हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #253 – 138 – “राब्ता है उन से दिल मुझसे लगाते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल राब्ता है उन से दिल मुझसे लगाते हैं…” ।)

? ग़ज़ल # 138 – “राब्ता है उन से दिल मुझसे लगाते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

चाय पीने को  कलारी में  बुलाते हैं,

ये क्यों मेरी ज़ब्त को आजमाते हैं।

*

वो वस्ल का ख़्वाब दिखलाते रहे मुझे,

राब्ता है उन से दिल मुझसे लगाते हैं।

*

मौलवी की कोशिश यह रही हमेशा ही,

वो खुदा के नाम पर झगड़ा कराते हैं।

*

बैर ज़िंदा रखते हैं नाम पर मज़हब के,

फ़ेसबुक पर दुश्मनी का मंत्र बताते हैं।

*

आतिश सभालो भभकती हो शमा जब भी,

आग भड़का  वो तुम्हारा   घर जलाते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 131 ☆ गीत – ॥ अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 131 ☆

☆ गीत ॥ अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।

लेकिन आपके ही  मीठे बोल से सारे शिकवे बह जाते हैं।।

******

अपनों के साथ सही गलत का भेद नहीं खोलना चाहिए।

रिश्तों में कटुता बचाने के लिए दिल  से बोलना चाहिए।।

उनके रिश्ते कभी नहीं टूटते संबंधों में कुछ  सह जाते हैं।

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।।

******

नई सुबह नई उमंग के साथ   रिश्तों में नई ऊर्जा लाईए।

रिश्तों को धीरे – धीरे मरने से   आप खुद ही   बचाईए।।

जिन रिश्तों में अपनत्व स्नेह प्रेम वह सदैव वैसे रह पाते हैं।

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।।

*****

नई कहानी नई रवानी बदलता है रिश्तों का रुप स्वरूप।

स्वार्थ से दूर आपसी अपनेपन से रिश्ते निभते अभूतपूर्व।।

वास्तविक रिश्तों में मौन से भी बहुत कुछ कह पाते हैं।

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।।

****

जब हमारा मन साफ होता तो हमारी वाणी शुद्ध होती है।

मन मस्तिष्क में नफरत तो बोली भी अशुद्ध      होती है।।

नाराजगी दूर करते ही हमारे रिश्ते फिर से चहचहातें हैं।

अहम वाणी व्यवहार से रिश्तों के किले ढह जाते हैं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 195 ☆ आत्मचिंतन से विमुख ये आज का संसार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “आत्मचिंतन से विमुख ये आज का संसार। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 195 ☆ आत्मचिंतन से विमुख ये आज का संसार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मै कौन हूं आया कहां से और है जाना कहाँ?

इन सरल प्रश्नों के उत्तर कठिन है पाना यहां ।

 *

आदमी उलझा है बहुत जाति  के व्यवहार में

लाभ-हानि की जोड़-बाकी में फँसा बाजार में ।

 *

है कहाँ सुधी आप की  , मन में भरी है कामना

स्नेह और सद्भाव कम है द्वेष की है भावना ।

 *

दृष्टि ओछी आज की है कल की न परवाह है

व्यर्थ ही अभिमान है सुनता न कोई सलाह है।

 *

चाह उसकी सदा होती स्वार्थ औ सम्मान की

है कहाँ अवकाश इतना सोचे आत्म ज्ञान की ।

 *

खुद से शायद कम है उसको धन के ज्यादा प्यार है

इसी से आत्म अध्ययन को न कोई तैयार है।

 *

ध्यान मन में आत्म सुख है और निज परिवार है

आत्मचिन्तन से विमुख  आजकल संसार है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #250 ☆ न्याय की तलाश में ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख न्याय की तलाश में। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 250 ☆

☆ न्याय की तलाश में ☆

‘औरत ग़ुलाम थी, ग़ुलाम है और सदैव ग़ुलाम ही रहेगी। न पहले उसका कोई वजूद था, न ही आज है।’ औरत पहले भी बेज़ुबान थी, आज भी है। कब मिला है..उसे अपने मन की बात कहने का अधिकार  …अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता…और किसने उसे आज तक इंसान समझा है।

वह तो सदैव स्वीकारी गई है–मूढ़, अज्ञानी, मंदबुद्धि, विवेकहीन व अस्तित्वहीन …तभी तो उसे ढोल, गंवार समझ पशुवत् व्यवहार किया जाता है। अक्सर बांध दी जाती है वह… किसी के खूंटे से; जहां से उसे एक कदम भी बाहर निकालने की इजाज़त नहीं होती, क्योंकि विदाई के अवसर पर उसे इस तथ्य से अवगत करा दिया जाता है कि इस घर में उसे कभी भी अकेले लौट कर आने की अनुमति नहीं है। उसे वहां रहकर पति और उसके परिवारजनों के अनचाहे व मनचाहे व्यवहार को सहर्ष सहन करना है। वे उस पर कितने भी सितम करने व ज़ुल्म ढाने को स्वतंत्र हैं और उसकी अपील किसी भी अदालत में नहीं की जा सकती।

पति नामक जीव तो सदैव श्रेष्ठ होता है, भले ही वह मंदबुद्धि, अनपढ़ या गंवार ही क्यों न हो। वह पत्नी से सदैव यह अपेक्षा करता रहा है कि वह उसे देवता समझ उसकी पूजा-उपासना करे; उसका मान-सम्मान करे; उसे आप कहकर पुकारे; कभी भी गलत को गलत कहने की जुर्रत न करे और मुंह बंद कर सब की जी-हज़ूरी करती रहे…तभी वह उस चारदीवारी में रह सकती है, अन्यथा उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में पल भर की देरी भी नहीं की जाती। वह बेचारी तो पति की दया पर आश्रित होती है। उसकी ज़िन्दगी तो उस शख्स की धरोहर होती है, क्योंकि वह उसका जीवन-मांझी है, जो उसकी नौका को बीच मंझधार छोड़, नयी स्त्री का जीवन-संगिनी के रूप में किसी भी पल वरण करने को स्वतंत्र है।

समाज ने पुरुष को सिर्फ़ अधिकार प्रदान किए हैं और नारी को मात्र कर्त्तव्य। उसे सहना है; कहना नहीं…यह हमारी संस्कृति है, परंपरा है। यदि वह कभी अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है, तो उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं होता। उसे चुप रहने का फरमॉन सुनाया दिया जाता है। परन्तु यदि वह पुन: जिरह करने का प्रयास करती है, तो उसे मौत की नींद सुला दिया जाता है और साक्ष्य के अभाव में प्रतिपक्षी पर कोई आंच नहीं आती। गुनाह करने के पश्चात् भी वह दूध का धुला, सफ़ेदपोश, सम्मानित, कुलीन, सभ्य, सुसंस्कृत व श्रेष्ठ कहलाता है।

आइए! देखें, कैसी विडंबना है यह… पत्नी की चिता ठंडी होने से पहले ही, विधुर के लिए रिश्ते आने प्रारम्भ हो जाते हैं। वह उस नई नवेली दुल्हन के साथ रंगरेलियां मनाने के रंगीन स्वप्न संजोने लगता है और परिणय-सूत्र में बंधने में तनिक भी देरी नहीं लगाता। इस परिस्थिति में विधुर के परिवार वाले भूल जाते हैं कि यदि वह सब उनकी बेटी के साथ भी घटित हुआ होता…तो उनके दिल पर क्या गुज़रती। आश्चर्य होता है यह सब देखकर…कैसे स्वार्थी लोग बिना सोच-विचार के, अपनी बेटियों को उस दुहाजू के साथ ब्याह देते हैं।

असंख्य प्रश्न मन में कुनमुनाते हैं, मस्तिष्क को झिंझोड़ते हैं…क्या समाज में नारी कभी सशक्त हो पाएगी? क्या उसे समानता का अधिकार प्राप्त हो पाएगा? क्या उस बेज़ुबान को कभी अपना पक्ष रखने का शुभ अवसर प्राप्त हो सकेगा और उसे सदैव दोयम दर्जे का नहीं स्वीकारा जाएगा? क्या कभी ऐसा दौर आएगा… जब औरत, बहन, पत्नी,  मां, बेटी को अपनों के दंश नहीं झेलने पड़ेंगे? यह बताते हुए कलेजा मुंह को आता है कि वे अपराधी पीड़िता के सबसे अधिक क़रीबी संबंधी होते हैं। वैसे भी समान रूप से बंधा हुआ ‘संबंधी’ कहलाता है। परन्तु परमात्मा ने सबको एक-दूसरे से भिन्न बनाया है, फिर सोच व व्यवहार में समानता की अपेक्षा करना व्यर्थ है, निष्फल है। आधुनिक युग यांत्रिक युग है, जहां का हर बाशिंदा भाग रहा है…मशीन की भांति, अधिकाधिक धन कमाने की दौड़ में शामिल है ताकि वह असंख्य सुख-सुविधाएं जुटा सके। इन असामान्य परिस्थितियों में वह अच्छे- बुरे में भेद कहां कर पाता है?

यह कहावत तो आप सबने सुनी होगी, कि ‘युद्ध व प्रेम में सब कुछ उचित होता है।’ परन्तु आजकल तो सब चलता है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं। हर संबंध व्यक्तिगत स्वार्थ से बंधा है। हम वही सोचते हैं, वही करते हैं, जिससे हमें लाभ हो। यही भाव हमें आत्मकेंद्रितता के दायरे में क़ैद कर लेता है और हम अपनी सोच के व्यूह से कहां मुक्ति पा सकते हैं? आदतें व सोच इंसान की जन्म-जात संगिनी होती हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी इंसान की आदतें बदल नहीं पातीं और लाख चाहने पर भी वह इनके शिकंजे  से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कार जीवन-भर उसका पीछा नहीं छोड़ते। सो! वे एक स्वस्थ परिवार के प्रणेता नहीं हो सकते। वह अक्सर अपनी कुंठा के कारण परिवार को प्रसन्नता से महरूम रखता है तथा अपनी पत्नी पर भी सदैव हावी रहता है, क्योंकि उसने अपने परिवार में वही सब देखा होता है। वह अपनी पत्नी तथा बच्चों से भी वही अपेक्षा रखता है, जो उसके परिवारजन उससे रखते थे।

इन परिस्थितियों में हम भूल जाते हैं कि आजकल हर पांच वर्ष में जैनेरेशन-गैप हो रहा है। पहले परिवार में शिक्षा का अभाव था। इसलिए उनका दृष्टिकोण संकीर्ण व संकुचित था.. परन्तु आजकल सब शिक्षित हैं; परंपराएं बदल चुकी हैं; मान्यताएं बदल चुकी हैं; सोचने का नज़रिया भी बदल चुका है… इसलिए वह सब कहां संभव है, जिसकी उन्हें अपेक्षा है। सो! हमें परंपराओं व अंधविश्वासों-रूपी केंचुली को उतार फेंकना होगा; तभी हम आधुनिक  युग में बदलते ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे।

एक छोटी सी बात ध्यातव्य है कि पति स्वयं को सदैव परमेश्वर समझता रहा है। परन्तु समय के साथ यह धारणा परिवर्तित हो गयी है, दूसरे शब्दों में वह बेमानी है, क्योंकि सबको समानाधिकार की दरक़ार है, ज़रूरत है। आजकल पति-पत्नी दोनों बराबर काम करते हैं…फिर पत्नी, पति की दकियानूसी अपेक्षाओं पर खरी कैसे उतर सकती है? एक बेटी या बहन पूर्ववत् पर्दे में कैसे रह सकती है? आज बहन या बेटी गांव की बेटी नहीं है; इज़्ज़त नहीं मानी जाती है। वह तो मात्र एक वस्तु है, औरत है, जिसे पुरुष अपनी वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारता है। आयु का बंधन उसके लिए तनिक भी मायने नहीं रखता … इसीलिए ही तो दूध-पीती बच्चियां भी, आज मां के आंचल के साये व पिता के सुरक्षा-दायरे में सुरक्षित व महफ़ूज़ नहीं हैं। आज पिता, भाई  व अन्य सभी संबंध सारहीन हैं और निरर्थक हो गए हैं। सो! औरत को हर परिस्थिति में नील-कंठ की मानिंद विष का आचमन करना होगा…यही उसकी नियति है।

विवाह के पश्चात् जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर भी, वह अभागिन अपने पति पर विश्वास कहां कर पाती है? वह तो उसे ज़लील करने में एक-पल भी नहीं लगाता, क्योंकि वह उसे अपनी धरोहर समझ दुर्व्यवहार करता है; जिसका उपयोग वह किसी रूप में, किसी समय अपनी इच्छानुसार कर सकता है। उम्र-भर साथ रहने के पश्चात् भी वह उसकी इज़्ज़त को दांव पर लगाने में ज़रा भी संकोच नहीं करता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व ख़ुदा समझता है। अपने अहं-पोषण के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकता है। काश! वह समझ पाता कि ‘औरत भी एक इंसान है…एक सजीव, सचेतन व शालीन प्राणी; जिसे सृष्टि-नियंता ने बहुत सुंदर, सुशील व मनोहरी रूप प्रदान किया है… जो दैवीय गुणों से संपन्न है और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है।’ यदि वह अपनी जीवनसंगिनी के साथ न्याय कर पाता, तो औरत को किसी से व कभी भी न्याय की अपेक्षा नहीं रहती।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – एकलव्य (खण्डकाव्य)– कवि- मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 14 ?

? एकलव्य (खण्डकाव्य)– कवि- मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- एकलव्य

विधा- खण्डकाव्य

कवि- मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? पारंपरिक पर युगधर्मी रचना  श्री संजय भारद्वाज ?

इतिहास और पुराण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दिखने में एक जैसे पर दोनों के बीच स्पष्ट अतंर-रेखा है। इतिहास, अतीत में घट चुकी घटनाओं को प्रमाणित दस्तावेज़ो के रूप में सुरक्षित रखने का माध्यम है। दस्तावेज़ों में लेशमात्र परिवर्तन भी कठिन होता है। इसके विरुद्ध पुराण दस्तावेज़ों में विश्वास नहीं करता। फलत: इतिहास ठहरा रहता है जबकि पुराण सार्वकालिक हो जाता है।

संभावनाओं की चरम परिणिति है पुराण। यही कारण है कि पौराणिक आख्यानों की मीमांसा मनुष्य युगानुरूप करते आया है। इतिहास का ढाँचा प्रमाणों के चलते तयशुदा है, पुराण का ‘स्केलेटन’ व्यक्ति अपनी वैचारिकता और कल्पना के आधार पर बदलता रहता है।

मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ का खण्डकाव्य ‘एकलव्य’ स्केलेटन का ताज़ा परिवर्तित रूप है। इसमें समकालीन जीवनमूल्यों के आधार पर एकलव्य कथा की मीमांसा की गई है।काव्यशास्त्र में दी गई कल्पना की छूट के आधार पर प्रचलित तथ्यों से छेड़छाड़ किये बिना गुरु द्रोणाचार्य का बचाव भी किया गया है।

परंपरा और विधा के शिल्प के अनुरूप अनेक चिंतन सूत्र इस खण्डकाव्य में दिखते हैं। जाति व्यवस्था की तार्किक मीमांसा करते हुए कवि लिखता है-

वंश कुल नहीं जाति कहाती, जाति उसका गुण है।

विष की जाति पाप, पीयूष की जाति पुण्य है।

विवेकहीन विद्या भस्मासुर को जन्म देती है। भारतीय संस्कृति का ये उद्घोष कुछ यों शब्द पाता है-

विद्या विवेक बिन आएगी।

जग में अशान्ति फैलाएगी।  

इसी क्रम में जन संहारक आविष्कार की भी निंदा की गई है।

अनुशासन इस रचना की प्राणवायु है। कवि की सैनिक पृष्ठभूमि ने इस विचार के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। कवि अनुशासन को जीवन का आभूषण मानता है-

अनुशासन जीवन का भूषण।

अनुशासन जीवन का पोषण।

प्रकृति अनुशासन से बंधी हुई है। सूर्योदय से पुन: सूर्योदय तक के प्राकृतिक किया-कलाप इसके साक्षी हैं-  

प्रकृति भी बँधी अनुशासन में, अपवाद बहुत कम होता है।

दिवस में जन्तु रत रहता, रजनी में कैसे सोता है।

अनुशासन केवल प्रजा पर नहीं, राजा पर भी समान रूप से लागू होता है। दोनों को अपनी-अपनी सीमा में रहने की सलाह दी गई है-

राजा-प्रजा अनुशासित हों।

सीमा के अन्दर भाषित हों।

असमंजम की स्थिति में गुरु द्रोण द्वारा अपने मन के गुरु से संवाद अर्थात् स्वसंवाद का प्रसंग है। यह प्रसंग ‘अहं ब्रह्यास्मि’ के सत्य को गहराई से रेखांकित करने का प्रयास करता है।

अपनी विचारधारा और कल्पना के तरकश में रखे तर्क के तीरों की सहायता से कवि ने द्रोणाचार्य को महिमा मण्डित किया है। एकलव्य का अंगूठा कटवाने को भी न्यायोचित ठहराया है। ये तार्किकता पाठक के लिए अदरक के समान है जो किसी के लिए पाचक है तो किसी के लिए वायु का कारक। निर्णय अपनी प्रकृति अनुरूप पाठक को स्वयं करना है।

खण्डकाव्य गुरु की महिमा के गान से ओतप्रोत है। वंदना के सर्ग में माँ को भी विशेष मान दिया गया है। नायक एकलव्य का वर्णन कुछ स्थानों पर खण्डकाव्य के पारंपरिक शिल्प के चलते अतिरंजना का शिकार हुआ है।

प्रशंसनीय है कि एकलव्य के सामाजिक परिवेश का वर्णन करते हुए कवि ने संथाली रीति-रिवाज़ों  का ध्यान रखा है। तथापि इनके वर्णन में आदिवासी और शहरी समाज के रिवाज़ों का मेल परिलक्षित होता है।

कवि की भाषा में प्रवाह है, आँचालिकता है, परंपरा का बोध है, नवीनता का शोध है। उसकी अपनी विचारधारा है, अपने तर्क हैं अपनी शैली है। इन सबके बल पर कवि अपनी बात प्रभावी ढंग से कहने में सफल रहा है।

‘जितना छोटा होगा, उतना अधिक पढ़ा जाएगा’ के आधुनिक जीवनमूल्यों के अनुरूप ये रचना लिखी गई प्रतीत होती है। इसलिए ‘एकलव्य’ परंपरा का निर्वाह करता युगधर्मी लघु खण्डकाव्य कहा जाएगा। 

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #22 – ग़ज़ल – जान लेती हैं हमारी ये अदाएँ तेरी… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – जान लेती हैं हमारी ये अदाएँ तेरी

? रचना संसार # 22 – ग़ज़ल – जान लेती हैं हमारी ये अदाएँ तेरी…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

नफ़रतों के ये नजारे  नहीं अच्छे लगते

खून से लिपटे हमारे नहीं अच्छे  लगते

कद्र -जो मात- पिता की न किया करते हैं

अपने ऐसे भी दुलारे नहीं अच्छे लगते

 *

जान लेती हैं हमारी ये अदाएँ तेरी

यूँ सर -ए बज़्म इशारे नहीं अच्छे लगते

 *

जिनमें ज़हरीले से दाँतों की रिहाइश हो बस

साँप के ऐसे पिटारे नहीं अच्छे लगते

 *

होश खोकर जो ज़मीं पर ही गिरा करते हैं

टूटते हमको ये तारे नहीं अच्छे लगते

 *

जो यकायक ही सियासत में निकल आते हैं

इंतेख़ाबों के वो नारे नहीं अच्छे लगते

सादगी भी तो  कभी दिल है लुभाती मीना

हर घड़ी चाँद सितारे नहीं अच्छे लगते

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #250 ☆ भावना के दोहे – किताब ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – किताब)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 250 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – किताब  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

लिखती हूंँ मैं आज ही, तुझ पर एक किताब।

मुझे मिलेगा एक दिन, जिंदगी का खिताब।।

*

देखा तेरा चेहरा, लगा लिया अंदाज।

वो किताब अब तो नहीं, पढ़ ना पाए आज।।

*

किताबों को पढ़कर ही, मिले हमें संस्कार।

हमें उतरना चाहिए, अपने ही व्यवहार।।

*

देखो कैसे बोलती, जिंदगी की किताब।

सुख दुख सारे खोलती, देती यही हिसाब।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #232 ☆ दो मुक्तक – ऑनलाइन ठगी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है दो मुक्तक – ऑनलाइन ठगी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 231 ☆

☆ दो मुक्तक – ऑनलाइन ठगी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आम लोगों का मति भ्रम भारी है

ऑनलाइन ठगी का क्रम जारी है

रोज अपनाते हैं तरीके  नए-नए

ठगने  का नया उपक्रम  जारी है

*

खबरें    अखबारों   में   बेशुमार  हैं

फिर भी ठगी के अनेको  शिकार हैं

जरा स्वयं जागरूक बनिए साहिब

यहां  ठगने  वालों  की  भरमार  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 303 ☆ “नागार्जुन” की रचनाओं का उद्देश्य कब होगा पूरा ?  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 303 ☆

? “नागार्जुन” की रचनाओं का उद्देश्य कब होगा पूरा ? ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

“जब भी बीमार पड़ूं, तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर ट्रेन में बैठा देना, स्वस्थ हो जाऊंगा। “… अपने बेटे शोभा कांत से हँसते हुये ऐसा कहने वाले विचारक, घुमंतू जन कवि, उपन्यासकार, व्यंगकार, बौद्ध दर्शन से प्रभावित रचनाकार, “यात्री ” नाम से लिखे तो स्वाभाविक ही है. हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन का जीवन सामान्य नहीं था। उसमें आदि से अंत तक कोई स्थाई संस्कार जम ही नहीं पाया। अपने बचपन में वे ठक्कन मिसर थे पर जल्दी ही अपने उस चोले को ध्वस्त कर वे वैद्यनाथ मिश्र हुए, और फिर बाबा नागार्जुन… मातृविहीन तीन वर्षीय बालक पिता के साथ नाते रिश्तेदारो के यहां जगह जगह जाता आता था, यही प्रवृति, यही यायावरी उनका स्वभाव बन गया, जो जीवन पर्यंत जारी रहा. राहुल सांस्कृत्यायन उनके आदर्श थे। उनकी दृष्टि में जैसे इंफ्रारेड… अल्ट्रा वायलेट कैमरा छिपा था, जो न केवल जो कुछ आंखो से दिखता है उसे वरन् जो कुछ अप्रगट, अप्रत्यक्ष होता, उसे भी भांपकर मन के पटल पर अंकित कर लेता… उनके ये ही सारे अनुभव समय समय पर उनकी रचनाओ में नये नये शब्द चित्र बनकर प्रगट होते रहे. जो आज साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं. “हम तो आज तक इन्हें समझ नहीं पाए!”उनकी पत्नी अपराजिता देवी की यह टिप्पणी बाबा के व्यक्तित्व की विविधता, नित नूतनता, व परिवर्तनशीलता को इंगित करती है. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद समाप्त हो गये. पर “नागार्जुन” की कविता इनमें से किसी फ्रेम में बंध कर नहीं रही, उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जनसामान्य’ से ग्रहण करते रहे, और जनभावो को ही अपनी रचनाओ में व्यक्त करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की नई लीक का निर्माण किया. तरौनी दरभंगा-मधुबनी जिले के गनौली -पटना-कलकत्ता-इलाहाबाद-बनारस-जयपुर-विदिशा-दिल्ली-जहरीखाल, दक्षिण भारत और श्रीलंका न जाने कहां-कहां की यात्राएं करते रहे, जनांदोलनों में भाग लेते रहे और जेल भी गए. सच्चे अर्थो में उन्होने घाट घाट का पानी पिया था. आर्य समाज, बौद्ध दर्शन, मार्क्सवाद से वे प्रभावित थे. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान उनके अध्ययन, व अभिव्यक्ति को इंद्रधनुषी रंग देता है. किंतु उनकी रचना धर्मिता का मूल भाव सदैव स्थिर रहा, वे जन आकांक्षा को अभिव्यक्त करने वाले रचनाकार थे. उन्होंने हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है।

उनकी वर्ष 1939 में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष 1998 में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. उनकी विचारधारा नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई रही। आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. दोनों कविताओं के अंश इस तरह हैं

1939 में प्रकाशित ‘उनको प्रणाम’… 

… जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर,

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर-चूर! – उनको प्रणाम…

1998 में ‘अपने खेत में’… 

….. अपने खेत में हल चला रहा हूँ

इन दिनों बुआई चल रही है

इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही मेरे लिए बीज जुटाती हैं

हाँ, बीज में घुन लगा हो तो अंकुर कैसे निकलेंगे!

जाहिर है बाजारू बीजों की निर्मम छँटाई करूँगा

खाद और उर्वरक और सिंचाई के साधनों में भी

पहले से जियादा ही चौकसी बरतनी है

मकबूल फिदा हुसैन की चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक

हमारी खेती को चौपट कर देगी!

जी, आप अपने रूमाल में गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

उनकी विख्यात कविता “प्रतिबद्ध” कि पंक्तियां…….

प्रतिबद्ध हूं/

संबद्ध हूं/

आबद्ध हूं… जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूं

तुमसे क्या झगड़ा है/हमने तो रगड़ा है/इनको भी, उनको भी, उनको भी, उनको भी!

उनकी प्रतिबद्धता केवल आम आदमी के प्रति है.

उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको‘, ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात आदि में व्यंगात्मक शैली में तात्कालिक घटनाओ पर उन्होंने गहरे कटाक्ष के माध्यम से अपनी बात कही है.

‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘ की ये पंक्तियाँ देखिए………….

यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो

एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो

बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो

जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!

आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!,

व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं… कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन का काव्य व्यंग्यशब्द चित्रों का विशाल अलबम है

कभी किसी जीर्ण-शीर्ण स्कूल भवन को देखकर बाबा ने व्यंग्य किया था, “फटी भीत है छत चूती है…” उनका यह व्यंग क्या आज भी देश भर के ढ़ेरों गांवो का सच नहीं है ?

अपने गद्य लेखन में भी उन्होंने समाज की सचाई को सरल शब्दों में सहजता से स्वीकारा, संजोया और आम आदमी के हित में समाज को आइना दिखाया है…..

पारो से…

“क्यों अपने देश की क्वाँरी लड़कियाँ तेरहवाँ-चौदहवाँ चढ़ते-चढ़ते सूझ-बूझ में बुढ़ियों का कान काटने लगती हैं। बाप का लटका चेहरा, भाई की सुन्न आँखें उनके होश ठिकाने लगाये रखती है। अच्छा या बुरा, जिस किसी के पाले पड़ी कि निश्चिन्त हुईं। क्वारियों के लिए शादी एक तरह की वैतरणी है। डर केवल इसी किनारे है, प्राण की रक्षा उस पार जाने से ही सम्भव। वही तो, पारो अब भुतही नदी को पार चुकी है। ठीक ही तो कहा अपर्णा ने। मैं क्या औरत हूँ? समय पर शादी की चिन्ता तो औरतों के लिए न की जाए, पुरुष के लिए क्या? उसके लिए तो शादी न हुई होली और दीपावली हो गई।……

दुख मोचन से…

पंचायत गांव की गुटबंदी को तोड़ नही सकी थी, अब तक. चौधरी टाइप के लोग स्वार्थसाधन की अपनी पुरानी लत छोड़ने को तैयार नही थे. जात पांत, खानदानी घमंड, दौलत की धौंस, अशिक्षा का अंधकार, लाठी की अकड़, नफरत का नशा, रुढ़ि परंपरा, का बोझ, जनता की सामूहिक उन्नति के मार्ग में एक नही अनेक रुकावटें थीं…..

आज भी कमोबेश हमारे गांवो की यही स्थिति नही है क्या ?

समग्र स्वरूप में ठक्कन मिसर… वैद्यनाथ मिश्र… “नागार्जुन” उर्फ “यात्री”… विविधता, नित नूतनता, व परिवर्तनशीलता के धनी… पर जनभाव के सरल रचनाकार थे. उनकी जन्म शती पर उन्हें शतशः प्रणाम, श्रद्धांजली, और यही कामना कि बाबा ने उनकी रचनाओ के माध्यम से हमें जो आइना दिखाया है, हमारा समाज, हमारी सरकारें उसे देखे और अपने चेहरे पर लगी कालिख को पोंछकर स्वच्छ छबि धारण करे, जिससे भले ही आने वाले समय में नागार्जुन की रचनायें अप्रासंगिक हो जावें पर उनके लेखन का उद्देश्य तो पूरा हो सके.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 214 ☆ जब बढ़ जाता शोभाधन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जब बढ़ जाता शोभाधन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 213 ☆ जब बढ़ जाता शोभाधन

जीवन एक जैसा चलता रहे तो रोचकता खत्म हो जाती है, उतार- चढ़ाव होने चाहिए। जितने लोग उतनी कहानियाँ, इन सबमें असफलता, संघर्ष, परिश्रम, धन का अभाव, बाधाएँ ये सब बहुतायात में थे पर उन्होंने इसको सीढ़ी बना सर्वोच्च शिखर प्राप्त किया।

बिना परीक्षा आप नर्सरी की कक्षा तक पास नहीं कर सकते तो जीवन में सफल होने के लिए, प्रेरक बनने के लिए परीक्षाएँ तो देनी ही होगी। स्तर बढ़ने के साथ प्रश्न पत्र कठिन होता जाएगा। जितनी मेहनत उतना अच्छा परिणाम मिलेगा। तारीफ विजेता की होगी जिसका अनुभव आप कर सकते हैं क्योंकि अथक श्रम जो किया है। इस सम्बंध में एक छोटी सी कहानी याद आती है-

दो सहेलियाँ, स्वभाव एकदम विपरीत एक हमेशा अपनी स्थिति का रोना रोती रहती तो दूसरी हमेशा मुस्कुराते हुए कार्य करती। एक दिन दोनों गणेश जी की झाँकी देखने अपनी स्कूटी से गयीं, रास्ते में बहुत जाम लगा था जिसे देख पीछे की सीट में बैठी सहेली ने कहा गाड़ी सुरक्षित जगह पर खड़ी कर देते हैं, पैदल चलेंगे, इतनी भीड़ में गाड़ी से जाना मुश्किल है। आगे बैठी सहेली ने कहा आज पहली बार तुमने सही बात कही, जब भी कोई कठिन दौर हो और रास्ता न सूझे तो थोड़े परिवर्तन के साथ धीरे- धीरे ही सही पर चलना अवश्य चाहिए। उन लोगों ने गाड़ी एक दुकान के सामने खड़ी की और हाथों में हाथ डाले चल दी झाँकी देखने।

सच्चे मन से जो भी प्रयास किये जाते हैं वो अवश्य पूरे होते हैं। यही बात रिश्तों के संदर्भ में भी कारगर है, आप अपनी अपेक्षाओं को कम कर दें तो ऐसी कोई ताकत नहीं है जो आपकी जीत में बाधक बनें। कहते हैं ताली एक हाथ से नहीं बजती ये बात नकारात्मक लोगों के लिए सही हो सकती है पर सकारात्मक चिन्तन करने वाले तो व्यक्ति के भावों को पढ़कर ही महसूस कर लेते हैं कि सामने वाला क्या चाहता है। जब भी ऐसी स्थिति हो कि माहौल बिगड़ने वाला है तो चुपचाप मुस्कुराकर ऐसे बन जाएं जैसे जो हुआ वो अच्छा था और जो होगा वो इससे भी अच्छा होगा बस अपने आप सब ठीक हो जायेगा।

इसे प्राकृतिक चमत्कार मान सकते हैं मुस्कान का, यही रिश्तों को जीवित रखता है भले ही एक व्यक्ति का प्रयास क्यों न हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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