हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद – सम्पादक- डॉ. केशव फालके ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 13 ?

?राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद – सम्पादक- डॉ. केशव फालके ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद

विधा- लेख संग्रह

सम्पादक- डॉ. केशव फालके

? प्रसंगवश  श्री संजय भारद्वाज ?

ऑफलाइन से ऑनलाइन तक नित तकनीक की क्राँति उगलती इक्कीसवीं सदी में किसी पुस्तक का प्रकाशन मशीनी दृष्टि से सामान्य प्रक्रिया है। पुस्तकों के इस ढेर में किसी महत्वपूर्ण विषय पर भिन्न-भिन्न विचारधारा के विद्वानों के विचारों का तटस्थ सम्पादक द्वारा किया गया संग्रह हाथ लगना पुस्तक को ‘ग्रंथ’ तथा प्रकाशन को ‘प्रसंग’ बनाता है। यही कारण है कि पुस्तकों की भूमिका / समीक्षा ‘रूटीन-वश’ लिखती कलम महत्वपूर्ण ग्रंथ पर ‘प्रसंगवश’ लिखती है।

‘राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद’ सतही तौर तैयार किया गया ‘एक और ग्रंथ’ मात्र नहीं है। ध्यान आकृष्ट करने की ग्रंथिवश सम्पादित किया गया ग्रंथ भी नहीं है। वस्तुतः यह राष्ट्र-राज्य के तंत्रिका तंतुओं और मज्जा- रज्जु को स्पंदित तथा संतुलित करने वाला ईमानदार प्रयास है। इसे अनेक विशेषताओं और छटाओं से सम्पन्न ग्रंथ कहा जा सकता है।

रसायनविज्ञान में एक शब्द है- ‘कैटेलिस्ट।’ हिंदी में हम इसे उत्प्रेरक कहते हैं। किसी भी रासायनिक प्रक्रिया में भाग न लेते हुए प्रक्रिया को तीव्र या मंद कर उससे वांछित परिणाम प्राप्त करने की भूमिका कैटेलिस्ट की होती है। इस ग्रंथ के सम्पादक डॉ. केशव फालके ने इसी भूमिका का वहन करते हुए ग्रंथ के लिए प्राप्त लेखों में कहीं कोई वैचारिक हस्तक्षेप नहीं किया। यह बहुत महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि ग्रंथ में आपको समान सोच वाले विचार पढ़ने मिलेंगे तो घोर विपरीत ध्रुवों की तार्किकता /अतार्किकता, मंथन के दर्शन भी होंगे। विश्वास किया जाना चाहिए कि यह ग्रंथ न केवल पाठकों को समृद्ध करेगा, अपितु विपरीत धुरी के विद्वानों को भी एक-दूसरे के विचार समझने में सहायता करेगा।

‘राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भारतीय सरोकारः एक राष्ट्रीय सनद’ इस विषय के बहुआयामी स्वरूप पर सम्पादक ने गम्भीर चिंतन किया है। प्रातः उठने से रात सोने तक जीवन के जितने पहलू हो सकते हैं, सृष्टि पर आगमन से लेकर सृष्टि से गमन तक जितने आयाम हो सकते हैं, भारत के संदर्भ में एकता के जितने सरोकार हो सकते हैं, अपनी सीमा में अधिकांश तक प्रत्यक्ष या परोक्ष पहुँचने का प्रयत्न लेखक ने किया है। संविधान, नागरिक, स्त्री, लोक, धर्म, संस्कृति, संत-दर्शन, त्योहार, युवा, शिक्षक, सृजेता, कलाकार, ललित कला, संगीत, भक्ति संगीत, संगीत नाटक अकादेमी, साहित्य अकादेमी, सिनेमा, भारतीय नृत्य, अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वद्यालय, शांतिनिकेतन, संग्रहालय, खेल, सेना, विज्ञान, राजनीति, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रसारण-प्रचारण जैसे विभिन्न संदर्भों और परिप्रेक्ष्यों में भारत की राष्ट्रीय एकता पर विचार किया गया है। एक धारणा है कि ‘फूट डालो और राज करो’ राजनीति की बुनियाद होती है। राष्ट्रीय एकता में राजनीति की सकारात्मक भूमिका का विवेचन भी तत्सम्बंधी लेख द्वारा यह ग्रंथ करता है। दिल्ली को शासन का केंद्र मानकर इर्द-गिर्द के कुछ प्रदेशों को ही देश का प्राण समझ लेने की एक भ्रांत धारणा मुगलों-अँग्रेजों से लेकर स्वाधीन भारत के सत्ताधारियों में दीखती रही है। इसे उनकी क्षमता और दृष्टि का परावर्तन भी कह सकते हैं। राष्ट्रीय एकता में सुदूर पूर्वोत्तर भारत और द्रविड़ दक्षिण के योगदान की चर्चा इस ग्रंथ की परिधि को विस्तृत करती है।

अँग्रेजी में कहावत है- ‘कैच देम यंग।’ राष्ट्रीय एकता के बीज देश के युवा नागरिकों में रोपित करने में ‘राष्ट्रीय सेवा योजना’ की भूमिका उल्लेखनीय है। सम्पादक अपने सेवाकाल में एन.एस.एस. के राज्य सम्पर्क अधिकारी और विशेष कार्य-अधिकारी रहे। स्वाभाविक है कि उन्होंने योजना के प्रभाव और परिणाम निकट से देखे, जाने हैं। राष्ट्रीय सेवा योजना पर ग्रंथ में समाविष्ट लेख, विषय के एक महत्वपूर्ण आयाम पर प्रकाश डालता है।

सम्पादक ने यह ग्रंथ राष्ट्रीय एकता के अनन्य पैरोकार महात्मा गांधी को समर्पित किया है। गांधीजी के राजनीतिक निर्णयों या व्यक्तिगत जीवन के पक्षों से सहमति या असहमति रखनेवाले भी उनके सामाजिक और मानवीय सरोकारों में आस्था रखते हैं। यही कारण है कि गांधी दर्शन ने व्यापक स्वीकृति पाई और अनुकरणीय बन सका। एकता को साधने की साधना में जीवन होम करनेवाले महात्मा को यह ग्रंथ समर्पित करना इसके उद्देश्य और ध्येय को सम्मान प्रदान करता है।

व्यापक विषय पर व्यापक दृष्टि और व्यापक स्तर पर काम करते समय सामना भी व्यापक समस्याओं से करना होता है। सम्पादक ने इस ग्रंथ को लगभग चार वर्ष दिए हैं। विषय के विविध आयामों को न्याय देने के लिए लेख मंगवाए गए है, केवल इतना भर नहीं है। अधिकांश लेख सम्बंधित विषय के ज्ञाता/ विद्वान/शोधार्थी/अभ्यासक ने लिखे हैं। यह बहुत अच्छी बात है। किंतु विषय का विजिगीषु कलम का भी धनी हो, यह आवश्यक नहीं। फलतः पाठकों को कतिपय लेख किसी शोध प्रबंध का भाग लग सकते हैं, कुछ सरकारी नीतिगत वक्तव्य-से तो कुछ सम्पादक का आग्रह न ठुकरा पाने की विवशता में लिखे गए। तब भी इनमें से प्रत्येक में जानकारी और ग्राह्य तत्व तो हैं ही।

अलबत्ता ग्रंथ की जान हैं वे लेख जो विषय को जीनेवालों द्वारा लिखे गए हैं। डूबकर लिखे गए ये लेख ऐसे हैं कि उनसे उबरने का मन न हो- गहरे और गहरे जाने की इच्छा करे। प्रस्तुत ग्रंथ का ऐसे लेखों के रिक्थ से सम्पन्न होना इसकी समृद्धि में चार चाँद लगाता है।

सम्पादक ‘बन-जारा’ लोक साहित्य के मर्मज्ञ हैं। बंजारा का अपना स्थायी ठौर नहीं होता। वन-प्रांतर का भटकाव उसकी अनुभव पूँजी को समृद्ध करता है। स्थितप्रज्ञ ऐसा कि मोह से मुक्त अपनी यात्रा जारी राखता है। दातृत्व ऐसा कि एक क्षेत्र का अनुभव दूसरे और तीसरे चौथे तक पहुँचाता है। जन-संचेतना, लोक ज्ञान, उपचार, लोक औषधियों का संवाहक होता है वह। ‘बन-जारा’ से बढ़कर राष्ट्रीय एकता का मूर्तिमान प्रतीक दूसरा भला कौन होगा ?

सहज था कि सम्पादक के भीतर बसा यह ‘बन-जारा’ उनसे राष्ट्रीय एकता के सरोकारों पर विविध विचारों को संकलित करवाता। उनका पिछला ग्रंथ भी इसी विषय के एक आयाम ‘राष्ट्रीय एकता की कड़ी: हिंदी भाषा और साहित्य’ पर प्रकाशित हुआ है। जब आग लगी हो तो आग के विरोध में मोर्चे निकालना, नारेबाजी करना, धरना-प्रदर्शन में सम्मिलित होना, हाथ में हाथ धरकर मानव शृंखला बनाने के मुकाबले बेहतर है दौड़कर एक घड़ा पानी लाना और आग पर डालना। डॉ केशव फालके यही कर रहे हैं।

विध्वंस की लंका के विनाश के लिए सद्भाव के सेतु के रूप में ‘राष्ट्रीय एकता के भारतीय सरोकार : एक राष्ट्रीय सनद’ की भूमिका महनीय सिद्ध होगी, इसका विश्वास है।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #249 ☆ भावना के दोहे – अम्मा ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – अम्मा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 249 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – अम्मा  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

अम्मा जाती खेत में, करने को वो काम।

दिन भर काटे धान वो, करे नहीं आराम।।

*

नंगे पाँव वो चलती, है मटकी का भार।

पगडंडी का रास्ता, सहे धूप की मार।।

*

अंबवा की डाली हिले, बैठे इसकी छाँव।

मस्त -मस्त बयार चले, है प्यारा ये  गाँव।।

*

हरियाली को देखकर, मन में बसता चित्र।

सखियां आती याद हैं, बिछड़े सारे मित्र।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #21 – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ

? रचना संसार # 21 – ग़ज़ल – मतलबी है ये जहाँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

तीरगी में प्यार का ऐसा दिया रौशन करें

हो उजाला जिसका हर सू वो वफ़ा रौशन करें

 *

लुत्फ़ आता ही कहाँ है ज़िन्दगी में आजकल

मौत आ जाए तो फिर जन्नत को जा रौशन करें

 *

मतलबी है ये जहाँ क़ीमत वफ़ा की कुछ नहीं

हुस्न से कह दो न हरगिज़ अब अदा रौशन करें

 *

आलम -ए- वहशत में हूँ और होश मुझको है नहीं

वो तो ज़ीनत हैं कहो वो मयकदा रौशन करे

 *

इंतिहा- ए- तिश्नगी कोई मिटा सकता नहीं

कह दो बीमार-ए-मुहब्बत की दवा रौशन करें

 *

किस क़दर है आज कल खुद पर गुमां इन्सान को।

मीर कह दूँ मैं उन्हें गर वो फ़ज़ा रौशन करें

 *

रोज़ ही किरदार पे उठती रही हैं उँगलियॉं

कोई  उल्फ़त का नया अब सिलसिला रौशन करें

 *

हो गया मीना मुकम्मल ज़िन्दगी का ये सफ़र

टूटती साँसे कहें चल मक़बरा रौशन करें

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #231 ☆ कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति… आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 230 ☆

☆ कविता – कला, धर्म अरु संस्कृति ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राजनीति की कैद में, आये सब अखबार

सबका अपना नजरिया, सबका कारोबार

*

ख़बरें अब अपराध की, घेर रहीं अखबार

राजनीतिक उठापटक, छपे रोज भरमार

*

मीडिया चेनल बढ़ रहे, खबरें होतीं कैद

जहां लाभ मिलता वहां, होता वह मुस्तैद

*

कला, धर्म अरु संस्कृति, छपने को बैचेन

इन पर चलती कतरनी, लगे कभी भी बैन 

*

छपने का जिनको लगा, छपकू रोग महान

उनसे होती आमदनी, मिले बहुत सा दान

*

पहले सा मिलता नहीं, पढ़ने में संतोष

खबरों की इस होड़ में, दें किसको हम दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १३ — क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग — (श्लोक २१ ते ३४) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १३ — क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग — (श्लोक २१ ते ३४) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान् गुणान् ।

कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २१ ॥

*

अधिष्ठित होऊन प्रकृतीत पुरुष गुणा भोगितो

गुणसंयोग अनुसार योनीत भिन्न जन्म घेतो ॥२१॥ 

*

उपद्रष्टाऽनुमंता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ २२ ॥

*

पुरुष भिन्न प्रकृती भिन्न पुरुष श्रेष्ठ परमात्मा

देहरूपी क्षेत्रात बद्ध प्रकृती कार्य साक्षात्मा

क्षेत्राचे करुनीया पोषण सुखदुःखा भोगितो

प्रकृतीच्या या क्रीडेचा सूत्रधार तो असतो ॥२२॥

*

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २३ ॥

*

पुरुष निर्गुण सगुण प्रकृती जया जाहले ज्ञान

कर्म करी वर्तमानात तया पुनरपि ना जन्म ॥२३॥

*

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।

अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥ २४ ॥

*

ध्यानाद्वारे योगी पाहत हृदयांतरी आत्मा

ज्ञानयोगे वा कर्मयोगेही प्राप्त होत आत्मा ॥२४॥

*

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते ।

तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥ २५ ॥

*

नसेल ज्यांच्या ठायी याचे कसलेही ज्ञान

तरती मृत्यू उपासनेने श्रवण करोनी ज्ञान ॥२५॥

*

यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥ २६ ॥

*

स्थावर-जंगम वा काही निर्मिती जगात

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ संयोगाने जाणुनी घे भारत ॥२६॥

*

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्र्वरम् ।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २७ ॥

*

अंतरी सर्व भूतांच्या वास समान परमेश

नाश जाहला भूतांचा तरी तयाचा न नाश

या तत्वाला जो जाणी तोचि खरा ज्ञानी

प्रज्ञा त्याची जागृत झाली तोची ब्रह्मज्ञानी ॥ २७॥

*

समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २८ ॥

*

समप्रज्ञेने जाणतो सर्वत्र ईश्वर समान व्यापितो

आत्मघात ना होतो त्यासी श्रेष्ठ गतीला तो पावतो ॥२८॥

*

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ २९ ॥

*

प्रकृती समस्त कर्मांची कर्ता आत्मा हा अकर्ता

ऐसे ज्ञान जया जाहले तत्वज्ञानाचा तो ज्ञाता ॥२९॥

*

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ ३० ॥

*

भिन्न भूतांची रूपे एक तयांचा आत्मा

ज्ञानाने ऐश्या होई प्राप्त तयासी ब्रह्मात्मा ॥३०॥

*

अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्माऽयमव्ययः ।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३१ ॥

*

आदि न अंत निर्गुण तथा निर्विकारी हा परमात्म

देहस्थ जरी तो कौन्तेया अकर्मी गुणांपासुनी अलिप्त ॥३१॥

*

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३२ ॥

*

सूक्ष्मत्वाने चराचरात जरी आकाश कुठे ना लिप्त

तद्वत् समस्त देह व्यापूनी आत्मा गुणासि ना लिप्त ॥३२॥

*

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । 

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशति भारत ॥ ३३ ॥

*

रवि एक प्रकाशितो विशाल समस्त या जगताला

एक क्षेत्रज्ञ प्रकाशितो अगणित साऱ्या क्षेत्राला ॥३३॥

*

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।

भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४ ॥

*

ज्ञानचक्षुने अवलोकिले क्षेत्र-क्षेत्रज्ञामधील भेद

भूतप्रकृती मोक्ष जाणुनी प्राप्त तयासी परमपद ॥३४॥

*

॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ‘ क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगो ‘ नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥

*

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित त्रयोदशोऽध्याय संपूर्ण ॥१३॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 213 ☆ निज आघात सहे मन कैसे ?… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना निज आघात सहे मन कैसे ?। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 213 ☆ निज आघात सहे मन कैसे ?…

समय- समय पर सभी के सामने चुनौतियाँ आतीं हैं, कुछ लोग इनका सामना एक अवसर के रूप में करते हैं वहीं कुछ लोग ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है कह कर रोना रोने लगते हैं।

अब सीधी सी बात है जिसे अवसर का लाभ लेना नहीं आता, समय को अपने अनुकूल करने की कला नहीं होती।

सच्चाई तो ये है कि जितना तनाव सहने की क्षमता होती उतना ही व्यक्ति सफल होगा। बिना संघर्ष के कुछ नहीं मिलता, उचित- अनुचित तथ्यों के परखने का गुण आपकी जीत को सुनिश्चित करता है। स्वयं पर पूर्ण विश्वास रखने वाले की जीत होती है।

इस संदर्भ में छोटी सी कहानी है, एक शिष्य बहुत दुःखी होकर अपने गुरु के सम्मुख रुदन करते हुए कहने लगा कि मैं आपके शिष्य बनने के काबिल नहीं हूँ, हर परीक्षा में जितने अंक मिलने चाहिए वो मुझे कभी नहीं मिले इसलिए मैं अपने घर जा रहा हूँ वहाँ पिता के कार्य में हाथ बटाऊँगा, गुरु जी ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की पर वो अधूरी शिक्षा छोड़ कर अपने गाँव चला गया।

किसी के जाने का दुःख एक दो दिन तो सभी करते हैं पर जल्दी ही उस रिक्त स्थान की पूर्ति हो जाती है। गुरुजी सभी शिष्यों को पढ़ा रहे थे तभी उन्हें वहाँ कुछ पक्षी उड़ते हुए दिखे उनका मन भी सब कुछ छोड़ हिमालय की ओर चला गया कि कैसे वो अपने गुरु के सानिध्य में वहाँ रहते थे, तो गुरुदेव ने भी तुरन्त अपने प्रिय शिष्य को जिम्मेदारी दी और चल दिये।

ये किस्सा एक बार का नहीं जब मन करता गुरुदेव कहीं न कहीं अचानक चल देते सो उनके शिष्य भी उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए अधूरे ज्ञान के साथ जब जी आता अपनी पढ़ाई छोड़ कर चल देते कुछ वापस भी आते। इस पूरी कहानी का उद्देश्य यही है, पानी पीजे छान के गुरू कीजे जान के। जैसे गुरु वैसे चेले होंगे ही।

कोई भी व्यक्ति या वस्तु पूर्ण नहीं होती है ये तो सर्वसत्य है, हमें उसके गुण दोषों को स्वीकार करने की समझ होनी चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 301 ☆ आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 301 ☆

? आलेख – तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

राष्ट्र की प्रगति में तकनीकज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सच्ची प्रगति के लिये अभियंताओ और वैज्ञानिकों का राष्ट्र की मूल धारा से जुड़ा होना अत्यंत आवश्यक है। हमारे देश में आज भी तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। इस तरह अपने अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर हम उन्हें न केवल जन सामान्य से दूर कर रहे हैं वरन अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिको को पश्चिमी राष्ट्रों का रास्ता भी दिखा रहे हैं।

अंग्रेजी क्यो ? इसके जवाब मे कहा जाता है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड़ दी तो हम दुनिया से कट जायेगें। किंतु क्या रूस, जर्मनी, फ्रांस, जापान, चीन इत्यादि देश वैज्ञानिक प्रगति मे किसी से पीछे हैं ? क्या ये राष्ट्र  विश्व के कटे हुये हैं। इन राष्ट्रों मे तो तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी शिक्षा उनकी अपनी राष्ट्रभाषा मे ही होती है। अंग्रेजी मे नहीं। आज इतने सुविकसित अंतर्भाषा टूल्स बन चुके हैं कि विश्व संपर्क वाला यह तर्क बेमानी है ।

वास्तव मे विश्व संपर्क के लिये केवल कुछ बडे राष्ट्रीय संस्थान एवं केवल कुछ वैज्ञानिक व अभियंता ही जिम्मेदार होते हैं जो उस स्तर तक पहुचंते पहुंचते आसानी से अंग्रेजी सीख सकते हैं। देश के केवल उच्च तकनीकी संस्थानों में वैकल्पिक रूप से अंग्रेजी को तकनीकी शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकारा जा सकता है । किंतु वर्तमान स्थितियों में हम व्यर्थ ही सारे विद्यार्थियों को उनके अमूल्य 6 वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखने में व्यस्त रखते हैं। जबकि आाज राष्ट्र भाषा हिन्दी में तकनीकी शिक्षण हेतु किताबें उपलब्ध कराई जा चुकी हैं । यदि कोई कमी है भी तो उसे दूर करने के लिये पर्याप्त संसाधन और बुद्धिजीवी सक्रिय हैं ।  दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत से कही अधिक संख्या में अभियंता तथा वैज्ञानिक विदेशों मे जाकर बस जाते हैं। इस पलायन का एक बहुत बडा कारण उनका अंग्रेजी मे प्रशिक्षण भी है।

हमारे देश में शिक्षा की जो वर्तमान स्थिति है उसमें गांव गांव में भी अंग्रेजी माध्यम की शालायें खुल रही हैं , क्योकि अंग्रेजी भाषा के माध्यम को रोजगार तथा व्यक्तित्व निर्माण के साधन के रूप में स्वीकार कर लिया गया है . इसके पीछे अंग्रेजो का देश पर लम्बा शासन काल तो जिम्मेदार है ही साथ ही देश में भाषाई विविधता के चलते भाषाई आधार पर राज्यो के विभाजन की राजनीति भी जबाबदार लगती है . जिसके कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो दिया गया पर उसे राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार नही किया गया और इसका लाभ अंग्रेजी को मिलता गया ,विशेष रूप से तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में यही हुआ .

हिंदी को कठिन बताने के लिये प्रायः रेल के लिये लौहपथगामनी जैसे शब्दों के गिने चुने दुरूह उदाहरण लिये जाते है , पर यथार्थ है कि हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओं को आत्मसात किया है। अतः ऐसे कुछ शब्द नागरी लिपि में लिखते हुये हिंदी मे यथावत अपनाये  जा सकते है। हिंदी शब्द तकनीक के लिये यदि अंग्रेजी वर्णमाला का प्रयोग करे तो हम अंग्रेजी अनुवाद टेक्नीक के बहुत निकट है।  संत के लिये सेंट, अंदर के लिये अंडर, नियर के लिये निकट जैसे ढेरों उदाहरण है। शब्दों की उत्पत्ति के विवाद मे न पड़कर यह कहना उचित है कि हिंदी क्लिष्ट नही है।

हमने एक गलत धारणा बना रखी है कि नई तकनीक के जनक पश्चिमी देश ही  होते है। यह सही नहीं है। पुरातन ग्रंथों में भारत विश्व गुरू के दर्जे पर था। हमारे वैज्ञानिको एवं तकनीकज्ञों में नवीन अनुसंधान करने की क्षमता है। तब प्रश्न उठता है कि क्यों हम अंग्रेजी ही अपनाये। क्यों न हम दूसरों की अन्वेषित तकनीक के अनुकरण की जगह अपनी क्षेत्रीय स्थितियों के अनुरूप स्वंय की जरूरतों के अनुसार स्वंय अनुसंधान करे जिससे उसे सीखने के लिये दूसरों को हिंदी अपनाने की आवश्यकता महसूस हो।

जब अत्याधुनिक जटिल कार्य करने वाले कप्यूटरों की चर्चा होती है तो आम आदमी की भी उनमें सहज रूचि होती है एवं वह भी उनकी कार्यप्रणाली समझना चाहता है। किंतु भाषा का माध्यम बीच में आ जाता है और जन सामान्य वैज्ञानिक प्रयोगों को केवल चमत्कार समझ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर लेता है। इसकी जगह यदि इन प्रयोगों की विस्तृत जानकारी देकर हम लोगो की जिज्ञासा को और बढा सके तो निश्चित ही नये नये अनुसंधान को बढावा मिलेगा। इतिहास गवाह है कि अनेक ऐसे खोजे हो चुकी है जो विज्ञान के अध्येताओं ने नही किंतु आवश्यकता के अनुरूप अपनी जिज्ञासा के अनुसार जनसामान्य ने की है।

यह विडंबना है कि ग्रामीण विकास के लिये विज्ञान जैसे विषयो पर अंग्रेजी मे बडी बडी संगोष्ठियां तो होती हैं किंतु इनमें जिनके विकास की बातें होती हैं वे ही उसे समझ नही पाते। मातृभाषा में मानव जीवन के हर पहलू पर बेहिचक भाव व्यक्त करने की क्षमता होती है। क्योंकि बचपन से ही व्यक्ति मातृभाषा मे बोलता पढ़ता लिखता और समझता है। फिर विज्ञान या तकनीक ही मातृभाषा मे नही समझ सकता ऐसा सोचना नितांत गलत है।

आज हिंदी अपनाने की प्रक्रिया का प्रांरभ त्रैमासिक या छैमाही पत्रिका के प्रारंभ से होता है जो दो चार अंकों के बाद साधनों के अभाव में बंद हो जाती है। यदि हम हिंदी अपनाने के इस कार्य के प्रति ऐसे ही उदासीन रहे तो भावी पीढ़ियां हमें क्षमा नहीं करेगी। हिंदी अपनाने के महत्व पर भाषण देकर या हिंदी संस्थानों के कार्यक्रमों में हिंदी दिवस मनाकर हिंदी के प्रति हमारे कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो सकती। हमें सच्चे अर्थों में प्रयोग के स्तर पर हिंदी को अपनाना होगा। तभी हम मातृभाषा हिंदी को उसके सही स्थान पर पहुंचा पायेंगे।

हिंदी ग्रंथ अकादमी हिंदी मे तकनीकी साहित्य छापती है। बडी बडी प्रदर्शनियां इस गौरव के साथ लगाई जाती है कि हिंदी में तकनीकी साहित्य उपलब्ध है। किंतु इन ग्रंथो का कोई उपयोग नहीं करता। यहां तक कि इन पुस्तकों के दूसरे संस्करण तक छप नहीं पाते। क्योंकि विश्वविद्यालयों में तकनीकी का माध्यम अंग्रेजी ही है। यह स्थिति चिंता जनक है। हिंदी को प्रायः साम्प्रदायिकता क्षेत्रीयता एवं जातीयता के रंग में रंगकर निहित स्वार्थों वाले राजनैतिक लोग भाषाई ध्रुवीकरण करके अपनी रोटियां सेंकते नजर आते हैं। हमें एक ही बात ध्यान में रखनी है कि हम भारतीय हैं। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है यदि राष्ट्रीयता की मूल भावना से हिंदी को अपनाया जावेगा तो यही हिंदी राष्ट्र की अखंडता और विभिन्नता में एकता वाली हमारी संस्कृति के काश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले विभिन्न रूपों को परस्पर और निकट लाने में समर्थ होगी।

यही हिंदी भारतीय ग्रामों के सच्चे उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक को जन्म देगी। हमें चाहिये कि एक निष्ठा की भावना से कृत संकल्प होकर व्यवहारिक दृष्टिकोण से हिंदी को अपनाने में जुट जावे। अंग्रेजी के इतने गुलाम मत बनिये कि कल जब आप हिंदी की मांग करने निकले तो चिल्लाये कि वी वांट हिंदी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

बी ई सिविल, पोस्ट ग्रेजुएशन फाउंडेशन, सर्टीफाइड इनर्जी मैनेजर

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #186 – व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 186 ☆

☆ व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग ‘फेसबुक’ का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्रपत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर ‘फेसबुक’ पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है मगर उसकी चर्चा ‘फेसबुक’ पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पेस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज 5 से 7 घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है।

कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वह छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकना उन्हें नहीं आता है। वे ‘फेसबुक’ से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है।जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा ‘फेसबुक’ पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में ‘फेसबुक’ पर बने रहते हैं। ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है जितनी रचना छप जाती है। उसे ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘फेसबुक’ के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह ‘फेसबुक’ पर अपना ‘फेस’ चमकाते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना महंगाई भगाओ अभियान।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गजबपुरिया देश की सरकार महंगाई जैसी महामारी से त्रस्त थी। उन्होंने कटौती स्थली के मस्तकलाल देश की सरकार से मदद मांगी। मस्तकलाल देश का हाल तो वही है, जहाँ तोंद बाहर निकाले बाबाओं और पुजारियों की एक टीम हर काम की एक्सपर्ट होती है। गजबपुरिया सरकार ने लिखा, “हमने सुना है कि आपके यहाँ टोटके और तंत्र-मंत्र से महामारी भगाई जाती है। हमारे यहाँ मौत का आँकड़ा आपके देश की धार्मिक किताबों में दी गई कहानियों जितना बढ़ रहा है। हमारा धैर्य आपके देश की लोकतंत्र जितना कम हो गया है।”

मस्तकलाल देश की सरकार ने मदद देने की हामी भर दी। वहां के बाबा और तांत्रिकों की टीम ने अपनी ‘धार्मिक दवाइयों’ के बंडल तैयार करने का आदेश दिया। ये दवाइयाँ गंगा जल, गोबर, गोमूत्र और कुछ विशेष मंत्रों से बनाई गई थीं। जैसे ही इन दवाइयों को पता चला कि इन्हें गजबपुरिया भेजा जाना है, वे सारे बंडल से भागने लगे। एक नेत्री ने कहा, “हमें वहाँ क्यों भेजा जा रहा है? हम तो यहीं की जनता का मानसिक शोषण करने में व्यस्त थे।”

बाबा लोग तो पहले ही किसी घने जंगल में अपनी कुटिया बनाकर गायब हो गए थे। दवाइयों के थोक और फुटकर विक्रेताओं ने भी अपनी-अपनी दुकानें बंद कर ली और भूमिगत हो गए। आखिरकार, मस्तकलाल सरकार ने सख्ती से इन्हें पकड़ा और बंडल में पैक किया।

एक अधिकारी ने पूछा, “यहां क्या चल रहा है?” एक साधु ने उत्तर दिया, “हम देख रहे हैं कि हम अपनी दवाइयों से दूसरे देश में भी हमारा उल्लू सीधा कर सकते हैं या नहीं।” अधिकारी ने कहा, “यहाँ उल्लू नहीं बल्कि धर्म का कारोबार चल रहा है, समझे?”

मस्तकलाल देश की सरकार ने भारी मशक्कत से उन दवाइयों के बंडल बनाए और उन्हें एक विशेष विमान में लादकर गजबपुरिया भेजा। गजबपुरिया में, मेडिकल विशेषज्ञ और सुरक्षा एजेंसियां सतर्क थीं। विमान के लैंड करते ही, एक बंडल उतारते समय ही मजदूर आपस में लड़ने लगे। गालियों का आदान-प्रदान होने लगा, जाति-धर्म की बातों पर बवाल मच गया।

मेडिकल विशेषज्ञ ने तुरंत सबको सतर्क किया और दुग्गल साहब को फोन कर सारी स्थिति बताई। उन्होंने कहा, “देखो, ये दवाइयाँ हैं। इनका उपयोग महंगाई को मिटाने की जगह नफरत और अंधविश्वास का वायरस फैलाने में उपयोग में लाया जा सकता है। यदि यह फैल गया तो अगले पाँच साल तक आपका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता है। ये वायरस लोगों को मानसिक गुलाम बना देता है।”

दुग्गल साहब ने कहा, “इन्हें तुरंत हमारे गुर्गों के बीच भेजो और मस्तकलाल देश की इस अद्भुत सद्भावना को धन्यवाद कहना।” एक बड़ा सा स्टिकर “ये दवाई केवल धार्मिक मूर्खों के लिए है” लिखकर उस विमान की सारी दवाई अंधभक्तों के बीच बटवा दी गई।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 219 ☆ बाल गीत – कितने प्यारे रंग भर दिए… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 219 ☆ 

बाल गीत – कितने प्यारे रंग भर दिए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

कितने प्यारे रंग भर दिए

चिड़ियों के ‘पर’ में किसने।

नव-नूतन संसार बनाया

क्या सचमुच ही ईश्वर ने।।

बड़ी मनोहर चिड़ियाँ आएँ

प्रतिदिन अपने बागों में।

साथ सदा मिलकर हैं रहतीं

गाएँ नूतन रागों में।।

 *

इनकी चोंच नुकीली अतिशय

मन भी देख लगा रमने।।

 *

काला , पीला , लाल ,सुनहरा

सजे परों के मोहक रंग।

खाएँ दाना बड़ी मगन हों

खेलें ,उड़ें करें न तंग।।

 *

रखना जल से भरे पात्र सब

धरा लगी लू से तपने ।।

 *

पेड़ लगेंगे , चिड़ियाँ चहकें

नीड़ बनेंगे विटपों के।

हरी-भरी सब धरती होगी

जल पीएँ भर मटकों के।

 *

सरल ,सहज सब जीवन जीएँ

सृष्टि लगेगी खुद सजने।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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