अपनी दौड़।

कैसे मुट्ठी बँध सके, आपस में है होड़।।

*

उँगली एक उठी उधर, चार इधर की ओर।

एक-चार के द्वंद का, मचा हुआ है शोर।।

*

अलग अलग सब उँगलियाँ, उठने लगी मरोड़।

कैसे मुट्ठी बँध सके, आपस में है होड़।।

*

ध्येय एक सब का यही, करना सिर्फ विरोध।

करें विषवमन ही सदा, नहीं सत्य का बोध।।

*

आजादी अभिव्यक्ति की, बिगड़ रहे हैं बोल।

प्रेम-प्रीत सद्भाव में, कटुता विष मत घोल।।

*

रेवड़ियाँ बँटने लगे, होते जहाँ चुनाव।

लालच देकर वोट ले, ये कैसा बर्ताव।।

*

इन्हें-उन्हें के भेद में, खोई निज पहचान।

आयातित अच्छे लगे, घर के कूड़ेदान।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 81 ☆ गुम हो गया शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गुम हो गया शहर…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 81 ☆ गुम हो गया शहर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

***

ने कुहरे के बीच

गुम हो गया शहर ।

*

सुबह पर पहरा

कंपकंपाती धूप

सूर्य लगता उनींदा

ओस खिलते रूप

*

धुँध की चादर लपेटे

चाँद पहुँचा घर।

*

रँभाती है गाय

पक्षियों के दल

पेड़ संन्यासी हुए

हवा के आँचल

*

प्रकृति के रंग सारे

आए हैं निखर।

*

टिमटिमाती रोशनी

ठिठुरते आँगन

मंदिरों में गूँजती

प्रार्थना पावन

*

रात गहराते अँधेरे

हुए लंबे पहर।

      ——

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 85 ☆ हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 85 ☆

✍ हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ये सियासत में अजब मैंने तमाशा देखा

भेड़िया खाल में बकरे की है बैठा देखा

 *

हाथ मौला तेरे कितने हैं बता दे मुझको

मैंने खाली न किसी हाथ का क़ासा देखा

 *

रात कोई हो भले कितनी हो गहरी लेकिन

ढल ही जाती है यहाँ रोज सबेरा देखा

 *

आज़ज़ी के जो पहन के रखे हरदम जेवर

हर बशर उसके लिए मैंने दीवाना देखा

 *

बात मुँह देखी कोई करके भला बन जाये

सत्यवादी को तिरस्कार ही मिलता देखा

 *

दो कदम चल तू भले चलना हमेशा खुद ही

और कि दम पे जो चलता है वो गिरता देखा

 *

चाह मंज़िल की सनक जिसकी अरुण बन जाये

क़ामयाबी के वो आकाश को  छूता देखा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 50 – खुशी के पल… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खुशी के पल…।)

☆ लघुकथा # 50 – खुशी के पल… श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

आज इतना जल्दी-जल्दी सब काम कर रही हो? खाना भी बनाकर रख दिया, नाश्ता भी कर दिया, कहीं जाने की तैयारी है क्या? लग रहा है आज तुम्हारी किटी पार्टी है!

हां अरुण आज हमारी पार्टी है और मैं ही पार्टी दे रही हूं। नाश्ता भी पैक करा कर ले जाऊंगी।  तुम यह समझ लो हम तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। तुम्हें अकेले ही जाना होगा?

ठीक है मैं किसी को छोड़ने को कहां कह रही हूं।

मैं अपनी सहेली मीरा के साथ चली जाऊंगी।

तभी मीरा घर के बाहर जोर से चिल्लाती है – चलो चलना नहीं है क्या?

बहन, हां मैं तो तैयार हूं चल रही हूं।

बहन, चलो पैदल चलते हैं। 50 समोसे के लिए पास की दुकान वाले को बोल दिया है। और बाकी नाश्ता पैक कर के कमला मौसी ले आएंगी।

तभी एक ऑटो वाला आता है वह कहता है – बहन जी कहां जाना है?

हां भैया चलना तो है पर दुकान वाला अभी समोसे तले तो चलते हैं। अरे बहन जी छोड़ो दुकान वाले को बाहर से ले लेना रास्ते में बहुत सारे मिलेंगे। और वह दुकान वाले को चिल्ला के बोलता है दे दो बहन जी ऑटो में ही बैठकर खा लेंगी।

तभी रूबी बोलती है कि नहीं नहीं भैया हमें थोड़ा ज्यादा लेना है तुम जाओ?

हां मैं समझ गया बहन जी आप लोगों को भंडारा करना है ठीक है 5 समोसा मुझे भी दे दो इस गरीब का भी कुछ भला कर देना।

अरे भैया मुझे स्टेशन जाना है छोड़ोगे क्या जल्दी?

 तभी एक आदमी भी ऑटो में आकर बैठ जाता है।

हां हां रुक जाओ। यह बहन जी लोगों को लेकर चलता हूं। रहने दो मैं दूसरे ऑटो से जाऊंगी तुम इन्हें लेकर जाओ।

क्या भैया कहां से पनौती आ गये?

मैं अच्छा खासा मैडम लोगों से पैसे भी लेता और खाने को भी मिल रहा था चलो अब?

पता नहीं कहां-कहां से लोग आ जाते हैं रूबी ने चिल्ला कर कहा देखो मीरा गलतफहमी कैसी कैसी लोगों को हो जाती है।

चलो सखी थोड़ी सी देर हम लोग खुश हो जाते हैं तो इसमें घर वाले को एतराज होता है। अब बाहर यह ऑटो वाले को देखो यह भी…।

दोनों सखियां जोर-जोर से हंसने लगते हैं। सच्ची दोस्त ही यह बात समझ सकती है।

छोड़ो सखी सबको खुशी के पल जहां से मिले उसे ले लेना चाहिए।

****

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 251 ☆ मन माझे… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 251 ?

☆ मन माझे ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(साभार – अभिमानश्री दिवाळी अंक-१९९४ – संपादिका – सुश्री प्रभा सोनवणे)

मन माझे आताशा—

थाऱ्यावर रहात नाही,

मन पंख पसरून बाई

वाऱ्यावर वहात जाई !

*

मन जाते इकडे तिकडे

ओलांडून सारी कवाडे!

*

मन सूर्यापाशी जाते

किरणांनी तेजाळते !

*

निशेच्या शशिकिरणाची

शीतलता अनुभवते!

*

हिरवळीवर हिरवळते मन

बकुळीवर दरवळते मन!

*

मन जाते दूर दूर

मज लावते हुरहूर !

*

मन राधेपाशी जाते

कृष्णाची गाणी गाते!

*

मन माझे गोकुळ होते

अन् प्रीतीस्तव व्याकुळते!

*

मन तुळशीपाशी येते

होऊन सांजवात

मन वृंदावनी जळते !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 81 – रात को आफ़ताब मिल जाये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – रात को आफ़ताब मिल जाये)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 81 – रात को आफ़ताब मिल जाये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

काश, तेरा शबाब मिल जाये 

रात को, आफ़ताब मिल जाये

चूम लो, होंठ से जो खत मेरा 

मुझको, तेरा जवाब मिल जाये

 *

गमजदा हो न कोई दुनियाँ में 

है क्या मुमकिन जनाब, मिल जाये

 *

कोई बिरले, नसीब वाले हैं 

जिनको, मन का गुलाब मिल जाये

 *

तिश्नगी का मजा, तभी है जब 

होंठ वाली शराब, मिल जाये

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 154 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 154 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆

 *जीवंत, सरोजिनी, पहचान, अपनत्व, अथाह।

 

सुख-दुख में हँस मुख *रहें,जीना है जीवंत

कर्म सुधा का पान कर, अमर बनें श्रीमंत।।

 **

मन सरोजिनी सा खिले, दिखे रूप लावण्य।

मोहक छवि अंतस बसे, प्रेमालय का पुण्य।।

 *

सतकर्मों से ही बनें ,मानव की पहचान

दुष्कर्मों के भाव से, रावण होता जान।।

 *

जीवन में अपनत्व का, जिंदा रखिए भाव।

प्रियतम के दिल में बसें, डूबे कभी न नाव।।

प्रेम सिंधु में डूब कर, नैया लगती पार।

दुख-अथाह, जीवन-खरा, प्रभु का कर आभार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे  ?

एक अत्यंत अनुभवी तथा वयस्क महिला से मिलने का सुअवसर मिला। उनसे मेरा परिचय संप्रति एक यात्रा के दौरान हुआ था। संभवतः उन्हें मेरा स्वभाव अच्छा लगा जिस कारण वे कभी -कभी फोन भी कर लिया करती थीं। उन दिनों लैंड लाइन का प्रचलन था।

महिला जीवन के कई क्षेत्रों का अनुभव रखती थीं। साथ ही लेखन कला में भी उनकी रुचि थी।

आखिर एक दिन अपने घर पर चाय पीने के लिए लेखिका महोदया ने मुझे आमंत्रित किया। मैं अपनी स्कूली ज़िंदगी और गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को लेकर खूब व्यस्त रहती हूँ। उनके कई बार निमंत्रण आने पर भी मैं समय निकालकर उनसे मिलने न जा सकी। पर आज तो उन्होंने क़सम दे दी कि शाम को चाय पर मुझे जाना ही होगा उनके घर।

एक पॉश कॉलोनी में वे रहती हैं।

मैं उनके घर शाम के समय पहुँची। हँसमुख मधुरभाषी लेखिका ने मेरा दिल खोलकर स्वागत किया। किसी लेखिका से मिलने का यह मेरा पहला ही अनुभव था। अभी मेरी उम्र भी कम है तो निश्चित ही अनुभव भी सीमित ही है। मन में एक अलग उत्साह था कि मैं किसी रचनाकार से मिल रही हूँ।

सुंदर सुसज्जित उनका घर उनकी ललित कला की ओर झुकाव का दर्शन भी करा रहा था। हर कोना पौधों से सजाया हुआ था।

वार्तालाप प्रारंभ हुआ । बातों ही बातों में कई ऐतिहासाक तथ्यों पर हमारी चर्चा भी हुई।

उनकी रचनाएँ प्रकृति की सुंदरता, स्त्री की स्वाधीनता, पशु- पक्षियों के प्रति संवेदना आदि मूल विषय रहे।

थोड़ी देर में उनके घर की सेविका चाय नाश्ता लेकर आई। वह टिश्यू पेपर साथ लाना भूल गई तो उन्होंने उसे मेरे सामने ही डाँटा। (वह चाहती तो अपनी मधुर वाणी में भी निर्देश दे सकती थीं) हमने चाय नाश्ता का आनंद लिया। हम खूब हँसे और विविध विषयों पर चर्चा भी करते रहे।

उनकी कुछ रचनाएँ उन्होंने पढ़कर सुनाई। उन्होंने मेरी भी कुछ रचनाएँ सुनी और उसकी स्तुति भी की। कुल मिलाकर उनका घर जाना और समय बिताना उस समय मुझे सार्थक ही लगा था।

मैं जब वहाँ से निकलने लगी तो किसी ने कहा नमस्ते, फिर आना मैं आवाज़ सुनकर चौंकी क्योंकि उस कमरे में हम दोनों के अलावा और कोई न था।

लेखिका मुस्कराई बोलीं- यह मेरा पालतू तोता पीहू है। बोल लेता है।

मैंने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की तो वे मुझे अपनी बेलकॉनी में ले गईं। वहाँ एक कुत्ता चेन से बँधा था। मुझ अपरिचित व्यक्ति को देखकर वह भौंकने लगा। चेन खींचकर आगे की ओर बढ़ने लगा। लेखिका ने काठी दिखाई तो अपने कान पीछे करके वह चुप हो गया। वहीं पर एक पिंजरे में वह बोलनेवाला तोता बंद पड़ा था। उन्होंने कहा “पीहू नमस्ते करो” और तोते ने नमस्ते कहा।

दृश्य अद्भुत था! पशु चेन से बँधा और पक्षी पिंजरे में कैद! रचनाओं में पशु -पक्षी की आज़ादी की बातें! स्त्री की स्वाधीनता की बातें करनेवाली ने किस तरह सेविका को फटकारा कि मेरा ही मन काँप उठा। मेरा मन विचलित हो उठा। मैं घर लौट आई।

काफ़ी समय तक मुखौटे में छिपा वह चेहरा मुझे स्मरण रहा पर कथनी और करनी में जो अंतर दिखाई दिया उसके बाद मैं उनके साथ संपर्क क़ायम न रख सकी।

लेखक अगर पारदर्शी न हो तो सब कुछ दिखावा और दोगलापन ही लगता है। जो कुछ हम अपनी रचना में लिखते हैं वह हमारे जीवन का अगर अंश न हो तो हम भी मुखौटे ही पहने हुए से हैं।

 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 316 ☆ कविता – “एक शब्द चित्र – भोपाल की गैस त्रासदी…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 316 ☆

?  कविता – एक शब्द चित्र भोपाल की गैस त्रासदी…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कलम

कहती है

खींचो एक शब्द चित्र भोपाल की गैस त्रासदी का.

बुद्धि कहती है छेड़ो एक जिहाद मौत के सौदागरों के खिलाफ.

निर्दोष, अनजान लोगों को काल कवलित हुये जो,

अब दे ही क्या सकते हो ? श्रद्धांजलि के सिवाय.

लौटा सकते हो एक भी जिंदगी मुकदमों से,

मुआवजों से.

प्रगति के नाम पर कैसा षडयंत्र

रो उठता है दिल

विचार विभ्रम

कुंठित कलम अधूरी रचना… 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 110 – देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 110 ☆ देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र को देखकर कई मित्र तो माचिस ढूंढने लग गए होंगे। साठ से नब्बे के दशक तक सिगरेट के भी खूब ठाठ हुआ करते थे। खैनी से बीड़ी पर पहुंचे लोग, सिगरेट की तरफ बढ़ चुके थे।

फिल्मी हीरो, फिल्मों और पत्र पत्रिकाओं के विज्ञापन में सिगरेट का सेवन करते हुए अतिरिक्त राशि भी अर्जित करते थे। सस्ते ब्रांड में पनामा और चारमीनार प्रचलित हुआ करते थे।

सिगार का चलन बड़े वाले अमीर परिवार या अंग्रेजी फिल्मों में होता था। हमने भी फिल्मों में ही इसके दर्शन किए थे, क्योंकि अमीर लोग हमारे परिचय में नहीं थे।

सिगरेट के असली शौकीन तो पाउच वाली सिगरेट बना कर पीते थे। इसका लाभ ये होता था, कि सिगरेट कम पी जाती थी। स्वयं पाउच से कागज में तंबाकू भरने के बाद चिपका कर सिगरेट का सेवन, समय और पेशेंस मांगता है, जो बहुत कम लोगों के पास होता था। साधारण पान की दुकानों में पाउच मिलता भी नहीं था।

इंडियन टोबैको और गोल्डन टोबैको बहुत बड़े विख्यात नाम हुआ करते थे, सिगरेट उद्योग के लिए। केंद्रीय बजट में हर वर्ष सिगरेट महंगी होती थी। सिगरेट की लंबाई भी इसकी कीमत तय करने का पैमाना हुआ करता था।

कॉलेज के दिनों में हम भी जेब में माचिस रखा करते थे, ताकि किसी शौकीन को आवश्यकता पड़े, तो काम आ सकें। हमारी माचिस के एवज में कुछ सुट्टे या एक आध सिगरेट का सेजा हो ही जाता था। ऐसे मौके यात्रा के समय बस और ट्रेन में अधिक मिलते थे।

सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाकर हवा में उड़ाने से लड़कियां भी आकर्षित हो जाया करती थी, ऐसा हमने बॉलीवुड की फिल्मों में खूब देखा था। हमने भी प्रयास किया था, लेकिन असफल रहे थे।

टाइम पास के लिए भी सिगरेट एक अच्छा साधन हुआ करता था, जैसे आजकल मोबाइल भी हैं। सिगरेट आपके फेफड़ों को छलनी कर देता है, तो मोबाइल आपके दिमाग को छलनी कर रहा है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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