हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #98 – सुख-दुख के आँसू…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा सुख-दुख के आँसू…… । )

☆  तन्मय साहित्य  # 98 ☆

 ☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆

“चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।”

“अरे–!आप तो रो रहे हैं, क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?”

“हाँ, हाँ बेटी कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आँसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं, मैं भला क्यों रोऊँगा।”

“तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ।”

दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–

“कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये न हमें?”

“कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आँखों से आँसू निकल रहे हैं।”

“पर आँख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,”

“बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको? कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?”

“ऐसा कुछ भी नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से मन द्रवित हो गया था और ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही आँखों से खूशी के आँसू बहने लगे थे, बस यही बात है।”

किन्तु एक और सच बात यह भी थी इस खुशी के साथ जुड़ी हुई कि, रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते  ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।

सुख-दुख की स्मृतियों के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ #80 – 2 – पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/ प्रसंग     “ जीवन यात्रा  -पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन”)

☆ जीवन यात्रा #80 – 2 –पूज्य बाबूजी को उनके 93 वें जन्म दिन पर परिवार के श्रद्धा सुमन ☆ 

गतांक से आगे

जीएम की विशेष रेलगाडी, आउटर सिगनल को पार करने से पहले ही स्टेशन की ओर पीछे आ रही थी, मध्य रेल  के सर्वोच्च अधिकारी  का इस तरह वापस आना किसी आसन्न खतरे का सूचक ! बाबूजी ने, जिन्हें स्वयं को संतुलित करने में देर नहीं लगती थी, अपने माथे पर अचानक आ गई  पसीने की बूंदों को पोंछा, एक गिलास पानी पिया, और पूरी मुस्तैदी के साथ महाप्रबंधक का स्वागत करने प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े हो गए I महाप्रबंधक का कोच स्टेशन के मुख्य द्वार के सामने रूका और अधिकारियों का जत्था स्टेशन की ओर बढ़ा।  बाबूजी और उनके अधीनस्थों ने अभिवादन किया तभी महाप्रबंधक की कड़क आवाज गूंजी ‘Who is Master of this Station ?’ बाबूजी ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ जवाब दिया ‘महोदय मैं’ । और इसके साथ ही स्टेशन के  सूक्ष्म निरीक्षण का कार्य प्रारम्भ हो गया । महाप्रबंधक  विभिन्न रिकार्ड मांगते और स्टेशन पोर्टर, अविलम्ब  उन्हें प्रस्तुत कर देते । महाप्रबंधक की  पैनी निगाहें रिकार्ड को देखती और किसी अन्य पुस्तक की  फरमाइश होते देर न लगती । उन्होंने इसी दौरान  स्टेशन पोर्टर से रेल संरक्षा के विषय में कुछ प्रश्न पूछे, उत्तर से वे संतुष्ट हुए  और अचानक  चमचमाती  हुई ब्रास मेटल की टिकिट खिड़की, उद्घोषणा करने वाले पीतल के  घंटे और स्वच्छ कक्ष   को देखकर सम्बंधित सफाई कर्मचारी को बुलाने का आदेश दिया । सामने खड़े मुन्ना लाल ने बाबूजी का इशारा समझा और महाप्रबंधक के चरणों में अपना शीश नवा दिया । महाप्रबंधक ने मुन्ना लाल से पूछा कि ‘रोज इतने समय तक नौकरी पर उपस्थित रहते हो ।’ मुन्ना लाल ने भी त्वरित जवाब दिया ‘नहीं साहब, आज आपका दौरा था तो बड़े बाबू ने हम सभी को स्टेशन में दिन भर रहने का आदेश दिया था ।’  ‘तो फिर तुम लोगों को ओव्हर टाइम का पैसा मिलेगा ?’ महाप्रबंधक ने जब यह प्रश्न दागा तो सामूहिक उत्तर मिला ‘हम लोग आपके स्वागत और दर्शन के लिए ड्यूटी पर हैं तो भला ओव्हर टाइम क्यों मांगेंगे ।’ यह सब वार्तालाप महाप्रबंधक को प्रसन्न व प्रभावित  करने पर्याप्त था और उन्होंने स्थल पर ही,  मुन्नालाल  व स्टेशन पोर्टर को पचास-पचास रुपये और बाबूजी व उनकी टीम को सात सौ रुपये नगद पुरस्कार की घोषणा तत्काल कर दी । शाम को अपनी ड्यूटी से निवृत होकर बाबूजी माँ और मैं, अनेक स्टेशन कर्मियों के साथ जागेश्वरनाथ के दर्शन करने गए । शास्त्रीजी ने इस यश को भोलेनाथ का आशीर्वाद एवं चमत्कार  बताते हुए बाबूजी के गले ईश्वर को अर्पित पुष्पमाला पहना दी। दूसरे दिन स्टेशन स्टाफ का भंडारा ‘बड़ी बाई’ की ओर से आयोजित हुआ और माँ ने सबको  भरपूर खीर-पूड़ी स्वयं परोसकर खिलाई ।

इसके बाद तो अक्टूबर 1986 तक मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय से कोई न कोई अधिकारी बांदकपुर  स्टेशन निरीक्षण करने आता और और बाबूजी प्रसंशा पत्र या नगद पुरस्कार से सम्मानित होते रहे। बाबूजी की कर्तव्यपरायणता ने हम सब के लिए आदर्श प्रस्तुत किया । आज भी हम भाई-बहनों और उनके पुत्र-पुत्री जब हतोत्साहित होते हैं, कर्तव्यपथ से विचलित होते हैं तो चितहरा से बांदकपुर तक की उनकी 39 वर्ष की कर्म प्रधान यात्रा के किस्से सुनकर परिवार के लोग उत्साह से भर उठते हैं, कर्म पथ पर चलने की प्रेरणा पाते हैं ।

मेरी आगामी पुस्तक घुमक्कड़ के अध्याय पन्ना और हटा की सुनहरी यादें का एक अंश

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 49 ☆ आसूं छलकने का इंतजार ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘आसूं छलकने का इंतजार। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 49 ☆

☆ आसूं छलकने का इंतजार

जीवन भर दूसरों में गलतियां ढूंढता रहा,

गलतियों में रिश्तों को धुंधला होते देखता रहा ||

जिंदगी रोजाना घटती गयी,

मगर मन हठीला था सब चुपचाप देखता रहा ||

जो गलतियां दूसरों में देखीं,

उनसे ज्यादा खुद में पायी मगर दिल नजरअंदाज करता रहा||

कुछ वो गलत तो कुछ मैं गलत था,

फिर भी अपनी गलतियों को सबसे छुपाता रहा ||

जानता हूँ आपस में प्यार बहुत है,

मगर मजबूरी की जंजीर टूटने का इंतजार करता रहा ||

अफसोस कोई बर्फ नहीं पिघली,

इधर मैं तो उधर वो आसूं छलकने का इंतजार करते रहे ||

पश्चाताप की आग में सब जलते रहे,

मगर आंसू बहाने को मौत तक इंतजार करते रहे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (21-25) ॥ ☆

 

अध्ययन में शास्त्रों औं रण में अरि को पछाड़ देने को ध्यान में रख

विचार शब्दार्थ अबाध गति का ‘रघु ‘ नाम उसका रखा या सार्थक ॥ 21॥

 

सभी गुणों युक्त पिता से पोषित हुआ सुविकसित सुपुष्ट नित वह

उसी तरह जैसे रविकिरण का विधसता जाता है चंद्र रह रह ॥ 22॥

 

ज्यों पार्वती – शिव ने कार्तिकेय श्शची – सुरेश्वर ने पा जयन्त

त्योंही सुदक्षिणा – दिलीप ‘रघु’ पा, प्रसन्नता पा गये अनन्त ॥ 23॥

 

पा पुत्र रघु सा उस दम्पती का चकोर सा प्रेम घटा न कुछ भी

विरूद्ध घटने के, पुत्र को पा, अतीत का प्रेम दिखा बढ़ा ही ॥ 24॥

 

सुन धाय माँ से मधुर – वचन रघु जब तोतलाता था कुछ नकल में

पकड़ के ऊँगली उठाता डग था, सभी को हर्षाता था महल में ॥ 25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 101 ☆ गझल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 101 ?

☆ गझल ☆

 

मिळती मला तुझीही ती पोफळी कदाचित

बसती घडी इथेही मग वेगळी कदाचित

 

काजू रसाळ असती, बागा फळाफुलाच्या

माझ्याच मालकीच्या त्या नारळी कदाचित

 

गोव्यात राहते तर होती धमाल मोठी

दिसली मलाच असती ती मासळी कदाचित

 

जन्मास घातले तू त्या कोकणात देवा

आजोळच्या घराची सय कोवळी कदाचित

 

घाटावरीच होते प्रारब्ध नांदण्याचे

बोरी ब-याच होत्या सल बाभळी कदाचित

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ जाने कहा गये वो दिन.. ☆ संग्राहक – श्री सुनीत मुळे

?इंद्रधनुष्य? 

☆ जाने कहा गये वो दिन.. ☆ संग्राहक – श्री सुनीत मुळे ☆ 

वेळ रात्री नऊ साडेनऊची. घराघरांमधल्या हॉलमधे टिव्ही, मालिकांचे घाणे टाकत असतो. बथ्थड डोक्याच्या मठ्ठ मराठी मालिका.. कपिल शर्माचा कॉमेडी शो, हवा येऊ द्या.. असं काही तरी चाललेलं असतं. माणसं बायकांचं, बायका माणसांचं सोंग घेऊन प्रेक्षकांचं मन रमवण्याचा प्रयत्न करत असतात. ढॅण– ढॅण  करत जाहिराती अंगावर येऊन कोसळत असतात. त्या सगळ्या गचक्यात जेवणं उरकणं चालू असतं. कोणी एकीकडे मोबाईलमधे डोकं खूपसून दूर कोणाशी तरी चॅट करत असतं. त्या नादात ताटात काय चाटतोय त्याचं भान नसतं. हे झालं आताच्या काळातलं चित्र.

 —— साधारण पन्नासएक वर्षांपूर्वी मध्यमवर्गीय घरांमधे रात्रीचं चित्र कसं असायचं बरं?

 ——-सुट्टीत, उन्हाळ्यात किंवा असंच कोणी टूम काढली की तिन्हीसांजेला मुलांची अंगत पंगत व्हायची. आपापल्या घरून ताटं घेऊन मुलं कोणाच्या तरी अंगणात किंवा गच्चीत जमायची. हसत खेळत पाखरांची पंगत उठायची. कधी जेवणानंतर लगेच मामाचं पत्र सुरू व्हायचं. नदी की पहाड… डबा ऐसपैस.. अरिंग मिरिंग लोंगा तिरिंग…गाई गोपी उतरला राजा… भोज्जा…

नऊ साडेनऊ म्हणजे तर झोपायची वेळ असायची.. आठ साडेआठलाच अंथरूणं टाकणे नावाचा कार्यक्रम सुरू व्हायचा. गाद्या घालून झाल्या की मच्छरदाण्या लावणे. पण त्या आधी मुलांच्या कोलांटउड्या व्हायच्या. हा कार्यक्रम साधारणपणे कोणी मोठ्या माणसाने डरकाळी वजा इशारा देईपर्यंत चाले. मग मच्छरदाणी प्रकरण सुरू होई.  मच्छरदाण्यांची ठराविक दोरी ठराविक खिळ्यांनाच बांधावी लागायची. त्यामुळे ज्याचं काम त्यालाच करावं लागायचं. असं कोणीही आलं आणि मच्छरदाणी बांधली असा मामला नसायचा. मच्छरदाणी बांधली की आपलं सगळं सामानसुमान घेऊन मच्छरदाणीत शिरावं लागायचं. मग सारखं आत बाहेर करता यायचं नाही. कारण मग डास आत घुसायचे. तरी झोपण्यापूर्वी एखादा डास शिरलेलाच असायचा. मग प्रत्येक जण आपापल्या मच्छरदाणीत रांगत टाळ्या पिटतोय असं दृष्य दिसायचं. 

पण रात्रीची खरी मजा तर उन्हाळ्यात असायची.. गच्चीवर झोपण्याची. रोडच्या कडेला असलेल्या ओट्यावर पण बिनधास्तपणे झोपायचे लोक. अंगणातही झोपायचे. पण गच्चीवरचा मामला काही औरच. ब-याचदा माळवदाची घरे असत. जिना वगैरे असेलच असंही नसायचं. एखादी मोडकीशी शिडी असायची. मोठाली पोरं अंथरूणं वर न्यायची. बारकाली पोरं त्यांना मदत करायची. मोठी माणसं–महिला वर्ग खालचं कडीकुलपं बघून शेवटाला येत. तोपर्यंत वर अंथरूणं पडलेली असत. कधी पोरं संध्याकाळीच अंथरूणं घालून ठेवत. रात्रीपर्यंत ती गार पडलेली असत. ट्रांझिस्टर्स तेव्हा नवीनच आलेले होते. मग ठराविक स्टेशनं लावली जात. विविध भारतीवर, सिलोनवर जुन्या गाण्यांचा कार्यक्रम,भुले बिसरे गीत, बेलाके फूल वगैरेअसायचे.. रफीचा मधाळ आवाज, ‘खोया खोया चांद’ म्हणत आकाशातल्या चांदला थबकायला भाग पाडायचा. किशोर… सुधा मल्होत्रा, ‘कश्तीका खामोश सफर’ घडवायचे. त्या काळच्या निवेदकांच्या आवाजातही वेगळाच खानदानी ठहराव असायचा..शब्दांची लडिवाळ नाजूक बोटं जणू  झोपेची जादू करताहेत असे त्यांचे निवेदन असायचे.  वातावरणातल्या शांततेचा लहेजा सांभाळून त्यांचं ऩिवेदन चालायचं.. गाणी ऐकता ऐकता कधी निद्रादेवी कवळायची कळायचं पण नाही.

आता रफी, रेडीओ, खोया खोया चांद.. कश्तीका खामोश सफर.. सगळंच खामोशीच्या पडद्याआड गेलं. गच्चीवर झोपणं. अंथरूणं घालणं. तांब्या भांडं, ओडोमॉस घेऊन…  ट्रांझिस्टर घेऊन वर जाणं. आकाशाकडे बघत पूरवैया अनूभवत  रेडिओ ऐकणं, व्याधाचं नक्षत्र शोधणं.. चंद्राच्या डागांमधे ससा-हरीण शोधणं… सगळं वेडगळपणाचं वाटावं इतकं विज्ञानाने लोकांना शहाणं करून सोडलं. 

नवनवीन शोधांनी माणसाची आयुष्याची लांबी वाढली पण त्यातली खोली हरवली.  लोकसंख्या भरभर वाढली.अंगण तेवढंच राहिले आणि त्याचे हकदार वाढले. 

ऐंशीच्या दशकात आधी टिव्ही ने माणसं गिळली. नंतर मोबाईलने.  दोघांनी मिळून मुलांचं तर बालपणच खाऊन टाकलं. सुरुवातीला टिव्हीचा एकच चॅनल होता– तोही संध्याकाळी पाचला सुरू व्हायचा.  पण आख्खा वाडा, बिल्डींग त्याच्यासमोर एकवटायची. तल्लीन व्हायची. आता शेकडो चॅनल्स आले, तरीही मन रमत नाही. रिमोट घेऊन, ‘घे पुढं.. घे मागं’..असं तासभर करावं तरी दर्जेदार म्हणावं असं काही सापडत नाही. सज्जन लोकांऐवजी दुर्जन पात्रांची चलती आली. परोपकारी लोकांना कोणी विचारेनासं झालं आणि ज्याच्या अंगी जास्त उपद्रव- मूल्य त्याला दहशतीपोटी का होईना.. जास्त मान, अशी वेळ आली…सगळ्यांमधे एकप्रकारचं चिंबावलेपण आलं. जुन्या शांत जगरहाटीचा ठहराव सगळा वाहून गेला. 

चटणी भाकरी जाऊन पिझ्झा पास्ता आला. घरी आयाबायांनी निगुतीनं केलेल्या शेवया गेल्या आणि ‘टू मिनिट नुडल्स’ आल्या. दिवाळी दस-याला घर माणसांनी भरायचं. आता प्रत्येकाला नियतीने वेगवेगळ्या खुंटीवर टांगून टाकलं.  पैसा खूप आला, पण सुख समाधान मात्र हरवलं. जाहिरातींनी माणसं हावरट बनवली. शोभेच्या वस्तू… सामानाने घरं भरली..पण कोठीची खोली रिकामी झाली. स्पर्धा, अहंकार ह्यांनी माणुसकी.. जगण्यातला आनंद हिरावून घेतला. चंद्राला भाऊ मानणा-या बायका आणि चंद्राला मामा म्हणणारी पोरं हळू हळू नामशेष झाली. त्याच चंद्रावर आता प्लॉट्सची विक्रीपण सुरू झाली. काळाने सगळ्यांमधली हळवी नाती पुसून टाकली. आणि निव्वळ चौकस चिकित्सक पिढी जन्माला आली. मार्कांच्या शर्यतीत माहितीचा पूर आला.. ज्ञान मात्र कुठे तरी तोंड लपवून बसलं. पैसे कमवायला शिकवणारे कारखाने उभे राहिले,  पण जगणं शिकवणारं कोणी राहिलं नाही..  

यंत्रयुगाने माणसाचा वेळ वाचेल अशी यंत्रे तर दिली,  पण जगण्यातली फुरसतच हरवून गेली——

——–अशा वेळी आपसूकच मनात येतं—- “ दिल ढुंढता.. है.. फिर वही… फुरसतके रातदिन…”

—–ज्या कुणी लिहिलंय –फार सुंदर व वास्तव आहे 

 

संग्राहक – श्री सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

 

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १२ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १२ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

एकोणिसाव्या शतकाच्या मध्यावर उभारलेले सेंट आयझॅक  कॅथेड्रल म्हणजे वास्तुशास्त्र आणि इंजीनियरिंग यांचा अजोड संगम आहे. कास्ट आयर्नच्या मुख्य घुमटाभोवती चार छोटे डोम आहेत. या सर्वांना सोन्याचा मुलामा दिला आहे. त्यासाठी ४०० किलोहून अधिक सोने वापरण्यात आले आहे. बाहेरील भव्य खांबांवर कमळे, सुंदर पुतळे, पुराणकथांची शिल्पे खूप सुंदर आहेत. बसमधून फिरताना शहरातील सुंदर बागा,पॉपलार,ओक,बर्च यांचे भरदार उंच  वृक्ष,  कारंजी, शैक्षणिक संस्था  नाट्यगृहे, लायब्ररी,बॅ॑का यांच्या भव्य इमारतींवरील देखणे पुतळे लक्ष वेधून घेतात.

पहिला पीटर म्हणजे पीटर दि ग्रेट याने १७०२ मध्ये स्वीडनचा पराभव करून नीवा नदीच्या मुखावरील रशियाचा किल्ला परत जिंकून घेतला. नीवा नदी बाल्टिक समुद्राला मिळते. त्यामुळे रशियाचा बाल्टिक समुद्रामधून युरोपीयन देशांशी व्यापार चालू राहिला. आरमारी वर्चस्व कायम राहिले. पीटर दि ग्रेटने  पीटर्सबर्ग या सुंदर शहराचा पाया घातला. कित्येक वर्षं पीटर्सबर्ग हेच राजधानीचे ठिकाण होते. मध्यंतरी काही काळ या शहराला लेनिनग्राड असे संबोधण्यात येत असे. आता पूर्वीचे पीटर्सबर्ग हेच नाव आहे व राजधानी मास्को झाली आहे.

पीटर्सबर्गचे उपनगर असलेल्या पुष्किन या ठिकाणी गेलो. अलेक्झांडर पुष्किन या महान रशियन कवीचे नाव या गावाला दिले आहे. वाटेत प्रेसिडेंट पॅलेस लागला. देशामध्ये आलेल्या राजनैतिक  पाहुण्यांची इथे व्यवस्था करतात.इथेच ‘जी-८’राष्ट्रांची (त्यापैकी एक भारत) परिषद भरली होती.

रशियामध्ये साहित्यिक, कवी, कलावंत यांच्याविषयी नितांत आदर आहे. अलेक्झांडर पुष्किन, टॉलस्टॉय, मॅक्सिम गॉर्की यासारखे दिग्गज साहित्यिक व कवी यांनी उत्तमोत्तम साहित्य निर्मिती केली आहे. ‘वॉर अँड पीस’,अॅना कॅरोनिना, डॉक्टर झिवॅगो, क्राइम अँड पनिशमेंट सारख्या अजरामर साहित्यकृती निर्माण झाल्या. रशियन राज्यक्रांतीनंतर कलावंत, साहित्यिक, विद्वान व कवींना अतोनात छळाला सामोरे जावे  लागले. किंवा देहदंडही झाला. पण साऱ्यांनीच छळ सोसून आपले अभिव्यक्तिस्वातंत्र्य जपले. आज त्यांच्या कलाकृतींना, साहित्याला सन्मानपूर्वक जपले जाते. इथल्या भव्य हिरव्यागार बागेत तळहातावर डोके ठेवलेल्या स्थितीतील पुष्किन यांचा सुंदर पुतळा आहे.

तिथून जवळच  कॅथरीन पॅलेस आहे.मोठमोठ्या हॉलमध्ये सुंदर व भव्य पेंटिंग्ज आहेत.कॅथरीन दी ग्रेटचे  घोड्यावर बसलेले,पुरूषी वेश केलेले पेंटिंग आहे. ग्रीन डायनिंग रूममध्ये पडद्यापासून कटलरी पर्यंत शेवाळी रंगाची सुंदर रंगसंगती साधली आहे तर ब्ल्यू रूममध्ये इंग्लंडच्या फॅक्टरीत तयार झालेले निळे सिरॅमिक्स वापरले आहे. सुवर्ण महालातील जमिनीवरचे डिझाईन व भिंतीवरील डिझाईन एकसारखे आहे. भिंतीवरील, छतावरील भव्य पेंटिंग्ज जिवंत वाटतात. पूर्णाकृती स्त्रिया,बाळे, योद्धे, देवदूत पऱ्या ही सारी शिल्पे लिंडेन या लाकडाचा वापर करून बनवलेली आहेत व त्यावर पूर्ण सोन्याचा मुलामा दिला आहे. दोन डोळ्यांनी पाहू तेवढे थोडेच!

या पॅलेसमधील जगप्रसिद्ध अॅ॑बर (Amber) रूम दुसऱ्या महायुद्धात जर्मन नाझींनी नष्ट करून टाकली होती. १९५७ मध्ये पुनर्निर्माणाचे काम सुरू करण्यात आले. आणि आज अॅ॑बर रूम पूर्वीच्याच दिमाखात, वैभवात उभी आहे.पृथ्वीवरील भूकंप किंवा इतर नैसर्गिक घडामोडीत, जंगलेच्या जंगले गाडली  जातात. अनेकानेक वर्षानंतर ऑरगॅनिक प्रक्रियेमध्ये पृथ्वीच्या पोटात विविध रंगाची अमूल्य रत्ने माणके तयार होतात. अॅ॑बर हे नैसर्गिक बदामी व तपकिरी आणि पिवळट रंगाचे पातळ असे कपचे असतात. ते जोडून अप्रतिम डिझाईन्सच्या भिंती, फोटोफ्रेम, दिव्यांच्या शेडस्, फुलदाण्या बनविण्यात आल्या आहेत. रूममधील नैसर्गिक प्रकाश परिवर्तनाने आपल्याला एका वेगळ्याच जगात गेल्यासारखे वाटते.

भाग ३ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 87 ☆ जब मैं हताश होती हूँ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “जब मैं हताश होती हूँ। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 87 ☆

☆ जब मैं हताश होती हूँ ☆

आज जब सैर करने को अपने बाग़ में निकली

तो दिखाई दिया एक मधुमक्खी का छत्ता

जो कि पड़ा था अकेला, टूटा, हताश, बेबस और उदास…

कहाँ चली गयी थीं सारी मधुमक्खियाँ?

 

कहाँ जा रहे हैं यह सारे इंसान?

 

दिल्ली से एक दोस्त के मरने की खबर आयी है…

उधर छत्तीसगढ़ से एक और दोस्त जा चुका है…

दो प्रयागराज में, एक तेलंगाना में…

क्यों अचानक चले जा रहे हैं सब?

 

क्या होगा उस छत्तीस साल के युवक का

जिसकी पत्नी नौकरी भी नहीं करती थी

और जिसके बच्चे अभी बहुत छोटे हैं?

क्या होगा उस पैंतीस साल की युवती का

जिसके तीन छोटे बच्चे रो-रो कर बिलख रहे हैं?

 

यूँ तो मैं टेलीविज़न बरसों से नहीं देखती…

पर यह सारे दृश्य मन के पटल पर

चले ही जा रहे हैं…

यूँ लग रहा है जैसे शज़र पर से सारी पत्तियाँ

बिना पीले हुए ही गिर जायेंगी!

कल कहा था मैंने कि मैं शमां बनकर राह दिखाऊँगी…

क्या राह दिखाऊँ?

कैसे आस बाँधूँ किसी की?

 

मैं भी गिर जाती हूँ औंधी होकर अपने बिस्तर पर

अकेली, टूटी, हताश, बेबस और उदास…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 97 – कबूतर का कैटवॉक – सुश्री समीक्षा तैलंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री समीक्षा तैलंग जी की पुस्तक “कबूतर का कैटवॉक” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 97 – कबूतर का कैटवॉक – सुश्री समीक्षा तैलंग  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

चर्चित कृति .. कबूतर का कैटवॉक

संस्मरण लेखिका- सुश्री समीक्षा तैलंग

प्रकाशक- भावना प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य – २०० रु

पृष्ठ – ‍१२८

पर्यटन  साहित्य का जनक होता है क्योंकि जब लेखक भौतिक यात्रा करता होता है तो प्रकृति, परिवेश से प्रभावित उसका मन भी वैचारिक यात्रा पर निकल पड़ता है. लेखक इन अनुभवों को जाने अनजाने अंतस में संजोंता रहता है. कविता, कहानी, रचनाओ में लेखक मन की यह पूंजी जब तब छलकती ही रहती है. किंतु पर्यटन साहित्य व संस्मरण वे विधायें हैं जो स्पष्टतः रचनाकार के मन के दर्शन और उसकी इन अनुभूतियों की आध्यात्मिकता को पाठको के सम्मुख वैचारिक स्वरूप में शब्द चित्रो के जरिये अभिव्यक्त करती हैं. समीक्षा तैलंग हिन्दी पत्रकारिता से प्रारंभ कर, व्यंग्य संग्रह “जीभ अनशन पर है”  के माध्यम से हिन्दी पाठको तक सक्षम रूप से पहुंच चुकीं हैं, उनका यह प्रथम व्यंग्य संग्रह ही लेखिका संघ के भव्य मंच पर समादृत हो चुका है. यह लिखने का आशय मात्र इतना है कि समीक्षा जी को मेरे जैसे पाठक गहन रुचि तथा गंभीरता से पढ़ते हैं.

चर्चित कृति  कबूतर का कैटवॉक, उनके २५ से अधिक रोचक संस्मरणो का पठनीय संग्रह है. अनूप शुक्ल जिन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने संस्मरण लेखन हेतु पुरस्कृत किया है, ने इस संग्ह की भूमिका ” गैर इरादतन घुमक्कड़ी के किस्सों की दास्तान ” लिखी है. समीक्षा जी दुबई में लंबे समय तक रहीं हैं, परदेश में रहते हुये उनकी छोटी बड़ी यात्राओ से उपजे वैचारिक सचित्र आलेख किताब में हैं. संस्मरण “कबूतर का कैटवाक” किताब का शीर्षक संस्मरण है, अतः सबसे पहले वही पढ़ा वे लिखती हैं ” मुझे तो पत्थरों में भी सौंदर्य दिखता है ” उनकी यही दृष्टि और लिखने की यह दार्शनिक शैली जिसमें वे लिखती हैं

” हम सब बड़ी सुंदरता, बड़ी उपलब्धि, बड़ी खुशी, बड़ी उम्मीदें लेकर भागते हैं. बड़े का वजन हमें छोटी छोटी बातों को फील करने से रोकता है. ” पुस्तक को पठनीय बनाती है.  शुक्रवारी यात्रा पर कई  संस्मरण हैं, दरअसल व्यस्त सप्ताह में छुट्टी के दिन ही परिवार के संग लुत्फ के होते हैं और उल्लेखनीय है कि अबूधाबी में साप्ताहिक अवकाश शुक्रवार का होता है. इन दिनों लेखिका पुणे में रहती हैं और कुछ आलेख पुणे के भी हैं, जैसे लोनावाला के डैम पर केंद्रित उनकी रचना जो कोरोना काल में लिखी गई है. पर्यटन स्थलो की साफ सफाई व सार्वजनिक स्वच्छता के प्रति हम सब की जबाबदारी पर वे लिखती हैं

” वहाँ चट्टानो के बीच लोगों ने गजब की गंदगी छोड़ रखी है, टूरिस्ट अपना कचरा वहीं छोड़ चलते बने थे, बच्चों के डायपर, प्लास्टिक की बोतलें, जगह जगह गिरे हुये मास्क, खाने के सामान के खाली पैकेट्स सब वहीं फेंक दिये थे….. जिम्मेदारी किसी को नहीं चाहिये, फिर कहो कि विदेश कितना साफ सु्थरा है. ” यह उनके अंतरमन की राष्ट्रीय कर्तव्यो के प्रति जन लापारवाही की पीड़ा है.  यायावरी के उनके रोचक किस्से ’कबूतर का कैटवॉक’ में प्रवाहमयी भाषा में लिखे गये हैं. पुस्तक जरूर पढ़िये, किताब अमेजन पर सुलभ है.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 93 – लघुकथा – बिखरे मोती ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक लघुकथा  “बिखरे मोती। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 93 ☆

 ? लघुकथा – बिखरे मोती ?

सरला के कम पढ़े लिखे होने को लेकर लगातार ससुराल में बात होती थीं। घर में कलह का कारण बन चुका था। सभी कार्य में निपुण सरला अपनी परिस्थिति, मॉं-पिता जी की कमाई की वजह से पढ़ाई नहीं कर सकी जिसका उसे बेहद अफसोस होता था।

शादी अच्छे घर में हुई। पति मनोज अच्छी कंपनी में कार्य करते थे। परंतु पत्नी के कम पढ़े लिखे को वह अपनी कमजोरी और गिल्टी महसूस करते थे। इसी वजह से सरला ने घर से जाने का फैसला कर लिया और अपने घर आकर बुटीक का काम सीखकर एक अच्छे से मार्केट में दुकान डाल दी।

देखते-देखते दुकान चल निकली। अब उसके बुटीक पर लगभग दस महिलाएं काम करती थी। सरला सभी को बहुत प्यार से रखती थी। और सभी की मजबूरी समझती थी।

आज सुबह दुकान खुली तो एक दफ्तर से बहुत सारे डिजाइनर कुर्तों के डिमांड आए । सरला उसी को पूरा करने के लिए लग गई। देखते-देखते दिन भर में उसकी सखियों ने मिलकर सभी आर्डर के कुर्ते जो दफ्तर के थे तैयार कर दिए। रात होते-होते उसको देना था क्योंकि सुबह उस दफ्तर में कार्यक्रम होना था।

काम निपटा सभी चाय पी रहे थे। उसी समय चमचमाती कार से जो सज्जन उतरे उसको देख सरला ठिठक सी गई पर सहज होते हुए बोली:-” आइए आपका ऑर्डर सब तैयार है।” मनोज सरला का पति विश्वास नहीं कर पा रहा था कि उसकी सरला आज इस मुकाम पर है।

वह रसीद ले रुपए देकर धीरे से सरला के पास आकर कहने लगा – “सरला तुमने सुई धागा से बहुत कुछ संजो लिए हैं। मेरे घर में तो सभी मोती बिखर गए हैं। यदि मुझे माफ कर सको तो सुई धागा बन मेरे बिखरे मोती को एक बार फिर से समेट लो।”

सरला अवाक होकर उसे देखती रही। मनोज ने कहा:-” मैं इंतजार करूंगा और मुस्कुराता हुआ निकल गया। “

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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