हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत ☆ सुश्री नीलम भटनागर 

सुश्री नीलम भटनागर 

 ☆ पुस्तक चर्चा ☆ कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत ☆ सुश्री नीलम भटनागर ☆ 

कृष्ण काव्य पीयूष — शब्द अमृत 

कृष्ण अमृत में पगी श्याम रंग में रंगी बड़ी देर सो ही रही अब पुनः पढ़कर जगी कुछ समय से ऐसा लगने लगा था कि अब तो भक्ति बस ऊपरी दिखावे की बात हो गई है मंदिरों में टीवी पर या कुछ त्योहारों पर । लेकिन चि विवेक रंजन ने कृष्ण काव्य पीयूष भेजी व समीक्षा करने का आग्रह किया । पढ़ा तो लगा कि  ऐसे ही नहीं कहा गया है कि हमारा धर्म सनातन है । 

 मन जब सोचेगा की इति हुई तभी पुनः आरंभ होता दिखेगा।

 एक नजर में ही लगा 

सच में यह रस की  गागर है या यह भक्ति का सागर है 

कैसे कुछ लिखूं इस पर यह खुद ही तो नट नागर है 

न जाने  क्यों अवचेतन में यह सोच बन गई थी  कि विदेशों में तो प्रवासी भारतीय केवल मौज मजे में डूबे रहते हैं , नित नई पार्टियां या भौतिक आनंद ही उनका लक्ष्य होता है ।

पर इस पुस्तक के दर्शन मात्र से यह भ्रम टूट गया । सच ही बिहारी ने यूं ही नही कहा है –

ज्यों ज्यों  डूबे श्याम रंग 

त्यों त्यों उज्जवल होए

पुस्तक खोलते ही अपनी आदत के अनुसार अनुक्रमणिका पर प्रथम दृष्टि गई सारी दुनिया से भक्ति रस में आकंठ डूबे प्रवासी भारतीय रचनाओं के माध्यम से संकलित हैं। 

कनाडा की पूनम चंद्रा  जी ने ” गिरधर ” में लिखा है 

श्याम सलोने हो गए

 स्वर्ण जैसी किरणों ने 

 श्याम को छुआ 

यह मनमोहक दृश्य सिर्फ मेरे लिए है 

सिर्फ मेरे लिए 

तो पूनम जी हर का कृष्ण उसके लिए ही है और आपने यह सब को याद दिला दिया ।

क्योंकि मन श्याम रंग में डूब कर निकलता है तो उज्जवल होकर निकलता है यह विचित्र सत्य है।  बगल के पृष्ठ पर मनु जी की ब्रज में फाग की पंक्तियां हैं 

नभ धरा दामिनी नर-नारी रास रंग राग

 भाव विभोर हो सब कृष्ण संग खेले फाग 

पढ़कर कभी किसी होली पर लिखी  अपनी ही पंक्तियां याद आ गई 

ऐसी होली मची है ब्रज बरसाने बीच

 रंग और अबीर की मची हुई है कीच

 राधा रंग गई ललिता रंग गई 

रंगे ग्वाल बाल

बावला है मन खेलता यहीं से उनके संग 

कौन कौन सी रचना पढ़ें , जिसे पढ़ो उसी में मन डूबता ही जाता है ।  सारे संग्रह को का भाव पक्ष इतना प्रबल है कि पढ़कर वर्णन करना वैसा ही है जैसे प्रभु के विराट स्वरूप का वर्णन करना । 

अचानक सुशील शर्मा कि धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र पर दृष्टि गई और लगा कि गीता का कितना सुंदर भाव अनुवाद है 

ओम हूं मैं व्योम हूं मैं भूत भवन परमात्मा 

स्वर्ग हूं मैं अपवर्ग हूं मैं हिरन गर्भ आत्मा 

प्रतिभा पुरोहित अहमदाबाद की जीवन का सार पढ़ी,  लगा कि इतने अगम्य कृष्ण को इतना सरल कर लिखा है इन्होंने 

कान्हा ने छेड़ी जब बांसुरी की तान 

वृंदावन में छिड़ गया मधुर रागों का गान 

यही तो है हमारे कान्हा सरल से सरल तम और कठिन से अगम्य ।  रसखान के कान्हा गोपियों से छछिया भर छाछ लेकर नाचते हैं , सूर की मन की आंखों से मन में प्रवेश कर बैठते हैं । भक्ति काल के अनेक अनेक कवियों से ऊपर उठना ही होगा मुझे ,  आखिर कृष्ण काव्य  पीयूष का आस्वाद लेना है । 

 श्री कृष्ण के कर्म योगी रूप पर सदा से ही दुनियां और भारतीय प्रेरित होते रहे हैं ।

उसे ही श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी ने कुछ ही पंक्तियों में इतना अच्छा वर्णन किया है कि प्रत्येक शब्द का अर्थ समझते मन खो जाता है । वे लिखते हैं 

 तुम से अनुप्राणित राजनीति

 तुम से विकसित अध्यात्म ज्ञान

 तुम ज्ञाता पथ दर्शक शिक्षक 

कर्मठ योगी अतिभासमान 

बालक किशोर नवयुवक प्रौढ़ 

और वृद्ध सभी के परम मित्र

शिशु बाल गोपाल तरुण सारथी

तुम्हारे विविध चित्र 

भारत जन मन सम्राट सुखद 

भगवान पूज्य हे सत्य काम 

तुम जल थल कण-कण में विद्यमान

हे देव तुम्हें शत शत प्रणाम

मेरा भी प्रणाम स्वीकार हो प्रभु,  क्योंकि मुझे खुद से तुम्हारा यह रूप अत्यंत आकर्षित करता है । प्रत्येक कवि की रचना में मन डूबा जाता है ।गहरे और गहरे पढ़ने का मन होता है । सचमुच का विशेष अमृत है, यह किताब ।

को बड़ छोटू कहत अपराधू ,   रस में सराबोर हो जाइए ।

दृष्टि गई श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव की रचना कृष्ण ही ब्रह्म है पर । विद्गध जी के पुत्र श्री विवेक रंजन भी बहुमुखी रचनाकार हैं । मुझे पिता-पुत्र एक दूसरे के पूरक लगते हैं । प्रभु सबको ऐसा ही पुत्र दे । 

पढ़िए उनकी रचना 

कृष्ण हैं काफ़ीया कृष्ण ही रदीफ़ 

कृष्ण से नज्म है कृष्ण ही वज्म है

 कृष्ण हैं हर किताब हर्फ-हर कृष्ण है 

कृष्ण है शाश्वत कृष्ण अंत हीन है

कृष्ण ही हैं प्रकृति कृष्ण संसार हैं

राहगीर हैं हम कृष्ण की राह के

तीन पंक्तियों वाले यह छन्द रोचक है 

एक रचनाकार जो अपने उपनाम के कारण अनुक्रम में ही आकर्षित कर बैठी का जिक्र जरूरी लगता है । शीतल जैन  अहमक लड़की , सिंगापुर में बैठकर वे इस तरह कृष्ण प्रेम में डूबी हुई है कि 

कान्हा  जिस पल हम दोनों 

एक साथ एक दूसरे के ख्याल में होते हैं 

तब मैं तुम से भी ऊपर होती हूं 

तब मैं रचती हूं तुमसे 

बसती हूं तुम में 

लीन हो जाती हूं तुम में ही 

तुम्हारे ख्याल मुझसे  मिलकर

मुझे मीरा कर देते हैं 

और मुझे मीरा होना पसंद है 

अहमक लड़की तुम सचमुच मीरा ही हो

 मुझे लगता है काश कभी तुम से मिल पाती ।

पढें तो पूरी पुस्तक , पर इस प्रेम दीवानी को अवश्य आत्मसात करें । मेरी कल्पना में अचानक तुम आ जाती हो,  रहो तुम सिंगापुर में मीरा बनकर पाठकों के हृदय में समाई रहो ।

लिखना तो हर कविता पर चाहती हूँ । इतने कृष्ण प्रेम को देखकर मेरी हालत रथ पर बैठे अर्जुन जैसी हो रही है , कमजोर , कांपते हुए ।उनके पास ज्ञान था हमारे पास प्रेम है। श्री कृष्ण का प्रेम हर युग में दीवाना कर देने वाला है।  कृष्ण काव्य पीयूष की  सारी रचनाए पढ़िए । कविताअमृत रस में डूब जाइए।

संपादक जी के वक्तव्य में एक बात बड़ी गहरी लगी तो मुझे भी लिखनी है ।  कि जिनकी रचनाएं शामिल नहीं कर पाए उनसे वह क्षमा प्रार्थी हैं । मैं भी जिनकी रचनाओं पर टीप नही कर सकी उनसे  क्षमा प्रार्थी हूं । 

सभी पाठकों से की ओर से भगवान कृष्ण से यह प्रार्थना करती हूं । 

मेरी भव बाधा हरो 

राधा नागर सोए 

जा तन की झाई पड़े 

श्याम हरित दुति होय

बिहारी ने राधा की कृपा से श्याम जू  को हरे कर दिया और वह ऐसे हरे हुए की पूरे विश्व में हरे कृष्णा, हरे कृष्णा छा गए हैं । 

तो सबको हरे कृष्णा,  श्री कृष्णा ।

© सुश्री नीलम भटनागर

 502 विज्ञान विहार, गुड़गांव 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 6 – हिंदी दिवस विशेष – व्यंग्य – चेतावनी !☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 6 ☆ हेमन्त बावनकर

☆ हिंदी दिवस विशेष – व्यंग्य – चेतावनी ! ☆

 

आइये

हम सब मिलकर

हिंदी का प्रचार-प्रसार करें

 

पर ठहरिये!

शुरुआत  मैं करुंगा

अपने कार्यालय की दीवार पर

अंग्रेजी की चेतावनी

"Use of English is injurious to the health of this office"

हिंदी में लगाकर

 अंग्रेजी का प्रयोग इस कार्यालय के स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद है”

ताकि

मैं  तसल्ली से

‘अंग्रेजी’ 

पढ़ सकूँ,

लिख सकूँ और बोल सकूँ।

 

© हेमन्त बावनकर,

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 95 – लघुकथा – अनंता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है भाई-भाई केसंबंधों पर आधारित एक लघुकथा  “अनंता। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 95 ☆

 ? लघुकथा – अनंता ?

गणपति का पूजन, अर्चन और अनंत रूप के दर्शन कर सभी बहुत प्रसन्न और शांत मन से अपने अपने घरों की ओर बढ़ रहे थे। एक ही अपार्टमेंट में दो भाइयों का घर, पर दोनों अनजान ऐसे रहते थे कि सभी को लगता था कि दोनों अलग-अलग है।

सुधीर इसी ख्याल को लेकर पंडाल में बैठे देख रहा था कि बिना परिवार के भी यहां सभी परिवार जैसा रहते हैं। परंतु मैंने  अपने छोटे भाई अधीर से क्यों दूरी बना लिया है । उधर आगे बढ़ते पैर ठिठक से गए ।  अधीर का बस यही विचार उसके मन में भी आ रहा था। परंतु दोनों जैसे किसी यंत्रचलित मानव की तरह चलते और देखे जा रहे थे।

हल्की- हल्की रोशनी में दोनों ने देखा कि मम्मी – पापा और सुधीर का बेटा वंश भी चलता आ रहा  हैं। जो कई सालों बाद घर आ रहा था। दोनों ने दौड़कर अगवानी की।

वंश (सुधीर के बेटे ने) गणपति बप्पा के हाथों बंधा हुआ अनंत का धागा निकाला और दिखा कर कहने लगा- “चाचा इसका मतलब आप जानते हैं? इसे अनंता धागा कहा जाता है। साल में अनंत चतुर्दशी के दिन अनंत शुभकामनाएं और सभी के लिए बप्पा से सुख, समृद्धि मांगते हैं। क्यों ना आज दादा-दादी से आप दोनों अपने हाथों पर अनंता  बंधवा कर सदा के लिए एक हो जाएं।”

दोनों यही तो चाह रहे थे। वंश बेटे को गले लगा लिया। मम्मी -पापा के चरणों पर सिर नवा भगवान गणेश की कृपा को सजते- संवरते देखने लगे। वंश ने जोर से ‘गणपति बप्पा’ की आवाज लगाई और सभी अपार्टमेंट वाले देखने लगे आज क्या हो रहा है। सुधीर और अधीर तो बड़े खुश और गले मिल रहे हैं। बात तो अनंत खुशियों की थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कैलासाहून पृथ्वीवर गणेशआगमन.. ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ विविधा ☆ कैलासाहून पृथ्वीवर गणेश आगमन.. ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

आज कैलासावर अगदी लगबग चालली होती! गणपती बाप्पा दहा दिवसासाठी पृथ्वीतलावर जाणार होते. त्यातच आज पार्वती चा उपवास! अगदी कडकडीत! बारा वर्षे रुईची पाने चाटून, वनात राहून, तपश्चर्या करून तिने शंकराला प्राप्त करून घेतले होते.

हिमालयाने, तिच्या पित्याने स्वर्गातील उत्तमोत्तम स्थळं सुचवली असतील तिला!पण हा भोळा शंकर तिच्या मनी वसला होता! त्यासाठी  तिने उग्र तपश्चर्या करून शंकराची मर्जी संपादन करून घेतली होती.कैलासावर त्यांचे सुखाचे राज्य चालले होते.

कार्तिकेयाच्या जन्मानंतर सुखावले. दुसऱ्या बाळाची चाहूल लागताच पार्वती आणखीच आनंदली! या बाळाच्या जन्माच्या खूप आख्यायिका आहेत.कोणी म्हणतं, घामाच्या मळापासून गणराया ची निर्मिती झाली. गणरायाला हत्तीचे तोंड कसे मिळाले याची कथा वेगळीच आहे, एकदा पार्वती माता स्नान गृहात होत्या. त्यांनी गणपतीला दारात बसवून ठेवले होते आणि कुणाला हि आत पाठवू नको,  असे त्याला सांगितले होते. अचानक शंकराची स्वारी आली पण गणपती काही त्यांना आत सोडेना! तेव्हा क्रोधाविष्ट झालेल्या शंकराने त्याचे मस्तक उडवले. मग पार्वतीने खूप शोक केला, तेव्हा शंकरांनी तिला गणपतीला पुन्हा त्याचे मुख आणून देतो असे आश्वासन दिले! दुसऱ्या दिवशी जो कोणी शंकराच्या दृष्टीस प्रथम पडेल ते मुख आणायचे ठरले. ठरल्याप्रमाणे सकाळी शंकराची स्वारी बाहेर पडली, तेव्हा त्यांना पहिले दर्शन हत्तीचे झाले. मग काय! शंकरांनी त्याचा वध करून ते मुख घरी आणले आणि गणपतीला बसवले. तेव्हापासून गणपती बाप्पाला हत्तीचे तोंड मिळाले. आणि छातीवर सोंड ठेवणारा, सुपाएवढे कान असणारा असा गणपती बाप्पा आपल्या डोळ्यासमोर उभा राहिला. तोच वक्रतुंड महाकाय असा गणपती बाप्पा आपल्याला पूजनीय झाला.

  या गणपतीला सर्वांच्यात मिसळून राहण्याची फार हौस! कैलासावर कंटाळा आला म्हणून पृथ्वीवर माणसांबरोबर राहायला येतो तो दहा दिवस! पार्वती माता काळजीने सांगते,’ हे भूक लाडू घेऊन जा. लवकर परत ये. तिथेच रमून राहू नकोस. तुझ्या उंदरासाठी सुद्धा मी खाऊ देते!

त्याची काळजी घे. आधीच हरितालिका व्रत करून पार्वतीदेवी थकलेली असते.तरी ती  गणपतीला लाडू करून देते! कार्तिकेयाला ही गणपती जाणार, म्हणून वाईट वाटत असते. तो गणपतीला म्हणतो,’ कसा रे जाणार तू एवढ्याशा उंदरावरून?’ पण गणपती त्याच्या त्या छोट्याशा वाहनावरून जायला सिद्ध झालेला असतो. शंकरबाबा गणपतीला सांगतात,’ तिकडे फार मोदक खात बसू नकोस! लवकर परत ये.’त्या सर्वांना गणपतीला सोडताना फार वाईट वाटत असते.

तर इकडे पृथ्वीवर धूम धडाका चालू असतो, गणरायाच्या आगमनाच्या तयारीचा! आरास, महिरपी, वेगवेगळ्या प्रकारचे लाइटिंग अशी सगळी तयारी चालू असते. स्त्रिया गणपतीच्या स्वागतासाठी सज्ज असतात. गणपती पाहुणा येणार असल्यामुळे त्याच्यासाठी खिरापत, मोदका ची तयारी होते. नवीन वस्त्रे, दागिने यांनी बाजारपेठ सजते. लोक उत्साहाने तयारी करतात. घरातील वातावरण उत्साहाने  भरलेले असते. मुलांना मोदकाचे वेध लागलेले असतात. आरत्या म्हणायच्या असतात. गणपती पाहुणा येणार म्हणून दारात रांगोळी काढली जाते, तोरणं लावली जातात, गणरायासाठी वेगळाच थाट! त्याला कुठे बसवू या, त्याचे स्वागत कसे करूया, या विचारात फुलांच्या, लाईटच्या, कागदांच्या, रंगीबेरंगी माळा व दिवे लावले जातात. तो हा हरितालिकेचा दिवस असतो.

जणू पार्वती आधी पृथ्वी वर येऊन त्याच्या स्वागताची सर्व तयारी झाली आहे ना घरोघरी, ते पाहून जाते! उद्या ती त्याची आई म्हणून मिरवणारे असते, तर दोन दिवसांनी तीच गौरी बनून माहेरवाशीण म्हणून येणार असते.ही दोन्हीही नाती प्रेमाची असतात! दोन्ही नात्यात तिचे हे रूप मनोहर दिसते! तोच उत्साह निसर्गातही दिसून येतो.पावसाच्या सरी वर सरी येत रहातात आणि वातावरणात प्रसन्नता आणतात.

गणरायाचे आगमन होताच सगळीकडे आनंदीआनंद पसरतो.

कैलासा वरून पृथ्वीवर आणि आपल्या घरात! उंदराच्या वहानावरून! उद्या बाप्पा ला मोदकाचे जेवण मिळणार!

आणि रोज आरती प्रसादाने आसमंत जागा रहाणार!

संकटनाशक गणपती सौख्याची, आरोग्यदायी नवी लाट घेऊन येणार आहे, म्हणून गर्जू या,

  ? गणपती बाप्पा मोरया! ?

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 102 ☆ वाळवी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 102 ☆

☆ वाळवी ☆

प्रेमपत्रे कागदाची, मोठ्या कष्टाने जपली

गोड स्वप्नांना ह्या माझ्या, कशी वाळवी लागली

 

अक्षरे ही मौन होती, नाही काहीच बोलली

कोणा घाबरून त्यांनी, मान खाली ही घातली

 

कागदांची ह्या चाळण, अक्षरांचा झाला भुगा

राख स्वप्नांची सांडली, दिला नशिबाने दगा

 

साठलेले डोळ्यांमध्ये, होते सारे आठवले

एकएका अक्षराला, आज कोंब फुटलेले

 

देह कागदाचा होता, संपविण्या साधा सोपा

नष्ट करून दाखवा, माझ्या मनातला खोपा

 

प्रेमपत्रांचा हा गंध, साठलेला ह्या मनात

मन रेंगाळते आहे, भूतकाळाच्या वनात

 

गेली पत्रे जाऊदेत, जपू श्रद्धा काळजात

तुझी आठवण येता, अश्रु जमती डोळ्यात

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#55 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #55 –  दोहे ✍

औषधि भोजन चाय का, सब रखते हैं ध्यान ।

किंतु तुम्हारे हाथ के, अब दुर्लभ हैं पान।।

 

करता हूं जलपान फिर, करता पूजा पाठ ।

और दोपहरी  बीतती, गिनते गिनते ठाठ।।

 

खूब कार्यक्रम हो रहे, जुड़ जाती है भीड़ ।

पंछी देखें एक टक, अपना सुना नीड।।

 

आती रहती याद अब, हर एक छोटी बात

और सोचते-सोचते, कट जाती है रात।।

 

बिना आग के जल रहा, झेल रहा हूं ताप।

कुछ बातें मानी नहीं,   गहरा पश्चाताप।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 54 – लो सिमटने लग गईं …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “लो सिमटने लग गईं …। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 54 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ लो सिमटने लग गईं …  ☆

बादलों का पलट कर अलबम

निकल आयी गुनगुनी

सी धूप

 

हो उठे रंगीन डैने

पक्षियों के

ज्यों सजग चेहरे हुये आरक्षियों के

 

लौट आयी है पुनः

सेवा- समय पर

पेड़ के, छाया

बना स्तूप

 

लो सिमटने लग गईं

परछाइयाँ

वनस्पतियाँ ले रहीं

अँगड़ाइयाँ

 

राज्य जो छीना

पड़ोसी शत्रु ने

पा गया फिर से

अकिंचन भूप

 

हो गयीं सम्वाद

करने व्यस्त चिडियाँ

खोल दीं फूलों ने

अपनी चुप पखुड़ियाँ

 

ज्यों कि कालीदास के

अनुपम कथन में

नायिका का दिव्य

सुन्दर रुप

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-09-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 101 ☆ कबड्डी खेलता डालर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ‘कबड्डी खेलता डालर)  

☆ व्यंग्य # 101 ☆ कबड्डी खेलता डालर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से एक रुपए वाला नोट चिंतित रहता है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है।

एक रुपए के नोट की चिंता जायज है, क्योंकि उसको कोई पूछता नहीं। जिनके पास एक रुपए का नया नोट है वो नोट दिखाने में नखरे पेल रहे हैं, एक रुपए का नोट दिखाने का दस रुपए ले रहे हैं। आपको जानकर यह आश्चर्यजनक लगेगा कि बहुत पहले एक डालर एक रुपए का होता था। पहले कोई नहीं जानता था कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी हो जाएगा, और डालर इस तरह से रुपए के साथ कबड्डी खेलने लगेगा। पहले रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी की बीमारी हो जाती।

पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था। तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजब हो गया, बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ।ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि साहब का सीना चौड़ा हो गया, उसी दिन से टंगड़ी मार कर रुपये को गिराने का चक्कर चला दिया। डालर को पहले से पता चल जाता है कि साहब का अहंकार का मीटर उछाल पर है। जैसे ही भाषण में लटके झटके आये और हर बात पर पिछले सात दशक का जिक्र आया,  भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटकनी दे देता है। जो लोग ‘डालर’ पहन के भाषण सुनने जाते हैं उनकी अंडरवियर गीली हो जाती है और एलास्टिक जकड़ जाती है।

हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर  जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का रूपये खाने का शौक है और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम है, इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  चाहे जब रुपये को पटक कर चारों खाने चित्त कर देता है।

और भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कहता है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #45 ☆ उम्मीद ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# उम्मीद #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 45 ☆

☆ # उम्मीद # ☆ 

खुश रहना है तो

बिंदास रह

ना किसी से डर

जो भी तेरे मन में आयें

मस्ती से तू कर

 

भ्रमर बनकर

घूम चमन में

फूल फूल को चूम

गंधोसे मदमस्त हो

मदहोशी में झूम

 

राह में मिले

गर कोई दुखिया

उसकी दास्तां सुन

हर ले उसके दुःख दर्द को

बजा खुशी की धुन

 

भूखे को रोटी खिला

प्यासे को पानी पिला

तू नहीं जान पायेगा

तूझे कितना पूण्य मिला

 

राह के कांटे चुनकर

फूल ही फूल बिखेर दें

पत्थरों पे छैनी से

अपना नाम उकेर दें

 

तू तोड़ दे पुरानी जंजीरें

सबको अपने गले लगा

इन बुझी बुझी आंखों में

“श्याम” उम्मीद की

इक ज्योत जगा /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 47 ☆ परस्पर प्रेम… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

?  साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 47 ? 

☆ परस्पर प्रेम… ☆

(अंत्य-ओळ काव्य.)

मनाची औदार्यता असावी

मनाची औदार्यता जपावी

मन उदार करून सहज

स्नेहाची उधळण करावी…!!

स्नेहाची उधळण करावी

सहिष्णूता, ती जपावी

वाट्यातील वाटा देतांना

अहंकाराची झालर नसावी…!!

अहंकाराची झालर नसावी

सहजतेने मुक्त व्हावे

क्षणभंगूर जीवनात आपुल्या

काहीतरी निर्मळ कार्य करावे…!!

काहीतरी निर्मळ कार्य करावे

कीर्ती गंध पसरवून द्यावा

शेवटी काय राहते भूव-री

याचा विचार स्वतः करावा…!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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