हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #193 – व्यंग्य— चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य व्यंग्य— चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 193 ☆

व्यंग्य— चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

वह हारने वालों में से नहीं था. उस ने सोच लिया था कि जो हो, वह चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी ठहरा के रहेगा. कहते हैं कि दुनिया में कोई काम असंभव नहीं है. इसलिए उस ने अपने मित्र रोहन से कहा था,” देखना यार ! एक दिन में असंभव कार्य कर के रहूंगा.”

यह सुन कर रोहन हंसा, ” तू यूं ही अपनी ऊर्जा व्यर्थ करेगा. ये चिकना घड़ा है. इस में कोई पानी नहीं ठहरता है. तू उस पर ईमानदारी का पानी ठहराने की बात कर रहा है.”

” हां, यह मैं कर के दिखाऊँगा.” रोहन ने कहा, ” हरेक व्यक्ति की अपनी शक्ति होती है. उसे अपनी शक्ति याद दिलाने की जरूरत होती है.”

” भाई, यह हनुमानजी नहीं है. इन्हें शक्ति याद दिलाई और ये उसे याद कर के समुद्र लांघने जैसा असंभव कार्य कर दें. इन्हें शक्ति याद है. मगर इन्हें कार्य नहीं करना है.”

” लगी शर्त ?”

” हां,” रोहन ने कहा और उस मित्र ने शर्त मान ली.

” चल, अब हम छह माह बाद मिलेंगे.”

” बिलकुल कह कर, ” मित्र अपनी शर्त को जीतने के लिए क्रियान्वित करने लग गया. उसे पता था कि देवीलालजी बुद्धिमान आदमी है. इन्हें बहुत अच्छी गणित आती है. यह बात ओर है कि वह अपनी बुद्धिमतता का उपयोग विद्यालय में नहीं करते हैं. मगर, क्यों नहीं करते हैं ? यह मित्र को मालुम नहीं था. उस ने तय कर लिया था कि इन की बुद्धिमतता का उपयोग कर के रहेगा.

इसलिए मित्र ने देवीलालजी से कहा, ” सर! आप को डाक विभाग का कार्य करना है.”

यह सुनते ही वे झट से मुस्काए. मानो उन्हें खजाना मिल गया हो. बोले, ” क्यों नहीं सर! आप तो जो कोई भी काम हो दीजिएगा. मैं आप का आदेश का पालन तत्परता से करूंगा.”

सुन कर मित्र खुश हो गया. फिर मन ही मन सोचने लगा. ‘ मेरा मित्र रोहन शर्त हार जाएगा.’ यह सोच कर वह मुस्कराया.

” आप यह कार्य कर लेंगे ,” मित्र ने आश्वस्त होने के लिए पूछा तो देवीलालजी मुस्कराए, ” आप के होते हुए मुझे किस बात की तकलीफ हो सकती है? आप जैसा अफसर मिलना सौभग्य की बात होती है.” कहते हुए उन्हों ने अपनी उभरी हुई तोंद पर हाथ फेरा. फिर उलझे हुए बाल पर अंगुलियां घुमाते हुए बोले, ” बस आप तो आदेश देते रहिएगा.”

तभी फोन की घंटी घनघना उठी. उधर से फोन आया था. पूरे संकुल की डाक बना कर जल्दी पहुंचानी थी. छात्र संख्या को जातिवार, वर्गवार और कक्षावार जानकारी भेजना थी.

” सर! सभी से जानकारी मंगवा लीजिए. छात्रों की जानकारी अभी भेजना है. ” मित्र के कहते ही देवीलालजी ने चपरासी को आवाज दी, ” सत्तु ! इधर आना. ”

” जी साहब !”

” मुझे सभी के टेलिफोन नंबर बता. मैं टेलीफोन लगाता हूं. तू सभी की जानकारी नोट करना,” कहते हुए वे धनाधन फोन लगाने लगे. उधर से आने वाली जानकारी को बोलबोल कर चपरासी को नोट करवाने रहे थे.

तब तक मित्र ने जानकारी का प्रारुप बना लिया था. देवीलालजी ने प्रारुप लिया, ” साहब !मैं अभी भर देता हूं.” कहते हुए उन्हों ने प्रारूप भरना शुरु किया .

” सत्तु ! जानकारी बोलना. मैं अभी भर देता हूं.” कहते हुए उन्हों ने पेन पकड़ लिया. सत्तु ने बोलना शुरू किया.

” हां, गूंदीखेड़ा की जानकारी बोल,” कहने के साथ सत्तु ने गूंदीखेड़ा की जानकारी बोल दी.

” माधोपुरा की हो गई,” देवीलालजी बोले, ” अब गूंदीखेड़ा की बोलना.”

यह सुनते ही सत्तु ने कहा, ” अभी तो गूंदीखेड़ा की बोली थी.”

” क्या !” कहते हुए देवीलालजी ने प्रारूप में झट से क्रास लाइन फेर दी, ” अरे यार ! तू ने गलत करवा दिया.”

मित्र आवाक था. बड़ी मेहनत से बना हुआ प्रारूप खराब हो गया था. वह चिढ़ कर बोला, ” सरजी ! यह क्या किया ? बड़ी मेहनत से प्रारूप बनाया था. वह बिगाड़ दिया.”

” तो क्या हुआ ?” देवीलालजी ने कहा, ” चिंता क्यों करते हो सर जी ? मुझे कागज दीजिए. मैं अभी बना देता हूं,” कहते हुए उन्हों ने कागज लिया. एक बार प्रारूप बनाया. उस में जाति का कालम छोड़ दिया. दूसरा कागज लिया. प्रारूप बनाया. उस में कक्षा का कालम छोड़ दिया. तीसरी बार कागज लिया. उस में छात्र का कालम बनाया मगर, छात्रा का कालम छोड़ दिया.

आखिर मित्र परेशान हो गया था. उसे जानकारी आज ही भेजना थी. उस ने मन ही मन खींजते हुए कहा, ” सर ! आप रहने दीजिए. आप कक्षा में जाइए. मैं प्रारूप में जानकारी भर कर भेज दूंगा.”

यह सुन कर देवीलालजी मुस्करा कर कक्षा में चले गए. एक दिन कैसे चला गया, पता ही नहीं चला.

दूसरे दिन मित्र सीधा कक्षा में गया. देखा देवीलालजी कक्षा में सोए हुए थे. छात्र अपनीअपनी गाइड से लिख रहे थे. यह देख कर मित्र हैरान था. वह झट से देवीलालजी के पास गया. टेबल पर डंडे ठोका,” सर ! नींद निकाल रहे हैं?”

वे झट से उठ बैठे,” अरे नहीं सर! माथा दुख रहा था इसलिए आंख बंद कर के बैठा हुआ था.”

” लेकिन यह स्कूल है. बच्चे गाइड से लिख रहे हैं. आप सो रहे है. यह गलत बात है. इन्हें बोर्ड पर लिखवाया कीजिए.”

” जी सर, ” देवीलालजी ने कहा, ” ऐ लड़के ! चाक लाना.” कह कर वे सीधे खड़े हो गए. एक लड़का भाग कर गया. चाक ले आया.  मित्र आश्वस्त हो कर चले गए.

” चलो ! देवीलालजी उन के आदेश का पालन कर रहे होंगे,” यह सोच कर वे कार्यालय का काम करने लगे. तभी उन के मन में विचार आया. एक बार चल कर देख लेना चाहिए. वे वापस आया. देखा. देवीलालजी सो रहे थे. एक छात्र गाइड से बोर्ड पर चाक से उतार रहा था. बाकी के छात्र लिख रहे थे.

” सर! ये क्या है?” मित्र ने कक्षा में प्रवेश करते ही देवीलालजी को उठाया, ” यह क्या हो रहा है ?”

” सर! बालकेंद्रित गतिविधि से प्रश्नोंत्तर लिखवा रहा हूं.” कहने के साथ देवीलालजी खड़े हो गए.

उन का कहना सही था. वाकई बालकेंद्रित गतिविधि से कार्य हो रहा था. एक छात्र लिख रहा था. दूसरे बोर्ड से नकल उतार रहे थे. यह बात दूसरी है कि एक छात्र गाइड से लिख रहा था. बाकी सभी नकल कर रहे थे.

यह देख कर मित्र ने अपना सिर पीट लिया. वह सोचने लगा कि वाकई चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता है. यह बात सही साबित हो रही थी. उस ने चाहा था कि वह देवीलालजी को सुधार कर उन से सही काम लेने लग जाए. ताकि वह शर्त जीत जाए.

मगर, मित्र के सभी उपाय फेल हो रहे थे. वह जो भी कोशिश करता, वह फेल हो जाती. देवीलालजी कोई न कोई उपाय निकाल लेते. इसलिए थकहार कर मित्र ने उन्हें छात्रवृत्ति का कार्य दे दिया. यह आनलाइन छात्रवृत्त्ति का कार्य था. सभी की छात्रवृत्ति आनलाइन चढ़ाना थी. इस के लिए एक आनलाइन सेंटर पर उन की मुलाकात करवा दी थी.

” सर ! आप को यहा पर काम करवाना है.”

” जी सर! आप निश्चिंत रहे. आप का सभी काम हो जाएगा.” देवीलालजी ने कहा और अपना काम पूरी ईमानदारी से करने लगे. उन की मेहनत रंग ला रही थी. मित्र को लगा कि पहली बार उन्हों ने देवलीलालजी को सही काम दिया है. इसलिए उस ने अपने मित्र को फोन किया, ” भाई रोहन! मैं जीत गया. मैं ने देवीलालजी जैसे चिकने घड़े पर ईमानदारी का पानी ठहरा दिया है. आजकल वे पूरी ईमानदारी से छात्रवृत्ति का कार्य कर रहे हैं. सभी आंकड़ें मिलाते हैं. आनलाइन वाले के यहां जाते हैं पूरा काम कर के आ जाते हैं.”

यह सुन कर मित्र रोहन चौंका, ” नहीं यार! यह हो नहीं सकता. जिस व्यक्ति को मैं पांच साल में सुधार नहीं सका. उसे तूने आठ महिने में सुधार दिया ?”

” हां भाई हां, ” मित्र ने कहा, ” मैं शर्त जीत गया हूं.”

” वाकई! तब तो तेरी मिठाई पक्की रही, ” कहते हुए रोहन ने फोन काट दिया. फिर निर्धारित दिन को दोनोें मित्र नीमच में मिले. शर्त के मुताबित रोहन को उसे अच्छी होटल में पार्टी देना था. वह उसी में आए थे.

तभी वरिष्ठ कार्यालय से फोन आया. जिसे सुन कर मित्र के होश उड़ गए.

मित्र का चेहरा देख कर रोहन ने पूछा, ” मित्र क्या हुआ? तेरे चेहरे का रंग क्यों उड़ गया.”

” पार्टी कैंसल!” रोहन ने कहा,” मित्र! तू सही कहता था चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता है.” कहते हुए मित्र ने देवीलालजी को फोन लगाया, ” सर! आप छात्रवृत्ति के तमाम कागज भेज दीजिए. उन्हें आज ही सुधार कर आनलाइन चढ़ाना है.”

” जी! आप अगली बस संहाल लीजिएगा,” कहते हुए मित्र ने फोन रख दिया ओर माथा पकड़ कर बैठ गया, ”अरे यार! तीन घंटे में 200 छात्रों के खाते सही करना है. यह संभव नहीं है.”

इस पर रोहन ने कहा, ” हां, यह सही कहा. मगर, घबराने से काम चलने वाला नहीं है.” रोहन ने कुछ सोचते हुए कहा, ” ऐसा करते हैं कि हम आठदस आनलाइन वाले के यहां चलते हैं. उन्हें इस लिस्ट के 20—20 छात्रों की सूची देते हैं. वे उसे आनलाइन चढ़ा देंगें.” कहते हुए रोहन ने मोटरसाइकल उठाई. आठदस आनलाइन वालों से संपर्क किया. उन्हें कागज दिए. छात्रवृत्ति के खाते सही करने का बोल दिया.

यह देख कर मित्र ने कान पकड़ लिए, ” आज के बाद में उस देवाबा से कभी काम नहीं करवाऊँगा.”

” यही तो वह चाहता है,” रोहन ने कहा, ” उस का सिद्धांत ही यही है बनो रहो पगला, काम करेगा अगला.” कहते हुए रोहन मुस्करा दिया.

जैसे वह कह रहा हो मित्र — चिकने घड़े पर कोई पानी नहीं ठहरता है. तुम तो उस पर ईमानदारी का पानी ठहराने वाले थे. क्या हुआ ? हार  गए ना? मगर बोला कुछ नहीं.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

11-11–2020 

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #48 ☆ कविता – “नहीं चाहिए मुझें…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 48 ☆

☆ कविता ☆ “नहीं चाहिए मुझे…☆ श्री आशिष मुळे ☆

नहीं चाहिए मुझे

वो लाली नकली

वो रोशनी झूठी 

ना ही शान फूटी

ना सादगी मतलबी

 *

नहीं चाहिए मुझे

वो चकाचौंध वो चमक

कितनी रोशन मेरी खिड़की

जिसने देखा है चाँद असली

या दिल का या हो आसमानी

 *

नहीं चाहिए मुझे

वो रिश्ते वो आसान रास्ते

चाहूँ जो छू सके दिल को

वो बात जो है इंसानी

वो यारी वो दिल्लग़ी

 *

चाहिए मुझे

वो रक़्स ए दीवानगी

वो हालात ए आवारगी

वो क़ैद ए रिहाई

वो आसमाँ ए आज़ादी…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 226 ☆ बाल कविता – दूज चाँद सँग परियाँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 226 ☆ 

बाल कविता – दूज चाँद सँग परियाँ… 🪔 ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

दूज चाँद भी मनमोहक था

तारा सँग-सँग है खिलता।

सिंदूरी साड़ी के मन पर

चित्र मयूरा घन बनता।

 *

परियाँ भी आईं मिलने को

दूज चाँद प्रिय बालक से।

मेवा मिश्री लड्डू लाईं

साथ खिलौने मादक से।

 *

दूज चाँद उपहार देखकर

खुशियों से नाचे झूमे।

दावत खूब उड़ाई मिलकर

परियों के सँग-सँग घूमे।

 *

गुब्बारों की रेल चलाई

अंतरिक्ष में उड़े चले ।

रूप बढ़ा चाँदनी बिखेरी

धरा, गगन के बने भले।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ३१ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ३१ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- सुजाता असं काही करणं शक्यच नाही. मी माझ्या मनाला बजावून सांगितलं. पण तरीही ते साडेआठशे रुपये गेले कुठं हा प्रश्न मात्र माझं मन जाळत राहिला. ) 

“आता प्रॉब्लेम मिटलाय सर. पैसेही वसूल झालेत”

सुहास गर्देनी सांगितलं आणि मी दचकून बघतच राहिलो क्षणभर.

“प्रॉब्लेम मिटलाय? पैसे वसूल झालेत? कसे?कुणी भरले?”

“मी ‘लिटिल् फ्लॉवर’ ला त्याच दिवशी संध्याकाळी फोन करून सांगितलं सर. त्यांनी लगेच पैसे पाठवले. “

ऐकून मला धक्काच बसला. काय बोलावं मला समजेचना. मिस् डिसोझांना फोन करण्यासाठी रिसिव्हर उचलला खरा पण हात थरथरू लागला. फोन न करताच मी रिसीव्हर ठेवून दिला. माझ्या अपरोक्ष नको ते नको त्या पद्धतीने घडून गेलं होतं. सुहास गर्देनं बाहेर जाऊन स्वतःचं काम सुरू केलं पण जाताना त्याच्याही नकळत त्यानं मलाच आरोपीच्या पिंजऱ्यात उभ केलंय असंच वाटू लागलं. माझ्यासमोर उभं राहून मिस् डिसोझा संशयीत नजरेनं माझ्याकडेच पहात आहेत असा मला भास झाला आणि मी भानावर आलो. खुर्ची मागे सरकवून ताडकन् उठलो. माझ्या अस्वस्थ मनात अचानक अंधूक प्रकाश दाखवू पहाणारा एक विचार चमकून गेला आणि केबिनचं दार ढकलून मी बाहेर आलो. )

“सुजाता, त्यादिवशी निघताना मी ‘लिटिल् फ्लाॅवर’ची कॅश तुला दिली तेव्हाच ‘ती मोजून घे’ असं सांगितलं होतं. हो ना?” तिने चमकून माझ्याकडं पाहिलं. ” ते पैसे मी स्वतः मोजून घेतले होते. एखादी नोटही कमी असणं शक्यच नाही. खात्री आहे मला. ती तशी असती तरीही मी एकवेळ समजू शकलो असतो. पण पन्नास रुपयांच्या चक्क १७ नोटा? नाही.. हे शक्यच नाही. कांहीतरी गफलत आहे. “

भेदरलेल्या सुजाताचे डोळे भरून आले. माझा चढलेला आवाज ऐकून सर्व स्टाफ मेंबर्स चमकून माझ्याकडे पहात राहिले. सुहास गर्देंची बसल्या जागी चुळबूळ चालू झाल्याचं मला जाणवलं.

“सुहास, कॅश शॉर्ट आहे हे तुमच्या केव्हा लक्षात आलं होतं?”

“टोटल कॅश रिसीट टॅली करताना सुजाताच्याच ते लक्षात आलं होतं सर. ” 

“पण म्हणून फरक ‘लिटिल् फ्लॉवर’च्या कॅशमधेच कसा ? इतर रिसीटस् मधे असणार नाही कशावरून?”

सुजातानं घाबरुन सुहासकडं पाहिलं.

“सर, तिच्या काउंटरला शनिवारी खूप गर्दी होती. त्यामुळे तुम्ही दिलेली कॅश आणि स्लीपबुक दोन्ही सुजातानं न मोजता बाजूला सरकवून ठेवलं होतं. गर्दी कमी झाल्यानंतर सगळ्यात शेवटी तिनं ती कॅश मोजली तेव्हा त्यात पन्नास रुपयांच्या १७ नोटा कमी असल्याचं तिच्या लक्षात आलं. “

“आणि म्हणून तुम्ही लगेच मिस् डिसोझांना फोन केलात. “

“हो सर”

आता यापुढे त्यांच्यासमोर डोकं आपटून घेण्यात काही अर्थच नव्हता. मिस् डिसोझांना मी तातडीने फोन करणं गरजेचं होतं पण माझं धाडस होईना. स्वतःच एखादा भयंकर गुन्हा केलेला असावा तसं मलाच अपराधी वाटत राहिलं. त्याना फोन करण्यापेक्षा समक्ष जाऊन भेटणंच योग्य होतं. तेही आत्ता, या क्षणीच. पण जाऊन सांगणार तरी काय? रिक्त हस्ताने जाणं पण योग्य वाटेना. त्यासाठीआठशे पन्नास रुपये अक्कलखाती खर्च टाकून स्वत:च ती झळ सोसण्याशिवाय गत्यंतरच नव्हतं. त्याकाळी ८५० रुपये ही कांही फार लहान रक्कम नव्हती. आपल्या खात्यांत तेवढा बॅलन्स तरी असेल का? मला प्रश्न पडला. मी आमचं स्टाफ लेजर खसकन् पुढं ओढलं. माझ्या सेविंग्ज खात्याचा फोलिओ ओपन केला. पाहिलं तर नेमका ८५५/- रुपये बॅलन्स होता!

त्याकाळी मिनिमम बॅलन्स पाच रुपये ठेवायला लागायचा. मागचा पुढचा विचार न करता मी विथड्राॅल स्लीप भरून ८५०/- रुपये काढले. पैसे घेतले आणि थेट बाहेरचा रस्ता धरला.

“मे आय कम इन मॅडम?”

मिस् डिसोझांनी मान वर करून पाहिलं. त्यांच्या कपाळावर सूक्ष्मशी आठी दिसली. चेहऱ्यावरचं नेहमीचं स्मितहास्य विरुन गेलं. एरवीची शांत नजर गढूळ झाली.

त्यांनी समोर बसण्याची खूण केली.

“येस.. ?”त्यांनी त्रासिकपणे विचारलं.

“मी मीटिंगसाठी कोल्हापूरला गेलो होतो मॅडम. आज पहाटे आलो. सकाळी ब्रॅंचमधे गेलो तेव्हा सगळं समजलं. माय स्टाफ शुड नॉट हॅव रिकव्हर्ड दॅट अमाऊंट फ्रॉम यू. आय एॅम रिअली सॉरी फॉर दॅट”

त्यांच्या कपाळावरच्या आठ्या अधिकच वाढल्या.

“सोs? व्हॉट मोअर यू एक्सपेक्ट नाऊ फ्रॉम अस?”त्यांनी चिडून विचारलं.

मी कांही न बोलता शांतपणे माझ्या खिशातले ८५० रुपये काढले. ते अलगद त्यांच्यापुढे ठेवले.

“व्हाॅट इज धिस?”

“त्यांनी तुम्हाला फोन करून तुमच्याकडून ते पैसे रिकव्हर करायला नको होते. आय नो. बट दे वेअर इनोसंट. प्लीज फरगीव्ह देम. त्यांची चूक रेक्टिफाय करण्यासाठीच मी आलोय. तुमच्याकडून पैसे मोजून मी माझ्या ताब्यात घेतले त्या क्षणीच आपल्यातला व्यवहार पूर्ण झालेला होता. त्यामुळे पुढची जबाबदारी अर्थातच माझी होती. ती मीच स्वीकारला हवी. सोs.. प्लिज एक्सेप्ट इट‌. “

“बट व्हॉट अबाउट दॅट शाॅर्टेज? समबडी मस्ट हॅव प्लेड अ मिसचिफ. “

“नाॅट नेसिसरीली. ती एखादी साधीशी चूकही असू शकेल कदाचित. आय डोन्ट नो. त्याचा शोध घ्यायला हवा आणि मी तो घेईन”

“दॅट मीन्स यू आर पेईंग धिस अमाऊंट आऊट ऑफ युवर ओन पॉकेट. इजण्ट इट?”

“येस. आय हॅव टू. “

त्या नि:शब्दपणे क्षणभर माझ्याकडे पहात राहिल्या. त्याच्या कपाळावरच्या आठ्या अलगद विरून गेल्या. गढूळ नजर स्वच्छ झाली. त्यांच्या चेहऱ्यावरचं नेहमीचं प्रसन्न स्मितहास्य पाहून मी समाधानानं उठलो. त्यांचा निरोप घेऊन जाण्यासाठी वळणार तेवढ्यात त्यांनी मला थांबवलं.

“सी मिस्टर लिमये. फॉर मी, हा प्रश्न फक्त पैशाचा कधीच नव्हता. हिअर इज ह्यूज अमाऊंट ऑफ इनफ्लो ऑफ फंडस् फ्रॉम अॅब्राॅड रेगुलरली. सो एट फिफ्टी रुपीज इज अ व्हेरी मिगर अकाऊंट फाॅर अस. पण प्रश्न प्रिन्सिपलचा होता. ते इंम्पाॅर्टंट होतं. तरीही विथ एक्स्ट्रीम डिससॅटीस्फॅक्शन त्या दिवशी मी त्यांना त्यांच्या मागणीनुसार ८५० रुपये पाठवून दिले. कारण त्याक्षणी आय डिडन्ट वाॅन्ट टू मेक इट अॅन बिग इश्यू. इट्स नाईस यू केम हिअर परसनली टू मीट मी. सो नाऊ द मॅटर इज ओव्हर फाॅर मी. आय रिक्वेस्ट यू… प्लीज हे पैसे घ्यायचा मला आग्रह नका करू. तुम्ही ते मला ऑफर केलेत तेव्हाच ते माझ्यापर्यंत पोचले असं समजा आणि पैसे परत घ्या. यू डोन्ट वरी फॉर माय लॉस. आय ॲम शुअर माय गॉड विल गिव्ह इट टू मी इन वन वे आॅर अदर”

त्या अगदी मनापासून बोलल्या. त्यात मला न पटण्यासारखं कांही नव्हतंच. पण पटलं तरी मला ते स्वीकारता मात्र येईना.

“मॅडम प्लीज. मलाही असाच ठाम विश्वास आहे मॅडम. माय गाॅड ऑल्सो वील स्क्वेअर अप माय लाॅस इन हिज ओन वे. मी आत्ता हे पैसे स्वतः देतो आहे ते केवळ कर्तव्यभावनेने आणि फक्त माझ्या स्वतःच्या समाधानासाठी. प्लीज एक्सेप्ट इट मॅडम. प्लीज. फाॅर माय सेक. “

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #253 – कविता – ☆ चलते – चलते… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता चलते – चलते” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #253 ☆

☆ चलते – चलते… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

चलते-चलते भटके राह हम

यश-कीर्ति  सम्मानों से  घिरे

बढ़ते ही जा रहे हैं, अंक

है चारों ओर, अब प्रपंच।

 

श्रेय और प्रेय  के, दोनों  पथ  थे

लौकिक-अलौकिक दोनों रथ थे

सुविधाओं की चाहत

प्रेय को चुना हमने

लौकिक पथ,मायावी मंच

है चारों ओर, अब प्रपंच।

 

आकर्षण, तृष्णाओं  में  उलझे

अविवेकी मन,अब कैसे सुलझे

आत्ममुग्धता में हम

बन गए स्वघोषित ही

हुए निराला,दिनकर, पंत

है चारों ओर, अब प्रपंच।

 

आँखों में मोतियाबिंद के जाले

ज्ञान  पर  अविद्या के, हैं  ताले

अँधियाति आँखों ने

समझौते  कर  लिए

मावस के, हो गए महन्त

है चारों ओर, अब प्रपंच।

 

हो गए प्रमादी, तन से, मन से

प्रदर्शन,झूठे अभिनय,मंचन से

तर्क और वितर्कों के

स्वप्निले  पंखों  पर

उड़ने की चाह, दिग्दिगन्त

है चारों ओर, अब प्रपंच।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 77 ☆ दिन का आगमन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “दिन का आगमन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 77 ☆ दिन का आगमन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सात घोड़े वाले रथ पर

बैठकर निकला है सूरज

हुआ दिन का आगमन है।

**

आँजुरी भर धूप लेकर

हवा गरमाई

किरन उजियारा लिये हर

द्वार तक आई

*

काग बैठा मुँडेरों पर

बाँचता पल-पल सगुन है।

**

भोर वाले ले सँदेशे

आ गया दिनकर

रात बैठी सितारों में

ओढ़ तम छुपकर

*

दिन जली लकड़ी हवन की

साँझ शीतल आचमन है।

**

पंछियों का चहचहाना

मंदिरों के शंख

उड़ रहे आकाश में हैं

मुक्त होकर पंख

*

धार साधे बहे नदिया

लहर नावों पर मगन है।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 81 ☆ तेरी तक़रीर है झूठी तेरे वादे झूठे… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “तेरी तक़रीर है झूठी तेरे वादे झूठे“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 82 ☆

✍ तेरी तक़रीर है झूठी तेरे वादे झूठे… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

वक़्त का क्या है ये लम्हे नहीं आने वाले

मुड़के इक बार जरा देख तो जाने वाले

हम बने लोहे के कागज़ के न समझ लेना

खाक़ हो जाएगें खुद हमको जलाने वाले

 *

बच्चे तक सिर पे कफ़न बाँध के   घूमें इसके

जड़ से मिट जाए ये भारत को मिटाने वाले

 *

तुम वफ़ा का कभी अपनी भी तो मीज़ान करो

बेवफा होने का इल्ज़ाम लगाने वाले

 *

वोट को फिर से भिखारी से फिरोगे दर दर

सुन रिआया की लो सरकार चलाने वाले

 *

सामने कीजिये जाहिर या इशारों से बता

अपने जज़्बातों को दिल में ही दबाने वाले

 *

हम फरेबों में तेरे खूब पड़े हैं अब तक

बाज़ आ हमको महज़ ख़्वाब दिखाने वाले

 *

तेरी तक़रीर है झूठी तेरे वादे झूठे

शर्म खा अपने फ़क़त गाल बजाने वाले

 *

तेरे खाने के दिखाने के अलग दाँत रहे

ताड हमने लिया ओ हमको लड़ाने वाले

 *

पट्टिका में है अरुण नाम वज़ीरों का बस

याद आये न पसीने को बहाने वाले

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 46 – वॉशरूम…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – वॉशरूम।)

☆ लघुकथा # 45 – वॉशरूम श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रूबी का ससुराल में पहला दिन था सभी लोग बहुत खुश लग रहे थे कहीं जाने की तैयारी चल रही थी।

रूबी को आकर उसकी सास ने कहा कि – “बहू जल्दी से तैयार हो जाओ। हमारे यहां का रिवाज है कि हमारे यहां बहू बेटों को शादी के बाद शीतला देवी मंदिर जाते  हैं, जो कि यहां से 40 किलोमीटर दूर है ।”

“वहां पर सत्यनारायण की कथा होगी।”

मेरी कुछ सहेलियां भी वहां पर पहुंचेंगे और तुम्हारी ननद अनु भी रहेगी ।

“यह जेवर और यह साड़ी पहन लेना।

मेरी नाक मत कटाना अच्छे से तैयार होना।”

“रूबी मां यह बहुत भारी जेवर और साड़ी है इतने भारी जेवर आज के जमाने में कौन पहनता है।”

“बकवास मत करो जैसा  कह रही हूं वैसा ही करो।”

“वह चुपचाप तैयार हुई और उसने अपने पति रोहित से कहा -“कि क्या इसी दिन के लिए मैंने डॉक्टरी की पढ़ाई की थी।”

“अब तुम्हारे साथ शादी करके क्या मुझे यह सब नौटंकी भी झेलनी पड़ेगी।”

रोहित – “बस आज की बात है माता के मंदिर जाना है और हमारे सारे रिश्तेदार बुआ और बहन लोग आ रही हैं” इसलिए मैंने तुमसे ऐसा कहा है।

वे सब लोग मंदिर में पहुंचे पंडित जी भी पहुंचे और पूजा शुरू हो गई पूजा 3 घंटे तक चली।

रूबी – ‘रोहित मुझे वॉशरूम जाना है।” 

कमला जी रूबी की जो सास है, उन्होंने कहा –

“यह सब नौटंकी या यहां नहीं चलेगी चुपचाप थोड़ी देर बिना बात किए बैठ नहीं सकते हो तुम दोनों।”

रूबी से बैठा नहीं जा रहा था और उसकी तकलीफ कोई नहीं समझ पा रहा था ।

” मेरी मति मारी गई और मैंने यह शादी की।”

तभी उसकी   (ननद) जो अनु दूर खड़े हो कर देख रही थी, उसको यह बात समझ में आ गई । और अपनी भाभी से कहा कि चलो।

अनु उसे मंदिर के वॉशरूम के सामने ले जाकर छोड़ दी ,वह  वॉशरूम से बाहर आते ही अपनी अनु के गले लग गई ।

अनु ने कहा कि भाभी कोई बात नहीं अब… “चलो जल्दी से हम लोग मंदिर चलते हैं ।”

मां कुछ नहीं बोलेगी?

वह बार-बार अनु को देख रही थी और उसकी आंखों ने सब कुछ बोल दिया।

रूबी की सास ने बोला कहां ले गई “अपनी भाभी को अनु”।

अनु बोली -“मां मैं भाभी को मंदिर का सिंदूर दिलाने के लिए लेकर गई थी “

“तुम्हारी बहू डॉक्टर है, इसे यह सब बातें तो नहीं पता होगी”

आप मां पूजा में व्यस्त थी ,इसीलिए मैं भाभी को लेकर चली गई…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 248 ☆ सावित्री… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 248 ?

सावित्री ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

तो — अगदी लहान असल्यापासून

पाहिलेला,

चाळीशीचा तरूण,

कळलं तो शेजारच्या इस्पितळात येतो–‐-

डायलिसीस साठी!

 

मानवी शरीराला,

खूप जपूनही,

कधी काय होईल,

सांगता येत नाही !

 

आम्ही उभयता खूपच,

हळवे झालो होतो…..

त्याला भेटायला गेल्यावर!

सोबत असलेली त्याची पत्नी,

चेहर्‍यावर काळजी, पण—

ठामपणे त्याच्या पाठीशी उभी !

आणि घेत ही होती,

तितक्यात निष्ठेने—

त्याची काळजीही !

 

नंतर समजलं,

त्याच्या शस्त्रक्रियेविषयी….

त्याची पत्नीच देणार होती,

स्वतःची एक किडनी !

 

नतमस्तकच,

त्या तरूणीसमोर!

सावित्री अजूनही—

जन्मते या इथेच,

विज्ञानाची कास धरून,

आणि स्वतःच्या जीवावर,

उदार होऊन,

 घडवते नवऱ्याचा पुनर्जन्म,

याच जन्मी !

कुण्या यमाची याचना न करता,

आपल्या शरीरातला—

एक नाजूक अवयव,

करते बहाल,

पतिप्रेमासाठी!

 

ही सावित्री मला “त्या”

सावित्रीपेक्षाही खूपच

महान वाटते–

जीवच ओवाळून टाकते–

जोडीदारावर,

नातं निभावत रहाते आयुष्यभर !!

☆  

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 77 – व्यर्थ मोती न लुटाया कीजे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – व्यर्थ मोती न लुटाया कीजे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 77 – व्यर्थ मोती न लुटाया कीजे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

व्यर्थ मोती न लुटाया कीजे 

कौन है हंस, यह पता कीजे

 *

आप पूनम हैं, लोग कहते हैं 

मेरे दिल में भी उजाला कीजे

 *

तुम जो आते हो, फूल खिलते हैं 

इनको, हर रोज हँसाया कीजे

 *

याद के हैं, यहाँ पले जुगनू

रोशनी से, न डराया कीजे

 *

आपके बिन, अगर जिया तो क्या 

मेरे जीने की, मत दुआ कीजे

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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