हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #104 ☆ व्यंग्य – नये स्कूल की तालीम….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘नये स्कूल की तालीम…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 104 ☆

☆ व्यंग्य –  नये स्कूल की तालीम

दफ्तर में अचानक हंगामा मच गया। दफ्तर का रंगरूट क्लर्क सत्यप्रकाश,ठेकेदार समरथ सिंह को बाँह पकड़कर, करीब करीब घसीटते हुए, साहब के कैबिन में ले गया। आजू बाजू बैठे क्लर्कों के मुँह यह दृश्य देखकर खुले के खुले रह गये। बड़े बाबू का मुँह ऐसा खुला कि बड़ी मुश्किल से बन्द हुआ।
सत्यप्रकाश समरथ सिंह को साहब के सामने धकेलते हुए बोला, ‘सर, ये मुझे रिश्वत दे रहे हैं। अभी पाँच सौ का नोट मेरी फाइल में खोंस दिया। मुझे बेईमान समझते हैं। हमारे माँ-बाप ने हमें भ्रष्टाचार करना नहीं सिखाया।’

समरथ सिंह परेशान था। जिस दफ्तर में उसके प्रवेश करते ही सबके मुँह पर मुस्कान फैल जाती हो और जहाँ कोई उससे ऊँचे स्वर में बात न करता हो, वहाँ ऐसी फजीहत उसके लिए कल्पनातीत थी। वह साहब से बोला, ‘अरे सर, ये फालतू का हल्ला कर रहे हैं। पाँच सौ रुपये की कोई रिश्वत होती है क्या?ये हमारा पुराना दफ्तर है। ये नये आये हैं इसलिए हमने खुशी में सोचा मिठाई खाने के लिए छोटी सी भेंट दे दें। इसमें रिश्वत देने वाली बात कहाँ से आ गयी?’

सत्यप्रकाश बिफर कर ठेकेदार से बोला, ‘क्यों!आप हमें मिठाई क्यों खिलायेंगे? आप हमारे रिश्तेदार लगते हैं क्या?’

साहब उसकी बात सुनकर बगलें झाँकने लगे। फिर उससे बोले, ‘तुम अपनी सीट पर जाओ। मैं इनसे बात करता हूँ।’

पाँच मिनट बाद समरथ सिंह साहब के कैबिन से निकलकर, बिना दाहिने बायें देखे, निकल गया।

थोड़ी देर में साहब के कैबिन की कॉल-बैल बजी। बड़े बाबू का बुलावा हुआ। बड़े बाबू पहुँचे तो साहब के माथे पर बल थे। बोले, ‘यह क्या तमाशा है, बड़े बाबू? पुराने आदमियों के साथ कैसा सलूक हो रहा है?’

बड़े बाबू दुखी स्वर में बोले, ‘मेरी खुद समझ में नहीं आया, सर। लड़का अभी नया है, दफ्तर के ‘वर्क कल्चर’ को अभी समझ नहीं पाया है। टाइम लगेगा।’

साहब बोले, ‘उसे समझाइए। इस तरह बिना बात के तमाशा खड़ा करेगा तो काम करना मुश्किल हो जाएगा।’

बड़े बाबू बोले, ‘सर, मैं तो पहले से ही कह रहा हूँ कि नये आदमी को फाइलें सौंपने से पहले उसे दस पन्द्रह दिन तक सिर्फ दफ्तर के नियम-कायदे समझाना चाहिए। साथ ही देखना चाहिए कि समझाने का कितना असर होता है। जब दफ्तर के सिस्टम को समझ ले तभी फाइलें सौंपना चाहिए। आप परेशान न हों। मैं उसको समझाता हूँ।’

बड़े बाबू उठते उठते फिर बैठ गये। बोले, ‘सर, मेरे दिमाग में यह भी आता है कि जैसे कुछ स्कूलों में भर्ती के समय बच्चे के माँ-बाप का इंटरव्यू लिया जाता है, उसी तरह नयी भर्ती को ज्वाइन कराते समय उसके बाप को बुलाना चाहिए। पता चल जाएगा कि बाप ने बेटे के दिमाग में ऐसा कूड़ा-करकट तो नहीं भर दिया है जिससे दफ्तर में काम करने में दिक्कत हो। बहुत से माँ- बाप लड़के को ऐसी बातें सिखा देते हैं कि वह हर छः महीने में सस्पेंड होता है या ट्रांसफर भोगता है। यह लड़का भी ऐसे ही माँ-बाप का सिखाया लगता है। फिर भी मैं उसे लाइन पर लाने की पूरी कोशिश करूँगा।’

अपनी सीट पर आकर बड़े बाबू ने सत्यप्रकाश को बुलाया, बगल में बैठाकर मुलायम स्वर में बोले, ‘भैया, आज समरथ सिंह पर तुम्हारा गुस्सा देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा। ऐसा है कि आदमी को अपनी जिन्दगी में कई स्कूलों में पढ़ना पड़ता है। पहला स्कूल आदमी की फेमिली होती है और दूसरा वह स्कूल या कॉलेज जहाँ वह पढ़ता है। काम की जगह या दफ्तर तीसरा स्कूल होता है जहाँ जिन्दगी बसर करने की तालीम मिलती है। दफ्तर में आकर कई बार फेमिली और स्कूल की पढ़ाई को भुलाना पड़ता है क्योंकि आजकल वह शिक्षा आगे की जिन्दगी में अड़चन पैदा करती है। इसलिए तुमको हमारी सयानों वाली सलाह है कि घर-स्कूल की तालीम को भुलाकर यहाँ के तौर-तरीके सीखो ताकि जिन्दगी सुखी और सुरक्षित रहे।

‘दूसरी बात यह कि ये जो ठेकेदार हैं ये हमारे संकटमोचन हैं। आगे इन पर नाराज होने की गलती मत करना। अभी तो तुम इन पर बमकते हो, जिस दिन बहन या बेटी की शादी करनी होगी उस दिन ये ही काम आएँगे। बड़े बड़े संकटों से निकाल कर ले जाएँगे। इसलिए दुनियादार हो कर चलोगे तो तुम्हारे हाथ-पाँव बचे रहेंगे, वर्ना भारी कष्ट उठाओगे। हमारी बात पर ठंडे दिमाग से विचार करना, बाकी हम सिखाने के लिए हमेशा तैयार बैठे हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 103 ☆ मील का पत्थर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 103 ☆ मील का पत्थर ☆

संध्याकाल है, टहलने निकला हूँ। लगभग 750 मीटर लम्बा यह फुटपाथ सामान्य से अधिक चौड़ा है, साथ ही समतल और स्वच्छ। तुलनात्मक रूप से अधिक लोग इस पर टहल सकते हैं।

अवलोकन की दृष्टि टहलते लोगों के कदमों की गति मापने लगती है। देखता हूँ कि लगभग अस्सी वर्षीय एक वृद्ध टहलते हुए आ रहे हैं, एकदम धीमी गति, बहुत धीरे-धीरे बेहद संभलकर कदम रखते हुए, हर कदम के साथ शरीर का संतुलन बनाकर चल रहे हैं।

जिज्ञासा बढ़ती है, तुलनात्मक विवेचन जगता है, पचास-पचपन की आयु के कदमों को मापता है। उनके चलने की गति कुछ अधिक और शरीर का संतुलन  साधे रखने का प्रयास तुलनात्मक रूप से कम है। तीस-पैंतीस की आयु वालों के कदमों की गति और अधिक है, वे अधिक निश्चिंत भी हैं।  किशोर से युवावस्था के लोग हैं जो सायास टहलने की दृष्टि से नहीं अपितु  मित्रों के साथ हँसी मजाक करते हुए चल रहे हैं।  छह-सात साल की एक नन्ही है जो चलती कम, उछलती, कूदती, थिरकती, दौड़ती अधिक है। उसके माता-पिता आवाज़ लगाते हैं, उसी तरह दौड़ती-गाती आती है, माँ से कुछ कहती है, अगले ही क्षण फिर छूमंतर! मानो आनंद का एक अनवरत चक्र बना हुआ है।

इसी चक्र से प्रेरित होकर चिंतन का चक्र भी घूमने लगता है। अवलोकन में आए लोगों का आयुसमूह भिन्न है, दैहिक अवस्था और क्षमता भिन्न है। तथापि आनंद ग्रहण करने की क्षमता और मनीषा, यात्रा को सुकर अथवा दुष्कर करती हैं।

किसी गाँव में मंदिर बन रहा था। ठेकेदार के कुछ श्रमिक काम में लगे थे। एक बटोही उधर से निकला। सिर पर गारा ढो रहे एक मजदूर से पूछा, “क्या कर रहे हो?” उसने कहा पिछले जन्म में अच्छे कर्म नहीं किए थे सो इस जन्म में गारा ढो रहा हूँ।”  दूसरे से पूछा, उसने कहा, “अपने बच्चों का पेट पालने की कोशिश कर रहा हूँ।” तीसरे ने कहा, ” दिखता नहीं, मजदूरी करके गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा हूँ।” चौथे श्रमिक के चेहरे पर आनंद का भाव था। सिर पर कितना वज़न है, इसका भी भान नहीं। पूछने पर पुलकित होकर बोला, “गाँव में सियाराम जी का मंदिर बन रहा है। मेरा भाग्य है कि मैं उसमें अपनी सेवा दे पा रहा हूँ।”

दृष्टि की समग्रता से जगत को देखो, सर्वत्र आनंद छलक रहा है। इसे  ग्रहण करना या न करना तुम्हारे हाथ में है। इतना स्मरण रहे कि परमानंद की यात्रा में आनंद मील का पत्थर सिद्ध होता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 57 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 57 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 57) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 57 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ज़िन्दगी  हसीं  है, हुज़ूर

इसे बेशर्त प्यार  करो,

माना कि अभी अंधेरी रात है,

सुबह तलक इंतज़ार करो…

 

वो पल भी आएगा

दिली ख़्वाहिश है जिसकी,

रब पर एतबार तो करो

वक़्त भी बदलेगा जरूर..!

 

Life is beautiful, dear

love it unconditionally,

Agreed, it’s dark night now,

wait till sun rises again…

 

That moment will also come

which you’ve longed for,

Have  faith  in  the  Lord

Time  will change  itself!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

तारीफ़ अपने आप की

करना फ़िज़ूल है…

ख़ुशबू खुद ही बता देती है

कौन सा फ़ूल है…

 

It is pointless to

praise  oneself…

Fragrance itself reveals

which flower it is…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ये दिल भी तो किस तरह,

ठगता चला जाता है…

कोई अच्छा लगता है,

और लगता चला जाता है..!

 

How guilefully this heart

goes on cheating…

Someone it likes, and

then  goes on liking..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 58 ☆ गीत – वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  रचित  भावप्रवण  गीत ‘वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 58 ☆ 

☆ गीत – वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ ☆ 

*

जड़ें सनातन ज्ञान आत्मा है मेरी

तन है तना समान सुदृढ़ आश्रयदाता

शाखाएँ हैं प्रथा पुरातन परंपरा

पत्ता पत्ता जीव, गीत मिल गुंजाता

पंछी कलरव करते, आगत स्वागत हूँ

वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ

*

औषध बन मैं जाने कितने रोग हरूँ

लकड़ी बल्ली मलगा अनगिन रूप धरूँ

कोटर में, शाखों पर जीवन विकसित हो

आँधी तूफां सहता रहता अविचल हो

पूजन व्रत मैं, सदा सुहागन ज्योतित हूँ

वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ

*

हूँ अनेक में एक, एक में अनगिनती

सूर्य-चंद्रमा, धूप-चाँदनी सहचर हैं

ग्रह-उपग्रह, तारागण पवन मित्र मेरे

अनिल अनल भू सलिल गगन मम पालक हैं

सेतु ज्ञान विज्ञान मध्य, गत-आगत हूँ

वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ

*

वेद पुराण उपनिषद आगम निगम लिखे

ऋषियों ने मेरी छाया में हवन करे

अहंकार मनमानी का उत्थान-पतन

देखा, लेखा ऋषि पग में झुकता नृप सिंहासन

विधि-ध्वनि, विष्णु-रमा, शिव-शिवा तपी-तप हूँ

वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ

*

विश्व नीड़ में आत्म दीप बन जलता हूँ

चित्र गुप्त साकार मूर्त हो मिटता हूँ

जगवाणी हिंदी मेरा जयघोष करे

देवनागरी लिपि जन-मन हथियार सखे!

सूना अवध सिया बिन, मैं भी दंडित हूँ

वृक्षों में वट वृक्ष सदृश मैं भारत हूँ

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #87 ☆ भोजपुरी कविता – पानी रे पानी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भोजपुरी भावप्रवण रचना  “# पानी रे पानी #। ) 

यह रचना जीव जगत के जीवन में पानी की महत्ता तथा उसकी जरूरत को पारिभाषित करती है। तमाम पूर्ववर्ती संतों महात्माओं ने भी पानी के महत्त्व को समझाया है  कविवर रहीमदास जी के शब्दों में —

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।

पानी गये न उबरे मोती मानुष चून।

 कवि की भोजपुरी भाषा की ये रचना इन्ही तथ्यो संपादित करती है।

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 87 ☆ # पानी रे पानी  # ☆

सागर में पानी हौ, बदरा में पानी हौ।

कुंअना में पानी हौ, गगरी में पानी हौ।

बोतलबंद पानी हौ, सुराही में पानी हौ।

पानी परान हौ, पानी से शान हौ।

बरखा में पानी हौ, पानी  जिंदगानी हौ।

पानी के अपने बचाई के राखा,

पानी के अपने बचाई के राखा।।1।।

 

पानी से खेती हौ पानी से बारी हौ।

पानी से बाग बगइचा फुलवारी हौ।

पानी से पान हौ, पानी से धान हौ।

पानी से बृष्टि हौ, पनियै से सृष्टि हौ।

 पनियै से जीवन हौ पानी ही सब धन हौ।

 पानी से मानुष के बचल मर्यादा।

पानी से आगि बुझावल जाला।

पानी में आगि लगावा जिन ए दादा।

 पानी के आपन बचाई के राखा,

पानी के आपन बचाई के राखा।।2।।

 

पानी से सीपी मोती उपजावै,

पानी ही लोहा कठोर बनावै।

पानी ही पगड़ी के इज्जत राखै,

पानी बिना जीव जान गवावै।

केहू के अंखियां भरल बाटै पानी,

केहू के आंख के मरि गयल पानी।

बिनु पानी देखा चिरइ पियासल मरै,

बिनु पानी दुनिया की खत्म कहानी।

येहि खातिर पानी बचाई के राखा,

एही खातिर पानी बचाई के राखा।।3।।

 

नाला नदी सब बिनु पानी सूखा,

ना बरसी पानी त परि जाइ सूखा।

पानी बिना सब जग बउराइ,

पानी क महिमा ना गवले ओराइ।

एहि खातिर पानी बचाई के राखा,

एहि खातिर पानी बचाई के राखा।।4।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #1 – व्यंग्य की ज़रूरतें ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को  हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ी सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की प्रथम कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य की ज़रूरतें’। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #1 – व्यंग्य की ज़रूरतें ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

मित्रों, अपनी बात आरम्भ करने के पूर्व हरिशंकर परसाई के एक कथन का उल्लेख करना चाहूँगा – ‘‘अपनी कैफ़ियत दूँ, हँसना, हँसाना, विनोद करना, अच्छी बातें होते हुए मैंने केवल मनोरंजन के लिये कभी नहीं लिखा, मेरी रचनाएँ पढ़कर हँसी आना स्वाभाविक है – यह मेरा यथेष्ठ नहीं, और चित्रों की तरह व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गम्भीर चित्र मानता हूँ।’’

आज ‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ विषय पर चर्चा हो रही है। मेरे मन में दो आशय निकले हैं – पहला व्यंग्य के लिये क्या-क्या ज़रूरी है तथा दूसरा, व्यंग्य की समाज को कितनी ज़रूरत है। अतः इन दो बिन्दुओं को लेकर मिली-जुली चर्चा कर रहा हूँ।

‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ पर चर्चा करने के पूर्व यह जानना ज़रूरी है कि व्यंग्य की प्रकृति और प्रवृत्ति क्या है? तभी व्यंग्य की ज़रूरतों का आभास होगा। व्यंग्य कैसे अपना प्रभाव डालता है? वह प्रभाव समाज के लिये ज़रूरी कैसे हो जाता है? व्यंग्य अपने आपको कैसे रचता है? व्यंग्य का स्वभाव कैसा है…? यह सब भले पार्श्व में है, पर जानना ज़रूरी है।

आज व्यंग्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है। अख़बार, पत्रिका, सोसल मीडिया में इसकी उपादेयता बढ़ गयी है। बहुत से अख़बारो और पत्रिकाओं से तो कहानी, निबंध तिरोहित हो गये हैं, पर व्यंग्य अंगद की भाँति पैर जमाए खड़ा है। कई अख़बारों ने व्यंग्य के पैर हिलाए, पर बाद में यथा स्थान उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। नये-नये लेखक अपनी-अपनी कलम घिस रहे हैं। नये विषय तलाशे जा रहे हैं, यह व्यंग्य के लिये शुभ संकेत है। इससे व्यंग्य की संभावनाओं को विस्तार मिला है। एक-दो वर्ष पूर्व तक इस पर गंभीर चर्चा नहीं होती रही, पर आज “व्यंग्य यात्रा” प्रेम जी और ललित जी के श्रम से संभव हो रही है। व्यंग्यकार अपना बेहतर दे रहा है। पाठक उसे कैसे स्वीकार कर रहा है, यह दृष्टि पटल पर स्पष्ट नहीं है। कारण इसका चेकिंग पोस्ट अर्थात् आलोचना व्यंग्य के पास नहीं है, परन्तु अब वह भी होने लगी है। बाज़ार, उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के प्रभाव को भी व्यंग्यकारों ने नोटिस में लिया है। प्रत्यक्ष में बाज़ार और वैश्वीकरण के द्वारा विकास दिख रहा है, पर प्रभाव की दिशा भी दिख रही है। इस विकास की प्रतिच्छाया में मानवीय छाया विलुप्त होती जा रही है। मानवीय संवेदनाएँ भौथरी होती जा रही हैं। मानवीयता मन से धीरे-धीर तिरोहित हो रही है और मानव एक वस्तु के रूप में बदलता जा रहा है।

यह गंभीर स्थिति है और इसी स्थिति को साहित्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ व्यंग्य ने गंभीरता से पकड़ा है। कारण यह व्यंग्य की प्रवृत्ति है कि वह समाज में घट रही घटनाओं को गंभीरता से लेता है। कोई विसंगति, विडम्बना, अत्याचार, अन्याय आदि घटनाओं पर अपनी पैनी नज़र रखता और उन्हें पकड़ता है तथा उस पर अपने ढंग से प्रतिक्रिया करता है। यही व्यंग्य की प्रकृति है। व्यंग्य की प्रकृति महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, जिस पर गंभीरता से विचार करना चाहिये, तभी हम व्यंग्य को भलीभाँति जान सकते हैं। यह सरल नहीं है। हमारे समक्ष हज़ारों दृश्य आते हैं और उनमें से कुछ हमारे मन को प्रभावित करते हैं तो कुछ विवश करते हैं कि हम प्रतिक्रिया त्वरित दें तो कुछ लोगों के जीवन की रोजाना की चर्या है। पर हम उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। पर वह हमारे जीवन में इतने गहरे तक रच-बस जाती है कि वह हमारे समाज या जीवन का अंग बन जाती है, पर है वह विकृति। जैसे भ्रष्टाचार, उस पर हम हज़ारों प्रतिक्रियाएँ देते हैं। उसका विरोध भी करते हैं, पर सुविधानुसार जब हमें नगर निगम, विद्युत विभाग, पुलिस से काम पड़ता है तब अपना काम निकालने के लिये श्रम और समय से बचने के लिये माध्यम ढूंढ़ कर पैसा दे कर अपना काम करवा लेते हैं। पर यह क्रिया भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली है। हम समय और श्रम बचाने के लिये थोड़ी देर के लिये उसका अंग बन जाते हैं। हम भ्रष्टाचार के विकास में अपरोक्ष रूप से सहयोग करते हैं। जब उससे अलग होते हैं तो भ्रष्टाचार के विरोध में डण्डे लेकर खड़े हो जाते हैं। जबकि यहाँ पर अपने आत्मबल के साथ हमें हर परिस्थितियों में मुठभेड़ के लिये तैयार होना चाहिये। पर हम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ पाते हैं। इसी प्रकार दहेज एक सामाजिक विकृति है। ‘दहेज’ उसका तो हम अपने-अपने ढंग से विरोध करते हैं। पर वक़्त जब आता है तो हम उसके अंग बन जाते हैं, क्योंकि हमारा उसमें स्वार्थ निहित होता है। दोनों पक्षों का क्योंकि उसमें हमारा हित और भविष्य दिखता है। इसलिये उसका अंग बनने में हम कोताही नहीं करते। यह ‘बनना’ व्यंग्य बन कर बाहर आता है। यही मानवीय प्रकृति और सामाजिक विकृति है। हम चीज़ों का विरोध करते हैं और संग खड़े होकर विसंगति को बढ़ावा देने में सहयोग भी देते हैं। यह प्रवृत्तियाँ ही ही विचारणीय हैं।

व्यंग्य और परसाई पर कमलेश्वर की एक टिप्पणी है, जिसमें एक जगह कमलेश्वर कहते हैं, ‘परसाई ने एक नवजागरण की शुरुआत की।’ हालाँकि हिन्दी में शायद मुश्किल से मंजूर किया जाता है कि नवजागरण की हमारे पास कोई परम्परा है। मुझे लगता है, नवजागरण की जो भारतीय परम्परा है, अलग वैचारिक परम्परा है, जो अंधवादिता, धर्मान्धता, आध्यात्मिकता से अलग रचनाकारों की पूरी परम्परा दिखाई देती है, जिसमें नवजागरण के रचनाकार शामिल हैं।

आज़ादी के बाद के महास्वप्न को हमारे पूर्वजों ने खण्डित होते देखा है। उस दौर को देखना उससे बाहर निकल आना और निरन्तर रचनारत रहना मामूली काम नहीं है, पर यह काम परसाई जी ने किया। एक बैशाखी है साहित्य की, जिसकी ज़रूरत सब को है और वो बैशाखी आलोचक की होती है। केवल परसाई ऐसा लेखक है पूरे हिन्दी समाज में और अन्य भाषाओं में भी, जिसे आलोचक की ज़रूरत नहीं पड़ती। परसाई ने कहा कि ‘‘मैं लेखक छोटा हूँ और संकट बड़ा हूँ। संकट पहचान कर भी परसाई ने संकट पैदा किये हैं। एक संकट उन्होंने वैचारिक जागरूकता फैलाकर स्वयं के लिये पैदा किया। अपने समय की तमाम व्यंग्यात्मक स्थितियों, विद्रूपताओं और विडम्बनाओं से वे आहत होते रहे। तब उनकी चिंता बढ़ जाती है।

उपरोक्त टिप्पणी को ध्यान में रखकर हम व्यंग्य पर आगे की बात करते हैं। व्यंग्य की संभावना को तलाशते हुए उस पर विचार करते समय यह भी ध्यान में रखना होगा कि वह अपना आकार कैसे लेता है। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जब हम व्यंग्य लिखते हैं तब हम संकेत करते हैं कि व्यंग्य किस पर लिखा जा रहा है। पाठक जब संकेतों की सूक्ष्मता को पकड़ लेता है तब उसे पढ़ने में अलग अनुभूति होती है। अन्यथा वह तटस्थ हो कर सोचने लगेगा। इसी तरह रचना का परिवेश व्यंग्य के लिये आवश्यक तत्त्व है। किसी बात को कहने के लिये इतिहास का सहारा लिया जाये या बात को सीधे-सीधे रचना के अनुरूप कहा जाय। वैसे आधुनिक व्यंग्य में परिवेश भी रचना के अनुरूप होता है। उसे किसी आवरण की आवश्यकता नहीं होती। इस अवधारणा से व्यंग्य की मारक क्षमता प्रभावशाली हो जाती है, जो व्यंग्य के उद्देश्य की प्रथम सीढ़ी होती है। किसी रचना में कथ्य या विषय के मूल को उजागर करने में, उसे प्रभावशाली बनाने में भाषा की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। वही रचना को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करती है। भाषा व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण अंग है, जिस पर लेखक को विशेष ध्यान देना चाहिये। यही वे तत्त्व हैं जो व्यंग्य को उच्चतम स्तर तक पहुँचा सकते हैं। अन्यथा अच्छी विषय वस्तु होने के बावजूद रचना का कचरा होने में देर नहीं लगती।

अगर हम परसाई, शरद जोशी या वर्तमान में ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल आदि की रचनाओं का अध्ययन करें तो पाते हैं कि इनकी भाषा सहज, सरल और आसानी से ग्राह्य होते हुए प्रभावी भी है। उसमें किसी तरह की लाग-लपेट और अनावश्यक जटिलता, क्लिष्टता का अभाव है। पाण्डित्यपूर्ण शब्दों की कमी हो, लेखक इस बात का ध्यान रखते हैं, उन्हें मालूम है कि उनका पाठक आम वर्ग से आता है उसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को आत्मसात करने में कठिनाई होती है। वह ऐसी भाषा की संरचना करता है जो सबके लिये सहज, सुलभ और ग्राह्य हो इससे व्यंग्य की गुणवत्ता में अत्याधिक प्रभाव बढ़ जाता है और ऐसी रचना के सौन्दर्य में भी वृद्धि होती है। रचना के विषय के साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि लेखक की चिन्ता किसके पक्ष में है? अगर लेखक वंचितों या शोषितों की चिन्ता छोड़ शोषकों की चिन्ता करेगा तब यह तय है कि आम पाठक भ्रमित हो उससे दूर हो जायेगा और वह लेखक की नैतिकता पर सवाल उठा सकता है। यह लेखक का बहुत बड़ा संकट है। क्योंकि विडम्बनाएँ, विषमताएँ तो सभी वर्गों में होती हैं। यह एक मौलिक और महत्त्वपूर्ण संकट है और यह सीधे तौर पर लेखक की अस्मिता से जुड़ा होता है। अतः यह ज़रूरी है कि व्यंग्यकार अपना मत स्पष्ट रखे और उसमें किसी प्रकार का भ्रम मूलक तत्त्व न हो। इसके साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि लेखक किस बात की स्थापना कर रहा है? लेख में उसकी स्थापना ही लेख के स्तर को बनाती है। यदि वह लेख में लिजलिजापन दिखाता है तो पाठक रचना और लेखक से विरक्त हो जायेगा यदि हम किसी बात की स्थापना करते हैं तो उसका आधार तत्त्व मजबूत और स्पष्ट होना चाहिये, इससे रचना की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। यह लेखक, रचना और समाज के लिये अच्छा संकेत है।

एक अच्छे व्यंग्य के लिये समकालीन संदर्भ अत्यंत महत्त्व रखता है, क्योंकि सम्पूर्ण व्यंग्य का आधार बिन्दु समकालीन संदर्भ ही होता है। यदि व्यंग्य आज की विद्रूपता, विडम्बना, विषमता, घटनाएँ, चरित्र, प्रकृति, प्रवृत्ति पात्र को विषय बनाता है तो पाठक उससे आसानी से जुड़ जाता है और वह व्यंग्य के सफ़र में हमसफ़र बन जाता है। उसे किसी भी प्रकार का अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता और वह व्यंग्य से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। उसकी सामंजस्यता ही व्यंग्य को समझने में उपयोगी होती है  जो व्यंग्य के प्रभाव का आशातीत विस्तार कर देती है। पाठक व्यंग्य के विषय के इतिहास से अनभिज्ञ है तो रचना में शुष्कता का तत्त्व बढ़ जायेगा और यह भी हो सकता है कि उस रचना से पाठक दूर हो जाये। इसी कारण पूर्व में कहा जाता रहा है कि व्यंग्य शाश्वत नहीं है। उसकी उम्र कम होती है। लेखक को अधिक दूर तक नहीं ले जा पाता। पर यह भी सही है कि कुछ प्रवृत्तियाँ, विडम्बनाएँ, विषमताएँ, भ्रष्टाचारी चरित्र शाश्वत होते हैं, जो हर समय नये-नये रूपों में मिलते हैं। तब हर समय का पाठक सहज ही उससे सामंजस्य बैठा लेता है और वह रचना शाश्वतता को प्राप्त कर जाती है। तब व्यंग्य के लिये यह ज़रूरी हो जाता है कि वह यह चुनाव करे कि समकालीन संदर्भ के साथ-साथ उपरोक्त तत्त्व उसमें निहित हों। व्यंग्य को बारीक़ी स देखा जाये तो यह आसानी से समझ में आ जाता है कि व्यंग्यकार कितना संवेदनशील है। व्यंग्य की संवेदनशीलता ही व्यंग्य के स्वास्थ्य को ठीक रखती है। संवेदना ही व्यंग्य का बीज तत्त्व है। उससे ही रचना का अंकुरण और विस्तार और प्रभाव समझ में आता है। लेखक व्यंग्य के पात्र के प्रति संवेदनहीन, निष्ठुर, कठोर, तीखे तेवर के साथ खड़ा होता है तो रचना पाठ्य तो होगी, पर प्रभावी नहीं। पर अगर उसमें भारतीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति के अनुरूप करुणा के अंश मिला दिये जायें तो व्यंग्य का आकर्षण बढ़ जाता है; क्योंकि भारतीय समाज अनेक विडम्बनाओं, मूल्यों के साथ भी करुणा के पक्ष में स्वभावतः खड़ा दिखता है। यह भारतीय समाज का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

परसाई, शरद जोशी के यहाँ तो करुणा का संसार विस्तार से फैला पड़ा है। इसी आधार पर रचना स्मृति में देर और दूर तक बनी रहती है। वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रेम जनमेजय की जनसत्ता में प्रकाशित व्यंग्य रचना, ‘बर्फ़ का पानी’, जिसमें अंत करुणा से होता है – जिसने भी यह रचना पढ़ी होगी उसके ज़ेहन में उस रचना ने स्थायी स्थान ज़रूर बनाया लिया होगा। ऐसी रचना गाहे-बगाहे याद आती है तो मन में तरंगे दौड़ जाती हैं। व्यंग्य रचना में शिल्प का अत्यंत महत्त्व होता है। व्यंग्य का शिल्प अलग प्रकार का होता है जिसे कहानी, निबंध या किसी अन्य विधा में रख सकते हैं। व्यंग्य के तेवर अलग होते हैं। इसी बात को लेकर परसाई रचनाओं पर आलोचकों का ध्यान नहीं गया और परसाई जी ने भी इस उपेक्षा का कोई नोटिस नहीं लिया। वे अनवरत रचनारत रहे बिना किसी चिन्ता के। इसके पीछे संभवतः मूल कारण उनका अपना विशिष्ट शिल्प ही था जो आलोचकों के लिये नया संकट लेकर आया था। यह सभी बातें व्यंग्य को पाठक के बीच में विश्वसनीयता पैदा करती हैं। किसी भी चीज़ की शुद्धता बनाये रखने के लिये विश्वसनीयता का विस्तार आवश्यक है। यह रचना और लेखक दोनों के लिये ज़रूरी है। सृजन के समय इस तत्त्व का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है। इसके लिये रचना और रचनाकार का आचरण कैसा है, विचार क्या है महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह सब समाज में ज़रूरी माने जाने वाले मुख्य मुद्दे हैं। इन्हीं के अनुरूप व्यंग्य का विस्तार और विश्वसनीयता को आधार मिलता है।

‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ के और भी आयाम हैं, जिन पर चर्चा अभी इस आलेख में संभव नहीं है। हमारे पास जो समय है, उस पर यह चर्चा महत्त्वपूर्ण है, मगर इस बात पर भी विचार करना होगा कि व्यंग्य समाज के लिये कितना ज़रूरी है। मेरा ख्याल है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसमें पनप रही नयी-नयी प्रवृत्तियों, विडम्बनाओं, बढ़ती विषमताओं, बदलती सोच और मूल्यों का गिरता ग्राफ़, बेशर्मी का हद तक विस्तार, सामाजिक भय, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद से संचालित आर्थिक तंत्र से लोगों में बढ़ती दूरियाँ, शिक्षा का औघड़पन, स्वार्थ में बदलती मानवीयता, विस्तार पाती संवेदनशून्यता, दरकते पारिवारिक रिश्ते, सामाजिक परिवेश और आचरण को चेलेंज करता आधुनिक युवा वर्ग, तकनीकी विकास से आयी विद्रूपताओं का समझ कर उनसे सचेत करने वाली व्यंग्य ही वह विधा जो इन नकारात्मक प्रवृत्तियों से आगाह कर त्वरित और सार्थक प्रतिक्रिया भी व्यक्त करती है। और कहना ही होगा कि ऐसी प्रतिक्रियाएँ असरदार भी होंगी। इसके मूल में व्यंग्य की संरचना और उसका तीखा तेवर जो सत्ता और समाज को सोचने पर मजबूर कर देता है। मन को विचलित कर देता है।

 

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 45 ☆ दोहे ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित भावप्रवण  “दोहे । हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 45☆ दोहे  ☆

कोई समझता कब कहां किसी के मन के भाव

रहे पनपते इसी से झूठे द्वेष दुराव

 

मन की पावन शांति हित आवश्यक सद्भाव

हो यदि निर्मल भावना कभी न हो टकराव 

 

ममता कर लेती स्वतः सुख के सकल प्रबंध 

इससे रखने चाहिए सबसे शुभ संबंध 

 

प्रेम और सद्भाव से बड़ा न कोई भाव 

नहीं पनपती मित्रता इनका जहां अभाव 

 

मन के सारे भाव में ममता है सरताज 

सदियों से इसका ही दुनिया में है राज

 

दुख देती मित्र दूरियां आती प्रिय की याद

करता रहता विकल मन एकाकी संवाद 

 

होते सबके भिन्न हैं प्रायः रीति रिवाज

पर सबको भाती सदा ममता की आवाज

 

बातें व्यवहारिक अधिक करता है संसार

किंतु समझता है हृदय किस के मन में प्यार

 

मूढ़ बना लेते स्वतःगलत बोल सन्ताप

मिलती सबको खुशी ही पाकर प्रेम प्रसाद

 

बात एक पर भी सदा सबके अलग विचार

मत होता हर एक का उसकी मति अनुसार 

 

प्रेम सरल सीधा सहज सब पर रख विश्वास

खुद को भी खुशियां मिले कोई न होय निराश

 

तीक्ष्ण बुद्धि इंसान को ईश्वर का वरदान

कर सकती परिणाम का जो पहले अनुमान

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ सत्तर से एक कम! ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “सत्तर से एक कम!”)

☆ कविता ☆ सत्तर से एक कम! ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हाँ थोड़ा थक सा जाता हूँ

दूर निकलना छोड़ दिया,

पर ऐसा भी नही हैं कि

मैंने चलना ही छोड़ दिया।

 

फासलें अक्सर रिश्तों में

अजीब सी दूरियां बढ़ा देते हैं,

पर ऐसा नही हैं कि मैंने

अपनों से मिलना छोड़ दिया।

 

हाँ जरा अकेला महसूस करता हूँ

अपनों की ही भीड़ में,

पर ऐसा भी नहीं है कि मैंने

अपनापन ही छोड़ दिया।

 

याद तो करता हूँ अब भी

मैं सभी को और परवाह भी,

पर कितनी करता हूँ

बस! ये बताना छोड़ दिया ।

 

हाँ! उस मंजर की कसक बाकी है अभी,

जब बारिश में साथ भीगते थे कभी,

पर ऐसा भी नही है कि मैंने

बारिश में भीगना ही छोड़ दिया |

 

हाँ! याद तो आती है वस्ल की रातें,

जब तनहा होता हूँ कभी,

पर ऐसा भी नहीं कि मैंने,

ख़्वाब देखना ही छोड़ दिया ।

 

ठोकरें खाई हैं ऊबड़ खाबड़ राहों पर

एक कम सत्तर तक आते-आते

पर ऐसा भी नहीं कि

शतायु का ख़्वाब छोड़ दिया है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 –  आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पे पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया। 

गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा । उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।

अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पत्थर पहले मूर्तिकार की चोटों से काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।

पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 71 – हरवलेले माणूसपण ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 71 – हरवलेले माणूसपण ☆

 समृध्दीने नटलेल घर पाहून हरवले देहभान ।

शोधून सापडेना कुठेही हरवलेले माणूसपण ।।धृ।।

 

कुत्र्या पासून सावध राहा भलीमोठी पाटी।

भारतीय स्वागताची आस  ठरली खोटी।

शहानिशा करून सारी आत घेई वॉचमन ।।१।।

 

झगमगाट पाहून सारा पडले मोठे कोडे ।

सोडायचे कुठे राव हे तुटलेले जोडे ।

ओशाळल्या मनाने कोपऱ्यात  ठेऊन ।।२।।

 

सोफा टीव्ही एसी सारा चकचकीतच मामला।

पाण्यासाठी जीव मात्र वाट पाहून दमला ।

नोकराने आणले पाणी भागली शेवटी तहान ।।३।।

 

भव्य प्रासादातील तीन जीव पाहून ।

श्रीमंतीच्या कोंदणाने गेलो पुरता हेलावून ।

चहावरच निघालो अखेर रामराम ठोकून।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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