हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 67 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 67 –  दोहे ✍

आँसू थे जयदेव के, ढले गीत गोविंद ।

विद्यापति का अश्रु दल, खिला गीत अरविंद।।

 

सत्य प्रेम से कर सके, जो सच्चा अनुबंध ।

जो पूजे श्रम देवता, भरे अश्रु सौगंध ।।

 

प्रियवर आये द्वार पर, मना लिया त्यौहार ।

पलक पावडे बिछ गए, आँसू वंदनवार ।।

 

नयन नयन से भर रहे, आँसू को अँकवार।

पूछ रहे कब मिले थे, हम तुम पिछली बार ।।

 

आँसू आए आंख में, पाहुन आए द्वार ।

आँसू पूछें  करोगे, कब तक अत्याचार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 67 – कड़क लहजे में सलीके… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कड़क लहजे में सलीके…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 67 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || कड़क लहजे में सलीके….. || ☆

बिम्ब जैसे दस बजे की इस किशोरी धूप का 

लगा आँचल को बताने जा रही है

एक हिस्सा गाँव  के प्रारूप का  

 

लग रही हो पेड़ कोई

सम्हलता अखरोट का

या नई खपरैल से

तिरता हुआ हो टोटका

 

कड़क लहजे में सलीके

से उभरता है रुका

अर्थ सांची के सुनहले से

किसी स्तूप का

 

किसी शासक की बसाई

राजधानी का नहीं

है तजुर्वा सूर्य की यह

बादशाहत का कहीं

 

लोग पूछें यह बसाहट क्यों

यहाँ  किस बात की है

तो बताना यह इलाका

रहा दिन के भूप का

 

बहुत मामूली लगे पर

है नहीं यह तय यहाँ

खोजना गर खोजियेगा

आप फिर चाहे जहाँ

 

आपकी मर्जी कदाचित

जो समझना समझिये

यह नहीं पनघट पुराना

गाँव के उस कूप का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-12-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 114 ☆ मोहल्ला और मंदिर….! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय व्यंग्य  ‘ मोहल्ला और मंदिर ….!’ )  

☆ कविता # 114 ☆ मोहल्ला और मंदिर….! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जब उन्होंने इस मोहल्ले में प्लाट खरीदा, तो कुछ लोगों ने खुशी जाहिर की, कुछ लोगों ने ध्यान नहीं दिया और कुछ लोगों के व्यवहार और बाडी लेंग्वेज ने बता दिया कि प्लाट के साथ फ्री में मिली सड़क उनके अंदर खुचड़ करने की भावना पैदा कर रही है। दरअसल इस प्लाट को लेने मोहल्ले के कई लोग इच्छुक थे।  इच्छुक इसलिए भी थे क्योंकि इसी प्लाट के आखिरी छोर पर सड़क आकर खतम हो जाती है।  हर किसी को फायदेमंद बात इसीलिए लग रही थी कि जिस साइज का प्लाट था उसके सामने की सड़क की जगह उस प्लाट मालिक को मुफ्त में मिल जायेगी, इस कारण से भी मोहल्ले के लोगों में खींचतान और बैर भाव पनप रहा था।प्लाट लेने वालों की संख्या को देखते हुए संबंधित विभाग ने प्लाट को ऑक्शन के नियमों के अनुसार बेचने का फैसला किया, बंद लिफाफे में ड्राफ्ट के साथ आवेदन मंगाए गए, सबके सामने लाटरी खोली गई और मधुकर महराज को प्लाट मिल गया। मधुकर महराज सीधे सादे इंसान थे, बंद गली का आखिरी मकान के मकान मालिक बनने की खुशी में जल्दी मकान बनाने लगे तो मोहल्ले में कुछ खुचड़बाजों ने राजनीति चालू कर दी। कुछ लोगों के अंदर आस्था का सैलाब उमड़ने लगा, मोहल्ले में मंदिर बनना चाहिए ऐसी बातें दबी जुबान चालू हो गईं।

गुप्ता जी की व्याकुलता बढ़ गई है  रोज उनके सपने में  रामचंद्र जी और बजरंगबली आने लगे, वे सुबह उठते और मोहल्ले वालों से कहते हैं कि बंद गली के आखिरी मकान के सामने की सड़क पर रातों-रात मंदिर बनना चाहिए। सपने की बात उन्होंने अपने गुट के लोगों को बताई, यह बात मोहल्ले में फैल गई। मधुकर जी का मकान तेजी से बनकर खड़ा हो गया, सामने की खाली जगह को देखकर लोगों की छाती में सांप लोटने लगता …..

मंदिर बनाने के बहाने कब्जा करने की नीति का खूब प्रचलन है यही कारण है कि गली गली, मोहल्ले मोहल्ले, सड़क के किनारे, दुकानों के बगल में खूब बजरंगबली और दुर्गा जी बैठे दिखाई देते हैं।

तो जबसे मधुकर जी का दो मंजिला मकान बनकर खड़ा हुआ है तब से मोहल्ले में पड़ोसियों के बीच बजरंगबली और दुर्गा जी के दो गुट बन गये , दुर्गा जी गुट के वर्मा जी मोहल्ले में उमड़ी अध्यात्मिक राजनीति की खबर मधुकर महराज तक पहुंचाते रहते । मधुकर जी सीधे सादे हैं पर इस खबर से विचलित रहते कि उनके घर के सामने की खाली जगह पर कुछ लोग रातों-रात मंदिर बनाना चाह रहे हैं।

मंदिर के नाम पर मोहल्ले में अचानक एकजुटता देखने मिलने लगी। पहले आपस में इंच इंच के लिए झगड़े होते थे।

बजरंगबली समर्थक गुट बजरंगबली की मूर्ति देख आया था, और कुछ लोग दुर्गा जी की मूर्ति देख आये थे।

चतुर्वेदी जी के घर में हुई मीटिंग से पता चला कि आजकल बने बनाए रेडीमेड मंदिर बाजार में मिलते हैं, पर कीमत थोड़े ज्यादा है, चंदे की बात में झगड़ा हो गया, झगड़ा इतना बढ़ा कि मामला पुलिस तक पहुंच गया, पुलिस मोहल्ले पहुंच गई, मोहल्ले में खुसर-पुसर मच गई, मधुकर महराज घोर संकोच में फंस गए, उगलत लीलत पीर घनेरी।

गृह प्रवेश की तिथि और ऊपर से थाने में पेशी। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। पुलिस वाला बोला- इतनी मंहगाई में मकान बनाने की क्या जरूरत आ गई, इतनी मंहगाई में इतना सारा पैसा कहां से आ गया, बजरंगबली से क्यों पंगा ले रहे हो। पुलिस के ऐसे घातक सवालों और धमकियों से मधुकर जी का मन दुखी हो गया। वे नारियल फोड़कर रातों-रात अपने घर में घुस गये। मोहल्ले में घूरती निगाहों का वे सामना करते रहे, दिन बीतते गए, मंदिर बनने की घुकघुकी में मन उद्वेलित रहता।

मोहल्ले में धीरे धीरे आस्था का सैलाब ठंडा पड़ने लगा, जिनके सपनों में बजरंगबली और दुर्गा जी आ रहे थे, उनकी नजरें झुकी झुकी रहने लगीं, गुप्ता जी दिल के दौरे से चले गए, मधुकर जी ने सामने की जगह घेर ली, कुछ लोगों को जलाने के लिए सामने गेट लगा दिया,

मंदिर की बात धीरे धीरे लोग भूल गए…

+   +  +  +  +

बीस साल बाद मधुकर जी ने उस जमीन पर मंदिर बना दिया, मोहल्ले में इर्ष्या जलन की हवा चलने लगी, दो गुट आपस में लड़ने लगे, कटुता फैल गई, पड़ोसियों ने आपत्ति उठाई कि मंदिर की छाया उनके घर के सामने नहीं पड़नी चाहिए नहीं तो पुलिस केस कर देंगे। बात आई और गई…. मधुकर महराज ने महसूस किया कि जब से मंदिर बना है तब से आज तक मोहल्ले का कोई भी व्यक्ति मंदिर में पूजा करने या दर्शन करने नहीं आया, मधुकर महराज को इसी बात का दुख है। बजरंगबली खुशी खुशी चोला बदलते रहते हैं, मोहल्ले वालों को इसकी कोई खबर नहीं रहती। आस्था लोभ मोह में भटकती रहती, इसीलिए मधुकर जी ने मंदिर में एक बड़ा घंटा भी लगवा दिया है, जो सुबह-शाम बजने लगता है, पर मोहल्ले वालोंं को कोई फर्क नहीं पड़ता……

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #57 ☆ # महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 57 ☆

☆ #महापरिनिर्वाण दिवस – 6 डिसेंबर 1956 # ☆ 

(बाबासाहेब के परिनिर्वाण पर आचार्य अत्रे जी के एक लेख से प्रेरित श्रद्धांजलि स्वरुप कविता)

शोषितों का उध्दारक

भ्रमितों का उपदेशक

अंधेरों का प्रकाशपुंज

आज अस्त हो गया

 

अंबर झुक गया

समय रूक गया

दिशाओं ने क्रंदन किया

मानव पस्त हो गया

 

गली गली में हाहाकार मच गया

घर घर में अंधकार बस गया

विधाता ने छीन लिया

हम सबका “बाबा “

अनाथों का दुःखी

संसार रच दिया

 

दौड़ पड़े मुंबई रेले के रेले

सुध नहीं थी कि

रूककर दम भी ले लें

आंखों से बहती धारा

हर एक था दुःख का मारा

आर्तनाद कर रहे थे

तू हमको भी उठाले

 

हर गली, गांव,कस्बा, शहर

वीरान हो गया

पल भर में एक शमशान हो गया

चूल्हें नहीं जले,

दीयें नहीं जलें

सर पटकर बिलखता

हर इंसान हो गया

 

मुंबई में जैसे

जन सैलाब आ गया

हर वर्ग के लोगों का

“सहाब” आ गया

पथ पर दौड़ते

दर्शन को प्यासे लोग

उनके आंखों का

टुटता हुआ ख्वाब आ गया

 

दादर की चैत्यभूमी पर है वो सोया

जिस व्यक्ति के निर्वाण पर

हर कोई है रोया

आज ही के दिन

हर वर्ष

यहां लगता है मेला

यहीं पर हम सबने

अपना “भीम” है खोया

 

ऐसे निर्वाण के लिए

“देव “भी तरसते होंगे

उनके हाथों से आकाश से

पुष्प बरसते होंगे

जीते जी जो इन्सान

” भगवान ” बन गया

उसके स्वर्ग आगमन से

वे भी लरजतें होंगे /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – 24 – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – 24– रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

 

[११३]

सत्य उठवतं

एक प्रचंड वादळ

आपल्याच विरुद्ध

ज्यातून पुन्हा

दशदिशांना विखुरतात

सत्याची बीजं

 

[११४]

माझ्या घरी ये

असं नाहीच म्हणत

मी तुला

प्रिय,

तू माझ्या 

अनंत एकटेपणात

येशील?

 

[११५]

कधीही घाबरू नकोस         

क्षणांना

शाश्वताचा आवाज

मंद लयीत

झिरपत असतो

क्षणांमधूनच

 

[११६]

खोलवर सुकून गेलेला

हा अफाट-सुका पसारा

त्यातून उसळावी

अस्सलवाणी दाद

सरगम बनून

तशी दरवळते आहे

मृद्गंधाची ही धून 

 

मूळ रचना – स्व. रविंद्रनाथ टैगोर 

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #117 ☆ व्यंग्य – घर की ख़ुशहाली के चन्द नायाब नुस्खे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  घर की ख़ुशहाली के चन्द नायाब नुस्खे’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 117 ☆

☆ व्यंग्य – घर की ख़ुशहाली के चन्द नायाब नुस्खे 

हर दूसरे चौथे घर की सुख-शान्ति के लिए विद्वानों और विदुषियों की नसीहतें पढ़ते पढ़ते आँखें दुखने लगीं। खास बात यह है कि ज़्यादातर नसीहतें गृहलक्ष्मी को ही दी जाती हैं। गृहनारायण को सलाहें कम दी जाती हैं क्योंकि घर की सुख-शान्ति का ठेका मुख्यतः पत्नी का ही होता है।

पढ़ते पढ़ते मन में आया कि मैं भी अपने बहुमूल्य जीवन के बहुमूल्य अनुभवों में से कुछ मोती भारतीय परिवारों के लाभार्थ टपकाऊँ। पेशे से अध्यापक हूँ, इसलिए अपनी नसीहत बिन्दुवार नीचे पेश कर रहा हूँ—

  1. स्त्री गृहलक्ष्मी होती है, अतः वह लक्ष्मी की ही तरह सदा घर में चलायमान रहे। घर को सजाने-संवारने में लगी रहे। पति, बच्चों, संबन्धियों की सेवा से कभी विश्राम न लेवे, और मुख पर मनोहारी मुस्कान धारण किये रहे।
  2. रोज मुँह-अँधेरे सबसे पहले उठे और रात को सबसे अन्त में सोवे। सर्वश्रेष्ठ गृहलक्ष्मी वह है जिसे कोई सोता हुआ न देख पावे।
  3. पुरुष का मन स्वभाव से चंचल होता है, अतः उसे घर में बाँधे रहने के लिए अपने रूप रंग को सदैव संवारकर रखे। कभी मलिन वस्त्र न धारण करे। आलता, लिपस्टिक, फूलों, सुगंध का भरपूर उपयोग अपने रूप में चार चाँद लगाने के लिए करे। सुन्दर आभूषण धारण करे। गली- नुक्कड़ों में खुले ब्यूटी-पार्लरों की मदद लेवे।
  4. घर में झगड़ा होवे तो चुप्पी धारण किये रहे। पतिदेव आँय-बाँय बकें तो एक कान से सुने और दूसरे से निकाल देवे। इस हेतु कानों को हमेशा साफ रखे। पति हाथ-पाँव चलाये तो उसे फूलों की तरह झेले।
  5. अगर पति किसी दूसरी स्त्री के चक्कर में पड़ जाए तो धीरज न खोवे और झगड़ा-फसाद न करे। पति की सेवा दुगने उत्साह से करती रहे। अन्ततः जहाज का पंछी पुनि जहाज पर आवेगा। (कहाँ जावेगा?)
  6. पति को साक्षात परमेश्वर माने और उनके दोनों चरनों में चारों धाम माने। इस भाव से रहने पर घर मन्दिर बनेगा और तीर्थयात्रा पर होने वाला खर्च बचेगा।
  7. पति बिना सूचना दिये आधी रात को चार छः दोस्तों को ले आवे और भोजन की फरमाइश करे तो बिना माथे पर शिकन लाये भोजन बनावे और प्रसन्न भाव से खिलाकर उन्हें विदा करे।जाते बखत उनसे कहे कि पुनः ऐसे ही पधारकर कष्ट देवें।
  8. आजकल दारूखोरी आम बात है। पति पीकर आवे और बिस्तर पर लुढ़क जावे तो उसके जूते-मोजे उतारकर उसे ठीक से पहुड़ा देवे। अगर वमन आदि करे तो उसे साफ कर देवे और मन में ग्लानि न लावे। पति के मित्र वमन कर दें तो उसे भी प्रसन्न भाव से साफ कर देवे।
  9. पति की रुचि के व्यंजन बनावे और मना मना के पति को ठुँसावे। पति को रुचने वाले वस्त्र-आभूषण पहरे और वैसे ही उठे बैठे जैसे पति को भावे।
  10. पति को पसन्द न हो तो अड़ोस पड़ोस में कहीं न जावे। सनीमा भी न जावे। घर की चारदीवारी को ही स्वर्ग समझकर उसी में स्वर्गवासी बनी रहे।
  11. अगर बार बार कहने पर भी पति बाजार जाकर सामान न लावे, खटिया तोड़ता पड़ा रहे, तो मन में क्रोध या दुख न लावे। प्रसन्न भाव से खुद बाजार जावे और सामान ले आवे।
  12. अगर पति घर के खर्च के लिए पैसे देने में किचकिच करे तो मन को न बिगाड़े। अड़ोस पड़ोस से उधार माँग लेवे या मायके से मँगा लेवे।
  13. मायके से कोई आवे तो फालतू प्रसन्नता जाहिर न होने देवे। ओठों के कोनों को दबा कर रखे। ज्यादा स्वागत सत्कार न करे, न ज्यादा सम्मान-प्यार देवे। जब पति के घरवाले आवें तब खूब प्रसन्नता दिखावे और खूब आवभगत करे। पति मायके वालों को गाली देवे तो रिस न करे। उत्तम स्थिति यह है कि पत्नी पति के घर में प्रवेश करते ही मायके वालों को पूर्णतया बिसरा देवे। वे नारियाँ धन्य हैं जो चार के कंधे पर (डोली में) पति के घर में प्रवेश करती हैं और फिर सीधे चार के कंधे पर ही निकलती हैं (समझ गये होंगे)। ऐसी सन्नारियों के पति उनसे सदैव प्रसन्न रहते हैं।
  14. जिस दिशा में पति उंगली उठाये,उसी दिशा में चले, भले ही गड्ढे में गिर जावे।
  15. यदि पति पसन्द न करे तो कोई घरेलू धंधा न करे।बैठे बैठे आराम से मक्खियाँ मारे और जो पति देवे उसी में संतोष करे।
  16. कभी भूल कर भी पति की निन्दा न करे।यदि पति निन्दा करे तो उसे प्रशंसा मान के ग्रहण करे।
  17. चोरी से पति की जेब से पैसा कभी न निकाले। पतिदेव आपके पर्स से निकाल लें तो ऐसे दिखावें जैसे कुछ न हुआ हो।
  18. लड़ाई-झगड़ा कभी ऊँची आवाज़ में न करे।झगड़े के वक्त आवाज़ धीमी रखे।बिना चिल्लाये भी बहुत असरदार झगड़ा किया जा सकता है।झगड़ा करते वक्त टीवी या म्यूज़िक सिस्टम की आवाज़ ऊँची करना न भूले।
  19. अपने को सदा सीता-सावित्री का अवतार समझे, भले ही पति रावण-कुंभकरन का टू-इन-वन संस्करण हो।
  20. तीजा, करवाचौथ के व्रत पूरी निष्ठा से रखे और मनावे कि यही पति जनम जनम हमारे हिस्से में आवे। (इस वास्ते जनम जनम तक स्त्री ही बने रहने के लिए सहमति देवे।) अपने व्रत के दिन पतिदेव को नाना व्यंजन बनाकर खिलावे।

मुझे विश्वास है कि यदि गृहिणियाँ इन बेशकीमती सुझावों को हृदयंगम करेंगीं तो उनका दांपत्य जीवन लाखों में एक होगा। इन सुझावों का प्रचार-प्रसार कर इन्हें अन्य गृहिणियों तक पहुँचावें, और उनसे होने वाले लाभों को हम तक पहुँचावें।


© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 69 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 69 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 69) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 69☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कितना मुश्किल है, इस अंदाज़

में जिंदगी बसर करना

तुम्हीं से फ़ासला रखना

और तुम्हीं से इश्क़ करना…

 

How difficult it is to

live in this manner

To keep distance from

you and love you too…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

तेरे  वजूद  में  मैं

काश यूँ उतर जाऊँ

तू  देखे आईना और

मैं  तुझे  नज़र  आऊँ…

 

Wish if I could merge in

your existence so much

That you see the mirror

and I should  appear..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कभी परखना नहीं अपनों को,

परखने से कोई अपना नहीं रहता

वैसे भी देर तलक किसी आईने में

कभी कोई चेहरा नहीं रहा करता …..

 

Never put your loved ones to test,

if done, no one remains your own

As such, a face never stays

for a long time in a mirror…..!

 

 ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

चली आती है तेरी याद

अक्सर  मेरे  ज़ेहन में

तुझे हो ना हो तेरी यादों को

जरूर मुझसे मोहब्बत है…!

 

Your memories often knock

at the door of my mind

You may or may not but

your memories do love me…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 116 ☆ सोना और सोना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 116 ☆ सोना और सोना 

‘समय बलवान, समय का करो सम्मान’, बचपन में इस तरह की अनेक कहावतें सुनते थे। बाल मन कच्ची मिट्टी होता है, जल्दी ग्रहण करता है। जो ग्रहण करता है, वही अंकुरित होता है। जीवनमूल्यों के बीज, जीवनमूल्यों के वृक्ष खड़े करते हैं।

अब अनेक बार  किशोरों और युवाओं को मोबाइल पर बात करते सुनते हैं,- क्या चल रहा है?… कुछ खास नहीं, बस टीपी।.. टीपी अर्थात टाइमपास। आश्चर्य तो तब होता है जब अनेक पत्र-पत्रिकाओं के नाम भी टाइमपास, फुल टाइमपास, ऑनली टाइमपास, हँड्रेड परसेंट टाइमपास देखते-सुनते हैं। वैचारिक दिशा और दशा के संदर्भ में ये शीर्षक बहुत कुछ कह देते हैं।

वस्तुतः व्यक्ति अपनी दिशा और दशा का निर्धारक स्वयं ही होता है। गोस्वामी जी ने लिखा है- “बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।” मनुष्य तन पाना सौभाग्य की बात है। देवताओं के लिए भी यह मनुष्य योनि पाना दुर्लभ है। वस्तुत: ईश्वर से साक्षात्कार की सारी संभावनाएँ इसी योनि में हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि यह योनि नश्वर है।

योनि नश्वर है, अर्थात कुछ समय के लिए ही मिली है। यह समय भी अनिश्चित है। किसका समय कब पूरा होगा, यह केवल समय ही जानता है। ऐसे में क्षण-क्षण का अपितु क्षणांश का भी जीवन में बहुत महत्व है। जिसने समय का मान किया, उसने जीवन का सदुपयोग किया। जिसने समय का भान नहीं रखा, उसे जीवन ने कहीं का नहीं रखा। अपनी कविता ‘क्षण-क्षण’ का स्मरण हो आता है। कविता कहती है,  “मेरे इर्द-गिर्द / बिखरे पड़े हज़ारों क्षण / हर क्षण खिलते/ हर क्षण बुढ़ाते क्षण/ मैं उठा/ हर क्षण को तह कर / करीने से समेटने लगा / कई जोड़ी आँखों में / प्रश्न भी उतरने लगा / क्षण समेटने का / दुस्साहस कर रहा हूँ /मैं यह क्या कर रहा हूँ?..अजेय भाव से मुस्कराता / मैं निशब्द / कुछ कह न सका/ समय साक्षी है / परास्त वही हुआ जो/ अपने समय को सहेज न सका।”

एक प्रसंग के माध्यम से इसे बेहतर समझने का प्रयास करते हैं। साधु महाराज के गुरुकुल में एक अत्यंत आलसी विद्यार्थी था। हमेशा टीपी में लगा रहता। गुरुजी ने उसका आलस्य दूर करने के अनेक प्रयास किए पर सब व्यर्थ। एक दिन गुरुजी ने एक पत्थर उसके हाथ में देकर कहा,” वत्स मैं तुझ से बहुत प्रसन्न हूँ। यह पारस पत्थर है। इसके द्वारा लोहे से सोना बनाया जा सकता है। मैं दो दिन के लिए आश्रम से बाहर जा रहा हूँ। दो दिन में चाहे उतना सोना बना लेना। कल सूर्यास्त के समय लौट कर पारस वापस ले लूँगा।” गुरु जी चले गए। आलसी चेले ने सोचा, दो दिन का समय है। गुरु जी नहीं हैं, सो आज का दिन तो सो लेते हैं, कल बाजार से लोहा ले आएँगे और उसके बाद चाहिए उतना सोना बना कर लेंगे। पहले दिन तो सोने पर उसका उसका सोना भारी पड़ा। अगले दिन सुबह नाश्ते, दोपहर का भोजन, बाजार जाने का लक्ष्य इस सबके नाम पर टीपी करते सूर्यास्त हो गया। हाथ में आया सोना, सोने के चलते खोना पड़ा।

स्मरण रहे, यह पारस कुछ समय के लिए हरेक को मिलता है। उस समय सोना और सोना में से अपना विकल्प भी हरेक को चुनना पड़ता है। इति।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 69 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘दोहा सलिला … ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 69 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆

भौजी सरसों खिल रही, छेड़े नंद बयार।

भैया गेंदा रीझता, नाम पुकार पुकार।।

समय नहीं; हर किसी पर, करें भरोसा आप।

अपना बनकर जब छले, दुख हो मन में व्याप।।

उसकी आए याद जब, मन जा यमुना-तीर।

बिन देखे देखे उसे, होकर विकल अधीर।।

दाँत दिए तब थे नहीं, चने हमारे पास।

चने मिले तो दाँत खो, हँसते हम सायास।।

पावन रेवा घाट पर, निर्मल सलिल प्रवाह।

मन को शीतलता मिले, सलिला भले अथाह।।

हर काया में बसा है, चित्रगुप्त बन जान।

सबसे मिलिए स्नेह से, हम सब एक समान।।

*

मुझमें बैठा लिख रहा, दोहे कौन सुजान?

लिखता कोई और है, पाता कोई मान।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #99 ☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 99 ☆

☆ यज्ञ तथा प्राकृतिक पर्यावरण का मानव जीवन पर प्रभाव ☆

पृथ्वी सगंधसरसास्तथाप:, स्पर्शी च वायुर्ज्वलितं च तेज:।

नभ:  सशब्दं महतां सहैव, कुर्वंतु सर्वे मम सुप्रभातम्।

इत्थं प्रभाते परमंपवित्रम्, पठेतस्मरेद्वा श्रृणयाच्च  भक्त्या।

दु:स्वप्न नाशस्ति्त्व: सुप्रभातमं, भवेच्चनित्यम् भगवत् प्रसादात्।।

(वामन पुराण14-26,14-28)

अर्थात्–गंध युक्त पृथ्वी,रस युक्त जल,स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्द सहित आकाश, एवम् महतत्त्व, सभी मिलकर कर मेरा प्रात:काल मंगल मय करें।

सहयज्ञा: प्रजा:सृष्ट्वा पुरोवाचप्रजापति।

अनेन‌ प्रसविष्यध्वमेण वोअस्तित्वष्ट काम धुक्।।

 देवानंद भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।

परस्परं भावयंत:श्रेय: परमवाप्स्यथ।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यंते यज्ञभाविता:।

तैर्दत्तान प्रदायभ्यो तो भुंक्तेस्तेन एवस:।।

(श्री मद्भागवतगीताअ०३-१०-११-१२)

अर्थात् सृष्टि के प्रारंभ में समस्त प्राणियों के स्वामी प्रजापति ने भगवान श्री हरि विष्णु के प्रीत्यर्थ, यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं के संततियों की रचना की। तथा उनसे कहा कि तुम यज्ञ से सुखी रहो, क्यों कि इसके करने से तुम्हें सुख शांति पूर्वक रहने तथा मोक्ष प्राप्ति करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएं प्राप्त होंगी, उन यज्ञों से पोषित  प्रसंन्न देवता वृष्टि करेंगे, इस प्रकार परस्पर सहयोग से सभी सुख-शांति तथा समृद्धि को प्राप्त होंगे। लेकिन जो देवताओं द्वारा प्रदत्त उपहारों को उन्हें अर्पित किए बिना उपभोग करेगा वह महाचोर है।

इस प्रकार श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित श्लोक के चरणांश हमें शांत सुखी एवं आदर्श जीवन यापन की आदर्श शैली का सफल सूत्र तो बताती ही है।

हमारी जीवन पद्धति पूर्व पाषाण काल से लेकर आज तक लगभग प्रकृति की दया दृष्टि पर ही निर्भर है।जब पाषाण कालीन मानव असभ्य एवं बर्रबर था, सभ्यातायें विकसित नहीं थी, वह आग जलाना खेती करना पशुपालन करना नहीं जानता था। गुफा  पर्वतखोह कंदराएं ही उसका निवास होती थी। उस काल से लेकर वर्तमान कालीन  विकसित सभ्यता होने तक तमाम वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव समाज को  सुविधा भोगी आलसी एवं नाकारा एवम् पंगुं बना दिया, जिसके चलते हम प्रकृति एवम् पर्यावरण से दूर होते चले गए। हम आज भी उतनें ही लाचार एवम् विवस है जितना तब थे। बल्कि हम आज श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सिद्धांतों का परित्याग कर, प्रकृति का पोषण छोड़ उसका अंधाधुंध दोहन करने में लगे हुए हैं। हम प्राकृतिक नियमों की अनदेखी कर प्राकृतिक प्रणाली में  खुला हस्तक्षेप करने लगे हैं। जिसका परिणाम आज सारा विश्व भुगतता त्राहिमाम करता दीख रहा है। पर्यावरणीय असंतुलन अपने घातक स्तर को पार कर चुका है।

इसी क्रम में हमें याद आती है हमारे सनातन धर्म में वर्णित वेद ऋचाओं में शांति पाठ के उपयोगिता की, जिसमें पूर्ण की समीक्षा करते हुए लोक मंगल की मनोकामनाओं के साथ  समस्त प्राकृतिक शक्तियों पृथ्वी, अंतरिक्ष, वनस्पतियों औषधियों को शांत रहने के लिए आवाहित किया गया है। इस लिए वैदिक ऋचाओं का उल्लेख सामयिक जान पड़ता है।

 ऋचा—-

ऊं  पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।

पूर्णस्यपूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ऊं द्यौ:शान्तिरन्तरिक्षऽशांति शांति:, पृथ्वीशांतराप: शांतिरोषधय: शांति।

वनस्पतय: शांतर्विश्वेदेवा: शांतिर्ब्ह्म शांति: सर्वऽवम् शांति शातिरेव शांति:सा मां शातिरेधि शांति:।

ऊं शांति:! शांति:!! शांति!! सर्वारिष्टा सुशांतिर्भवंति।।

आज अंतरिक्ष अशांत है, पृथ्वी अशांत है, धरती एवम् आकाश के सीने में कोलाहल से हलचल मची हुई है, जलवायु प्रदूषण परिवर्तन तीव्रतम गति से जारी है, वनस्पतियां औषधियां अशांत हो अपना स्वाभाविक नैसर्गिक गुण खो रही है।

जिसका परिणाम सूखा बाढ़ बर्फबारी, आंधी तूफान तड़ित झंझा के रूप में दृष्टि गोचर हो रहा है, लाखों लोग भूकंप महामारी भूस्खलन से काल कवलित हो रहे हैं। वे अपने आचार विचार आहार विहार की प्राकृतिक नैसर्गिकता से बहुत दूर हो गये है।

प्राचीन समय के हमारे मनीषियों ने प्रकृति के प्राकृतिक महत्त्व को समझा था। इसी कारण वह धरती का शोषण नहीं पोषण करते थे।

जिसके चलते हमें प्रकृति ने फल फूल लकड़ी चारा जडी़ बूटियां उपलब्ध कराये। जिनके उपभोग से मानव  सुखी शांत समृद्धि का जीवन जी रहा था, यज्ञो तथा आध्यात्मिक उन्नति के चलते मानव समाज, लोक-मंगल कारी कार्यों में पूर्णनिष्ठा लगन से तन मन धन से जुड़ा रहता था, वह तालाबों कूपों बावड़ियों का निर्माण कराता, बाग बगीचे लगाता जिसे समाज का पूर्ण सहयोग तथा समर्थन प्राप्त होता। मानव औरों को सुखी देख स्वयं सुखी हो लेता,उसके लिए अपना सुख अपना दुख कोई मायने नहीं रखता। आत्म संतुष्टि से ओत प्रोत जीवन दर्शन का यही भाव कविवर रहीम दास जी के इस दोहे से प्रतिध्वनित होता है।

गोधन गजधन बाजिधन, और रतन धन खान।

जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।।

लेकिन आज ज्यो ज्यो सभ्यता विकसित होती गई, प्रकृति के साथ हमारी संवेदनाएं तथा लगाव खत्म होता गया, हमारे आचार विचार व्यवहार अस्वाभाविक रूप से बदल गये, दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे मानवीय मूल्यों की जगह हम स्वार्थी क्रूर अवसरवादी एवं उपभोग वादी बनते चले गये।

हमने जल जंगल जमीन के प्राकृतिक श्रोतों को काटना पाटना आरंभ कर दिया, पहाड़ों को नंगा कर ढहाने लगे, नदियों पर बांध बना तत्कालिक लाभ के लिए उसकी जीवन धारा ही छीन लिया।

उसमें शहरों की गंदी नालियों का जल-मल बहा उसे पनाले का रूप दे दिया। हमने अपने ही आंगन के पेड़ों कटाई कर उसकी छाया खत्म कर दिया, और हमारे शहर गांव कंक्रीट के जंगलों में बदलते चले गये  इस प्रकार हमारा जीवन भौतिक संसाधनों पर आश्रित होता चला गया, हमें अपनी संस्कृति अपने रीती रिवाज दकियानूसी लगने लगे, हमनें अपने कमरे तो ऐसी कूलर फ्रीज लगा ठंडा तो कर लिया लेकिन अपने वातावरण को भी जहरीली गैसों से भरते रहे आज हमारे शहर जहरीले गैस चेंबर में बदल गये है। भौतिक जीवन शैली और जलवायु परिवर्तन प्रदूषण ने जितना नुकसान आज पहुंचाया है उतना पूर्व काल में कभी भी देखा सुना नहीं गया।

आज इंसान अपने ही अविष्कारों के जंजाल में बुरी तरह फंस कर उलझ चुका है।

यद्यपि उसके द्वारा उत्पादित प्लास्टिक ने मानव जीवन को सुविधाजनक बनाया है लेकिन वहीं पर उसके न सड़ने गलने वाले प्लास्टिक एवम् इलेक्ट्रॉनिक रेडियो धर्मी कचरे ने पृथ्वी आकाश एवम् जलस्रोतों को इस कदर प्रदूषित किया है कि आज आदमी को पानी भी छान कर पीना पड़ रहा है।

मानव का जीना मुहाल होता जा रहा है। आज विश्व के सारे शहर प्लास्टिक के कचरे के ढेर में बदल रहे हैं। जिसके चलते डेंगू मलेरिया चिकनगुनिया  पीलिया हेपेटाइटिस तथा करोना जैसी महामारियां  तेजी से पांव पसार रही है।संक्रामक संचारी महामारियों के रूप पकड़ चुके हैं और इंसानी समाज अपने प्रिय जनों को खोकर मातम मनाने पर विवस है। जो आने वाले बुरे समय का भयानक संकेत दे रहा है जिससे दुनिया सहमी हुई है।हम अब भी नहीं चेते तो वह दिन दूर नहीं जब महाकाल नग्न नर्तन करेगा और एक दिन इंसानी सभ्यता मिट जायेगी। क्यौं कि हमने अपनी तबाही और बरबादी की सारी  सामग्री खुद ही जुटा रखी है।

इस क्रम में हम अपने पूर्वजों की जीवन शैली का अपनी जीवनशैली से तुलनात्मक अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनके लंबी आयु का मुख्य आधार तनावमुक्त जीवन शैली थी। वे गुरुकुलो एवम् ऋषिकुल संकुलों में प्राकृतिक  साहचर्य में रहते थे। अपनी यज्ञशालाओं में वेदरिचाओं  का आरोह अवरोह युक्त सस्वर पाठ करते, उनकी ध्वनियों तथा यज्ञ में आहूत समिधा के जलने से उत्तपन्न सुगंध से सुवासित सारा वातावरण सुरभित हो महक उठता था और वातावरण की नकारात्मक उर्जा नष्ट हो सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित हो उठती, सुबह शाम का संध्याबंदन अग्निहोत्र हमारी सांस्कृतिक जीवन शैली में प्राण चेतना भर कर उसे अभिनव गरिमा प्रदान करती, हम दिनभर सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण रहते, जिसके चलते हमारे समाज का जन जीवन उमंग उत्साह एवम् आनंद से परिपूर्ण होता, हमारे व्रतो त्यौहारों का उद्देश्य कहीं न कहीं  लोक-मंगल एवम पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा है, लेकिन आज़ तो हमारे जीवन की सुरूआत ही गाड़ी मोटर के हार्नो की कर्कस आवाजों टी वी मिक्सचर के शोर से आरंभ होकर  शाम डी जे के शोर में ढलती है क्यों कि हमारा कोई भी उत्सव हो अब बिना डीजे के शोर और धूमधड़ाके के अश्लील एवम् फूहड़ दो अर्थी गीतों के पूरा ही नहीं होता, मानों समस्त कर्मकांडो के अंत में कोई नया कर्मकांड जुड़ गया है।

आज हमारी स्वार्थपरता ने हमारे अपने बच्चों का ही बचपन छीन लिया है, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्हें बलि का बकरा बना दिया है, उन्हें डाक्टर या इंजिनियर बनाने की चाहत में हमने उनके खेलने खाने के दिन कम कर दिए हैं, उनकी जिंदगी पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की किताबों के बोझ तले दब कर घुट घुट कर सिसकने के लिए मजबूर है। उनकी बचपना की शरारतें खिलखिलाहट भरी नैसर्गिक मुस्कान उन्मुक्त हास्य कहीं मोबाइल फोन टीवी विडियो गेम के आकर्षण में खो गई है, टी वी नेट  तथा मोबाइल का अंधाधुंध दुरूपयोग बच्चों युवाओं को खेल के मैदान से दूर कर अपने मोह पास में कैद कर लिया है, जिससे उनका शारीरिक विकास तथा दमखम बुरी तरह प्रभावित हुआ है, और अंत में कमरों के भीतर अंधेरे में गुजरने वाला समय एकाकी पन का रूप पकड़ मानसिक अवसाद में परिवर्तित हो आत्महत्या का कारण भी बन रहा है उसके आकर्षण से क्या बच्चा क्या जवान क्या बूढ़ा कोई नहीं बचा। आज हमारे दिन की शुरूआत चिड़ियों के कलरव, बच्चों की किलकारियों, संगीत की स्वरलहरियों से नहीं, ध्वनिप्रदूषण वायुप्रदूषण के दौर से गुजरती हुई तनाव के साथ शाम की अवसान बेला क्लबों के शोर शराबे, नशे की चुस्कियों के बीच गुजरने के लिए बाध्य है, जो जीवन को दुखों के दरिया में डुबोने को आतुर दीखती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कि प्राकृतिक जीवन शैली यज्ञों एवम् लोक मंगल कारी सोच विचार का मानव जीवन तथा समाज पर बड़ा ही गहरा एवम् सकारात्मक प्रभाव होता है तथा जीवन शांति पूर्ण बीतता है।

और अंत में———————

#सर्वे भवन्तु सुखिन: की मंगल मनोकामना#

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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