संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “रामराज्य का सपना खोया… ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 58 – सजल – रामराज्य का सपना खोया… ☆
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंहजी द्वारा लिखी कृति ““बिना मतलब” का मतलब”पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 124 ☆
☆ ““बिना मतलब” का मतलब” – श्री राजा सिंह ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब
रचना के बिम्ब, लेखक, प्रकाशक, किताब, समीक्षक और पाठक का अटूट साहित्यिक संबंध होता है. मतलबी दुनिया की भागम भाग के बीच भी यह संबंध किंचित बेमतलब बना हुआ है, यह संतोष का विषय है. भीड़ के हर शख्स का जीवन एक उपन्यास होता है, और आदमी की जिजिविषा से परिपूर्ण दैनंदिनी घटनायें बिखरी हुई बेहिसाब कहानियां होती हैं. जब कोई कहानीकार आम आदमी के इस संघर्ष को पास से देख लेता है तो वह उसमें रचना के बिम्ब ढ़ूंढ़ निकालता है. इस तरह बुनी जाती है कहानी. वास्तविक किरदार अनभिज्ञ रह जाता है पर उसकी जिंदगी का वह हिस्सा, जिसे पढ़कर लेखक ने अपने कौशल के अनुरूप कहानी गढ़ी होती है, जब प्रकाशित होती है तो वह पाठको का मर्म स्पर्श कर उन्हें चिंतन, मनोरंजन, और आंसू देती है. पत्रिका का जीवन एक सीमित अवधि का होता है, पर किताबें दीर्घ जीवी होती हैं. इसलिये किताब की शक्ल में छपी कहानियां उस किरदार और घटना को नव जीवन देती हैं. आम आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब समझने का प्रयास मैने किया. दो सौ पन्नो में फैली हुई कुल जमा तेरह कहानियां हैं. कुछ तो ऐसी हैं जिनको स्वतंत्र उपन्यास की शक्ल में पुनर्प्रस्तुत किया जा सकता है. छल ऐसी ही कहानी है, जो पात्र शालिनी के नाम से उपन्यास के रूप में विस्तारित की जा सकती है. मजे की बात है कि पाठको को उनके आस पास कोई न कोई शालिनी जरूर दिख जायेगी. क्योंकि शालिनी को एक वृत्ति के रूप में प्रस्तुत करने में राजा सिंह ने सफलता पाई है. फेसबुक की आभासी दुनिया के इस समय में कई शालिनी हमारे इनबाक्स में घुसी चली आ रही मिलती हैं.
प्रबंधन, नियति, बिना मतलब कुछ लम्बी कहानियां है. रिश्तों की कैद, सफेद परी पठनीय हैं. दरअसल प्रत्येक कहानीकार की बुनावट का अपना तरीका होता है. राजा सिंह बड़ी बारीक घटनाओ का सविस्तार वर्णन करने की शैली अपनाते हैं, इसलिये वे लम्बी कहानियां लिखते है. उसी कथानक को छोटे में भी समेटा जा सकता है. पत्र पत्रिकाओ में मैं राजा सिंह की कहानियां पढ़ता रहा हूं. किताब में पहली बार पढ़ा जब उन्होंने समीक्षार्थ “बिना मतलब” भेजी. वे देशज मिट्टी से जुड़े रचनाकार हैं. कहानियों के साथ कविताई भी करते हैं. उनके दो कथा संग्रह अवशेष प्रणय और पचास के पार शीर्षकों से पहले आ चुके हैं. हंस, परिकथा, पुष्पगंधा, अभिनव इमरोज, साहित्य भारती, रूपाम्बरा, वाक्, कथा बिम्ब, लमही, मधुमती, बया, आजकल आदि पत्रिकाओ के अंको में उनकी ये कहानियां जो इस संग्रह में हैं पूर्व प्रकाशित हैं.
बिना मतलब एक एकाकी बुजुर्ग साहित्यकार के इर्द गिर्द बुनी कहानी है जो बिन बोले मनोविज्ञान के पाठ पढ़ाती बहुत कुछ कहती है और जिंदगी का मतलब समझाती है. “कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बार में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो”. इस परिभाषा पर “बिना मतलब” की कहानियां निखालिस खरी हैं.
मैं अकादमिक बुक्स इंडिया, दिल्ली से प्रकाशित इस किताब को थोड़ा फुरसत से पढ़ने की अनुशंसा करता हूं. मेरी मंगलकामना है कि राजा सिंह निरंतर लिखें, हिन्दी पाठको को उनकी ढ़ेरो और नई नई कहानियां पढ़ने मिलती रहें.
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 10 – परदेश का मोहल्ला ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मोहल्ला शब्द इसलिए चुना, क्योंकि वर्तमान निवास एक विदेश की आवासीय सोसाइटी में है, जिसमें करीब पंद्रह सौ फ्लैट्स हैं। अब तो हमारे जयपुर में भी ऐसी कई सोसायटी है जिसमें एक हजार से अधिक फ्लैट्स हैं, प्रमुख रूप से गांधी पथ के पास “रंगोली” है, जिसमें भी सोलह सौ से अधिक फ्लैट्स हैं।
यहां की सोसाइटी में सभी किराये से रहते हैं। कोई कंपनी इसको विगत साठ वर्षों से किराए पर चला रही हैं। आसपास इतनी बड़ी और पंद्रह मंजिल कोई और भवन ना होने से दूर से ही दृष्टि पड़ जाती हैं। हमारे जैसे प्रवासियों को ढूंढने में कठिनाई नहीं होती हैं। वैसे आजकल तो लोग पड़ोसी के घर जाने से पहले भी गूगल से ही रास्ता पूछते हैं।
भवन बड़ा होने के कारण नगर बस सेवा भी अंदर तक सुविधा देती है,वो बात अलग है, कि यहां बहुत कम लोग बस से यात्रा करते हैं। कार पार्किंग में दो गाड़ियां खड़ी रखने का कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं हैं। बिना सोसाइटी के स्टिकर वाली गाड़ी अवश्य क्रेन द्वारा उठा दी जाती हैं। अतिथि के लिए भी अलग से पार्किंग व्यवस्था हैं। विशेष योग्य जन जिनकी गाड़ी में इस बाबत स्टिकर होता हैं, को प्रवेश द्वार के पास आरक्षित स्थान मिलता हैं।
कार पार्किंग के लिए स्थान बहुत ही सलीके से चिन्हित किए गया हैं। कार रखना और निकलना अत्यंत सुविधा जनक हैं। कार एकदम सीधी लाइन में खड़ी देखकर अपने पाठशाला के दिन याद आ गए,जब रेखा गणित में हम स्केल की सहायता से भी सीधी रेखा नहीं खींच पाते थे। गुरुजन हमारे स्केल से ही हाथ पर सीधी लाल लाइन खींच दिया करते थे।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विवाह पर आधारित एक प्रेरक लघुकथा “ग्रहण से मोक्ष”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 142 ☆
🌺लघुकथा🌗ग्रहणसेमोक्ष 🌕
नलिनी के जीवन में उस समय ग्रहण लग गया, जब 5 वर्ष की उम्र में धूमधाम से उसका बाल विवाह हुआ।
12 साल का उसका पति अभय नलिनी से ज्यादा समझदार दूल्हे होने की अकड़ और उम्र का बड़ा फासला, परंतु नलिनी इन सब बातों से अनजान खेलकूद, मौज – मस्ती, अपने मित्रों के साथ धमा-चौकड़ी, मोबाइल में गेम खेलना और समय पर पढ़ाई करना। यही उसकी दिनचर्या थी।
पढ़ाई लिखाई में कमजोर अभय हमेशा उस पर अधिकार जमाता रहता। मोहल्ला पड़ोस आस-पास होने की वजह से हर चीज की खबर रखता था। जो नलिनी को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था।
आज घर परिवार में ग्रहण की बात हो रही थी। इसकी राशि में शुभ और किसकी राशि में अशुभ। शुभ फल चर्चा का विषय बना था। पापा पेपर लिए बड़े ही तल्लीनता से पढ़ रहे थे। मम्मी पास में बैठी सब्जी काट रसोई की तैयारी करने में लगी थी।
अचानक दौड़ती नलिनी आई पापा के कंधे झूलते बोली…. पापा मेरी सखियां मुझे चिढ़ाती हैं कि मुझे तो ग्रहण लग गया है। पापा ग्रहण बहुत खतरनाक और भयानक होता है क्या? अभय भी मेरे साथ यही करेगा। पापा मुझे कब छुटकारा मिलेगा।
बिटिया की बातें सुन मम्मी-पापा हतप्रभ हो देखते रहे, उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था।
बहुत गलत फैसला है और तुरंत दूसरे कपड़े पहन, चश्मा लगा कुछ कागज, हाथों में ले बाहर जाने लगे। मम्मी ने आवाज लगाई…. कहां चल दिए।
पापा ने कहा…. अपनी गलती के कारण अपनी बिटिया पर लगे ग्रहण के समय का मोक्ष निर्धारण करके आता हूँ। शायद यही समय उचित रहेगा।
नलिनी खुशी से झूम उठी…. अब मैं सभी फ्रेंड को बता दूंगी मेरा भी ग्रहण को मोक्ष मिल गया। अब कोई अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण गीत – तुम कैसे सब सहती हो ।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 113 – गीत – तुम कैसे सब सहती हो
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “साधते हों सगुन…”।)