(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ‘सॉनेट – विवेकानंद’।)
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “गिरगिट रंग लोग”।)
ग़ज़ल # 13 – “गिरगिट रंग लोग” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “मुखौटे”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 64 ☆ गजल – ’मुखौटे’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #76 – असली शांति☆ श्री आशीष कुमार☆
एक राजा था जिसे चित्रकला से बहुत प्रेम था। एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी चित्रकार उसे एक ऐसा चित्र बना कर देगा जो शांति को दर्शाता हो तो वह उसे मुँह माँगा पुरस्कार देगा।
निर्णय वाले दिन एक से बढ़ कर एक चित्रकार पुरस्कार जीतने की लालसा से अपने-अपने चित्र लेकर राजा के महल पहुँचे। राजा ने एक-एक करके सभी चित्रों को देखा और उनमें से दो चित्रों को अलग रखवा दिया। अब इन्ही दोनों में से एक को पुरस्कार के लिए चुना जाना था।
पहला चित्र एक अति सुंदर शांत झील का था। उस झील का पानी इतना स्वच्छ था कि उसके अंदर की सतह तक दिखाई दे रही थी। और उसके आस-पास विद्यमान हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो। ऊपर की ओर नीला आसमान था जिसमें रुई के गोलों के सामान सफ़ेद बादल तैर रहे थे। जो कोई भी इस चित्र को देखता उसको यही लगता कि शांति को दर्शाने के लिए इससे अच्छा कोई चित्र हो ही नहीं सकता। वास्तव में यही शांति का एक मात्र प्रतीक है।
दूसरे चित्र में भी पहाड़ थे, परंतु वे बिलकुल सूखे, बेजान, वीरान थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे जिनमें बिजलियाँ चमक रहीं थीं…घनघोर वर्षा होने से नदी उफान पर थी… तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे… और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने रौद्र रूप धारण कर रखा था। जो कोई भी इस चित्र को देखता यही सोचता कि भला इसका ‘शांति’ से क्या लेना देना… इसमें तो बस अशांति ही अशांति है।
सभी आश्वस्त थे कि पहले चित्र बनाने वाले चित्रकार को ही पुरस्कार मिलेगा। तभी राजा अपने सिंहासन से उठे और घोषणा की कि दूसरा चित्र बनाने वाले चित्रकार को वह मुँह माँगा पुरस्कार देंगे। हर कोई आश्चर्य में था!
पहले चित्रकार से रहा नहीं गया, वह बोला, “लेकिन महाराज उस चित्र में ऐसा क्या है जो आपने उसे पुरस्कार देने का फैसला लिया… जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरा चित्र ही शांति को दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?”
“आओ मेरे साथ!”, राजा ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा।दूसरे चित्र के समक्ष पहुँच कर राजा बोले, “झरने के बायीं ओर हवा से एक ओर झुके इस वृक्ष को देखो। उसकी डाली पर बने उस घोंसले को देखो… देखो कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से, इतने शांत भाव व प्रेमपूर्वक अपने बच्चों को भोजन करा रही है…”
फिर राजा ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों को समझाया, “शांत होने का अर्थ यह नहीं है कि आप ऐसी स्थिति में हों जहाँ कोई शोर नहीं हो…कोई समस्या नहीं हो… जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो… जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो… शांत होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति, अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शांत रहें, अपने काम पर केंद्रित रहें… अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें।”
अब सभी समझ चुके थे कि दूसरे चित्र को राजा ने क्यों चुना है।
मित्रों, हर कोई अपने जीवन में शांति चाहता है। परंतु प्राय: हम ‘शांति’ को कोई बाहरी वस्तु समझ लेते हैं, और उसे दूरस्थ स्थलों में ढूँढते हैं, जबकि शांति पूरी तरह से हमारे मन की भीतरी चेतना है, और सत्य यही है कि सभी दुःख-दर्दों, कष्टों और कठिनाइयों के बीच भी शांत रहना ही वास्तव में शांति है।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : दु:खों का कारण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 117 ☆
☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆
ग़लत सोच के लोगों से अच्छे व शुभ की अपेक्षा-आशा करना हमारे आधे दु:खों का कारण है, यह सार्वभौमिक सत्य है। ख़ुद को ग़लत स्वीकारना सही आदमी के लक्षण हैं, अन्यथा सृष्टि का हर प्राणी स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है। उसकी दृष्टि में सब मूर्ख हैं; विद्वत्ता में निकृष्ट हैं; हीन हैं और सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति अहंनिष्ठ व निपट स्वार्थी होता है। उसकी सोच नकारात्मक होती है और वह अपने परिवार से इतर कुछ नहीं सोचता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति संकुचित व सोच का दायरा छोटा होता है। उसकी दशा सावन के अंधे की भांति होती है, जिसे हर स्थान पर हरा ही हरा दिखाई देता है।
वास्तव में अपनी ग़लती को स्वीकारना दुनिया सबसे कठिन कार्य है तथा अहंवादी लोगों के लिए असंभव, क्योंकि दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है। वह हर अपराध के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है, क्योंकि वह स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझता। सो! वह ग़लती कर ही कैसे सकता है? ग़लती तो नासमझ लोग करते हैं। परंतु मेरे विचार से तो यह आत्म-विकास की सीढ़ी है और ऐसा व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। उसके रास्ते की बाधाएं स्वयं अपनी राह बदल लेती हैं और अवरोधक का कार्य नहीं करती, क्योंकि वह बनी-बनाई लीक पर चलने में विश्वास नहीं करता, बल्कि नवीन राहों का निर्माण करता है। अपनी ग़लती स्वीकारने के कारण सब उसके मुरीद बन जाते हैं और उसका अनुसरण करना प्रारंभ कर देते हैं।
ग़लत सोच के लोग किसी का हित कर सकते हैं तथा किसी के बारे में अच्छा सोच सकते हैं; सर्वथा ग़लत है। सो! ऐसे लोगों से शुभ की आशा करना स्वयं को दु:खों के सागर के अथाह जल में डुबोने के समान है, क्योंकि जब उसकी राह ही ठीक नहीं होगी; वे मंज़िल को कैसे प्राप्त कर सकेंगे? हमें मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीधे-सपाट रास्ते को अपनाना होगा; कांटों भरी राह पर चलने से हमें बीच राह से लौटना पड़ेगा। उस स्थिति में हम हैरान-परेशान होकर निराशा का दामन थाम लेंगे और अपने भाग्य को कोसने लगेंगे। यह तो राह के कांटों को हटाने लिए पूरे क्षेत्र में रेड कारपेट बिछाने जैसा विकल्प होगा, जो असंभव है। यदि हम ग़लत लोगों की संगति करते हैं, तो उससे शुभ की प्राप्ति कैसे होगी ? वे तो हमें अपने साथ बुरी संगति में धकेल देंगे और हम लाख चाहने पर भी वहां से लौट नहीं पाएंगे। इंसान अपनी संगति से पहचाना जाता है। सो! हमें अच्छे लोगों के साथ रहना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों के साथ रहने से लोग हमसे भी कन्नी काटने लगते हैं तथा हमारी निंदा करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। ग़लती छोटी हो या बड़ी; हमें उपहास का पात्र बनाती है। यदि छोटी-छोटी ग़लतियां बड़ी समस्याओं के रूप में हमारे पथ में अवरोधक बन जाएं, तो उनका समाधान कर लेना चाहिए। जैसे एक कांटा चुभने पर मानव को बहुत कष्ट होता है और एक चींटी विशालकाय हाथी को अनियंत्रित कर देती है, उसी प्रकार हमें छोटी-छोटी ग़लतियों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इंसान छोटे-छोटे पत्थरों से फिसलता है; पर्वतों से नहीं।
‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ अक्सर यह संदेश हमें वाहनों पर लिखित दिखाई पड़ता है, जो हमें सतर्क व सावधान रहने की सीख देता है, क्योंकि हमारी एक छोटी-सी ग़लती प्राण-घातक सिद्ध हो सकती है। सो! हमें संबंधों की अहमियत समझनी चाहिए चाहिए, क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं तथा प्राणदायिनी शक्ति से भरपूर होते हैं। वास्तव में रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं और भुने हुए पापड़ की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं। मानव के लिए अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियां अत्यंत घातक हैं, जो संबंधों को लील जाती हैं। यदि आप किसी उम्मीद रखते हैं और वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो संबंधों में दरारें पड़ जाती हैं; हृदय में गांठ पड़ जाती है, जिसे रहीम जी का यह दोहा बख़ूबी प्रकट करता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै तो गांठ परि जाए।’ सो! रिश्तों को सावधानी-पूर्वक संजो कर व सहेज कर रखने में सबका हित है। दूसरी ओर किसी के प्रति उपेक्षा भाव उसके अहं को ललकारता है और वह प्राणी प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करता है। यहीं से प्रारंभ होता है द्वंद्व युद्ध, जो संघर्ष का जन्मदाता है। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। इसलिए हमें सबको यथायोग्य सम्मान ध्यान देना चाहिए। यदि हम किसी बच्चे को प्यार से आप कह कर बात करते हैं, तो वह भी उसी भाषा में प्रत्युत्तर देगा, अन्यथा वह अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ज़ाहिर कर देगा। यह सब प्राणी-जगत् में भी घटित होता है। वैसे तो संपूर्ण विश्व में प्रेम का पसारा है और आप संसार में जो भी किसी को देते हो; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए अच्छा बोलो; अच्छा सुनने को मिलेगा। सो! असामान्य परिस्थितियों में ग़लत बातों को देख कर आंख मूंदना हितकर है, क्योंकि मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है।
संसार मिथ्या है और माया के कारण हमें सत्य भासता है। जीवन में सफल होने का यही मापदंड है। यदि आप बापू के तीन बंदरों की भांति व्यवहार करते हैं, तो आप स्टेपनी की भांति हर स्थान व हर परिस्थिति में स्वयं को उचित व ठीक पाते हैं और उस वातावरण में स्वयं को ढाल सकते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि ‘अपना व्यवहार पानी जैसा रखो, जो हर जगह, हर स्थिति में अपना स्थान बना लेता है। इसी प्रकार मानव भी अपना आपा खोकर घर -परिवार व समाज में सम्मान-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकता है। इसलिए हमें ग़लत लोगों का साथ कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि ग़लत व्यक्ति न तो अपनी ग़लती से स्वीकारता है; न ही अपनी अंतरात्मा में झांकता है और न ही उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करता है। इसलिए उससे सद्-व्यवहार की अपेक्षा मूर्खता है और समस्त दु:खों कारण है। सो! आत्मावलोकन कर अंतर्मन की वृत्तियों पर ध्यान दीजिए तथा अपने दोषों अथवा पंच-विकारों व नकारात्मक भावों पर अंकुश लगाइए तथा समूल नष्ट करने का प्रयास कीजिए। यही जीवन की सार्थकता व अमूल्य संदेश है, अन्यथा ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ वाली स्थिति हो जाएगी और हम सोचने पर विवश हो जाएंगे… ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ का सिद्धांत सर्वोपरि है, सर्वोत्तम है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजने का प्रयास कीजिए और जो ग़लत है, उसे कोटि शत्रुओं-सम त्याग दीजिए…इसी में सबका मंगल है और यही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि”।)
☆ किसलय की कलम से # 68 ☆
☆ स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि ☆
“बाहर का खाना कितना स्वास्थ्यप्रद? कुछ ऐसे तथ्य जो आपको सचेत करेंगे”
अक्सर सभी के मन में यह विचार तो आता ही है कि होटल अथवा बाहर के लंच-डिनर का खाना हमेशा अच्छा क्यों लगता है? और हम गाहे-बगाहे खाना खाने बाहर जाने क्यों उतावले रहते हैं। किसी के भी आमंत्रण पर प्रीतिभोज में चटखारे भरते हुए छककर खाने की लालसा क्यों रखते हैं? बाहर के भोजन में ऐसी क्या विशेषताएँ होती हैं अथवा यह कहें कि घर के बनाए भोजन में ऐसी क्या कमियाँ होती हैं कि हम घर के बने भोजन के साथ घर पर निर्मित खाद्य पदार्थों का कमतर आकलन करते हैं। आईये, हम चिंतन करें कि आखिर हमारी मानसिकता ऐसी क्यों बनी है कि हमें बाहर का भोजन और पेय ज्यादा पसंद आते हैं।
यहाँ बताना आवश्यक है कि हमारे घर के पारंपरिक भोजन में ऐसी सभी चीजों को शामिल किया जाता है जो हमारे अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। दैनिक खानपान के अतिरिक्त पापड़, बड़ी, अचार, सुखाई गई सब्जी-भाजी, अदरक, धनिया, मिर्च-मसाले आदि भी घर पर पूरे वर्ष के लिए छान, पीस और सुखाकर सुरक्षित रख लिए जाते हैं। ऋतुओं के अनुरूप घर में खाना बनता है। दही कब खाना है, बड़ियाँ कब बनाना है, भाजियाँ या करेला कब नहीं खाना है, ये सभी बातें गृहणियाँ भलीभाँति जानती और समझती हैं। सबसे अधिक और सबसे कम हानिकारक कौन-कौन से खाद्य पदार्थ हैं, उनका कम और ज्यादा उपयोग करना भी पता रहता है। घरेलू खाने एवं पेय पदार्थों में स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले रसायन, रंग, मसाले यहाँ तक कि भोज्य वनस्पतियों के भी वे हिस्से जो हमें हानि पहुँचा सकते हैं उनके उपयोग से बचा जाता है।
हमारे आयुर्वेद में विस्तार से उन सभी बातों का वर्णन मिलता है जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक और हानिकारक हैं। घरों में प्रयास रहता है कि घर के सभी सदस्य दिन के दोनों वक्त ताजा भोजन ही करें। खाने और पीने की हर सामग्री को अच्छे से साफ किया जाता है। उनकी ताजगी और पौष्टिकता का ध्यान रखा जाता है। पेय पदार्थों की शुद्धता और ताजगी के साथ-साथ स्वाद तथा बासेपन का भी ध्यान रखा जाता है। रसोईघर की पूर्ण स्वच्छता का ध्यान रखना दिनचर्या में शामिल होता ही है। पेयजल एवं अन्य कार्यों के उपयोग हेतु जल की शुद्धता व उसके प्रदूषण का ध्यान रखा जाता है। प्रतिदिन रसोई घर में काम करने के पूर्व स्नान और ईश्वर की पूजा-पाठ तक को महत्त्व दिया जाता है। खाना खाने के समय भी डाइनिंग रूम में बाहरी लोगों का दखल कम ही होता है। एक तरह से हम देखते हैं कि घर पर स्वास्थ्यकारी (हाइजेनिक) भारतीय परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यही कारण था कि पहले हमारे देश में नाममात्र के डॉक्टर व चिकित्सालय होने के बावजूद आरोग्यता का ग्राफ काफी ऊँचा था। इन्हीं बातों का आज भी यदा-कदा उल्लेख होता ही रहता है।
आज उपरोक्त तथ्यों के बारीकी से अध्ययन की आवश्यता है कि हम उपरोक्त परंपराओं, प्रथाओं अथवा रीतियों का कितना अनुसरण कर पाते हैं? महीने भर घर का भोजन खाने के बाद यदि एक दिन भी बाहर किया गया अस्वास्थ्यप्रद भोजन निश्चित रूप से आपके स्वास्थ्य के लिए भारी पड़ सकता है, क्योंकि प्रदूषण, छुआछूत, विषाक्तता, असंगत मिलावट तो एक बार में ही अपना प्रभाव दिखा देती है। घर के दो-चार-दस सदस्यों के खाने की और सामूहिक भोज अथवा होटलों के खाने की शुद्धता की तुलना किसी भी स्तर, श्रेणी और विषय में श्रेष्ठ हो ही नहीं सकती। इसके लिए केवल यही उदाहरण पर्याप्त है कि घरेलू उपयोग हेतु दस किलो गेहूँ अथवा चावल के कंकड़, घुन आदि निकाल कर धोने सुखाने की प्रक्रिया में निश्चित रूप से ज्यादा शुद्धता होती है न कि एक साथ दो-चार सौ किलो इसी सामग्री को मशीनी प्रक्रिया से शुद्धता प्राप्त होगी। यह बात तार्किक तो नहीं लेकिन प्रायोगिक रूप से शत-प्रतिशत सिद्ध है। हम खाद्य सामग्री अथवा पकवानों में कृत्रिम रंग व रसायन मिलाकर आकर्षक व स्वादिष्ट तो बना सकते हैं, लेकिन स्वास्थ्यप्रद कभी नहीं बना सकते, क्योंकि बाहरी खाने में स्वाद, रंग और आकर्षण लाने के लिए उपयोग में लाई जाने वाली चीजें लगभग 95 प्रतिशत हानिकारक ही होती हैं। कुछ स्वास्थ्यकारक चीजों की अधिकता भी हमें हानि पहुँचाती हैं। घी, तेल, मेवा, शक्कर आदि की ज्यादा मात्रा भी हानिकारक होती है। बहुसंख्य हाथों द्वारा निर्मित, सामूहिक भोज हेतु रखे गए भोजन को हजारों हाथों द्वारा, वही चम्मच, वही खाद्य पकवान पकड़ने, छूने और बिना दूरी का ध्यान रखे एक साथ खाना कितना सुरक्षित और हितकर होगा। बस, इन्हीं तथ्यों को अपने घर की डाइनिंग टेबल पर रखे भोजन और अपने ही दो-चार पारिवारिक लोगों के बीच बैठकर खाने को स्मरण करने की आज सभी को आवश्यकता है।
बाहरी भोजन में तेल, घी, खटाई, मसालों की अधिकता तो होती ही है, इनको अजीनोमोटो, सॉस, विनेगर, डिब्बाबंद सामग्रियों, और तो और कभी-कभी बतौर घी के विकल्प के रूप में जानवरों की चरबी के उपयोग से बेहद हानिकारक बना दिया जाता है। पाया गया है कि होटलों अथवा सामूहिक भोज में खाना बनाने वाले लोग बासे, खराब होने की स्थिति में आई सामग्री, कीड़े, मक्खियाँ आदि तक को ईमानदारी से अलग नहीं करते। छिलके व अनुपयोगी हिस्सों को भी मिलाकर आपको खिला दिया जाता है। शायद इसीलिए यह जुमला प्रसिद्ध है कि यदि आप एक बार बाहर का खाना बनते देख लोगे तो फिर बाहर का खाना कभी नहीं खाओगे। गंदे हाथ, खाद्य पदार्थों में पसीना टपकाते, खाना बनाते समय साफ-सफाई पर ध्यान न रखने जैसी कई बातें हैं, जिनका कड़ाई से पालन किया ही नहीं जाता। खाना बनाने, परोसने तथा खाने के बर्तनों की स्वच्छता का कोई पैमाना निर्धारित नहीं होता। आप कितना ही ध्यान दो, लेकिन कहीं न कहीं चूक होती ही है, जो हमारे स्वास्थ्य को बिगाड़ सकती है। खाने में कभी स्वाद बढ़ाने के लिए, तो कभी सस्ते होने के कारण मांस, रक्त व जैविक अंशों से निर्मित वस्तुएँ भी मिलाकर खिला दी जाती हैं। केक में अंडे, चीजकेक और च्युंगम आदि में जिलेटिन, नूडल्स में सोडियम इनोसिनेट, ऑरेंज जूस में इन्कोवी (नमकीन स्वाद की छोटी मछली) और सार्डिन, चिप्स में पोर्क एंजाइम का उपयोग किया जाता है। कई बार पनीर में रेनेट नामक घटक मिला दिया जाता है। चीनी की ब्लीचिंग में भी जानवरों की हड्डियों का उपयोग किया जाता है। ये सारे पदार्थ मांसाहारी होने के बावजूद उत्पादों में स्पष्टतः नहीं लिखे जाते। इन मांसाहारी पदार्थों का मिलाना निश्चित रूप से शाकाहारियों को अंधेरे में रखने जैसा तो है ही, ये भोजन को हानिकारक भी बनाते हैं।
वर्तमान समय में प्राकृतिक व जैविक खाद से पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के उपयोग पर इसीलिए जोर दिया जाने लगा है, क्योंकि इनसे स्वास्थ्य को खतरा नहीं होता। पिज्जा, बर्गर, नूडल्स, केक, मोमोज आदि ऐसे ही खाद्य पदार्थ है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं कहे जा सकते। वैसे आजकल हमारे समाज में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता देखने तो मिलने लगी है, लेकिन ये जागरूकता अभी भी अपेक्षाकृत कम है। आज जरूरत इस बात की है कि हम अपरिहार्य परिस्थितियों को छोड़कर स्वस्फूर्तभाव से बाहरी भोजन व भोज्य पदार्थों के उपयोग का पूर्णतः परहेज करें।
हम सब ये बातें अच्छी तरह से जानते हैं कि इन धंधों में हमारे समाज के ही एक बड़े हिस्से की भागीदारी होती है। पूरा होटल बिजनेस, पूरे खाद्य पदार्थ उत्पादक व विक्रेताओं सहित कहीं न कहीं चिकित्सा जगत, दवा बाजार तक संलग्न है। कोल्ड ड्रिंक्स, फास्ट फुड और स्नैक्स विक्रेता सहित हम किस किसको रोक पाएँगे? अतः हमें खुद ही सतर्कता जागरूकता एवं परहेज रखने की आवश्यकता है। साथ ही खाद्य पदार्थ विक्रेताओं और पका-पकाया खाना बनाने के व्यवसाय से जुड़े लोगों को भी चाहिए कि वे भले ही अपने वास्तविक हानि-लाभ का ध्यान रखकर मूल्य निर्धारित करें, लेकिन सस्ते और मुनाफाखोरी के स्वार्थवश मिलावट से बाज आएँ।
यहाँ यह बात कहना भी जरूरी है कि शराब, गुटखा, तंबाकू, सिगरेट आदि के पैकेट पर वैधानिक चेतावनी के बावजूद जब एक बहुत बड़े नशे का व्यवसाय पहले से ही फल-फूल रहा है और उसे मानने के लिए आज तक अधिकांश लोग तैयार नहीं है। अब दिनोंदिन हमारे स्वास्थ्य को बुरी तरह से हानि पहुँचाने वाले इस बढ़ रहे व्यवसाय को भी रोक पाना बड़ा मुश्किल लगता है। हम वर्तमान में स्वाद के लिए अपनी जीभ के सामने नतमस्तक रहते हैं, जबकि हमें मानना ही होगा कि स्वाद नहीं स्वास्थ्य है सर्वोपरि। अब देखना रह गया है कि बाहर का बना खाना व बाहर के डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ हमारे स्वास्थ्य को कब तक बीमार बनाते रहेंगे और हम अपने आपको इन सब से कितना और कब तक दूर रख पाते हैं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “कोरोना में कुर्सी का खेल…. ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“काय मनःशांती ? आणि ती सुद्धा फक्त पंधरा हजारात ?”
“हो ! पण या पंधरा हजारात ती फक्त एका महिन्यासाठीच मिळणार आहे बरं का !”
“आणि नंतरचे अकरा महिने ?”
“नंतर पुढच्या प्रत्येक महिन्यासाठी मनःशांती हवी असेल, तर परत दर महिन्याला पंधरा हजार भरायचे !”
“अस्स, म्हणजे मनःशांती मिळवायची प्रत्येक महिन्याची फी पंधरा हजार आहे असं सांग की सरळ !”
“अगदी बरोब्बर ओळखलंत तुम्ही !”
“अगं पण तुला ही मनःशांती देणार कोण ?”
“अहो, आपल्या चाळीत ‘नवरे मनःशांती केंद्र’ सुरु झालं आहे गेल्या महिन्या पासून, ते मी जॉईन करीन म्हणते. घरात तुमची सदा कटकट चालू असते, त्यामुळे जरा शांतता नाही माझ्या डोक्याला !”
“क s ळ s लं ! पण आपल्या चाळीच्या ४५ बिऱ्हाडात, माझ्या माहिती प्रमाणे ‘नवरे’ नावाचे कोणतं बिऱ्हाडच नाही, मग…”
“अहो केंद्राचे नांव जरी ‘नवरे मनःशांती केंद्र’ असलं तरी ते चालवतायत तिसऱ्या मजल्यावरचे गोडबोले अण्णा !”
“भले शाब्बास, अण्याने आता हे नको ते धंदे चालू केले की काय या वयात ?”
“काय बोलताय काय तुम्ही ? धंदे काय धंदे ? चांगल पुण्याचं काम करतायत अण्णा, तर तुम्ही त्याला नको ते धंदे काय म्हणताय !”
“अगं पुण्याचं काम करतो आहे नां अणण्या, मग फुकटात कर म्हणावं ! त्यासाठी प्रत्येका कडून महिन्याला पंधरा हजार कशाला हवेत म्हणतो मी ?”
“अहो केंद्र चालवायचं म्हणजे कमी का खर्च आहे?”
“कसला गं खर्च ?”
“अहो एक सुसज्ज AC हॉल घेतलाय त्यांनी भाड्याने त्यांच्या केंद्रासाठी ! त्याच भाडं, लेक्चर द्यायला बाहेरून मोठं मोठी अध्यात्मिक लोकं येणार त्यांच मानधन, असे अनेक खर्च आहेत म्हटलं.”
“बरं बरं, पण मला एक कळलं नाही, केंद्राचे नांव त्या अणण्याने ‘नवरे मनःशक्ती केंद्र’ असं का ठेवलंय ?”
“ते मला काय माहित नाही बाई, पण एखाद वेळेस आपापल्या नवऱ्यापासून मनःशांती मिळावी, असा उदात्त हेतू असावा असं नांव ठेवण्या मागे अण्णांचा !”
“हे बरं आहे अणण्याच, स्वतःची बायको शांती, त्याला गेली त्याच्या कटकटीमुळे या वयात सोडून माहेरी आणि हा दुसऱ्यांच्या बायकांना मनःशांतीचे धडे देणार ?”
“अहो शेजारच्या कर्वे काकू सांगत होत्या, शांती काकी जेंव्हा अण्णांना सोडून गेल्या, तेव्हाच अण्णा हिमालयात गेले होते एका आश्रमात साधना करण्यासाठी आणि तिथूनच ते दिक्षा घेवून आले…..”
“आणि आता ते तुम्हां सगळ्या भोळ्या साधकांकडून महिन्याला प्रत्येकी पंधरा हजाराची भिक्षा घेवून तीच दिक्षा देणार, असंच नां ?”
“बरोब्बर !”
“अगं पण तुला हवीच कशाला मनःशांती म्हणतो मी ? आपल्या दोन मुली लग्न होऊन गेल्या आपापल्या सासरी, घरात आपण दोघच ! सासूचा त्रास म्हणशील तर, आई जाऊन पण आता दहा वर्ष….”
“उगाच देवानं तोंड दिलंय म्हणून काहीच्या बाही बोलू नका ! मगाशीच मी तुम्हांला सांगितलंय, तुमची रिटायर झाल्या पासून रोज घरात कटकट चालू असते, त्यामुळे माझी मनःशांती ढासळली आहे !”
“अगं पण तुझ्या ढासळलेल्या मनःशांतीवर माझ्याकडे एक जालीम उपाय आहे ! त्यासाठी महिन्याला पंधरा हजार खर्च करायची काहीच गरज नाहीये !”
“अहो, उगाच महिन्याचे पंधरा हजार वाचवण्यासाठी मला काहीतरी फालतू उपाय सांगू नका तुमचा ! गपचूप…..”
“अगं आधी उपाय ऐकून तर घे मग बोल !”
“ठीक आहे, बोला !”
“हां, तर उपाय असा आहे, मी तुला या महिन्यापासून दर महिन्याला, फक्त तुझ्या शॉपिंगसाठी बरं का, पाच हजार देणार आणि त्याचा हिशोब पण मागणार नाही, बोल !”
“काय सांगताय काय ? फक्त माझ्या एकटीच्या शॉपिंगसाठी महिन्याला पाच हजार ?”
“हॊ s s य!”
“पण अहो, त्या माझ्या पाच हजारच्या शॉपिंगमधे मी तुमची एक लुंगी सुद्धा आणणार नाही, कळलं नां ?”
“अगं लुंगीच काय, माझा एक साधा हातरूमाल सुद्धा मी तुला आणायला सांगणार नाही, मग तर झालं !”
“मग ठीक आहे !”
“पण त्यासाठी माझी एक अट आहे”
“आता कसली अट?”
“हे महिन्याचे तुझ्या एकटीच्या शॉपिंगसाठीचे पाच हजार तुला पाहिजे असतील, तर ‘नवरे मनःशांती केंद्राचा’ नाद तुला सोडावा लागेल !”
“पण मग माझ्या ढासळलेल्या मनःशांतीवरच्या उपायाच काय ?”
“ते काम माझ्याकडे लागलं !”
“तुम्ही करणार उपाय?”
“हो s s य !”
“अहो मला जरा कळेल का, तुम्ही कसला उपाय करणार आहात ते !”
“अगं साधा पंधरा रुपयाचा उपाय आहे, तू माझ्यावर सोड !”
“आता बऱ्या बोलानं सांगताय, का जाऊ नांव नोंदवायला अण्णांकडे ?”
“अगं काही नाही, खाली जातो आणि पंधरा रुपयात मिळणारे, स्विमिंग करतांना पोहणारे लोकं, जे इअर प्लग्स घालतात ते घेवून येतो !”
“त्यांच मी काय करू ?”
“अगं तुला असं जेव्हा जेव्हा वाटेल, की मी आता तुझ्याशी कटकट करायला सुरवात केली आहे, तेव्हा तेव्हा ते तू कानात घालायचेस ! म्हणजे तुला माझ्या बोलण्याचा त्रास होणार नाही आणि तुझी……”
“मनःशांतीपण ढासळणार नाही, काय बरोबर नां ?”
“अगदी बरोब्बर ! मग आता काय, जाणार का त्या ‘नवरे मनःशांती केंद्रात नांव नोंदवायला ?”
“नांव नका काढू त्या केंद्राचे, पण माझं
आत्ताच्या आत्ता एक काम करा जरा !”
“ते आणि काय ?”
“तसं काही खास नाही, मी आल्याचा चहा घेवून येते, तो पर्यंत या महिन्याचे माझे शॉपिंगचे पाच हजार काढून ठेवा ! लगेच या महिन्याच्या शॉपिंगला जाते ! शुभस्य शीघ्रम !”
असं बोलून बायको किचन मधे पळाली आणि मी दर महिन्याचे दहा हजार कसे वाचवले याचा विचार करत, स्वतःची पाठ स्वतःच थोपटू लागलो ! शॉपिंगचा विजय असो !