हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 78 ☆ वन का हिरन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “वन का हिरन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 78 ☆ वन का हिरन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

मन! फिर हुआ

वन का हिरन

*

लिए तिनके की आस

दबा होंठों में प्यास

खोजता फिर रहा

ज़िंदगी का अमन।

*

पत्थरों पर लिखी

प्यार की बोलियाँ

गीत झरना कोई

गुनगुनाता हुआ

रास्ते ओढ़कर

बैठे ख़ामोशियाँ

एक झोंका हवा

सरसराता हुआ

*

साँस भर दौड़ना

बस यही कामना

यूँ ही होता रहे

उम्र भर आचमन।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 82 ☆ इबादत सिखाता मुहब्बत की सबको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “इबादत सिखाता मुहब्बत की सबको“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 81 ☆

✍ इबादत सिखाता मुहब्बत की सबको… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जमीं रो रही आसमां रो रहा है

नहीं रहनुमा अम्न का दूसरा है

 *

बहे आदमी का लहू चार सू अब

ये इंसान को आज क्या हो गया है

 *

इबादत सिखाता मुहब्बत की  सबको

वही आज मज़हब लड़ाने लगा है

 *

चले थाम औरों की बैशाखियाँ जो

कहाँ अपने पैरों पे होता खड़ा है

 *

जो औरों को खोदा है गढ्ढे हमेशा

ये तय आसमां भी उसी पर गिरा है

 *

तुम्हें राजदां मैं बना कब का लेता

फ़रेबों का रुकता नहीं सिलसिला है

 *

बड़ी कीमतों और महसूल से हम

मलें हाथ क्यों तुझको नेता चुना है

 *

बड़ी स्याह है ये सियासत की गलियाँ

चला इनमें जो उसका ईमां गिरा है

 *

अरुण इश्क़ में ज़ख्म पाकर भी ख़ुश हूँ

निशानी में उसने मुझे कुछ दिया है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 47 – इंतजार…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – इंतजार।)

☆ लघुकथा # 47 – इंतजार श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जयप्रकाश आज सुबह से चाय का इंतजार कर रहे थे। बहू ने आज चाय नहीं दी मुझे, आज घर में बढ़िया-बढ़िया खाने की खुशबू आ रही है क्या बात है? आज उषा बहू जल्दी ही खाना बना रही हो!

बहू जल्दी से चाय दे दो।

 हां बाबूजी देती हूं और ब्रेड खा लीजिए आज नाश्ता नहीं बना रही हूं क्योंकि सत्येंद्र के दोस्त वीर आ रहे हैं अपने पूरे परिवार के साथ इसलिए मुझे जल्दी से खाना बनाना है।

ठीक है बेटा। मेरी कोई मदद की जरूरत है?

उषा -“नहीं बापूजी”

मैं बाबूजी ठीक है मैं ऊपर कमरे में जाता हूं।

सत्येंद्र और बच्चे जल्दी से नाश्ता कर लो । अभी राखी आ जाएगी तो मेरी थोड़ी मदद हो जाएगी। घर कोई मत फैलाना।

बाबूजी मन ही मन सोचते हैं, आज घर में तो बहुत अच्छी खुशबू  पनीर की आ रही है, और खीर भी बनी है, पूड़ी कचौड़ी पापड़ आज तो बढ़िया खाना मिलेगा।

सत्येंद्र – “बाबू जी आप कमरे से बाहर नहीं निकलना जब मेरा दोस्त चला जाएगा तब हम आपको बुला लेंगे”।

दोपहर हो जाती है, बाबूजी को कोई आवाज नहीं आ रही है, बहुत जोर से भूख लगी है सोचते हैं, चलो मैं नीचे चल कर देखता हूं बड़ी शांति लग रही है, घर में कोई नहीं है।

कामवाली राखी से पूछते हैं- क्या हो गया राखी तुम बर्तन मांज रही हो। सब लोग कहां गए?

सब लोग तो भैया के साथ बाहर चले गए।

रसोई में खाना देखता हूं बापू जी कुछ बर्तन खाली करके मुझे दे दीजिए।

अरे इसमें तो कुछ भी नहीं है, मैं चाय बना लेता हूं और ब्रेड के साथ खा   लेता हूं। राखी तुम भी चाय लो।

वह मन में सोचते हैं – खाना नहीं है, शायद मेहमानों को खाना अच्छा लगा होगा। बहू मेरा ख्याल रखती है, जल्दबाजी में कहीं जाना पड़ा होगा। मैं ऊपर जाकर थोड़ी देर आराम कर लेता हूँ…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 249 ☆ अमरवेल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 249 ?

☆ अमरवेल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

“अमरवेल” किती सुंदर नाव आहे,

पण ही वनस्पती,

दुसर्‍याच्या जीवावर जगणारी,

बिनधास्त, बिनदिक्कत!

नाही आवडायचं ,

तिचं हे दुसऱ्याच्या जीवावर,

उड्या मारणं !

 अचानकच

 जाणवलं—

तिच्यातला चिवटपणाच तिचं

जगणं आहे !

कुणी वंदा कुणी निंदा —-

तिला मिजाशीतच जगायचंय!

आणि असतीलच की,

उपजत काही प्रेरणा स्रोत,

तिच्यातही !

अमरवेल आलेली असते,

काही असे स्थायीभाव घेऊन,

जे असतील ही,

इतरांना त्रासदायक,

पण अमरवेल तग धरून!

 ज्याचं त्यानं

जगावं की हवं तसं!

पण काही संकेत पाळायचेच

असतात सगळ्यांनीच!

तर ….

काही गोष्टींना नसतातच,

कुठले नियम वा अटी,

दुसऱ्यांनी नसतेच

ठरवायची इतर कुणाची,

विचारसरणी !

☆  

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 78 – बोझ ज्यों सिर से उतारा हमने… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बोझ ज्यों सिर से उतारा हमने।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 78 – बोझ ज्यों सिर से उतारा हमने… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

वक्त, ऐसा भी गुजारा हमने 

बोझ, ज्यों सिर से उतारा हमने

 *

जिसको फेंका उतार, नजरों से 

उसको देखा न दुबारा हमने

 *

अपनी इच्छाओं के हैं कातिल हम 

तेरी खातिर, उन्हें मारा हमने

 *

उसके चेहरे पे, देख मायूसी 

दाँव जीता हुआ, हारा हमने

 *

तुमने, इक बार भी नहीं देखा 

बारहा, तुमको पुकारा हमने

 *

हम तो, फूलों से बिछ गये होते

तेरा, पाया न इशारा हमने

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 151 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत हैं  “मनोज के दोहे ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 151 – मनोज के दोहे ☆

प्रत्याशा हर राष्ट्र से, हों मानव-हित काम।

हिंसा को त्यागें सभी, बढ़े देश का नाम।।

 *

नव प्रत्यूषा की किरण, बिखरी भारत देश।

जागृति का स्वर गूँजता, बदल रहा परिवेश।।

 *

करूँ प्रथमेश वंदना,गौरी तनय गणेश।

मंगलमय की कामना, कारज-सिद्धि प्रवेश।।

 *

राम प्रभु प्राकट्य हुए, पुण्य धरा साकेत।

रघुवंशी दशरथ-तनय, राम राज्य के हेत।।

विकसित भारत बढ़ रहा, सबका है उत्कर्ष।

दिल आनंदित हो उठा, होता भव्य प्रहर्ष।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 34 – उत्तराखंड – भाग – 1 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – उत्तराखंड – भाग – 1 )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 34 – उत्तराखंड – भाग – 1 ?

ईश्वर की अनुकंपा ही समझूँ या इसे मैं अपना सौभाग्य ही कहूँ कि जिस किसी विशिष्ट स्थान के दर्शन के बाद जब मेरा मन तृप्त हो उठता है तो एक लंबे अंतराल के बाद पुनः वहीं लौट जाने का तीव्र मन करता है और मैं वहाँ पहुँच भी जाती हूँ। इसका श्रेय भी मैं बलबीर को ही देती हूँ जो मेरी इन इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। एक ही स्थान पर पुनः जाने का यह अनुभव मुझे कई बार हुआ।

सात वर्ष के अंतराल में दो बार लेह -लदाख जाने का सौभाग्य मिला। काज़ीरांगा, मेघालया तथा चेरापुँजी चार वर्ष के अंतराल में जाने का मौका मिला। हम्पी-बदामी ग्यारह वर्ष के अंतराल में, कावेडिया – स्टैच्यू ऑफ यूनिटी तीन वर्ष के अंतराल में पौंटा साहिब, कुलू मनाली, शिमला, चंडीगढ़, अमृतसर और माता वैष्णोदेवी के दर्शन के अनेक अवसर मिले। इन स्थानों पर लोगों को जीवन में एक बार जाने का भी मुश्किल से मौके मिलते होंगे वहीं ईश्वर ने मुझे एक से अधिक बार इन स्थानों के दर्शन करवाए। मेरे भ्रमण की तीव्र इच्छा को मेरे भगवान अधिक समझते हैं। इसलाए इसे प्रभु की असीम कृपा ही कहती हूँ।

एक और स्थान का ज़िक्र करना चाहूँगी वह है मसूरी का कैम्प्टी फॉल। अस्सी के दशक में हम पहली बार मसूरी गए थे। तब यह उत्तराखंड नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश था। फिर दोबारा 1994 में चंडीगढ़ में रहते हुए मसूरी जाने का सौभागय मिला।

फॉल या झरने के नीचे पानी में खूब भीगकर बच्चियों ने गर्मी के मौसम में झरने के शीतल जल का आनंद लिया था वे तब छोटी थीं। वहीं पास में कपड़े बदलकर गरम चाय और गोभी, आलू, प्याज़ की पकौड़ियों के स्वाद को आज भी वे याद करती हैं। वास्तव में जब कभी पकौड़ी खाते तो केम्प्टी फॉल की पकौड़ियों का ज़िक्र अवश्य होता। बच्चियों की आँखें उस स्वाद के स्मरण से आज भी चमक उठतीं हैं।

इस वर्ष मुझे तीस वर्ष के बाद पुनः केम्प्टी फॉल जाने का अवसर मिला। सड़क भर मैं स्मृतियों की दुनिया में मैं सैर करती रही। संकरी सड़कें, पेड़ -पौधों की रासायानिक विचित्र गंध युक्त हवा, दूर से बहते झरने की सुमधुर ध्वनि और सरसों के तेल में तली गईं पकौड़ियों की गंध! अहाहा !! मन मयूर इन स्मृतियों के झूले में पेंग लेने लगा।

हम काफी भीड़वाली संकरी सड़क से आगे बढ़ने लगे। पूछने पर चालक बोला यही सड़क जाती है फॉल के पास। अभी तो बहुत भीड़ भी होती है और गंदगी भी।

अभी कुछ कि.मी की दूरी बाकी थी। सड़क तो आज भी संकरी ही थी पर हवा में पेड़ -पौधों की गंध न थी बल्कि विविध कॉफी शॉप की दुकानों की, गरम पराठें तले जाने की, लोगों द्वारा लगाए गए परफ्यूम की गंध हवा में तैरने लगी। ये सारी गंध मुझे डिस्टर्ब करने लगी क्योंकि मेरे मस्तिष्क में तो कुछ और ही बसा है!

मेरा मन अत्यंत विचलित हुआ। हमने लौटने का इरादा किया और गाड़ी मोड़ने के लिए कहा। मेरे मानसपटल पर जिस खूबसूरत मसूरी के पहाड़ों का चित्र बसा था वहाँ आज ऊँची इमारतें खड़ी हैं। दूर तक कॉन्क्रीट जंगल!थोड़ी ऊँचाई पर गाड़ी रोक दी गई और वहाँ से वृक्षों के झुरमुटों के बीच से फॉल को देखा। झरना पतली धार लिए उदास बह रहा था। आस पास केवल इमारतें ही इमारतें थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इमारतों के बीच में से किसी ने पाइप लगा रखी है और जल बह रहा है।

1994 का वह प्रसन्नता और ऊर्जा से कुलांचे मारकर नीचे गिरनेवाला तेज प्रवाहवाला जल पतली – सी धार मात्र है। प्रकृति का भयंकर शोषण हुआ है। जल प्रवाह की ध्वनि विलुप्त हो गई। जिस तीव्र प्रवाह से सूरज की किरणों के कारण इंद्रधनुष निर्माण होता था वहाँ आज प्रकृति रुदन करती- सी लगी। उफ़! मेरे हृदय पर मानो किसीने तेज़ छुरा घोंप दिया। मैं जिस केम्प्टी फॉल की स्मृतियों से पूरित उत्साह से उसे देखने चली थी आज वह केवल एक आँखों को धोखा मात्र है। अगर इसे पहले कभी न देखा होता तो इस धार को देख मन विचलित न होता। पर स्मृतियों के जाल को एक झटके से फाड़ दिया गया।

हम बहुत देर तक उस पहाड़ी पर गाड़ी से उतरकर खड़े रहे। हम सभी मौन थे क्योंकि सामने जो दिखाई दे रहा था वह अविश्वसनीय दृश्य था। तीस वर्षों में एक प्राकृतिक झरने की यह दुर्दशा होगी यह बात कल्पना से परे थी। एक विशाल जल स्रोत की तो हत्या ही हो गई थी यहाँ।

मनुष्य कितना स्वार्थी और सुविधाभोगी है यह ऐसी जगहों पर आने पर ज्ञात होता है। बंदरों की बड़ी टोली रहती है यहाँ के जंगलों में। उन्हें वृक्ष चाहिए, जल चाहिए पर कहाँ! यहाँ तो मनुष्यों की भीड़ है। प्रकृति को इस तरह से नोचा -खसोटा गया कि उसका सौंदर्य ही समाप्त हो गया।

हम उदास मन से देहरादून लौट आए।

अब कभी किसी से हम केम्प्टी फॉल का उल्लेख नहीं करेंगे। पर मैं अपने मानस पटल पर चित्रित अभी के इन दृश्यों को कैसे मिटाऊँ और पुरानी सुखद स्मृतियों को पुनर्जीवित किस विधि करूँ यही सोच रही हूँ।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 313 ☆ आलेख – “ड्राइंग रूम अप्रासंगिक होते जा रहे हैं…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 313 ☆

?  आलेख – ड्राइंग रूम अप्रासंगिक होते जा रहे हैं…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

त्यौहार पर संदेशे तो बहुत आ रहे हैं, लेकिन मेहमान कोई नहीं आया. ड्राइंग रूम का सोफा मेहमानों को तरस रहा है.

वाट्सएप और फेसबुक पर मैसेज खोलते, स्क्रॉल करते और फिर जवाब के लिए टाइप करते – करते हाथ की अंगुलियां दर्द दे रही है. संदेशें आते जा रहे हैं. बधाईयों का तांता है, लेकिन मेहमान नदारद हैं. काल बेल चुप है. मम्मी पापा अगर साथ रहते हैं तो भी कुछ ठीक है अन्यथा केवल घरवाली और बेटा या बेटी.

पहले की तरह यदि आपने आने वाले मेहमानों के लिये बहुत सारा नाश्ता बना रखा है तो वह रखा ही रह जाता है.

सगे संबंधियों, दोस्तों की तो छोड़ दें, आज के समय आसपास के खास सगे-संबंधी और पड़ोसी के यहां मिलने – जुलने का प्रचलन भी समाप्त हो गया है.

अमीर रिश्तेदार और अमीर दोस्त मिठाई या गिफ्ट तो भिजवाते हैं, लेकिन घर पर देने खुद नहीं आते बल्कि उनके यहां काम करने वाले कर्मचारी आते हैं.

दरअसल घर अब घर नहीं रहे हैं, ऑफिस की तरह हो गए हैं.

घर सिर्फ रात्रि में एक सोने के स्थान रह गए हैं, रिटायरिंग रूम ! आराम करिए, फ्रेश होईये और सुबह कोल्हू के बैल बनकर कम पर निकल जाईये. ड्राइंग रूम अब सिर्फ दिखावे के लिये बनाए जाते हैं, मेहमानों के अपनेपन के लिए नहीं. घर का समाज से कोई संबंध नहीं बचा है. मेट्रो युग में समाज और घर के बीच तार शायद टूट चुके हैं.

घर अब सिर्फ और सिर्फ बंगला हो गया है. शुभ मांगलिक कार्य और शादी-व्याह अब मेरिज हाल में होते हैं. बर्थ-डे मैकडोनाल्ड या पिज़्ज़ा हट में मनाया जाता है. बीमारी में सिर्फ हास्पिटल या नर्सिंग होम में ही खैरियत पूछी जाती है. और अंतिम यात्रा के लिए भी लोग सीधे श्मशान घाट पहुँच जाते हैं.

सच तो ये है कि जब से डेबिट-क्रेडिट कार्ड और एटीएम आ गये हैं, तब से मेहमान क्या. . चोर भी घर नहीं आते हैं. चोर भी आज सोचतें हैं कि, मैं ले भी क्या जाऊंगा. . फ्रिज, सोफा, पलंग, लैपटॉप, टीवी. कितने में बेचूंगा इन्हें ? री सेल तो OLX ने चौपट कर दी है.

वैसे भी अब नगद तो एटीएम में है इसीलिए घर पर होम डिलेवरी देनेवाला भी पिज़ा-बर्गर के साथ कार्ड स्वाइप मशीन भी लाता है.

क्या अब घर के नक़्शे से ड्राइंग रूम का कंसेप्ट ही खत्म कर देना चाहिये ?

विचार करियेगा. पुराने के समय की तरह ही अपने रिश्तेदारों, दोस्तों को घर पर बुलाईए और उनके यहां जाइयेगा. आईये भारत की इस महती संस्कृति को पुनः जीवित करे.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 107 – देश-परदेश – मंहगाई डायन खाय जात है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 107 ☆ देश-परदेश – मंहगाई डायन खाय जात है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दीवाली चली गई, हेल्थी सीजन का समय हो चुका है, परंतु देश का औसत तापमान है, कि कम हो ही नहीं रहा है। इसके चलते महंगाई अपने चरम पर है। पुराना समय याद आ गया जब छत के पंखों को दशहरे के दिन वस्त्र पहनकर ब्लॉक कर दिया जाता था। पंखों की पंखुड़ियों पर कपड़े का कवर चढ़ाने से उनका उपयोग रुक जाता था। इससे पंखे साफ रहते थे, और बिजली के बिल भी कम हो जाते थे।

आधा नवंबर माह बीतने को है, और गर्मी है, कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। बाजार से कुछ भी खरीदे, महंगाई का ठीकरा यूक्रेन के साथ इजराइल को भी जोड़ दिया जाता हैं।

शहर के होटलों ने भोजन की थाली के भाव में बीस प्रतिशत महंगी कर दी है। ऊपर के पेपर में छपी खबर भाव कम करने की जानकारी दे रही हैं। कुछ आश्चर्य भी हुआ।

एयरपोर्ट तो क्या हमने तो कभी रेलवे स्टेशन पर दो रुपए में छह पूरी सब्जी सहित नहीं खाई थी। स्टेशन के खाने को लेकर पिताश्री बहुत सख्त थे। हमेशा से यात्रा में घर की रोटी के साथ आम का आचार ही खाते हैं। अभी भी हवाई यात्रा में भी ये ही सब करते हैं।

कुछ माह पूर्व देहरादून हवाई जहाज से जाना हुआ था। वहां के हवाई अड्डे पर वापसी के समय कट चाय पीने की तलब लगी, लेकिन दो सौ रुपए कप चाय का भाव सुनकर तो तोते ही उड़ गए थे। वो तो बाद में वहां लाउंज पर दृष्टि पड़ गई। एस बी आई के कार्ड धारक होने से मात्र दो रुपए लगे, और असीमित बुफे खाने पीने की सुविधाओं ने हवाई यात्रा की खुशी को दोगुना कर दिया। हमने तो तय कर लिया है, अब उसी हवाई अड्डे की यात्रा करेंगे जहां लाउंज की सुविधा उपलब्ध रहेगी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #261 ☆ पुरावा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 261 ?

☆ पुरावा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

त्याच्या समोर त्याचा जाळला पुरावा

खोटाच त्या ठिकाणी जोडला पुरावा

*

डोळ्यामधील धारा सत्य बोलल्या पण

न्यायास मान्य नाही वाटला पुरावा

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साक्षी फितूर झाले स्वार्थ जागल्यावर

घेऊन चार पैसे बाटला पुरावा

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हाती धरून त्याने भ्रष्ट यंत्रणेला

फाईल चाळली अन चोरला पुरावा

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ह्या न्यायदेवतेने बांधलीय पट्टी

डोळ्यामधेच आहे गोठला पुरावा

*

न्यायालयातसुद्धा हे असे घडावे

पैशासमोर होता वाकला पुरावा

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भोगून सर्व शिक्षा संपल्याबरोबर

निर्दोष तूच आहे बोलला पुरावा

 

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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