हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 69 – अब उन्हें कहो कि… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – अब उन्हें कहो कि।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 69 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || अब उन्हें कहो कि ….. || ☆

अधबहियाँ छाँव

के सलूके

पहिन धूप ढूंढती-

छेद कुछ रफू के

 

आ बैठी रेस्तराँ

 दोपहरी

देख रही मीनू को

टिटहरी

 

हैं यहाँ तनाव

फालतू के

 

स्वेद सनी गीली

बहस सी

सभी ओर असुविधा

उमस सी

 

मैके में मौसमी

बहू के

 

श्वेत- श्याम धरती

के द्वीपों

गरमी है खुले

अन्तरीपों

 

पेड़ सभी बन गये

बिजूके

 

इधर- उधर भटकी

छायायें

अब उन्हें कहो कि

घर चली जायें

 

बादल शौकीन

कुंग-फू के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

16-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – मुस्कराकर तो देखो ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक  भावप्रवण कविता  ‘मुस्कराकर तो देखो ’)  

☆ कविता – मुस्कराकर तो देखो ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उन आँखों में झांक के देखो तो सही ,

प्यार झलकता है कि नहीं ?

 

एक कदम बढ़ा के देखो तो सही ,

राह मिलती है कि नहीं ?

 

एक हाथ उठा के देखो तो सही ,

काम होता है कि नहीं ?

 

एक बार मुस्करा के देखो तो सही ,

दुनिया अपनाती है कि नहीं ?

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #59 ☆ # लोग कुछ तो कहेंगे # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# लोग कुछ तो कहेंगे #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 59 ☆

☆ # लोग कुछ तो कहेंगे # ☆ 

छोड़ो कल की बातें

वो बीती हुई रातें

सुनहरी किरणों को देखो

अब स्याह चोला

उखाड़ फेंको

लोगों का क्या है

लोग कुछ तो कहेंगे ?

 

यह असमानता की गहराई

कहीं पहाड़ तो कहीं खाई

यह परेशान से चेहरे

हर सूरत है कुम्हलाई

यह पिटे पिटे लोग

क्यों सब सहेंगे?

लोगों का क्या है

लोग कुछ तो कहेंगे ?

 

यह भ्रूण की हत्यायें

जलती हुई महिलाएं

लुटती हुई अस्मत

दरिंदों से कैसे बचाएं

मायूस खोयी खोयी आंखों से

क्यों आँसू बहेंगे ?

लोगों क्या है —-?

 

कहीं कहीं प्रेम आजाद है

कहीं कहीं पंचायतों का राज है

कहीं कहीं है फूलों पर बंदिशे  

कहीं कहीं कांटे बनें सरताज है

प्रेम पर बने

रूढीयोंके किल्ले

क्यों नहीं ढहेंगें ?

लोग कुछ तो कहेंगे—?

 

लोकतंत्र मजबूती से खड़ा है

अपने सिद्धांतों पर

निर्भीक अड़ा है

छल कपट से गुमराह करते

लोगों को देख

बेजान-सा लहुलुहान पड़ा है

न्याय का सरकारीकरण देख

क्यों चुप रहेंगे?

लोगों का क्या है

लोग कुछ तो कहेंगे ?

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – 26 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – 26– रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

[१२१]

फुलांमधून दरवळणारी

प्रकाशातून चांचमणारी

तुझी ही मधुर कुजबूज

तिचे साधे साधे अर्थ

कळतात आता मला

पण

वेदनेतून उमटणारे

मृत्यूमधून गराजणारे

तुझे शब्द … गूढ… गहिरे… गहन

ते वाचायला शिकव ना मला

 

[१२२]

पाय हरवून बसलेले

हे उंच उंच सुळके

शाईचा डाग बनून गोठलेले             

हे विशाल वृक्ष

रुणझुणणार्‍या काळोखाच्या

अंधुक पडद्याआडून

किती अद्भूत दिसतय हे सारं

सकाळ होईपर्यंत

पाहीन मी वाट

कारण

गरजणार्‍या लख्ख प्रकाशात

दर्शन घ्यायचय मला

तुझ्या या नगराचं

 

[१२३]

आकाशातले तारे

खुडण्यासाठी

हात लांबवणारी

छोटी… भोळी पोरं

तशा या टेकड्या….

 

[१२४]

अर्धवट जागं होऊन

कुणा निरागस बाळानं

पहावं आईला

पहाटेच्या धूसर उजेडात

आणि हसून इवलं

पुन्हा झोपून जावं

तसं पाहिलाय मी तुला…..

 

मूळ रचना – स्व. रविंद्रनाथ टैगोर 

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #119 ☆ व्यंग्य – इंकलाब और फर्नीचर की दूकान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘इंकलाब और फर्नीचर की दूकान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 119 ☆

☆ व्यंग्य – इंकलाब और फर्नीचर की दूकान 

रज्जू के घर कई दिन बाद गया था। ड्राइंग-रूम में दाख़िल हुआ तो देखा दीवान पर एक साहब छाती तक रज़ाई खींचे,लेटे, सिगरेट के कश लगा रहे हैं। सारे कमरे में सिगरेट की बू भरी हुई थी। सिरहाने सिगरेट के आठ दस टोंटे पड़े थे और अलमारी में ‘ब्लैक नाइट’ की एक ख़ाली बोतल रखी थी। एक तरफ एक अधखुला सूटकेस था जिसमें से कपड़े झाँक रहे थे। तीन चार कपड़े दीवान की पुश्त और किवाड़ पर टंगे थे। ख़ासा बेतरतीबी का आलम था।

अतिथि महोदय नौजवान ही थे। मुझे देखकर उन्होंने वैसे ही लेटे लेटे हाथ उठाकर सलाम किया। दस बज गये थे लेकिन ज़ाहिर था कि उनके लिए अभी बाकायदा सबेरा नहीं हुआ था।

रज्जू कहीं गया हुआ था। भीतर गया तो देखा भाभी का पारा ख़ासा गरम था। घर में हीटर की ज़रूरत नहीं थी। मैंने पूछा, ‘ये साहब कौन हैं?’

वे बोलीं, ‘इनके पुराने दोस्त हैं। आठ दिन से खून पी रहे हैं। हिलने का ना्म नहीं लेते। ये अभी उन्हीं के लिए अंडे लेने गये हैं। बिना आमलेट के उनका नाश्ता नहीं होता। इन्हें ऐसे ही निठल्ले दोस्त मिलते हैं।’

मैं भाभी के मिजाज़ पर दो चार ठंडे छींटे देकर वापस ड्राइंग रूम में आया तो अतिथि महोदय मेरे ऊपर इनायत करके अधलेटे हो गये। मेरी तरफ हाथ बढ़ाकर बोले, ‘मैं शम्मी, रज्जू का कॉलेज के ज़माने का दोस्त। यूँ ही अचानक याद आ गयी तो आ गया। वैसे भोपाल में रहता हूँ। आपकी तारीफ?’

मैंने कहा, ‘मैं जे.पी.शर्मा हूँ। रज्जू से बहुत पुराने ताल्लुक़ात हैं।’

वे बोले, ‘आपसे मिलकर ख़ुशी हुई।’

मैंने पूछा, ‘भोपाल में आप क्या करते हैं?’

वे थोड़ा हँसे, फिर छत पर आँखें टिकाकर बोले, ‘अजी जनाब, हमारी क्या पूछते हैं। बस यूँ समझिए कि—चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे हवादिस से, अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

मैं चमत्कृत हुआ। सोचा, यह तो कोई जीवट वाला, जुझारू आदमी है जो ज़िन्दगी से बहादुरी से दो दो हाथ कर रहा है। कहा, ‘लगता है आप बड़ी जद्दोजहद से गुज़र रहे हैं।’

वे सिगरेट के टोंटे को चाय के कप में बुझाते हुए लंबी साँस छोड़कर बोले, ‘अजी क्या पूछते हैं!बस यूँ समझिए कि आग के दरया में से डूब कर जा रहे हैं।’

मैं चुप हो गया तो वे बोले, ‘मेरे बारे में और कुछ नहीं जानना चाहेंगे?’

मैंने कहा, ‘क्यों नहीं!आपकी ज़िन्दगी तो ख़ासी दिलचस्प लगती है। फ़रमाइए।’

वे सिर को हथेली की टेक देकर, दुबारा छत पर नज़रें जमा कर धीरे धीरे बोले, ‘भोपाल में हमारे डैडी की फर्नीचर की बड़ी दूकान है। पाँच औलादों में मैं अकेला बेटा हूँ। मैं शुरू से शायर-तबियत और नफ़ासत-पसन्द इंसान रहा हूँ। डैडी का फर्नीचर का धंधा मुझे कभी पसन्द नहीं आया। कॉलेज के बाद मेरा बस यही शग़ल रहा—दोस्तों के साथ घूमना-घामना, खाना-पीना और मौज करना। एक दिन डैडी कहने लगे, बालिग़ हो गये हो, दूकान पर बैठो। मैंने कहा, मैं मुर्दा फर्नीचर के बीच बैठ कर क्या करूँगा, मैं तो ज़िन्दा चीज़ों का शैदाई हूँ। डैडी बेहद ख़फ़ा हो गये। कहने लगे,इसी फर्नीचर की रोटी खाता है और इसी की बुराई करता है?मैंने जवाब दिया, जनाब, रोटी तो ख़ुदा की दी हुई खाता हूँ। जिसने चोंच दी है वही चुग्गा देता है। आप खामखाँ क्रेडिट ले रहे हैं। बात बढ़ गयी। वे कहने लगे,दूकान पर बैठो, नहीं तो यहाँ से मुँह काला करो।

‘बात उसूलों की थी। मैंने फौरन घर छोड़ दिया। मम्मी ने मुझे चुपके से दस हज़ार रुपये पकड़ा दिये। वहाँ से लखनऊ अपने मामू के यहाँ चला गया। वहाँ दो महीने रहा। वहाँ भी कई दोस्त बन गये और ज़िन्दगी अच्छी ख़ासी गुज़रने लगी। लेकिन मुश्किल यह है कि दुनिया के कारोबारी लोगों को मेरे जैसे आदमी का सुकून बर्दाश्त नहीं होता। कुछ दिनों बाद मेरा सुख-चैन मेरे मामू को खटकने लगा। उनकी हार्डवेयर की दूकान है। कहने लगे दूकान पर बैठो। मैंने कहा, बात उसूलों की है। मैं नाज़ुक चीज़ों का प्रेमी हूँ, लोहा-लंगड़ के बीच बैठना मुझे गवारा नहीं। आख़िरकार लखनऊ भी छोड़ना पड़ा। चलते वक्त मामू से पाँच हज़ार रुपये ले लिये।

‘फिर रामपुर दूसरे मामू के यहाँ चला गया। वहाँ एक महीने ही रहा क्योंकि वे शुरू से ही पीछे पड़े रहे कि मैं डैडी के पास लौट जाऊँ। दुनिया भर की नसीहतों का दफ्तर खोले रहते थे। हर दूसरे दिन डैडी को फोन करते थे। लेकिन मेरे ऊपर उनकी बातों का असर भला क्यों होता?मैं तो सर पर कफ़न बाँध कर निकला था। मैंने कह दिया कि भीख माँग कर गुज़ारा कर लूँगा लेकिन फर्नीचर की दूकान पर बैठने भोपाल न जाऊँगा।

‘चुनांचे उन मामू से भी पाँच हज़ार रुपये लिये और वहाँ से अपने एक दोस्त के पास दिल्ली चला गया। वहाँ बीस दिन रहा। दोस्त तो भला आदमी है, लेकिन आप तो जानते ही हैं कि औरतें ज़रा तंगज़ेहन होती हैं। मैं दोस्त के साथ रात ग्यारह बारह बजे तक महफिल जमाये रहता था। दो चार और भले लोग शामिल हो जाते थे। बस उस नेकबख़्त औरत ने कहना शुरू कर दिया कि मैं उसके शौहर को बिगाड़ रहा हूँ। गोया कि उसका शौहर कोई दूध-पीता बच्चा है जो मैं बिगाड़ दूँगा। ख़ैर, मैंने दिल्ली भी छोड़ा और दोस्त से दो हज़ार रुपये लेकर इधर चला आया। जब हालात बेहतर होंगे, चुका दूँगा।’

मैंने कहा, ‘आपकी ज़िन्दगी तो जद्दोजहद की मुसलसल दास्तान है।’

वे सिगरेट का कश खींचकर गुल झाड़ते हुए बोले, ‘सच पूछिए तो हम तो इंकलाबी हैं और इंकलाब की मशाल लिये घूमते हैं। ये पुरानी सड़ी हुई पीढ़ी की तानाशाही हम क़तई बर्दाश्त नहीं करेंगे। दुश्वारियों की कोई फिक्र नहीं है। दुश्वारियों की तो आदत पड़ गयी है। आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किए जा रहा हूँ मैं।’

मैंने एक मिनिट तक ‘वाह वाह’ करने के बाद पूछा, ‘अभी तो आप रुकेंगे?’

वे बोले, ‘देखिए, कब तक यहाँ आबोदाना रहता है। फिलहाल तो हूँ ही।’

अब तक रज्जू भी आ गया था। शम्मी साहब मुझसे बोले, ‘शाम को आइए। कुछ और दिल खोल कर बातें होंगी।’

मैं भाभी के तेवर देख चुका था। बोला, ‘आज शाम को तो मसरूफ़ हूँ। फिर कभी आऊँगा।’

थोड़ी देर में मैंने विदा ली। चलने लगा तो उन्होंने हाथ उठाकर दुहराया, ‘अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

रज्जू मुझे बाहर तक छोड़ने आया। मैंने उससे कहा, ‘इस बला से पीछा छुड़ा, नहीं तो भाभी किसी दिन हंगामा कर देगी।’

वह दुखी भाव से बोला, ‘क्या करूँ?मैं तो कई बार इशारा कर चुका, लेकिन उस पर कोई असर ही नहीं होता।’

दो दिन बाद रज्जू का फोन आया कि शम्मी मुझसे मिलना चाहते हैं। कई बार इसरार कर चुके हैं। मैं दोपहर को गया तो वे उसी तरह रज़ाई में घुसे मिले। हवा में वही सिगरेट की गमक थी और अलमारी में रात की खाली बोतल विराजमान थी।

मेरे बैठने के बाद वे बोले, ‘उस दिन की मुख़्तसर मुलाक़ात के बाद आपसे मिलने की ख़्वाहिश बनी रही। दरअसल अब एकाध रोज़ में यहाँ से चलने की सोच रहा हूँ।’ फिर तिरछी नज़र से भीतरी दरवाज़े की तरफ देखकर आवाज़ हल्की करके बोले, ‘मैंने पाया है कि दुनिया के ज़्यादातर लोग तंगज़ेहन हैं। एक इंकलाबी की ज़रूरतों को समझना और उसके काम में मदद करना लोगों को आता नहीं। ख़ास तौर से औरतों को मैंने इस मामले में बहुत ही नासमझ पाया। इसीलिए सोचता हूँ कि दोस्तों से मदद लेने के बजाय डैडी की फर्नीचर की दूकान पर ही लौट जाऊँ।’

मैंने कहा, ‘ख़याल नेक है। देर मत कीजिए।’

वे बोले, ‘वैसे मैं सोच रहा था दो चार दिन आपकी मेहमाननवाज़ी क़ुबूल की जाए। आप बड़े भले आदमी लगे।’

मेरा दिमाग़ तुरत रेस के घोड़े की तरह तेज़ भागा और मैंने निर्णय ले लिया। कहा, ‘तारीफ के लिए शुक्रिया, लेकिन मेरे घर में एक भारी समस्या है। मेरी बीवी को गुस्से के दौरे पड़ते हैं और दौरा पड़ने पर वह बिना सोचे समझे सामने वाले पर हाथ की चीज़ मार देती है। कई बार मुसीबत में पड़ चुका हूँ। ज़िन्दगी समझिए नर्क हो गयी है।’

शम्मी भाई घबराकर बोले, ‘तौबा तौबा!अच्छा हुआ आपने बता दिया। आप तो ख़ासी मुसीबत में हैं। मुझे आपसे हमदर्दी है।’

फिर बोले, ‘अब डैडी की फर्नीचर की दूकान पर लौट जाना ही बेहतर है। दुनिया की आबोहवा हम जैसे इंकलाबियों के लिए मौजूँ नहीं है। रज्जू से दो हज़ार कर्ज़ माँगा है, मिल जाए तो रवाना हो जाऊँगा।’

मैंने चलते वक्त उनसे हाथ मिलाया तो मेरा हाथ हिलाते हुए उन्होंने अपनी शहीदाना मुस्कान के साथ वही शेर पढ़ा—-चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे हवादिस से, अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

मैं दरवाज़े से निकलते निकलते मुड़ा तो उन्होंने इस तरह हाथ हिलाया जैसे बस हँसते हँसते फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने ही वाले हों।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 71 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 71 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 71) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 71☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

खामोशियाँ कभी

बेवजह नहीं होती,

कुछ दर्द आवाज़

छीन लिया करते हैं…

 

Never  unfounded

are  the  silences

Some  pains  just

strangulate the voice..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

फिर कुछ यूँ  हुआ कि

हम जुदा हो गए…,

हम बंदगी  में रहे…

और वो खुदा हो गए…

 

Then something such

happened that we parted….

I remained in devout prayers

And, they became the God….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जिसके लफ्जों में हमें

अपना अक्स मिलता हो,

बड़े नसीबों से ही ऐसा

कोई शख्स मिलता है…!

 

In whose words reflects

our own image,

Such a person is found

with great luck only…..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कबूल करते हैं कि हमें

फुर्सत नहीं मिलती…

तुम्हें जब याद करते हैं तो

ज़माने को भी भुला देते हैं..!

 

I  do  confess that

I don’t get the time…

When I remember you,

I even forget the world!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 118 ☆ दरवाज़े ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 118 ☆  दरवाज़े ?

एक समय था जब लोगों के घरों के दरवाज़े दिन भर खुले रहते थे। समय के साथ विचार बदले, स्थितियाँ बदलीं और अब अधिकांश घरों के दरवाज़े बंद रहने लगे हैं।

सुरक्षा की दृष्टि से दरवाज़ा बंद रखना समकालीन आवश्यकता हो सकता है। तथापि स्थूल का प्रभाव, सूक्ष्म पर भी होता है।

एक प्रसंग सुनाता हूँ। एक धनी व्यक्ति एक महात्मा के पास आया। धनी का महल आलीशान था। उसके मन में इच्छा हुई कि अपना महल महात्मा को दिखाए। बहुत ना-नुकर के बाद महात्मा उसका महल देखने के लिए राजी हो गए। धनी ने जब अपना महल महात्मा को दिखाया तो वे हँस पड़े। धनी आश्चर्यचकित हुआ। फिर तनिक नाराज़गी के साथ बोला, ” महात्मन! यह दुनिया का सबसे सुरक्षित महल है।” महात्मा ने पूछा, “कैसे?” धनी बोला,” मैंने इसके सारे दरवाज़े चुनवा दिये हैं। इसमें केवल एक ही दरवाज़ा रखा है जिसके चलते शत्रु का भीतर प्रवेश करना असंभव-सा हो चला है।” इस बार महात्मा ठहाका लगाकर हँसे। फिर बोले, ” यह एक दरवाज़ा भी क्यों छोड़ दिया? यदि इसे भी बंद कर दो तो शत्रु का तुम तक पहुँचना असंभव-सा नहीं अपितु असंभव ही होगा।”  धनी ने महात्मा के ज्ञान के कई प्रसंग लोगों से सुने थे। उसे लगा, सारे प्रसंग झूठे हैं। महात्मा तो सामान्य बात भी समझ नहीं पाते। सो चिढ़कर बोला, “महात्मन, यदि यह एकमात्र दरवाज़ा भी बंद कर दिया तब तो मेरे प्राण जाना निश्चित है। ऐसी सूरत में यह महल, महल न रहकर कब्र में बदल जाएगा।”  इस बार  गंभीर स्वर में महात्मा बोले, ” जब तुझे बात का भान है कि एक दरवाज़ा बंद करने से तेरी मृत्यु हो जाएगी तो इतने सारे दरवाज़े बंद करके कितनी बार मर चुका है तू?”

ध्यान देनेवाली बात है कि  दरवाज़े सर्वदा बंद रखने के लिए होते तो बनाये ही क्यों जाते? उनके स्थान पर भी दीवारें ही खड़ी की जातीं।

दरवाज़े बार-बार खुलते रहने चाहिएँ, ताज़ा हवा का झोंका भीतर आते रहना चाहिए। खुले दरवाज़ों से नयापन और ताज़गी भीतर आते रहते हैं, प्रफुल्लता बनी रहती है।

…अंतिम बात,  घर के हों या मन के, यह सूत्र दोनों प्रकार के दरवाज़ों पर लागू होता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 71 ☆ सॉनेट – सौदागर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘सॉनेट – सौदागर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 71 ☆ 

☆ सॉनेट – सौदागर ☆

भास्कर नित्य प्रकाश लुटाता, पंछी गाते गीत मधुर।

उषा जगा, धरा दे आँचल, गगन छाँह देता बिन मोल।

साथ हमेशा रहें दिशाएँ, पवन न दूर रहे पल भर।।

प्रक्षालन अभिषेक आचमन, करें सलिल मौन रस घोल।।

 

ज्ञान-कर्म इंद्रियाँ न तुझसे, तोल-मोल कुछ करतीं रे।

ममता, लाड़, आस्था, निष्ठा, मानवता का दाम नहीं।

ईश कृपा बिन माँगे सब पर, पल-पल रही बरसती रे।।

संवेदन, अनुभूति, समझ का, बाजारों में काम नहीं।।

 

क्षुधा-पिपासा हो जब जितनी, पशु-पक्षी उतना खाते।

कर क्रय-विक्रय कभी नहीं वे, सजवाते बाजार हैं।

शीघ्र तृप्त हो शेष और के लिए छोड़कर सुख पाते।।

हम मानव नित बेच-खरीदें, खुद से ही आजार हैं।।

 

पूछ रहा है ऊपर बैठे, ब्रह्मा नटवर अरु नटनागर।

शारद-रमा-उमा क्यों मानव!, शप्त हुआ बन सौदागर।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-१२-२०२१

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #101 ☆ मजदूर महिला ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 101 ☆

☆ मजदूर महिला ☆

(प्रस्तुत रचना मजदूर बाला हमारे श्रमिक समाज की बेबसी, दुख , पीड़ा की झलक दिखाती‌है। गरीबी‌ की सजा भुगतते श्रमिक समाज के ललनाओं‌ के बच्चो‌ की भूख  एवम् ‌कुपोषण से‌ जूझते परिवारों की दशाओं की भयानक सच्चाई से रूबरू कराती है ये रचना। इसके साथ ही  सड़कों पर विपरीत ‌परिस्थिति  में अंतिम  सांस तक  जूझने की‌ भारतीय नारी के हौसलों के सत्य घटना क्रम पर  आधारित इस रचना में आपको निराला जी की रचना की छाप स्पष्ट‌ नजर आयेगी।) 

 

जेठ मास के बीच दोपहरी, वह सड़कों पर गिट्टी फेंक रही थी।

अब‌ हाड़-तोड़ मेहनत करने में, अपना भविष्य वो देख रही थी।

 

अम्बर से आग बरसती थी, धरती का जलता सीना था।

उस  खुले  आसमां  के  नीचे, तन से चू रहा पसीना था ।

 

काली छतरी के नीचे उसने, अपना दुधमुंहा शिशु लिटाया था ।

भूखा प्यासा रोता बच्चा भी, उसकी राह रोक ना पाया था ।

 

करते करते घोर कठिन श्रम, थक कर निढाल वो लेट रही थी।

जलती धरती बनी‌ बिछौना उसकी, सिर पर छाते की छाया थी।

 

छाते की छाया में, दोनों पांवों को घुटनों से मोडे।

बना हाथ का तकिया, बच्चे का सिर सीने से जोड़ें ।

 

वो बेख्याली में लेट रही, अपने  ग़म  की  चादर  ओढ़े।

चादर फटी हुई थी उसकी, बेबसी बाहर झांक रही थी।

 

फटी चादर की‌ सुराख  से, उसकी गरीबी ताक रही थी।

छाती‌ से चिपका प्यारा शिशु, अपना भोजन ढूंढ़ रहा था,

मां की ममता ढ़ूढ़ रहा था,।।

 

पर हाय रे क़िस्मत! उस बच्चे के, मां की ममता बीरान थी।

दूध न था छाती में उसके, गरीबी से परेशान थी।

 

फटे  हुए  कपड़े  थे तन  पर, जर्जर तन था काया थी।

गढ्ढो में धंसी हुई दो आंखें, उनमें ममता की छाया थी।

 

फटे हाल  वस्त्रों  के  पीछे,  उसका तन नंगा झांक रहा था।

शोषण की पीड़ा बन कर के, उसका भविष्य ही ताक रहा था ।

 

हाथों में है फावड़ा सिर पे भरी टोकरी, भूखा बचपन गोद में।

ये उसकी पहचान री।

 

सारे ‌मिथक तोड़ कर, अपना वतन छोड़  कर।

अपने श्रम को बेचती, दुख के‌ लबादे ओढ़कर ।

 

शोषण की‌‌ पीडा़ बेबसी का दंश झेलती।

फिर भी हर हाल में दुखों से है खेलती।

 

अंबर बना ओढना‌, धरती का बिछौना है।

गोद चढा़ दुधमुहां, उसका खिलौना है

 

उसी से वो बातें करती, उसी से है खेलती।

अपनी सारी ममता, उसी पे है उड़ेलती।

 

शोषण कुपोषण का दंश, झेल रही पीढ़ियाँ ।

फांकाकशी  लाचारी से, खेल रही पीढ़ियाँ ।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ फुलपाखरे ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? फुलपाखरे ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆ 

फुलपाखरे अशी आम्हीं

    रंग आमुचे नवे नवे..

मुक्तपणाने भिरभिरणारे

    हेच जीवन आम्हांसी हवे..

 

कोमल आमुच्या पंखांवरती

    मायेचे हळूवार हात हवे..

फुलांपरीच या आम्हांसी,

    तुमचे केवळ स्पर्श हवे..!

 

स्पर्शाने आम्हीं थरथरतो..

    आघाताने आम्हीं मरतो..

स्वैर चोहींकडे भिरभिरतो..

    सुखविण्यास जगासी रंग उधळीतो..!

 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares