हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…2”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…2 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

दरअसल “मैं” की यात्रा दुरूह होती है। माँ के गर्भ में आते ही “मैं” को कई सिखावन से लपेटना शुरू होता है वह यात्रा के हर पड़ाव पर कई परतों से ढँक चुका होता है। घर, घर के सदस्य, मोहल्ला, मोहल्ला के साथी, पाठशाला, पाठशाला के साथी, शिक्षक, संस्कारों की बंदिशें, मूल्यों की कथडियों, संस्था और संस्थाओं के रूढ़-रुग्ण नियमों से “मैं” घबरा कर समर्पण कर देता है। यह समर्पण स्थापित व्यवस्था के समक्ष होता है, देव या सर्वोच्च दैविक सत्ता के समक्ष नहीं। “मैं” का   दैविक सत्ता के समक्ष समर्पण अंतिम परिणति है। वह समर्पण मृत्यु के पूर्व चिंतन विधि से नियति के समक्ष जागृत अवस्था में होता है या मृत्यु देव के शिकंजे में लाचार स्थिति में होता है। यही मुख्य भेद है।

“मैं” मौलिकता खो देता है। उसकी जगह नया सृजित “मैं” सिंहासन पर क़ाबिज़ हो चुकता है। जिसे धन, यौवन, यश, मोह की रस्सियों से कस दिया जाता है। “मैं” जब कभी मौलिकता की ओर लौटना चाहता है तो उसे संस्कारों की दुहाई से बरबस खींच कर सृजित “मैं” की खोल में पुनः लाकर लपेट दिया जाता है।

आध्यात्मिक इतिहास को देखें तो पाते हैं कि “मैं” को छापों से मुक्त करके ही प्रज्ञा जन्मी है। कृष्ण गीता में अर्जुन के मस्तिष्क पर से उसके “मैं” की छापों से मुक्त करके एक स्वतंत्र अस्तित्व से परिचय करवाते हैं। जहाँ मोहग्रस्तता से मुक्त आत्मा निष्काम कर्म को प्रेरित होती है।

भगवत गीता में, “मैं” याने आत्मा की खोज याने आत्मचिंतन द्वारा आत्मबोध की पहली सीढ़ी पर चढ़ने का हवाला मिलता है। गीता कहती है “मैं” याने आत्मा देह से विलग एक स्वतंत्र अस्तित्व है। देह प्रकृति से उत्पन्न है उसमें परमात्मा का तत्व आत्मा रूप में स्थित है, जब तक आत्मा देह में है, देह सत्य है, शिव है, सुंदर है परंतु आत्मा के निकलते ही देह शव हो जाती है। जिसे अविलम्ब पंचतत्वों में विलीन करके प्रकृति को वापस करना होता है।

गीता बताती है कि आत्म तत्व को देह से अलग करने की अनुभूति ध्यनापूर्वक चिंतन से प्राप्त की जा सकती है। ग्रंथ कहता है कि “मैं” और देह के बीच इंद्रियों की सत्ता है। जब मैं भोग करूँ तब यह भाव मन में रहे कि “मैं कुछ नहीं कर रहा, इंद्रियाँ इंद्रियों में बरत रहीं हैं।” यदि जलेबी खा रहा हूँ तो यह कहना होगा कि रसना रस ले रही है, आत्मा को रस से कोई मतलब नहीं है। इस सोच से इंद्रियों से मोह छूटना आरम्भ होता है। यहीं से आत्मतत्व को देह तत्व से विलग करने की यात्रा आरम्भ की जा सकती है। इस यात्रा को ध्यान पद्धति से निरंतर करके आत्मबोध की तरफ़ बढ़ा जा सकता है। जैसे-जैसे आत्मबोध अनुभूति पक्की होने लगती है वैसे-वैसे जन्म-मृत्यु का बोध लुप्त होने लगता है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #59 – शोरगुल किसलिये ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #59 – शोरगुल किसलिये ☆ श्री आशीष कुमार

मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’

हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के विदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है। हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी?

वह चाहती थी कि हाथी स्वीकार करे, तू भी है,,,,, तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछना चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले नहीं जी सकता,,,,,,, दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है।

इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें और हमारी उपेक्षा न हो।

सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें,,,,,,, धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,,,,, दूसरे देखें और स्वीकार करें कि हम कुछ विशिष्ट हैं, ना कि साधारण।

हम मिट्टी से ही बने हैं और फिर मिट्टी में मिल जाएंगे,,,,,,,,

हम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हैं,,, वरना तो हम बस एक मिट्टी के पुतले हैं और कुछ नहीं।

अहंकार सदा इस तलाश में रहता है कि वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

याद रखना चाहिए आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए हमे झूठा अहंकार त्याग कर,,, जब तक जीवन है सदभावना पूर्वक जीना चाहिए और सब का सम्मान करना चाहिए,,,, क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 73 – मंद वारा सुटला होता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 73 – मंद वारा सुटला होता ☆

 

मंद वारा सुटला होता, गंध फुलांचा दाटला होता।

आज तुझ्या आठवांनी कंठ मात्र दाटला होता।।धृ।।

 

हिरव्या गार वनराईला चमचमणारा  ताज  होता।

मखमली या कुरणांवरती मोतीयांचा साज होता।

चिमुकल्यां चोंचीत माझ्या,तुझ्या चोंचिचा आभास होता।।१।।

 

पहाटेलाच जागवत  होतीस , झेप आकाशी घेत होतीस ।

अमृताचे कण चोचीत ,आनंदाने भरवत होतीस।

आमच्या चिमण्या डोळ्यांत ,स्वप्न  फुलोरा फुलत होता ।।२।।

 

आनंद अपार होता, खोपा स्वर्ग बनला होता।

विधाताही लपून  छपून , कौतुक सारे पाहात होता।

आज कसा काळाने वेध तुझा घेतला होता।।३।।

 

आता बाबा पहाटेला ऊठून काम सारं करत असतो।

लाडे लाडे बोलत असतो गाली गोड हसत असतो।

आज त्याच्या डोळ्यांचा कडं मात्र ओला होता।।४।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 100 ☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 100 ☆

☆ ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ ☆

ग़लत सोच : ग़लत अंदाज़ इंसान को हर रिश्ते से  गुमराह कर देता है। इसलिए सबको साथ रखो; स्वार्थ को नहीं, क्योंकि आपके विचारों से अधिक कोई भी आपको कष्ट नहीं पहुंचा सकता– यह कथन कोटिशः सत्य है। मानव की सोच ही शत्रुता व मित्रता का मापदंड है। ग़लत सोच के कारण आप पूरे जहान को स्वयं से दूर कर सकते हैं; जिसके परिणाम-स्वरूप आपके अपने भी आपसे आंखें चुराने लग जाते हैं और आपको अपनी ज़िंदगी से बेदखल कर देते हैं। यदि आपकी सोच सकारात्मक है, तो आप सबकी आंखों के तारे हो जाते हैं। सब आपसे स्नेह रखते हैं।

ग़लत सोच के साथ-साथ ग़लत अंदाज़ भी बहुत खतरनाक होता है। इसीलिए गुलज़ार ने कहा है कि लफ़्ज़ों के भी ज़ायके होते हैं और इंसान को लफ़्ज़ों को परोसने से पहले अवश्य चख लेना चाहिए। महात्मा बुद्ध की सोच भी यही दर्शाती है कि जिस व्यवहार की अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं, वैसा व्यवहार आपको उनके साथ भी करना चाहिए, क्योंकि जो भी आप करते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म कीजिए ताकि आपको उसका अच्छा फल प्राप्त हो।

मानव स्वयं ही अपना सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि जैसी उसकी सोच व विचारधारा होती है, वैसी ही उसे संपूर्ण सृष्टि भासती है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपनी संगति से पहचाना  जाता है। उसे संसार के लोग इतना कष्ट नहीं पहुंचा सकते; जितनी वह स्वयं की हानि कर सकते हैं। सो! मानव को स्वार्थ का त्याग करना कारग़र है। इसके लिए उसे अपनी मैं अथवा अहं का त्याग करना होगा। अहं मानव को आत्मकेंद्रिता के व्यूह में जकड़ लेता है और वह अपने घर-परिवार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सोच पाता। सो! मानव को सदैव ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की कामना करनी चाहिए, क्योंकि हम भारतीय ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में विश्वास रखते हैं, जो सकारात्मक सोच का प्रतिफलन है।

सुख व्यक्ति के साहस की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और सुख और दु:ख दोनों की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने वाला व्यक्ति ही सफल होता है। मानव को सुख दु:ख में सदैव सम रहना चाहिए, क्योंकि सुख में व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है और अपने समान किसी को नहीं समझता। दु:ख में व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा होती है। परंतु  दु:ख में वह टूट जाता है; पथ-विचलित हो जाता है। उस स्थिति में चिंता व तनाव उसे घेर लेते हैं और वह अवसाद की स्थिति में पहुंच जाता है। सुख दु:ख का चोली दामन का साथ है; दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक की उपस्थिति होने पर दूसरा दस्तक नहीं देता और उसके जाने के पश्चात् ही वह आता है। सृष्टि का क्रम आना और जाना है। मानव संसार में जन्म लेता है और कुछ समय पश्चात् उसे अलविदा कह चला जाता है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है।

परमात्मा हमारा भाग्य नहीं लिखता। हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म ही हमारा भाग्य निश्चित करते हैं। जैसी हमारी सोच होगी, वैसे हमारे विचार होंगे और कर्म भी यथानुकूल होंगे। हमें किसी के प्रति ग़लत विचारधारा नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि वह हमारे अंतर्मन में शत्रुता का भाव जाग्रत करती है और दूसरे लोग भी हमारे निकट आना तक पसंद नहीं करते। इस स्थिति में सब स्वप्न व संबंध मर जाते हैं। इसलिए मानव को ग़लत सोच कभी नहीं रखनी चाहिए और बोलने से पहले सदैव सोचना चाहिए, क्योंकि हमारे बोलने के अंदाज से शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। इसलिए रहीम जी का यह दोहा मानव को मधुर वाणी में बोलने की सीख देता है– ‘रहिमन वाणी ऐसी बोलिए, मनवा शीतल होय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल होय।’ इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य का उल्लेख करना चाहूंगी कि मानव को तभी बोलना चाहिए जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों अर्थात् यथासमय, अवसरानुकूल सार्थक शब्दों का ही प्रयोग करना सबसे कारग़र है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 52 ☆ पर्व एवं आस्था ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “पर्व एवं आस्था”.)

☆ किसलय की कलम से # 52 ☆

☆ पर्व एवं आस्था ☆

हिन्दु धर्मावलंबी धार्मिक कृत्य करने के समय या दिन को पर्व कहते हैं। लोग बड़ी आस्था, श्रद्धा व पवित्रता से धर्म के निर्देशानुसार अलग-अलग पर्वों पर उपवास, पूजन-हवन, प्रार्थनाएँ, आरती करते हैं, जिससे आनन्दमयी वातावरण निर्मित हो जाता है। शायद ही विश्व में कोई ऐसा धर्म होगा जिसमें इतने बहुसंख्य पर्व मनाए जाते होंगे। आप हिन्दी पञ्चाङ्ग खोल कर देखेंगे तो हर तिथि पर कोई न कोई पर्व दिखाई पड़ ही जाएगा। आप भी पढ़ लीजिए-  प्रथम तिथि पर बैठकी, धुरेड़ी, अन्नकूट पर्व आते हैं। भाईदूज, अक्षय तृतीया, हरतालिका, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, बसंत पंचमी, रंग पंचमी, नाग पंचमी, हलषष्ठी, छठ पूजा, संतान सप्तमी, दुर्गाष्टमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, दशहरा, प्रत्येक माह की एकादशी व द्वादशी (प्रदोष व्रत), धनतेरस, अनंत चतुर्दशी, नरक चौदस, प्रत्येक माह की अमावस्या एवं पूर्णिमा। इस तरह मास में दोनों पक्षों के पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में प्रत्येक दिन कोई न कोई पर्व रहता ही है। आशय यह है कि हिन्दुधर्म में प्रत्येक दिन धर्मप्रधान होता है। सभी हिन्दुओं का कर्तव्य है कि वे आस्था और पवित्र मन से दिन की शुरुआत करें और रात्रि में शयन पूर्व प्रभु का नाम लेते हुए उनके प्रति आभार प्रकट करें।

ये तो धर्मोक्त की बातें हुईं। आज इक्कीसवीं सदी में ऐसे कितने प्रतिशत लोग बचे होंगे जो नियमित रूप से धर्मानुसार दिनचर्या अपना रहे होंगे। आज जब अर्थ और स्वार्थ का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। निंदा, झूठ, छल, द्वेष आदि को स्वहित में जायज माना जाता है, तब सत्य, आदर्श, प्रेम, परोपकार, सद्भाव, रिश्ते जैसे शब्दों के अर्थ भी बदले-बदले लगने लगे हैं।

हमारे पारंपरिक पर्वों के आदर्श तार-तार हो चुके हैं। हर पर्व को लोग अवसर मानकर अपनी अपनी रोटी सेंकने में लग जाते हैं, जबकि हमारे पर्वों के पीछे कोई न कोई महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होते ही हैं। स्वास्थ्य एवं सामाजिक गतिविधियों की सार्थकता से जुड़े ये पर्व हमें परस्पर एक सूत्र में पिरोने का काम करते हैं। पावन, निश्छल एवं सद्भावना पूर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, लेकिन जब हम पर्वों को ही महत्त्व नहीं देंगे तो बाकी अन्य सभी बातें गौण हो ही जायेंगी।

आज पर्व का मतलब घर में पकवान बनना होता है। उपवास के नाम पर भरपेट फलाहार करना होता है। हर पर्व पर समाज के लोगों द्वारा इनसे कमाई का, स्वार्थ का, मनोरंजन का, व्यसन का, फूहड़ता का, और तो और अश्लीलता का तरीका ढूँढ़ लिया जाता है। पर्वों में लगने वाली हर सामग्री आम दिनों की अपेक्षा लगभग दुगनी महँगी हो जाती है। खरीदने की अनिवार्यता के चलते व्यापारी वर्ग घटिया वस्तुएँ तथा बासे खाद्य पदार्थ तक बेच डालता है। पर्वों पर हर सेवाएँ भी जाने क्यों महँगी हो जाती हैं। लोग मुनाफे के कोई भी अवसर नहीं छोड़ते। पता नहीं इन लोगों की आस्था पर पत्थर पड़ जाते हैं।

आजकल पर्वों पर भोंड़े नृत्य-गीत-संगीत अथवा द्विअर्थी गानों की धूम मच जाती है। भीड़ की आड़ में लोग अश्लीलता की पराकाष्ठा पार कर जाते हैं। सौन्दर्य-दर्शन जहाँ कुछ पुरुषों के शगल बन जाते हैं, वहीं कुछ युवतियाँ भी सौन्दर्य, आकर्षक एवं लुभावनी दिखने हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं। छेड़छाड़, वाद-विवाद एवं स्तरहीन टिप्पणियों के चलते मजनूँ प्रकृति के लोग ही दोषी करार दिए जाते हैं। उनकी अधैर्यता का खामियाजा उन्हें पुलिस के सानिध्य में भुगतना पड़ता है।

पर्वों पर आस्था उस वक्त और भी किसी कोने में छिप जाती है, जब जोश का अतिरेक होने लगता है। इतर धर्म तथा हिन्दु धर्म की ईर्ष्या-निन्दा पर विवाद बढ़ते हैं। धर्म की आड़ में प्रतिशोध लिए जाते हैं। कट्टरवादिता के चलते मानवता को रौंद दिया जाता है। इन्हीं पर्वों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकना भी कोई नई बात नहीं है। छुटभैये अपने नेता के दबदबे का भरपूर फायदा उठाते हैं।

आज कल पर्व के कुछ दिन पूर्व से कुछ दिनों पश्चात तक बड़े, भव्य, विशाल पंडालों में प्रायोजित तथाकथित धार्मिक आयोजन किए जाते हैं, जिनमें आस्था कम पुरुषों और महिलाओं के परस्पर आकर्षण और सौंदर्य दर्शन की ही प्रधानता होती है। पर्वों के अवसर पर घर से बाहर निकलने वाले कुछ युवक एवं युवतियों का भी यही उद्देश्य रहता है। यहीं पर धर्म और आस्था के तले प्रेम प्रसंग पनपते हैं जिनमें से कुछ वैवाहिक स्थिति तक भी पहुँच जाते हैं। यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन प्रेम में धोखा, जबरदस्ती की  घटनाओं के स्रोत क्या है? इन पर अभिभावकों के साथ-साथ स्वयं युवापीढ़ी का भी सावधान रहना अत्यावश्यक है।

वैसे तो अधिकांश पर्व धर्म पर आधारित होते हैं, लेकिन कुछ व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व प्राकृतिक हित को भी ध्यान में रखकर मनाए जाते हैं, जो सद्भावना, सर्वकल्याण सुख-शांति, स्वच्छता स्वास्थ्य आदि के लिहाज से भी उपयोगी होते हैं। हमारे सभी पर्वों में अकेले मानव ही नहीं पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, नदियों-जलस्रोतों, सूर्य,चंद्र, ग्रह, नक्षत्रों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है।

पर्वों के पावन, रम्य, सुखद वातावरण हमारे बच्चों में अच्छे संस्कारों के बीजारोपण में मददगार साबित होते हैं। मौसमी और अनूठे पकवान नए वस्त्र, घरों की स्वच्छता तथा सौंदर्यीकरण धार्मिक वातावरण  के साथ ही सबकी सहभागिता निश्चित रूप से सकारात्मकता बढ़ाती है। सबके दिलों में नवीन ऊर्जा और सात्विक विचारधारा का जन्म होता है। इन पर्वों के शुभ-अवसरों पर इतर धर्मावलंबियों को भी हमारे पर्व व धार्मिक कृत्यों को नजदीक से देखने-समझने का अवसर मिलता है, जिससे आपस में सद्भावना बढ़ती है। हम भी आगे बढ़कर उनका अभिनंदन करते हैं, क्योंकि हमारा वेदोक्त ही ‘वसुदेव कुटुंबकम’ है।

अंत में बस यही रह जाता है कि यदि हमें अपनी संस्कृति और धर्म को अक्षुण्ण बनाये रखना है, इसकी गरिमा बनाए रखना है तो पर्वों को अवसरवादिता की घटिया भावनाओं से ऊपर उठकर शत-प्रतिशत आस्था के साथ मनाना होगा। हम अपने पर्वों को आस्था पूर्वक पवित्र मन से मनाएँगे तो निश्चित रूप से हमारी भावी पीढ़ी पर्वों का वास्तविक उद्देश्य समझ पाएगी, अन्यथा भूमंडलीकरण एवं आधुनिकता की होड़ में हमारे धर्म और हमारी आस्था का क्या होगा? आप स्वयं समझ सकते हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 99 ☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 99 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष ☆

हाथ पांव धोकर सभी, बैठे पुरखे द्वार।

स्वागत उनका कर रहा, अपना ही परिवार।।

 

पितरों का तर्पण करें, श्राद्ध पक्ष में आज।

पुरखों के आशीष से, बनते बिगड़े काज।।

 

दूर गए हमसे सभी, दिल के है वे पास।

विदा हुए संसार से, हैं वे सबके खास।।

 

करकशता है काग की, बनी यही पहचान।

फिर भी मिलता है उसे, श्राद्धपक्ष सम्मान।।

 

कांव कांव वो कर रहा, बैठ मुंडेर काग।

लेने आया भाग से, पितरों का वह भाग।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 88 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 88 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(प्राणायाम, चकोरी, हरियाली, हिलकोर, प्रसून)

नमस्कार कर सूर्य का, करिए प्राणायाम

नित होगा जब योग तब, तन-मन में आराम

 

प्रेम चकोरी-सा करें, जैसे चाँद-चकोर

इक टक ही वो ताकती, किये बिना ही शोर

 

रितु पावस मन भावनी, बढ़ती जिसमें प्रीत

सब के मन को मोहते, हरियाली के गीत

 

जब भी देखा श्याम ने, राधा भाव विभोर

प्रेम बरसता नयन से, राधा मन हिलकोर

 

देख प्रेयसी सामने, मन में खिले प्रसून

जब आँखे दो-चार हों, खुशियां होतीं दून

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 90 – हरवलेले प्रेम जेव्हा .. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 90 – विजय साहित्य ?

☆ ✒ हरवलेले प्रेम जेव्हा .. . . ! ✒  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

हरवलेले प्रेम जेव्हा

तुला मला हसू  लागते

तुझ्या माझ्या काळजाला

पुन्हा चूक डसू लागते. . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

नवी वाट चालू लागते.

जुन जुन प्रेम देखील

नव नवं रूसू लागते. . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

एकट एकट राहू लागते

तुला मला  एकदा तरी

वाट त्याची दिसू लागते. . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

आठवणींचे मेघ होते

ओठांमधले नकार  सारे

शब्दांमध्ये फसू लागते. . . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

तुझी माझी झोप पळवते

नकळत आपल्या डोळ्यात

नवे स्वप्न वसू लागते. . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

तुला मला शोधू लागते.

काळीजदारी उंबरठ्यावर

वाट बघत बसू लागते.

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

वळवाची सर होते

जपून ठेवलेले वादळवारे

पाऊस होऊन  बरसू लागते. . . . !

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! – पोपट ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? पोपट ! ??

सूर्य मावळतीकडे कलला होता. आता अंधार पडायला सुरवात झाली होती.

सगळीकडे शांतता… आजूबाजूला कोणतेही आवाज ऐकू येत नव्हते. वाटेवर पावसाचं पाणी साचल्यामुळे चालताना पायाचा ‘पचक पचक’ असा आवाज तेवढा येत होता….

गण्याला आज घरी जायला जास्तच उशीर झाला होता, त्यात हा पाऊस. पण रस्ता पायखलाचा होता म्हणून ठीक, पण या पावसामुळे आधीच गावच्या रस्त्याला असलेले मिणमिणते दिवे गुल झाले होते. अजून घर येण्यासाठी त्याला भरपूर रस्ता कापायचा होता. आता चांगलाच अंधार पडला होता आणि अमावस्या असल्यामुळे तो जास्तच गडद आणि भीतीदायक वाटत होता. त्यातल्या त्यात त्या अंधारात त्याला हातातल्या मोबाईल मधल्या विजेरीचा काय तो आधार वाटत होता !

तसा गण्या धीट गडी, पण या अमावस्येच्या किर्र रात्री त्याला नको नको ते आवाज येत असल्याचे भास व्हायला लागले. रस्त्यातले ते नेहमीचे पिंपळाच्या पाराचे वळण आले. गण्या मनांत खरंच घाबरला आणि मोठ मोठ्या आवाजात रामरक्षा म्हणू लागला. त्यात बहुतेक मोबाईलची बॅटरी डाउन झाल्यामुळे मोबाईलची विजेरी पण फडफडायला लागली आणि पाराचे वळण येण्या आधीच तिने अखेरचा श्वास घेतला व गण्याच्या डोळयांपुढे काळोख पसरला. तेवढ्यात पारा खालून त्याला कोणीतरी हसल्याचा आवाज आला. तो आवाज ऐकताच मागे वळून न बघता गण्या घराकडे तिरासारखा धावत सुटला. तो थोडा धावला असेल नसेल तोच पुन्हा एकदा त्या हसण्याचा आवाज त्याच्या कानी पडला, त्या बरोबर गण्या अंगातली होती नव्हती ती शक्ती एकवटून पुन्हा घराच्या दिशेने जोरात धावत सुटला. थोडं पुढे आल्यावर गण्या धीर एकवटून रस्त्यात थांबला व त्या आवाजाचा कानोसा घ्यायचा त्याने पुन्हा प्रयत्न केला. पण आता तो आवाज काही त्याच्या कानी पडला नाही. आता घर पण टप्प्यात आलं होतं त्यामुळे त्याच्या जीवात जीव आला.

घरी आल्या आल्या काहीच न बोलता हात पाय धुवून तो जेवायला बसला. जेवताना पण गप्प गप्प ! शेवटी बायकोने न राहून विचारलंच “आज जेवणात काही कमी जास्त झालंय का?” “नाही” “मग आज एकदम गप्प गप्प, कुणाशी भांडण वगैरे?” बायकोला त्या आवाजबद्दल सांगावे का नाही या विचारात त्याच्या तोंडून “काही नाही गं, थोडी कणकण वाटत्ये, म्हणून…” “अगं बाई, मग असं करा जेवण करून, मी काढा करते तो प्या आणि झोपा बघू, म्हणजे तुम्हाला बरं वाटेल.” “बरं” इतकंच म्हणून गण्यान जेवण आटोपत घेतलं आणि तो पलंगावर आडवा झाला. पण निद्रादेवी काही प्रसन्न व्हायचं लक्षण दिसेना. त्यात पुन्हा त्याच्या कानात तो मगाचा हसण्याचा आवाज येत राहिला. कोण हसत असेल? त्या पारावर भूत खेत असल्याच्या वावड्या त्याने लहानपणा पासून ऐकल्या होत्या. त्यात आजची अमावस्येची रात्र, विचार कर करून त्याच्या डोक्याचा भुगा झाला.  तेवढ्यात बायको काढा घेऊन आली. गाण्याने निमूटपणे काढा घेतला आणि डोक्यावर परत पांघरूण घेऊन निद्रादेवीची आराधना करू लागला. पण तो हसण्याचा आवाज काही त्याची पाठ सोडत नव्हता. विचार कर करून शेवटी त्याचा मेंदू थकला आणि पहाटे पहाटे कधीतरी त्याचा डोळा लागला.

सकाळी गण्या नेहमी प्रमाणे आवरून शाळेला निघाला. आज पावसाचा मागमूस नव्हता, लख्ख ऊन पडले होते. पण कालचा हसण्याचा आवाज काही त्याच्या मनातून जात नव्हता. रस्त्यातला नेहमीचा पिंपळाचा पार आला आणि आज शाळेचा रस्ता बदलावा का, या विचारात असतांनाच त्याचे लक्ष पाराकडे गेले. पारा जवळ म्हादू काहीतरी शोधत असल्याचे त्याला दिसले. गण्याने पुढे होतं “म्हादबा सकाळी सकाळी काय शोधताय पारा जवळ?” “नमस्कार मास्तर. काल पासून मोबाईल हरवला आहे माझा.” “अहो मग घरी शोधा ना, इथे पाराजवळ कशाला….” “मास्तर, काल रात्री घरी मुलाच्या मोबाईल वरून कॉल करून बघितला, बेल वाजत्ये पण घरात कुठेच नाही मिळाला.” “पण मग तो पारा जवळ शोधायच कारण काय?” “मास्तर, आता वय झालं, काल आम्ही मित्र मंडळी इथंच पारावर गप्पा मारत होतो, तेवढ्यात पाऊस यायला लागला. माझ्याकडे छत्री नव्हती” “मग?” “मग मी माझा मोबाईल इथेच कुठे तरी ठेवला, पण तो नक्की कुठे ठेवला हे आठवत नाही बघा.” “अस्स ! मी काही मदत करू का तुम्हाला मोबाईल शोधायला?” “मास्तर तुमच्याकडे मोबाईल आहे ना?” “हो आहे ना” असं म्हणून गण्याने खिशात हात घालून आपला मोबाईल काढला. “हां, मास्तर आता एक काम करा.” “बोला म्हादबा.” “तुमच्या मोबाईल वरून मला फोन लावा बघू.” गण्याने म्हादबाने सांगितलेल्या नंबर वर फोन लावला आणि पिंपळाच्या झाडाच्या ढोलीतून कुणीतरी कालच्या सारखं हसल्याचा आवाज गण्याला आला ! त्या बरोबर “मिळाला, मिळाला” असं आनंदाने ओरडत म्हादबा त्या ढोली जवळ गेला आणि त्याने आतून आपला मोबाईल काढून गण्याला दाखवला, जो अजून जोर जोरात काल रात्री सारखं हसतच होता ! आणि ते हसणं ऐकून गण्या पण कधी हसायला लागला ते त्याच त्यालाच कळलं नाही !

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 73 ☆ प्यार ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा प्यार । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 73 ☆

☆ लघुकथा – प्यार ☆

रविवार का दिन। घर में छुट्टी के दिन सबके काम इत्मीनान से होते हैं। बच्चे तो दस बजे तक सोकर उठते हैं। रिया जल्दी से नहाने चली गई, छुट्टी के दिन सिर ना धो तो फिर पूरे हफ्ते समय ही नहीं मिलता। ऑफिस से लौटते हुए शाम के सात बज जाते हैं। उसने नहाकर पूजा की और रसोई में जाकर नाश्ता बनाने लगी। रविवार को नाश्ता में कुछ खास चाहिए सबको। आज नाश्ते में इडली बना रही है। नाश्ते में ही ग्यारह बज गए। उसने बच्चों को आवाज लगाई खाने की मेज साफ करने को। तभी पति की आवाज सुनाई दी – रिया! मेरी पैंट शर्ट भी वाशिंग मशीन में डाल देना। झुंझला गई – अपने गंदे कपडे भी धोने को नहीं डालते, बच्चे तो बच्चे ही हैं, ये और —

अरे, बारह बज गए, जल्दी से खाने की तैयारी में लग गई। दाल, चावल,सब्जी बनाते – बनाते दो बजने को आए। गरम  फुलके खिलाने लगी सबको। तीन बजे उसे खाना नसीब हुआ। रसोई समेटकर कमर सीधी करने को लेटी ही थी कि बारिश शुरू हो गई। अरे, मशीन से निकालकर कपडे  बाहर डाल दिए थे , जब तक बच्चों को आवाज लगाएगी कपडे गीले हो जाएंगे, खुद ही भागी। सूखे कपडे तह करके सबकी अल्मारियों में रख दिए, जो थोडे गीले  थे कमरे में सुखा दिए। शाम को फिर वही क्रम रात का खाना, रसोई की सफाई— ।

छुट्टी के दिन के लिए कई काम सोचकर रखती है पर रोजमर्रा के काम में ही रविवार निकल जाता है। छुट्टीवाले दिन कुछ ज्यादा ही थक जाती है। छुट्टी का तो  इंतजार ही अच्छा होता है बस। आँखें बोझिल हो रही थीं। बिस्तर पर लेटी ही थी कि पति ने धीरे से कंधे पर हाथ रखकर कहा – आज सारा दिन मैं घर पर था पर तुम दो मिनट आकर बैठी नहीं मेरे पास, पता नहीं क्या करती रहीं सारा दिन?  प्यार करती हो ना मुझसे? वह जैसे नींद में ही बोली — प्यार? उसके होठों पर मुस्कुराहट आई, पर कुछ बोले बिना ही वह गहरी नींद में सो गई।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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