हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#53 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #53 –  दोहे ✍

दोहों के दरबार में ,हाजिर दोहा कार ।

सिंधु सभ्यता सीप में ,दोहों में संसार।।

 

दोहा,दूहा,दोहरा, संबोधन के नाम।

वामन काया में छिपा, याद रंग अभिराम।।

 

खुसरो ने दोहे कहे ,कहे कबीर कमाल।

फिर तुलसी ने खोल दी ,दोहों की टकसाल।।

 

गंग, वृंद, दादू ,वली, या रहीम मतिराम ।

दोहो की रसलीन से कितने हुए इमाम।।

 

दोहे हम भी रच रहे, कविवर हुए अनेक।

 किंतु बिहारी की छटा – घटा न पाया एक।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 52 – बहुत दिनों तक …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “बहुत दिनों तक …। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 52 ☆।। अभिनव गीत ।।

☆ बहुत दिनों तक …  ☆

 

बहुत दिनों तक तुम्हें

याद कर रोया सारी रात

बहुत दिनों तक तुम्हें

मनाने कर न पाया बात

 

बहुत दिनों तक छिपी

रह गई अन्तर की पीड़ा

बहुत दिनों तक तुमसे

मिलने हाथ लिया बीड़ा

 

बहुत दिनों तक छिपा

न पाया मनकी मधुर उड़ान

बहुत दिनों तक सुनी

बायलिन पर वह छेड़ी तान

 

बहुत दिनों तक घर के

बाहर रखा दिया हर रोज

बहुत दिनों तक मन ही

मन में खाया छक कर भोज

 

बहुत दिनों तक आसमान

में देखा किया उजास

बहुत दिनों तक मैं पतंग सा

उड़ा किया सायास

 

बहुत दिनों तक टुकडा-

टुकडा जोड़ा है आकार

बहुत दिनों तक उसे सँवारा

चिन्तन कर हर बार

 

बहुत दिनों तक मिल न

पायी रोटी की सुविधा

बहुत दिनों तक रही

अटकती राशन की दुविधा

 

बहुत दिनों तक फटेहाल

दफ्तर को कदम चले

बहुत दिनों तक चेतावनियों

के उपहार मिले

 

बहुत दिनों तक मिली

हिदायत सूरत को बदलूँ

बहुत दिनों तक चर्चा थी

साहब से कहीं मिलूँ

 

बहुत दिनों तक दफ्तर के

अवसादयुक्त ताने

बहुत दिनों तक झेला

दुख को जाने अनजाने

 

बहुत दिनों तक रही

अमावस घर के चारों ओर

बहुत दिनों तक नहीं

दिखाई दी पैसों की कोर

 

बहुत दिनों तक मित्र मंडली

बनी अपरिचित किन्तु

बहुत दिनों तक नहीं किसी

से माँगा कभी परन्तु

 

बहुत दिनों तक बकरी

बन कर खुद पकड़ाये कान

बहुत दिनों तक धीरज का

करता आया आव्हान

 

बहुत दिनों तक एक किरन

आशा की नहीं मिली

बहुत दिनों तक जिसकी

खातिर भटका गली-गली

 

बहुत दिनों तक उस

समाज में जिसमें जनम लिया

बहुत दिनों तक गया

सताया बिगड़ गया हुलिया

 

बहुत दिनों तक आरोपित

हो सहता रहा दबाव

बहुत दिनों तक खूब

लुटाया माल और असबाव

 

बहुत दिनों तक याद

करूँगा काटूँगा दिन रात

बहुत दिनों तकसमझाऊँगा

अपने मनकी बात

 

बहुत दिनों तक यही

समझने खुदसे पूछा हूँ

बहुत दिनों तक करी

नौकरी फिरभी छूँछा हूँ

 

बहुत दिनोंतक असमंजस

में खोजा जगह- जगह

बहुत दिनों तक मिला

न उत्तर खाली रही सुबह

 

बहुत दिनों तक द्वार तुम्हारे

शीश झुकाया है

बहुत दिनों तक कविताओं

में तुमको गाया है

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-08-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 99 ☆ जीवन मन्त्र ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता जीवन मंत्र)  

☆ कविता # 99 ☆ जीवन मन्त्र ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अपने से ऊपर

वालों को देखो

तो लगता है,

कुछ भी नही है

हमारे पास……

 

अपने से नीचे

वालों को देखो

तो लगता है,

बहुत कुछ है

हमारे पास……

 

ज़िन्दगी में जो

मिला हैउससे

कभी न हों,

उदास क्योंकि…

 

खुदा ने हमारे

लिए वही चुना

है जो हमारे लिए

है बहुत खास….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #43 ☆ बीत गया सावन ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है रक्षाबंधन पर्व पर विशेष कविता “# बीत गया सावन #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 43 ☆

☆ # बीत गया सावन  # ☆ 

 

वो रेशमी फुहारें

वो मनमोहक नजारें

लगते थे कितने पावन

इस वर्ष-

ना झूले लगे हैं

ना मेले सजे हैं

कितना फीका फीका

बीत गया सावन

 

ना मेहंदी रचे हाथ है

ना सखियों  का साथ है

फूल भी मुरझा गये

भंवरे भी उदास है

उम्मीदें भी टूट गई

ना उम्मीदों भरा है दामन

बीत गया सावन

 

अमराई में कोयल भी

अब कूकती नहीं है

सावन की रिमझिम लड़ी भी

अब लगती नहीं है

कशमकश में डूबा है

भीगा भीगा तन-मन

बीत गया सावन

 

शब्द निरर्थक हो गये है

गीत अपना अर्थ खो गये है

“रिश्ते” बाजार में बिक रहे हैं

“सच” कितने लोग लिख रहे है

“अक्श” धुंधला गये है

“श्याम” दरक रहे है दर्पण

बीत गया सावन /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 45 ☆ गोकूळ अष्टमी निमित्त – अभंग… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 45 ☆ 

☆ गोकूळ अष्टमी निमित्त – अभंग… ☆

आखीव रेखीव, रूप मनोहर

निर्मळ सुंदर, कृष्ण माझा…!!

 

राजस वेल्हाळ, सुकुमार देवा

मोहक बरवा, कृष्णनाथ…!!

 

द्वापार-युगात, शेवट चरण

धर्माचे रक्षण, शुद्ध हेतू…!!

 

द्रौपदी बहीण, करितो रक्षण

आम्हा हे भूषण, सदोदित…!!

 

कवी राज चिंती, कृष्णप्रेम सदा

न येवो आपदा, आयुष्यात…!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #102 ☆ व्यंग्य – जाति पाति पूछै नहिं….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘जाति पाति पूछै नहिं…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 102 ☆

☆ व्यंग्य – जाति पाति पूछै नहिं…..

बाज़ार में अफरातफरी थी। हिम्मतलाल एण्ड संस के प्रतिष्ठान पर टैक्स वालों का छापा पड़ा था। कौन से टैक्स वाले थे यह ठीक से पता नहीं चला। दल के पाँच छः कर्मचारी दूकान के खातों को खंगालने और माल को उलटने पलटने में लगे थे और उनके इंस्पेक्टर साहब गंभीर मुदा बनाये कुर्सी पर जमे थे। प्रतिष्ठान के मालिक हिम्मतलाल हड़बड़ाये इधर उधर घूम रहे थे। बीच बीच में दूकान के दरवाज़े पर आकर लम्बी साँस खींचते थे जैसे मछली पानी की सतह पर आकर ऑक्सीजन लेती है, फिर वापस दूकान में घुस जाते थे। उन्होंने उम्मीद की थी कि आसपास की दूकानों वाले उनसे हमदर्दी दिखाने आयेंगे, लेकिन सब तरफ सन्नाटा था। लगता था सबको अपनी अपनी पड़ी थी, कि अगला नंबर किसका होगा?

थोड़ी देर में हिम्मतलाल जी के निर्देश पर दो लड़के नाश्ते का सामान टेबिल पर सजा गये। हिम्मतलाल इंस्पेक्टर साहब से विनम्रता से बोले, ‘थोड़ा मुँह जुठार लिया जाए। इस बाजार के समोसे पूरे शहर में मशहूर हैं। सबेरे से लाइन लगती है।’

इंस्पेक्टर साहब भारी, मनहूस मुद्रा से बोले, ‘हम नाश्ता करके आये हैं। हमें अपना काम करने दीजिए। डिस्टर्ब मत कीजिए।’

हिम्मतलाल सिकुड़ गये। समझ गये कि आदमी टेढ़ा है,मामला आसानी से नहीं निपटेगा।

हिम्मतलाल बीच बीच में शुभचिन्तकों को फोन कर रहे थे, शायद कहीं से कोई मदद मिल जाए। एक फोन सुनते सुनते उनके चेहरे पर प्रसन्नता का भाव आ गया। बात करने वाले से खुश होकर बोले, ‘वाह,यह बढ़िया जानकारी दी। हमें मालूम नहीं था। थैंक यू।’

हिम्मतलाल इंस्पेक्टर के सामने पहुँचे और ताली मारकर हँसते हँसते दुहरे हो गये। इंस्पेक्टर साहब ताज्जुब से उनकी तरफ देखने लगे। हिम्मतलाल हँसी रोककर बोले, ‘लीजिए, हमें पता ही नहीं था कि आप हमारी बिरादरी के हैं। अभी अभी पता चला तो हमें बहुत खुशी हुई। अपनी बिरादरी का आदमी बड़ी पोस्ट पर बैठे तो पूरी बिरादरी का सर ऊँचा हो जाता है। हम अपनी बिरादरी की तरफ से आपका सम्मान करेंगे।’

इंस्पेक्टर साहब का चेहरा थोड़ा ढीला हुआ और फिर पहले जैसा भावशून्य हो गया। बुदबुदा कर बोले, ‘ठीक है। हम यहाँ बिरादरी और रिश्तेदारी ढूँढ़ने नहीं आये हैं। आपके खातों में बहुत गड़बड़ी निकल रही है। हमें अपना काम करने दीजिए।’

हिम्मतलाल का मुँह उतर गया। समझ गये कि मुसीबत इतनी आसानी  से नहीं टलेगी। मायूस से एक तरफ बैठ गये। थोड़ी देर में उठे, अलमारी से कुछ नोट गिन कर खीसे में रखे और जाँच में लगे एक कर्मचारी के पास पहुँचे जो बार बार काम रोककर रहस्यमय ढंग से उनकी तरफ देख रहा था। खीसे से नोट निकालकर बोले, ‘भैया, ये हमारी तरफ से साहब तक पहुँचा दो। उनका चेहरा देख कर हमारी तो हिम्मत नहीं पड़ रही है।’

कर्मचारी ने धीरे से पूछा, ‘कितने हैं?’

हिम्मतलाल बोले, ‘दस हैं, दस हजार।’

कर्मचारी मुँह बनाकर बोला, ‘इतने तो अकेले साहब को लग जाएंगे। फिर हम लोगों का क्या होगा?साहब दस से कम को उठा कर फेंक देते हैं। राजा तबियत के आदमी हैं।’

सुनकर हिम्मतलाल का चेहरा लटक गया। पूछा, ‘तो कितना कर दें?’

जवाब मिला, ‘बीस और कर दीजिए। इससे कम में काम नहीं होगा।’

हिम्मतलाल ने माँगी गयी रकम अर्पित की और फिर निढाल होकर कुर्सी पर बैठ गये।

कर्मचारी ने इंस्पेक्टर साहब को कुछ इशारा किया और तत्काल साहब का रुख बदल गया। वे कुर्सी पर पाँव फैलाकर,ढीले होकर बैठ गये और उनके मुख पर दिव्य मुस्कान खेलने लगी। वे एकदम खुशदिल, मानवीय और कृपालु दिखने लगे।

एकाएक उन्होंने हिम्मतलाल को आवाज़ लगायी, ‘हिम्मतलाल जी, आपने नाश्ता मँगवाया था?कहाँ है?कुछ भूख लग रही है।’

हिम्मतलाल जैसे सोते से जागे। तुरन्त नाश्ता पेश किया।

नाश्ता करके साहब प्रेमपूर्ण स्वर में हिम्मतलाल से बोले, ‘आप कुछ बिरादरी की बात कर रहे थे। आप हमारी बिरादरी के हैं क्या?’

हिम्मतलाल उखड़े उखड़े से बोले, ‘हाँ सर, मेरे एक जान पहचान वाले ने बताया था। उसके बारे में कभी आपके पास आकर बात करूँगा। अभी तबियत कुछ गड़बड़ लग रही है। आपकी जाँच पूरी हो गयी हो तो घर जाकर आराम करूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 100 ☆ ‘संजय’ की नियति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  100वीं  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

? चरैवेति-चरैवेति ? 

‘संजय उवाच’ ने जब मानसपटल से काग़ज़ पर उतरना आरम्भ किया तो कब सोचा था कि यात्रा पग-पग चलते शतकीय कड़ी तक आ पहुँचेगी। आज वेब पोर्टल ‘ई-अभिव्यक्ति’ में संजय उवाच की यह 100वीं कड़ी है

किसी भी स्तंभकार के लिए यह विनम्र उपलब्धि है। इस उपलब्धि का बड़ा श्रेय आपको है। आपके सहयोग एवं आत्मीय भाव ने उवाच की निरंतरता बनाये रखी। हृदय से आपको धन्यवाद।

साथ ही धन्यवाद अपने पाठकों का जिन्होंने स्तंभ को अपना स्नेह दिया। पाठकों से निरंतर प्राप्त होती प्रतिक्रियाओं ने लेखनी को सदा प्रवहमान रखा।

आप सबके प्रेम के प्रति नतमस्तक रहते हुए प्रयास रहेगा कि ‘संजय उवाच’ सुधी पाठकों की आकांक्षाओं पर इसी तरह खरा उतरता रहे।

(विशेष- संगम-सा त्रिगुणी योग यह कि आज ही बंगलूरू और चेन्नई के प्रमुख हिंदी दैनिक ‘दक्षिण भारत राष्ट्रमत’ में उवाच की 65वीं और भिवानी, हरियाणा के लोकप्रिय दैनिक ‘चेतना’ में 50वीं कड़ी प्रकाशित हुई है।)

संजय भारद्वाज

☆ संजय उवाच # 100 ☆ ‘संजय’ की नियति ☆

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

श्रीमद्भगवद्गीता के उपरोक्त प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, “धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?”

इस प्रश्न के उत्तर से आरम्भ हुआ संजय उवाच ! वस्तुत: धृतराष्ट्र द्वारा पूछे इस प्रश्न से पूर्व भी महाभारत था, धृतराष्ट्र और संजय भी थे। जिज्ञासुओं को लगता होगा कि महाभारत तो एक बार ही हुआ था, धृतराष्ट्र एक ही था और संजय भी एक ही। चिंतन कहता है, भीतर जब कभी महाभारत उठा है, अनादि काल से मनुष्य के अंदर बसा धृतराष्ट्र, भीतर के संजय से यही प्रश्न करता रहा है।

वस्तुत: अनादि से लेकर संप्रति, स्थूल और सूक्ष्म जगत में जो कुछ घट रहा है, उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम भर है संजय उवाच।

महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र रूपी स्वार्थांधता को उसके कर्मों का परिणाम दिखाने हेतु संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। संजय की आँखों की दिव्यता, विपरीत ध्रुवों के एक स्थान पर स्थित होने की अद्भुत बानगी है। उसकी दिव्यता में जब जिसे अपना पक्ष उजला दिखता है, वह कुछ समय उसका मित्र हो जाता है। दिव्यता में जिसका स्याह पक्ष उजाले में आता है, वह शत्रु हो जाता है। उसकी दिव्यता उसका वरदान है, उसकी दिव्यता उसका अभिशाप है। उसका वरदान उसे अर्जुन के बाद ऐसा महामानव बनाता है जिसने साक्षात योगेश्वर से गीताज्ञान का श्रवण किया। मनुज देह में संजय ऐसा सौभाग्यशाली हुआ, जो पार्थ के अलावा पार्थसारथी के विराट रूप का दर्शन कर सका। उसका अभिशाप उसे अभिमन्यु के निर्मम वध का परोक्ष साक्षी बनाता है और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों की हत्या देखने को विवश करता है। दिव्य दृष्टि के शिकार संजय की स्थिति कुछ वर्ष पूर्व कविता में अवतरित हुई थी..,

 

दिव्य दृष्टि की

विकरालता का भक्ष्य हूँ,

शब्दांकित करने

अपने समय को विवश हूँ,

भूत और भविष्य

मेरी पुतलियों में

पढ़ने आता है काल,

गुणातीत वरद अवध्य हूँ

कालातीत अभिशप्त हूँ!

 

संजय की भूमिका यूँ देखें तो सबसे सरल है, संजय की भूमिका यूँ देखें तो सबसे जटिल है। असत्य के झंझावात में सत्य का तिनका थामे रहना, सत्य कहना, सत्य का होना, सत्य पर टिके रहना सबसे कठिन और जटिल है। बहुत मूल्य चुकाना पड़ता है, सर्वस्व होम करना पड़ता है। संजय सारथी है। समय के रथ पर आसीन सत्य का सारथी।

आँखों दिखते सत्य से दूर नहीं भाग सकता संजय। जैसा घटता है, वैसा दिखाता है संजय। जो दिखता है, वही लिखता है संजय। निरपेक्षता उसकी नीति है और नियति भी।

महर्षि वेदव्यास ने समय को प्रकाशित करने हेतु शाश्वत आलोकित सत्य को चुना, संजय को चुना। संकेत स्पष्ट है। अंतस में वेदव्यास जागृत करो, दृष्टि में ‘संजय’ जन्म लेगा। तब तुम्हें किसी संजय और ‘संजय उवाच’ की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यही संजय उवाच का उद्देश्य है और निर्दिष्ट भी।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 55 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 54 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 55) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 55 ☆

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परिंदे  शुक्रगुजार  हैं

पतझड़ के भी , दोस्तों

तिनके कहाँ  से  लाते,

अगर सदा, बहार रहती…

 

Birds are grateful to

the autumn too,

Where else from would

they bring straws,

if spring remained

there  forever…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दिखाई कब दिया करते हैं

बुनियाद के पत्थर…

जमीं में जो दब गए, इमारत

उन्हीं पे तो क़ायम है…

 

When have the foundation

stones ever been seen…

Buried in the ground, they

only hold the building…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

नए  रिश्ते  बने  ना  बनें

इसका मलाल मत करना

कहीं पुराने  टूट ना जाएँ

बस इसका ख़्याल रखना…

 

Don’t regret whether new

relations are made or not

Just  make  sure  that

old ones aren’t broken!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

होगी तुमको लाख

समझ  इश्क़  की,

हमारी  इश्क़  में

नादानी ही अच्छी…

 

You may have a deep

understanding of love,

But my imprudence in

love, only is all fine..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 56 ☆ गीत सलिला:  तुमको देखा ..… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  रचित  ‘गीत सलिला:  तुमको देखा ..। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 56 ☆ 

☆ गीत सलिला:  तुमको देखा .. ☆ 

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

चंचल चितवन मृगया करती

मीठी वाणी थकन मिटाती।

रूप माधुरी मन ललचाकर –

संतों से वैराग छुड़ाती।

खोटा सिक्का

दरस-परस पा

खरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

उषा गाल पर, माथे सूरज

अधर कमल-दल, रद मणि-मुक्ता।

चिबुक चंदनी, व्याल केश-लट

शारद-रमा-उमा संयुक्ता।

ध्यान किया तो

रीता मन-घट

भरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

सदा सुहागन, तुलसी चौरा

बिना तुम्हारे आँगन सूना।

तुम जितना हो मुझे सुमिरतीं

तुम्हें सुमिरता है मन दूना।

साथ तुम्हारे गगन

हुआ मन, दूर हुईं तो

धरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #85 ☆ जलो दिए सा…. ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण रचना  “जलो दिए सा….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 85 ☆ जलो दिए सा …. ☆

यदि जलना है जलो दिए सा,

    दिल की तरह कभी मत जलना।

चलना है तो चलो पथिक सा,

        तूफानों सा कभी न चलना।

दीप का जलना राह दिखाता,

      जग में प्रकाश  वो फैलाता है।

 दिल का जलना दुख देता,

   बर्बाद सभी को कर जाता है।।1।।

 

 पथिक का चलना तो राही को,

    उसकी मंजिल तक पहुंचाता है।

पर तूफानों का चलना तो,

      ग़म औ पीड़ा को दे जाता है।

अगर बरसना चाह रहे हो,

     बूंदें बन कर बरसों तुम।

 अपने नफ़रत का लावा,

     इस जग में कभी न फैलाना।।2।।

 

बूंदों का बरसना तो जग में,

      हरियाली खुशहाली लाता है।

नफ़रत का फूटता लावा तो,

    सारी खुशियां झुलसाता है।

यदि बनना है तो बीर बनों,

     निर्बल की रक्षा करने को।

अपनी ताकत का करो प्रदर्शन,

       जग की पीड़ा हरने को।।3।।

 

धोखेबाजी मक्कारी से,

    कायरता का प्रदर्शन मत करना।

 परमार्थ की राहों पे चलना,

       मरने से कभी न तुम डरना।

 परमार्थ की राह पे चलते चलते,

 इतिहास नया इक लिख जाओगे।

सारे जग की श्रद्धा का,

 केंद्र ‌बिंदु तुम बन जाओगे।।4।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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