मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 88 – एक कविता तिची माझी..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #88 ☆ 

☆ एक कविता तिची माझी..! ☆

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

भिजलेल्या पानांची ..

कोसळत्या सरींची ..

निथळत्या थेंबाची ..

तर कधी.. हळूवार पावसाची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती.

गुलाबांच्या फुलांची ..

पाकळ्यांवरच्या दवांची ..

गार गार वा-याची ..

तर कधी.. गुणगुणां-या गाण्यांची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

वाहणा-या पाण्याची..

सुंदर सुंदर शिंपल्याची ..

अनोळखी वाटेवरची ..

तर कधी ..फुलपाखरांच्या पंखावरची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती.

उगवत्या सुर्याची ..

धावणा-या ढगांची..

कोवळ्या ऊन्हाची ..

तर कधी पुर्ण.. अपूर्ण सायंकाळची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

काळ्या कुट्ट काळोखाची..

चंद्र आणि चांदण्यांची ..

जपलेल्या आठवणींची ..

तर कधी.. ओलावलेल्या पापण्यांची…!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

पहील्या वहील्या भेटीची ..

गोड गुलाबी प्रेमाची ..

त्याच्या तिच्या विरहाची ..

तर कधी.. शांत निवांत क्षणांची ..!

 

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती .

कधी तिच्या मनातली ..

कधी माझ्या मनातली..

एक कविता तिची माझी ..

रोज भेटते फेसबुक वरती..!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #108 – दुखों का सुख….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता  “दुखों का सुख…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #108 ☆

☆ दुखों का सुख…..

 

दुखों का सुख….

घावों को अपने

उघाड़-उघाड़ कर

दर्द को बार-बार कुरेदना

जतन से सहलाते हुए

दुखों को अंतस में सहेजना

अच्छा लगता है।

 

 रुग्ण वेदना में भी

दुख का सुख पीना

अपने खालीपन को

दुखों से भर कर जीना

बाहर उलीचने के बजाय

उन्हें रात दिन सींचना

अच्छा लगता है।

 

कभी प्रवक्ता बन दुखों का

कारुणिक बखान करना

आँखों में अश्रुजल भरना

पीड़ा के स्थाई भाव

प्रदर्शित कर दूजों से

सहानुभूति प्राप्त करना

अच्छा लगता है।

 

हमारे दुखी होने से

आपका सुखी होना

और आपके सुख से

हमारा दुखी होना

सप्रयास दुख कमाना

सुखों को भी

दुख का आवरण पहनाना

अच्छा लगता है।

 

सुखों की सुरक्षा को

दुख का ताला

गहन अंधेरे  के बाद

किरण भर उजाला

बन्द कर स्वयं को

फिर चाबियाँ सँभालना

अच्छा लगता है

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत अपनी साईकल से मार्केट जा रहा था तफरीह करने नहीं बल्कि पिता द्वारा दिये गये ऑफिस ऑर्डर का पालन करने. रास्ते में पैट्रोल पंप के पास उसकी साईकल रुक गई, असहमत का पैट्रोल से कोई लेना देना नहीं था पर रुकने के दो कारण थे. पहला, उसकी साइकिल की चेन उतर गई थी और दूसरा उसका एक अमीर दोस्त अपनी लखिया बाइक में पैट्रोल फिलिंग के बाद बाहर आ रहा था. असहमत के रुकने का कारण मित्र से मिलने का नहीं बल्कि अपनी साइकिल सहित किनारे सुरक्षित स्थान पर रुकना था. मित्र ने असहमत को देखकर बाइक उसके सामने ही खतरनाक ढंग से ब्रेक लगाते हुये रोककर अपनी अमीरी के अलावा अपनी कुशल पर खतरनाक ड्राइविंग का दबंगी भरा प्रदर्शन किया और पहला सवाल दागा : कब तक. अब इस सवाल के कई मतलब थे, पहला कैसे हो बतलाने की जगह कब तक साईकल पर ही चलोगे.दूसरा हमारे क्लासफेलो तो थे पर हमारी क्लास के कब तक बन पाओगे.

असहमत : पिताजी के काम से डेप्यूटेशन पर हूँ इसलिए वाहन सुख मिल रहा है वरना बेरोजगारी, विनोबा भावे ही बनाती है .

मित्र : खैर तुमसे उम्मीद तो हम लोगों याने सहपाठियों को भी नहीं थी पर अभी हम लोग नेक्सट वीक एक प्रि रियूनियन प्रोग्राम कर रहे हैं.पास के ही आलीशान रिसॉर्ट में मंगल (जंगल याने रिसॉर्ट में मंगल) मनाने जा रहे हैं तो तुम अब हो तो हमारे क्लासफेलो तो शामिल हो जाना.

असहमत ने भी अपनी विद्यालयीन बेशर्मी का प्रयोग करते हुये कह दिया कि तुम जानते तो हो ही कि ऐसे प्रोग्राम में आने के लिये हम सहमत तब ही होते हैं जब ये कार्यक्रम 100% सब्सीडाईज्ड हों.

मित्र : बिल्कुल है क्योंकि तुमसे अच्छा और सस्ता टॉरगेट हम लोगों के बैच में नहीं है. तो इस वीकएंड पर सुबह तैयार रहना, हम लोग तुमको पिकअप कर लेंगे.

असहमत ने भी सहमति दी साथ में उल्हास और आनंद भी एक के साथ दो फ्री की स्टाइल में और कल्पनाओं के आनंद में डूब गया.

प्री-रियूनियन नामक प्रचलित उत्सव का आगाज़ लगभग दस  सहपाठियों के साथ हुआ जिनमें धनजीवी, मनजीवी, सुराजीवी, द्यूतजीवी, क्रीड़ाजीवी, सामिष और निरामिष जीवी सभी प्रकार की आत्मन थे. सोशलमीडिया जीवी लोगों को हड़काते हुये मोबाइल का प्रयोग सिर्फ फोटो खींचने के लिये अनुमत किया गया.सिर्फ असहमत ही परजीवी parasite था जो लेगपुलिंग का नायक बनने के लिये मानसिकरूप से तैयार होकर आया था.

जब सूरज ढलते ही, दिनभर की स्पोर्टिंग गतिविधियों के बाद सुर और सुरा से सज्जित सुरीली शाम का आरंभ हुआ तो महफिल के पहले दौर में गीतों गज़लों, विभिन्न तरह की सुरा और कोल्ड ड्रिंक के आयोजन में दोस्त लोग डूबने के लिये मौज की धारा में उतरते गये. शाम गहरी होकर रात में बदली तो नशा भी गहरा हुआ और गीतों गज़लों को गाने में और समझने में आ रही मुश्किलों के कारण जोक्स महफिल में अवतरित हुये. दोस्तों की महफिल में खाने के मामले में लोग वेज़ेटेरियन हो सकते हैं पर जोक्स तो हर तरह के सुनने और सुनाने पड़ते ही हैं.

तीसरे दौर और कुछ फॉस्ट टैग धारियों के चौथे दौर में टॉपिक ने दोस्ताना माहौल को भौतिकवादी उपलब्धियों में बदल दिया और बात शान शौकत पर आ गई. हर किसी के अपने अपने तंबू थे, दुकाने थीं जिनसे निकाल निकाल कर उपलब्धियों का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान शुरु हो गया. अचानक असहमत पर नज़र उस दोस्त की पड़ी जिसके दम पर वो पार्टी इनज्वाय कर रहा था. डायरेक्ट तो नहीं पर इनडायरेक्टली सिर्फ इतना ही कहा कि तुम्हारा मुफ्त का चंदन ज्यादा खुशबू दे रहा है.

असहमत विभिन्न तरह के ब्रांड्स चेक करने के चक्कर में काकटेली फिलासफर बन चुका था, तो उसके दर्शन शास्त्र से ही प्रि रियूनियन का सेशन एंड हुआ.

स्टूडेंट लाईफ में भले ही हम क्लासफेलो रहे हों पर ये सिर्फ अतीत ही होता है और समय के साथ भौतिक उपलब्धियों का मुलम्मा हमें डिफरेंट क्लास और डिफरेंट टाईम ज़ोन में स्थापित कर देता है. जैसे :अमरीका में निवासरत दोस्त का टाईमज़ोन हमसे अलग हो जाता है, हमारे लिये even उसके लिये odd बन जाता है और शायद यही रिवर्सिबल भी हो. जब सिर्फ 12 घंटे का ये अंतर इतना बदलाव ले आता है तो तीस चालीस वर्ष का सामयिक अंतराल तो बहुत कुछ बदल देता है. हम मिलते हैं तो अतीत की स्मृतियों को recreate करने की शुरुआत करते हैं पर धीरे धीरे वर्तमान अपनी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर पाता और इस लंबे टाईमज़ोन के पात्र रियूनियन के आनंदित स्मृतियों के साथ साथ आहत स्मृतियां भी लेकर वर्तमान में लौटते हैं. शायद समय ही सबसे शक्तिशाली है और वर्तमान ही सबसे बड़ा कटु सत्य.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 1– मुझे याद रब की —- ☆डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

अब आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “मुझे याद रब की —-” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 1 ✒️

? गीत – मुझे याद रब की —- डॉ. सलमा जमाल ?

मुझे याद रब की ,बहुत आ रही है ।

ग़म से अब आवाज़ ,थर्रा रही है ।।

 

चांद हुआ मद्धम , सितारे पशेमां,

टुकड़े – टुकड़े बादल, बिखरे अरमां ,

चांदनी दबे पैर , चली जा रही  है ।

मुझे याद ———————— ।।

 

फ़लक से उतरी है , लाली ज़मीं पे ,

कोरोना से बरपा , क़हर हमीं पे ,

शुमाऐं सूरज की , शरमां रहीं हैं ।

मुझे याद ———————— ।।

 

परिंदे हैं सहमें , यह कैसा आलम ,

लाशों के ढेरे ,  हुक़ूमत है ज़ालिम ,

सदायें दुआ ख़ैर , की आ रहीं हैं ।

मुझे याद ———————— ।।

 

इक सांस के लिए , तड़पते हैं इंसान ,

कल घर थे गुलशन , हुए आज वीरां ,

ये वबा पंख अपने, फ़ैला रही है ।

मुझे याद ———————- ।।

 

क़फ़न है ना लकड़ी ,ना पैसा ज़मीं है ,

सांसें बाप बेटे की , साथ थमीं हैं ,

लाशें गंगाजल में , उतरा रहीं हैं ।

मुझे याद ———————– ।।

 

एहसास दिल के , हो गए आज मुर्दा ,

दामन बिछाओ , करे ‘सलमा’ सिजदा,

नमाज़- ए- मोहब्बत, क़ज़ा हो रही है ।

मुझे याद ———————— ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #85 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 1 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #85 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 1 ☆ 

महात्मा गांधी विगत शताब्दी की ऐसी विलक्षण विभूति हुए जो आज भी कालजयी हैं। उनके विचारों को जितना पढ़ा गया, उस पर लिखा गया और विश्व जनमत में स्वीकार्य किया गया उतना गौरव शायद ही किसी विभूति को मिला होगा। गांधीजी की प्रासंगिकता क्यों बनी हुई है? यह उनके विचारों व कृतित्व का पारायण और उनकी यात्राओं से  संबंधित विवरणों को जानकर ही समझा जा सकता है।  गांधीजी ने कहा था कि उनका जीवन ही संदेश है और उनके जीवन के दर्शन हमें होते हैं, उनके यात्रा वृतांतों को पढ़कर। गांधीजी ने जीवन भर भारत की विशाल भूमि को कई बार नापा। उनकी कोई भी यात्रा कभी भी निरुद्देश्य नहीं रही। वे जहां  कहीं गए, समय के एक एक पल का सदुपयोग, उन्होनें  भारत के जनजागरण में किया। मध्य प्रदेश की उनकी यात्राएं इस तथ्य की पुष्टि करती हैं। वे मध्य प्रदेश सर्वप्रथम 1918 में आए, उद्देश्य था हिन्दी सम्मेलन की अध्यक्षता करना। यहाँ उन्होनें हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की अगर पैरवी की तो दूसरी ओर वे उपाय भी सुझाए जिससे हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सकता है। गांधीजी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उसके बाद उनकी एक सभा मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जैसे छोटे से कस्बे में हुई। यहां उनके द्वारा दिया गया भाषण वस्तुत: स्वराज प्राप्ति के लिए जनता के आह्वान की ऐसी उद्घोषणा थी जिसने देश को झकझोरने में अहम भूमिका निभाई। गांधीजी जहां कहीं गए उन्होनें अपना एजेन्डा जनता के सामने स्पष्ट शब्दों में रखा। और उनका एजेन्डा था मद्दनिषेध, सर्वधर्म समभाव, हिन्दू-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता निवारण, स्वराज  के लिए स्वदेशी अपनाने का आह्वान और स्वदेशी के लिए चरखा चलाने की वकालत, स्वराज के लिए धन संग्रह । गांधीजी ने अपने आंदोलन को जन जन का आंदोलन बनाने के लिए सबका विश्वास जीता और विश्वास जीतने के लिए अगर मंडला में उन्होंने कहा कि यदि आप मुझसे सहमत न हों तो मेरा विरोध करें तो जबलपुर के ईसाइयों को संबोधित करते हुए उन्होनें कहा कि अस्पृश्यता निवारण में हमारी मदद सच्चे मन से करें। गांधीजी जहां कहीं गए जनता ने उनका स्वागत अपने मुक्तिदाता के रूप में किया और गांधीजी ने भी उनका ध्यान एक पालक के रूप में रखा। वे सबसे मिले बिना किसी भेदभाव के मिले, अगर बुजुर्गों से मिले तो अनंतपुरा  नवयुवक जेठालाल से भी न केवल मिलने गए वरन एक रात उसकी कुटिया  में बिताई भी। सभी से उन्होंने दान की अपील की और आज से सौ वर्ष पूर्व महिलाओं ने अपने गहने उन्हें अर्पित किए तो मनकीबाई सरीखी गरीबणी ने एक-एक पैसा एकत्रित कर कुछ रुपये गांधीजी के भिक्षा पात्र में डाले। हरिजनों के मंदिर प्रवेश को गांधीजी ने सुनिश्चित किया और उनके इन्हीं प्रयासों का प्रतिफल आज भारत के लोग भोग रहे हैं।

महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत वापस आए, तो उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे भारत आकर शीघ्रता से कोई कार्य न करें और किसी भी  सार्वजनिक प्रश्न पर कुछ कहने से पहले, एक साल तक चुपचाप देश की परिस्थितियों का अध्ययन करें।  गांधीजी ने इस सलाह की गांठ बांध ली और आजीवन वे भारत की यात्रा करते रहे, यहां के निवासियों से मिलते रहे, उनके दुख दर्द जानने और उन्हें दूर करने का प्रयास करते रहे। इन यात्राओं से गांधीजी को देश की  समसामयिक परिस्थतियों की जानकारी मिली। लोगों से उनकी ही भाषा में संवाद करने के बाद ही गांधीजी के मन में स्वदेशी और अस्पृश्यता निवारण जैसे विषयों पर ध्यान केंद्रित करने की भावना जागृत हुई। गांधीजी को आम लोगों के मध्य व्याप्त हीन भावना व शासकों के प्रति भय का पता चला. इसी क्रम में वे नौ बार तत्कालीन मध्य प्रांत और वर्तमान मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ शामिल नहीं है) की धरती पर पधारे। प्रदेश की यह यात्राएं व्यापक प्रयोजन के साथ की गई और गांधीजी ने रेल गाड़ी के तृतीय श्रेणी के डिब्बे से लेकर, मोटर कार, बैलगाड़ी, नाव और पैदल घूमकर  मध्य प्रदेश की भूमि को, इंदौर से लेकर जबलपुर, मंडला  तक कृतार्थ किया। उनके चरण जहां पड़े वे आज गांधीधाम बन गए, लोगों ने दिल खोलकर अपने प्रिय बापू, महात्मा, राष्ट्रपिता और स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्वकर्ता का स्वागत पलक-पावड़े बिछाकर  किया। मध्यप्रदेश में गांधीजी की यात्राओं का विवरण इस प्रकार है –   

इंदौर :- महात्मा गांधी का इंदौर आगमन दो बार हुआ, जब वे 1918 और फिर 1935 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता करने पधारे थे। वस्तुत: 1918 में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता का दायित्व महामना मदनमोहन मालवीय को निभाना था, किन्तु कतिपय कारणों से उनका आना स्थगित हो गया और आयोजकों ने गांधीजी से इस हेतु विशेष आग्रह किया। देशव्यापी यात्रा से गांधीजी को हिन्दी की स्वीकार्यता का पता चल ही चुका था और इसीलिए उन्होंने आयोजकों के आग्रह को सहर्ष स्वीकार कर लिया।  28 मार्च 1918 को जब गांधीजी रेलगाड़ी से तृतीय श्रेणी के डिब्बे में बैठकर आए, तो उन्हे दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए तीन वर्ष का समय ही हुआ था पर रेलगाड़ी से उतरते ही उनका भव्य स्वागत हुआ। गांधीजी को बग्घी में बिठाया गया और इंदौर के विद्यार्थी उस बग्घी को स्वयं खीचने आगे बढ़े। गांधीजी इसके लिए तैयार नहीं हुए किन्तु लोगों के आग्रह को अस्वीकार कर पाना संभव नहीं था अत: उन्होंने विद्यार्थियों से बग्घी को प्रतीकात्मक तौर पर सौ कदम तक खीचने की अनुमति दी और फिर बग्घी में घोड़े जोते गए। अगले दिन हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता गांधीजी ने की और अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने अंग्रेजी की जगह मातृभाषा के अधिकाधिक प्रयोग पर बल दिया। गांधीजी ने अदालतों में वकीलों की बहस व न्यायाधीशों द्वारा फैसले लिखने में अंग्रेजी के प्रयोग को देशी रियासतों में समाप्त करने पर जोर दिया। गांधीजी ने कहा कि यदि हिन्दी भाषा राष्ट्रीय भाषा होगी तो उसके  साहित्य का विस्तार भी राष्ट्रीय होगा। हिन्दी भाषा की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है।  हिंदुओं की बोली से फारसी शब्दों का सर्वथा त्याग और मुसलमानों की बोली से संस्कृत का सर्वथा त्याग अनावश्यक है। उन्होंने हिन्दी उर्दू के झगड़े में नहीं पड़ने की सलाह दी। गांधीजी ने कहा कि अंग्रेजी भाषा  के माध्यम से हमें विज्ञान आदि का लाभ लेना चाहिए पर शिक्षा का माध्यम मातृ भाषा ही होनी चाहिए। दक्षिण में हिन्दी प्रचार प्रसार के लिए प्रयत्न करने की वकालत करते हुए गांधीजी ने वहां हिन्दी सिखाने वाले शिक्षकों को तैयार करने की अपील की और अपने पुत्र देवदास गांधी को इस हेतु वहां भेजने की घोषणा की। 20 अप्रैल 1935 को एक बार पुन: गांधीजी ने इंदौर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की और दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी प्रचार पर बल दिया। गांधीजी ने एक बार फिर हिन्दी –उर्दू के विवाद के मुद्दे पर अपनी राय देते हुए हिन्दी- हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग किया और कहा कि हिन्दुस्तानी और उर्दू में कोई फरक नहीं है.       

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 110 ☆ अभंग ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 110 ?

☆ अभंग ☆

 कितीक चेहरे ।आणि मुखवटे ॥

पहातो आपण।सदोदित ॥

 

 असे का पहाता ।त्रासून नेहमी ।

हसू की जरासे ।कधीतरी ॥

 

 जग हे कृत्रिम ।परकेच वाटे ।

झाले अचंबित ।येथे देवा ॥

 

 कितीतरी भाव । मनात दाटती।

कधी प्रकटती । मुखावर ॥

 

लपविला मी ही । चेहराच माझा ।

नवा मुखवटा ।चढविला ॥

 

नका करू प्रेम ।माझ्यावर कुणी ।

तृप्त या जीवनी । तुम्ही असा ॥

 

 मला टाळणारे । सख्खे सोबतीच।

करू तकरार ।कोणाकडे ॥

 

सारे भाव माझे । दाविले तुम्हास ।

आता मात्र झाले । निर्विकार ॥

                     *

पंढरीच्या राया ॥ नाही आता वारी॥

तूच ये सत्वरी॥ घरी माझ्या!

          *

केली ज्यांनी वारी॥सदोदित पायी

घेई हृदयाशी ॥देवा त्यांना

           *

 एकदाच गेले ॥वारी मध्ये तुझ्या

 केली मनोमन ॥नित्य  पूजा

           *

थकले पाऊल॥अवेळीच माझे

नाही आले पुन्हा ॥तुझ्या भेटी

           *

 आली महामारी॥जगतात सा-या

पंढरीच्या फे-या ॥बंद आता

       *

तूच माझी भक्ती ॥तूच माझी शक्ती

फक्त बळ देई ॥ जगण्याचे

       *

 सांग आता भक्ता॥येऊ नको दूर

रे पंढरपूर ॥बंद आता

       *

 पांडुरंग ध्यानी ॥पांडुरंग मनी

झाले मी हो जनी ॥अंतर्बाह्य

         *

देह त्यागताना ॥डोळाभर दिसो

आत्म्यामधे वसो॥विठ्ठलचि 

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 8 – तात्पर्य ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 7 ☆ हेमन्त बावनकर

 ☆ तात्पर्य ☆

शब्दकोश तो वही है

फिर

मेरे शब्द इतने कोमल

किन्तु,

तुम्हारे शब्द

इतने कठोर क्यों हैं?

 

मेरे शब्दों का तात्पर्य तो

मानवता से था

किन्तु,

तुमने उसमें भी

अमानवीयता ढूंढ लिया?

 

मेरे शब्दों का तात्पर्य तो

नया इतिहास रचने से था

किन्तु,

तुमने तो इतिहास ही बदल दिया?

 

मेरे शब्दों का तात्पर्य तो

अपने सृजन को अपना नाम देने से है 

किन्तु,  

तुमने तो अन्य के सृजन को

अपना नाम/नया नाम ही दे दिया।  

 

मेरे शब्दों का तात्पर्य तो

शब्दों के तात्पर्य से है

सत्य, अहिंसा, प्रेम से है

वसुधैव कुटुंबकम से है

सार्वभौमिकता  से है

किन्तु,

तुमने तो संकीर्ण विचारधारा ही थोप दी।

 

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 127 ☆ इच्छा मृत्यु ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीयआलेख  ‘इच्छा मृत्यु । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 127☆

?  इच्छा मृत्यु  ?

राजा शांतनु सत्यवती से विवाह करना चाहते थे.  किंतु सत्यवती के पिता ने शर्त रख दी कि राज्य का उत्तराधिकारी सत्यवती का पुत्र ही हो.  अपने पिता की सत्यवती से विवाह की प्रबल इच्छा को पूरा करने के लिए गंगा पुत्र भीष्म ने अखंड ब्रह्मचार्य की प्रतिज्ञा ले ली.  पिता के प्रति प्रेम के इस अद्भुत   त्याग से प्रसन्न हो, उन्होने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था.  

किंतु पितामह भीष्म को बाणों की शैया पर मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी.  भीष्म शर शैया पर दुखी थे और उनकी इस अवस्था पर भगवान कृष्ण मुस्करा रहे थे.  

दूसरी ओर यह समझते हुये भी कि सीता हरण कर भागते रावण को रोक पाना उसके वश में नहीं है, जटायु ने रावण से भरसक युद्ध किया.  घायल जटायु को लेने यमदूत आ पहुंचे, किंतु जटायु ने मृत्यु को ललकार कर कहा, जब तक मैं इस घटना की सूचना, प्रभु श्रीराम को नहीं दे देता मृत्यु तुम मुझे छू भी नहीं सकती.  जटायु ने स्वयं ही जैसे इच्छा मृत्यु का चयन कर लिया.  

श्रीराम सीता को ढ़ूंढ़ते हुये आये, जटायु से उन्हें सीताहरण की जानकारी मिली.  जटायु ने  अपनी अंतिम सांसे भगवान श्रीराम की गोद में लीं.  भगवान दुखी थे और जटायु स्वयं की ऐसी इच्छा मृत्यु पर प्रसन्न थे.  

भीष्म पितामह और जटायु दोनो ने ही इच्छा मृत्यु का वरण किया.  किन्तु अंतिम पलों में दोनो की मृत्यु में विरोधाभास. .. कदाचित इसलिये क्योंकि भीष्म ने स्वयं की लाज बचाने के लिये बिलखती द्रौपदी की चीत्कार अनसुनी कर दी थी, तो दूसरी ओर  सीता जी की रक्षा का सामर्थ्य न होते हुये भी जटायु ने स्वयं को दांव पर लगा दिया था.  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 105 – लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “बेटी बचाओ ” जैसे अभियान जो पोस्टर एवं बयानों तक ही सीमित रह जाते हैं , पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “प्रायश्चित। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 105 ☆

? लघुकथा – प्रायश्चित ?

सुलोचना आज पुरानी पेटी से शादी का जोड़ा निकाल कर देख रही थी। बीते 25 वर्षों से वह अपनी नन्ही सी परी को लेकर पतिदेव से अलग हो चुकी थी। परी ने आवाज लगाई… मम्मी फिर वही पुरानी बात भूल जाओ, मैं अब बड़ी हो गई हूँ। मैं अपनी मम्मी को किसी प्रकार का कष्ट होने नहीं दूंगी।    

 माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा… तुम बेटी हो न, इसी बात को लेकर मुझे चिंता होती है। तुम्हारे पापा सहित ससुराल में सभी ने मुझे बेटी हुई है, और उन्हें बेटा चाहिए था, यह कह कर मुझे घर से निकाल दिया था।

परी ने देखा मां की आंखें नम हो चली थी । उसने कहा.. अच्छा चलो मैं ही तुम्हारा बेटा हूँ मैं आपको छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊंगी।

माँ ने कहा… यह संभव नही है। हमारी संस्कृति है कि बेटियों को एक दिन ससुराल जाना पड़ता है। बात करते-करते सुलोचना अपना काम कर रही थी और परी अपना बैग उठा ऑफिस के लिए निकल गई।

शाम को उसके साथ एक नौजवान आया परी ने कहा… मम्मी इनसे मिलिए ये संदेश हैं और इनको मैं बारात लेकर ब्याह कर लाऊंगी।  यह हमारे साथ घर पर रहेंगे क्योंकि इनकी यही इच्छा है जो लड़की इनको पसंद करेगी। यह उनके घर ही रहेंगे।

आपकी समस्या का समाधान हो गया। चाय नाश्ता चल ही रहा था कि डोर बेल बज उठी। मां ने दरवाजा खोला। देखा सामने जाना पहचाना चेहरा और मुस्कुराती आंखों पर आंसू.. पतिदेव ने कहा… सुलोचना तुम्हारे जाने के बाद मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ ‘प्रायश्चित’ करने के लिए मैं इसी दिन का इंतजार कर रहा था।

यह हमारे ऑफिस में काम करता है इसका कोई नहीं है मैं इसे जानता हूं। मैं अपना कोई अधिकार नहीं जमा रहा हूँ पर मुझे एक मौका दो और माफ कर सको तो मेरा प्रायश्चित हो जाएगा और एक परिवार फिर से बन संवर जाएगा। संदेश और परी दूर से यह सब देख रहे थे।

सारा खेल अब सुलोचना को समझ आने लगा। मन अधीर हो उठा। परी सचमुच बड़ी हो गई है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 65 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 65 –  दोहे ✍ 

निकल ‘हरम’ से आ गए, निभा गए दस्तूर।।

डेढ़ बरस के बाद फिर, शायद मिलें हुजूर।।

 

हो इलाज परदेश में, ऐसे उनके भाग।

माल गले सरकार का, मिर्जा खेले फाग।।

 

सेवा की तो शपथ ली,  खाया मेवा खूब।

शोला जैसे दमकते, जनता जैसे दूब।।

 

बेटा बेटी आपके, जन के कीट -पतंग।

दुहरेपन को देख कर, जनता होती तंग।।

 

अपनी करनी कुछ नहीं, पूर्वज रहे महान।

बस उनके ही नाम से, चला रहे दुकान।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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