(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 209 – कथा क्रम (स्वगत)…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “कई इरादे नेक नीयतें...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 209 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “कई इरादे नेक नीयतें...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर””के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
ऊँचा कद, गौर वर्ण, ज्ञान के प्रकाश से आलोकित मुखमंडल । ज्यादातर चूड़ीदार पाजामा और शेरवानी पहनना पसंद करने वाले पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर” न सिर्फ हिंदी और उर्दू साहित्य के वरन शिक्षा जगत के भी “नूर” थे । बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी नूर साहब का कार्य क्षेत्र बहुत व्यापक था । एक ओर वे प्रसिद्ध विधि शिक्षक, हितकारिणी विधि महाविद्यालय के प्राचार्य और वरिष्ठ अधिवक्ता थे, निःस्वार्थ समाजसेवी, देशभक्त, जबलपुर नगरनिगम के महापौर थे तो दूसरी ओर राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संवेदनशील कवि, शायर और साहित्यकार थे ।
5 दिसंबर 1915 को श्री गया प्रसाद श्रीवास्तव के यहां जन्मे पन्नालाल श्रीवास्तव जी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि व रचनात्मक प्रवृत्ति के थे । छात्र जीवन से ही उनकी साहित्य के प्रति अभिरुचि जाग्रत हो गई थी उन्होंने न केवल कविताएं लिखना वरन उर्दू एवं फारसी भाषाओं का अध्ययन भी प्रारंभ कर दिया था । वे अत्यंत सुंदर व स्पष्ट उर्दू लिखते थे । नूर साहब मेरे पिता स्मृति शेष लोक विज्ञानी, शिक्षाविद् डॉ, पूरनचंद श्रीवास्तव के निकटतम मित्र थे अतः मुझे उनका स्नेह-आशीर्वाद प्राप्त रहा । जब मैं नवभारत समाचार पत्र के साहित्य संपादन का दायित्व निभा रहा था तब मैंने नूर साहब की अति व्यस्तता के बावजूद उनसे प्रति सप्ताह एक गजल उर्दू लिपि में लिखवाकर हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित की । इसे पाठकों ने अत्यंत सराहा । नूर साहब ने जबलपुर में ऑल इंडिया मुशायरे की शुरूआत कराई । उर्दू में उनकी महारात और उपलब्धियां देखते हुए मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी के गठन के समय उन्हें इसका सदस्य मनोनीत किया गया । नूर साहब ने जबलपुर नगर के उर्दू भाषा प्रेमियों से मिलकर उर्दू की एक प्रतिष्ठित संस्था “अंजुमन तरक्कीये” की स्थापना की थी । इस संस्था द्वारा नियमित रूप से मुशायरे का आयोजन होता था ।
नूर साहब एक बेहतरीन शायर – गज़लकार होने के साथ ही मधुर गीतकार भी थे । उनका पहला संग्रह “मंजिल – मंजिल” 1972 में, दूसरी कृति “लहरें और तिनके” गीत संग्रह 1990 में प्रकाशित हुई । नूर साहब ने “रूबाईयाते – खय्याम व ग़ज़लयाते – हाफ़िज़” के शानदार अनुवाद की पुस्तक भी प्रस्तुत की जो अत्यधिक चर्चित रही । कोलकाता विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के तत्कालीन प्रोफेसर डॉ, मुजफ्फर हनफी इकबाल ने लिखा था कि नूर साहब द्वारा प्रस्तुत खय्याम की रुबाइयों का यह हिंदी रूपांतरण पाठकों को बताएगा कि पुर्तगाली शराब और ठर्रे में क्या अंतर होता है ।
उर्दू – फारसी के पूर्व प्रोफेसर एवं साहित्यकार अब्दुल बाकी ने नूर साहब के बारे में लिखा है कि वे सही मायने में इंसान थे । बकौल रशीद अहमद सिद्दीकी अच्छे शायर की असल पहचान भी यही है । वह तालिब – इल्म के दौर से ही वतन की तहरीके – आजादी में हिस्सा लेने लगे थे और उनकी इल्मी व अदबी सरगर्मियों का सिलसिला शुरू हो गया । उन्होंने अपनी जिंदगी की राहें खुद मुतय्यन कीं । इल्म अपनी मेहनत से हासिल किया और अपने कूबते बाजू से बहुत दौलत कमाई फिर कामयाबी ने खुद बढ़ कर इनके कदम चूमे, वह अपने जज्बये – हुब्बे – वतन और इंसानी – दोस्ती की बिना पर मुल्क – कौम और इल्मो – अदब की अमली खिदमत में मशरूफ रहे । उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश उर्दू साहित्य अकादमी प्रति वर्ष प्रादेशिक स्तर पर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर” पुरस्कार (आत्मकथा, संस्मरण विधा में) प्रदान कर नूर जी की उपलब्धियों को स्मरण कर उन पर गौरव करती है ।
उर्दू और हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकार के साथ ही लोग उनका विधि और उद्देश पूर्ण सेवाभावी राजनीतिज्ञ के रूप में सम्मान सहित स्मरण करते हैं ।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “श्राद्ध !!”।)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता ‘फूल, खुशबू, चांद,चाहत… ‘।)
☆ कविता – फूल, खुशबू, चांद, चाहत.. ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘मिट्ठू बाबू और तत्वज्ञान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 259 ☆
☆ व्यंग्य ☆ मिट्ठू बाबू और तत्वज्ञान ☆
मिट्ठू बाबू रात को आठ बजे के बाद ‘एन. ए.’ यानी अनुपलब्ध हो जाते हैं। आठ बजे के बाद वे भोजन की ‘तैयारी’ में लग जाते हैं, अर्थात क्षुधा जागृत करने के लिए जो तरल पदार्थ वे नियम से लेते हैं, उसे लेकर इत्मीनान की मुद्रा में बैठ जाते हैं। पत्नी को स्थायी निर्देश प्राप्त है कि आठ बजे के बाद कोई अपरिचित आये तो कह दिया जाए कि वे नहीं हैं, और अगर कोई परिचित हो तो सीधे उनके कमरे में भेज दिया जाए। एक बार पेय पदार्थ सामने आ जाने के बाद आसन छोड़ने से रस भंग हो जाता है।
मिट्ठू बाबू मुझ पर कृपालु हैं। सीधे उनके कमरे तक पहुंचने का स्थायी परमिट मुझे प्राप्त है। मुझे देखकर वे प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें दुख बस यही रहता है कि मैं मदिरा-सेवन में उनका साथ नहीं देता। बस, बैठा बैठा मूंगफली के दाने या नमकीन टूंगता रहता हूं। उन्हें सुख यही रहता है कि मैं तन्मयता से उनकी बात सुनता रहता हूं। मदिरा- प्रेमी को उसकी बकवास सुनने के लिए कोई धैर्यवान श्रोता मिल जाए तो उसका मज़ा दुगुना हो जाता है।
मिट्ठू बाबू के सामने रखी अंग्रेजी शराब की बोतल को देखकर मैं कहता हूं , ‘मिट्ठू बाबू , यह तो बड़ी मंहगी होगी।’
मिट्ठू बाबू लापरवाही से जवाब देते हैं, ‘ज्यादा मंहगी नहीं है। दो सौ की है।’
मेरी आंखें कपार पर चढ़ जाती हैं। विस्मय से कहता हूं, ‘दो सौ रुपये ?’
मिट्ठू बाबू हंस कर जवाब देते हैं, ‘और नहीं तो क्या दो सौ पैसे? अरिस्टोक्रैट है।’
थोड़ी देर में नशे के असर में मिट्ठू बाबू नाना प्रकार का मुख बनाते हुए कहते हैं, ‘भाई देखो, कमाई जैसी हो वैसी खर्च करना चाहिए। दफ्तर में मैं किसी से कुछ मांगता नहीं। लोग अपने आप जेब में रकम खोंसते जाते हैं। शाम तक हजार दो हजार इकट्ठे हो ही जाते हैं। अब भैया, अपन मानते हैं कि इस तरह की कमाई ज्यादा दिन टिकती नहीं, इसलिए इसको तुरत फुरत खर्च करना चाहिए। बस मस्त रहो और मौज करो। दुनिया की ऐसी तैसी।’
मैं उनमें से हूं जिनकी ऐसी तैसी हो रही है, इसलिए श्रद्धा भाव से बैठा उनका भाषण सुनता रहता हूं।
मैं मिट्ठू बाबू से पूछता हूं, ‘मिट्ठू बाबू, यह एक बोतल आपको कितने दिन खटाती है?’
मिट्ठू बाबू झूमते हुए कहते हैं, ‘अकेले को दो दिन, और कोई यार मिल गया तो एक ही दिन में खलास।’
मैं भकुआ सा कहता हूं, ‘यानी सौ रुपये रोज?’
मिट्ठू बाबू मुंह पर चिड़चिड़ाहट का भाव लाकर कहते हैं, ‘यार, हिसाब किताब की बातें करके मजा खराब मत करो। जिन्दगी मौज- मस्ती के लिए है। मौज-मस्ती के बिना पैसा किस काम का? मैं पैसे को मिट्टी से ज्यादा नहीं समझता।’
उनका दर्शन मेरे काम का नहीं है क्योंकि अपने हाथ बिल्कुल साफ रहते हैं। पैसा नाम की जो मिट्टी है वह इतनी देर हाथ में रुकती ही नहीं कि हाथ गन्दा हो।
मिट्ठू बाबू गर्दन एक तरफ लटका कर, आंखें मींचे कहते हैं, ‘देखो भई, जिन्दगी चार दिन की है। साथ कुछ नहीं जाना। इसलिए पैसा जोड़कर क्या करना है? सकल पदारथ हैं जग माहीं। संसार की वस्तुओं का भोग करना चाहिए और बेफिक्र होकर रहना चाहिए।’
ऐसा तत्वज्ञान मैं कई बार इसी तरह के लोगों से प्राप्त कर चुका हूं जिनकी जेब में ऊपरी कमाई के दो चार हजार रुपये रोज अपने आप चले आते हैं। ऐसे लोग बड़े तत्वज्ञानी होते हैं क्योंकि वे सांसारिक चिन्ताओं से ऊपर उठ जाते हैं। उनके प्रवचन सुनने के लिए बच जाते हैं मुझ जैसे मूढ़ लोग जिनकी ऊपरी कमाई नहीं होती।
सामने रंगीन टीवी चालू रहता है। मैं कहता हूं, ‘मिट्ठू बाबू ,यह देखो, सीरिया में कैसी मार-काट मची है।’
मिट्ठू बाबू मुश्किल से अपनी आंखें खोलते हैं, एक नज़र टीवी पर डालकर ठंडी सांस भरकर कहते हैं, ‘कैसा जीना और कैसा मरना। जीवन खुद माया है। दूसरों के लिए दुखी होने से कोई फायदा नहीं।’
मैं उन्हें चैन से बैठने नहीं देता। एक मिनट बाद ही कहता हूं, ‘यै बर्मा वाले आपस में ही एक दूसरे को मार रहे हैं।’
मिट्ठू बाबू फिर मुश्किल से आंखें खोल कर कहते हैं, ‘हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस बिधि हाथ।’
मुश्किल यह होती है कि मैं नशे में नहीं होता, इसलिए ज़मीन की बातें ही करता हूं। थोड़ी देर बाद फिर कहता हूं , ‘अपने देश की हालत कम खराब नहीं है, मिट्ठू बाबू। उड़ीसा में भुखमरी के मारे लोग अपने बच्चों को बेच रहे हैं।’
मिट्ठू बाबू का शान्त मुखड़ा विकृत हो जाता है। रिमोट उठा कर टीवी बन्द कर देते हैं, फिर कहते हैं, ‘भैया, लगता है तुम मेरा नशा उतारने की सोच कर आये हो। अपन टीवी मनोरंजन के लिए देखते हैं, रोने के लिए नहीं। दुनिया में किस-किस के लिए रोयें? बोर करके हमारी शाम खराब मत करो। इसीलिए कहता हूं कि थोड़ी सी ले लिया करो, इन आलतू-फालतू बातों की तरफ ध्यान ही नहीं जाएगा।’
मैं कहता हूं, ‘मिट्ठू बाबू ,लेने लगूंगा तो बीवी झाड़ू मार कर घर से निकाल देगी।’
मिट्ठू बाबू नशे में ‘ही ही’ हंसते हैं। कहते हैं, ‘तुम रहे भोंदू के भोंदू। जरा मेरा जलवा देखो।’
फिर रौब से चिल्लाते हैं, ‘कहां हो जी?’
उनकी पत्नी अवतरित होती हैं। मिट्ठू बाबू लटपटाती आवाज़ में डपटते हैं, ‘जरा आकर देख नहीं सकतीं क्या? ये घंटे भर से बैठे हैं। चाय नहीं भेज सकतीं?’
पत्नी दबे स्वर में ‘अभी लाती हूं ‘ कहकर विदा हो जाती हैं।
मिट्ठू बाबू ओंठ फैला कर कहते हैं, ‘देखा? मजाल है जो कोई चूं कर ले। घर में शेर की तरह रहना चाहिए।’
मैं मिट्ठू बाबू को उनकी मर्दानगी के लिए दाद देता हूं।
कुछ ऐसा हुआ कि दो-तीन महीने मिट्ठू बाबू से भेंट नहीं कर पाया। इस बीच सुना कि दफ्तर में उनकी शिकायतें हुईं जिसके फलस्वरूप उन्हें ऐसे सूखे विभाग में स्थानान्तरित कर दिया गया जहां उल्लुओं और चमगादड़ों का साम्राज्य है। पान भी अपनी गांठ से खाना पड़ता है। सुना कि मिट्ठू बाबू भारी कष्टों से गुज़र रहे हैं।
एक दिन उनके घर पहुंचा तो वे मातमी मुद्रा में सिर लटकाये बैठे थे। बोतल गायब थी। पहले मलूकदास की तत्वज्ञानी मुद्रा में पांव कुर्सी पर धरे बैठते थे। आज पांव ठोस ज़मीन पर थे और चेहरा विशुद्ध दुनियादार जैसा था।
मैंने पूछा, ‘क्या हाल है?’
उन्होंने मरी आवाज़ में उत्तर दिया, ‘हाल क्या बतायें! किसी ने झूठी शिकायत कर दी और मुझे पटक दिया सड़ियल विभाग में। मेरा तो दुनिया पर से भरोसा ही उठ गया।’
मैंने कहा, ‘फिकर मत करो, मिट्ठू बाबू। सब ठीक हो जाएगा। बोतल कहां गयी?’
मिट्ठू बाबू बोले, ‘अरे भैया, बोतल दो सौ की आती है। इतने पैसे कहां से लाएं? कभी ले भी आते हैं तो दाम याद आते ही आधा नशा उतर जाता है। बीवी अलग खाने को दौड़ती है। बोतल देखते ही चंडी बन जाती है।’
मैंने कहा, ‘क्या बात करते हो यार! तुम्हारा रौब-दाब कहां गया?’
मिट्ठू बाबू आह भर कर बोले, ‘ऊपरी आमदनी खत्म होते ही रौब-दाब की कमर टूट गयी। जो आदमी गिरस्ती न चला सके उसका रौब-दाब कैसा? जो देखो वही चार बातें सुना कर जाता है।’
फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘बाजार का यह हाल है कि गेहूं पच्चीस रुपये किलो बिक रहा है।’
मैंने कहा, ‘यह भाव तो कई साल से चल रहा है।’
वे बोले, ‘मुझे पता नहीं था। किराने वाले के यहां से आ जाता था, मैं भाव-ताव देखता ही नहीं था। बीवी को पैसे दे देता था। अब बहुत दिन बाद भाव-ताव देख रहा हूं तो तबीयत बहुत परेशान रहती है।’
मैं चलने को उठा तो वे बोले, ‘रुको। तुम्हारे साथ मन्दिर तक चलता हूं। आजकल नियम से मन्दिर जाता हूं। सोचता हूं अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे।’
तभी भीतर से उनकी पत्नी निकलीं। तेज स्वर में बोलीं, ‘कहां जा रहे हो?’
मिट्ठू बाबू मिमिया कर बोले, ‘बस यहीं मन्दिर तक। अभी आता हूं।’
वे उसी स्वर में बोलीं, ‘कहीं इधर-उधर बोतल खोलकर मत बैठ जाना, नहीं तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा।’
मिट्ठू बाबू कानों को हाथ लगाकर बोले, ‘अरे राम राम। कैसी बातें कर रही हो। बोतल के लिए पैसे किसके पास हैं? बस मैं अभी गया और अभी आया।’
पत्नी मुड़कर भीतर चली गयीं और वे चेहरे पर बड़ी बेचारगी का भाव लिये मेरे साथ बाहर आ गये।