हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 2– जगमग दीप जले — ☆डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “जगमग दीप जले —” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 2 ✒️

? गीत –  जगमग दीप जले —  डॉ. सलमा जमाल ?

जगमग – जगमग ये दीप जले ।

फिर भी अंधेरा दिया तले ।।

 

फैला अमावस का अंधेरा ,

निर्धनों को दुखों ने घेरा ,

बच्चे अभावों में हैं पले ।

जगमग ————— ।।

 

धनी वर्ग मनाऐ दिवाली ,

ख़ुशियां हैं कमाई – काली ,

ऊपरी तौर से मिलें गले ।

जगमग ————— ।।

 

सभी जलाएं आतिशबाज़ी ,

आपस में फ़िर भी नाराज़ी ,

खड़ी इंसानियत हाथ मले ।

जगमग ————— ।।

 

महलों में दीपों की कतारें ,

कुटिया में बचपन मन मारे ,

ग़म उनके रिस्ते सांझ ढले ।

जगमग ————— ।।

 

प्रकाश ने संदेश दिया है ,

हम सबने अनसुना किया है ,

सपने पलते आकाश तले ।

जगमग ————— ।।

 

काश ! मसीहा ऐसा आए ,

दीन – दुखी को गले लगाऐ ,

जो संग सलमा दो क़दम चले ।

जगमग ————— ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #86 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #86 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 2 ☆ 

छिंदवाड़ा :- गांधीजी यहां  अली भाइयों (मौलाना मुहम्मद अली एवं मौलाना शौकत अली) के आमंत्रण पर आए और 06 जनवरी 1921 को  एक आमसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने एक तरफ खिलाफत के अपमान का परिमार्जन करने हेतु कांग्रेस के आंदोलन का समर्थन किया तो दूसरी तरफ पंजाब में घटित जलियाँवाला बाग के अन्याय का विरोध भी किया। गांधीजी ने सैनिकों से कहा कि जनरल डायर जैसे  अत्याचारी का बेहूदा हुकूम मानने की अपेक्षा बहादुरी से  उसकी गोली खाकर मरना स्वीकार करें और इस प्रकार  सैनिकों से राजभक्ति की अपेक्षा देशभक्ति को मनुष्य का धर्म मानते हुए उसका अनुपालन करने को कहा। उन्होंने सैनिकों से निर्भय होकर कांग्रेस की सभाओं में शामिल होने का आग्रह किया. उन्होंने उपाधिधारियों से उपाधि त्यागने, वकीलों से वकालत छोड़ देने, पंद्रह वर्ष से अधिक आयु के बालकों से स्कूल छोड़ देने का आह्वान किया। इसके अलावा उन्होंने स्वदेशी के महत्व को रेखांकित करते हुए चरखा चलाने, हिन्दू मुस्लिम एकता को मजबूत करने और अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने का भी अनुरोध किया। जहां एक ओर गांधीजी ने वकीलों और विद्यार्थियों से बहिष्कार की अपील की तो दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टि से कमजोर वकीलों को कांग्रेस की ओर से मदद व विद्यार्थियों से पढ़ाई छोड़ने के बाद देशहित  के अन्य कार्यों से संलग्न होने की सलाह दी। इस प्रकार गांधीजी की  सभा से लोगों का उत्साह बढ़ा और अंग्रेजी शासन व उपाधिधारियों से उनका भय खत्म हुआ।

सिवनी व जबलपुर के अल्प प्रवास पर गांधीजी 20 व 21 मार्च 1921 को पधारे। सिवनी में  सभा को संबोधित करते हुए, कांग्रेस के नेता भगवान दीन यहां गिरफ्तार कर लिए गए थे, इसीलिए जनता का मनोबल बढ़ाने गांधीजी यहां विशेष रूप से आए और भाषण भी दिया। उन्होंने मद्यपान न करने की सलाह दी और कहा कि इससे बेहतर तो गंदे नाले का पानी पीना है।  गंदे नाले का पानी पीने से तो बीमारी होती है पर शराब पीने से आत्मा मलिन हो जाती है।

खंडवा :- इस नगर को महात्मा गांधी का स्वागत करने का अवसर दो बार मिला।  पहली बार बापू मई 1921 में जब वे अंबाला से भुसावल जाते हुए खंडवा में रुके थे। यद्दपि  यहां  उस दिन उन्होनें किसी सभा को संबोधित तो नहीं किया लेकिन रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे स्टेशनों पर उपस्थित जनसमूह को उन्होंने अवश्य संबोधित किया। ऐसे ही एक भाषण में उल्लेख है कि स्टेशन पर आए जनसमूह से उन्होंने तिलक स्मृति कोष के लिए दान देने की अपील की, स्वराज का अर्थ केवल टोपी तक सीमित न रखते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और खादी अपनाने का आग्रह किया और उन्हें  फूल भेंट करने की जगह स्वराज के लिए धन देने को कहा। गांधीजी ने अस्पृश्यता निवारण हेतु भी लोगों से कहा कि भंगी-चमार को अस्पृश्य न माने और उनकी और ब्राह्मण की समान सेवा करें। दूसरी बार गांधीजी 1933 में खंडवा आए और तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष रायचंद नागड़ा के आवास पर रुके। रेलवे स्टेशन पर गांधीजी का स्वागत माखनलाल चतुर्वेदी की बहन कस्तूरी बाई ने सूत की माला पहना कर किया और स्थानीय घंटाघर चौक  में विशाल आमसभा को संबोधित किया और अस्पृश्यता को दूर करने हेतु लोगों से इस पुनीत कार्य में जुट जाने की अपील की। खंडवा में जिस स्थान पर गांधीजी की सभा हुई थी, वहां स्मारक का निर्माण किया गया और उस जगह को गांधी चौक नाम दिया गया। यहां  एक लगे स्मृति पटल  के अनुसार गांधीजी ने 01अप्रैल 1930 को खंडवा में आम सभा को संबोधित किया था, लेकिन यह तिथि सही है पर वर्ष गलत है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 111 ☆ अरुंधती ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 111 ?

☆ अरुंधती ☆

 ऋषीपत्नी अरुंधती

गाऊ तिचीच आरती

एकनिष्ठा पतिव्रता

सुयज्ञाची हीच माता !

 

वशिष्ठ नि अरुंधती

युगानुयुगे जन्मती

आदर्श हे पती पत्नी

अढळपदी पोचती !

 

पातिव्रत्य धर्म तिचा

असे मनस्वी मानिनी

 दक्षराजाची ती कन्या

कुलवती सौदामिनी !

 

आतिथ्य धर्म आचारी

तेजस्वी गुणसुंदरी

गाऊ गुणगान तिचे

सारे जन्म हो भाग्याचे

 

तारा तो चमचमता

देवी अरुंधतीमाता

नवदांपत्ये प्रार्थिती

लाभावया फलश्रुती

 

पुण्यवती पावन ती

 शुभांगिनी सुभाषिणी

अलौकिका ही भामिनी

कृतार्थ झाली जीवनी!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 9 – आओ लौटें बालपन में… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “आओ लौटें बालपन में… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 9 – आओ लौटें बालपन में…  ☆ 

सजल

समांत – आरे

पदांत –

मात्राभार- 14

 

राह हरियाली निहारे।

गाँव की यादें पुकारे।।

 

आओ लौटें बालपन में,

जो सदा हमको सँवारे।

 

गाँव की पगडंडियों में,

प्रियजनों के थे दुलारे।

 

गर्मियों की छुट्टियों में,

मौज मस्ती दिन गुजारे।

 

बैठकर अमराइयों में, 

चूसते थे आम सारे।

 

ताकते ही रह गए थे,

बाग के रक्षक बिचारे।

 

आँख से आँखें मिलें जब,

प्रेम के होते इशारे।

 

पहुँच जाते थे नदी तट,

प्रकृति के अनुपम नजारे।

 

भूल न पाए हैं बचपन,

संग-साथी थे हमारे।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 129 ☆ व्यंग्य – ड्रेन आउट द मनी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘ड्रेन आउट द मनी’ । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 129 ☆

?  व्यंग्य – ड्रेन आउट द मनी ?

दक्षिण भारत के एक जूनियर इंजीनियर साहब के घर के ड्रेन पाईप से एंटी करप्शन ब्यूरो ने पांच सौ रुपये के ढ़ेर से बंडल ढ़ूंढ़ निकाले और चोक नाली से जल की अविरल धारा पुनः बह निकली. अब इन जाँच एजेंसियो को कौन बताये कि रुपये कमाना कितना कठिन है. घोटाले, भ्रष्टाचार, कमीशन, हफ्ता, पुलिसिया वसूली, माफिया, शराब, ड्रग्स, सेक्स रैकेट,  वगैरह कुछ लोकप्रिय फार्मूले हैं जिनमें रातो की नींद दिन का चैन सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है, तब कहीं बाथरूम की दीवारों, छत की सीलिंग, फर्श या गद्दे में छिपाने लायक थोड़े से रुपये जुट पाते हैं. अपने और परिवार के सदस्यो यहां तक कि कुत्ते बिल्ली के नाम पर सोना चांदी, चल-अचल संपत्ति अर्जित करना हंसी खेल नही होता. उनसे पूछिये जिन्होंने ऐसी अकूत कमाई की है. अरे मन मारना पड़ता है तरह तरह के समझौते करने पड़ते हैं, गलत को सही बताना पड़ता है. किसी की बीमारी की मजबूरी में उससे रुपये ऐंठने के लिये कितना बेगैरत बनना पड़ता है, यह किसी भी ऐसे डाक्टर से पूछ लीजीये जिसने महामारी की आपदा में अवसर तलाश कर रुपये बनायें हों.  जांच के दौरान संपत्ति का कोई हिसाब-किताब नहीं दे पाने का रुतबा हासिल करना बिल्कुल सरल नही होता. ऐसे बड़े लोगों के ड्राइवर, नौकर, कर्मचारी भी उनकी बेनामी संपत्तियो के आफिशियल मालिक होते हैं. नेता जी, सरकारी अफसर, ठेकेदार, डाक्टर जिसे जहाँ मौका मिल पाता है अपने सारे जुगाड़ और योग्यता से संम्पत्ति बढ़ाने में जुटे दिखते हैं. दूसरी ओर आम आदमी अपना पसीना निचोड़ निचोड़ कर महीने दर महीने बीमा की किश्तें भरता रहता है और बैंक स्टेटमेंट्स में बढ़ते रुपयो को देखकर मुंगेरीलाल के हसीन सपनों में खोया रहता है. वैसे रुपये कमाना जितना कठिन है, उन्हें संभालना उससे भी ज्यादा मुश्किल. माया बड़ी ठगनी होती है. सही निवेश न हो तो मेहनत से कमाई सारी संपत्ति डेप्रिशियेशन की भेंट चढ़ जाती है. शेयर बाजार बड़ों बड़ो को रातों रात सड़क पर ले आने की क्षमता रखता है.

आई ए एस के साक्षात्कार में पूछा गया यदि  2 करोड़ रुपये १० मिनट में छिपाने का समय मिलता हैं तो आप क्या करेंगे ?  उम्मीदवार का उत्तर था मैं ऑनलाइन आयकर विभाग को स्वयं सूचित करूँगा और उनको जानकारी दूंगा कि मेरे पास 2 करोड़ रुपये अघोषित धन हैं. मै इस 2 करोड़ पर जितना कर और जुर्माना बनता हैं सब जमा करना चाहता हूँ. जितना कर और जुर्माना निर्धारित होगा उसे जमा कर दूंगा. इसके बाद जो भी धनराशि बचेगी वह सफ़ेद धन बन जाएगी और उसे म्यूचुअल फंड में निवेश कर दूंगा. कुछ ही वर्षों में वह बढ़कर 2 करोड़ से ज्यादा हो जायेगी. उम्मीदवार का चयन कर लिया गया. नियम पूर्वक चलना श्रेष्ठ मार्ग होता है. रुपयों को रोलिंग में बने रहना चाहिये. लक्ष्मी मैया सदा ऐसी कृपा बनायें रखें कि अच्छा पैसा खूब आये और हमेशा अच्छे कामों में लगता रहे. सद्कार्यो में किया गया निवेश पुण्य अर्जित करता है  और पुण्य ही वह करेंसी है जो परलोक में भी साथ जा सकती है. शायद इसीलिये धर्माचार्य भले ही स्वयं अपने आश्रमो में लकदक संग्रह करते हों पर अपने शिष्यों को यही शिक्षा देते नजर आते हैं कि रुपया हाथ का मैल है. दान दया ही माया को स्थायित्व देते हैं. तो यदि घर के ड्रेन पाईप से रुपयों की बरामदगी से बचना हो तो  मेक इट योर हेबिट टु ड्रेन आउट द मनी इन गुड काजेज एण्ड हेलपिंग अदर्स.  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 114 ☆ प्रकाशाचा पूर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 114 ?

☆ प्रकाशाचा पूर ☆

अमावास्येच्या रात्री

अंधारात भटकताना

एक चंद्र दिसला

आणि मार्गातला अंधार

थोडा कमी झाल्यासारखा वाटला

तसा मार्ग खडतर होता

ठेचकाळत चालताना

चंद्र मला सावरत होता

तोल माझा ढळताना

अंधाराला हळूहळू माग सारत गेल्या

चंद्रासाठी धावून मग चांदण्या पुढे आल्या

अंधाराचं मळभ आता झालं होतं दूर

चंद्रासोबत आला होता प्रकाशाचा पूर

चंद्र पौर्णिमेचा दिसेल वाटलं नव्हतं कधी

पंधरवड्याची यात्रा माझी झाली नव्हती आधी

आता माझे उजेडाशी जुळले आहेत सूर

भरून आहे घरामध्ये चंदनाचा धूर…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 66 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 66 –  दोहे ✍ 

सेवक बनकर गए तुम, उपजी स्वामी-साध।

सत्ता के सुख स्वाद वश, हुए बहुत अपराध।।

 

मगन गगन उड़ते रहे, रखे न पांव जमीन।

तुम्हें कमी कब रही है, हम ही रहे ‘कमीन’।।

 

तुम ‘सुनार’ की तरह हो, जनता ठेठ ‘लुहार’।

एक लहर में कराती, सब का बेड़ा पार।

 

प्रेम, समर्पण, मधुरता, प्रिय जन का विश्वास।

दूरदर्शनों ने किया, सब का सत्यानाश।।

 

उपग्रह चैनल ने किया, काफी कुछ उपकार

लेकिन खतरे कम नहीं, करलें तनिक विचार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 66 – बस एक चाह साँझ….☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बस एक चाह साँझ….. । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 66 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || बस एक चाह साँझ ….. || ☆

फटी कमीज के टूटे

हुये बटन जैसा

अटक गया है दिन

कण्ठ में घुटन जैसा

 

उतर रही है साँस

प्राण के  झरोखे से

सम्हल गई है हवा

किसी नये धोखे से

 

पाँव चलते रहे इन

काँच  हवा-महलों

दर्द बढ़ता रहा है

एडियों फटन जैसा

 

चढ़े बुखार में वह

धूप में तपे ऐसे

भरी दोपहर कहीं

प्यास बढ रही जैसे

 

वही फुटपाथ के पत्थर

पर पड़ा सकुचाता

वक्त की बाँह पर खोयी

हुई खटन जैसा

 

बस एक चाह साँझ

कैसे भी उतर आये

रेंगता समय जहाँ

मन्द-मन्द मुस्काये

 

बच गई एक आस

तनिक कहीं राहत की

जिसे कहा करते हम

नाम की रटन जैसा

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

23-11-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 112 ☆ बचपन के दिन…. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपके बचपन के संस्करण  ‘बचपन के दिन….’ )  

☆ संस्मरण # 112 ☆ बचपन के दिन….  ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

बचपन के दिनों को जिंदगी के सबसे सुनहरे दिनों में गिना जाता है। ये वो सबसे खास पल होते हैं, जब न ही किसी चीज की चिंता होती है और न ही किसी चीज की परवाह। हर किसी के बचपन का सफर यादगार और हसीन होता है, इसलिए अक्सर लोगों से मुंह से यह कहते जरूर सुना होगा कि ‘वो दिन भी क्या दिन थे’

बचपन पचपन के बाद थोड़ा ज्यादा याद आता है,

कंचे खेलते वे दिन,

पतंग लूटने की जद्दोजहद,

गिल्ली डंडा की उड़ती हुई गिल्ली,

तितली पकड़ने की भाग-दौड़,

कागज के हवाई जहाज का क्लास रूम में उड़ाना,

समय बिताने के लिए करना है कुछ काम,

हरी थी, मन भरी थी,

लाख मोती जड़ी थी,

राजा जी के बाग में 

दुशाला ओढ़े खड़ी थी, 

अखण्ड अंताक्षरी के मजे।

मोर-पंख किताबों में छुपाना,

स्कूल की छुट्टी होने पर

दौड़ते- भागते

एक दूसरे को टंगड़ी मारना,

वो सच, वो झूठ, वो खेल, वो नाटक, वो किस्से, वो कहानी

परियों वाली……

जबलपुर के नरसिंह बिल्डिंग परिसर में हमारा बीता बचपन,

नरसिंह बिल्डिंग में भले 60-70 परिवार रहते थे पर नरसिंह बिल्डिंग परिसर भरा पूरा एक परिवार लगता था । सभी हम उम्र के दोस्तों के असली नाम के अलावा घरेलू चलतू निक नेम थे, जो बोलने बुलाने में सहज सरल भी होते थे, जो उन 60-70परिवार के लोग बड़ी आत्मीयता से बोलते थे, निक नेम से ही सब एक दूसरे को जानते थे, जैसे फुल्लू, गुल्लू, किस्सू, गुड्डू, मुन्ना, मुन्नी, सूपी, राजू, राजा, नीतू, संजू, बबल, लल्ला, बाला, जग्गू आदि … आदि, सभी सुसंस्कारवान और सबका लिहाज और सम्मान करने वाले…….

तो एक दिन अचानक जयपुर से फुल्लू भाई (अनूप वर्मा) का फोन आया कि नरसिंह बिल्डिंग के फ्लैट नंबर 22  में 46 साल पहले रहने वाले मिस्टर कुमार नासिक से जबलपुर पहुँचे हैं और 46 साल पुरानी यादों को ताजा करने वे नरसिंह बिल्डिंग पहुचे हैं,अनूप ने नंद कुमार का फोन नंबर भी भेजा, हमने कुमार से बात की, पता चला कि वे मानस भवन के पास की पारस होटल में रूके हैं, 46  साल बाद पहली बार किसी को देखना और मिलकर पहली बार बात करना कितना रोमांचक होता है,जब हम और कुमार ने नरसिंह बिल्डिंग के उन पुराने दिनों के एक एक पन्ने को याद करना चालू किया,कुछ हंसी के पल,कुछ पुराने अच्छे लोगों के बिछड़ जाने की पीड़ा आदि के साथ कुमार ने सब परिवारों को दिल से याद किया, लाल ज्योति की याद आई, जग्गू और किस्सू को याद किया,मुरारी से मुलाकात का जिक्र आया,तो छत में रहने वाली नर्स बाई के जग्गू की बात हुई,रवि कल्याण,मीरा,चींना याद आए,ऊधर बिशू राजा ललिता से लेकर साधना, सूपी, शोभा, चिनी, मुन्नी, विनीता, संजू, भल्ला आदि सब कहाँ और कैसे की कुशलक्षेम बतायी गई, सात समंदर पार बैठी जया,नीलम, बड़े फुल्लू,अरविन्द,और सरोज दीदी को भी याद किया, 46 सालों का लेखा जोखा की बात करते हुए कुमार ने हंसी की फुलझड़ियां छोड़ते हुए बताया कि हमारे घर के नीचे फ्लैट नंबर 7और फ्लैट नंबर ८ में ‘ई एस आई’ का अस्पताल था जिसमें नीले रंग का छोटा सा बोर्ड  लगा था जिसमें लिखा था “छोटा परिवार सुखी परिवार ” पर डिस्पेंसरी के ऊपर नौ बच्चे का परिवार, डिस्पेंसरी के बाजू में नौ बच्चों का परिवार फिर बोर्ड में लिखी इबारत का नरसिंह बिल्डिंग में कितने घरों में पालन की समीक्षा में लगा कि नरसिंह बिल्डिंग में नौ बच्चे के परिवार खूब थे,पर गजब ये था कि सभी परिवारों में, अदभुत तालमेल और अपनत्व भाव था, पूरा भारत देश उस नरसिंह बिल्डिंग परिसर में बसा था, सभी त्यौहार सभी मिलजुल कर मनाते, एक नरसिंह बिल्डिंग परिसर ऐसी फलने वाली जगह थी जहाँ हर तरफ से सबके पास विकास के दरवाजे खुले मिले हर किसी ने हर फील्ड में उन्नति पाई ।

कुछ दिन बाद जयपुर से खबर आई कि मित्र छोटा फुल्लू (अनूप वर्मा) नहीं रहा, उसके साथ बिताए बचपन के दिन याद आये तो इतना सारा लिख दिया।

बचपन की सारी यादें साथ हैं,

 वे सारे लम्हें मेरे लिए खास हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #56 ☆ # जीवन का कटु सत्य # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# जीवन का कटु सत्य #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 56 ☆

☆ # जीवन का कटु सत्य # ☆ 

कभी कभी जीवन में ऐसे

मोड़ आते हैं

कभी कभी राह में

अपने भी छोड़ जाते हैं

दरक जाते है रिश्ते

छोटी सी बात पर

कभी कभी खून के रिश्ते भी

लोग तोड़ जाते हैं

 

बड़ा अजीब है

रिश्तों का यह सफ़र

कहीं खुशी तो

कहीं बरप रहा है कहर

गले मिलके भी

लोग देते है गहरे घाव

घाव भरते भरते

समय जाता है ठहर

 

समय के साथ

जो व्यक्ति सदा चलता है

जिसके दिल में

दया, करूणा, प्रेम

सदा पलता है

वो पार कर जाता है

जीवन की वैतरणी

उसके जीवन में

सूरज कभी नहीं ढलता है

 

सूरज जीवन रूपी सत्य का

एक सुनहरा रूप है

घनघोर अंधेरे में भी

खिलती हुई धूप है

पाखंडी घूम रहे हैं

लगा के मुखौटे

सत्य के आगे

वे सारे चुप हैं

 

कभी कभी बेखौफ धाराओं को भी

रूकना पड़ता है

मन में चोर हो तो

उन्हें छुपना पड़ता है

अहंकार, घमंड का

जिन्होंने पहना हो लिबास

उन्हें भी जांबाजों के आगे

सदा झुकना पड़ता है

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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