हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

 ** होली स्पेशल सीरीज़ **

इस बार असहमत अपने पिताजी का escort बनकर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के बाद, कोविड वैक्सीन लगवाने  प्राइवेट चिकित्सालय पहुँचा कि शायद यहाँ भीड़  न हो पर अनुमान के विपरीत भीड़ थी जो कोविड प्रोटोकॉल के पालन से बेखबर होने का पालन कर रहे थे. सोशल डिस्टेंसिंग से ‘सोशल’ और ‘डिस्टेंस’ दोनों ही गायब थे, परिचित भी अपरिचितों जैसा व्यवहार कर रहे थे. असहमत और उसके पिता तो मॉस्क पहनकर आये थे पर ये अनुशासन बहुत कम ही दृष्टिगोचर हो रहा था. मौसम गर्म था और सीनियर सिटीज़न या तो कतार में त्रस्त थे या फिर थकहार कर छाँह की तलाश में नज़र दौड़ा रहे थे.  प्रसिद्ध मंदिरों के समान VIP दर्शन /इंजेक्शन की विशेष व्यवस्था यहाँ भी थी पर उसकी पात्रता से असहमत हमेशा की तरह दूर ही था और उसे ये चिंता सता रही थी कि संक्रमण कहीं ‘क्यू’ याने ‘कतार में ही तो नहीं खड़ा होकर अपना शिकार तलाश रहा हो.

अचानक ही असहमत की नज़र कार से उतर रही युवती पर पड़ी और उसे B. Sc. First year की क्लास याद आ गई. “सन्मति कुलश्रेष्ठ ” जो शायद अब डॉक्टर सन्मति कुलश्रेष्ठ बन चुकी थी, किसी जमाने में असहमत की सिर्फ इस क्लास की क्लासफेलो थी. सन्मति के फॉदर नगर के जानेमाने सर्जन थे और सन्मति का टॉरगेट भी वही था. जब व्यक्ति लक्ष्य निश्चित कर के समर्पित होकर आगे बढ़ता है तो अगले मोड़ पर सफलता खड़ी रहती ही है. सन्मति, सौंदर्य, स्मार्टनेस और बुद्धिमत्ता का विधाता का रचा गया कांबिनेशन थी या है . सन्मति कुलश्रेष्ठ  कभी असहमत की भी क्लासफेलो थी और क्लास के बहुत से छात्र जिनकी कोई क्लास नहीं थी,  “ईश्वर अल्लाह तेरो नाम हमको सन्मति दे भगवान ” भजन अक्सर गाया करते थे. सन्मति के जीवन में उस समय भी इस फिल्मी चोंचलेबाजी से कहीं अलग अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने की प्राथमिकता सबसे ऊपर थी. तो सन्मति का सिलेक्शन नगर से दूर के मेडीकल कॉलेज में MBBS के लिये हो गया और लक्ष्यहीन मस्तीखोर असहमत और उसके साथी  ग्रेजुएशन पूरा करने की लक्ष्यहीन और “सन्मतिहीन ” यात्रा में आगे बढ़ गये. असहमत का ग्रुप शेयर करने में विश्वास रखता था और ये भावना उनके इक्ज़ाम्स के रिजल्ट में भी नजर आती थी. 100% मार्क्स में ग्रास मार्क्स मिलाकर तीन दोस्त पास हो जाते थे. इस % पर साईंस फैकल्टी में पोस्टग्रेजुऐशन में एडमीशन मिलना तो संभव ही नहीं था पर लक्ष्यहीन छात्रों के लिये मॉस्टर ऑफ आर्टस फैकल्टी के दरवाजे हमेशा की तरह खुले थे जो वेस्ट waste प्रोडक्ट को रिसाइकल करके नेचरल गैस बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रयोग करती रहती थी. इस फैकल्टी में अगर पोस्टग्रेजुऐशन में अच्छे नंबर आ गये तो हो सकता है कि रजिस्ट्रेशन  P. HD. के लिये हो जाये.फिर बाल पकते पकते थीसिस कंप्लीट हो कर अवार्ड हो जाये और ग्रेज्यूयेशन की नाम के पहले डॉक्टर लिखने की इच्छा पूरी हो जाय.और अगर PHD नहीं कर पाये या इसके लिये सिलेक्ट नहीं हो पाये तो बहुत सारे विषय हैं जिनमें एक के बाद एक M.A.की जा सकती है जब तक कि कोई जॉब न मिल जाय या फिर कोई  स्टार्ट अप प्रोजेक्ट शुरू न हो जाय. बहुत सारे दोस्त कॉलेज जाने के आकर्षण के चलते दो तीन विषयों में एम. ए. करने में व्यस्त हो गये पर असहमत ने  सिर्फ इकॉनामिक्स में  MA करने के बाद MBA करना ज्यादा सही समझा और आज उसके पास एक गुमनाम सेठ कॉलेज की MBA की डिग्री भी आ चुकी है.

अचानक ही किसी के छींकने की आवाज़ से अतीत की सोच को छोड़कर असहमत वर्तमान में आया और अपने पिताजी को वेक्सीन लगवाने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गया. वेक्सीन लगने के बाद तीस मिनट के ऑब्जरवेशन पीरियड के दौरान पिताजी को मित्र मिल गये तो उन्हें गपशप करने के लिये छोड़कर और “just coming कहकर हॉस्पिटल का राउंड लगाने चल दिया. दिल के किसी कोने में डॉक्टर सन्मति को फिर से देखने की हसरत तो थी पर साहस नहीं था. क्लास की डेस्क की नजदीकियां कैरियर और स्टेटस के आधार पर कब दूरियों में बदल जाती हैं पता नहीं चलता. वैसे भी कुत्तों से डरना और लड़कियों से शरमाना असहमत के जन्मजात गुण थे.पर अचानक ही उसका सामना, सामने से राउंड पर आती डॉक्टर सन्मति कुलश्रेष्ठ से हो ही गया.

क्रमशः….

**कहानी जारी रहेगी**

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 5 – आज मुझे वर दे — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “आज मुझे वर दे –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 5 ✒️

? गीत – आज मुझे वर दे —  डॉ. सलमा जमाल ?

(वन्दना)

आज मुझे वर दे माता ,

आज मुझे वर दे ।

द्वार तुम्हारे आई हूं ,

खाली झोली भर दे ।।

 

आशाओं के दीप जलें ,

चेहरे सबके दमकें ,

सारे दुख अवसाद मिटें ,

भाग्य सभी के चमकें ,

भक्त गण हैं आस लगाए ,

उनके पाप दूर कर दे ।

आज मुझे ——————- ।।

 

शस्य – श्यामला धरती पर ,

क्यों सूखे की मार ,

राम – रहीम की भूमि पर ,

क्यों है अत्याचार ,

खेतों में कंचन बरसा ,

कृषक दरिद्रता हर ले ।

आज मुझे ——————–।।

 

नारी की रक्षा कर देवी ,

अस्मत आके बचा ले ,

हम अबला – सबला होवें ,

ऐसा व्यूह रचा ले ,

ज्ञान की वर्षा कर ऐसी ,

हृदय तिजोरी भर दे ।

आज मुझे ——————–।।

 

वंदना के शब्द नहीं हैं ,

संपूर्ण हृदय की भावना ,

वसुदेव कुटुंबकम हो सुखी ,

है यही हमारी कामना ,

जन्म सफल हो सलमा का ,

कलम अमर कर दे ।

आज मुझे ——————–।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #89 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में… – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #89 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण) – 5 ☆ 

गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण :-   

(iii) दमोह में सभा के दौरान गांधी जी ने लोगो से चंदा देने की अपील की। दमोह में लोगों ने दिल खोल कर चंदा दिया था। किसी ने जेवर तो किसी ने चांदी की चवन्नी।  गोदावरी बाई धगट भी वहां मौजूद थीं। उन्होंने अपने कानों से सोने के कर्णफूल निकाले और मंच की ओर बढ़ीं। इस बीच एक कर्णफूल भीड़ में कहीं गिर गया। गोदावरी धगट  ने गांधी जी से कहा कि वह दोनों कर्णफूल देने आईं थी, लेकिन एक कहीं गिर गया। गांधी जी ने मंच से कहा, जिस किसी को भी कर्णफूल मिला हो, वहा यहां लाकर दे सकता है, देश की आजादी के लिए इसकी जरूरत है। कुछ ही देर बाद, हजारों की भीड़ के बीच से एक व्यक्ति मंच तक पहुंचा और कर्णफूल गांधी जी को दे गया।

(iv) 02 दिसंबर 1933 को गांधीजी मीरा बहन के साथ देवरी में सभा को संबोधित करने जा रहे थे।  तब नन्ही बाई नामक दस वर्षीय बालिका गांधीजी को निकट से देखने के प्रयत्न में मोटर कार से टकराकर गिर पड़ी और चोटिल हो गई। मीरा बहन ने उसे अपनी कार में बिठाया और अस्पताल लेकर गई थी।  सभा स्थल से लौटकर गांधीजी नन्ही बाई को देखने अस्पताल गए। तब नन्ही बाई भी गांधीजी को इतने निकट से देखकर गदगद हो गई और अपना दर्द भूल गई।

(v) 20 अप्रैल 1935 को गांधीजी जब दूसरी बार इंदौर पधारे तो सेठ हुकुमचंद ने उन्हें, मीरा बहन व कस्तूरबा गांधी को अपने निवास स्थल ‘इन्द्र भवन’ में भोजन के लिए आमंत्रित किया।  भोजन के समय जो घटना घटी वह गांधीजी की हास्यप्रियता को दर्शाती है।  सेठ जी के यहाँ गांधीजी को सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन परोसा गया।  इस पर गांधीजी ने सेठ जी से मजाक में कहा कि ‘मेरा नियम है कि मैं जिन बर्तनों में भोजन करता हूं वे मेरे हो जाते हैं।‘ सेठ हुकुमचंद ने विनम्रता पूर्वक कहा कि ‘जी महात्मा जी।’ इस पर गांधीजी खिल खिलाकर हंस पड़े और अपने साथी रामानंद नवाल से कहा कि ‘ मेरे बर्तन कहां हैं, लाओ उन्हें।‘ अंत में गांधीजी ने अपने साधारण बर्तनों में भोजन ग्रहण किया।

(vi) गांधीजी जब खंडवा पधारे तब सफाई कर्मियों की हड़ताल चल रही थी, गांधीजी ने ऐसी परिस्थिति  में स्वयं शौचालयों की सफाई की। उनके खानपान संबंधी हिदायतें तो खंडवा के लोगों को पहले से पता थी और दूध की व्यवस्था हेतु कुछ बकरियाँ जिला कांग्रेस के महामंत्री रायचंद नागड़ा के यहाँ बांध दी गई। जब लोगों को पता चला कि गांधीजी को इन्ही बकरियों का दूध अर्पित किया जाएगा तो लोगों ने श्रद्धा भाव से इन बकरियों को काजू, किसमिस, बादाम आदि मेवे खिलाने शुरू कर दिए।

(vii) गांधीजी 01 दिसंबर को इटारसी से रेलगाड़ी पकड़ करेली पहुंचे। यहां से वे सागर जाने वाले थे। बरमान घाट पर गांधीजी को नाव से नर्मदा नदी पार करनी थी। नदी तट पर मल्लाहों ने उन्हें अपनी नौका पर चढ़ाने से इंकार कर दिया।  मल्लाहों की जिद्द थी कि वे गांधीजी के चरण धो चरणामृत पीने के बाद ही उनको नर्मदा नदी पार कराएंगे। गांधीजी इस आग्रह को स्वीकार नहीं कर रहे थे पर मल्लाह भी अपनी बात पर अड़े रहे। आखिरकार गांधीजी को बरमान घाट के भोले भाले मल्लाहों का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। और इस प्रकार कलयुग में प्रभु श्रीराम के चरण केवट द्वारा धोने की पौराणिक कथा एक बार फिर दोहराई गई.

(viii)  जबलपुर में गांधीजी श्याम सुंदर भार्गव की कोठी में ठहरे थे। जबलपुर में एक पत्रकार के प्रश्न का उत्तर देते हुए गांधीजी ने कहा कि जबलपुर का पूरा दायित्व दो तरुण व्यापारियों के हाथों में था, जबकि यहां के वकीलों के एक वर्ग ने असहयोग आंदोलन में दूरी बनाए रखी। इस बात का प्रतिरोध यहाँ के बैरिस्टर ज्ञानचंद वर्मा ने करते हुए कहा कि उन्होनें तो गांधीजी के आह्वान पर पिछले वर्ष ही वकालत छोड़ दी है।  गांधीजी ने वर्मा जी की बात धैर्यपूर्वक सुनी और उनके साहसपूर्ण प्रतिरोध की प्रसंशा की और सभी वकीलों से अदालत का बहिष्कार करने का आह्वान किया।

(ix) मध्य प्रदेश यात्रा के दौरान गांधीजी के आश्रय स्थल  अमीरों के महलनूमा आवास से लेकर धर्मशाला और गरीबों की झोपड़ी भी बने। जब गांधीजी 30 नवंबर 1933 को वर्धा से इटारसी पहुंचे तो उनके रुकने की व्यवस्था रेलवे स्टेशन के नजदीक सेठ लखमीचन्द गोठी की धर्मशाला में की गई। गांधीजी धर्मशाला की स्वच्छता  व अच्छी  व्यवस्था से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी हस्तलिपि में इसकी प्रसंशा करते हुए लिखा ‘इस धर्मशाला में हम लोगों को आश्रय दिया गया, इसके लिए हम संचालकों का आभार मानते हैं। यह जानकर कि  स्वच्छता से रहने वाले हरिजनों को भी स्थान मिलता है बहुत हर्ष हुआ।‘  यहां से उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी की जन्मस्थली बाबई जाने के बारे में भी पूछताछ की पर रास्ता खराब होने के कारण उस वक्त उनका बाबई जाना स्थगित हो गया।

(x) गांधीजी का माखनलाल चतुर्वेदी के प्रति बहुत अनुराग था, उनकी वाक्शक्ति व भाषण देने की कला से गांधीजी बहुत प्रभावित थे। इसीलिए  वे जबलपुर से सोहागपुर होते हुए जब बाबई पहुंचे तो इस अनुराग को उन्होंने आमसभा में व्यक्त किया। गांधीजी ने कहा कि ’ माखनलाल जी की जन्मभूमि देखने को मेरा मन बाबई  में ही लगा हुआ था। मैं यहां हरिजन कोष  के लिए दान लेने नहीं आया हूं। आपने अपने मानपत्र में यहाँ की कार्यकर्ताओं के कष्टों का जो विवरण दिया है, उसका मेरे मन पर असर हुआ है। यदि हरिजन मंदिर नहीं जा पाते तो याद रखो कि इस मंदिर में भगवान का वास नहीं है।‘    

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 113 ☆ गज़ल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 113 ?

☆ गज़ल ☆

(वृत्त-मनोरमा)

दूर माझे गाव आहे

चांगले से नाव आहे

 

हे कुणाला काय ठावे

कुंपणाशी धाव आहे

 

एवढेही खूप झाले

त्या तिथे ही वाव आहे

 

काल जे स्वीकारले तू

आज का मज्जाव आहे

 

 भोग माझा वेगळा हा

काळजाशी घाव आहे

 

सांज झाली का अवेळी

संपलेला डाव आहे

 

 कोळियाला सांग राजा

मासळीला भाव आहे

 

वल्हवू आता कशी मी

कागदाची नाव आहे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १६ – भाग ३ – नाईलकाठची नवलाई ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १६ – भाग ३  ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ नाईलकाठची नवलाई ✈️

लक्झर इथे व्हॅली ऑफ किंगमध्ये तुतान खामेनची लुटारूंच्या नजरेतून वाचलेली टूम्ब मिळाली. त्यातील अमूल्य खजिना आता  कैरो म्युझियममध्ये आहे. तिथल्या दुसऱ्या दोन Tomb  मधील तीन हजार वर्षांपूर्वीचे कोरीवकाम व त्यातील रंग अजूनही सतेज आहेत. लाल, पिवळा, निळा, हिरवा, निळीसारखा  असे नैसर्गिक रंग चित्रलिपीसाठी आणि चित्रांसाठी वापरले आहेत. पन्नास फूट उंच छतावर तीस फूट लांबीची आकाशाची देवता कोरून रंगविली आहे. तिने तिच्या दोन्ही भूजांनी आकाश तोलून धरले आहे अशी कल्पना आहे. तिच्या पायघोळ, चुणीदार,निळीसारख्या रंगाच्या घागऱ्यावर चमचमणारी नक्षत्रे, चांदण्या पाहून आपण थक्क होतो. राजासाठी पालखी, २४ तासांचे २४ नोकर कोरलेले आहेत. प्रत्येक खांबाच्या कमानीवर पंख पसरलेला रंगीत गरुड आहे. भिंतीवर रंगीत चित्रलिपी कोरली आहे.

‘क्वीन हरशेपसूत’  हिचे देवालय पाहिले. इजिप्तवर राज्य करणारी ही एकमेव राणी! बावीस वर्षे तिने पुरुषी ड्रेस, एवढेच नव्हे तर राजाची खूण असलेली कृत्रिम सोनेरी दाढी लावून राज्य केले. तीन मजले उंच असलेले तिचे देऊळ डोंगराला टेकून उभे आहे. इथेही पुनर्बांधणी केली आहे. गाय रूपात असलेल्या हॅथर या देवतेची चित्रे सीलिंगवर व इतरत्र कोरली आहेत. या राणीने प्रथमच दूर देशातून तऱ्हेतऱ्हेची रोपे मागवून बगीच्या करण्याचा प्रयत्न केला होता.

साडेतीन हजार वर्षापूर्वी लक्झर येथे एक अति भव्य देवालय बांधण्यात आले. अमन या मुख्य देवतेच्या वर्षारंभाच्या उत्सवासाठी याचे भले मोठे आवार वापरले जात असे. चार राजांच्या कालखंडात हे बांधले गेले. रामसेस (द्वितीय) या राजाचे पन्नास फुटी सहा पुतळे इथे आहेत. आस्वान इथल्या खाणीतून आणलेल्या गुलाबी रंगाच्या ग्रॅनाईटने केलेले हे सारे काम अजूनही चकाकते आहे. राजाचे तोंड आणि सिंहाचे अंग असलेले बावीस बैठे पुतळे दुतर्फा बसविले आहेत. खांबांवर केलेले कोरीवकाम व त्यावरील रंगकाम बऱ्याच ठिकाणी चांगले राहिले आहे. कोरीव  चित्रांमध्ये सूर्यदेवाचे आकाशातील भ्रमण कोरले आहे. देवळाबाहेर अजूनही असलेल्या तलावातील पाणी धार्मिक कृत्यांसाठी वापरले जात असे. करनाक येथील देवालय तर यापेक्षाही भव्य आहे. सारेच भव्य आणि अतिभव्य!

काळाच्या उदरात काय काय गडप झाले  कोण जाणे! पण जे राहिले आहे त्यावरूनही त्या वैभवशाली गतकाळाची कल्पना येऊ शकते.कैरोजवळ असलेले तीन भव्य पिरॅमिड्स म्हणजे मानवनिर्मित भव्य पर्वतच  वाटतात. फक्त मधल्या पिरॅमिडच्या टोकाला पूर्वी असलेला गुळगुळीतपणा दिसतो. बाकी सारे दगड वाऱ्यापावसाने व मानवाच्या लालसेने उघडे पडले आहेत. त्यांच्या पुढ्यात Sphinx म्हणजे राजाचे तोंड असलेले सिंहाचे प्रचंड शिल्प आहे. त्याच्या नाकाचा तुर्की लोकांनी नेमबाजीच्या सरावासाठी उपयोग करून ते विद्रूप करून ठेवले आहे.कैरोमध्येच सलाहदिनची मशीद आहे .या मशिदीचा घुमट पारदर्शक दगडाने बांधलेला आहे. आतील दोन अर्धगोलाकार घुमट, हंड्यांमधील दिव्यांनी उजळले होते.  तिथे जवळच सुलतानाच्या किल्ल्यावर चर्च बांधले आहे. अलेक्झांडर दी ग्रेट याने वसविलेले राजधानीचे शहर अलेक्झांड्रिया इथे गेलो. तेथील उत्खननात ॳॅम्फी थिएटर सापडले. अलेक्झांड्रिया बंदरामधून बोटींना मार्गदर्शन करणाऱ्या दीपगृहाचा दगडी , भव्य खांब समुद्र तळाशी गेला आहे.कॅटाकोम्ब इथे  रोमन व ग्रीक राजांनी इजिप्तशिअन राजांप्रमाणे स्वतःसाठी बांधलेले Tomb  आहेत.

भूमध्य समुद्राच्या (मेडिटरियन सी) हिरव्या, निळ्या, फेसाळणार्‍या, धडकणाऱ्या शुभ्र लाटांनी अलेक्झांड्रियाचा समुद्रकिनारा मनाला उल्हसित करीत होता. स्वच्छ सूर्यप्रकाशात रुंद रस्त्यांवरून प्रवाशांचे रंगीबेरंगी ताफे हिंडत होते. आपल्या मरीनलाइन्सच्या चौपट मोठा किनारा उंच इमारतींनी वेढला होता. मोहम्मद अली या शेवटचा राजाचा महाल आता सप्ततारांकित हॉटेल झाला आहे.

कालौघात हरवून गेलेल्या या इजिप्तशियन संस्कृतीचा काही अंश आपण पाहू शकतो याचे मुख्य श्रेय ब्रिटिश, फ्रेंच व स्वीडीश संशोधकांना आहे. त्यांची चिकाटी, परिश्रम व प्रतिकूल परिस्थितीत काम करण्याची वृत्ती यामुळेच हा अमूल्य खजिना जगाच्या नजरेला आला. आधुनिक विज्ञानाने व युनेस्कोसारख्या संस्थेने हे धन जपण्यास मदत केली आहे. तिथले आर्किऑलॉजिकल डिपार्टमेंट परदेशी शास्त्रज्ञांच्या, तज्ज्ञांच्या सहाय्याने जे सापडले आहे ते टिकविण्यासाठी केमिकल्सचे लेपन, पुनर्बांधणी करीत आहे. आणखी ठेवा शोधण्यासाठी संशोधनाचे काम चालू आहे.

इजिप्तने टुरिझम ही इंडस्ट्री मानून प्रवाशांसाठी उत्तम वातानुकूलित बसेस,क्रूझचा सुंदर ताफा, प्रशिक्षित गाइड्स, गुळगुळीत रस्ते, हॉटेल्स उभारली आहेत.ठिकठिकाणी स्वच्छतागृहे आहेत. उसाचा रस उत्तम मिळतो. फलाफल नावाचा पदार्थ म्हणजे छोट्या फुगलेल्या भाकरीमध्ये पालेभाजी घालून केलेले डाळ वडे घालून त्यावर सॅलड पसरलेले असते. ते चविष्ट लागते. तसेच शिजविलेल्या कडधान्यावर स्पॅगेटी, चटण्या, टोमॅटो वगैरे घालून केलेला कुशारी नावाचा प्रकार आपण आवडीने खाऊ शकतो. परदेशी प्रवाशांना छोटे विक्रेते किंवा कोणाकडूनही त्रास होऊ नये म्हणून पोलिसांच्या गाड्या सतर्कतेने फिरत असतात. रात्रीच्या वेळी दिव्यांच्या माळांनी नटलेल्या क्रूझमधील प्रवाशांच्या मनोरंजनासाठी फॅन्सी ड्रेस स्पर्धा, बेली डान्स, जादूचे प्रयोग, उत्तम जेवण असते.

इजिप्तसारखा छोटा देश जे करू शकतो ते आपल्याला अशक्य आहे का? सुजलाम् सुफलाम् असलेल्या आपल्या देशाची सांस्कृतिक श्रीमंती कित्येक पटीने मोठी आहे.जगभरच्या प्रवाशांना भारत बघायचा आहे. इथले चविष्ट पदार्थ खायचे आहेत. कलाकुसरीच्या वस्तूंची खरेदी करायची आहे. पण त्यासाठी उत्तम रस्ते, वाहतुकीची साधने, स्वच्छता, सोयी-सुविधा, संरक्षण यात आपण कमी पडतो. पर्यटन म्हणजे लाखो लोकांना रोजगार देणारा, देश स्वच्छ करणारा एक उत्तम उद्योग म्हणून पद्धतशीर प्रयत्न करणे आवश्यक आहे. हल्ली आपल्या मध्य प्रदेश, राजस्थान, केरळ , गुजरात गोवा वगैरे ठिकाणी  प्रवाशांसाठी चांगल्या सोयी केल्या आहेत. महाराष्ट्रात मात्र याबाबत खूप प्रयत्न करणे जरुरी आहे.

नाईल नदी इतकी स्वच्छ कशी? याचे उत्तर क्रूजवरील प्रवासातच मिळाले. या सर्व दीडशे-दोनशे क्रूज वरील कचरा वाहून नेणाऱ्या तीन-चार कचरा बोटी सतत फिरत असतात. सर्व क्रूज वरील कचरा त्या बोटींवर जमा होतो. एवढेच नाही तर बोटींवरील ड्रेनेजही सक्शन पंपाने कचरा बोटींवर खेचले जाते व नंतर योग्य ठिकाणी त्याची विल्हेवाट लावली जाते. माझ्या डोळ्यांपुढे भगीरथाने भगीरथ प्रयत्नाने आणलेली पवित्र गंगा नदी आली. आम्ही ड्रेनेज, केमिकल्स, आणि प्रेते टाकून गंगेची व इतर सर्व नद्यांची करीत असलेली विटंबना आठवून मन विषण्ण, गप्प गप्प होऊन गेले.

भाग ३ व नाईल काठची नवलाई समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 12 – दिल सभी का नेक था… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “दिल सभी का नेक था… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 12 – दिल सभी का नेक था…  ☆ 

समांत-ईत

पदांत- की

मात्राभार- 19

 

याद आती है कभी मनमीत की।

बादलों से तरबतर संगीत की ।।

 

थे क्वाँरे स्वप्न तब मधुमास के,

डोर में जब बंँध गए थे प्रीत की।

 

भौंरों का गुँजन है मन को भा गया,

पंक्तियांँ तब बन गई थीं गीत की।

 

प्रेम का वह दौर है बढ़ता गया,

लहर आई थी अचानक शीत की।

 

अजनबी से चल दिए मुख मोड़कर, 

होती थी यह पटकथा अतीत की।

 

दिल सभी का नेक था, ईमान था,

राह पकड़े थे सदा नवनीत की।

 

उमर की जब झुर्रियां हैं बढ़ गईं,

जिंदगी को गर्व है अब जीत की।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

14 जून 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 107 – लघुकथा – तलाश ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय लघुकथा  “तलाश ” । इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 107 ☆

? तलाश ?

बारात के साथ सिर पर लाईट का सामान लेकर चली जा रही, लाईन पर एक महिला के साथ-साथ करीब आठ साल का बच्चा अपनी मां का आंचल पकड़े-पकड़े चले जा रहा था।

कंपकंपी सी  ठंड से हाथ पैर सिकुड़े चले जा रहे थे। मनुष्य न जाने कितने-कितने स्वेटर-शाल ओढ़े चल रहे थे। परंतु, वह बच्चा एक साधारण सी स्वेटर पहने माँ का आँचल पकड़कर चल रहा था। सभी की नजर पड़ रही थी परंतु कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था।

बारात के साथ-साथ चलते-चलते दूल्हे के ताऊजी लगातार उस बच्चे को देखते पूछते और कहते चले जा रहे थे-  “क्यातुम्हें ठंड नहीं लग रही?” बार-बार के पूछने पर बच्चे ने उनसे कहा – “आज मां के दोनों हाथ ऊपर लाईट पकड़े हुए हैं और वह मुझे आज अपने आंचल से नहीं भगा रही है। इसलिए मुझे ठंड नहीं लग रही आज माँ  के साथ-साथ मैं चल रहा हूं मुझे बहुत अच्छा लग रहा, ठंड नहीं लग रही है।“

बारात अपने गंतव्य पर पहुँच चुकी थी। स्वागत सत्कार होने लगा।  दूल्हे के ताऊ जी ने पता लगाया कि वह उसकी अपनी संतान नहीं है, उसके पति की पहली बीवी का बच्चा है जो उसे छोड़कर मर चुकी है।

स्वागत के बाद सभी खाना खाने पंडालों की ओर बढ़ने लगे। अचानक आर्केस्ट्रा पर गाना बजने लगा…

तुझे सूरज कहूँ  या चंदा

तुझे दीप कहूँ  या तारा

मेरा नाम करेगा रोशन

जग में मेरा राज दुलारा

धूम-धड़ाके के बीच और सभी एक दूसरे का मुँह  देखने लगे।

तभी दूल्हे के ताऊ जी का स्वर सुनाई दिया – “आज मेरी तलाश पूरी हो गई है। आज मुझे मेरा बेटा मिल गया है। आप सभी मुझे कहते रहे कि- कोई बच्चा गोद क्यों नहीं ले रहे हो। मैंने आज इस बच्चे को गोद लिया है। अब यही मेरी संतान है। बाकी की कानूनी कार्रवाई कल समय पर हो जायेगी।”

यह बात बच्चे को कुछ समझ में नहीं आ रही थी । पर खुशी से उसके चेहरे पर मुस्कान फैल रही थी कि वह किसी सुरक्षित आदमी की गोद में है।

ताऊ जी की कोई संतान नहीं थी।  ताऊ जी ने बाकी की कार्यवाही दूसरे दिन समय पर पूरी करने का आश्वासन दे बच्चे को अपने साथ ले लिया।

आज उनकी तलाश पूरी हो चुकी थीं।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 117 ☆ पंखामधले वारे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 117 ?

☆ पंखामधले वारे ☆

बंधनात या आकाशाने कुठे ठेवले

सीमांनीही देशांच्या ह्या कुठे रोखले

 

पल्ला होता खूप लांबचा गाठायाचा

वाऱ्यानेही पंखी माझ्या  श्वास ओतले

 

अंगाला या चाटत होता मूर्ख कोठला

चावट वारा काय करू मी गप्प सोसले

 

वयात आला अजून नव्हता ऊस तरीही

कुमार होते पाचट त्याने मला छेडले

 

खेळतात ह्या चंद्रा सोबत खेळ चांदण्या

खेळण्यास मज त्यांनी कोठे मला घेतले

 

ग्रीष्म ऋतूचा संबध नव्हता येथे काही

शिशिर म्हणाला सांग कशाने रान पेटले

 

फाटे नाही मीही फोडत तुझ्या सारखे

म्हणून वृक्षा ‘अशोक’ माझे नाव ठेवले

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ मी प्रभा… रत्नागिरीचा रम्य परिसर – लेखांक#2☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ मी प्रभा… रत्नागिरीचा रम्य परिसर – लेखांक#2☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

अकरावी पास झाल्यावर मी शिरूरला सी.टी.बोरा काॅलेजला प्रवेश घेतला. राणी गायकवाड आणि मी अगदी सख्ख्या मैत्रिणी ! काॅलेजमधे मी आर्टसला गेले तर ती काॅमर्सला! काॅलेजमध्ये प्रवेश घ्यायच्या आधीच तिचं माझं किरकोळ कारणांवरून भांडण झालं. आम्ही शाळेत असताना काॅलेजमधला एक मुलगा आमच्या मागं लागलाय, असं राणीच्या भावाला कुणीतरी सांगितलं. मग त्यानं त्याला बरीच मारहाण केली होती. आम्ही काॅलेजमधे गेल्यावर तो मुलगा आमच्या दोघींशी बोलू इच्छित होता, पण आम्ही त्याच्याशी बोललो नाही. पण एक दिवस तो मला लायब्ररीत भेटला आणि काही पुस्तकं वाचायला दिली. मी त्याच्याशी बोलू लागले, तो मला म्हणाला, “राणीने मला मार बसवला, मी तिचा बदला घेणार आहे “! त्या काळात मी राणीशी बोलत नव्हते, आमची मैत्री तुटली याचा काहीजणांना आनंद झाला होता. पण दिवाळीच्या आधी आम्ही बोलू लागलो. आमची मैत्रीण संजू कळसकरनी आमच्यात समझौता घडवून आणला! दुस-या दिवशी आम्ही दोघी काॅलेजमधे बरोबर गेलो, राणी म्हणाली ‘चल आपण त्याला सांगू ‘ आम्ही बोलायला लागलो, तर तो आमच्याशी भांडायला लागला, आणि म्हटला, “तुम्ही दोघी माझ्या घरी चला”. राणी म्हणाली मी नाही येणार आणि ती घरी निघून गेली. पण मी गेले त्याच्या घरी ,मला त्यात काही  अनैतिक वाटले नाही. खरोखर ते  फक्त एक भांडण होते,पण संशयास्पद वातावरण निर्माण झाले एवढे नक्कीच.  तो खूपच चिडलेला होता, पण तो माझ्याशी काही गैरवर्तन  करेल असं मला मुळीच वाटलं नाही. त्याची आई म्हणाली जेऊन जा, त्याची बहीण एक वर्ष आमच्या वर्गात होती तिनं ताट वाढलं, तेवढ्यात तिथे पवारांचा नोकर मला न्यायला आला. कारण अशी अफवा पसरली की मी त्या मुलाबरोबर पळून गेले! तो मुलगा त्या अर्थाने मला कधीच आवडला नव्हता. त्याच्याबद्दल माझ्या मनात प्रेम, आकर्षण मुळीच नव्हतं, राणीलातरी तो कधी काळी आवडला होता. एकदा आम्ही “होली आयी रे” सिनेमा पहायला गेलो, तेव्हा ती प्रेमेन्द्रला पाहून  म्हणाली होती, “हा त्या पोरासारखाच दिसतो ना,तो आवडतो मला “! जो मुलगा मला कधीच आवडला नव्हता त्याच्याबरोबर पळून गेल्याच्या अफवेमुळे मला काॅलेज सोडावं लागलं. मला काहीच न विचारता माझे आईवडील मला गावाला घेऊन गेले आणि मी स्वतःला निर्दोष शाबित करू शकले नाही. दिवाळीच्या सुट्टीत आजोळी गेल्यावर या विषयावर चर्चा झाली. काका म्हणाले “काॅलेजमधे अशा गोष्टी होणारच!” पण माझ्यासमोर कोणी बोलत नव्हतं ,माझी मानसिकता जाणून घ्यायचा कोणी प्रयत्न केला नाही, माझं “लव अफेअर” असल्याचं गृहित धरलं होतं जणू ! मला त्या गोष्टीचा प्रचंड मानसिक त्रास झाला. 

माझी आई म्हणाली ‘ तू काही दिवस इथे रहा.’ माझी मावशी त्या काळात रत्नागिरीला रहात होती. थोडे दिवस आजीआजोबांकडे राहिल्यानंतर मी मावशीकडे रत्नागिरीला गेले !

रत्नागिरी हे मला आवडलेलं नितांत सुंदर शहर. तिथे मला अंजू पिंगळे नावाची मैत्रीण मिळाली.  काका एसटीमध्ये ऑफिसर होते आणि एसटीच्या ऑफिसर्स क्वार्टर्समध्ये रहात होते. मावशीचा फ्लॅट खूपच सुंदर होता आणि तिनं तो ठेवलाही खूप सुंदर होता !

त्याच बिल्डींग मध्ये रहाणा-या ठाकुरकाकींची मैत्रीण लेखिका कुसुम अभ्यंकर होत्या. त्या एकदा मला भेटल्या. मी त्यांच्या वाचलेल्या कादंब-यांची नावं सांगितली, त्या माझ्याशी खुप छान बोलल्या !

मावशी आणि तिच्या  मैत्रीणींबरोबर मी हेदवी, गुहागर, आणि आजूबाजूच्या ब-याच ठिकाणच्या सहली केल्या.  रत्नागिरी मला इतकं आवडलं होतं की मला आयुष्यभर रत्नागिरीत रहायला आवडलं असतं ! खूपच निसर्गरम्य परिसर आहे. वाईटातून काही चांगले घडत होते, काळजावरचे चरे नंतरच्या काळात  कवितेत उतरले !

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 69 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 69 –  दोहे ✍

कितना क्या हम सह रहे,  किसे बताएं यार ।

जीवन नैया बह रही, बिना किसी पतवार।।

 

है शूकर – सी जिंदगी, जीते हैं इंसान।

फोटो उनकी खींचकर, लोग हुए धनवान।।

 

चूहे हैं अच्छे भले, बदतर है इंसान।

चूहे दानी है उन्हें, इनको नहीं मकान।।

 

ईश्वर अल्लाह एक है, अनगिन पूजा थान।

मगर आदमी के लिए, मुश्किल एक मकान।।

 

अनदेखा भगवान है, सुना नाम ही नाम ।

चाहे जितना लूटिए, ख्वाबों का गोदाम।।

 

रंग रंगी थी जिंदगी, हुई आज बदरंग।

 रिश्ते सारे काटते, जैसा जूता तंग।।

 

उद्घाटन की लालसा, करती गई कमाल ।

पांच बरस में खुल गई रुपयों की टकसाल ।।

 

हवामहल में बैठकर, देखा करें जमीन ।

जिनको समझा साधु-सा निकले वही कमीन।।

 

राजनीति के पंक में लिपटे राजा रंक।

एक  ध्येय सब का यही, मिले पुष्प पर्यंक।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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