हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 74 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 74 –  दोहे ✍

कुर्सी कुर्सी विराजे, नेता बंदर छाप।

खाना-पीना, उछलना इनके क्रिया कलाप।।

 

आएगा, वह आएगा, राह देखते नित्य ।

कहां न्याय का सिंहासन कहां विक्रमादित्य।।

 

अंधे गूंगे बधिर जो, थामें हाथ कमान ।

फर्क नहीं उनके लिए, मरे राम- रहमान।।

 

मेहनतकश भूखा मरे, अवमूल्यित विद्वान।

हर लठैत ने खोल ली, भैंसों की दुकान।।

 

प्रजातंत्र के पहरुए, पचा गए चौपाल ।

अटकी हो तो दौड़िये, दिल्ली या भोपाल।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 74 – “कैसे रहें सुर्खियों में” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कैसे रहें सुर्खियों में।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 74 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कैसे रहें सुर्खियों में” || ☆

ऊँचे भवनों में रह कर के

सिर्फ गरीबी पर लिखना ।

ऐसे गीतों से हट कर कुछ

नया -नया भैया लिखना।।

 

रेशम ही जब बना तुम्हें तो

चमक दिखा करअपनीभी।

शिफ्टकरोअपनी किस्मत को,

ले जुगाड़ वाली चाभी।

 

कभी कभार पाँचतारा में-

फटी जीन्स में भीदिखना।।

 

गया ट्रेंड होरी धनियां का

“कैसे रहें सुर्खियों में।”

सारी दुनियाँ घूम रही है

सन्शोधनी चर्खियों में।

 

इसी विषय पर अपनी प्रतिभा

के मीठे फल को चखना।।

 

यह भी नया ट्रेंड है आया

सरकारों में घुस जाओ।

लिखा भूख या खून पसीने

पर जो तुमने, मिटवाओ।

 

अपने संरक्षण को मन्त्री

स्तर का नेता रखना ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

20-01-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 94 ☆ वीर सुभाष – जन्मदिवस पर विशेष ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  रचना “वीर सुभाष – जन्मदिवस पर विशेष”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 94 ☆

☆ गीत – वीर सुभाष – जन्मदिवस पर विशेष ☆ 

 

आकर वीर सुभाष गर्व से

वंदे मातरम गा जाओ।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

कतरा – कतरा लहू तुम्हारा

काम देश के आया था

इसीलिए तो आजादी का

झंडा भी फहराया था

गोरों को भी छका- छका कर

जोश नया दिलवाया था

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान – मान करवाया था

 

सत्ता के भूखे पेटों को

कुछ तो सीख सिखा जाओ।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

नेताजी उपनाम तुम्हारा

सब श्रद्धा से लेते है

नेता आज नई पीढ़ी के

बीज घृणा के बोते हैं

डूबे नाव वतन की लेकिन

अपनी नैया खेते हैं

स्वार्थ में डूबे हैं इतने

दुश्मन लगें चहेते हैं

 

नेताजी के नाम काम की

आकर लाज बचा जाओ।।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

जंग कहीं है कश्मीर की

कहीं सुलगता राजस्थान

आतंकी सिर उठा रहे हैं

कुछ कहते जिनको बलिदान

कैसे न्याय यहाँ हो पाए

सबने छेड़ी अपनी तान

ऐक्य नहीं जब तक हो पाए

कैसे गूँजें मीठे गान

 

भेदभाव का जहर मिटाकर

सबमें ऐक्य करा जाओ।।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

लिखते – लिखते ये आँखें भी

झरने-सी हो जाती हैं

आजादी है अभी अधूरी

भय के दृश्य दिखाती हैं

अभी यहाँ कितनी अबलाएं

रोज हवन हो जाती हैं

दफन हो रहा न्याय यहाँ पर

चीखें मर – मर जाती हैं

 

देखो तस्वीरें गौरव की

कुछ तो पाठ पढ़ा जाओ।।

वतन याद कर रहा आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

 

कहाँ चले तुम, कहाँ खो गए

ये अब तक भी भान नहीं

किसकी चालें, किसकी घातें

ये भी हमको ज्ञान नहीं

कौन मिला था अंग्रेजों से

कोई यह बतलाएगा

उनके पार्थिव तन को लेकर

आज मुझे दिखलाएगा

 

मेरे प्रश्नों के उत्तर भी

आकर के तुम दे जाओ।।

वतन कर रहा याद आपको

सरगम तान सुना जाओ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #64 ☆ # सर्द मौसम # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सर्द मौसम #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 64 ☆

☆ # सर्द मौसम # ☆ 

ठिठुरन भरी रात है

बदले हुए हालात हैं

मौसम ने अंगड़ाई ली

बिन बादल बरसात है

 

सर्द हवाएं चल रही है

अंगीठियाँ घर घर जल रही है

गर्म कपड़ों की निकली बारात है

जैसे ही यह शाम ढल रही है

 

पकोड़ो का मौसम है आया

हर किसी ने मज़े ले ले कर खाया

मूंग बड़े और मिर्ची भजिया

हर शख्स को खूब है भाया

 

यह देखो तोता और मैना

सुंदर जोड़ी का क्या कहना

आगोश में डूबे हैं दोनों

चुप है पर बोल रहे हैं नैना

 

चारों तरफ अलाव जल रहे हैं

प्रेम बीज हृदय में पल रहे हैं

हो तरूण या वृद्ध हो

प्रेम में डूबे खेल चल रहे हैं

 

यूं ही रंगीन मौसम आता रहे

दिल को धीमे धीमे सुलगाता रहे

पिघल जाये हिमखंड आगोश में

उन्मुक्त झरना सदा बहता रहे/   

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे#66 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री

महंत कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 66 ? 

द्यावा घासातील घास… ☆

द्यावा घासातील घास…

खरी मानवता हीच सांगते

ओळख मनुष्याची अशीच होते.. १

 

द्यावा घासातील घास…

जगी अन्नमय असतो

अन्नदान उपाय, श्रेष्ठ ठरतो… २

 

द्यावा घासातील घास…

आत्मा तृप्त होईल

सत्कार्य सहज साधेल… ३

 

द्यावा घासातील घास…

परंपरा अवलोकन करा

ग्वाही देईल पूर्ण ही धरा… ४

 

द्यावा घासातील घास…

तोष सहज मनास होई

फुलते पानोपानी  जाई-जुई… ५

 

द्यावा घासातील घास…

व्यर्थ द्रव्य, कुणासही न द्यावे

प्रभू चिंतन, सतत निर्भेळ करावे… ६

 

द्यावा घासातील घास…

राज हे उक्त केले

शब्द हे असे अवतरले

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

 

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग १ – ध्येय ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग १ – ध्येय ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

[भारतीय संस्कृतीतमध्ये आपल्या जीवनात असणार्‍या गुरूंना अर्थात मार्गदर्शन करणार्‍या व्यक्तिंना अत्यंत महत्वाचे स्थान आहे, हे महत्व आपण शतकानुशतके वेगवेगळ्या पौराणिक, वेदकालीन, ऐतिहासिक काळातील अनेक उदाहरणावरून पाहिले आहे. आध्यात्मिक गुरूंची परंपरा आपल्याकडे आजही टिकून आहे. म्हणून आपली संस्कृतीही टिकून आहे.

एकोणीसाव्या शतकात भारताला नवा मार्ग दाखविणारे आणि भारताला आंतरराष्ट्रीय विचारप्रवाहात आणणारे, भारताबरोबरच सार्‍या विश्वाचे सुद्धा गुरू झालेले स्वामी विवेकानंद.

आपल्या वयाच्या जेमतेम चाळीस वर्षांच्या आयुष्यात, विवेकानंद यांनी  गुरू श्री रामकृष्ण परमहंस यांचे शिष्यत्व पत्करून जगाला वैश्विक आणि व्यावहारिक अध्यात्माची शिकवण दिली आणि धर्म जागरणाचे काम केले, त्यांच्या जीवनातील महत्वाच्या घटना आणि प्रसंगातून स्वामी विवेकानंदांची ओळख या चरित्र मालिकेतून करून देण्याचा हा प्रयत्न आहे.]

विचार–पुष्प – भाग १ – ध्येय

जीवनात, आपली प्रत्येकाचीच काहींना काही ध्येये असतात.म्हणजे स्वप्नच म्हणाना. आपल्याला सन्मान मिळावा, आपल्याला उत्तुंग यश मिळावं. आपला प्रत्येक प्रयत्न यशस्वी व्हावा.आणखी बरच काही. मग त्याप्रमाणे आपण प्रयत्नांची शिकस्त ही करत असतो. कोणाचं मार्गदर्शन घेत असतो. सल्ला घेत असतो. एखादी व्यक्ती पण आपल्याला प्रेरणा देणारी असते.त्यांच्याकडून आपल्याला प्रेरणा मिळत असते.आणि आपण पुढे जात असतो. आपल्या जीवनात एखादा आदर्श आपल्यासमोर असेल तर आपले ठरवलेले ध्येय  लवकर साध्य करता येते.

स्वामी विवेकानंदांच्या मते, एखाद्याच्या समोर आदर्श असेल तर तो मनुष्य एखादीच चुक करेल, पण जर समोर आदर्शच नसेल तर तो मनुष्य मात्र, अगणित चुका करेल.म्हणून जीवनात एखादा आदर्श असणे महत्वाचे आहे असे विवेकानंदांना वाटते. ते म्हणतात, “युवकांनी उदात्त ध्येये ठेवली पाहिजेत, ती साध्य  होईपर्यन्त त्यांनी प्रयत्नांची पराकाष्ठा केली पाहिजे. प्रगतिच्या वाटेवर त्यांचे पाऊल सतत पुढेच पडले पाहिजे.यश प्रयत्नपूर्वक खेचून आणले पाहिजे”. त्यासाठी त्यांच्यात हवी दुर्दम्य इच्छाशक्ती. ती असेल तर तुम्हाला अपेक्षित असलेले यश, मान सन्मान, कीर्ती नक्कीच प्राप्त होईल. अपयशाला सामोरं जाऊन ते यशामध्ये बदलविण्याचे धाडस आपल्यात हवं. मग आपले भाग्य आपल्याच हातात हे अनुभवायचे असेल तर आत्मनिर्भर व्हायला  हवे.  

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – ३१ – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – ३१– रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

[1]

माझं सर्वस्व

अगदी मनापासून

उधळून दिलं मी खुशीनं

असेल ते फक्त

ओंजळभरून पाण्याएवढं

पण

एका तरी तृषार्ताची

जळती तहान

थंड केली त्यानं

 

[2]

माझ्या मद्याचा घोट

माझ्याच प्याल्यातून

घे मित्रा

दुसर्‍या प्याल्यात ओतल्यावर

विस्कटून… विरून जाते

फेसाची माळ

 

[3]

वास्तवाचा  पोशाख

फारच घट्ट होतो

सत्याला…

कल्पनेच्या पायघोळ झग्यात

कसं स्वैर फिरता येतं त्याला.

 

[4]

किती इवली इवली

तुझी पावले

चिमुकल्या गवता

पण

त्यांच्या खाली

अफाट पसरलेल्या

आक्षितिज भूमीवर

तुझाच तर असतो

मालकी  हक्क ….

 

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #124 ☆ व्यंग्य – देर आयद, दुरुस्त— ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘देर आयद, दुरुस्त—  ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 124 ☆

☆ व्यंग्य – देर आयद, दुरुस्त—   

सबेरे सबेरे शीतल भाई का फोन बजा। देखा तो कोई नंबर था। पूछा, ‘हलो, कौन बोल रहा है?’

उधर कोई रो रहा था। शीतल भाई घबराये, पूछा, ‘कौन हो भाई? क्या बात है?’

रोने के बीच में जवाब मिला, ‘हम जबलपुर से प्रीतम लाल जी के बेटे बोल रहे हैं। पिताजी आज सबेरे शान्त हो गये। आपको बहुत याद करते थे। बताते थे कि आप उनके साथ पढ़े हैं। उनके मोबाइल में आपका नंबर मिला।’

शीतल भाई दुखी हुए। बेटे को सांत्वना दी। बोले, ‘बहुत अफसोस हुआ। हम स्कूल में साथ पढ़े थे। महीने दो महीने में उनका फोन आ जाता था। भले आदमी थे। मैं जल्दी आकर आप लोगों से मिलूँगा।’

शीतल भाई इन्दौर के रहने वाले। हिसाबी-किताबी आदमी थे, पक्के व्यापारी। भावुकता में पड़कर कहाँ जबलपुर जाएँ? दो चार हजार खर्च हो जाएँगे। बात आयी गयी हो गयी।

पाँच छः माह बाद संयोग से शीतल भाई का जबलपुर जाने का मुहूर्त बन गया। एक पार्टी के पास पैसा फँसा था, उसे निकालना था। सोचा, अच्छा है, गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट हो जाए।

एक सबेरे जबलपुर में प्रीतम लाल जी के परिवार के लोगों को दुआरे पर किसी के ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनायी पड़ी। परिवार के सदस्य घबरा गये। देखा तो एक आदमी हाथ में पकड़े फोटो पर नज़र जमाये ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर रहा था। पूछने पर पता चला कि ये स्वर्गीय प्रीतम लाल जी के सहपाठी शीतल भाई थे जो, देर से ही सही, मित्र के लिए अपना दुख प्रकट करने आये थे।

शीतल बाबू सादर घर में ले जाए गये। नाश्ता हुआ। फिर वे अपने हाथ का ग्रुप फोटो दिखा दिखा कर अपने और अपने दोस्त के किस्से सुनाते रहे।

नाश्ता करने के बाद बोले, ‘भैया, आप लोगों से मिल कर दिल को बड़ी शान्ति मिली। जब से प्रीतम के स्वर्गवास का सुना तभी से जी कलप रहा था। उनकी याद बराबर आती है। आप लोग मिले तो लगा प्रीतम मिल गये। अब आज आप लोगों के साथ ही रहूँगा। आपसे मिलने के लिए ही आया था।’

शीतल भाई मातमी मुद्रा में वहाँ बैठे रहे। दोपहर को वहीं भोजन किया, फिर वहीं चैन की नींद सो गये। शाम को उस पार्टी की खोज में निकल गये जिससे वसूली करनी थी। वहाँ से लौट कर रात को फिर दोस्त के बेटों के साथ बैठकर प्रीतम लाल जी के साथ अपनी यादों के पिटारे की तहें खोलने में लग गये। बेटे भी शिष्टतावश उनकी भावुकतापूर्ण बातों में रुचि दिखाते रहे।

दूसरे दिन सबेरे शीतल भाई ने अपने दिवंगत मित्र के बेटों को छाती से लगाया, फिर मित्र की पत्नी के सामने तौलिए से आँखें पोंछीं। रुँधे स्वर से बोले, ‘आज यहाँ आकर मन को कितनी शान्ति मिली, बता नहीं सकता। प्रीतम तो चौबीस घंटे यादों में बसे रहते हैं। कभी बिसरते नहीं। कभी मेरी जरूरत पड़े तो याद कीजिएगा। आधी रात को दौड़ा आऊँगा।’

दिवंगत दोस्त के प्रति मातमपुर्सी की औपचारिकता पूरी करके शीतल भाई,संतुष्ट, अपने शहर के लिए रवाना हो गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 76 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 76 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 76) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 76☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

चलो कहीं कोई

निशाँ ढूँढ़ते हैं,

दिल का खोया हुआ

कारवाँ  ढूँढ़ते  हैं…

 

मुद्दतें  हो  गयीं

मुस्कराये  हुए,

चलो खुशी का कोई

जहाँ  ढूँढ़ते  हैं…!

 

Let’s look for some

trail  somewhere,

Let’s find  the lost

caravan of the heart…

 

Ages have gone by

ever since I smiled,

Let’s find a world

of  happiness…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

नाराज़ तो हम

सिर्फ खुद से हैं….,

आप से तो अभी भी

बेपनाह इश्क़ ही है…

 

I’m just angry

with myself alone,

With you, it’s still the

endless love only….

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दूरियाँ जब भी कभी बढ़ीं,

गलतफहमियाँ भी बढ़ गयीं,

मगर फिर तुमने वो भी सुना,

जो मैंने कभी कहा ही नहीं….

 

Whenever the distances increased,

Misunderstandings too increased,

But still you could hear that,

which I had never even said….

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 123 ☆ अहम् और अहंकार..(3) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 123 ☆ अहम् और अहंकार..(3) ?

हमारी संस्कृति का घोष है-‘अहं ब्रह्मास्मि।’ मोटे तौर पर इसका अर्थ ‘मैं स्वयम् ब्रह्म हूँ’, माना जाता है। ब्रह्म याने अपना भाग्य खुद लिखने में समर्थ।  ध्यान देनेवाली बात है कि अहं को ब्रह्म कहा गया, न कि अहंकार  को। अहम् की विशेषता है कि वह अकेला होता है। कठिन स्थितियों से घिरा व्यक्ति हर तरफ से हारकर अंत में धीरोचित्त होकर अपने आप से संवाद करता है। कोई दूसरा व्यक्ति कोई बात समझाये तो अनेक बार हम उत्तर भी नहीं देते, डायलॉग (जिसमें दो लोगों में बातचीत हो), मोनोलॉग (स्वगत) हो जाता है। अपने आप से संवाद करने का आनंद ये है कि प्रश्नकर्ता और उत्तर देनेवाला एक ही है। जो चेला, वही गुरु। अद्वैत का चरमोत्कर्ष है स्व-संवाद। स्व-संवाद का फलित है- अपने अहम् के प्रति विश्वास का पुनर्जागरण। यह पुनर्जागरण व्यक्ति के भीतर साहस भरता है। बिना किसी को साथ लिए वह एकाकी से समूह हो जाता है। समूह होने का अर्थ है, अपने विराट रूप का दर्शन खुद करना। वैसा ही विराट रूप, जैसा श्रीकृष्ण ने महाभारत में पार्थ को दिखाया था। सहस्त्रों हाथ, सहस्त्रों पैर, सहस्त्रों मुख! अदम्य जिजीविषा से संचारित होकर लघु से प्रभु होकर हुंकार भरकर वह संकट के सामने सीना तानकर खड़ा हो जाता है। संकट तो मूलरूप से भीरू प्रवृत्ति के ही होते ही  हैैं। वे तब तक ही व्यक्ति के आगे खड़े होते हैं, जब तक व्यक्ति सामना करने के लिए उनके आगे खड़ा नहीं होता। मुकाबले के लिए व्यक्ति के सामने खड़े होते ही संकट पलायन कर जाते हैं। ये है अहम् की शक्ति अर्थात् ‘अहं ब्रह्मास्मि।’

अहंकार की स्थिति इसके विरुद्ध है। अहंकार के लिए व्यक्ति, दूसरों से अपनी तुलना करता है। तुलना के लिए दूसरे याने समूह की आवश्यकता है। ‘मैं बाकियों से बेहतर हूँ , बाकियों से आगे हूँ, बाकियों से अधिक ज्ञानी हूँ ’ का भाव दंभ का कारक बनता है। ये ‘बाकी’ कौन हैं? कितने बाकियों को जानता है वह? जितनी दूर तक देख पाता है, उतने ही बाकियों से तुलना करता है। निरंतर ‘नारायण-नारायण’ का जाप करनेवाले नारदमुनि ने बाकियों से अपनी तुलना की। ‘नारायण का जितना जाप मैं करता हूँ, उतना  ब्रह्मांड में कोई नहीं करता। मैं भगवान का सबसे बड़ा भक्त हूँ।’ अहंकार पनपा। नारायण से पूछा-‘आपका सबसे बड़ा भक्त कौन है?’ नारायण मंद-मंद हँसे और पृथ्वी  के एक कृषक का नाम लिया। अपमानित और झल्लाये नारद ने किसान के यहाँ आकर देखा तो उनका माथा चकरा गया। किसान सुबह खेत पर जाते समय दो बार नारायण का नाम लेता और  संध्या समय लौटकर दो बार जपता। ज़रूर प्रभु को गलतफहमी हुई है। नारायणधाम पहुँचे तो प्रभु ने कुछ कहने-सुनने का अवसर दिये बिना ही ऊपर तक दूध से लबालब भरा हुआ एक कटोरा थमा दिया और कहा, ‘नारद इसे शीघ्रतिशीघ्र कैलाश पर महादेव को दे आओ, ध्यान रहे दूध की एक बूँद भी न छलके अन्यथा महादेव के कोप का भाजन होना पड़ेगा।’ पूरे रास्ते नारद संभलकर चले। दूध पर ध्यान इतना कि जन्मांतरों से चला आ रहा नारायण का जाप भी छूट गया।

अहंकार समाप्त हुआ,‘..मैं दूध पर ध्यान रखने भर के लिए नारायण को  भूल गया, पर वह किसान तो गर्मी-सर्दी-बारिश, सुख, दुख हर स्थिति में सुबह-शाम प्रभु का स्मरण नहीं भूलता, वह श्रेष्ठ है।’ इसलिए कहा कि जितना दिखता है, वह अंतिम नहीं है।

चौरासी लाख योनियों के असंख्य प्राणी, उनके अनगिनत गुण, हरेक का अपना ज्ञान, उनकी तुलना में हम कहाँ हैं? देखने को दृष्टि में बदलेेंगे तो अहंकार, आकार को फेंक कर निष्पाप, अबोध बालक -सा गोद में खेलने लगेगा। व्यक्ति यदि अपने अहम् में समाज को अंतर्निहित कर ले तो वह  महानायक बन जाता है। वह अपना उद्धार तो करता ही है, समाज के उद्धार का भी माध्यम बन जाता है। ध्यान देनेवाली बात है कि अंतर्निहित करना और आकार देना अलग-अलग है। जैसे गर्भिणी शिशु को अंतर्निहित रखती है, वैसी भावना यदि समष्टि को लेकर विकसित हो जाए तो समष्टि भी अपने जैसी ही दिखने लगती है। जैसी दृष्टि- वैसी सृष्टि। प्रकृति का कोई भी कार्यकलाप एकांगी नहीं होता, हर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है। आप जिस भाव से सृष्टि को देखेंगे, वही भाव सृष्टि आपको लौटायेगी। अर्थात् सृष्टि आँख की पुतलियों में समाई हुई है। अहंकार का ऐनक हटाकर, अहम् का अंजान डालकर सृष्टि देखें। ‘ लाली मेरे लाल की जित देखूँ, तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।’  भान रहे कि अहम् और अहंकार के बीच अदृश्य-सी पतली रेखा है। अहम् जीवन धन्यता का चालक है जबकि अहंकार विनाश का वाहक है। इति।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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