हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#10 ☆ पगडंडियों के रास्ते ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल

 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण  रचना  “पगडंडियों के रास्ते”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 10 ✒️

?  पगडंडियों के रास्ते —  डॉ. सलमा जमाल ?

इक हंसी दोशीज़ा

पुरुषों को रिक्शे पे लिए ।

जा रही थी ठाट से

पगडंडियों के रास्ते ।।

चलते चलते एक नज़र

ग़ुरूर से देखा मुझे ,

कहती हो ,मंज़िल पर

ढोकर ले जाऊंगी तुझे ,

जोश है तूफ़ान सा,

फ़ख़्र औरत के वास्ते ।

जा रही ——————-।।

 

वाह रे हिंदुस्तान , क्या

हुस्न की तोक़ीर है ,

औरत के कंधे पे बैठे,

मर्द ये रणवीर हैं ,

पाला होगा बाप ने इस ,

परी को किस नाज़ से ।

जा रही ——————–।।

 

रहना था जिसको महलों में,

सड़क पर आ गई ,

नारी की अस्मत देख ,

धरती मां भी शरमा गई ,

अबला नहीं , सबला है ,

यह दुर्गा बनी खाक से ।

जा रही —————–।।

 

हे वतन की रूह ऐ ,

हिंदुस्तां की रहनुमा ,

हालात से लड़कर बनी,

हिम्मते मरदे जवां ,

क़ायम की मिसाल तूने ,

पन्नों में इतिहास के ।

जा रही —————-।।

 

औरत अब पाज़ेब की ,

झंकार तक सीमित नहीं ,

लालो गौहर ,ज़र – ज़ेवर ,

नज़र में क़ीमत नहीं ।

हक़ पाए अपना ‘ सलमा ‘

बराबरी के वास्ते ।

जा रही ——————–।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

संतोषी साहब परिवार सहित नगर में और अपनी अंतरात्मा सहित ब्रांच में स्थापित हो गये. मुख्य प्रबंधक जी के अस्नेह को उन्होंने भी ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकारा और अपने काम में लग गये. यहाँ काम का अर्थ, बैंक के कर्मवीरों की डिक्शनरी से अलग था. पर हर व्यक्ति की तरह उनमें कुछ दुर्लभ गुण भी विद्यमान थे जिससे शाखा के स्टाफ ने उन्हें बहुत तेजी से अंगीकार कर लिया. पहला गुण तो यही था कि उनका किसी से पंगा नहीं लेने का सिद्धांत था. दूसरा सहनशीलता में बैल भी उनसे पार नहीं पा सकता था. बैंकिंग के अलावा अन्य विषयों पर उनकी गजब की पकड़ थी और एक से बढ़कर एक रोचक किस्से उनके बस्ते में रहते थे जो शाम पांच बजे के बाद जब खुलता था तो उनके इर्दगिर्द सुनने वालों का मजमा लग ही जाता था, विशेषकर उस समय जब मुख्य प्रबंधक अपने कक्ष में उपस्थित नहीं होते थे.

बैंकिंग का यह काल प्राचीन स्वर्णिम काल था जब बैंक शाखाएँ टेक्नोलॉजी की जगह मानवीय संबंधों के आधार पर चला करतीं थीं. बिज़नेस के नाम पर कस्टमर्स की आवाजाही दोपहर तीन बज़े समाप्त हो जाती थी, स्टाफ अपने अपने ग्रुप में लंच के लिये प्रस्थान कर जाते थे. ये वो ज़माना था जब शाखाओं में चहल पहल भारत के समान होती थी और तकनीकी रूप से विकसित अमरीका जैसी निर्जनता सिर्फ रात्रि सात आठ बजे के बाद ही मिल पाती थी जब सिक्युरिटी गार्ड शाखा के सुरक्षा सिंहासन पर राज़ा के समान राज किया करते थे.

रिक्रिएशन हॉल जहाँ होते थे वो भी अविवाहित युवकों के कारण ज़रूर आठ बज़े तक हलचलायमान होते थे पर उसके बाद बैंक के ये भविष्य भी अपनी दिनभर की थकान उतारने का पूरा सामान लेकर महा-विशिष्ट डिनर के लिये उपयुक्त हॉटल में प्रस्थान कर जाते थे. हालांकि घुसपैठ यहाँ भी होती थी जब इन युवाओं के बीच पत्नी के अंशकालिक विरह से त्रस्त forced batchler भी शामिल हो जाते थे, इनमें कभी कभी संतोषी साहब भी हूआ करते थे जो सुरूर में मधुबाला, मीनाकुमारी और नर्गिस की प्रेमकथाओं के एक से बढ़कर एक रोमांचक और जादुई किस्से अपने बैग से निकालकर महफिल में परोसा करते थे, इससे महफिलें रंगीन हो जाती थीं और संतोषी साहब हरदिल अज़ीज़. लोग इन महफिलों में उन्हें प्यार से अंकल सैम बुलाते थे और इस संबोधन को बड़ी सहजता से स्वीकारा भी जाता था.

ये महफिलें बड़ी शानदार हुआ करतीं थी जहाँ हर विषय पर और हर स्टाफ के बारे में चटखारे ले लेकर किस्सागोई की जाती थी.कभी कभी इस किस्सागोई के नायक या असलियत में खलनायक, शाखा के मुख्य प्रबंधक भी हुआ करते थे जो स्वाभाविक रुप से इन महफिलों में सदा अनुपस्थित रहते थे. शाखा प्रबंधक के लिये खलनायक बनना कभी कठिन नहीं हुआ करता, कभी कभी दो चार दिन की छुट्टी नहीं देने से भी यह उपाधि मिल जाती है. बैंकिंग की ये रंगभरी दुनिया आज भी अपनी ओर यादों में खींच लेती है जब नौकरी भले ही दस से छह बजे की हो पर लोग बैंक की दुनियां में चौबीसों घंटे मगन रहा करते थे और “जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ” गाया करते थे.

हमारे और आपके दिलों को भाती ये कथा जारी रहेगी, बस प्रोत्साहन की ऑक्सीजन देते रहिए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 93 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ –4 – बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी #93 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 4- बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

पंद्रह दिन के बाद जब कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार हटा से अपना सारा सामान काले रंग की गोल मटकी, ढेर सारी बांस की खपच्चियाँ , सुतली, पुराने कपड़े और सफेद व लाल मिट्टी लेकर उमरिया पहुंचे तो उन्हे देखकर पांडे जी की बाँछें खिल गई । प्रशिक्षण की तैयारियां वे पहले ही कर चुके थे । बिजूका बनाने की कला सीखने के लिए 15 आदिवासी युवा तैयार बैठे थे । सारे सामान की कीमत जानकार और थोड़ा मोलभाव कर उसका पक्का बिल बनवाने के लिए पांडेजी ने एक दुकानदार को पहले ही सेट कर रखा था । सरकारी कामों में पक्के बिल का वही महत्व है जो बारात में फूफा का होता है । सामान भले न खरीदा गया हो पर अगर बिल पक्का है तो आडिटर उसमें कोई खोट नहीं निकालता । लेकिन पक्के बिल का अभाव, जीवन भर की सारी ईमानदारी पर काला बदनुमा दाग लगा देता है ।

दोपहर होते होते जिला पंचायत से मुख्य कार्यपालन अधिकारी को लेकर पांडेजी प्रशिक्षण शाला में पधारे और फिर बिजूका निर्माण कार्यशाला का विधिवत उद्घाटन पूरे झँके मंके के साथ हो गया । बिजूका बनाना सिखाने  के लिए यह प्रदेश भर में पहली कार्यशाला थी और इसे स्वीकृत कराने में पांडेजी ने एडी चोटी एक कर दी थी । मौका अच्छा था, पांडेजी ने पूरी दास्तान इस रोचक अंदाज में सुनाई की जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी वाह वाह कर उठे और प्रशिक्षण अवधि के दौरान  कलेक्टर साहब को भी लाने का आश्वासन दे बैठे । पांडेजी के लिए यह आश्वासन सोने पर सुहागा ही था । 

पंद्रह दिनों के प्रशिक्षण के दौरान आदिवासी युवकों ने दो बातें सीखी एक तो बिजूका बनाना और दूसरा खेतों में कटीली झाड़ियों के लगाने के फायदे। कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार हिन्दी नहीं जानते थे उनका बतकाव बुन्देली भाषा में होता, बीच बीच में देहाती कहावतें भी वे सुना देते। आदिवासी युवा पढे लिखे थे पर बुन्देली भाषा में बातचीत उन्हें रास नहीं आती ।  ऐसे में पांडेजी को अनुवादक की भूमिका निभानी पड़ती। प्रशिक्षण के बाद बिजूका की बिक्री और उन्हें खेत में लगाने का अभियान चलाया गया । चूंकि सम्पूर्ण प्रक्रिया में आदिवासी लड़के संलिप्त थे तो इस काम में भी परेशानी न हुई और देखते ही देखते सारे बिजूका बिक गए। प्रशिक्षणार्थियों को पहली बार अपनी मेहनत की चवन्नी मिली।

जंगल की तलहटी के खेतों में रबी की फसल लहलहाने लगी । बाड़ी और बिजूका खेत के चौकीदार थे, चोरी होने ही न देते । दिन भर पक्षी और बंदर  पेड़ पर बैठे बैठे बिजूका के हटने का इंतजार करते और इधर बिजूका टस से मस न होता । पूरी मुस्तैदी के साथ बीच खेत में खड़ा रहता और उसके कपड़े हवा चलने पर उड़ते और फड़फड़ाते । ऐसी आवाजें तो पक्षियों और बंदरों ने कभी सुनी ही नहीं थी । इन विचित्र आवाजों को सुनकर और कपड़ों को उड़ता देख पक्षी भी डर के मारे खेत के आसपास न फटकते ।

दिन बीते , फसल में दानें  आ गए। नए दानों की खुशबू दूर दूर तक फैलती और पक्षियों को ललचाती पर खेत में खड़े बिजूका का भय उन्हे खेत के ऊपर से भी न उड़ने देता । रात में भी नीलगाय और हिरण बाड़ी देखकर ही वापस चले जाते । परेशान पक्षियों ने एक रोज बैठक करी और चतुर कौवे से बिजूका को नुकसान पहुंचाने का अनुरोध किया । कौवा मान  गया पर कठोर मटकी को फोड़ पाने का साहस उसकी चोंच न दिखा सकी । थक हार कर पक्षियों ने तोते से कुछ गीत गाने को कहा । तोते ने भी कभी मनुष्यों की बस्ती में यह कहावत सुनी थी “अरे बिजूका खेत के, काहे अपजस लेत आप न खैतैं खात हो, औरे खान न देत ।‘ तोता ने सारे पक्षियों को यह कहावत बिजूका के सामने गाने को कहा।

पक्षी इसके लिए आसानी से तैयार न हुए । उन्हें खेतों में कपड़ें पहनाकर खड़े किए गए पुरुषाकृति पुतले को देखकर ही डर लगता था ।

तब तोते के सरदार ने कहा कि इस कहावत से तो हम बिजूका की तारीफ ही करने वाले हैं । हम बिजूका से कहेंगे कि अरे खेत के बिजूके! तुम अपने सिर पर अपयश क्यों ले रहे हो, खेत को न तो तुम स्वयं ही खाते हो और न दूसरों को खाने देते हो।

तोते के सरदार की बात नन्ही गौरया को पसंद नहीं आई।  उसने कहा कि ऐसी तारीफ करने से भला यह रखवाला पसीजेगा। उलटे कहीं पत्थर वगैरह मार दिया तो मैं तो मर ही जाऊँगी ।

पक्षियों के बीच यह वार्तालाप चल ही रहा था कि गाँव के मुखिया का हरवाहा उस पेड़ के नीचे से निकला । वह “तुलसी पक्षिन के पिए, घटैं न सरिता नीर, धरम किए धन न घटैं जो सहाय रघुवीर,”   गुनगुनाते हुए जा रहा था कि उसके कानों में पक्षियों की कातर आवाज सुनाई पड़ी। उसे बड़ा दुख हुआ कि भगवान के बनाए पक्षी बिजूका के डर से भूख से व्याकुल हो रहे हैं तो उसने मुखिया के खेत की बारी खोली और बिजूका के पास जाकर छिप गया । वहाँ से वह जोर जोर से गाने लगा “ राम की चिरैया राम कौ खेत, खाव री चिरिया भर भर भर पेट । “

पक्षियों ने जब यह दोहा सुना तो उन्होंने आवाज की दिशा पहचानी और मुखिया के खेत में टूट पड़े। पलक झपकते ही सारे दानें  खा लिए और बहुत से इधर उधर बिखेर भी दिए। हरवाहा भी चिड़ियों को चहचहाता देख बड़ा खुश हुआ और यह कहता  हुआ गाँव चला गया “ पियै चोंच भर पांन चिरिया, आगे कौं का करने, सूखी रोटी कौरा खाकैं, अपनी कथरी जा परनें। “ ( चिड़िया चोंच भर पानी पीकर शांति से अपने घोंसले में सो जाती है ।  उसे भविष्य की कोई चिंता नहीं रहती।  उसी प्रकार  बेचारे दीन  व्यक्ति रूखी सूखी रोटी खाकर फटी पुरानी कथरी ओढ़कर सो जाते हैं ।

इधर मुखिया का खेत साफ हो रहा था उधर उमरिया में पांडेजी लंबी तान कर रजाई ओढ़कर सो रहे थे । सुबह जब वे जागे तो घर के बाहर मेला लगा था । मुखिया अपने लोगों के साथ पांडेजी का घर घेरकर खड़ा था । उसने अपने खेत के नुकसान की पूरी कहानी सुनाई और पूरा दोष पांडेजी की बिजूका वाली सलाह को दे दिया । पांडेजी आश्चर्य में पड़  गए आज तक तो उन्होंने बिजूका को खेत की रखवाली करते सुना था । चौकीदार चोर हो सकता है यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था । खैर मुखिया को उन्होंने अदब के साथ बैठक खाने में बिठाया चाय नाश्ता करवाकर उसका क्रोध शांत किया और खेत का निरीक्षण कर निष्कर्ष पर पहुंचने की बात की ।

पांडे जी बिजुरी गाँव के खेतों में दिनभर मुखिया के साथ घूमते रहे। पक्षी सिर्फ मुखिया के खेत में चक्कर काट रहे थे। दूसरे खेतों में घुसने की तो वे हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे थे। पांडेजी यह देखकर आश्चर्य में थे कि अचानक उनके मुख से “बारी खेतें खाय’ लोकोक्ति निकल पड़ी।

मुखिया ने पूछा क्या समझ में आया साहब ? हमारे खेत में ही चिड़िया क्यों चुग रही है।

पांडेजी ने जवाब दिया “सब किस्मत का खेल है मुखिया जी जब बाड़ी ही खेत खा  जाए तो हम क्या कर सकते हैं। अब आपका चौकीदार बिजूका ही चोर निकल गया, लगाओ इसे चार डंडे।“  जब तक मुखिया बिजूका की मरम्मत करता पांडे जी उसे नमस्कार कर उमरिया चल दिए ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 118 ☆ मनस्विनी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 118 ?

☆ मनस्विनी ☆

(कन्यादिन-२४ जानेवारी)

मला हवी होती

 एक मुलगी,

माझ्या सारख्याच

 चेह-या मोह-याची,

माझी झालेली प्रत्येक

 कुचंबणा टाळू शकणारी,

माझ्या बुजरेपणाचा,

भित्रेपणाचा लवलेशही

नसणारी,

एक तेजस्विनी हवी होती मला,

माझी अनेक अधुरी स्वप्नं,

सत्यात उतरवणारी

सत्यवती,

मी हरलेले क्षण जिंकून घेणारी

अपराजिता

हवी होती मला !

माझ्या पोटी जन्मायला

हवी होती,

मी मनात जपलेली

मनस्विनी !

(अनिकेत-१९९७  मधून—१९९४ साली लिहिलंय…)

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १७ – भाग ३ – मोरोक्को__ रसरशीत फळांचा देश ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १७ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ मोरोक्को –  रसरशीत फळांचा देश ✈️

मर्राकेश शहर म्हणजे फ्रेंच व मूर संस्कृतीचा संगम आहे. मूर म्हणजे बर्बर भाषेत मर- अकुश म्हणजे देवाची भूमी. यावरून मर्राकेश नाव रुढ झाले. मोरोक्कोमध्ये  रोमन लोकांनंतर दुसऱ्या शतकापासून बर्बर राजवट होती. पाचव्या शतकात आखाती देशातून अरब इथे आले. त्यांनी इस्लामचा प्रसार केला. कालांतराने अरब व बर्बर यांच्यातील भांडणांचा फायदा घेऊन स्पॅनिश व फ्रेंच लोकांनी इथे प्रवेश केला. स्पॅनिश लोकांशी काही करार करून, फ्रेंचांनी इथे१९१२ पासून १९५६ पर्यंत राज्य केले. त्यानंतर इथे एलबीत घराण्याचे राज्य सुरू झाले. थोडे अधिकार असलेली संसद असली तरी राजा हा देशाचा प्रमुख आहे. आज एलबीत घराण्याच्या पाचव्या पिढीचे राज्य चालू आहे.

मोरोक्कोमध्ये आजही एक लाखाहून अधिक फ्रेंच लोक राहतात. इथे बर्बर, अरब, स्पॅनिश, फ्रेंच अशी मिश्र वस्ती आहे. अरेबिक व बर्बर भाषा तसेच थोडी स्पॅनिशही बोलले जाते. फ्रेंच ही व्यापार व व्यवहाराची भाषा आहे. अनेक शहरात फ्रेंच शाळा आहेत. त्यामुळे मोरोक्कोच्या आचार- विचारांवर फ्रेंच, युरोपियन यांचा प्रभाव आहे. लोक गोरे- गोमटे, उंच,नाकेले आहेत. स्त्रियांना काळा बुरखा घालावा लागत नाही. केस झाकून, चेहरा उघडा ठेवून त्या सर्वत्र वावरत असतात. कॉलेजात जाणार्‍या, नोकरी करणाऱ्या काही तरुणी जीन्स मध्येही दिसल्या.फ्रेंच राज्यकर्त्यांमुळे अनेक प्रमुख शहरात लांब-रुंद सरळ  व मध्ये शोभिवंत चौक असलेले रस्ते, विशाल उद्याने, कारंजी, विद्यापीठे, शाळा, रुग्णालये यांची उभारणी झाली आहे.

मर्राकेश येथील बाराव्या शतकात अलमोहाद राजवटीत बांधलेली कुतुबिया मशीद भव्य व देखणी आहे. याच्या उंच मिनार्‍यावरून आजही नमाज पढविण्यासाठी अजान दिली जाते. रेड सॅ॑डस्टोन व विटा वापरून ही दोनशे साठ फूट म्हणजे ८० मीटर उंच मशीद बांधलेली आहे. याच्या सहा मजली उंच चार मिनारांवर  निमुळते होत गेलेले तांब्याचे मोठे बॉल्स ( गोळे )आहेत इतिहासकाळात यांना अस्सल सोन्याचा मुलामा दिलेला होता.

इथला बाहिया पॅलेस हा सुलतानाच्या वजिराने स्वतःसाठी बांधला आहे. त्याला अनेक बायका व मुले होती. इस्लामी आणि मोरोक्को वास्तुशैलीचा हा उत्तम नमुना आहे. सभोवती फळाफुलांनी भरलेल्या, पक्षांनी गजबजलेल्या बागा आहेत. उंच लाकडी दरवाजे, झुंबरे, लाल, निळ्या,पिवळ्या मोझाइक टाइल्समधील भिंतींवरील नक्षी बघण्यासारखी आहे. रॉयल पॅलेस हा अल्मोहाद राजवटीत बाराव्या शतकात बांधला गेला. मोठ्या बागेमध्ये असलेल्या त्याच्या प्रवेशद्वाराचे डिझाईन भूमितीसारखे व टेराकोटा टाईल्समध्ये आहे. हा राजवाडा बाहेरून बघावा लागतो कारण आता तो एका फ्रेंच  उद्योगपतीच्या मालकीचा आहे. तिथून पुढे सुंदर आखीव-रेखीव मिनारा गार्डन आहे.

खूप मोठ्या चौकातील मर्राकेश मार्केट गजबजलेले होते. संत्र्याचा ताजा मधूर रस पिऊन मार्केटमधील दुकाने बघितली. फळे, ड्रायफ्रूट, इस्लामी कलाकुसरीच्या वस्तू,खडे जडविलेल्या चपला, कार्पेट, इलेक्ट्रॉनिक्स वस्तू असे असंख्य प्रकार होते.आपल्याकडल्यासारखे गारुडी व माकडवाले होते. गोरे प्रवासी साप गळ्यात घालून आणि माकडांना खायला देताना फोटो काढून घेत होते. आश्‍चर्य म्हणजे आपल्याकडे वासुदेव असतो तसेच उंच टोपी घातलेले, गळ्यात कवड्यांच्या माळा घातलेले, आपल्या इथल्यासारखाच लांब, पायघोळ, चुणीदार झगा घातलेले ‘वासुदेव’ तिथे होते. असे वासुदेव नंतर अनेक ठिकाणी दिसले. त्यांच्या हातात पितळेची मोठी घंटा होती. कधीकधी ते त्यांच्याजवळील पखालीतून पाणी देऊन प्रवाशांची तहानही भागवत होते. लोक हौसेने त्यांच्याबरोबर फोटो काढून घेऊन त्यांना पैसे देत होते. दुनिया अजब आणि गोल आहे याचा प्रत्यय आला.

आमच्यातील काही मैत्रिणींनी इथे ताजीन विकत घेतले. ताजीन म्हणजे पक्या भाजलेल्या मातीचे, रंगीत नक्षीचे भांडे! या भांड्याचे झाकण संकासुराच्या टोपीसारखे उंच असते. या भांड्यात केलेल्या पदार्थांची वाफ अजिबात बाहेर जात नाही व शाकाहारी, मांसाहारी पदार्थ चविष्ट होतात असे सांगितले. हॉटेलमध्ये दुपारच्या जेवणात त्या ताजीनमध्ये शिजविलेला ‘खुसखुस’ नावाचा पदार्थ त्या ताजीनसह टेबलावर आला. ‘खुसखुस’ म्हणजे लापशी रवा थोडा भाजून शिजविलेला होता. त्यात गाजर, काबुली चणे, बटाटा, फरसबी, कांदा, कोबी अशा भाज्या त्यांच्या पद्धतीच्या सॉसमध्ये शिजविलेल्या घातलेल्या होत्या. नॉनव्हेज खुसखुसमध्ये चिकनचे तुकडे होते.तिथे गव्हाच्या रव्याचे अनेक पदार्थ मिळतात.अनेक बायका, रस्त्यावर भाजून शिजविलेला रवा आणि मिल्कमेडचे डबे घेऊन बसल्या होत्या व प्रवाशांना खीर बनवून देत होत्या.  हॉटेलमधील जेवणातही गरम- गरम, चौकोनी आकाराची, दोन पदरी रोटी व गव्हाची खीर होती. या शिवाय तिथे तापस (TAPAS) नावाचा माशांचा प्रकार लोकप्रिय होता.

भाग-३ समाप्त

 © सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 104 – “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” – डा हरेराम समीप ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा हरेराम समीप जी के काव्य संग्रह  “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 104 – “बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)” – डा हरेराम समीप ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

 पुस्तक चर्चा

कृति – बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)

कवि – हरेराम समीप

प्रकाशक – पुस्तक बैंक, फरीदाबाद

पृष्ठ  – 104

मूल्य – 195/-

देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर- हरेराम समीप के हाइकू – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है। विशेष रूप से जब वह कविता जापान जैसे देश से हो जहाँ वृक्षो के भी बोन्साई बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को  अभिव्यक्ति मिलती है। साहित्य विश्वव्यापी होता है। वह किसी एक देश या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकता। जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैश्विक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैश्विक साहितियक प्रतिष्ठा दिलवाई।

जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यकित है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गई। किंतु तीन पंक्तियों मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुशासन आज भी हाइकू की विशेषता है।

डॉ हरे राम समीप जनवादी रचनाकार है। वे विगत लंबे समय से जवाहर लाल नेहरू स्मारक निधि तीन मूर्ति भवन मे सेवारत है। उन्हें संत कबीर राष्ट्रीय शिखर सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी पुस्तक पुरस्कार, फिराक गोरखपुरी सम्मान जैसे अनेक सृजन सम्मान प्राप्त हो चुके है। स्वाभाविक ही है कि उनके वैश्विक परिदृश्य एवं राष्ट्रीय चिंतन का परिवेश उनकी कविताओ मे भी परिलक्षित होगा। उदाहरण स्वरूप यह हाइकू देखे-

किताबें रख

बस इतना कर

पढ ले दिल

वसुधैव कुटुम्बक का भारतीय ध्येय और भला क्या है, या फिर,

गलीचे बुने

फिर भी मिले उन्हे

नंगी जमीन

हिंदी एवं उर्दू भाषाओ पर हरे राम समीप का समान अधिकार है। अत: उनके हाइकू मे उर्दू भाषा के शब्दो का प्रयोग सहज ही मिलता है।

पहने फिरे

फरेब के लिबास

कीमती लोग

     या

शराफत ने

कर रखा है मेरा

जीना हराम

कबीर से प्रभावित समीप जी लिखते है

चाक पे रखे

गिली मिटटी, सोचू मैं

गढूं आज क्या

    और

कैसा सफर

जीवन भर चला

घर न मिला

अंग्रेजी को देवनागरी मे अपनाते हुये भी उनके अनेक हाइकू बहुत प्रभावोत्पादक है।

हो गए रिश्ते  

पेपर नेपकिन

यूज एंड थ्रो

     या

निगल गया

मोबाइल टावर

प्यारी गौरैया

कुल मिलाकर बूढा सूरज मे संकलित हरेराम समीप के हाइकू उनकी सहज अभिव्यकित से उपजे है। वे ऐसे चित्र है जिन्हें हम सब रोज सुबह के अखबार मे या टीवी न्यूज चैनलो मे रोज पढते और देखते है किंतु कवि के अनदेखा कर देते है। किंतु उनके संवदेनशील मन ने परिवेष के इन विविध विषयो को सूक्ष्म शब्दो मे अभिव्यक्त किया है। संकलन मे कुल 450 हाइकू संग्रहित है। सभी एक दूसरे से श्रेष्ठ है। पुस्तक का शीर्षक बूढा सूरज जिस हाइकू पर केनिद्रत है वह इस तरह है।

बूढा सूरज

खदेडे अंधियारे

अन्ना हजारे

वर्तमान सामाजिक सिथति मे अन्ना हजारे के लिये इससे बेहतर भला और क्या उपमा दी जा सकती है। कवि से और भी अनेक सूत्र स्वरूप हाइकू की अपेक्षा हिंदी जगत करता है। समीप जी ने गजले, कहानिया और कवितायें भी लिखी है पर हाइकू मे उन्होने जो कर दिखाया है उसके लिये यही कहा जा सकता है कि देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर. समीप जी ने अपने अनुभवो के सागर को हाइकू के छोटे से गागर में सफलता पूर्वक ढ़ाल दिया है .

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 17 – सजल – नहीं रहा वह कभी अकेला… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “नहीं रहा वह कभी अकेला…..। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 17 – सजल – नहीं रहा वह कभी अकेला…

समांत- एला

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 16

 

राजनीति में बड़ा झमेला।

सबका-अपना खुला तबेला।।

 

नेतागिरी चलाने खातिर,

मिडयाई सरकस का मेला।

 

हर चुनाव की एक कहानी,

टूटी-टांग से होता खेला।

 

फौज पली है उनकी अपनी,

जनता खाती रहे करेला।

 

एक बार जो चुनकर आता,

नहीं रहा वह कभी अकेला।

 

कर्मी चरणदास कहलाते,

जीवन भर वह खाता केला।

 

भले बुरे की परख किसे अब

फिर भी चला रहे हैं धेला।

 

राजनीति के कुशल खिलाड़ी,

सबने पाल रखे हैं चेला।

 

शासन तंत्र चले जब पीछे,

जनता का चलता है रेला ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ बेजुबान की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा”.)   

☆ संस्मरण ☆ बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारा जीवन परिवर्तनों के कई दौर से गुजर चुका है। एक समय था घर की बैठक खाना (Drawing Room) में एक बड़ा सा तख्त रहता था, जिस पर हमारे दादाजी विराजमान रहते थे।  क्या मजाल कि कोई उस पर बैठ सके, पिताजी भी नीचे दरी पर आसन लगा कर उनके चरणों की तरफ बैठ कर उर्दू दैनिक “प्रताप” से खबरें सुनाते थे क्योंकि दादाजी की नज़र बहुत कमज़ोर हो गई थी। शायद यही कारण रहा होगा।  मेरी लेखनी में भी कई बार उर्दू के शब्दों का समावेश हो जाता है। घर के वातावरण का प्रभाव तो पड़ता ही है ना।

दादाजी ने साठवे दशक के मध्य में दुनिया से अलविदा कहा और उनके जाने के पश्चात तख्त (तख्ते ताऊस) की भी बैठक खाने से विदाई दे दी गई। क्योंकि वो तीन टांगो के सहारे ही था एक पाए के स्थान पर तो बड़ा सा पत्थर रखा हुआ था।

अब घर में Drawing Room की बाते होने लगी थी, पिताजी ने सब पर विराम लगा दिया कि एक वर्ष तक कुछ भी नया नहीं होगा क्योंकि एक वर्ष शोक का रहता है। हमारी संस्कृति में ये सब मान दंड धर्म के कारण तय थे।

एक वर्ष पश्चात निर्णय हुआ कि कोई सोफा टाइप का जुगाड किया जाय और अब उसको Drawing Room कहा जाय।

इटारसी की MP टीक से 1966 में मात्र 130 में  (2+1+1) का so called sofa set बन गया था।

अभी lock down में जब मैं अधिकतर समय घर पर बिता रहा हूं तो कल दोपहर को जब मोबाइल पर लिख रहा था तो आवाज सी आई कभी हमारे पे भी तवज्जो दे दिया करे बड़े भैया। मैने चारो तरफ देखा कोई नहीं है Mrs भी घोड़े बेच कर सो रही है। फिर आवाज़ आई मैं यहीं हूं जिस पर आप 55 वर्ष से जमे पड़े हो। आपका बचपन, जवानी और अब बुढ़ापे का साथी सोफा बोल रहा हूँ। आपने उस मुए fridge पर तो मनगढ़ंत किस्से लिख कर उसकी market value बढ़ा दी। हमारा क्या ?

वो तो हम चूक गए नहीं तो fevicol के विज्ञापन (एक TV adv में पुराने लकड़ी के सोफे की लंबी यात्रा का जिक्र है @ मिश्राइन का सोफा)  में आप और मैं दोनों छाए रहते रोकड़ा अलग से मिलता!

वो भी क्या दिन थे जब कई बार पड़ोस में जाकर कई रिश्ते तय करवाए थे। लड़के वालो पर impression मारने के लिए मुझे यदा कदा बुलाया जाता था। मोहल्ले में मुझे तो लोग रिश्तों के मामले में lucky भी कहने लग गए थे। ऐसा नहीं, मोहल्ले के लड़को की reception में भी जाता था। स्टेज पर दूल्हा और दुल्हन मेरी सेवाएं ही लेते थे। परंतु वहां मेरे two seater पर पांच पांच लोग फोटो के चक्कर में चढ़ जाते थे। रात को मेरी कमर में दर्द होता था। आपके बाबूजी पॉलिश/ पेंट से तीन साल में मेरे शरीर को नया जीवन दिलवा देते थे। खूब खयाल रखते थे। हर रविवार को कपड़े से मेरे पूरे बदन को आगे पीछे से साफ कर मेरी मालिश हो जाती थी। उनके जाने के बाद आप तो बस अब रहने दो मेरा मुंह मत खुलवाओ कभी सालों में ये सब करते हो।

उस दिन आप मित्र को कह रहे थे इसको भी साठ पर retd कर देंगे भले ही आप तो retirement  के बाद भी लगे हुए हो। कहीं पड़ा रहूंगा। क्योंकि शहरों में अब तो चूल्हे के लिए कोई पुरानी लकड़ी को free में भी नहीं लेते। सरकार की तरफ से LPG का इंतजाम जो कर दिया गया है।

आपकी तीन पीढ़ियों का वजन सहा है, मैं कहीं ना जाऊंगा भले ही दम निकल जाए।

मैने सोचा बोल तो शत प्रतिशत सही रहा है, अपने प्रबुद्ध मित्रो से Group में इस विषय पर  विचार विमर्श करेंगे। 

 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 111 – लघुकथा – संविधान एक नियम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “संविधान एक नियम”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 111 ☆

? लघुकथा – संविधान एक नियम ?

एक फूल वाली गरीब अम्मा फूल का टोकना लिए मंदिर के पास बैठी फूल बेच रही थी। तभी अचानक एक नेता का चमचा आया और अम्मा से बोलने लगा… आज हम लोग गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। चलो यह पैसे रखो और पूरा फूल पन्नी पर पलटकर भर दो।

अम्मा ने हाथ जोड़कर कर कहा… बेटा पूरे फूल के ज्यादा पैसे होते हैं। आज अगर इसे मैं दे दूं तो मालिक को पूरा पैसा चुकाने के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। और आज की मेरी रोजी रोटी कौन चलाएगा।

चमचा बड़े जोर से बोला… जानती हो सारा देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था। तब कहीं भारत में इस दिन 26 जनवरी को एक संविधान बना। जिसके तहत सब कार्य करते हैं आज उसी की खुशहाली के लिए तुम्हारे पास से फूल ले रहे हैं।

फूल वाली अम्मा मजबूरी में सभी फूलों को बटोर कर भरते हुए बोली…. बेटा क्या कोई ऐसा संविधान नहीं बना कि हम गरीब लोग स्वतंत्र हो सकते?

चमचे ने बड़े जोर से कहा… तो स्वतंत्र ही तो हो, स्वतंत्रता का मतलब जानती हो तो स्वतंत्र भारत के नागरिक हो जहां चाहे वहां बैठ सकती हो रोजी रोटी कमा सकती हो।

फूल वाली अम्मा ने बड़े ही शांत भाव से कही… बेटा हमारे लिए तो कल और आज में कोई अंतर नहीं दिख रहा। हम गरीब पहले जैसा ही गुलाम हैं। बस रुप बदल गया है। बात चुभन सी लगी वह चश्मा उतार फूल वाली सयानी अम्मा को देखने लगा और सोचा… क्या सचमुच भारत स्वतंत्र हो गया है और संविधान बना तो मैं क्या कर रहा हूँ?

फूल वाली कह रही थीं… ले जाओ आज भारत माता के लिए मैं भी खुशी मना लूँगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 122 ☆ रानमेवा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 122 ?

☆ रानमेवा ☆

पंख मनाला फुटावे मला जाता यावे गावा

माझी प्रार्थना येवढी स्वीकारावी माझ्या देवा

 

माझं माहेर हे खेडं त्याचं मनाला ह्या वेड

माझ्या सोबत वाढलं सोनचाफ्याचं ते झाड

किती दूर गेलं तरी मनी गंध आठवावा

 

काट्यातली पाय वाट होती नागिनी सारखी

काटे टोचती पायाला तरी होते त्यात सुखी

त्याच धुळीच्या वाटेचा मला वाटतोय हेवा

 

थाटमाट शहराचा माया ममतेला तोटा

लेप चेहऱ्यावरती आत मुखवटा खोटा

अशा खोट्या सौंदर्याचा मला मोह कसा व्हावा

 

किती दिसाचे ते अन्न सांगा असेल का ताजे ?

रोज खातात मिठाई शहरातले हे राजे 

रोज दिवाळी साजरी त्यात नाही रानमेवा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares