हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 27 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 4 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 27 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 4 ?

(17 फरवरी 2020)

हमारी यात्रा का आज चौथा दिन था। हम बाए रोड सोमनाथ से द्वारका पहुँचे थे।

द्वारका कल तक महाभारत और पुराणों का विषय था पर आज द्वारका इतिहास है, एक सच्चाई जो हमारी संस्कृति की विशेषता और अवतार लेकर इस धरा पर आए ईश्वर की सच्ची गाथा है। आज द्वारका नगरी का अवशेष समुद्र के नीचे पाया गया है। कृष्ण के होने की बात काल्पनिक नहीं, सत्य है और यही हमारी जिज्ञासा, उत्साह का कारण भी रहा है।

द्वारका आज छोटा – सा शहर है। कभी यहाँ विशाल नगरी बसती थी जो समृद्ध और वैभवशाली थी। कहते हैं सोने चाँदी और जवाहरातों से जड़े सात सौ महल बने हुए थे। मान्यता है कि श्रीकृष्ण को गांधारी ने संपूर्ण कुल के विनाश का श्राप दिया था। श्रीकृष्ण के पड़पोतों ने ही आपसी लड़ाई लड़कर इस नगरी को क्षति पहुँचाई और पैंतीस वर्ष के स्वर्णिम सौंदर्य को देखने के बाद इस नगर ने समुद्र में समाधि ले ली। कहते हैं कि यादव वंश समाप्त हो गया। श्रीकृष्ण ने यहाँ पैंतीस वर्ष राज्य किया था।

आज यहाँ का सारा वातावरण द्वारिकाधीश के मंदिर के इर्द-गिर्द की ज़रूरतों से घिरा है। हमारे रहने की व्यवस्था मंदिर के पास ही स्थित एक नए बने होटल में की गई थी जिस कारण मंदिर तक पहुँचने के लिए ज्यादा चलना भी नहीं पड़ा।

सुबह-सुबह हम सब जब मंदिर जाने के लिए निकले तो सड़क पर पानी की छींटे मारकर सड़कें साफ़ की गई थीं। दिन भर की थकी धूल रात भर के शांत वातावरण में हल्की नमी के साथ सड़क पर बिछ गई थीं, जैसे थका हुआ बच्चा माँ की गोद में आकर सो जाता है। सारा वातावरण और परिसर स्वच्छ और शीतल था। सड़क पर धूप की किरणें पड़ रही थीं तब उस रश्मि में धूल के कण दिखाई देने लगे थे वरना वैसे तो सब स्वच्छ ही प्रतीत हो रहा था।

श्रीकृष्ण की इस नगरी में गायों का बड़ा महत्त्व रहा है। गायें और साँड सड़क पर खुले घूमते नज़र आते हैं। इनका आकार भी आम गाय और साँड की तुलना में बहुत बड़े है। उन्हें देखकर हमें तो इतिहास के पन्नों में छपी हड़प्पा सभ्यता के साँड की तस्वीर याद आ गई। उनकी कुछ मूर्तियाँ धोलावेरा ( हड़प्पा साइट) के संग्रहालय में भी देखने को मिली थी। भयंकर तगड़े, ऊँचे, विशालकाय, मोटे मोटे, बड़े सींग, और पीठ पर विशाल कूबड़! यहाँ के बेफिक्र हो घूमनेवाले साँड भी कुछ वैसे ही थे।

सुबह- सुबह कोई उन्हें सुबह की बनी ताज़ी रोटियाँ अपने हाथ से खिलाता दिखा तो कोई चने की फलियाँ खिलाता दिखा। अपनी श्रद्धा के अनुसार पशुओं की सेवा होते देख मन को एक अद्भुत खुशी मिली। भोजन खिलानेवाला रास्ते पर बैठकर अपने हाथ से गाय को रोटी खिला रहा था और दूसरे हाथ से उसके गले के नीचे लटकते हिस्से को सहला भी रहा था। अहा ! पशुओं के प्रति यह स्नेह देख मन गदगद हो उठा। ऐसे दृश्य बड़े नगरों में कहाँ!

सड़क पर आते -जाते लोग गाय को छूते और अपने हाथ को अपने माथे और छाती को छूकर प्रणाम करते। गौमाता के प्रति कितनी श्रद्धा है यह देखकर मन संतुष्ट हुआ कि हमारी संस्कृति तो इन नगरों के, मंदिरों के इर्द-गिर्द आज भी जीवित है। हम यों ही भयभीत होते हैं।

हम मंदिर के बड़े से प्रांगण में पहुँचे। स्वच्छ धोती -कुर्ता उसपर काली बंडी पहने, गले में लाल गमछा और तुलसी की माला लटकाए, माथे पर लाल चंदन से वैष्णवी तिलकधारी कई पंडित झुंड में खड़े थे। ऐसा लग रहा था जैसे वहाँ के पंडितों का वह गणवेश ही हो!

हमें देख चार पंडित झुंड से निकलकर हमारी ओर आए। हमसे पहले पूछा गया कि हम कहाँ से आए थे। उत्तर मिलने पर दूसरे ने पूछा हमारा गोत्र क्या है? हमें आश्चर्य हुआ, मैंने पूछा कि क्या गोत्र के बिना भीतर मंदिर में प्रवेश नहीं ? तो तीसरे ने कहा, ” ऐसा नहीं माताजी, भीतर का परिसर बहुत बड़ा है आपको सब कुछ आराम से और समझाते हुए दर्शन करवाएँगे तो आपको मंदिर दर्शन का आनंद मिलेगा। “

मेरी जिज्ञासा बढ़ गई और मेरा कुछ स्वभाव भी है कि जब तक बात स्पष्ट न हो मैं सहमत नहीं होती। साथ ही जिज्ञासा ही तो ज्ञान बढ़ाने का सहज मार्ग है। मैंने कहा, “तो चलिए साथ में, अपना रेट बताइए और ले चलिए, गोत्र से क्या मतलब?”

हम शहर वासी कुछ ज्यादा ही व्यवहारवादी होते हैं।

हमारी आवाज़ और प्रश्न सुनकर दो पंडित और जुड़ गए। एक ज़रा अधिक स्मार्ट से थे, बुज़ुर्ग भी। बोले, “माताजी यहाँ कोई रेट नहीं है। आप लोग दूर से आते हैं, हम लोग आपको जितनी देर चाहें मंदिर में घुमाते हैं। सारी जानकारी देते हैं। आपको जो उचित लगे दक्षिणा दे दीजिएगा। रही बात गोत्र की तो सो ऐसा है कि इस नगर में हम जितने ब्राह्मण हैं हम मंदिर के हर क्षेत्र, और हर काम से जुड़े हैं। हमारे लिए और कोई दूसरा आजीविका का साधन नहीं है। मंदिर से हमें तनख्वाह भी नहीं मिलती। इसलिए आपस में विवाद से बचने के लिए हम गोत्र पूछ लेते हैं ताकि जिस पंडित के हिस्से में जो गोत्र है वही गाइड के रूप में दर्शनार्थी के साथ जाए। इससे हम में से हर किसी को जीवित रहने के लिए पर्याप्त धन मिल जाता है। “

वाह! बहुत बढ़िया व्यवस्था है। कोई लड़ाई नहीं। मैं तो मन ही मन प्रसन्न हुई इस व्यवस्था के बारे में जानकर। समस्या है तो उसका हल भी तो है! देयर इज़ नो प्रॉब्लेम विदाउट अ सॉल्यूशनवाली बात यहाँ चरितार्थ होती है।

हमने अपना गोत्र बताया, वैसे हम चारों के गोत्र अलग -अलग हैं पर हमने सोचा अलग तो घूमना नहीं और शादी करने तो आए नहीं तो हम भाई-बहनों का गोत्र कश्यप है तो हमने उन्हें बता दिया। उनमें से कोई भी हमारे साथ नहीं चला बल्कि एक सातवें व्यक्ति को हमारे साथ कर दिया और बोले, ” ये गुरुजी आपके साथ जाएँगे”। गुरुजी ने तुरंत पूछा, ” बंगाली हैं क्या? ” हमारे आश्चर्य की सीमा न रही कि इन ब्राह्मणों को गोत्रों की गहन जानकारी है! गुरुजी ने हमारे माथे पर लाल तिलक छाप दी और हम गुरुजी के साथ चल पड़े।

मंदिर का भीतरी परिसर बृहद है। मंदिर की भव्य इमारत देखते ही हमने दाँतों तले उँगली दबा ली। क्या ही सुंदर भवन है, न केवल विशाल, भव्य बल्कि कलाकारी का उत्तम नमूना भी है। नक्काशीदार दीवारें, झूलते बरामदें और छह मंज़िली इमारत पर विशाल कलश!कलश के ऊपर ध्वजा!आहा मन तृप्त हुआ।

मंदिर के आँगन में बड़ी भीड़ थी। लोग आँगन में बैठे थे, मानो प्रतीक्षा रत थे। पूछने पर गुरुजी ने कहा आप भी प्रतीक्षा कीजिए, कलश पर अभी पताका लगाया जाएगा। करीब 38 मीटर ऊँचे मंदिर के शिखर पर सबसे पहले भगवान के प्रपोत्र के द्वारा ही पहली बार ध्वजारोहण किया गया था।

मंदिर में प्रति दिन पाँच बार ध्वजा बदली जाती है। यह ध्वजा बावन गज़ की होती है। कम से कम पाँच वर्षों की अवधि तक ध्वजा फहराने वालों की बुकिंग हो जाती है। असंख्य भक्त विभिन्न राज्यों, शहरों से यह ध्वज चढ़ाने आते हैं और उसे नियत समय पर आरोहण किया जाता है।

स्थानीय एक परिवार के दो सदस्य हैं जो इतनी ऊँचाई पर चढ़कर ध्वजारोहण करते हैं। यह परंपरागत है। वे मंदिर के भीतर माता का दर्शन कर इस काम के लिए ऊपर चढ़ते हैं। जोखिम का काम है, किसी प्रकार की सुरक्षा की व्यवस्था के बिना दिन में पाँच बार ऊपर चढ़ते हैं और ध्वज बदलकर, ध्वजारोहण करते हैं। अब तक उनकी आस्था ही सुरक्षा कवच बनी रही। परंपरागत एक परिवार इन ध्वजाओं को सिलने का काम करता है। पहले इस परिवार के पिता, दादा मुफ्त में यह काम करते थे पर आज इस परिवार का यही पेशा है।

अचानक आँगन में बैठी भीड़ खड़ी हो गई और दोनों हाथ ऊपर करके, गर्दन पीछे की ओर झुकाकर ऊपर देखती हुई जय श्रीकृष्ण कहकर जयकारा लगाने लगी। हमारे हाथ अपने आप ऊपर उठ गए, जयकारा में हम भी शामिल हो गए। वह दृश्य, वह आस्था, वह भक्ति सब कल्पनातीत है। सभी लोग भावविभोर हो उठे। हमारे लिए यह सब कुछ नया था और अद्भुत भी। कलश पर नया, विशाल, रंगीन, पताका हवा में लहरा उठा। हमने हाथ जोड़कर वंदना की और गुरुजी के साथ आगे बढ़े।

गुरुजी हमें गर्भ गृह में ले गए, सुंदर नक्काशीदार दीवारें, पत्थर तराशकर अद्भुत कलाकृति वर्णनातीत है। यह मंदिर ग्रेनाइट और बालूपत्थर से बना हुआ है। जिसे सैंड स्टोन कहा जाता है। मंदिर नागर वास्तुकला शैली का बेजोड़ उदाहरण है। मंदिर की दीवारों पर देवी – देवताओं और पशु पक्षियों की कलाकृतियाँ बनी हुई हैं। 72 स्तंभों पर खड़े इस मंदिर को त्रिलोक्य जगत मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह चार धामों में से एक है।

मूल रूप से यह मंदिर 3500 वर्ष पुराना है तब यह मंदिर जवाहरातों से मढ़ा था। गुजरात हज़ारों वर्ष से व्यापार और व्यापारियों का गढ़ रहा है अतः मंदिरों की साज – सज्जा के लिए धन खर्च करना यहाँ के लोगों के स्वभाव में है। जैसे कि हम जानते हैं कि कुछ आक्रांता हमेशा भारत को लूटने ही आए हैं और मंदिरों को ध्वस्त कर सब कुछ लूटकर ले गए हैं वैसे ही यह मंदिर कई बार तोड़ा और लूटा भी गया है।

आज जिस मंदिर को हम देख रहे हैं उसे सोलहवीं शताब्दी में बनाया गया था। गुरुजी जानकारी देते हुए बोले कि इस मंदिर की स्थापना सबसे पहले श्रीकृष्ण के पड़पोते ने की थी।

मंदिर में स्थित श्रीकृष्ण की मूर्ति बाल गोपाल या रासलीला करते कान्हा या प्रेममय श्याम नहीं हैं। यह है सक्षम, गंभीर, कर्त्तव्यपरायण, सबके संरक्षक द्वारकाधीश। कहा जाता है कि यह स्थान श्रीकृष्ण का निवास स्थान था। इसलिए इसे हरि गृह भी कहा जाता है।

थोड़ी ही देर में मूर्ति के सामने पर्दा लगा दिया गया। गुरुजी बोले, ” अभी द्वारिकाधीश को भोग लगाया जाएगा, दस मिनट बाद हम आपको मूर्ति के बिल्कुल पास से दर्शन करवाएँगे। “

थोड़ी देर बाद पर्दा हटाया गया और द्वारकाधीश केदर्शन हुए। हमारे पास शब्द नहीं कि हम उस प्रसन्नता के मुहूर्त को शब्दोबद्ध कर सकें।

द्वारकाधीश को दिन में ग्यारह बार भोग लगाया जाता है। चार बार आरती होती है और हर आरती से पूर्व वस्त्र बदलकर आभूषण पहनाकर उन्हें सजाया जाता है। यह शृंगार भी दर्शनीय है। जन्माष्टमी के दिन द्वारकाधीश को छप्पन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। उस दिन भक्तों को थोड़ी दूर से ही दर्शन लेना पड़ता है। गुरुजी मंदिर के हर स्थान की जानकारी देते हुए चल रहे थे। हमने अपने हिसाब से समय लेकर मंदिर के सौंदर्य का पूरा आनंद लिया। चारों ओर दीवारों की नक्काशी ने हमें मंत्र मुग्ध कर दिया।

गुरुजी ने अब हमें वह जगह दिखाई जहाँ श्रीकृष्ण सुदामा से मिले थे। आज यह एक सभागृह जैसा है पर निश्चित ही अपने समय में यह अद्भुत सुंदर और पवित्रता से परिपूर्ण स्थान रहा होगा।

हम काफी सारी सीढ़ियाँ उतरकर मंदिर के पिछले द्वार से बाहर आए। इस स्थान पर अन्न दान के लिए आप अपनी इच्छानुसार धनराशि दान कर सकते हैं। हम भी यथासंभव और अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ रकम दान में दे आए। इसके लिए हमें रसीद भी दी गई। सीढ़ियों के दोनों तरफ छोटी- छोटी दुकानें बनी हुई हैं। सभी दुकानें सुसज्जित और आकर्षक हैं।

अब हम गुरुजी को प्रणाम कर दक्षिणा देकर मुख्य सड़क के पास आ गए। अब यहाँ काफी भीड़ थी। पूरे परिसर में दर्शन करते हुए चार -पाँच घंटे लग गए। हम लोग होटल से निर्जला निकले थे तो अब भूख भी लगी थी तो जल्दी से होटल लौट आए।

द्वारका के मंदिर के दूसरी छोर पर एक छोटी सी खाड़ी पारकर हम शाम को चार बजे द्वारका बेट देखने निकले। इस पार से उस पार तक जाने के लिए बड़ी -बड़ी नावें हैं। एक बार में साठ सत्तर लोगों को पार उतारने की व्यवस्था है। हम द्वारका बेट पहुँचे।

शायद श्रीकृष्ण के काल में यहाँ से समुद्र निश्चित ही दूर रहा होगा पर आज द्वारकाधीश के मंदिर से यह स्थान काफी दूरी पर है। यहाँ श्रीकृष्ण की पट रानी व अन्य पत्नियों की मूर्ति रखी गई है और उनके नाम का मंदिर है। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की पत्नियाँ इसी स्थान में बने महल में रहती थीं। यह स्थान न तो भव्य है और ही इसकी ठीक से देखरेख होती है। द्वारकाबेट पर एक मस्जिद भी है। अधिकतर नाविक इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं। इस जगह पर बड़ी संख्या में इस्लाम ही रहते हैं गाड़ी चालक जो हमारे साथ गया था उसने बताया कि अब नाव चलानेवाले नाविक और वहाँ के अधिकांश निवासी बाँगलादेशी और रोहिंग्या हैं। यह हमारे देश के लिए बहुत बड़ा चिंता का विषय है। हम मंदिर का दर्शन कर फिर नाव पकड़कर द्वारका की मुख्य भूमि पर लौट आए।

हमारी यह यात्रा सुखद रही। शाम के समय मुख्य मंदिर में खूब रोशनी की जाती है इससे मंदिर की भव्यता और उभरकर आती है।

एक अद्भुत सुंदर कलाकृति और जीता जागता इतिहास देखकर हम आगे की यात्रा के लिए तैयार हुए।

क्रमशः

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 205 – जय जय श्री गणेशाय नमः ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्री गणेश वंदना जय जय श्री गणेशाय नमः ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 205 ☆

🌻 जय जय श्री गणेशाय नमः🌻

हे बुध्दि प्रदायक, हे गण नायक, सब काज किए, देव बड़े।

हे ज्ञान विधाता, जन सुखदाता, शुभ आस लिए, लोग खड़े।।

सुन शंकर नंदन, तुम दुख भंजन, मूषक वाहन, लाल कहें।

हो सिध्दी विनायक, शुभ फल दायक, संकट कटते, आप रहे। ।

 *

हे शंकर कानन, गोद गजानन, मोदक प्यारे, भोग लगे।

हे भाग्य विधाता, घर – घर नाता, सबसे न्यारें, भाग जगे।।

ले आरत वंदन, रोली चंदन, मोती माला, रोज चढ़े।

हो पग-पग पूरन, तेरा सुमिरन, भारत आगे, दुआ बढे़।।

 *

सुन विनती मेरी, कृपा घनेरी, गौरा नंदन, कलम चले।

मन की अभिलाषा, समझे भाषा, आराधन से, कष्ट टले।।

हे दीनदयाला, जग रखवाला, अर्ध चंद्र से, भाल सजे।

कर तेरी सेवा, पाते मेवा, खुशी मनाते, ढोल बजे।।

 *

जाने जग सारा, नाम तुम्हारा, भक्तों के मन, धीर धरें।

बोले हर प्राणी, हो वरदानी, गौर गजानन, देव हरे।।

ले रिध्दी- सिध्दी, पाते प्रसिद्धि, पूजन अर्चन, भक्ति भरें

बोले जयकारा, दास तुम्हारा, हे लंबोदर, कृपा करें।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 101 – देश-परदेश – ऊपर उठो, ऊपर उठो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 101 ☆ देश-परदेश – ऊपर उठो, ऊपर उठो ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इन दकियानूसी आदतों से अब ऊपर उठ जाओ, समय के साथ चलो। दिन भर पतंग, गिल्ली डंडा खेलते रहते हो, इन को छोड़ ऊपर उठो पढ़ाई/ लिखाई कर लो, जिंदगी में कुछ बन कर दिखाओ। पूरा बचपन ये ही सब सुनते सुनते बीत गया।

पांच दशक से हमने देखा कि हम सब बहुत ऊपर उठ गए है। चटाई पर भोजन ग्रहण करने वाले अब प्रसादी भी ऊंचे टेबल कुर्सी पर ग्रहण करते हैं।

जब भोजन ऊंचाई पर करना है, तो वो भी ऊंचाई वाले प्लेटफार्म पर ही ना, बनेगा। पूर्वकाल में रात्रि जमीन पर सब चैन की नींद सोते थे, अब ऊंचे पलंग पर मोटी ऊंचाई वाले गद्दों पर नींद की गोली खा कर ही नींद प्राप्त होती हैं।

कार्यालय, दफ्तर सब में टेबल/कुर्सी सामान्य बात होती हैं। अब तो किराना, कपड़े आदि वाले दुकानदार भी तख्त छोड़ काउंटर पर व्यापार कर ऊंचे व्यक्तियों की श्रेणी में शामिल हो चुके हैं। “ऊंचे लोग ऊंची पसंद” खाने वाले ऊपर भी जल्दी ही चले जाते हैं।

विवाह के समय में अग्नि देवता के समक्ष सब कुर्सियों पर विराजमान मिलेंगे। नीचे बैठने से पतलून की क्रीज़ खराब हो जाती हैं। कोट के कपड़े का फॉल भी नहीं पता चलता हैं।

श्रद्धांजलि सभा में भी कमर की तकलीफ का हवाला देख कर कुर्सी पर बहुत सारे युवा बैठे हुए दिख जाते हैं। दिन का आरंभ डेढ़ फुट ऊंचे शौचालय पर बैठ कर करने वालों के घुटनों की रिप्लेसमेंट भी गारंटी से पूर्व समाप्त हो जाता हैं।

घुटने संबंधित रोग इसी ऊंचाई के कारण फल फूल रहें हैं। आने वाले समय में शल्य चिकत्सा में “घुटना विशेषज्ञ” एक अलग विषय बन जायेगा।

हमारे जैसे लोग इस “घुटना रोग ” से बहुत डरते है, क्योंकि हमारा दिमाग जो इन घुटनों में रहता हैं। इसलिए जमीं से जुड़े रहें, अंत में इसी जमीं का सहारा हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #255 ☆ फुकाची कमाई… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 255 ?

☆ फुकाची कमाई ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

नको काम धंदा फुकाची कमाई

विकू शेत खावू कुळाची कमाई

असे काम त्याचे नसे त्यास दर्जा

लुटारू म्हणे ही बळाची कमाई

 *

समाजास भोळ्या भले ठगविणारे

जिथे अंधश्रध्दा बुवाची कमाई

 *

कुठे काम नाही तरी आणतो हा

विचारी न कोणी कशाची कमाई

 *

जगी काम मोफत करी सिंचनाचे

कुठे होत आहे नभाची कमाई

 *

दुवा ईश्वराशी मला साधण्याला

दिली दक्षिणा ती भटाची कमाई

 *

करी कष्ट त्याला कुडे दाम मिळतो

मिळे ज्यास ठेका तयाची कमाई

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ११ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – ११ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

श्रावण

श्रावण आणि बालपण यांचं अतूट नातं आजही माझ्या मनात मी जपलेलं आहे. आम्ही एका गल्लीत राहत होतो. ज्या गल्लीत एकमेकांना चिकटून समोरासमोर घरं होती आणि तो असा भाग होता की एकमेकांना लागून आजूबाजूलाही अनेक लहान मोठ्या गल्ल्याच होत्या. कुठल्याही प्रकारचं सृष्टी सौंदर्याचं वातावरण तेथे नव्हतंच म्हणजे श्रावणातली हिरवा शालू नेसलेली अलंकृत नववधूच्या रूपातली धरा, श्रावणातलं ते पाचूच बन, मयूर नृत्य असं काही दृश्य आमच्या आसपासही नव्हतं. फारतर कोपर्‍यावरच्या घटाण्यावर हिरवं गवत मोकाट वाढलेलं असायचं. आमच्या घराच्या मागच्या गॅलरीतून खूप दूरवर धूसर अशी डोंगरांची रांग दिसायची आणि वर्षा ऋतूत त्या डोंगरावर उतरलेलं सावळं आभाळ जाणवायचं.

श्रावणातल्या ऊन पावसाच्या वेळी आकाशात उमटलेलं सप्तरंगी इंद्रधनुष्य मात्र आम्ही डोळा भरून पाहायचो. लहानपणी आम्हाला श्रावण भेटायचा तो तोंडपाठ केलेल्या बालकवी, बा. भ. बोरकर, पाडगावकर यांच्या कवितांतून. नाही म्हणायला काही घरांच्या खिडकीच्या पडदीवर कुंडीत, किंवा डालडाच्या पत्र्याच्या डब्यात हौशीने लावलेली झाडं असायची. त्यात विशेष करून झिपरी, झेंडू, सदाफुली, तुळस, कोरफड, मायाळू क्वचित कुणाकडे गावठी गुलाबाच्या झाडावर गुलाब फुललेले असायचे. गल्लीतलं सारं सृष्टी सौंदर्य हे अशा खिडकीत, ओसरीवर पसरलेलं असायचं. ज्या घरांना परसदार होतं त्या परसदारी अळूची पानं, कर्दळ, गवती चहाची हिरवळ जोपासलेली असायची पण मुल्हेरकरांच्या परसदारी मात्र मोठं सोनचाफ्याचं झाड होतं ते मात्र श्रावणात नखशिखान्त बहरायचं त्या सोनचाफ्याचा सुगंध सर्वत्र गल्लीत दरवळयचा. या दरवळणाऱ्या सुगंधात आमचा श्रावण अडकलेला असायचा. या सुवर्ण चंपकाच्या सुगंधात आजही मला बालपणीचा श्रावण कडकडून भेटतो.

श्रावणातील रेशीमधारात मात्र आम्ही सवंगडी मनसोक्त भिजलोय. “ये ग ये ग सरी माझे मडके भरी” नाहीतर “येरे येरे पावसा तुला देतो पैसा ” ही धम्माल बडबड गीतं पावसाच्या थेंबांना ओंजळीत घेऊन उड्या मारत गायली आहेत. गल्लीतले रस्तेही तेव्हा मातीचे होते. पावसात नुसता चिखलच व्हायचा. चिखलाचं पाणी अंगावर उडायचं. खड्ड्यात साचलेल्या पाण्यात कागदाच्या होड्या सोडतानाचा तो बालानंद अनुभवला. श्रावणातली हिरवळ आमच्या मनाच्या कोपऱ्याकोपऱ्यात अशा रितीने बहरायची. आमच्या मनातला श्रावणच पाचूचं बन होऊन उतरायचा. एकीकडे ऊन आणि एकीकडे पाऊस.. “आला रे आला पाऊस नागडा” करत मस्त भिजायचे.
संस्कार, परंपरा, त्यातली धार्मिकता, श्रद्धा, त्यामागचं विज्ञान, हवामान, ऋतुमान, विचारधारा या सर्वांचा विचार करण्याचं आमचं वयच नव्हतं. श्रावणातले सगळे विधी, सण सोहळे, पूजाअर्चा, व्रतं, उपवास हे आमच्यासाठी केवळ आनंदाचे संकेत होते आणि गल्लीत प्रत्येकाच्या घरी कमी अधिक प्रमाणात ते साजरे व्हायचेच.

माझे वडील निरीश्वरवादी होते असं मी कधीच म्हणणार नाही पण आमच्या कुटुंबात काही साजरं करण्यामागे कुठलाही कर्मठपणा नसायचा, सक्ती नसायची पण श्रावण महिना आणि त्यात येणारे बहुतेक सर्व सण आमच्या घरात आनंदाने साजरे व्हायचे. आज हे सगळं आठवत असताना माझ्या मनात विचार येतो की अत्यंत लिबरल, मुक्त विचारांच्या कुटुंबात, कुठल्याही कठीण नियमांना बिनदिक्कत, जमेल त्याप्रमाणे अथवा सोयीप्रमाणे फाटे फोडू शकणाऱ्या आमच्या कुटुंबात श्रावण महिन्याचं त्या अनुषंगाने येणाऱ्या रितीभातींचं उत्साहात स्वागत असायचं आणि या पाठीमागे आता जाणवते की त्यामागे होतं पप्पांचं प्रचंड निसर्ग प्रेम ! निसर्गातल्या सौंदर्याचा रसिकतेने घेतलेला आस्वाद आणि जीवन वाहतं रहावं म्हणून केलेला तो एक कृतीपट होता. धार्मिकतेचं एक निराळं तत्त्व, श्रद्धेच्या पाठीमागे असलेला एक निराळा अर्थ आमच्या मनावर कळत नकळत याद्वारे बिंबवला गेला असेल आणि म्हणूनच आम्ही परंपरेत अडकलो नाही पण परंपरेच्या साजरेपणात नक्कीच रमलो. तेव्हाही आणि आताही.

श्रावण महिन्यात घरी आणलेला तो हिरवागार भाजीपाला.. त्या रानभाज्या, ती रानफळे, हिरवीगार कर्टुली, शेवळं, भुईफोडं, मेणी काकडी, पांढरे जाम, बटाट्यासारखी दिसणारी अळू नावाची वेगळ्याच चवीची, जिभेला झणझणी आणणारी पण तरीही खावीशी वाटणारी अशी फळे, राजेळी केळी, केवड्याचे तुरे या साऱ्यांचा घरभर एक मिश्र सुगंध भरलेला असायचा. तो सुगंध आजही माझ्या गात्रांत पांघरलेला आहे.

श्रावण महिन्यातले उत्सुकतेचे वार म्हणजे श्रावणी शनिवार आणि श्रावणी सोमवार. श्रावणी सोमवारी शाळा ही अर्धा दिवस असायची. सकाळच्या सत्रात उपास म्हणून चविष्ट, खवलेला ओला नारळ, कोथिंबीर, लिंबू पिळलेली साबुदाण्याची खिचडी आणि संध्याकाळचे सूर्यास्ताच्या थोडं आधी केलेलं भोजन. शनिवारचा आणि सोमवारचा जेवणाचा मेनूही ठरलेला असायचा. सोवळ्यात चारी ठाव स्वयंपाक रांधायचा. त्या स्वयंपाकासाठी आईने आणि आजीने घेतलेली मेहनत, धावपळ आता जाणवते.

शनिवारी वालाचं बिरडं, अळूच्या वड्या, पंचामृत, अजिबात मीठ न घालता केलेली पिवळ्या रंगाची मूग डाळीची आळणी खिचडी आणि पांढरे शुभ्र पाकळीदार ओल्या नारळाच्या चवीचे गरमागरम मोदक, शिवाय लोणचं, पापड, काकडीची पचडी हे डाव्या बाजूचे पदार्थ असायचे आणि त्या दिवशीचं वैशिष्ट्य म्हणजे हिरव्यागार केळीच्या पानावर मांडलेला हा पाकशृंगार. सभोवती रांगोळी आणि मधल्या घरात ओळीने पाट मांडून त्यावर बसून केलेलं ते सुग्रास भोजन! पप्पाही ऑफिसमधून लवकर घरी यायचे. ते आले की आम्ही सगळे एकत्र जेवायला बसायचो, उदबत्तीच्या सुगंधात आणि वदनी कवळ घेताच्या प्रार्थनेत आमचं भोजन सुरू व्हायचं. आई आणि जीजी भरभरून वाढायच्या. त्या वाढण्यात भरभरून माया असायची. तसं आमचं घर काही फार मोठं नव्हतं पण झेंडूच्या फुलांनी सजलेला देव्हारा आणि भिंतीवर आणि चुलीमागे तांदळाच्या ओल्या पीठाने काढलेल्या चित्रांनी आमचं घर मंदिर व्हायचं. पप्पा आम्हाला जेवताना सुरस कहाण्या सांगायचे. एका आनंददायी वातावरणात जठर आणि मन दोन्ही तृप्त व्हायचं.

श्रावणी सोमवारही असाच सुगंधी आणि रुचकर असायचा. त्यादिवशी हमखास भिजवून सोललेल्या मुगाचे बिर्ड असायचे. नारळाच्या दुधात गूळ घालून गरमागरम तांदळाच्या शेवया खायच्या, कधीकधी नारळ घालून केलेली साजूक तुपातली भरली केळी असायची आणि त्या दिवशी जेवणासाठी केळीच्या पानाऐवजी दिंडीचं मोठं हिरवगार, गोलाकार पान असायचं. या हिरव्या पानात आमचा श्रावण आणि श्रावण मासातल्या त्या पारंपरिक पदार्थांचा सुगंध भरलेला असायचा. विविध पदार्थांचा आणि विविध फुलांचा सुगंध ! आणि या सगळ्या उत्सवा मागे कसली सक्ती नव्हती, परंपरेचं दडपण नव्हतं.. मनानं आतून काहीतरी सांगितलेलं असायचं म्हणून त्याचं हे उत्साही रूप असायचं. आमच्या जडण घडणीच्या काळात या परंपरेने आम्हाला जगण्यातला आनंद कसा टिकवावा हे मात्र नक्कीच शिकवलं. या इथे मला आताही— आमच्या वेळेचं आणि आत्ताचं— कालच आणि आजचं याची कुठेही तुलना करायची नाही. फक्त या आज मध्ये माझ्या कालच्या आनंददायी आठवणी दडलेल्या आहेत हे मात्र नक्की.

नागपंचमीला गल्लीत गारुडी टोपलीत नाग घेऊन यायचा. आम्ही सगळी मुलं त्या भोवती गोळा व्हायचो. गारुडीने पुंगी वाजवली की टोपलीतून नाग फणा काढून बाहेर यायचा. छान डोलायचा. मध्येच गारुडी त्याच्या फण्यावर टपली मारायचा. गल्लीतल्या आयाबाया नागाची पूजा करायच्या. एकाच वेळी मला भीती आणि त्या गारुड्याचं खूपच कौतुक वाटायचं.

जन्माष्टमीला आई देव्हाऱ्यातला एक लहानसा चांदीचा पाळणा सजवायची आणि त्यात सॅटीनच्या पिवळ्या आणि जांभळ्या रंगाची वस्त्रं घातलेला लंगडा बाळकृष्ण ठेवायची. यथार्थ पूजा झाल्यानंतर आई सोबत आम्ही,

श्रावण अष्टमीला देवकी पोटी
आठवा पुत्र जन्माला आला
छकुला सोनुला तो नंदलाला
जो बाळा जो जो जो जो रे कृष्णा…

असे गीतही म्हणायचो. त्यानंतर लोणी, दहीपोह्याचा, डाळिंबाचे लाल दाणे पेरून केलेला सुंदर दिसणारा आणि असणाराही प्रसाद मनसोक्त खायचा. एखाद्या जन्माष्टमीला आम्ही कुणाकडे होणाऱ्या संगीत मैफलीलाही हजर राहिलो आहोत. रात्रभर जागरण करून ऐकलेलं ते भारतीय शास्त्रीय संगीत कळत नसलं तरी कानांना गोड वाटायचं. ताई आणि पप्पा मात्र या मैफलीत मनापासून रंगून जायचे.

मंगळागौरीच्या खेळांची मजा तर औरच असायची. कुणाच्या मावशीची, मोठ्या बहिणीची अथवा नात्यातल्या कुणाची मंगळागौर असायची. फुलापानात सजवलेली गौर, शंकराची बनवलेली पिंडी, दाखवलेला नैवेद्य, सारंच इतकं साजीरं वाटायचं !
नाच ग घुमा कशी मी नाचू
अगं अगं सुनबाई काय म्हणता सासूबाई
एक लिंबं झेलू बाई 

अशा प्रकारची अनेक लोकगीतं आणि झिम्मा, फुगड्या, बस फुगड्या, जातं, गाठोडं असे कितीतरी खेळ रात्रभर चालायचे. मंगळागौरीच्या आरतीने समारोप झाला की झोपाळलेले डोळे घेऊन पहाटेच्या अंधारात घरी परतायचे. या साऱ्यांमध्ये एक महान आनंद काठोकाठ भरलेला होता.

दहीकाल्याच्या दिवशी टेंभी नाक्यावरची सावंतांची उंच टांगलेली दहीहंडी बघायला आमचा सारा घोळका पावसात भिजत जायचा. यावर्षी कोण हंडी फोडणार ही उत्सुकता तेव्हाही असायची पण पैसा आणि राजकारण याचा स्पर्श मात्र तेव्हा झालेला नव्हता.

राखी पौर्णिमेला तर मज्जाच यायची. बहीण भावांचा हा प्रेमळ सण आम्ही घरोघरी पहायचो पण आम्हाला भाऊ नाही याची खंत वाटू नये म्हणून स्टेशनरोडवर राहणारी आमची आते भावंडं आवर्जून आमच्या घरी राखी बांधून घ्यायला येत. गल्लीतल्याच आमच्या मित्रांनाही आम्ही राख्या बांधलेल्या आहेत. मी तर हट्टाने पप्पांनाच राखी बांधायची. भावाने बहिणीचे रक्षण करावे म्हणूनच ना राखी बांधायची मग आमच्या जीवनात आमचं रक्षण करणारे आमचे बलदंड वडीलच नव्हते का? त्या अर्थाने ते दीर्घायुषी व्हावेत म्हणून मी त्यांना राखी बांधायची. माझ्यासाठी मी रक्षाबंधनाला दिलेला हा एक नवीन अर्थ होता असे समजावे वाटल्यास.. याच नारळी पौर्णिमेला आम्ही सारे जण कळव्याच्या खाडीवर जायचो. खाडीला पूर आलेला असायचा. समस्त कोळी समाज तिकडे जमलेला असायचा. घट्ट गुडघ्यापर्यंत नेसलेलं रंगीत लुगडं, अंगभर सोन्याचे दागिने आणि केसात माळलेला केवडा घालून मिरवणाऱ्या त्या कोळणी आजही माझ्या नजरेसमोर आहेत.

समिंदराला उधाण आलंय
सुसाट सुटलाय वारा
धोक्याचा दिला इशारा
नाखवा जाऊ नको तू दर्याच्या घरा..

अशी गाणी गात, ठेक्यात चाललेली त्यांची नृत्यं पाहायला खूपच मजा यायची. आम्ही खाडीत नारळ, तांब्याचा पैसा टाकून त्या जलाशयाची पूजा करायचो आणि एक सुखद अनुभव घेऊन घरी यायचो. घरी सुगंधी केशरी नारळी भात तयारच असायचा. तेव्हा जाणवलं नसेल कदाचित पण या निसर्गपूजेने आम्हाला नेहमीच निसर्गाजवळ ठेवलं असावं.
श्रावणातला शेवटचा दिवस म्हणजे पिठोरी अमावस्या. दिवे अमावस्यानंतर श्रावण सुरू होतो आणि पिठोरी अमावस्येला तो संपतो. अंधाराकडून प्रकाशाकडे— हेच ते तत्त्व. तो असतो मातृदिन.

आमची आई देवापाशी बसून डोक्यावर हिरव्या पानात केळीचे पाच पेटते दिवे घेऊन आम्हाला विचारायची, “अतित कोण?”

मग आम्ही म्हणायचो, “मी”

असं आई चार वेळा म्हणायची आणि पाचव्या वेळी विचारायची, “सर्वातित कोण ?”

तेव्हाही आम्ही म्हणायचो, “मी”

काय गंमत असायची ! माय लेकीतल्या या तीन शब्दांच्या संवादाने आम्हाला जीवनात एकमेकांसाठी कायमस्वरूपी प्रेम आणि सुरक्षितताच बहाल केली जणू.

सर्वात हृद्य सोहळा असायचा तो माझी आजी डोक्यावर दिवा घेऊन पप्पांना विचारायची “अतित कोण?” तेव्हांचा. सोळाव्या वर्षापासून वैधव्यात काढलेल्या तिच्या उभ्या जन्माची एकमेव काठी म्हणजे आमचे पप्पा. आईच्या हातून दिवा घेताना पप्पांचे तेजस्वी डोळे पाणावलेले असायचे. तिच्या सावळ्या, कृश, कायेला त्यांच्या बलदंड हाताने मीठी मारून ते म्हणायचे,

“सर्वातित मीच”

या सर्वातित मधला श्रावण मी कसा विसरेन आणि कां विसरू ?

क्रमशः भाग अकरावा 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 207 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 207 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

 

किया देह का दोहन ।

किन्तु

अभी

पूरा नहीं हुआ था

गालव का अभीष्ट ।

शुल्क

में

जुट पाये थे

केवल छै सौ अश्व ।

चिन्तातुर

गालव ने

फिर स्मरण किया

मित्र गरुड़ का

परामर्श के लिये ।

गरुड़ ने पूछा –

क्यों मित्र

कृतकार्य हुए?

उदास गालव ने

कहा –

अभी बाकी है

गुरुदक्षिणा का

चौथाई भाग ।

गरुड़ ने कहा-

‘मित्र

पूर्ण नहीं होगा

तुम्हारा मनोरथ ।

और

इसका कारण है।

पूर्व काल में

राजा गाधि की पुत्री

सत्यवती को पत्नी रूप में पाने

ऋचीक मुनि ने

शुल्क रूप में

दिये थे

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 207 – “बहुत तराशा धैर्य…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत बहुत तराशा धैर्य...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 207 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “बहुत तराशा धैर्य...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

इतना चलकर कलकल

करते थका बहुत झरना

पानी का प्रवाह कुंठित

हो क्या करता बहिना ?

 

गति के सारे समीकरण

जो सह सह कर हारा

फिर भी मिटा सका न

अपना परिचय आवारा

 

बहुत तराशा धैर्य

तभी जाकर पुरुषार्थ

बना जिसे सहारा बना

प्रकृति में जिन्दा है रहना

 

पानी का सिद्धांत और

थी सचल धारणायें

जिनके चलते बनी रहीं

चंचला समस्यायें

 

बहुत बनी परिभाषा

जिनमें ठगा गया जल को

बहुत कहा लोगों ने आगे

जारी है कहना

 

इसकी यही अस्मिता

जगमें पहचानी सबने

सुना गये सारे विकल्प

चिन्तित होकर अपने

 

लोगो ने खोजा जिसमें

सम्भवतम अपनापन

वही बह गया पानी सा था

आज दुखी झरना

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

15-09-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

डॉ. नंद किशोर पाण्डेय

☆ कहाँ गए वे लोग # २९ ☆

☆ सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

सौम्य-आकर्षक व्यक्तित्व एवं प्रभावशाली वाणी के धनी डॉ. नंद किशोर पाण्डेय अपनी सरलता, सहजता, मिलनसारिता एवं विद्वता के लिए न सिर्फ अपने विद्यार्थियों, सहयोगियों के  वरन सम्पूर्ण समाज के प्रिय एवं आदरणीय थे। डॉ. पाण्डेय ने अर्थ शास्त्र में एम. ए. करने के उपरांत “स्वतंत्रता के पश्चात सहकारी आंदोलन के प्रति राज्य की नीति” विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। डॉ. पाण्डेय ने विभिन्न अवसरों पर अपने भाषणों, वक्तव्यों एवं लेखन के माध्यम से सहकारिता द्वारा सम्पूर्ण विकास पर अपने चिंतन को प्रस्तुत किया।

डॉ. पाण्डेय ने जी. एस. कामर्स कालेज, जबलपुर में आचार्य, विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य पद पर रहते हुए विद्यार्थियों सहित वाणिज्य एवं सहकारिता क्षेत्र को चिंतन की नई दिशा व ऊर्जा प्रदान की। डॉ. पाण्डेय रानी दुर्गावती वि.वि., जबलपुर सहित वाणिज्य संकाय ग्रामोदय वि.वि. चित्रकूट, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वि.वि. नई दिल्ली व भोजपुर, गुरु घासीदास वि.वि. रायपुर एवं रीवा, सागर तथा भोपाल विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र एवं वाणिज्य से संबंधित महत्वपूर्ण समितियों एवं पदों पर रहे। किसी विषय में गहरे उतर कर उसका तर्क पूर्वक विश्लेषण और फिर सहज सुपाच्य समाधान प्रस्तुत करना उनका कौशल था।

छत्तीसगढ़ स्थित बिलासपुर के निकट ग्राम गनियारी में 22 अगस्त 1932 को जन्मे डॉ. नंद किशोर पाण्डेय ने अपने पिता श्री ए.एल. पाण्डेय से प्राप्त शिक्षा स्पष्टवादिता, ईमानदारी, शोषण का विरोध और पीड़ितों की मदद  को जीवन का हिस्सा बना लिया। उन्होंने अशासकीय महाविद्यालयीन प्राध्यापक संघ के पदाधिकारी के रूप में शिक्षकों के हितों के लिए सार्थक संघर्ष किया। वे प्रदेश भर के शिक्षकों में जितने लोकप्रिय थे उतना ही स्नेह और सम्मान उन्हें सदा अपने छात्रों से भी प्राप्त हुआ। उनके एक छात्र और सहकारिता क्षेत्र के विशेषज्ञ श्री यशोवर्धन पाठक ने लिखा है कि लोग उनके व्याख्यान और लेखन में डूब जाया करते थे। उनके विषय में कहा जाता था कि डॉ. पाण्डेय बोलें या लिखें सब कुछ अच्छा लगता है। 18 मार्च 1998 को जबलपुर के डी.एन. जैन महाविद्यालय में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी थी जिसकी अध्यक्षता डॉ. पाण्डेय ने की। पाण्डेय जी ने उद्बोधन दिया, लोगों से प्रशंसा व स्नेह प्राप्त किया और कार्यक्रम की समाप्ति पर ही अचानक हृदयाघात से उनका निधन हो गया। लोगों ने एक विद्वान चिंतक व हितैषी खो दिया।

विद्वतजनों के अनुसार डॉ. पाण्डेय के पास हमेशा जटिल प्रश्नों के आसान जवाब होते थे। संभवतः यही कारण था कि चाहे विद्यार्थी हों अथवा साथी डॉ. पाण्डेय का सत्संग उन्हें तनाव मुक्त कर नई स्फूर्ति से भर देता था। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं – 1* सहकारी नेतृत्व, सहकारी नीति, सहकारी आंदोलन  2* सहकारी नेतृत्व और को- आपरेटिव प्लानिंग फॉर एग्रीकल्चर एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट, चिंतन सूत्र। पाण्डेय जी ने तथ्य परक और शोध पूर्ण सैकड़ों लेख लिखे जो देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, आकाशवाणी से प्रसारित हुए। आपके कुछ आलेख आपकी विदुषी सुपुत्री डॉ. वंदना पाण्डेय द्वारा संपादित पुस्तक “दृष्टिकोण” में संग्रहित हैं। रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के पूर्व कुलपति डॉ. कपिलदेव मिश्र ने लिखा है कि उन्हें डॉ. पाण्डेय की सहजता, सरलता, सौम्यता, ज्ञान-गरिमा, कर्म निष्ठा, अनुभव शीलता एवं मौलिकता से परिचित होने का अवसर महात्मा गांधी ग्रामोदय चित्रकूट विश्वविद्यालय में मिला जब वे वहां वाणिज्य विभाग के विभागाध्यक्ष एवं अधिष्ठाता थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार, चिंतक डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी के अनुसार डॉ. पाण्डेय शीलवान संस्कारी और बौद्धिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति थे। वे गंभीर समीक्षक-विश्लेषक थे।

उपदेश देने के बजाय समाज के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करने वाले स्मृति शेष विद्वान शिक्षाविद् डॉ. नंद किशोर पाण्डेय जी को सादर नमन।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 192 ☆ # “सपने” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सपने

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 192 ☆

☆ # “सपने” #

सुबह की चहचहाती चिड़ियों के

फूलों की लटकती हुई लड़ियों के

क्षितिज पर चमकती हुई बिंदीया के

किरणों की शरारत से

उड़ती हुई निंदिया के

पनघट पर रून-झुन रून-झुन

पायल के

सखियों की तानों से आहत

घायल के

मंद-मंद खुशबू

बिखेरती पवन के

रंग-बिरंगे फूलों से

भरे चमन के

जिन्हें देखकर दिल

करता वाह-वाह है

अब तो ऐसे सपने

दिखाते जीने की राह है

 

सपने –

प्रातः काल अलसाये से

छोड़ते हुए अपने नीड़ के

मजबूरी में सुबह-सुबह

दौड़ती हुई भीड़ के

रोटी के बदलते हुए

नये नये रंग के

भूख के लिए

होती हुई जंग के

थके हुए बेबस

झुलसे हुए पांव के

अपने बच्चे को बचाती

मां की आंचल की छांव के

बुलडोजर से उजड़ती हुई

बस्तियों के

मंझधार में गृहस्थी की

डूबती हुई कश्तीयों के

कल आबाद थी

वह बस्तियां आज तबाह है

अब तो ऐसे सपने

देखना भी गुनाह है

 

सपने –

पेशोपेश मे पड़े

हुए बलम के

गिरवी रखी हुई

कलमकार के कलम के

ग्रह नक्षत्रों में उलझे

हुए सनम के

हाथ की लकीरों ने

फैलाये हुए भरम के

दिन-ब-दिन बदलती

हुई तस्वीर के

पांव में पहनी

हुई जंजीर के

वंचितों की आंखों से

बहते हुए नीर के

उनके हृदय में

उठती हुई पीर के

ऐसा कुछ पाने की  

इन आंखों में चाह है

अब तो ऐसे टूटते सपनों को

कौन देता पनाह है

 

सपने भी कितने अजीब होते हैं  

कभी हंसाते हैं कभी रूलाते हैं  

जीवन बेरंग हो जाता है

जब सपने टूट जाते है /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – प्रतीक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता ‘प्रतीक्षा…‘।)

☆ कविता  – प्रतीक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

निशि दिन प्रतीक्षा,

है उस घड़ी की

राहों में तेरी,

आंखें बिछाए,

 

आओगी जब तुम,

दर पर हमारे,

घूंघट की बदली में,

मुखड़ा छुपाए,

 

रेशम की साड़ी में,

सिमटी रहोगी,

पलकों में मीठे,

सपने संजोए,

 

पायल की छनछन में,

कंगन की खनखन में,

यादों की मीठी,

धुन को संजोए

 

आंखों में काजल,

माथे पर बिंदी,

पलकों की चिलमन में,

लज्जा छुपाए…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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