मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 189 ☆ऊन पावसाचा खेळ… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 189 ? 

☆ ऊन पावसाचा खेळ ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(अष्टाक्षरी…)

ऊन पावसाचा खेळ

जाणा जीवनाचा सार

नका करू वळवळ

वेळ आहे, थोडा फार.!!

ऊन पावसाचा खेळ

सुख दुःख रेलचेल

कधी हसावे रडावे

मन असते चंचल.!!

 *

ऊन पावसाचा खेळ

उष्ण थंड अनुभव

सर्व असूनी परंतु

राहे सदैव अभाव.!!

 *

ऊन पावसाचा खेळ

सुरु आहे लपंडाव

अश्रू येतात डोळ्याला

काय निमित्त शोधावं.!!

 *

ऊन पावसाचा खेळ

भासे दुर्धर कठीण

राज अबोल अबोल

तोही स्वीकारी आव्हान.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 257 ☆ कथा-कहानी – बाइसिकिल ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय कथा – ‘बाइसिकिल । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 257 ☆

☆ कथा कहानी ☆ बाइसिकिल 

कुसुम को लगा जैसे एक सैलाब आया और हर चीज़ को नेस्तनाबूद करता हुआ गुज़र गया। उस एक घटना ने दुनिया की हर चीज़ की शक्ल बदल दी। रोज़ के पहचाने लोगों के चेहरे भी जैसे दूसरे हो गये।

दोनों जेठानियों और देवरानी ने उसे गले से लगाकर काफी आंसू बहाये। ससुर ने कई बार उसके सिर पर हाथ फेरा,कहा, ‘बेटी, कलेजे को पत्थर करो और इन लड़कियों के मुंह की तरफ देखो। ओंकार तो चला गया। अब तुम्हीं इनकी मां भी हो और बाप भी। विपत्ति में धीरज से काम लेना चाहिए। फिर तुम्हारे दोनों जेठ हैं, देवर है, हम हैं। हमारे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है?’
परिचितों, पड़ोसियों ने सुना तो ‘च च’ किया। कच्ची गृहस्थी है, कैसे नैया पार होगी? सब एक-एक कर कुसुम के घर आये, सिर लटकाये, अपनी सहानुभूति ज़ाहिर की और फिर उठकर अपने-अपने काम में लग गये।

पांच छ: दिन तक कुसुम को न अपना होश रहा, न लड़कियों का। उसे लगता रहा जैसे बहुत सी छायाएं उसके आसपास गुज़रती रहती हैं, बहुत से शब्द बोले जाते हैं, लेकिन उसका उनसे कोई ताल्लुक नहीं है।

तेरहीं के दिन ससुर ने तीनों लड़कों की बैठक जोड़ी, कहा, ‘भैया, जो कुछ हुआ सो तुम्हारे सामने है। मृत्यु पर किसी का वश नहीं है। अब तुम्हारा जो कर्तव्य बनता है सो करो। ओंकार का फंड का कुछ रुपया जरूर मिलेगा, लेकिन बहू उसे खा-पी डालेगी तो फिर कल के दिन लड़की की शादी कैसे होगी? इसलिए तुम लोग दो दो हजार रुपये हर महीने कुसुम को दो तो उसका काम चले।’

दोनों बड़े भाइयों शीतल प्रसाद और रामनरेश ने धीरे से ‘ठीक है’ कहा।

छोटा भाई सुनील गंभीर होकर बोला, ‘बाबूजी, सबका हिस्सा बराबर मत रखो। मैं बारह हजार रुपये तनख्वाह पाता हूं। दो हजार रुपये इधर दे दूंगा तो अपने बाल-बच्चों को क्या खिलाऊंगा?’

पिता जवाहरलाल सिर खुजाने लगे, बोले, ‘ठीक है, तो तुम एक हजार दे देना।’

जवाहरलाल बड़े लड़के के घर में रहते थे। अब अपने सामान के साथ कुसुम के घर में आ गये। कुसुम को कुछ सहारा हुआ। दिन  अब चींटी की चाल से रेंगने लगे। कुसुम  का दिन तो जैसे तैसे कट जाता, लेकिन रात पहाड़ हो जाती। एक तरफ सुख के दिनों की यादों का हुजूम, दूसरी तरफ भविष्य  की खौफनाक डायनों के नाच।

बूढ़े ससुर सो जाते तो उनके गाल गुब्बारे जैसे फूलने-पिचकने लगते और खुले मुंह से फू-फू  की आवाज़ निकलने लगती। कुसुम उनकी तरफ दया के भाव से देखती। आराम की उम्र में किस्मत ने उनके ऊपर एक नई ज़िम्मेदारी डाल दी थी। सो जाने पर वे एकदम निरीह, बेचारे हो जाते और अनेक काले साये बेखौफ सब तरफ से कुसुम को पकड़ने लगते। दरवाज़े पर हवा की दस्तक होते ही वह शंकित होकर उठकर बैठ जाती। बैठकर दोनों लड़कियों के शरीर पर अपने हाथ रख लेती। रात के सन्नाटे में घर के आसपास किसी आदमी की बातचीत सुनकर उसके रोंगटे खड़े हो जाते। वह रात रात भर कमरे में घूमती। ज़रा सी आहट होते ही बड़ी देर तक दरवाज़े पर कान लगाये सुनती रहती।

भाइयों से पांच  हज़ार रुपये महीने आने लगे थे, लेकिन मंझले रामनरेश का दिमाग रुपए देते वक्त दूसरे महीने में ही खराब होने लगा। कुसुम को जिस तरह गुस्से से मसलते हुए दो हज़ार के नोट उन्होंने दिये उससे कुसुम को उनकी मन:स्थिति कुछ कुछ ज्ञात हो गयी।

इसके बाद वे चौथे पांचवें दिन आते और कुसुम की लड़कियों पर अपना गुस्सा उतार कर चले जाते। उन्हें उनके चलने फिरने, पहनने ओढ़ने में खोट ही खोट दिखायी पड़ता। लड़कियां उन्हें देखकर इधर-उधर छिप जातीं।

बाज़ार में कहीं मंझले चाचा लड़कियों को देख लेते तो उनकी मुसीबत कर देते, ‘क्यों आयी हो? कहां जा रही हो? आवारा जैसी घूमती हो।’ लड़कियों को रोना आ जाता।

एक दिन रामनरेश पिता से बोले, ‘बाबूजी! सुमन और सुनीता को रिक्शे से स्कूल भेजना कोई जरूरी है? मुश्किल से आधा किलोमीटर की दूरी होगी। बात यह है कि जब हम अपने बच्चों का पेट काट कर पैसा देते हैं तो कुसुम को भी सोच समझ कर खर्च करना चाहिए।’

जवाहरलाल धीरे से बोले, ‘देखेंगे।’

तीसरे महीने रामनरेश कुसुम को सिर्फ एक  हज़ार रुपये पकड़ा गये। बोले, ‘अभी ज़्यादा पैसे नहीं हैं। बाकी बाद में दे दूंगा।’ उस महीने फिर उन्होंने कुछ नहीं दिया।

फिर उनका यही रवैया हो गया। हर बार हज़ार रुपये पकड़ा जाते और बाकी देने का आश्वासन दे जाते।

छह सात माह गुज़र गये। एक दिन कुसुम ने ससुर से कहा, ‘सुमन सुनीता की फ्राकें  फट रही हैं। कुछ और पैसों का इन्तजाम हो जाता  तो उनके लिए कपड़े खरीद लेती।’

ससुर बोले, ‘मैं आज रामनरेश से कहूंगा।’

वे शाम को घूम घामकर लौटे तो हाथ में छोटी सी पोटली थी। बोले, ‘बेटी, उसके पास पैसे तो नहीं थे। ये प्रीति और दीपा की फ्राकें दी हैं।  थोड़ा कॉलर फट गया है, वैसे अच्छी हैं। थोड़ा सुधार कर काम आ जाएंगीं।’

उन फ्राकों को उलट पलट कर देखते कुसुम की आंखों में पानी भरने लगा।

कुछ दिनों बाद फिर समस्या पैदा हुई। सुमन की परीक्षा फीस के लिए कुसुम के पास पैसे नहीं थे। फिर ससुर से कहा। वे बोले, ‘ठीक है। इन्तजाम करता हूं ।’

घूम कर वापस लौटे तो कुछ परेशान थे। बोले, ‘बेटा, शीतल घर पर नहीं था। रामनरेश का हाथ खाली है। लेकिन फिक्र मत करना। इन्तजाम हो जाएगा।’

थोड़ी देर बाद ही रामनरेश गुस्से से फनफनाते घर में आ गये। खड़े-खड़े ही बोले, ‘देखो भाई, थोड़ा हमारे ऊपर दया करो। यहां कोई पैसे का पेड़ नहीं लगा है कि हिलाओ और बटोर लो। लड़की जात है, ज्यादा पढ़ाना जरूरी नहीं है। लेकिन यहां तो यह हाल है कि कहा था रिक्शा छुड़ा दो तो वह भी नहीं हुआ। अब हम आगे के लिए कह देते हैं कि हमें जो पूजेगा सो देंगे। आगे मांगने की जरूरत नहीं है।’

कुसुम ने ससुर की तरफ देखा और ससुर ने गंजे सिर पर हाथ फेरते हुए आंखें झुका लीं। लड़कियां किवाड़ों से चिपकी सिकुड़ी जा रही थीं।

कुसुम अपने मोहल्ले की एक महिला को बाइसिकिल पर अपने घर के सामने से रोज़ आते जाते देखती थी। वह महिला वेशभूषा से विधवा दिखती थी। लगता था वह कहीं काम करती थी। एक दिन कुसुम पता लगाकर उस महिला के घर पहुंच गयी। महिला ने उसका स्वागत किया। उनके घर में चार बच्चे थे— दो लड़के और दो लड़कियां।

वे श्रीमती जोशी थीं। कुसुम ने उनके परिवार के बारे में पूछताछ की। उन्होंने दुखी भाव से बताया कि उनके पति का तीन साल पहले एक मोटर दुर्घटना में निधन हो गया था। ससुराल और मायके वाले मदद करने की स्थिति में नहीं थे। वे बोलीं, ‘महीने दो-महीने तो मरी सी पड़ी रही, फिर सोचा बच्चों का भाग्य अब मेरे ही भरोसे है। एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली। शुरू में बाहर आने जाने में बहुत घबराहट होती थी। अब नहीं होती। अब मुझे संतोष है कि मैं बच्चों की मदद करने लायक हूं। किसी तरह गाड़ी चल रही है। आप भाग्यवान हैं कि आपको रिश्तेदारों की मदद मिल रही है।’

कुसुम ने सोच कर कहा, ‘आपके स्कूल में मुझे नौकरी मिल सकती है?’

श्रीमती जोशी आश्चर्य से बोलीं, ‘आपको नौकरी की क्या ज़रूरत है?’

कुसुम बोली, ‘आप पता लगाइएगा। मैं नौकरी करना चाहती हूं।’

श्रीमती जोशी बोलीं, ‘ठीक है। मैं पता लगा कर बताऊंगी।’

चार-पांच दिन बाद कुसुम एक दिन ससुर से बोली, ‘बाबूजी, सदर बाजार के नर्सरी स्कूल में आठ हजार  रुपये की मास्टरी मिल रही है। कर लूं?’

ससुर परेशान होकर बोले, ‘अरे बेटा, तू हमारे घर की बहू होकर आठ हजार रुपल्ली की नौकरी करेगी? उतनी दूर रोज कैसे जाएगी बेटी? हमारे खानदान में औरतों ने कभी नौकरी नहीं की। ऐसा मत कर।’

कुसुम चुप हो गयी।

अगले महीने रामनरेश रुपये देने नहीं आये। पिता उनके घर गये, फिर लौटकर बहू से बोले, ‘बेटी, अभी उसके पास पैसे नहीं हैं। दो एक दिन में दे देगा।’

पीछे आंगन में ओंकार की साइकिल पड़ी थी। उस पर धूल बैठ गयी थी। दोनों टायर चिपके हुए थे। ससुर कई बार कह चुके थे कि उसे बेच दिया जाए। हजार दो-हजार रुपये  तो मिल ही जाएंगे। लेकिन कुसुम ओंकार की चीज़ों को बेचना बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी।

एक दिन वह ससुर से बोली, ‘बाबूजी, मैं सोचती हूं कि अपनी साइकिल को कटवा कर लेडीज़ साइकिल बनवा लें।’

ससुर बोले, ‘लेडीज़ साइकिल का क्या करेगी बेटी?’

कुसुम बोली, ‘सुमन के काम आ जाएगी। अभी हर चीज के लिए आपको दौड़ना पड़ता है। फिर छोटे-मोटे काम वह कर लाएगी।’

ससुर बोले, ‘जैसी तुम्हारी मर्जी।’

फिर एक रात मोहल्ले वालों ने एक अजब नज़ारा देखा। सड़क पर एक लेडीज़ साइकिल पर कुसुम सवार थी और उसे दोनों तरफ से संभाले हुए दोनों बेटियां। कुसुम साइकिल चलाना सीख रही थी। बिजली की रोशनी में साइकिल की सीट पर उसके कूल्हे बड़े बेहूदे ढंग से हरकत करते थे। लड़कियां उसे ढकेलतीं और साइकिल डगमग होती, सड़क के एक किनारे से दूसरे किनारे को चली जाती। कई बार साइकिल  गिरती और उसके साथ कुसुम भी ज़मीन पर फैल जाती। मोहल्ले के स्त्री पुरुषों ने यह दृश्य सहानुभूति, प्रशंसा, उपहास और मज़ाक के भाव से देखा।

साइकिल की करीब एक सप्ताह प्रैक्टिस के बाद एक दिन कुसुम ससुर से बोली, ‘बाबूजी, मैने स्कूल की नौकरी कर ली है। कल से मैं काम पर जाऊंगी।’

ससुर ने खामोशी से एक बार उसकी तरफ देखकर आंखें झुका लीं।

धीरे-धीरे बात फैली। सब भाइयों तक बात पहुंची कि कुसुम अब साइकिल पर बैठकर नौकरी करने जाती है। तीनों घरों ने एक राहत की सांस ली।

शीतल प्रसाद दुखी भाव से कुसुम के पास पहुंचे। बोले, ‘नौकरी की क्या जरूरत थी? आखिर हमसे जो बन रहा था कर ही रहे थे।’

कुसुम ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भाई साहब, आपने बहुत किया। आखिर कब तक आपके ऊपर बोझ डालते?’

रामनरेश भी कुसुम के पास पहुंचे। उनके मुंह पर राहत का भाव था। झूठी सहानुभूति के स्वर में बोले, ‘भई, नौकरी की क्या जरूरत थी? आखिर हम आगे पीछे पैसे तो देते ही।’

कुसुम ने कहा, ‘नहीं भाई साहब, आखिर आपके भी बाल बच्चे हैं। सबकी अपनी अपनी जिम्मेदारियां हैं।’

फिर तीनों परिवारों के लोग बारी-बारी से कुसुम  के घर गये। सब ने कुसुम से बड़े प्यार और बड़ी इज़्ज़त से बातें कीं। सब ने बारी-बारी से सुमन और सुनीता के सिर पर हाथ फेरा। फिर सब ने उस लेडीज़ साइकिल को गौर से देखा जो उनके लिए एक अजूबा बनी हुई थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 257 – देहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 257 देहरी… ?

घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर। अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।

अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीकी प्रतीति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।

इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।

स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के  द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 गणेश चतुर्थी तदनुसार आज शनिवार 7 सितम्बर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार मंगलवार 17 सितम्बर 2024 तक चलेगी।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः। 🕉️

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 204 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of social media # 204  (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 203) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 204 ?

☆☆☆☆☆

गर यूँही घर में बैठा रहा

मार डालेगी तनहाइयाँ…

चल चलें मैखाने में जरा

ये फ़ना दिल बहल जायेगा…

☆☆

If I keep staying at home like this

The aloofness is going to  kill me

O’ dear  let’s  just  go to the bar…

This dying heart will come alive!

☆☆☆☆☆

इक किस्सा अधूरे इश्क़ का

आज भी है दरम्यान तेरे मेरे…

हैं मौजूद साहिलों की रेत पे

पैरों के कुछ निशान तेरे मेरे…

☆☆

A tale of inconclusive love still

exists between us, even today…

Few of our footprints are still

Present on the sand of shores…

☆☆☆☆☆

मरता तो कोई नही

किसी के प्यार में…

बस यादें कत्ल करती

रहती है किश्तों-किश्तों में…

☆☆

Nobody ever dies in

someone’s  love…

In installments just the

Memories  keep killing you…

☆☆☆☆☆

दीदार की तलब हो तो

नज़रें जमाये रखिये,

क्योंकि नक़ाब हो या नसीब, 

सरकता  तो  जरूर है…

☆☆

If urge of her glimpse is there

Then keep an eye on it patiently

Coz whether it’s the  mask or

luck , it moves for sure…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 204 ☆ मुक्तक सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तक सलिला…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 204 ☆

☆ मुक्तक सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

बोल जब भी जबान से निकले,

पान ज्यों पानदान से निकले।

कान में घोल दे गुलकंद ‘सलिल-

ज्यों उजाला विहान से निकले।।

*

जो मिला उससे है संतोष नहीं,

छोड़ता है कुबेर कोष नहीं।

नाग पी दूध ज़हर देता है-

यही फितरत है, कहीं दोष नहीं।।

*

बाग़ पुष्पा है, महकती क्यारी,

गंध में गंध घुल रही न्यारी।

मन्त्र पढ़ते हैं भ्रमर पंडित जी-

तितलियाँ ला रही हैं अग्यारी।।

*

आज प्रियदर्शी बना है अम्बर,

शिव लपेटे हैं नाग- बाघम्बर।

नेह की भेंट आप लाई हैं-

चुप उमा छोड़ सकल आडम्बर।।

*

ये प्रभाकर ही योगराज रहा,

स्नेह-सलिला के साथ मौन बहा।

ऊषा-संध्या के साथ रास रचा-

हाथ रजनी का खुले-आम गहा।।

करी कल्पना सत्य हो रही,

कालिख कपड़े श्वेत धो रही।

कांति न कांता के चहरे पर-

कलिका पथ में शूल बो रही।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-४-२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर” (कथा संग्रह) – लेखक : सुश्री उपासना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर” (कथा संग्रह) – लेखक : सुश्री उपासना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

समीक्ष्य पुस्तक : एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर।

कथाकार : उपासना।

प्रकाशक :लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।

पृष्ठ : 184

मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक)

☆ “जीवन और समाज के अंधेरे उजालों की कहानियां” – कमलेश भारतीय ☆

भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार व वनमाली विशिष्ट कथा सम्मान से सम्मानित युवा कथाकार उपासना का कथा संग्रह ‘एक ज़िंदगी… एक स्क्रिप्ट भर’ जीवन व समाज के अंधेरे वर्ष उजालों की कहानियां लिए हुए है। ‌ऐसा प्रसिद्ध कथाकार प्रियंवद का आंकलन है और उनकी नज़र में उपासना एकाग्रता, गंभीरता और निष्ठा के साथ कहानियां लिखने में विश्वास करती हैं । कथा संग्रह में आधा दर्जन कहानियां हैं और इनमें ‘कार्तिक का पहला फूल’ को छोड़कर बाकी पांच लम्बी कहानियां हैं, जिन्हें पढ़ते समय हम पुराने कस्बों और पुराने प्रेम के दिनों में सहज ही पहुंच जाते हैं । कथा संग्रह की शीर्षक कथा ‘एक ज़िंदगी.. एक स्क्रिप्ट भर’ एक ऐसी शांत, खामोश सी प्रेम कथा है पुराने समय की, जो कभी देवदास तो कभी किसी और नायक की दशा बयान करती है

‌गीता और शंकर का  किशोर प्रेम कितने शानदार ढंग से वयक्त किया है कि भुलाये नहीं भूलेगा! वह साइकिल पर बिठाना और बहुत धीमे से यह कहना कि हम तुम्हें प्यार करते हैं, सच में पुराने समय की ओर ले जाता है । फिर थोड़ा युवा होने पर अभिभावकों द्वारा घास और फूस को अलग रखने और गीता की शादी अनायक यानी अमरीश पुरी स्टाइल व्यक्ति से करने और ससुराल में सास व‌ ननद के तानों की शिकार गीता को अपना प्यार बहुत याद आता है और फिर अंत ऐसा कि गीता लौटती है अपने मायके और बस में शंकर मिल जाता है तब वह उतरते समय बहन को कहती है कि किसी से मत कहना कि शंकर हमको बस में मिला था! कितना कुछ कह जाता है यह वाक्य ! यह प्रेम स्क्रिप्ट बहुत खूबसूरत है। कथा संग्रह की सबसे छोटी कथा है ‘कार्तिक का पहला फूल’ ! ओझा जी सेवानिवृत्त हैं और फूल पौधों की निराई गुड़ाई कर अपना समय व्यतीत करते हैं। इसी में खुश रहते हैं और हर पौधे पर ध्यान देते हैं। अड़हुल पर पहला फूल आने वाला है और वे इंतज़ार में हैं लेकिन एक सुबह देखते हैं कि फूल तो तोड़ लिया गया है और पूछने पर पता चलता है कि बहू ने  एकादशी की पूजा के लिए तोड़ लिया है ! ओझा जी का मन रोने रोने को हो आता है । अड़हुल की वह सूनी डाल अब भी कार्तिक के झोंके से अब भी झूम रही थी ।

तीसरी कहानी ‘एमही सजनवा बिनु ए राम’ में सिलिंडर और रतनी दीदिया के मुख्य चरित्रों के माध्यम से ग्रामीण परिदृश्य में होने वाली छोटी से छोटी बातों को बहुत मन से लिखा गया है और कैसे दूसरों के घरों में आग लगाई जाती है, कैसे सिलिंडर द्वारा रतनी दीदिया को बर्फ खिला भर देने से बात फेल जाती है और किस प्रकार से आखिर कहानी रतनी दीदिया के जीवन के दुखांत तक ले जाने और व्यक्त करने में सफल हो जाती है, यह जादू उपासना की कलम में है ।

“नाथ बाबा की जय कहानी कैसे धीरे धीरे साम्प्रदायिक उन्माद की ओर बढ़ जाती है, यह भी बहुत ही सहजता से लिखी कहानी है और अपनी गुमटी को उन्मादियों द्वारा तोड़े जाने के बाद गुस्से में खुद ही अलगू मेहर तोड़ डालता है और उसकी पत्नी चुपचाप चूल्हे से उठता धुआं देखती रह जाती है!

‘टूटी परिधि का वृत्त’ और ‘अनभ्यास का नियम’ भी लम्बी कहानियां हैं लेकिन अपना जादू और आकर्षण बनाये रखती हैं। जो कार्य लम्बे समय तक किया या दोहराया नहीं जाता है, वह भूल जाता है। इसी को अनभ्यास का नियम कहते हैं! इस तरह नियम स्पष्ट कर कथाकार आगे बढ़ती है ।

भाषा बहुत ही मोहक है, जिसके कुछ उदाहरण ये हैं :

औरत की मांग में पीला सिंदूर था, मायका था, आदमी के मां बाप थे, गली कूचे, मोहल्ले थे, महिमामय सारा भारतवर्ष था और इस सबके बीच औरत का एकतरफा प्यार था!

…..

दुपट्टा फरफराता है… शंकर के हाथ पर…!

यह कोमल स्पर्श शंकर की उपलब्धि है। उन्होंने चा़द की ठंडाई को छू लिया है।

…..

प्रेम करने वाला कभी पछताने की स्थिति में रहता ही नहीं । प्रेम हमेशा हर हालत में पाता है । यह अलग बात है कि यह ‘पा लेना’ कभी समझ में आ जाता है और कभी नहीं आता!

…..

रतनी दीदिया सोचती थी कि हम चीज़ें नहीं यादें पहनते थे । हाथों में चूड़ियां नहीं, यादें खनकती थीं। बालों में रबर नहीं, याद बंधी थी! सीने पर दुपट्टा नहीं, याद फैली थी!

ऐसे अनके उदाहरण हैं। ‌उपासना की कहानियों में ताज़गी है, कहने में रवानगी है और पुराने दृश्यों को जीवंत कर देने की कला! संग्रह पठनीय है और सहेज कर रखने लायक ! लोकभारती प्रकाशन का साफ सुथरा प्रकाशन है यह कथा संग्रह!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #252 – 137 – “ज़िंदगी जीता चल यारों की सोहबत में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल ज़िंदगी जीता चल यारों की सोहबत में…” ।)

? ग़ज़ल # 137 – “ज़िंदगी जीता चल यारों की सोहबत में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी जीने का बस एक ही असूल है,

पर्वत  पर अकड़ कर चढ़ाई फ़ज़ूल है।

*

काटते जाओ जितना चाहो मन से तुम,

खूब  बढ़ेगा दिल मेरा कँटीला बबूल है।

*

चाहे  जितना  माल ओ असबाब जुगाड़ो,

क़ीमत इसकी वक्त ए रुखसत निर्मूल है।

*

ज़िंदगी जीता चल यारों की सोहबत में,

दोस्तों  के साथ गुज़रा वक्त हुसूल है।

*

इश्क़ करके निभाना मेरी तासीर जो ठहरी

जो सज़ा मुक़र्रर हो दिल से वह क़बूल है।

*

दारुल हर्ब कर बनाये रखिए मार काट से,

क्या चिंता जहन्नुम में बैठा तेरा रसूल है।

*

तीर  तलवार  ले आ  जा मैदान ए ज़ंग,

हाथ में आतिश के बल्लम और त्रिशूल है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 130 ☆ राजभाषा दिवस विशेष – ॥ सजल – मेरा अभिमान है हिंदी ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 130 ☆

राजभाषा दिवस विशेष – ॥ सजल – मेरा अभिमान है हिंदी ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

(सामांत – आन, पदांत – है हिंदी)

[1]

मेरी जान हिंदी, मेरा अभिमान है हिंदी।

हम सब की   इक़ पहचान है    हिंदी।।

[2]

हिंदी में ही बसते हैं प्राण  हम सबके।

हम सब का एक   ही नाम    है हिंदी।।

[3]

वेदशास्त्र पुराण संस्कारऔर संस्कृति।

एक अथाह सागर सा   ज्ञान है हिन्दी।।

[4]

सबकी बोली सबकी भाषा मन भाये।

कितना कहें कि बहुत महान है  हिंदी।।

[5]

प्रेम की भाषाऔर प्यार की बोली यह।

घृणा और नफरत सेअनजान है हिंदी।।

[6]

पुरातन काल के अविष्कारों का गौरव।

पूर्ण तकनीकी ज्ञान   विज्ञान है  हिंदी।।

[7]

संस्कृत भाषा से ही जन्मी हिंदी भाषा।

ऋषि मुनियों का गहन विधान है हिंदी।।

[8]

वसुधैव कुटुम्बकम का भाव    निहित।

जानो कि ऐसा एक   परिधान है हिंदी।।

[9]

विश्व एकता शांति की   अग्रदूत भाषा।

अमन चैन संदेश का अभियान है हिंदी।।

[10]

हर धर्म जाति भाषा  को जोड़ने वाली।

यूँ समझो हंस पूरा  हिंदुस्तान है हिंदी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 194 ☆ श्री गणेश वंदना ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “श्री गणेश वंदना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 194 ☆ श्री गणेश वंदना ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

☆ 1 ☆

सिध्दिदायक  गजवदन

जय गणेश गणाधिपति प्रभु 

सिध्दिदायक  गजवदन

विघ्ननाशक कष्टहारी हे परम आनन्दधन

दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है

धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है

हर हृदय में वेदना आतंक का अंधियार है

उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है

दीजिये सद्बुध्दि का वरदान हे करूणा अयन

जय गणेश गणाधिपति प्रभु 

सिध्दिदायक  गजवदन

☆ 2 ☆ 

☆  गणेश वंदना

आदि वन्द्य मनोज्ञ गणपति

सिद्धिप्रद गिरिजा सुवन

पाद पंकज वंदना में नाथ

तव शत-शत नमन

व्यक्ति का हो शुद्ध मन

सदभाव नेह विकास हो

लक्ष्य निश्चित पंथ निश्कंटक आत्मप्रकाश हो

हर हृदय आनंद में हो

हर सदन में शांति हो

राष्ट्र को समृद्धि दो हर विश्वव्यापी भ्रांति को

सब जगह बंधुत्व विकसे

आपसी सम्मान हो

सिद्ध की अवधारणा हो

विश्व का कल्याण हो

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #249 ☆ प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 249 ☆

☆ प्रतिभा, ख्याति, मनोवृत्ति और घमंड ☆

‘प्रतिभा प्रभु-प्रदत्त व जन्मजात मनोवृत्ति होती है। ख्याति समाज से मिलती है, आभारी रहें, लेकिन मनोवृत्ति व घमंड स्वयं से मिलता हैं, सावधान रहें’ में सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय  संदेश निहित है। प्रभु सृष्टि-नियंता है, सृष्टि का जनक, पालक व संहारक है। जो भी हमें दिखाई पड़ता है, वह ईश्वर द्वारा मिलता है और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पतियाँ आदि सब सर्व-सुलभ हैं। इनके लिए हमें कोई मूल्य चुकाना नहीं पड़ता। इसी प्रकार प्रतिभा भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानव में संचरित होती है। सो! हमें उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहना चाहिए।

ख्याति मानव को समाज द्वारा प्राप्त होती है। चंद लोगों को यह उनके श्रेष्ठ व शुभ कार्यों के एवज़ में प्राप्त होती है, जिन्हें युग-युगांतर तक तक स्मरण रखा जाता है। परंतु आजकल विपरीत चलन प्रचलित है। आप पैसा खर्च करके दुनिया की हर वस्तु प्राप्त कर सकते हैं, ऊंचे से ऊंचे मुक़ाम पर पहुंच सकते हैं। इसके लिए न आप में देवीय गुणों की आवश्यकता है, ना परिश्रम की दरक़ार है। आप पैसे के बल पर शौहरत पा सकते हैं, ऊँचे से ऊँचे पद पर आसीन हो सकते हैं तथा सारी दुनिया पर राज्य कर सकते हैं।

पैसा अहं पूर्ति का सर्वोत्तम साधन है। यदि आपको अपने गुणों के कारण समाज में ख्याति प्राप्त हुई है, तो आपको उनका आभारी रहना चाहिए। परंतु आजकल लोग रातों-रात स्टार बनना चाहते हैं; प्रसिद्धि प्राप्त कर दूसरों को नीचा दिखा संतोष पाना चाहते हैं। वास्तव में इसमें स्थायित्व नहीं होता। यह पलक झपकते समाप्त हो जाती है और मानव अर्श से फर्श पर आन गिरता है। एक अंतराल के पश्चात् जब लोग उसके निहित स्वार्थ व माध्यमों से अवगत होते हैं तो वे स्वत: अपनी नज़रों से गिर जाते हैं और लोगों की घृणा का पात्र बनते हैं। वैसे भी जो वस्तु हमें बिना परिश्रम के सुलभ हो जाती है, उसका मूल्य नहीं होता और हम उसके महत्व को नहीं स्वीकारते। सो! जीवन में जो कुछ हमें अथक परिश्रम से प्राप्त होता है, वह अक्षुण्ण होता है और हमें उसके एवज़ में समाज में अहम् स्थान प्राप्त होता है। वैसे भी समय से पहले व भाग्य से अधिक हमें कुछ भी उपलब्ध नहीं होता व समय से पूर्व अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। माली सींचत सौ घड़ा, ऋतु आय फल होय अर्थात् अधिक सिंचन करने से भी हमें यथासमय फल की प्राप्ति होती है।

सो! निष्काम कर्म करते रहिए, क्योंकि फल की इच्छा करना कारग़र नहीं  होता।आत्म-संतोष सर्वश्रेष्ठ है और जिस व्यक्ति के पास यह अमूल्य संपदा है, वह कभी दुष्कर्म अर्थात् कुकृत्य की ओर प्रवृत्त नहीं हो सकता। वह सत्य की राह पर चलता रहता है। सत्य का प्रभाव लंबे समय तक जलता रहता है, भले ही परिणाम देरी से प्राप्त हो। यह शुभ व कल्याणकारी होता है। जो सत्य व शिव है, दिव्य सौंदर्य से आप्लावित होता है और सुंदर होता है। उसमें केवल भौतिक व क्षणिक सौंदर्य नहीं होता, अलौकिक सौंदर्य से भरपूर होता है। वह केवल हमारे नेत्रों को ही नहीं, मन व आत्मा को भी परितृप्त करता है। इसलिए हमें सदैव ईश्वर के सम्मुख नतमस्तक रहना चाहिए, सर्वगुण-संपन्न है और किसी भी पल कोई भी करिश्मा दिखा सकता है। वैसे इंसान को ख्याति प्रभु कृपा से प्राप्त होती है, परंतु इसमें समाज का योगदान भी होता है। सो! हमें उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।

जहाँ तक मनोवृति व घमंड का संबंध है, उसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी होते हैं। हमारी सोच हमारे भविष्य को निर्धारित करती है, क्योंकि हम अपनी सोच के अनुकूल कार्य करते हैं, लोगों के बारे में निर्णय लेते हैं, जो राग-द्वेष के अनुकूल कार्य करते हैं; लोगों के बारे मेएं निर्णय लेते हैं, जो सदैव स्व-पर की निकृष्ट भावनाओं में लिप्त रहते हैं। संसार में हर चीज़ की अति बुरी होती है। आवश्यकता से अधिक प्रेम व ईर्ष्या-द्वेष भी  हमें पतन की ओर ले जाते हैं और अधिक धन व  प्रतिष्ठा हमें पथ-विचलित कर देते हैं। अहं हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। इसका त्याग करने पर ही हम सामान्य जीवन जी सकते हैं। इसके लिए सकारात्मक अपेक्षित है। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’  अर्थात् सौंदर्य देखने वाले की नज़रों में होता है। वह व्यक्ति या वस्तु में नहीं होता। अहं हमारे मन के उपज है। इससे हमारे अंतर्मन में दूसरों के प्रति उपेक्षा व घृणा भाव उपजता है तथा यह हमें निपट अकेला कर देता है। इस स्थिति में कोई भी हमारे साथ रहना पसंद नहीं करता। पहले हम अहंनिष्ठ दूसरों के प्रति उपेक्षा भाव दर्शाते हैं; एक अंतराल के पश्चात् उनके पास हमारे लिए समय नहीं होता, जो हमें आजीवन एकांत की त्रासदी झेलने को विवश कर देता है।

आधुनिक युग में एकल परिवार व्यवस्था में पति-पत्नी में अति-व्यस्तता के कारण उपजता अजनबीपन का एहसास बच्चों को माता-पिता के प्यार प्यार-दुलार से महरूम कर देता है। वे नैनी के आश्रय में पलते-बढ़ते हैं और युवावस्था में उनके कदम ग़लत राहों की ओर अग्रसर हो जाते हैं। वे अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाते हैं तथा संबंध-सरोकारों की परिभाषा से अनजान रहते हैं। इन विषम स्थितियों में माता-पिता के पास प्रायश्चित् के अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं होता। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि जो प्रभुकृपा से प्राप्त है, सत्यम् शिवम् सुंदरम् से आप्लावित है, मंगलकारी होता है, अनुकरणीय होता है और जो हमारे बपौती नहीं होता है। वह हमें उस दोराहे व अंधी गली पर लाकर खड़ा कर देता है, जहां से लौटने का कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता। सो! परमात्मा की स्जित प्रकृति में आक्षेप व व्यवधान उत्पन्न करना सदैव विनाशकारी होता है, जो हमारे समक्ष है। जंगलों को काटकर कंक्रीट के भवन बनाना, कुएँ, बावरियों, तालाबों व नदियों को प्लास्टिक आदि से प्रदूषण करना, मानव को स्वयं को सुप्रीम सत्ता समझ दूसरों के अधिकारों का हनन करना तथा आधिपत्य जमाना– उनका परिणाम हर दिन आने वाले तूफ़ान, सुनामी की दुर्घटनाएं ग्लोबल वार्मिंग आदि के रूप में हमारे समक्ष हैं, जिसका समाधान प्रकृति की ओर लौट जाने में निहित है। आत्मावलोकन करना, सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना, सबको समान दृष्टि से देखना, हम को विलीन करने आदि से हम समाज व विश्व में समन्वय व संमजस्यता ला सकते हैं। अंत में सिसरो के इस कथन द्वारा ‘मानव की भलाई के सिवाय और किसी अन्य कर्म द्वारा मनुष्य ईश्वर के इतने निकट नहीं पहुँच सकते ।’परहित सरिस धर्म नहीं कोई’ को हमें जीवन के मूलमंत्र के रूप में अपनाना चाहिए।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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