हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 112 ☆ आत्मदीपो भव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 112 ☆ आत्मदीपो भव ☆

भारतीय दर्शन कहता है, ‘आत्मदीपो भव!’ क्या है अर्थ आत्मदीप होने का? आत्मदीप होना अर्थात अपनी आत्मा की ओर देखना। स्वयंप्रभा आत्मा के आलोक में अपनी यात्रा करना। अपना दीपक आप बनना।

एक सूरदास साधक अपने मित्र से मिलने गया। मित्रों की बातचीत में समय का ध्यान ही नहीं रहा। सूर्यास्त हो चला। मित्र ने कहा, “अंधेरे में घर लौटने में तुम्हें कठिनाई होगी। आज मेरे निवास पर ही रुको।” सूरदास ने कहा, “तुम मुझे एक दीप प्रज्वलित करके दे दो। मैं उसकी सहायता से सरलता से घर पहुँच जाऊँगा‌।” मित्र ने आश्चर्य से पूछा, “दीप का भला तुम्हें क्या लाभ?” सूरदास ने कहा, “दीपक से मुझे तो नहीं दिखाई देगा पर राह में चल रहा दूसरा पथिक मुझे देख पायेगा और इस तरह किसी प्रकार की दुर्घटना से मैं बचा रहूँगा।” मित्र ने मित्र की बात का सम्मान करते हुए दीप प्रज्वलित करके दे दिया। सूरदास अपनी राह पर बढ़ चला। थोड़ा समय निर्विघ्न बीता। फिर एकाएक एक व्यक्ति आकर सूरदास से ज़ोर से टकरा गया। वह क्षमायाचना करने लगा पर सूरदास आक्रोश से भर उठा। कहा, “मुझे तो विधाता ने देखने के लिए आँखें नहीं दीं पर तुम तो आँखें होते हुए भी दीपक का प्रकाश नहीं देख सके।” पथिक ने आश्चर्य से कहा,” कैसा प्रकाश? क्षमा करें दीपक तो आपके हाथ में है पर यह प्रज्ज्वलित नहीं है। संभवत: वायु से बहुत पहले ही बुझ चुका। यदि यह प्रज्ज्वलित होता तो मुझसे यह भूल नहीं होती।” सूरदास के नेत्रों से खारा जल बह निकला। कहा,”भूल तो मुझसे हुई है। आज मैंने पाठ पढ़ा कि उधार के प्रकाश से कोई भी अपनी यात्रा पूरी नहीं कर सकता। दीपक तो व्यक्ति को अपने भीतर ही जलाना होता है, आत्मदीप होना पड़ता है।”

मार्गदर्शक ईमानदार हो, गुरु सच्चा हो तो बाहर से अंदरूनी प्रकाश की ओर जाने का संकेत तो मिल सकता है पर अंततः हरेक को अपनी यात्रा स्वयं ही करनी होती है।

कम कहे को अधिक मानना, अधिक जानना। उस संक्षिप्त पर विराट दर्शन का पुनरुच्चार और क्रियान्वयन करना जिसका कण- कहता है, ‘आत्मदीपो भव!’

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 65 ☆ गीत सलिला ……. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  ‘गीत सलिला। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 65 ☆ 

☆ गीत सलिला ☆ 

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

चंचल चितवन मृगया करती

मीठी वाणी थकन मिटाती।

रूप माधुरी मन ललचाकर –

संतों से वैराग छुड़ाती।

खोटा सिक्का

दरस-परस पा

खरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

उषा गाल पर, माथे सूरज

अधर कमल-दल, रद मणि-मुक्ता।

चिबुक चंदनी, व्याल केश-लट

शारद-रमा-उमा संयुक्ता।

ध्यान किया तो

रीता मन-घट

भरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

सदा सुहागन, तुलसी चौरा

बिना तुम्हारे आँगन सूना।

तुम जितना हो मुझे सुमिरतीं

तुम्हें सुमिरता है मन दूना।

साथ तुम्हारे गगन

हुआ मन, दूर हुईं तो

धरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #95 ☆ दीपो से धरा सजाना है ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #95 ☆ # दीपो से धरा सजाना है# ☆

अमावस की काली रातों में,

           दीपों से धरा सजाना है।

रह ना जाए कोई कोना,

        जग में प्रकाश फैलाना है।

तन आलोकित मन आलोकित,

   जग को आलोकित कर जाना है।

 मन मारे जो बैठ गये घर में,

   उनके दिल  का दिया जलाना है।

।।अमावस की काली रातों में।।1।

 

जीवन की अंधेरी रातों में,

      कांटों के उपर चलना है।

  उम्मीदों का जला के एक दिया,

        खतरों से बच के निकलना है।

ना खाये कोई ठोकर राहों में,

      एक दीपशिखा सा जलना है।

सत्कर्मो के पथ आलोकित हों,

            राहों में उजाला करना है।

।।अमावस की काली रातों में।।2।।

 

नीले अंबर की छांव में,

       दुख से कातर हर गांव में।

 बांधे घुंघरू पांवों में,

       छम छम नांच दिखाना है,

ना दुखी हो कोई जीवन में,

       खुशियों के गीत सुनाना है।

  हर तरफ खुशी के रेले हों,

         हर दिल का साज बजाना है।

।।अमावस की काली रातों में।।3।।

 

खेतों में खलिहानों में,

 झोपड़ियों  महलों के कंगूरो पे।

हर मंदिर के कलशों उपर,

      हर मस्जिद की मीनारों पर।

अब अंधेरे रह ना जायें,

         चर्चों और गुरद्वारों में।

हर तरफ रौशनी फैली हो,

।।अमावस की अंधेरी रातों में।।4।।

 

हर तरफ पटाखे फूट रहे,।

        बंटती हर तरफ मिठाई हो।

आओ हम खुशियां बांटें,

        दीवाली की सबको बधाई हो।

 हर तरफ खुशी  के मंजर हो,

   ना जीवन में ग़म के अंधेरे हो।

उम्मीदों की किरणें फूट पड़े,

            जीवन में नये सबेरे हों।

।।अमावस की काली रातों में।।5।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

23-10-2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 2 – “इश्क़ हो गया” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज प्रस्तुत है आपके साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश के अंतर्गत आपकी अगली ग़ज़ल “इश्क़ हो गया”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 2 – “इश्क़ हो गया” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

उनकी पुरज़ोर तैयारियों से उसे इश्क़ हो गया है,

अपने अरमानों के लुटेरों से उसे इश्क़ हो गया है।   

 

अब तो दुश्वारियों की  लत सी पड़ गयी है उसे,

बर्बादियों की लगातार आमद से इश्क़ हो गया है।

 

बहुत ख़ौफ़ज़दा है वह मुहब्बत जताने वालों से,

उन की बेपनाह मेहरबानियों से इश्क़ हो गया है।  

 

ग़म का लहराता समुंदर लुभाता है ख़ूब उसे,

ऊँची उठती तूफ़ानी लहरों से इश्क़ हो गया है। 

 

कौन किसके साथ चलता है ख़ुदगर्ज़ ज़माने में,

कुछ काम जब आन पड़ा तो इश्क़ हो गया है। 

 

पहाड़ों पर चढ़ने पर साँस फूल जाती है उसकी,

उसे उतरती उम्र की फिसलन से इश्क़ गया है।

 

दो झटके खा चुका है उसका नादान सा दिल,

धीमी पड़ती दिल की धड़कन से इश्क़ हो गया।

 

कब आएगी कभी न छोड़कर जाने वाली महबूबा,

“आतिश” को उसी नाज़नीन से इश्क़ हो गया है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #65 – अपनी रोटी मिल बाँट कर खाओ ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #65 – अपनी रोटी मिल बाँट कर खाओ ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा था। उसका मंत्री बहुत बुद्धिमान था। एक बार राजा ने अपने मंत्री से प्रश्न किया – मंत्री जी! भेड़ों और कुत्तों की पैदा होने कि दर में तो कुत्ते भेड़ों से बहुत आगे हैं, लेकिन भेड़ों के झुंड के झुंड देखने में आते हैं और कुत्ते कहीं-कहीं एक आध ही नजर आते है। इसका क्या कारण हो सकता है?

मंत्री बोला – “महाराज! इस प्रश्न का उत्तर आपको कल सुबह मिल जायेगा।”

राजा के सामने उसी दिन शाम को मंत्री ने एक कोठे में बिस कुत्ते बंद करवा दिये और उनके बीच रोटियों से भरी एक टोकरी रखवा दी।”

दूसरे कोठे में बीस भेड़े बंद करवा दी और चारे की एक टोकरी उनके बीच में रखवा दी। दोनों कोठों को बाहर से बंद करवाकर,वे दोनों लौट गये।

सुबह होने पर मंत्री राजा को साथ लेकर वहां आया। उसने पहले कुत्तों वाला कोठा खुलवाया। राजा को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि बीसो कुत्ते आपस में लड़-लड़कर अपनी जान दे चुके हैं और रोटियों की टोकरी ज्यों की त्यों रखी है। कोई कुत्ता एक भी रोटी नहीं खा सका था।

इसके पश्चात मंत्री राजा के साथ भेड़ों वाले कोठे में पहुंचा। कोठा खोलने के पश्चात राजा ने देखा कि बीसो भेड़े एक दूसरे के गले पर मुंह रखकर बड़े ही आराम से सो रही थी और उनकी चारे की टोकरी एकदम खाली थी।

वास्तव में अपनी रोटी मिल बाँट कर ही खानी चाहिए और एकता में रहना चाहिए।

सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 79 – फटाके ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 79 – फटाके ☆

हवे कशाला उगा फटाके

ध्वनी प्रदूषण वाढायला।

जीव चिमुकले,  प्राणी पक्षी

वाट मिळेना धावायला ।

 

आनंदाचा सण दिवाळी,

सारे आनंदाने गाऊ या।

मना मनातील ज्योत लावूनी,

आज माणूसकीला जागू या।

 

दीन दुखी नि अनाथ बाळा,

नित हात तयाला देऊ या।

अंधःकारी बुडत्या वाटा,

सहकार्याने उजळू या।

 

रोज धमाके करू नव्याने,

कुजट विचारा उडवू या।

ऐक्याचे भूईनळे लावूनी,

आनंद जगती वाटू या।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 106 ☆ सुक़ून की तलाश ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुक़ून की तलाश।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 106 ☆

☆ सुक़ून की तलाश ☆

‘चौराहे पर खड़ी ज़िंदगी/ नज़रें दौड़ाती है / कोई बोर्ड दिख जाए /जिस पर लिखा हो /सुक़ून… किलोमीटर।’ इंसान आजीवन दौड़ता रहता है ज़िंदगी में… सुक़ून की तलाश में, इधर-उधर भटकता रहता है और एक दिन खाली हाथ इस जहान से रुख़्सत हो जाता है। वास्तव में मानव की सोच ही ग़लत है और सोच ही जीने की दिशा निर्धारित करती है। ग़लत सोच, ग़लत राह, परिणाम- शून्य अर्थात् कभी न खत्म होने वाला सफ़र है, जिसकी मंज़िल नहीं है। वास्तव में मानव की दशा उस हिरण के समान है, जो कस्तूरी की गंध पाने के निमित्त, वन-वन की खाक़ छानता रहता है, जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित होती है। उसी प्रकार बाबरा मनुष्य सृष्टि-नियंता को पाने के लिए पूरे संसार में चक्कर लगाता रहता है, जबकि वह उसके अंतर्मन में बसता है…और माया के कारण वह मन के भीतर नहीं झांकता। सो! वह आजीवन हैरान- परेशान रहता है और लख-चौरासी अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। कबीरजी का दोहा ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन मांहि/ ऐसे घट-घट राम हैं/ दुनिया देखे नांही’  –सांसारिक मानव पर ख़रा उतरता है। अक्सर हम किसी वस्तु को संभाल कर रख देने के पश्चात् भूल जाते हैं कि वह कहां रखी है और उसकी तलाश इधर-उधर करते रहते हैं, जबकि वह हमारे आसपास ही रखी होती है। इसी प्रकार मानव भी सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है, जबकि वह तो उसके भीतर निवास करता है। जब हमारा मन व चित्त एकाग्र हो जाता है; उस स्थिति में परमात्मा से हमारा तादात्म्य हो जाता है और हमें असीम शक्ति व शांति का अनुभव होता है। सारे दु:ख, चिंताएं व तनाव मिट जाते हैं और हम अलौकिक आनंद में विचरण करने लगते हैं… जहां ‘मैं और तुम’ का भाव शेष नहीं रहता और सुख-दु:ख समान प्रतीत होने लगते हैं। हम स्व-पर के बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं। यही है आत्मानंद अथवा हृदय का सुक़ून; जहां सभी नकारात्मक भावों का शमन हो जाता है और क्रोध,  ईर्ष्या आदि नकारात्मक भाव जाने कहां लुप्त जाते हैं।

हां ! इसके लिए आवश्यकता है…आत्मकेंद्रितता, आत्मचिंतन व आत्मावलोकन की…अर्थात् सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, उसे निरपेक्ष भाव से देखने की। परंतु जब हम अपने अंतर्मन में झांकते हैं, तो हमें अच्छे-बुरे व शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है और हम दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करते हैं। उस स्थिति में न हम दु:ख से विचलित होते हैं; न ही सुख की स्थिति में फूले समाते हैं; अपितु राग-द्वेष से भी कोसों दूर रहते हैं। यह है अनहद नाद की स्थिति…जब हमारे कानों में केवल ‘ओंम’ अथवा ‘तू ही तू’ का अलौकिक स्वर सुनाई पड़ता है अर्थात् ब्रह्म ही सर्वस्व है… वह सत्य है, शिव है, सुंदर है और सबसे बड़ा हितैषी है। उस स्थिति में हम निष्काम कर्म करते हैं…निरपेक्ष भाव से जीते हैं और दु:ख, चिंता व अवसाद से मुक्त रहते हैं। यही है हृदय की मुक्तावस्था… जब हृदय में उठती भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं… मन और चित्त स्थिर हो जाता है …उस स्थिति में हमें सुक़ून की तलाश में बाहर घूमना नहीं पड़ता। उस मनोदशा को प्राप्त करने के लिए हमें किसी भी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आप स्वयं ही अपने सबसे बड़े संसाधन हैं। इसके लिए आपको केवल यह जानने की दरक़ार रहती है कि आप एकाग्रता से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं या व्यर्थ की बातों अर्थात् समस्याओं में उलझे रहते हैं। सो! आपको अपनी क्षमता व योग्यताओं को बढ़ाने के निमित्त अधिकाधिक समय स्वाध्याय व चिंतन-मनन में लगाना होगा और अपना चित्त ब्रह्म के ध्यान में  एकाग्र करना होगा। यही है…आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। यदि आप शांत भाव से अपने चित्त को एकाग्र नहीं कर सकते, तो आपको अपनी वृत्तियों को बदलना होगा और यदि आप एकाग्र-चित्त होकर, शांत भाव से परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य भी नहीं जुटा पाते, तो उस स्थिति में आपके लिए मन:स्थिति को बदलना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आप दुनिया के लोगों की सोच नहीं बदल सकते, तो आपके लिए अपनी सोच को बदल लेना ही उचित, सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा। राह में बिखरे कांटों को चुनने की अपेक्षा जूता पहन लेना आसान व सुविधाजनक होता है। जब आप यह समझ लेते हैं, तो विषम परिस्थितियों में भी आपकी सोच सकारात्मक हो जाती है, जो आपको पथ-विचलित नहीं होने देती। सो! जीवन से नकारात्मकता को निकाल बाहर फेंकने के पश्चात् पूरा संसार सत्यम् शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित दिखाई पड़ता है।

सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहिए, क्योंकि बुरी संगति के लोगों के साथ रहने से बेहतर है… एकांत में रहना। ज्ञानी, संतजन व सकारात्मक सोच के लोगों के लिए एकांत स्वर्ग तथा मूर्खों के लिए क़ैद-खाना है। अज्ञानी व मूर्ख लोग आत्मकेंद्रित व कूपमंडूक होते हैं तथा अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं। ऐसे अहंनिष्ठ लोग पद-प्रतिष्ठा देखकर, ‘हैलो-हाय’ करने व संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमें ऐसे लोगों को कोटिश: शत्रुओं सम त्याग देना चाहिए…तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।

मानव अपने अंतर्मन में असंख्य अद्भुत, विलक्षण शक्तियां समेटे है। परमात्मा ने हमें देखने, सुनने, सूंघने, हंसने, प्रेम करने व महसूसने आदि की शक्तियां प्रदान की हैं। इसलिए मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकारा गया है। सो! हमें इनका उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए… सदुपयोग अथवा नि:स्वार्थ भाव से उनका प्रयोग करना चाहिए। यह हमें परिग्रह अर्थात् संग्रह-दोष से मुक्त रखता है, क्योंकि हमारे शब्द व मधुर वाणी, हमें पल भर में सबका प्रिय बना सकती है और शत्रु भी। इसलिए सोच-समझकर मधुर व कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग कीजिए,  क्योंकि शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। सो! हमें दूसरों के दु:ख की अनुभूति कर, उनके प्रति करुणा-भाव प्रदर्शित करना चाहिए। समय सबसे अनमोल धन है; उससे बढ़कर तोहफ़ा दुनिया में हो ही नहीं सकता… जो आप किसी को दे सकते हैं। धन-संपदा देने से अच्छा है कि आप उस के दु:ख को अनुभव कर, उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें तथा प्राणी-मात्र के प्रति स्नेह-सौहार्द भाव बनाए रखें।

स्वयं को पढ़ना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है… प्रयास अवश्य कीजिए। यह शांत मन से ही संभव है। खामोशियां बहुत कुछ कहती हैं। कान लगाकर सुनिए, क्योंकि भाषाओं का अनुवाद तो हो सकता है, भावनाओं का नहीं…हमें इन्हें समझना, सहेजना व संभालना होता है। मौन हमारी सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम भाषा है, जिसका लाभ दोनों पक्षों को होता है। यदि हमें स्वयं को समझना है, तो हमें खामोशियों को पढ़ना व सीखना होगा। शब्द खामोशी की भाषा का अनुवाद तो नहीं कर सकते। सो! आपको खामोशी के कारणों की तह तक जाना होगा। वैसे भी मानव को यही सीख दी जाती है कि ‘जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों, तभी मुंह खोलना चाहिए।’  मानव की खामोशी अथवा एकांत में ही हमारे शास्त्रों की रचना हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि अंतर्मुखी व्यक्ति जब बोलता है, तो उसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है… क्योंकि उसकी वाणी सार्थक होती है। परंतु जो व्यक्ति अधिक बोलता है, व्यर्थ की हांकता है तथा आत्म-प्रशंसा करता है… उसकी वाणी अथवा वचनों की ओर कोई ध्यान नहीं देता…उसकी न घर में अहमियत होती है, न ही बाहर के लोग उसकी ओर तवज्जो देते हैं। इसलिए अवसरानुकूल, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की दरक़ार होती है, क्योंकि जब आप सोच-समझ कर बोलेंगे, तो आपके शब्दों का अर्थ व सार्थकता अवश्य होगी। लोग आपकी महत्ता को स्वीकारेंगे, सराहना करेंगे और आपको चौराहे पर खड़े होकर सुक़ून की तलाश …कि• मी• के बोर्ड की तलाश नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि आप स्वयं तो सुक़ून से रहेंगे ही; आपके सानिध्य में रहने वालों को भी सुक़ून की प्राप्ति होगी।

वैसे भी क़ुदरत ने तो हमें केवल आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारे मस्तिष्क की उपज है। हम जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर,  प्रकृति से खिलवाड़ व उसका अतिरिक्त दोहन कर, स्वार्थांध होकर दु:खों को अपना जीवन-साथी बना लेते हैं और अपशब्दों व कटु वाणी द्वारा उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। हम जिस सुख व शांति की तलाश संसार में करते हैं, वह तो हमारे अंतर्मन में व्याप्त है। हम मरुस्थल में मृग-तृष्णाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते, हिरण की भांति अपने प्राण तक गंवा देते हैं और अंत में हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी हो जाती है। हम दूसरों के अस्तित्व को नकारते हुए, संसार में उपहास का पात्र बन जाते हैं;  जिसका दुष्प्रभाव दूसरों पर ही नहीं, हम पर ही पड़ता है। सो! संस्कृति को, संस्कारों की जननी स्वीकार, जीवन-मूल्यों को अनमोल जानकर जीवन में धारण कीजिए, क्योंकि लोग तो दूसरों की उन्नति करते देख, उनकी टांग खींच, नीचा दिखाने में ही विश्वास रखते हैं। उनकी अपनी ज़िंदगी में तो सुक़ून होता ही नहीं और वे दूसरों को भी सुक़ून से नहीं जीने देते हैं। अंत में, मैं महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया ‘खुशी चाहिए।’ उनका उत्तर था पहले ‘मैं’ का त्याग करो, क्योंकि इसमें ‘अहं’ है। फिर ‘चाहना’ अर्थात् ‘चाहता हूं’ को हटा दो, यह ‘डिज़ायर’ है, इच्छा है। उसके पश्चात् शेष बचती है, ‘खुशी’…वह  तुम्हें मिल जाएगी। अहं का त्याग व इच्छाओं पर अंकुश लगाकर ही मानव खुशी को प्राप्त कर सकता है, जो क्षणिक सुख ही प्रदान नहीं करती, बल्कि शाश्वत सुखों की जननी है।’ हां! एक अन्य तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि ‘इच्छा से परिवर्तन नहीं होता; निर्णय से कुछ होता है तथा निश्चय से सब कुछ बदल जाता है और मानव अपनी मनचाही मंज़िल अथवा मुक़ाम पर पहुंच जाता है।’ इसलिए दृढ़-निश्चय व आत्मविश्वास को संजोकर रखिए; अहं का त्याग कर मन पर अंकुश लगाइए; सबके प्रति स्नेह व सौहार्द रखिए तथा मौन के महत्व को समझते हुए, समय व स्थान का ध्यान रखते हुए अवसरानुकूल सार्थक वाणी बोलिए अर्थात् आप तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों…क्योंकि यही है–सुक़ून पाने का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम मार्ग, जिसकी तलाश में मानव युग-युगांतर से भटक रहा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 57 ☆ पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना।)

☆ किसलय की कलम से # 57 ☆

☆ पर्वों पर सांप्रदायिक सद्भावना ☆

पर्वों की सार्थकता तभी है जब उन्हें आपसी सद्भाव, प्रेम-भाईचारे और हँसी-खुशी से मनाया जाए। अपनी संस्कृति, प्रथाओं व परंपराओं की विरासत को अक्षुण्ण रखने के साथ-साथ अगली पीढ़ी के अनुकरणार्थ हम पर्वों को मनाते हैं। ये पर्व धार्मिक, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय क्यों न हों, हर पर्व का अपना इतिहास और सकारात्मक उद्देश्य होता है। पर्व कभी भी विद्वेष अथवा अप्रियता हेतु नहीं मनाये जाते। पर्वों के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए परंपरानुसार उन्हें मनाने की रीति चली आ रही है। पहले हमारे भारतवर्ष में हिंदु धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई धर्मावलंबी नहीं थे, तब आज जैसी परिस्थितियाँ कभी निर्मित ही नहीं हुईं। आज जब विभिन्न धर्मावलंबी हमारे देश में निवास करते हैं, तब धर्म हर धर्म के लोग अपनी अपनी रीति रिवाज के अनुसार अपने पर्व सामाजिक स्तर पर मनाते हैं और होना भी यही चाहिए। मानवीय संस्कार सभी को अपने-अपने धर्मानुसार पर्व मनाने की सहज स्वीकृति देते हैं।

कहते हैं कि जहाँ चार बर्तन होते हैं उनका खनकना आम बात है। ठीक इसी प्रकार जब हमारे देश में विभिन्न धर्मावलंबी एक साथ, एक ही सामाजिक व्यवस्थानुसार रहते हैं तो यदा-कदा कुछेक अप्रिय स्थितियों का निर्मित होना स्वाभाविक है। विवाद तब होता है जब मानवीयता से परे, स्वार्थवश, संकीर्णतावश, विद्वेष भावना के चलते कभी अप्रिय स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों के लिए मुख्य रूप से कट्टरपंथियों की अहम भूमिका होती है। ये विशेष स्वार्थ के चलते फिजा में जहर घोलकर अपना वर्चस्व व प्रभाव स्थापित करना चाहते हैं। तथाकथित धर्मगुरुओं एवं विघ्नसंतोषियों के बरगलाने पर भोली जनता इनके प्रभाव अथवा दबाव में आकर इनका साथ देती है। ये वही लोग होते हैं जो धर्म स्थलों, धार्मिक जुलूसों अथवा पर्व मना रही भीड़ में घुसकर ऐसी अप्रिय स्थितियाँ निर्मित कर देते हैं, जिससे आम जनता न चाहते हुए भी आक्रोशित होकर इतरधर्मियों पर अपना गुस्सा निकालने लगती है। यही वे हालात होते हैं, जब धन-जन की क्षति के साथ-साथ सद्भावना पर भी विपरीत असर पड़ता है। ये हालात समय के साथ-साथ सामान्य तो हो जाते हैं लेकिन इनका दूरगामी दुष्प्रभाव भी पड़ता है। नवयुवकों में इतरधर्मों के प्रति नफरत का बीजारोपण होता है। ये दिग्भ्रमित नवयुवक भविष्य में समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। ऐसे लोग देश और समाज के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकते हैं।

आज जब विश्व में शैक्षिक स्तर गुणोत्तर उठ रहा है। भूमंडलीकरण के चलते सामाजिक, धार्मिक व व्यवसायिक दायरे विस्तृत होते जा रहे हैं। आज धर्म और देश की सीमा लाँघकर अंतरराष्ट्रीय विवाह होने लगे हैं। लोग अपने देश को छोड़कर विभिन्न देशों में उसी देश के प्रति वफादार और समर्पण की मानसिकता से वहीं की नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं, बावजूद इसके हम आज भी वहीं अटके हुए हैं और उन्हीं चिरपरिचित स्वार्थी लोगों का समर्थन कर देश को हानि पहुँचाने में एक सहयोगी जैसी भूमिका का निर्वहन करते हैं।

आज हमें बुद्धि एवं विवेक से वर्तमान की परिस्थितियों पर पुनर्विचार करना पड़ेगा। हमें स्वयं व अपने देश के विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा। मानव की प्रकृति होती है कि वह सबसे पहले अपना और स्वजनों का भला करें, जिसे पूर्ण करने में लोगों का जीवन भी कम पड़ जाता है। तब आज किसके पास इतना समय है कि वह समाज, धर्म, देश व आपसी विद्वेष के बारे में सोचे। ऐसे कुछ ही प्रतिशत लोग हैं जिन्हें न अपनी, और न ही देश की चिंता रहती है। पराई रोटी के टुकड़ों पर पलने वाले और तथाकथित आकाओं-संगठनों के पैसों से ऐशोआराम करने वाले ही आज समाज के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं।

आप स्वयं चिंतन-मनन कर पाएँगे कि वर्तमान की परिस्थितियाँ सामाजिक विघटन तथा अलगाव की बिल्कुल भी अनुमति नहीं देती। आज की दिनचर्या भी इतनी व्यस्त और एकाकी होती जा रही है कि मानव को दीगर बातें सोचने का अवसर ही नहीं मिलता। तब जाकर यह बात सामने आती है कि आखिर इन परिस्थितियों का निराकरण कैसे किया जाये।

एक साधारण इंसान भी यदि निर्विकार होकर सोचे तो उसे भी इसका समाधान मिल सकता है। हमें बस कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक हैं। यहाँ सबको अपने धर्म और मजहब के अनुसार जीने का हक है। जब तक इतरधर्मी शांतिपूर्ण ढंग से, अपनी परंपरानुसार पर्व मनाते हैं, हमें उनके प्रति आदर तथा सद्भाव बनाये रखना है। पर्वों के चलते जानबूझकर नफरत फैलाने का प्रयास कदापि नहीं करना है। इतरधर्मियों, इतर धार्मिक पूजाघरों के समक्ष जोश, उत्तेजना व अहंकारी बातों से बचना होगा। सभी धर्मों के लोग भी इन परिस्थितियों में सद्भाव बनाए रखें तथा सहयोग देने से न कतरायें। धर्म का हवाला देकर दूरी बनाना किसी भी धर्म में नहीं लिखा है। यह सब धर्मगुरुओं के नियम-कानून और स्वार्थ हो सकते हैं। ईश्वर ने सबको जन्म दिया है, वह सब का भला चाहता है। तब उसके व्यवहार में अंतर कैसे हो सकता है। शासन-प्रशासन, धर्म-गुरु और सामान्य लोग सभी मिलजुल कर सारे समाज का स्वरूप बदलने में सक्षम हैं। बस सकारात्मक और अच्छे नजरिए की जरूरत है। यह सकारात्मक नजरिया लोगों में कब देखने मिलेगा हमें इंतजार रहेगा। बात बहुत बड़ी है, लेकिन कहा जाता है कि आशा से आसमान टिका है तब हमें इस आशा को विश्वास में बदलने हेतु कुछ प्रयास आज से ही शुरु नहीं करना चाहिए? बस एक बार सोचिए तो सही। आप खुद ब खुद चल पड़ेंगे सद्भावना की डगर, जहां इंसानियत और सद्भावना का बोलबाला होगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 105 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 105 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

देखो कैसे साल भर,

रहता है उजियार।

दीपों की ये रोशनी,

दूर करे अंधियार।।

 

धानी चूनर ओढ़कर,

प्रकृति करे शृंगार।

धरा प्रफुल्लित हो रही,

हरा-भरा संसार।।

 

लज्जा का घूँघट करो,

धीमे बोलो बोल।

मिल-जुलकर सबसे रहो,

जीवन है अनमोल।।

 

प्रीति रखी है श्याम से,

जग के पालन हार।

जिनकी महिमा है अमित,

करते नैया पार।।

 

मन की गहरी वेदना,

नयन बहाते नीर।

नयनों की भाषा पढ़ो,

तब समझोगे पीर।।

 

नयन-तीर से कामिनी,

करती हृदय-शिकार।

मुझको भी होने लगा,

उससे सच्चा प्यार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 94 ☆ कहाँ  चल दिये …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “कहाँ  चल दिये ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 94 ☆

☆ कहाँ  चल दिये….  ☆

छोड़ कर आधी कहानी, कहाँ चल दिये

दे कर आँखों में पानी, कहाँ  चल दिये

 

हमको   था  फकत  आसरा  आपका

तोड़ कर ये  ज़िंदगानी,कहाँ  चल  दिये

 

सबक   वफ़ा   का  सीखा ना आपने

खूब करी खुद मनमानी,कहाँ  चल दिये

 

वादा    निभाया    ना   आपने    कभी

छीन कर अब ये जवानी,कहाँ चल दिये

 

तोड़   के  रिश्ते   पल   भर  में  सारे

नींद चुरा कर मस्तानी,कहाँ चल दिये

 

मिलता  न “संतोष”  कभी  आसां  से

भूल कर सभी नादानी,कहाँ चल दिये

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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