(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष ।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है कविता – तर्पण…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-३ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆
आमची आई.. .
आईने केला कोंड्याचा मांडा. माझी आई सौ. इंदिरा द. माजगावकर, दुसरी श्यामची आई होती. इतके दिवस नाही पण आता संसारात पडल्यावर जाणवतय, आईने कसा संसार केला असेल ? घरात आई नाना, आम्ही चौघी बहिणी, एक भाऊ, माझे काका (अण्णा), आत्या (आक्का) इतकी माणसे होती. पण मिळवणारे एकटे नानाच होते. त्यातून शिक्षकांना अगदी अपुरा पगार, पण आईने कोंड्याचा मांडा करून संसार सजवला.
45 ते 50 चा तो काळ, रेशनचे दिवस होते ते! धान्य आणून स्वच्छ करून निवडून रेशनला लाईनीत उन्हातान्हांत उभं राहून जड ओझं घरी आणायचं, घामाघूम व्हायची बिचारी! शिवाय आम्हा मुलांचं सगळ्यांचं आवरून हे सगळं आई एकटी करायची. आई माहेरी धाकटी होती. शेंडेफळ म्हणून लाडाकोडात वाढलेली आई सासरी मोठी सून म्हणून आली, हे मोठेपणाच शिवधनुष्य वेलतांना तिची खूपच दमछाक झाली.
आईचं लग्न अगदी मजेशीर झालं, माझे मामा (दादामामा )आणि माझे वडील नाना दोघे मित्र होते. एकदा नाना अचानक दादा मामांना भेटायला म्हणून आईच्या घरी गेले. बाहेर ओसरीवर माझ्या आईचा सागर गोट्यांचा डाव रंगात आला होता, नाना म्हणाले, “अहो यमुताई (आईचं माहेरचं नाव) दत्तोपंत आहेत का घरात? हे कोण टिकोजी आले मध्येच. ‘ असं पुटपुटत सागर गोट्याचा रंगलेला डाव सोडून आईने गाल फुगवले आणि परकराचा घोळ सावरत दादा मामांना बोलवायला ती आत पळाली. तिला काय माहित या टिकोजीरावांशीच आपली लग्न गाठ बांधली जाणार आहे म्हणून. लग्नानंतर आपल्या मित्राला, म्हणजे मोठ्या मामांना, हा किस्सा आमच्या वडिलांनी आईकडे मिस्कीलपणे बघत रंगवून सांगितला होता. मग काय मामांच्या चेष्टेला उधाणच आलं,
आम्ही मोठे झाल्यानंतर ही गंमत आमच्यापर्यंत मामांनी पोहोचवली होती. तर अशी ही आईनानांची पहिली भेट. नंतर संसाराची निरगाठ पक्की झाली, आणि त्यांचे शुभमंगल झाले. नाशिकच्या जोशांची कनिष्ठ कन्या मोठी सून म्हणून माजगावकरांच्या घरांत आली. कर्तव्याची, कष्टाची जोड देऊन तिने नानांचा संसार फुलवला. आता ति. आई नाना दोघेही नाहीत पण आठवणींची ही शिदोरी उलगडतांना मन बालपणात जात, आणि त्यांच्या आठवणीने व्याकुळ होत… व्याकुळ होतं..
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चरण से आचरण तक…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 216 ☆चरण से आचरण तक… ☆
शब्दों से पहले आचरण हमारी जीवन गाथा कह देता है, जिस माहौल में परवरिश होती है वही सब एक – एक कर सामने आते हैं। ऐसी कोशिश होनी चाहिए कि बोली और भावाव्यक्ति किसी को आहत न करे।
जब निर्णयों पर प्रश्न चिन्ह लगने लगे तो अवश्य चिन्तन करें कि कहाँ भूल हो रही है कि लोग आपकी नीतियों का विरोध एक स्वर में कर रहें हैं। बिना प्रयोगशाला के विज्ञान का अध्ययन संभव ही नहीं। जैसे – जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे- वैसे सोचने समझने की क्षमता भी सकारात्मक होने लगती है, लोग क्या सोच रहे हैं या क्या सोचेंगे ये भाव भी क्रमशः घटने लगता है।
जैसे हम तन – मन के सौंदर्य का ध्यान रखते हैं वैसे ही वैचारिक दृष्टिकोण का ध्यान रखें। नकारात्मक विचारों को हटा कर श्री चिंतन की ओर उन्मुख हों। स्पष्टवादिता से अक्सर विवाद खड़े होते हैं। उचित समय का ध्यान रखने वाला इससे साफ बचकर निकल सकता है।
श्री शब्द का अलग ही रुतबा है, जब नाम के आगे सुशोभित होता है तो एक सुखद अहसास जगाता है। एक श्रीमान बहुत ही न्याय प्रिय थे उनके इस गुण से सभी प्रसन्न रहते।
एक विवाद के सिलसिले में उनको समझ ही नहीं आ रहा था क्या फैसला किया जाए, सभी की दृष्टि उन पर थी। पर कहते हैं न समय के फेर से कोई नहीं बच सकता तो वे कैसे अछूते रहते उन्होंने वैसा ही निर्णय दे दिया जैसा कोई भी करता, कारण न्याय केवल तथ्य नहीं देखता वो व्यक्ति व उसकी उपयोगिता भी देखता है।
यदि वो हमारे काम का है तो पड़ला उसकी तरफ़ झुकना स्वाभाविक है।
खैर होता वही है जो श्री हरि की इच्छा, पर कहीं न कहीं सारे लोग जो आज तक आप की ओर आशा भरी निगाहों से देखा करते थे वे अब मुख मोड़कर जा चुके हैं, उम्मीद तो एक की टूटी जो जुड़ जायेगी वक्त के साथ-साथ किन्तु आपके प्रति जो विश्वास लोगों था वो धराशायी हुआ।
जो भी होता है वो अच्छे के लिए होता है बस आवश्यकता इस बात की है कि आप उसमें छुपे संदेशों को देखें।
कई बार संकोचवश भी आपको ऐसी नीतियों का समर्थन करना पड़ता है जो उसूलों के खिलाफ हों पर जब पानी सर के ऊपर जाने की स्थिति हो तो सत्य की राह पर चलना ही श्रेस्कर होता है। भले ही लोगों का साथ छूटे छूटने दो क्योंकि शीर्ष पर व्यक्ति अकेला ही होता है, वहाँ इतनी जगह नहीं होती की पूरी टीम को आप ले जा सकें और जो जिस लायक है वो वही करे तभी उन्नति संभव है।
वर्तमान को सुधारें जिसके लिए आज पर ध्यान देना जरूरी है। कार्य करते रहें बाधाएँ तो आपकी कार्य क्षमता को परखने हेतु आतीं हैं।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 23 – चबूतरी का चक्कर☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
अरे भाई, किस्सा ऐसा है कि गाँव का चौधरी हमेशा अपनी चाल में बड़े गुमान से रहता था। उसका तो बस ये मानना था कि जो वो कहे, वही सही। एक दिन चौधरी अपने चौपाल पे बैठा था, गाल पे हाथ धरे, जब एकाएक गाँव में हड़कंप मच गया। खबर आई कि चौधरी ने जो नई बनाई थी बड़ी-बड़ी चबूतरी (गाँव की बैठकें), वो सब धड़ाम से गिर गई।
एक चेला दौड़ता-भागता चौधरी के पास पहुंचा। बोला, “चौधरी साब, आपने जो चबूतरी बनवाई थी, वो सब गिर गई।”
चौधरी की आँखें फैल गईं, “के कह सै रे?”
“हाँ चौधरी साब, बिलकुल सही कह रह्या हूँ, चबूतरी टूट कर जमीन पे बिखरी पड़ी हैं।”
चौधरी जो हमेशा दूसरों पे धौंस जमाने का आदी था, अब खुद पे आई तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उसने चेला को घूरते हुए कहा, “के तू झूठ बोल रा सै? झूठी बात निकली तो तेरा बंटाधार हो जाएगा!”
चेला ने सिर झुकाए हुए कहा, “चौधरी साब, अगर मेरी बात झूठ निकली, तो मुझे आप गाँव के चौराहे पे उल्टा लटका देना।”
चौधरी एक पल के लिए सोच में पड़ गया। खुद भी तो ऐसे ही डायलॉग मारने का शौक रखता था। पर इस बार मामला सच्चा था। उसने फिर चेले से पूछा, “तू अपनी आँखों से देखी सै ये बात?”
चेला बोला, “हाँ जी चौधरी साब। कोई चबूतरी की दीवार ढह गई सै, किसी की छत नीचे आ गिरी सै, और एक तो पूरी की पूरी चबूतरी मिट्टी में मिल गई सै।”
चौधरी का मुँह सूख गया। उसने जल्दी से गाँव के ठेकेदार को बुलाया और चबूतरियों के गिरने की जांच के आदेश दे दिए।
ठेकेदार ने तुरंत एक कमेटी बना दी, जिसमें मिस्त्री से लेकर मजदूर तक सबको डाल दिया। मिस्त्री ने कहा, “किस बात का रोना कर रा सै भाई? चबूतरियां तो पक्की थी, बस मिट्टी थोड़ी कमजोर थी। चबूतरी फिर से बनवा देंगे, जब तक साँस है, तब तक चबूतरी बनेगी।”
आखिरकार, जांच की रिपोर्ट भी आ गई। जांच कमेटी ने माना कि चबूतरियां तो ठीक थी, पर जमीन ने धोखा दे दिया। असली कसूर तो जमीन का सै, चबूतरी बनाने वाले निर्दोष हैं। और जो पैसा लगाया गया था, वो तो बिल्कुल जायज था। कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ। और ये भी हो सकता सै कि विरोधी पार्टी ने ही जमीन को कमज़ोर कर दिया हो।
रिपोर्ट पढ़कर चौधरी मियां खुश हो गया, क्योंकि वो जानता था कि ऐसी ही रिपोर्ट आएगी। अगर भ्रष्टाचार का पता चलता, तो उसका नाम मिट्टी में मिल जाता।
अगले दिन चौधरी ने पूरे गाँव में ऐलान करवा दिया कि चबूतरियां गिरने का असली गुनहगार जमीन है। उसने जमीन को दुरुस्त करने के आदेश दिए और नए चबूतरी बनाने का काम शुरू करा दिया। अब ठेकेदार और मिस्त्री फिर से हाथों में नया काम देख कर खुश हो गए। नई चबूतरियों के लिए फिर से गाँव का खजाना खुल गया।
और भाई, चौधरी की चालें भले ही तिरछी हों, पर उसकी किस्मत हमेशा सीधी रही। इस खेल में सबकी चाँदी हो गई, बस गाँव वालों की मुश्किलें फिर वहीँ की वहीँ रह गईं।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक बाल कथा – “पिंटू का स्कूल” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 305 ☆
कथा-कहानी – “मुक्ति” श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
वह शहर के नामचीन कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। आंखों में चश्मा चढ़ चुका है। सर के बालों में भी इतनी सफेदी तो आ ही गई है कि वे वरिष्ठ माने जाने लगे हैं। अब सभा गोष्ठियों में उन्हें अध्यक्ष के रूप में आखिर तक बैठना होता है। गंभीरता का सोबर सा मंहगा दुशाला लपेट, फुलपैंट के साथ घुटनो तक लम्बा खादी का कुर्ता पहनने का ड्रेस कोड उन्होंने अपना लिया है। वरिष्ठता की उम्र के इस संधि स्थल पर बच्चे पर फड़फड़ाते स्वयं उनके घोंसले बनाने दूर शहरों में उच्च शिक्षा के लिये पढ़ने जा चुके हैं।
बड़े से घर पर वे और उनकी पत्नी ही रह गई हैं। और रह गई है, घर और उनकी देखभाल करने के लिये निशा। निशा उनके बंगले के निकट ही बस्ती में रहती है। निशा साफ सुथरी हाई स्कूल पास कोई पैंतीस बरस की शांत लेडी है। निशा तब से उनके घर को संभाले हुये है, जब बच्चे स्कूल में थे। कहते हैं न कि यदि किसी को समझना हो तो पता कीजीये कि उनके ड्राइवर, घर के नौकर चाकर कितने लम्बे समय से उनके पास कार्यरत हैं। बच्चे निशा को दीदी कहते हैं। और गाहे बगाहे सीधे निशा दीदी को फोन करके उनकी तथा अपनी मम्मी की कैफियत भी पता कर लेते हैं। निशा अधिकार पूर्वक उनकी चाय से शक्कर गायब कर देती है। वह सोहबत में कोलेस्ट्राल जैसे बड़े और भारी भरकम शब्द सीख गई है, जिनका इस्तेमाल कर उनके लिये अंडे की सफेदी का ही आमलेट बनाती है।
आशय यह है कि निशा प्रोफेसर के परिवार के सदस्य के मानिन्द ही बन चुकी है। ये और बात है कि निशा का एक शराबी पति और एक उत्श्रंखल बेटा भी है। जिनका पेट निशा ही पाल रही है। प्रोफेसर साहब के परिवार को देख निशा के अरमान भी होते हैं कि उसका बच्चा भी अच्छा पढ़ लिख ले और जिंदगी में कुछ ठीक ठाक कर ले। निशा अधिकारों के प्रति सचेत है, भले ही वह किचन में खाना बना रही हो पर उसके कान चल रहे ड्राइंग रूम में टी वी पर चल रहे समाचार सुन रहे होते हैं। क्रिकेट का उसे शौक है, इतना कि खास निशा के लिये प्रोफेसर साहब को हाट स्टार की सदस्यता लेनी पड़ी, क्योंकि वर्ल्ड कप के प्रसारण दूरदर्शन पर नहीं आ रहे थे। निशा ने पार्षद से लड़ भिड़ कर स्वयं के लिये उज्जवला योजना का गैस सिलेंडर तक हासिल कर लिया है। वह आयुष्मान योजना का कार्ड जैसी सरकारी योजनाओ का लाभ भी ले लेती है।
उस दिन निशा ने चहकते हुये आगामी छुट्टी को पिकनिक के लिये नर्मदा में लम्हेटा घाट से नौकायन का प्रस्ताव मैडम के सम्मुख रखा। मैडम की या प्रोफेसर साहब की और कोई व्यस्तता थी नहीं, इसलिये निशा का सुझाव सहजता से मान्य हो गया। पिकनिक की बास्केट निशा ने रेडी कर ली। ड्राइवर को भी निशा सीधे इंस्ट्रक्शन दे दिया करती थी। नियत समय पर निशा की अगुवाई में प्रोफेसर साहब का कारवां पिकनिक के लिये निकल पड़ा।
लम्हेटा घाट पर पहुंच एक नाविक का इंतजाम ड्राइवर ने कर लिया। और सभी नाव पर सवार हो गये। काले बेसाल्ट के पहाड़ कप काट अविरल धार से अपना मार्ग बनाती नर्मदा युगों युगों से बहे जा रही थी, दोनो तटों के उस अप्रतिम नयनाभिराम सौंदर्य को निहारते प्रोफेसर साहब विचारों में खो गये। नर्मदा अर्वाचीन नदी है, इसका प्रवाह पश्चिम की ओर है। मध्य भारत की जीवन रेखा के रूप में मान्यता प्राप्त नर्मदा चिर कुंवारी सदा नीरा के रूप में प्रतिष्ठित हैं। स्कंद पुराण का पूरा एक खण्ड ही नर्मदा पर है। मगरमच्छ की सवारी करने वाली नर्मदा मैया की परिक्रमा सदियों से आस्था प्रेमी जन करते रहे हैं। इस १३१२ किलोमीटर की इस परकम्मा में आस्था, विश्वास, रहस्य, रोमांच, और खतरों के संग प्रकृति के विलक्षण सौंदर्य के सानिध्य के अनुभव निहित हैं। गंगा को ज्ञान, यमुना को भक्ति, ब्रम्हपुत्र को तेज, गोदावरी को ऐश्वर्य, कृष्णा को कामनापूर्ति और लुप्त हो चुकी सरस्वती को आज भी विवेक के प्रतिष्ठान के लिये पूजा जाता है। नदियों कि यही प्रतिष्ठा भारतीय संस्कृति की विशेषता है जो जीवन को प्रकृति से जोड़ती है। वे सोच रहे थे विदेश यात्राओं में जब पश्चिम की निर्मल स्वच्छ नदियों का प्रवाह दिखता है तो लगता है कि नदियों की पूजा करने वाले भारत को क्यों नदी स्वच्छता अभियान चलाने पड़ते हैं।
प्रोफेसर साहब की तंद्रा टूटी, निशा मैडम को बता रही थी कि बीच नदी में यह जो चट्टान है उस पर एक शिवालय है, जहाँ हर मनोकामना पूरी होती है। निशा भोले बाबा से यही मनाने आई है कि उसके पति की शराब से उसे मुक्ति मिले। उसने बताया कि कल तो उसके पति ने इतनी ज्यादा पी ली कि पुलिस उसे सड़क से पकड़कर ले गई है, वह कह रही थी कि यहां से लौटकर उसे छुड़ाने जाना होगा, वह बोली अब और सहन नहीं होता, अब तो न केवल निशा को बेवजह अपने ही बेटे को भी मारता है। अब वह चाहती है कि भोले बाबा उसे इस सबसे मुक्ति दें। प्रोफेसर साहब कुछ कहकर निशा की आस्था और भोले बाबा पर भरोसे को नहीं तोड़ना चाहते थे, वे मन ही मन हंस पड़े और सोचने लगे अपनी हर बेबसी को काटने के लिये मनुष्य ने चमत्कार की आशा में भगवान को गढ़ लिया है। क्या आस्था मनोवैज्ञानिक उपचार ही है ? शाम हो चली थी, सूरज दूसरे गोलार्ध में सुबह करने यहां से बिदा ले रहा था। रक्ताभ लालिमा से आसमान नहा रहा था, वीराने में हवा की सरसराहट और नर्मदा के प्रवाह का कलकल नाद गुंजायमान था। मैडम नाव से ही झुककर अपने हाथों से नर्मदा जल से किलोल कर रही थीं, नाव किनारे की तरफ वापस पहुंचने को थी। शायद निशा भोले बाबा से अपनी प्रार्थना दोहराये जा रही थी, क्योंकि उसकी आँखें उसी शिवालय वाली चट्टान को निहारे जा रहीं थीं।
पिकनिक मनाकर सब घर पहुंचे, रात हो गई थी, इसलिये मैडम ने ड्राइवर से निशा को उसके घर ड्राप करवा दिया।
अगली सुबह, प्रोफेसर साहब के घर अजीब सा सन्नाटा था। निशा के घर से आई खबर ने प्रोफेसर साहब को झकझोर दिया। वे और उनकी पत्नी तुरंत ही निशा के घर पहुंचे।
निशा का घर शोक में डूबा हुआ था। निशा की आंखें सूजी हुई थीं और चेहरा उदास था। मेडम ने निशा को सांत्वना दी और उसके पति के निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित की। निशा ने बताया, शराब उसे पी गई। पुलिस ने उसे हवालात में डाल दिया था, जहां उसकी तबियत बिगड़ गई, उसे अस्पताल शिफ्ट कर मुझे खबर दी गई। खबर मिलते ही मैं तुरंत अस्पताल पहुंची, लेकिन वह नहीं बच पाया।
ढ़ाड़स बंधाने के लिये प्रोफेसर साहब का शब्द कोष उन्हें बौना लग रहा था। उनकी पत्नी ने निशा को धैर्य रखने के लिए कहा और कहा, “तुम हमारे परिवार की सदस्य हो। हम तुम्हारे साथ हैं। निशा की आंखों में आंसू थे, वह जानती थी कि उसके पास अब भी एक परिवार है। प्रोफेसर साहब सोच रहे थे इसे भोले बाबा की कृपा कहें ? या मुक्ति कहें ?
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी बाल कथा – “चतुराई धरी रह गई”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 187 ☆
☆ बाल कथा – चतुराई धरी रह गई☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
चतुरसिंह के पिता का देहांत हो चुका था. उस ने अपने छोटे भाई कोमलसिंह को बंटवारा करने के लिए बुलाया, “बंटवारे के पहले खाना खा लेते है. ” खाने परोसते हुए चतुरसिंह ने कोमलसिंह से कहा.
कोमलसिंह ने जवाब दिया, “ भैया ! बंटवारा आप ही कर लेते. मुझे अपना हिस्सा दे देते. बाकि आप रख लेते. मुझे बुलाने की क्या जरुरत थी ?”
“नहीं भाई. मै यह सुनना बरदाश्त नहीं कर सकता हूँ कि बड़े भाई ने छोटे भाई का हिस्सा मार लिया, ” कहते हुए चतुरसिंह ने भोजन की दो थाली परोस कर सामने रख दी.
एक थाली में मिठाई ज्यादा थी. इस वजह से वह थाली खालीखाली नजर आ रही थी. दूसरी थाली में पापड़, चावल, भुजिए ज्यादा थे. वह ज्यादा भरी हुई नज़र आ रही थी. मिठाई वाली थाली में दूधपाक, मलाईबरफी व अन्य कीमती मिठाइयाँ रखी थी.
“जैसा भी खाना चाहो, वैसी थाली उठा लो,” चतुरसिंह ने कहा, वह यह जानना चाहता था कि बंटवारे के समय कोमलसिंह किस बात को तवज्जो देता है. ज्यादा मॉल लेना पसंद करता है या कम.
चूँकि कोमलसिंह को मीठा कम पसंद था. इसलिए उस ने पापड़भुजिए वाली थाली उठा ली, “भैया मुझे यह खाना पसंद है, ” कहते हुए कोमलसिंह खाना खाने लगा.
चतुरसिंह समझ गया कि कोमलसिंह को ज्यादा मल चाहिए. वह लालची है. इस कारण उस ने ज्यादा खाना भरी हुई थाली ली है. इसे इस का मज़ा चखाना चाहिए. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने बंटवारे के लिए नई तरकीब सोच ली.
खाना खा कर दोनों भाई कमरे में पहुंचे. चतुरसिंह ने घर के सामान के दो हिस्से कर रखे थे.
“इन सामान में से कौनसा सामान चाहिए ?” चतुरसिंह ने सामने रखे हुए सामान की ओर इशारा किया.
एक ओर फ्रीज़, पंखें, वाशिंग मशीन रखी थी. दूसरी ओर ढेर सारे बरतन रखे थे. चुंकि कोमलसिंह के पास फ्रीज़, पंखे, वाशिंग मशीन थी. उस ने सोचा कि भाई साहब के पास यह चीज़ नहीं है. इसलिए ये चीज़ भाई साहब के पास रहना चाहिए.
यह सोचते हुए कोमलसिंह ने बड़े ढेर की ओर इशारा कर के कहा, “मुझे यह बड़ा वाला ढेर चाहिए. ”
चतुरसिंह मुस्कराया, “ जैसी तेरी मरजी. यूँ मत कहना कि बड़े भाई ने बंटवारा ठीक से नहीं किया, ” चतुरसिंह अपनी चतुराई पर मंदमंद मुस्कराता हुआ बोला. जब कि वह जानता था कि उसे ज्यादा कीमती सामान प्राप्त हुआ है.
कोमलसिंह खुश था. वह अपने बड़े भाई की मदद कर रहा था.
“अब इन दोनों ढेर में से कौनसा ढेर लेना पसंद करोगे ?” चतुरसिंह ने अपने माता की जेवरात की दो पोटली दिखाते हुए कहा.
कोमलसिंह ने बारीबारी दोनों पोटली का निरिक्षण किया, एक पोटली भारी थी, दूसरी हल्की व छोटी. उस ने सोचा कि चतुरसिंह बड़े भाई है. इसलिए उन्हें ज्यादा हिस्सा चाहिए.
“भैया ! आप बड़े है. आप का परिवार बड़ा है, इसलिए आप बड़ी पोटली रखिए, ” कोमलसिंह ने छोटी पोटली उठा ली, “यह छोटी पोटली मेरी है.”
“नहीं नहीं भाई, तुम बड़ी पोटली लो, “ चतुरसिंह ने बड़ी पोटली कोमलसिंह के सामने रखते हुए कहा.
“नहीं भैया, आप बड़े है, बड़ी चीज़ पर आप का हक बनता है, ” कहते हुए कोमलसिंह ने छोटी पोटली रख ली.
चतुरसिंह चकित रह गया. उस ने बड़ी पोटली में चांदी के जेवरात रखे थे. छोटी पोटली में सोने के जेवरात थे. वह जानता था कि कोमलसिंह लालच में आ कर बड़ी पोटली लेगा. जिस में उस के पास चांदी के जेवरात चले जाएँगे और वह सोने के जेवरात ले लेगा.
मगर, यहाँ उल्टा हो गया था.
अब की बार चतुरसिंह ने चतुराई की, “ कोमलसिंह इस बार तू बंटवारा करना. नहीं तो लोग कहेंगे कि बड़े भाई ने बंटवारा कर के छोटे भाई को ठग लिया, “ चतुरसिंह ने कोमलसिंह को ठगने के लिए योजना बनाई.
कोमलसिंह कोमल ह्रदय था. वह बड़े भाई साहब का हित चाहता था. बड़े भाई के ज्यादा बच्चे थे. इसलिए वह चाहता था कि जमीन का ज्यादा हिस्सा बड़े भाई साहब को मिले. इसलिए वह चतुरसिंह को अपने पैतृक घर पर ले गया.
“भाई साहब ! यह अपने पैतृक मकान है. पिताजी ने आप के जाने के बाद इसे बनाया था, ” कोमलसिंह ने कहा.
चतुरसिंह ने देखा कि एक ओर दो मकान और तीन मंजिल भवन खड़ा है, दूसरी ओर एक दुकान के पास से अन्दर जाने का गेट है. यानि एक ओर बहुमंज़िल भवन के साथ दो दुकान बनी हुई थी. दूसरी ओर एक दुकान और पीछे जाने का गेट था.
चतुरसिंह नहीं चाहता था कि जेवरात की तरह ठगा जाए इसलिए उस ने कहा, “ कोमलसिंह तुम ही बताओ. मुझे कौनसा हिस्सा लेना चाहिए ?”
“ भाई साहब, मेरी रॉय में तो आप दूसरा हिस्सा ले लेना चाहिए, ” कोमलसिंह ने कहा तो चतुरसिंह चकित रह गया.
छोटा भाई हो कर बड़े भाई को ठगना चाहता है. खुद बहुमंजिल मकान और दो दुकान हडप करना चाहता है. मुझे एक दुकान और छोटासा बाड़ा देना चाहता है. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमलसिंह, मेरा परिवार बड़ा है, इसलिए मै चाहता हूँ कि यह बहुमंजिल मकान वाला हिस्सा में ले लूँ. ”
इस पर कोमलसिंह ने कहा, “ भैया ! आप हिस्सा लेने से पहले यह दूसरा हिस्सा देख ले. ” कोमलसिंह ने चतुरसिंह से कहा. वह चाहता था कि बड़े भाई को ज्यादा हिस्सा मिलें. क्यों कि दूसरे हिस्से के अंदर १० मकान और लंबाचौडा खेत था, साथ ही बहुत सारे मवेशी भी थे.
मगर, चतुरसिंह ने सोचा कि छोटा भाई उसे ठगना चाहता है. इसलिए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमल, मुझे कुछ नहीं देखना है, यह दूसरा हिस्सा तेरे रहा, पहला हिस्सा मेरे पास रहेगा.”
“भैया ! एक बार और सोच लो, ” कोमलसिंह ने कहा, “ आप को ज्यादा हिस्सा चाहिए, इसलिए आप यह दूसरा हिस्सा ले लें.”
चतुरसिंह जानता था कि खाली जमीन के ज्यादा हिस्से से उस का यह बहुमंजिल मकान अच्छा है. इसलिए उस ने छोटे भाई की बात नहीं मानी. सभी पंचो के सामने अपने अपने हिस्से का बंटवारा लिख लिया.
“भैया. एक बार मेरा हिस्सा भी देख लेते, ” कहते हुए कोमलसिंह चतुरसिंह को अपना हिस्सा दिखने के लिए दुकान के पास वाले गेट से अंदर गया.
आगेआगे कोमलसिंह था, पीछेपीछे चतुरसिंह चल रह था. जैसे ही वे गेट के अंदर गए, उन्हें गेट के पीछे लम्बाचौड़ा खेत नजर आया. सामने की तरफ १० भवन बने हुए था. कई मवेशी चर रहे थे.
यह देख कर चतुरसिंह ढंग रह गया, “कोमल यह हिस्सा पापाजी ने कब खरीदा था ?”
“ भैया ! आप के जाने के बाद, ” कोमलसिंह ने बताया, “ इसीलिए मै आप से कहा रहा था कि आप बड़े है, आप को बड़ा हिस्सा चाहिए, मगर, आप माने नहीं, ”
मगर, अब चतुरसिंह क्या करता ? उस की चतुराई की वजह से वह स्वयम ठगाया जा चूका था. वह चुप हो गया.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- ” इथे तुझी भरभराट होणाराय. बघशील तू. माझे आशीर्वाद आहेत तुला”
सरांनी मनापासून दिलेल्या आशिर्वादांचे हे शब्द सरांच्या मनातल्या तत्क्षणीच्या भावना व्यक्त करीत होते हे खरेच. पण त्याच शब्दांत नजीकच्या भविष्यकाळात घडून येणाऱ्या अनेक उत्साहवर्धक घटनांचे भविष्यसूचनही लपलेले होते याचा प्रत्ययही मला लवकरच येणार होता याची मात्र मला त्याक्षणी पुसटशीही कल्पना नव्हती! )
माधवनगरला अतिशय प्रशस्त अशा ब्रॅंच-मॅनेजर क्वार्टर्स होत्या. त्याही ब्रॅंचला जोडून. मधे फक्त एक काॅमन दरवाजा. त्यामुळे येण्याजाण्याचा वेळ तर वाचायचाच शिवाय एरवीच्या मोकळ्या वेळेत किंवा सुट्टीच्या दिवशीही महत्त्वाचा पत्रव्यवहार विचारपूर्वक हातावेगळा करायला मला भरपूर निवांतपणाही मिळायचा. असे सौख्य मला ना पूर्वी कधी अनुभवायला मिळालं होतं आणि ना नंतरही. त्यामुळे माधवनगर ब्रॅंचमधलं प्रचंड वर्कलोडही मला सुसह्य झालं होतं. माझ्यासाठी आणखी एक अतिशय समाधानाची बाब म्हणजे नाईकसरांचं घर आमच्या बॅंकेच्या अगदी जवळ म्हणजे समोरचा रस्ता ओलांडला की त्याला लागूनच होतं. त्यामुळे आमची रोजच भेट व्हायची. त्यांच्या नित्य भेटी, विविध विषयांवरील गप्पा हा माझ्यासाठी विरंगुळाच नव्हे तर एक प्रकारचा सत्संगच असायचा. सरांची ‘आध्यात्मिक आणि साहित्यक्षेत्रातली अधिकारी व्यक्ती’ ही ओळख माझ्यासाठी नवीन होती. त्यांचं बोलणं अतिशय शांत, लाघवी आणि ओघवतं असे. त्यांच्याशी अल्पकाळाचं मोजकं बोलणंही एक वेगळीच ऊर्जा देऊन जात असे. माझ्या मनातल्या कितीतरी शंकांचं निरसन अनेकदा त्यांना नेमकं कांही न विचारताही त्यांच्याकडून नकळत आपोआपच केलं जातं असे. तो अतिशय विलक्षण अनुभव असायचा!
माझ्या सासुरवाडीच्या सर्वांशीही नाईक-कुटुंबियांचा परिचय आणि जवळीक होतीच. त्यामुळे मी महाबळ कुटुंबाचा जावई असणं ही सरांसाठी विशेष कौतुकाची बाब असे. त्यामुळे पहिल्या भेटीनंतरच्या लगेचच्या निवांत भेटीतच सरांनी आरती/सलिलची आवर्जून चौकशी केली होती. तिची नोकरी, राजीनामा, जूनमधलं फॅमिली शिफ्टिंग हे सगळं त्यांना सांगितलं तेव्हा ते विचारात पडले.
“हे बघ, इथलं नवीन शैक्षणिक वर्ष लवकरच सुरू होईल. अनेक शाळांमधल्या नवीन भरतीबद्दलच्या जाहिराती यायला सुरुवात होईल. आपल्या सांगली शिक्षण संस्थेच्या शाळांमधेही नवीन जागा भरायच्यात. अशा जाहिरातींकडे लक्ष ठेवून आरतीला तिथूनच तुझा इथला पत्ता देऊन ताबडतोब अर्ज करायला सांग. कारण ती इथे आल्यानंतर अर्ज करायचा म्हणशील तर मुदत संपून गेलेली असेल. अनुदानित शाळेतली नोकरी सोडल्यानंतर सहा महिन्याच्या आत जर दुसऱ्या अनुदानित शाळेत पुन्हा नोकरी मिळाली तरच पहिल्या नोकरीतली सिनिऑरिटी आणि इतर फायदे सुरक्षित राहू शकतात. त्यामुळे ही संधी सोडू नको म्हणावं. “
पुढे एकदोन दिवसांत ते म्हणाले तशी सांगली शिक्षण संस्थेची आणि सांगलीच्याच वुईमेन्स एज्युकेशन सोसायटीच्या रा. स. कन्याशाळेची अशा दोन जाहिराती माझ्या वाचनात आल्या तेव्हा त्याची कटिंग्ज महाबळेश्वरला आरतीकडे पाठवून मी तिला सरांचा निरोपही कळवला. दोन्हीकडे आरतीने लगेच अर्जही केले. जूनच्या पहिल्या आठवड्यात ती इकडे येण्यापूर्वीच दोन दिवस आधी तिची दोन्हीकडची इंटरव्ह्यूची काॅललेटर्स माझ्या पत्यावर येऊन पडली होती!’देता घेशील किती दो कराने’ ही उक्ती कृतीत दृश्यरुप होणं म्हणजे नेमकं काय याचा सुखद अनुभव मला आला तो दोन्हीकडे आरतीची सिलेक्शन झाल्याची बातमी आली तेव्हा!
महाबळेश्वरहून परतल्यावर लगेचच वेध लागले ते दोन्हीपैकी एक प्रस्ताव विचारपूर्वक निवडून नवीन रुटीनला सामोरं जायच्या तयारीचे. सांगली शिक्षण संस्थेत पहिलं पोस्टींग सांगलीतल्या शाळेतच होणार होतं. तरीही पुढे कधीही जिल्हाभर विखुरलेल्या संस्थेच्या कोणत्याही शाळेत होऊ शकणाऱ्या बदल्या गृहित धरुन सांगलीतल्या कायमच्या वास्तव्याची खात्री असणारी रा. स. कन्याशाळेची आॅफर आम्ही पूर्ण विचारांती स्विकारायचं ठरवलं आणि आम्हा तिघांचीही नव्या रुटीनला सामोरं जायची तयारी सुरु झाली.
सलिलची ‘बापट बाल शिक्षण मंदिर’या शाळेतली दुसरीतली अॅडमिशन, आरतीची एक जूलैपासून सुरु होणारी नवीन नोकरी, दोघांचंही सांगलीला जाण्यायेण्यातलं धावपळीचं रुटीन आणि अशा जाण्यायेण्याच्या त्रासापासून पूर्णत: मुक्त असणारं माझं निवांत, स्वस्थ वेळापत्रक हे सगळं मला पुढे कितीतरी दिवस स्वप्नवतच वाटत राहिलं होतं! पण या स्वप्नातून अचानक दचकून जाग यावी तसा मी भानावर आलो ते केवळ हे असं कौटुंबिक स्थैर्य मिळणं सोयीचं व्हायला निमित्त व्हावं एवढ्यापुरत्या अगदी अल्पकाळासाठीच माझी इथे माधवनगरला बदली झाली असावी असं वाटायला लावणारी एक बातमी अचानक ब्रॅंचमधे येऊन धडकली तेव्हा! इथं येऊन मला चारसहा महिनेही झाले नव्हते आणि पुढच्या प्रमोशन प्रोसेसच्या हालचाली सुरु झाल्याची ती बातमी होती!
सगळं प्रोसेस पूर्ण व्हायला चार एक महिनेच लागणार होते. प्रमोशनची संधी हा आनंदाचा भाग असला तरी माझ्यापुरता विचार करायचा तर प्रमोशन नंतरची ‘आऊट ऑफ स्टेट पोस्टींग’ ची टांगती तलवार माझ्या संकल्पसिध्दीत फार मोठा अडसर निर्माण करणारी ठरणार होती आणि हेच माझ्या मनात डोकावू लागलेल्या अस्वस्थतेचं मुख्य कारण होतं. घरचं हसरं वातावरण पाहिलं कीं हे सगळं घरी सांगायचं मी टाळतंच होतो. जे व्हायचं तेच होणार असेल तर आत्तापासूनच सगळ्यांना याचा त्रास कशाला असा विचार करुन मी स्वतःचीच समजूत काढत रहायचो.
ब्रॅंचमधल्या दिवसभराच्या कामांमधली व्यस्तता सोडली तर एरवी मनात नजीकच्या काळात निर्माण होऊ शकणाऱ्या अस्थिरतेचा विचार ठाण मांडून असायचाच. एक दिवस न रहावून मी नाईकसरांना माझ्या मनातली ही बोच बोलून दाखवली. त्यांनी नेहमीच्या शांतपणे हसतमुखाने सगळं ऐकून घेतलं. म्हणाले, “यालाच तर आयुष्य म्हणायचं. ते येईल तसं आनंदाने स्विकारायचं. जिथे जाशील तिथे दत्तमहाराज आहेतच ना पाठीशी?मग काळजी कसली? ते असणारच आहेत. आणि म्हणूनच तुझ्या उत्कर्षाची वाट वळणावळणांची असणाराय. खाचखळग्यांची नाही हे लक्षात ठेव”
त्यांचे हे नेमकी दिशा दाखवत मला निश्चिंत करणारे आश्वासक शब्द त्याक्षणी माझ्यासाठी अतिशय दिलासा देणारे होते!
माझी यापुढची उत्कर्षाची वाट वळणावळणाची असणाराय असं सर म्हणाले ते अनेक अर्थांनी खरं ठरणार होतं आणि त्या वाटेवरचं पहिलं वळण हाकेच्याच अंतरावर माझी वाट पहात तिष्ठत थांबलेलं. पण आता मी निश्चिंत होतो. मनात उत्सुकता होतीच पण ना कसलं दडपण ना अस्वस्थता. कारण सर म्हणाले तसं ‘तो’ होताच माझ्या सोबत आणि समोरच्या त्या वळणवाटेवरही तो असणारच होता सोबतीला.. !